सूक्ष्मजीवों की मेहरबानी है चॉकलेटी स्वाद

च्चे ही नहीं हर उम्र के लोग चॉकलेट के शौकीन होते हैं। लेकिन शायद ही इसके शौकीनों को यह मालूम होता है कि चॉकलेट में यह स्वाद किण्वन के कारण आता है, जिसे सूक्ष्मजीव अंजाम देते हैं।

पेरू से लेकर बेल्जियम तक दुनिया भर की तमाम चॉकलेट प्रयोगशालाओं के स्व-घोषित चॉकलेट विज्ञानी यह समझने की कोशिश में हैं कि किण्वन चॉकलेट के स्वाद को कैसे बदलता है। इसके लिए कभी वे प्रयोगशाला में कृत्रिम किण्वन करते हैं, तो कभी प्रकृति में किण्वित ककाओ बीन के नमूनों का अध्ययन करते हैं। और प्रयोगशाला में चॉकलेट के कई नमूने तैयार कर वालंटियर्स से उनका स्वाद पूछते हैं।

इस तरह कई दशकों के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने ककाओ के किण्वन के बारे में बारीकी से जानकारी हासिल की है, और इस किण्वन में शामिल और चॉकलेट का स्वाद और गुणवत्ता बढ़ाने वाले सूक्ष्मजीवों के बारे में पता लगाया है।

चॉकलेट जिन बीजों से बनकर तैयार होती है उसके रग्बी फुटबॉल नुमा फल थियोब्राोमा ककाओ (Theobroma cacao) नामक पेड़ के तने पर लगते हैं। पेड़ों से तोड़कर इन चमकीले रंग के फलों को खोलकर अंदर से उनका गूदा और बीज निकाल कर अलग कर लिए जाते हैं। बीजों को बीन्स कहते हैं। इसके बाद उपचार के चरण में बीन्स को तीन से 10 दिन तक किण्वन के लिए छोड़ा जाता है। किण्वन होने के बाद इन्हें धूप में सुखाया जाता है और सूखे हुए बीन्स को भुना जाता है। इन्हें चीनी और कभी-कभी सूखे दूध के साथ इतना महीन होने तक पीसा जाता है कि मुंह में रखने पर दोनों के कण अलग-अलग महसूस न हों। इस रूप में आने के बाद यह मिश्रण चॉकलेट बार, चॉकलेट चिप्स या अन्य किसी भी रूप में चॉकलेट के उत्पाद बनाने के लिए तैयार होता है।

उपचार के चरण में बीन्स में कुदरती रूप से किण्वन होता है। वास्तव में चॉकलेट के स्वाद के लिए सैकड़ों तरह के यौगिक ज़िम्मेदार होते हैं, इनमें से कई यौगिक किण्वन की प्रक्रिया के दौरान ही बनते हैं और बेस्वाद बीन्स को चॉकलेटी स्वाद देते हैं।

ककाओ का किण्वन कई चरणों में होता है। किण्वन के लिए खमीर का उपयोग किया जाता है, इसमें कई बार बीयर और वाइन के किण्वन के लिए उपयोग किए जाने वाले खमीर का भी उपयोग किया जाता है। ककाओ के किण्वन के दौरान खमीर बीन्स से चिपके शर्करा पल्प को पचाकर एल्कोहल का निर्माण करते हैं। नतीजतन स्वाद प्रदान करने वाले एस्टर और फूल की खुशबू वाले एल्कोहल बनते हैं, जो ककाओ बीन्स द्वारा सोख लिए जाते हैं और अंत तक चॉकलेट में मौजूद रहते हैं।

जब बीन्स से चिपका गूदा विघटित होने लगता है तो उसमें ऑक्सीजन प्रवेश करती है। ऑक्सीजन के प्रवेश करने पर वहां ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया की संख्या बढ़ने लगती है और खमीर की आबादी में कमी आने लगती है। इन ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया को एसिटिक एसिड बैक्टीरिया के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये खमीर द्वारा बनाए गए एल्कोहल को एसिटिक एसिड में परिवर्तित करते हैं।

बैक्टीरिया द्वारा बनाया गया यह एसिड भी बीन्स द्वारा सोख लिया जाता है, जो बीजों में जैव-रासायनिक परिवर्तन लाता है। इसकी वजह से वसा एकत्रित होने लगती है। कुछ एंज़ाइम प्रोटीन को छोटे-छोटे पेप्टाइड्स में तोड़ देते हैं, जो भुनने के दौरान ‘चॉकलेटी’ महक देते हैं। कुछ अन्य एंज़ाइम ऑक्सीकरण-रोधी पोलीफेनॉल, जिसके लिए चॉकलेट प्रसिद्ध है, को तोड़ देते हैं। नतीजतन, इसकी खासियत के विपरीत, अधिकांश चॉकलेट में बहुत कम पोलीफेनॉल्स होते हैं, किसी-किसी चॉकलेट में तो पोलीफेनॉल्स होते ही नहीं।

एसिटिक एसिड बैक्टीरिया द्वारा रोक दी गई प्रक्रियाओं के कारण चॉकलेट के स्वाद पर बड़ा असर पड़ता है। इन एसिड के कारण ही अत्यंत कड़वे, गहरे बैंगनी रंग के पोलीफेनॉल अणु मद्धम स्वाद वाले, भूरे रंग के ओ-क्विनोन रसायन में बदलते हैं। और इसी जगह आकर ककाओ बीन्स कड़वे स्वाद से एक समृद्ध और चॉकलेटी स्वाद में आ जाते हैं। स्वाद के साथ-साथ रंग में भी परिवर्तन आता है और लाल-बैंगनी रंग के बीन्स भूरे रंग के हो जाते हैं, यानी चॉकलेट यहां अपना रंग पाती है। अंत में, एसिड धीरे-धीरे वाष्पित हो जाते हैं और शर्करा उपयोग हो जाती है। फिर अन्य सूक्ष्मजीव जैसे कवक और बेसिलस बैक्टीरिया अपना काम शुरू करते हैं।

चॉकलेट बनने में सूक्ष्मजीव जितने अहम होते हैं, कभी-कभी वे चॉकलेट का उतना ही नाश भी कर डालते हैं। बेसिलस बैक्टीरिया की संख्या में अत्यधिक वृद्धि चॉकलेट को बासा और बेकार स्वाद देती है।

ककाओ के किण्वन के लिए किसान प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों पर निर्भर होते हैं ताकि चॉकलेट को अपना अनूठा और स्थानीय स्वाद मिले। इसे ‘टेरोइर’ कहा जाता है: यानी किसी स्थान के कारण आने वाली विशेषता या स्वाद। ठीक अंगूर के किण्वन की तरह, ककाओ के मामले में भी स्थानीय सूक्ष्मजीव किसान के अपने अनूठे तरीके के साथ मिलकर चॉकलेट को स्थानीय विशेषता और भिन्न स्वाद प्रदान करते हैं।

यदि आप चॉकलेट के इतने अलग-अलग स्वादों से महरूम हैं तो कभी इनका भी आंनद लीजिए और सूक्ष्मजीवों की इस मेहनत को भी दाद दीजिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके से जुड़े झूठे प्रचार को रोकने की पहल

हाल ही में ट्विटर ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म से ऐसे अकाउंट्स को निलंबित या बंद कर दिया है जो नियमित रूप से कोविड-19 टीकों से जुड़ी भ्रामक जानकारी फैला रहे थे। इसी तरह की एक पहल के तहत अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोविड-19 टीके के बारे में भ्रामक जानकारियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है।

कुछ सर्वेक्षणों से पता चला है भ्रामक खबरों के परिणामस्वरूप अमेरिका की 20 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या टीकाकरण के विरोध में है। शोधकर्ता सोशल मीडिया पर टीके से सम्बंधित गलत सूचनाओं को ट्रैक करने और भ्रामक सूचनाओं, राजनैतिक बयानबाज़ी और जन नीतियों से टीकाकरण पर पड़ने वाले प्रभावों का डैटा एकत्र कर रहे हैं। इन भ्रामक सूचनाओं में षड्यंत्र सिद्धांत काफी प्रचलित है जिसके अनुसार महामारी को समाज पर नियंत्रण या अस्पतालों का मुनाफा बढ़ाने के लिए बनाया-फैलाया गया है। यहां तक कहा जा रहा है कि टीका लगवाना जोखिम से भरा और अनावश्यक है।

इस संदर्भ में वायरेलिटी प्रोजेक्ट नामक समूह ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म द्वारा टीकों से जुड़ी गलत जानकारियों से निपटने के प्रयासों में तथा जन स्वास्थ्य एजेंसियों और सोशल-मीडिया कंपनियों के साथ मिलकर नियमों का उल्लंघन करने वालों की पहचान करने में मदद कर रहा है।

स्टैनफोर्ड इंटरनेट ऑब्ज़र्वेटरी की अनुसंधान प्रबंधक रिनी डीरेस्टा के अनुसार शोधकर्ताओं ने टीकाकरण के संदर्भ में भ्रामक प्रचार के चलते सार्वजनिक नुकसान की आशंका के कारण इस पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, सोशल मीडिया कंपनियां सभी मामलों में तो सच-झूठ की पहरेदार नहीं बन सकती लेकिन नुकसान की संभावना को देखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संतुलन अनिवार्य है।

फरवरी में ट्विटर, फेसबुक (इंस्टाग्राम समेत) ने झूठे दावों को हटाने के प्रयासों को विस्तार दिया है। दोनों ही कंपनियों ने घोषणा की है कि झूठी खबरें फैलाने वाली पोस्ट और ट्वीट को हटाया जाएगा और बार-बार नीतियों का उल्लंघन करने वालों के अकाउंट्स बंद भी कर दिए जाएंगे।

यह देखा गया है कि वेब पर गलत जानकारी अपेक्षाकृत थोड़े-से लोगों (सुपरस्प्रेडर्स) द्वारा फैलाई जाती है। इनमें अक्सर पक्षपाती मीडिया, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और राजनीतिक हस्तियां शामिल होती हैं।  

गौरतलब है कि कोविड-19 के बारे में लोगों की सोच का अनुमान लगाने के लिए बोस्टन स्थित नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी, मेसाचुसेट्स के राजनीति वैज्ञानिक डेविड लेज़र के नेतृत्व में अमेरिका के सभी 50 राज्यों में प्रति माह 25,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जा रहा है और साथ ही ट्विटर का उपयोग करने वाले 16 लाख लोगों की जानकारी भी एकत्रित की जा रही है। 

फरवरी में लगभग 21 प्रतिशत लोगों ने टीकाकरण करवाने से इनकार किया। स्वास्थ्य कर्मियों में यह आंकड़ा लगभग 24 प्रतिशत था। देखा गया कि इस फैसले के पीछे शिक्षा का स्तर एक मुख्य कारक रहा। टीम यह समझने का प्रयास कर रही है कि स्वास्थ्य सम्बंधी गलत जानकारी का सामना करने में कौन-सी चीज़ें प्रभावी हो सकती हैं। लगता है कि डॉक्टर और वैज्ञानिकों को सबसे भरोसेमंद माना जाता है जबकि पक्षपातपूर्ण राजनीतिक नेताओं के संदेशों पर विश्वास की संभावना कम होती है। ऐसे में डॉक्टर की सकारात्मक सलाह लोगों की पसंद को प्रभावित कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मध्यकालीन प्रसव-पट्टे के उपयोग के प्रमाण

ध्ययुग में प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु होना काफी आम बात थी। इस समय के ग्रंथों में सुरक्षित गर्भावस्था और प्रसव के लिए अभिमंत्रित कमरबंद का उल्लेख काफी मिलता है। लेकिन वास्तव में ऐसी बातों पर अमल किया जाता था या नहीं यह जानकारी नहीं थी। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इंग्लैंड में मिले 15वीं शताब्दी के एक कमरबंद का विश्लेषण करके इस बात की पुष्टि की है कि मध्य काल में महिलाएं गर्भावस्था में अपनी और अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए इस तरह के कमरबंद सचमुच पहना करती थीं। और तो और, वे प्रसव के दौरान भी इसे बांधे रखती थीं।

प्राप्त कमरबंद (जिसे नाम दिया गया है पांडुलिपि-632) भेड़ की खाल से बना लगभग 332 सेंटीमीटर लंबा और 10 सेंटीमीटर चौड़ा चर्मपत्र था। इस पर धार्मिक प्रतीक और मंत्र अंकित थे। इसकी लंबाई-चौड़ाई देखकर लगता है कि इसे शरीर पर लपेटा जाता होगा। प्रसव से सम्बंधित संतों और पैगंबरों के नामों के अलावा इस कमरबंद पर अंकित था: ‘यदि कोई महिला प्रसव या गर्भवास्था के दौरान कमरबंद पहनेगी तो यह उसके गर्भ की रक्षा करेगा और बिना किसी परेशानी के सुरक्षित प्रसव कराएगा।’

यह जानने के लिए कि क्या चिकित्सा ग्रंथों में उल्लेखित प्रसव प्रथाएं वाकई में अमल में लाई जाती थीं, युनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज की सारा फिडीमेंट ने कमरबंद पर पड़े धब्बों का विश्लेषण किया। उन्होंने इरेज़र की मदद से नाज़ुक कमरबंद पर संरक्षित धब्बों को इस तरह हल्के-हल्के रगड़ कर छुड़ाया कि कमरबंद को कोई क्षति न पहुंचे। फिर इन नमूनों में विभिन्न तरह के प्रोटीन की पहचान की। प्राप्त परिणामों की तुलना उन्होंने एक नए चर्मपत्र और 18वीं शताब्दी के चर्मपत्र के नमूनों के साथ की। रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में शोधकर्ता बताते हैं कमरबंद पर शहद, दूध, अंडे, अनाज, फलियां और विभिन्न मानव प्रोटीन के निशान मिले। और इनमें से कई मानव प्रोटीन ग्रीवा-योनि द्रव के प्रोटीन थे, जिससे लगता है कि महिलाएं प्रसव के दौरान इसे पहने रखती थीं।

इसके अलावा ग्रंथों में गर्भवती महिला के लिए जिस तरह के खान-पान का उल्लेख मिलता है, कमरबंद पर उसी तरह के खाद्यों के प्रोटीन की पहचान हुई है। ये इस बात का संकेत देते हैं कि ग्रंथों में उल्लेखित प्रथाओं को गंभीरता से अमल में लाया जाता था।

इस संदर्भ में अन्य शोधकर्ता बताते हैं कि महिलाओं के प्रसव के प्रति सजगता यूं ही नहीं बढ़ी होगी। दरअसल 1300 के दशक में युरोप में प्लेग फैलने के बाद वहां की आबादी में कमी आई थी, इसलिए सुरक्षित प्रसव के तरीके पहचानना और उन्हें अमल में लाना महत्पूर्ण रहा होगा।

वैसे यह अध्ययन मध्यकालीन प्रसव प्रथाओं के बारे में कोई नई जानकारी नहीं देता लेकिन यह बताता है कि प्राचीन पांडुलिपियों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उनके उपयोग के बारे में पुष्टि की जा सकती है। इंग्लैंड और फ्रांस से इस तरह के लगभग एक दर्जन चर्मपत्र मिले हैं, जिसमें से कुछ प्रसव के दौरान उपयोग किए जाते होंगे जबकि कुछ का उपयोग सर्वार्थ सिद्धि तावीज़ या रक्षा कवच की तरह किया जाता होगा। जैसे युद्ध में जाने वाले पुरुषों की रक्षा के लिए। इन चर्मपत्रों पर मौजूद प्रोटीन या चिकित्सा पांडुलिपियों पर पड़े धब्बों के प्रोटीन की पहचान करके यह भी पता किया जा सकता है कि क्या ऑपरेशन टेबल पर शल्य क्रिया के दौरान उन्हें खोलकर रखा जाता था। (स्रोत फीचर्स)

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पुरातात्विक अध्ययनों में नए जेंडर नज़रिए की ज़रूरत

पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त वस्तुओं-कंकालों के आधार पर वैज्ञानिक उस समय के समाज-संस्कृति का अनुमान लगाते हैं। कांस्य युगीन युरोप से प्राप्त टूटे-फूटे कंकालों के देखकर यह अंदाज़ा मिलता है कि यह समय इस समाज के लिए मुश्किल रहा होगा। अधिकांश इतिहासकार और पुरातत्वविद यह मानते हैं कि इन योद्धा समाजों का नेतृत्व पुरुष द्वारा ही किया जाता होगा।

अलबत्ता, हाल ही में हुए एक अध्ययन में, कांस्य युगीन महल में दफन महिला कंकाल का विश्लेषण यह संभावना जताता है कि महिलाएं भी नेतृत्व की भूमिका में रही होंगी। हालांकि स्पष्ट रूप से यह पता करने का कोई तरीका नहीं है कि महिलाएं कितनी शक्तिशाली रही होंगी, लेकिन इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि प्राचीन समय में महिलाओं की स्थिति या भूमिका के बारे में हमारी मान्यताओं पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।

वर्ष 2014 में स्पेनिश शोधकर्ताओं को ला अल्मोलोया खुदाई स्थल पर एक खंडहर महल के नीचे बने मकबरे में एक कब्र मिली थी। यह खंडहर महल विस्तृत मैदान के बीच एक चट्टानी पहाड़ी पर स्थित था। जिस स्थल पर यह खंडहर था वह किसी ज़माने में एल एलगर समाज का हिस्सा था, जो लगभग 2200 से 1550 ईसा पूर्व तक दक्षिण-पूर्वी आइबेरियाई प्रायद्वीप के आसपास फला-फूला। पुरातत्वविदों को स्थल पर बुनाई के उपकरण और सामग्रियां मिली थीं, जिसके आधार पर उनका कहना था कि यह एक प्रमुख कपड़ा उत्पादक क्षेत्र था और संभवत: साम्राज्य का शक्तिशाली धन-सम्पन्न केंद्र भी था।

महल के मकबरे के नीचे एक बड़ा कमरा था। इस कमरे में आम तौर पर पाई जाने वाली वस्तुएं, जैसे औज़ार या पानी के बर्तन, या समारोह में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें नहीं थी बल्कि कमरे की दीवारों से सटी हुई पत्थर की बेंच लगी थीं। इन्हें देखकर लगता था कि यह कमरा ध्यान लगाने, विचार-विमर्श करने या दरबार की जगह रही होगी।

कमरे के फर्श के नीचे मिट्टी का एक बड़ा पात्र दफन था जिसमें एक पुरुष और एक महिला का कंकाल था। रेडियोकार्बन डेटिंग ने पता चलता है कि उनकी मृत्यु 1650 ईसा पूर्व के आसपास हुई होगी। मृत्यु के समय पुरुष की उम्र लगभग 35-40 वर्ष होगी और महिला की उम्र लगभग 25-30 वर्ष होगी। शोधकर्ताओं को उनकी मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं हो पाया, क्योंकि उनके कंकाल में किसी तरह की घातक चोट के निशान नहीं थे। कंकालों के आनुवंशिक विश्लेषण से यह पता चला है दोनों कंकाल आपस में सम्बंधी (एक ही वंश के) नहीं थे। लेकिन उन दोनों की एक बेटी थी जिसकी मृत्यु बचपन में ही हो गई थी, और उसका शव वहीं पास में दफन था।

महिला-पुरुष के कंकालों का यह जोड़ा बहुमूल्य चीज़ों के साथ दफन था। पुरुष ने तांबे का कंगन पहना था और उसके कानों में सोने के बुंदे थे। लेकिन महिला आभूषणों से पूरी तरह लदी हुई थी। महिला ने चांदी के कई कंगन और अंगूठियां पहनी थीं, उसके गले में मोतियों का हार था और उसके सर पर आकर्षक ताज सुशोभित था। इस पुरातत्व स्थल से 90 किलोमीटर दूर स्थित एक अन्य पुरातत्व स्थल पर मिले एल एलगर समाज की चार महिलाओं के कंकाल के सर पर भी इसी तरह के ताज सुशोभित थे।

मूल्यवान चीज़ों के साथ दफन महिला-पुरुष के कंकालों के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि ये जोड़ा कुलीन वर्ग का होगा। महिला के आभूषणों को देखकर लगता है कि पुरुष और महिला में से महिला अधिक शक्तिशाली रही होगी, और संभवत: वह पास के एल एलगर समाज की क्षेत्रीय शासक होगी। युरोप के अन्य कांस्य युगीन स्थलों पर भी आभूषणों से सुसज्जित महिलाओं की कई कब्रों मिली हैं। पुरातत्वविद अब तक इन्हें भी शक्तिशाली योद्धाओं की पत्नियों के रूप में ही देखते आए हैं। लेकिन ला अल्मोलोया सहित अन्य सम्पन्न कब्रों को देखकर हम यह कल्पना क्यों नहीं करते कि संभवत: ये महिलाएं आर्थिक और राजनीतिक नेता रही हों।

प्राचीन समाज की वास्तविकता क्या है? वास्तव में उन समाजों में लोग एक दूसरे को किस तरह की भूमिका में देखते थे, यह स्पष्ट रूप से जानना तो लगभग असंभव है। लेकिन बेहतर होगा यदि हम आभूषणों से सुसज्जित प्राचीन महिला को पुरुष पराक्रम की छाया के रूप में न देखें। यदि हम यह मानते हैं कि कब्रों में साथ में दफनाई गई चीज़ें व्यक्ति की अपनी होती हैं तो हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि शायद कांस्य युग में महिलाएं भी शासकों की भूमिका में रही थीं। (स्रोत फीचर्स)

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सज़ायाफ्ता की रिहाई के लिए वैज्ञानिकों की गुहार

विश्व के लगभग नब्बे वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने मिलकर नए साक्ष्यों के आधार पर बाल हत्याओं की दोषी सज़ायाफ्ता कैथलीन फोलबिग को क्षमा करने के लिए अर्जी दी है। नए वैज्ञानिक साक्ष्य बताते हैं कि उनके बच्चों की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई थी।

दरअसल मामला 53 वर्षीय कैथलीन फोलबिग का है जिनके चार बच्चों की मृत्यु वर्ष 1989 से 1999 के दौरान हुई थी। वर्ष 2003 में उन्हें इन मौतों का दोषी ठहराया गया था और 30 साल के कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। फोलबिग अब तक 18 वर्ष की सज़ा काट चुकी हैं।

लेकिन फोलबिग को मोटे तौर पर परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (उनकी डायरी) के आधार पर दोषी ठहराया गया था। जब लॉरा उनके गर्भ में थी तब 1 जनवरी, 1997 को फोलबिग ने अपनी डायरी में लिखा था: ‘यह साल बीत गया, और नया साल आने वाला है। मुझे बच्चा होने वाला है। इसका मतलब हम दोनों को ज़िंदगी में कई बड़े समझौते करने पड़ेंगे, लेकिन मुझे यकीन है कि सब ठीक ही होगा। इस बार मैंने किसी से मदद मांगी है, इस बार सब कुछ मैं अकेले करने की कोशिश नहीं करूंगी। मुझे पता है कि मेरे सारे तनावों का मुख्य कारण यही है और तनाव के कारण मैं कई बार भयानक कर गुज़रती हूं…।’ डायरी का एक अन्य अंश: ‘मुझे लगता है कि मैं इस धरती पर सबसे बुरी मां हूं। मुझे डर लगता है कि वह भी मुझे सारा की तरह छोड़कर चली जाएगी। मैं जानती हूं कि मुझे गुस्सा बहुत जल्दी आता है। कभी-कभी मैंने उसके साथ बुरा और क्रूर बर्ताव किया, आखिर वह हमको छोड़कर चली गई। थोड़ी मदद के ज़रिए।’

फोलबिग द्वारा बच्चों की मृत्यु के दौरान लिखी यह डायरी पढ़ने के बाद फोलबिग के पति ने उन पर हत्या का आरोप लगाया था। और इन्हीं अंशों के आधार पर उन्हें सज़ा सुनाई गई थी। लेकिन फोलबिग का कहना था कि डायरी में उल्लेखित ‘मदद’ से उनका आशय भगवान या किसी दैवीय शक्ति से था।

इसके बाद इस मामले में महत्वपूर्ण नए चिकित्सा साक्ष्य पता चले जो बताते हैं कि फोलबिग के कम से कम दो बच्चों, सारा और लॉरा, की मृत्यु प्राकृतिक कारण (हृदय गति रुकने) से हुई थी। और अन्य दो बच्चों की मृत्यु में भी आनुवंशिक कारण होने की संभावना दिखाई दे रही है।

सारा और लॉरा के डीएनए का आनुवंशिक अनुक्रमण करने पर पाया गया कि दोनों शिशुओं को अपनी मां से विरासत में एक आनुवंशिक उत्परिवर्तन CALM2 मिला था। यह ज्ञात है कि CALM2 जीन के उत्परिवर्तन के कारण अचानक हृदय गति रुक सकती है और मृत्यु हो सकती है। CALM2 जीन में उत्परिवर्तन शिशुओं और वयस्कों में जागते या सोते समय अचानक मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कारणों में से एक है। यदि इस उत्परिवर्तन के साथ कोई अन्य संक्रमण पनप रहा हो या स्यूडोएफेड्रिन जैसी दवाएं दी जा रही हों तो यह उत्परिवर्तन कार्डिएक एरिद्मिया (असामान्य हृदय गति) की स्थिति पैदा कर सकता है।

इसके अलावा अन्य अध्ययन भी यह संभावना जताते हैं कि फोलबिग के दो बेटों की मृत्यु भी भिन्न आनुवंशिक उत्परिवर्तन के कारण से हुई होगी। इस तरह वैज्ञानिक साक्ष्य फोलबिग के चारों बच्चों की मृत्यु के पीछे प्राकृतिक कारण दर्शाते हैं।

पूर्व में फोलबिग के लिए लड़ने वाली बैरिस्टर रैनी रेगो कहती हैं कि हमारा कानूनी तंत्र न्याय करने में गलतियां भी करता है। जब बच्चों की हत्या जैसे अपराध के लिए गंभीर सज़ा की बात आती है तो चिकित्सकीय साक्ष्यों को परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से ऊपर रखना चाहिए। और इसलिए इन्हीं नए वैज्ञानिक साक्ष्यों को प्रकाश में लाने के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता पीटर डोहर्टी, नोबेल पुरस्कार विजेता एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न और पूर्व ऑस्ट्रेलियन ऑफ दी ईयर फियोना स्टेनली समेत विश्व के कई जाने-माने वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने याचिका दायर की है। यदि इस याचिका पर गौर नहीं किया जाता है तो यह फोलबिग के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन होगा और यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की व्यक्तिपरक व्याख्याओं को वरीयता देने और चिकित्सकीय-वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी की मिसाल बन जाएगा।

फोलबिग को क्षमा करने का निर्णय अब वहां के राज्यपाल का है। यदि फोलबिग को माफी मिल भी जाती है, तो भी वह अपने आप अपने बच्चों की हत्या के आरोप से दोषमुक्त नहीं होंगी। इसके लिए उन्हें अदालत में गुहार लगानी ही पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

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महामारी में वैज्ञानिक मांओं ने अधिक चुनौतियां झेलीं

मार्च 2020 में मिशिगन विश्वविद्यालय की कैंसर विज्ञानी रेशमा जग्सी ने कोविड-19 महामारी के महिला वैज्ञानिकों के काम पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के बारे में पूर्वानुमान लगाते हुए एक राय लिखी थी। डैटा न होने के कारण संपादकों ने इस राय को प्रकाशित करने से मना कर दिया था। लेकिन इसके बाद से कई टिप्पणीकार यही बात दोहराते आए हैं। अब अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 महामारी में पहले से व्याप्त असमानताएं और बढ़ गर्इं हैं, इस दौर ने महिला वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौतियां खड़ी की हैं। खासकर जिन महिला वैज्ञानिकों के बच्चे हैं उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य करते रहने के लिए अतिरिक्त संघर्ष किया है।

कुछ विषयों में किए गए अध्ययन के डैटा से पता चलता है कि कोरोना महामारी के शुरुआती महीनों में भेजे गए प्रीप्रिंट्स, पांडुलिपियों, और प्रकाशित शोधपत्रों में महिला लेखकों की संख्या में कमी आई है। 20,000 शोधकर्ताओं पर वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस दौरान पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में माता-वैज्ञानिकों के अनुसंधान कार्यों के घंटों में 33 प्रतिशत अधिक की कमी आई है। मई 2020 से जुलाई 2020 तक हुए सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि माता-वैज्ञानिकों ने पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक घरेलू दायित्व निभाए और बच्चों की देखभाल करने में अधिक समय बिताया।

लेकिन इस दौरान थोड़ी सकारात्मक बातें भी दिखीं। एक फंडिंग एजेंसी ने महामारी के दौरान बढ़ी लैंगिक असमानता को पहचाना और उसमें सुधार के प्रयास किए। दरअसल, फरवरी 2020 में केनेडियन स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान ने कोविड-19 सम्बंधी शोध कार्यों के लिए अनुदान की पेशकश की थी, जिसमें एजेंसी ने शोधकर्ताओं को प्रस्ताव भेजने के लिए महज़ 8 दिन की मोहलत दी थी। यह कनाडा में तालाबंदी के पहले की बात है। लेकिन उन्होंने देखा कि प्राप्त प्रस्तावों में से केवल 29 प्रतिशत प्रस्ताव ही महिला शोधकर्ताओं द्वारा भेजे गए थे, यह संख्या पूर्व में भेजे जाने वाले प्रस्तावों की संख्या से लगभग सात प्रतिशत कम थी।

संख्या में इतना अंतर देखने के बाद संस्थान के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर एंड हेल्थ की निदेशक कारा तेनेनबॉम को लगा कि हमने कहीं कुछ गलती कर दी है। इसीलिए जब संस्थान ने दो महीने बाद कोविड-19 शोध कार्यों के लिए दोबारा प्रस्ताव मंगाए तो उन्होंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा को 8 दिन से बढ़ाकर 19 दिन कर दी और दस्तावेज़ी कार्रवाइयां भी कम कर दीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में के अनुसार दूसरे दौर में महिलाओं द्वारा भेजे गए प्रस्तावों की संख्या बढ़कर 39 प्रतिशत हो गई थी।

संस्थान द्वारा मांगे गए प्रस्तावों के संदर्भ में लावल युनिवर्सिटी की स्वास्थ्य शोधकर्ता होली विटमैन अपना अनुभव बताती हैं, “जब पहली बार मैंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा महज़ 8 दिन देखी तो मैंने सोचा कि दो बच्चों और अपनी स्वास्थ्य स्थिति के साथ इतने कम समय में अनुदान के लिए देर रात तक बैठकर प्रस्ताव लिखना और भेजना संभव नहीं है। लेकिन जब अनुदान के लिए दोबारा प्रस्ताव मांगे गए तो प्रस्ताव लिखने के लिए पर्याप्त समय था, जिसमें अंतत: मुझे अनुदान मिला भी।”

महामारी के दौर में अधिकांश शोधकर्ताओं के शोध कार्य के घंटों में कमी आई। ताज़ा अध्ययन बताते हैं कि पालक-शोधकर्ताओं, खासकर माता-शोधकर्ताओं के काम के घंटों में बहुत कमी आई है। पिता की तुलना में माताओं ने बच्चे की देखभाल और गृहकार्य करने में अधिक समय बिताया। इस संदर्भ में सान्ता क्लारा युनिवर्सिटी की रॉबिन नेल्सन बताती हैं कि पिछले साल की तुलना में कोरोनाकाल में उनके काम के घंटे घटकर आधे हो गए हैं क्योंकि उनके दो बच्चे अब घर पर होते हैं। कुछ शोधकर्ता अन्य की तुलना में अधिक बाधाओं में काम कर रहे हैं। इसलिए हमें अब अनुदान की प्रक्रिया, समय सीमा, नीतियों आदि पर सवाल उठाने चाहिए।

बोस्टन विश्वविद्यालय के इकॉलॉजिस्ट रॉबिन्सन फुलवाइलर का कहना है कि विश्वविद्यालयों और फंडिंग एजेंसियों को वैज्ञानिकों को यह बताने का भी विकल्प देना चाहिए कि कोविड-19 ने उनके काम में किस तरह की बाधा डाली या प्रभावित किया। इसके अलावा नियोक्ताओं को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शोधकर्ताओं को ठीक-ठाक झूलाघर जैसी सुविधाएं मिलें। फुलवाइलर और अन्य माता-वैज्ञानिकों ने प्लॉस बायोलॉजी में इस तरह की व कई अन्य सिफारिशें की हैं। कोरोनाकाल में और स्पष्ट होती असमानता को अब दूर करने के प्रयास करने का वक्त है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुत्तों को पालतू किसने, कब बनाया?

पिछले हिमयुग के अंत में मनुष्यों के समूह उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के विशाल घास के मैदानों में नुकीले पत्थर-जड़े भालों के साथ बाइसन और मैमथ का शिकार किया करते थे। भेड़िये जैसा एक जीव भी उनके साथ दौड़ा करता था। ये भेड़िए अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक सौम्य थे तथा अपने मनुष्य-साथियों की मदद करने को तैयार रहते थे – शिकार करने में भी और शिकार को वापस अपने शिविर तक लाने में भी। ये जीव ही विश्व के सबसे पहले कुत्ते थे जिनके वंशज युरेशिया से लेकर अमेरिका और दुनिया में सभी ओर फैलते गए।  

इस परिदृश्य ने कुत्तों और मनुष्यों, दोनों के डीएनए डैटा के एकसाथ अध्ययन का रास्ता सुझाया। दी प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित विश्लेषण का उद्देश्य कुत्तों के पालतू बनाए जाने के स्थान और समय की लंबी बहस का समापन करना है। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि कैसे सतर्क भेड़िए मनुष्य के वफादार साथी में बदल गए।

अध्ययन के महत्व को देखते हुए वैज्ञानिकों ने विभिन्न सुझाव दिए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ केंसास की मानव आनुवंशिकी विज्ञानी जेनिफर रफ के अनुसार निष्कर्षों की पुष्टि करने के लिए प्राचीन कुत्तों और लोगों के अधिक से अधिक जीनोम की आवश्यकता होगी।

इस अध्ययन की शुरुआत इस बात से हुई थी कि कुछ आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि उत्तरी अमेरिका के प्राचीन कुत्तों की उत्पत्ति 10,000 वर्ष पुरानी है। तो इनकी उत्पत्ति कहां व कब हुई थी। इस संदर्भ में सदर्न मेथोडिस्ट युनिवर्सिटी के पुरातत्व विज्ञानी डेविड मेल्टज़र ने सुझाव दिया कि कुत्तों और मनुष्यों के डीएनए की तुलना करना उपयोगी होगा। इसके लिए यह पता करना भी ज़रूरी है कि कैसे और कब साइबेरिया में रहने वाले मनुष्य विभिन्न समूहों में बंटने के बाद उत्तरी अमेरिका पहुंच गए। इसी तरह से यदि कुत्तों के डीएनए में समान पैटर्न मिलते हैं तो कुत्तों के पालतूकरण की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है।         

अपने इन अनुमानों की बारीकी से जांच करने के लिए शोधकर्ताओं की टीम ने विश्व भर के 200 से अधिक कुत्तों के माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम का विश्लेषण किया जिनमें से कुछ 10,000 साल पूर्व के थे। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया नामक कोशिकांग का अपना डीएनए होता है जो किसी जीव को सिर्फ उसकी मां से मिलता है।

अध्ययन से पता चला कि सभी प्राचीन अमरीकन कुत्तों में एक जेनेटिक चिंह पाया जाता है। इसे A2b नाम दिया गया। और ये कुत्ते लगभग 15,000 वर्ष पूर्व चार समूहों में उत्तरी अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में फैल गए। टीम ने पाया कि कुत्तों के ये समूह और इनकी भौगोलिक स्थिति प्राचीन मूल अमरीकियों के समूहों से मेल खाती है। ये सभी लोग एक ऐसे समूह के वंशज हैं जिन्हें वैज्ञानिक पैतृक मूल अमरीकी कहते हैं। यह समूह लगभग 21,000 वर्ष पहले साइबेरिया का निवासी था। टीम का निष्कर्ष है कि मनुष्य 16,000 वर्ष पूर्व अमेरिका में प्रवेश करते समय कुत्तों को भी अपने साथ लाए होंगे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन अमेरिकी कुत्ते अंतत: गायब हो गए। जब युरोपवासी अमेरिका आए तब वहां के कुत्ते अमेरिका में फैल गए।

शोधकर्ताओं द्वारा आनुवंशिक अतीत का और गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि A2b कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व साइबेरिया में पाए जाने वाले कुत्तों के वंशज हैं। टीम का अनुमान है कि प्राचीन कुत्ते संभवत: उन मानव समूहों के साथ रहते थे जिन्हें प्राचीन उत्तर साइबेरियाई के रूप में जाना जाता है। 31,000 वर्ष पूर्व में पाया जाना वाला यह मानव समूह हज़ारों वर्षों से पूर्वोत्तर साइबेरिया के अपेक्षाकृत समशीतोष्ण इलाकों में रहता था। सख्त मौसम के कारण ये समूह बहुत अधिक पूरब या पश्चिम में नहीं जा पाए। वे यहां आज पाए जाने वाले कुत्तों के सीधे पूर्वज मटमैले भेड़िये के साथ रहा करते थे।

कुत्तों के पालतूकरण का आम सिद्धांत तो यह है कि मटमैले भेड़िये भोजन की तलाश में मानव शिविरों के अधिक से अधिक करीब आते गए। इनमें से कुछ दब्बू भेड़िये सैकड़ों से हज़ारों वर्षों में विकसित होते-होते पालतू कुत्ते बन गए। अलबत्ता, यह प्रक्रिया उस स्थिति की व्याख्या नहीं करती जब मनुष्य काफी दूर-दूर यात्रा करने लगे। ऐसे में उनको हमेशा भेड़ियों की नई आबादी का सामना करना होगा। यदि टीम के निष्कर्षों को सही माना जाए तो इन दोनों प्रजातियों ने साइबेरिया में काफी लंबा समय साथ-साथ बिताया है।    

इसके अलावा कुछ आनुवंशिक साक्ष्य यह सुझाव देते हैं कि प्राचीन उत्तर साइबेरिया के लोग अमेरिका प्रवास करने से पहले पैतृक मूल के अमरीकियों के संपर्क में आ चुके थे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन कुत्तों के प्रजनकों ने मूल अमरीकी लोगों के साथ इस जीव का लेन-देन किया होगा। यही कारण है उत्तरी अमेरिका और युरोप दोनों जगह कुत्ते 15,000 वर्ष पूर्व से ही पाए जाने लगे थे। पूर्व में वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि कुत्तों को एक से अधिक बार पालतू बनाया गया था जबकि टीम के अनुसार सच तो यह है कि सभी कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व के साइबेरियाई कुत्तों के वंशज हैं।  

रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, स्टॉकहोम के आनुवंशिकीविद पीटर सवोलैनेन यह तर्क देते रहे हैं कि कुत्तों का पालतूकरण दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ है। लिहाज़ा वे इस अध्ययन के निष्कर्षों को लेकर शंकित हैं। पीटर के अनुसार A2b चिंह, जिसके बारे में टीम ने दावा किया है कि वह विशिष्ट रूप से अमरीकी कुत्तों में पाया जाता है, वह विश्व में अन्य जगहों पर भी पाया गया है। यह तथ्य उपरोक्त आनुवंशिक विश्लेषण पर सवाल खड़े करता है। अत: सवोलैनेन के मुताबिक इस अध्ययन के आधार पर कुत्तों के पालतूकरण के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

लेकिन जेनिफर रफ के अनुसार प्राचीन लोगों के बारे में वे जितना जानती हैं उस आधार पर यह अध्ययन मूलत: सही मालूम होता है। लेकिन माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए किसी जीव के जीनोम का छोटा-सा अंश होता है। रफ का कहना है कि बिना नाभिकीय डीएनए की मदद से पूरी जानकारी प्राप्त करना मुश्किल है। गौरतलब है कि मूल अमेरिकी पूर्वजों के लिए भी यही बात सही हो सकती है जिन्होंने कुत्तों को अमेरिका के कोने-कोने तक फैलाया है। कई वैज्ञानिक इस अध्ययन को एक अच्छी प्रगति के रूप में तो देखते हैं लेकिन मानते हैं कि निष्कर्ष अधूरे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दूध पचाने की क्षमता से पहले दूध का सेवन

नुष्यों द्वारा दूध के सेवन का इतिहास मुर्गी और अंडा की पहेली जैसा है। मनुष्य दूध का सेवन तब से करते आ रहे हैं जब उनमें इसे पचाने की व्यवस्था भी नहीं थी। लेकिन डीएनए में उपयुक्त परिवर्तन के लिए ज़रूरी था कि वे दूध का सेवन करें। तो सवाल है कि क्या दूध पीने की शुरुआत पहले हुई या दूध पचाने के लिए ज़रूरी उत्परिवर्तन?    

ताज़ा अध्ययनों के अनुसार आधुनिक केन्या और सूडान के लोग कम से कम 6000 वर्षों से दुग्ध उत्पादों का सेवन कर रहे हैं। यानी वे दूध को पचाने वाले जीन के अस्तित्व में आने से भी पहले से दूध का सेवन करते आ रहे हैं। गौरतलब है कि सभी मनुष्य बचपन में दूध पचाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन लगता है कि व्यस्कों में यह क्षमता पिछले 6000 वर्षों में ही विकसित हुई है। कुछ उत्परिवर्तनों से वयस्कों में भी लैक्टेस एंज़ाइम का उत्पादन होने लगा जो दूध में उपस्थित लैक्टोस शर्करा को पचाने में मदद करता है। वयस्क अवस्था में भी इस एंज़ाइम के बने रहने को लैक्टेस निरंतरता कहते हैं।

आधुनिक अफ्रीका की बड़ी जनसंख्या में लैक्टेस निरंतरता के लिए चार उत्परिवर्तन हुए हैं जबकि युरोपीय लोग सिर्फ एक ऐसे उत्परिवर्तन पर निर्भर है। फिर भी यह उत्परिवर्तन काफी तेज़ी से फैल गए जिससे लगता है कि ये काफी फायदेमंद रहे होंगे।

दूध सेवन के इतिहास को और गहराई से समझने के लिए शोधकर्ताओं ने अफ्रीका का अध्ययन किया, जहां का समाज पिछले 8000 वर्षों से गाय, भेड़ और बकरी पालन करता आ रहा है। वैज्ञानिकों ने खुदाई में मिले सूडान और केन्या के 2000 से 6000 वर्ष पुराने 8 कंकालों के दांतों की कठोर परतों में दुग्ध-सम्बंधी प्रोटीन की उपस्थिति देखी, जिससे लगता है कि ये लोग लगभग 6000 वर्ष पहले से डेयरी उत्पादों का सेवन कर रहे थे। नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित यह अध्ययन अफ्रीका और विशेष रूप से विश्व की डेयरी खपत का प्राचीनतम प्रमाण है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि अफ्रीका में डेयरी उद्योग युरोप के डेयरी उद्योग जितना या उससे भी अधिक पुराना है।          

और तो और, 2020 में कुछ अफ्रीकी कंकालों के डीएनए के अध्ययन के अनुसार प्राचीन अफ्रीकी लोगों में उस समय दूध को पचाने वाले किसी जीन का विकास भी नहीं हुआ था। वे लोग लैक्टेस निरंतरता से पहले से ही दूध का सेवन करते आ रहे थे। कंकालों में मिला प्रोटीन दूध, पनीर या दही जैसे किण्वित उत्पादों से आया होगा। कई संस्कृतियों में किण्वन का उपयोग दूध का सेवन करने से पहले उसकी शर्करा को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है ताकि लैक्टेस की अनुपस्थिति में भी दूध उत्पादों का सेवन कर सकें। अंतत: वह उत्परिवर्तन हुआ होगा जिसने लोगों को दूध से अधिक से अधिक पोषण प्राप्त करने में मदद की। वाशिंगटन युनिवर्सिटी की पुरातत्वविद फियोना मार्शल के अनुसार, जिन अफ्रीकी लोगों में लैक्टेस निरंतरता अधिक थी वे लोग अधिक समय तक जीवित रहते थे और उनके बच्चे भी ज़्यादा होते थे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि लैक्टेस निरंतरता के चयन का कारण पर्यावरणीय भी हो सकता है। गौरतलब है कि दूध मुश्किल परिस्थितियों में आबादी का प्रबंधन करने का एक बढ़िया तरीका है जिसमें चरवाहे जानवरों की हत्या किए बिना ही उनसे पोषण प्राप्त कर सकते थे। सूखे के समय में भी ये चौपाए उनके लिए पानी के फिल्टर और भंडारण का काम किया करते थे। जब तक ये जीव ज़िंदा रहते थे, तरल, प्रोटीन और पोषण का स्रोत हुआ करते थे। (स्रोत फीचर्स)

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पांच हज़ार वर्ष पहले देश-विदेश में खाद्य विनिमय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म सिल्क रूट या रेशम मार्ग से तो वाकिफ हैं ही, जो चीन और मध्य एशिया को दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया से जोड़ता है। हम यह भी जानते हैं कि 4000 साल पूर्व (2000 ईसा पूर्व) कैसे इन क्षेत्रों के बीच व्यापार शुरू हुआ। उस वक्त बेबीलोन (फरात नदी के पास के क्षेत्र) में हम्मुराबी राजा का शासन था जहां प्रजा के लिए सख्त नैतिक कानून थे। इस संदर्भ में, पीटर फ्रेंकओपन द्वारा लिखित एक उल्लेखनीय और पठनीय किताब है दी सिल्क रोड्स: ए न्यू हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड (रेशम मार्ग: दुनिया का नवीन इतिहास)।

इस किताब में उन्होंने बताया है कि उससे भी बहुत पहले कांस्य युग में (3000 ईसा पूर्व यानी आज से लगभग 5000 साल पहले) पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र के बीच व्यापार शुरू हो चुका था और उनके बीच सांस्कृतिक सम्बंध भी थे। तब, भूमध्यसागरीय क्षेत्र के लोग मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया के लोगों के साथ व्यापार करते थे। इन जगहों पर वे घोड़े, ऊंट और गधे लेकर गए। इसी प्रकार से वे खाड़ी क्षेत्रों से होते हुए भारत से भी जुड़े। और गेहूं, चावल, दाल, तिल, केला, सोयाबीन और हल्दी जैसे ‘विदेशी’ (गैर-देशी) खाद्य पदार्थों का व्यापार किया।

कांस्य युग के शव

अच्छी बात है कि लेवंट क्षेत्र (बिलाद-अलशाम) के अध्ययन में इस्राइल, फिलिस्तीन, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया सहित एक बड़े इलाके की कब्राों में कांस्य युगीन लोगों के शव दफन पाए गए। इस्राइल, जर्मनी, स्पेन, यूके और यूएस के एक शोध दल द्वारा इन शवों का अध्ययन किया गया। दिसंबर 2020 में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में एक काफी रोमांचक पेपर प्रकाशित हुआ था: 2000 ईसा पूर्व दक्षिण एशिया और पूर्वी क्षेत्रों के बीच के संपर्क दर्शाते विदेशी खाद्य पदार्थ। इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं। https://doi.org/10.1073/pnas.2014956117..

प्राचीन साहित्यिक स्रोत बताते हैं कि 3000 ईसा पूर्व लंबी दूरी की यात्राएं हुआ करती थीं और गधों जैसे जानवरों का परिवहन हुआ करता था – मिस्र से दक्षिणी लेवंट (आज के इस्राइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन, सीरिया) और अम्मान, अलेप्पो, बेरूत और दमिश्क के शहरों के बीच, और यहां तक कि इटली और मेसोपोटामिया (ईरान, सीरिया और तुर्की) के बीच। वानस्पतिक साक्ष्य पुष्टि करते हैं कि कांस्य युग (2000-1500 ईसा पूर्व) में दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों से तरबूज़े-खरबूज़े, नींबू जाति के फलों और अन्य फलों के पेड़ों का आदान-प्रदान होता था। यहां भूमध्यसागरीय व्यंजनों के प्रमाण भी मिले हैं, और सिंधु घाटी सभ्यता और दक्षिण एशियाई क्षेत्र, जैसे इंडोनेशिया से दक्षिणी लेवंट – खासकर मध्य कांस्य युगीन स्थल जैसे इस्राइल, फिलिस्तीन, लेबनान और सीरिया – के बीच व्यापार के साक्ष्य भी हैं।

दंत पथरी

इस क्षेत्र में दो स्थलों, मेगिडो और तेल एरानी को अध्ययन के लिए चुना गया। शोध समूह इस क्षेत्र के कब्रगाह, कब्रिस्तान और मकबरों का अध्ययन कर सकते थे। इन स्थानों से 16 नमूने (कब्र) मिलीं, जिसमें से उन्हें हज़ारों वर्ष पूर्व मृत लोगों की हड्डियां प्राप्त हुर्इं। उन्होंने इन शवों के दांतों, खासकर जबड़े को जोड़ने वाले निचले दांतों, का विस्तार से अध्ययन किया। इस विश्लेषण को ‘दंत कलन’ कहते हैं। (वैसे इसमें कलन शब्द का गणित से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए आप इस भ्रम में न रहें कि यहां शोधकर्ताओं ने कोई उन्नत गणितीय विश्लेषण किया होगा!) यहां कलन का मतलब शव कंकाल के दांतों के प्रोटीन विश्लेषण से है, जो किसी व्यक्ति द्वारा खाए गए भोजन के बारे में जानकारी देता है – खासकर दांतों में फंस कर रह गए वानस्पतिक खाद्य के बारे में। इन वानस्पतिक खाद्य को फायटोलिथ्स कहते हैं (‘फायटो’ यानी पौधा और ‘लिथ’ यानी दांत में फंसे पौध खाद्य के ऊतक का जीवाश्म)।

शोधकर्ताओं ने मेगिडो और तेल एरानी के कब्रागाहों से प्राप्त 16 शवों के दंत कलन का विश्लेषण किया। और विश्लेषण में दंत कलन में बाजरा, खजूर, फूलधारी पौधे, घास और गेहूं, चावल, तिल, जौ, सोयाबीन, केला अदरक और हल्दी जैसे खाद्य पौधे उपस्थित पाए।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने दंत कलन का प्रोटिओम विश्लेषण किया। प्रोटिओम विश्लेषण हमें खाद्य पदार्थ या वनस्पति की कोशिकाओं में व्यक्त प्रोटीन के पूरे समूह के बारे में बताता है। इस विश्लेषण में वेनीला, दालचीनी, जायफल, चमेली, लौंग और काली मिर्च मौजूद पाए गए, जिससे पता चलता है कि दक्षिण-पूर्व और भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के बीच, और काला सागर-मृत सागर क्षेत्र में कांस्य युग (3000-1200 ईसा पूर्व) के समय से ही और लौह युग (500 ईसा पूर्व) में व्यापार मार्ग मौजूद था।

भारत में, विशेषकर देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में, कांस्य युगीन जानकारी पुरातत्वविदों और इतिहासकारों द्वारा अच्छी तरह से दर्ज की गई है। (इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में कांस्य युगीन विवरण के लिए अभी भी अध्ययन जारी हैं)। सिंधु घाटी सभ्यता पहले ही पाषाण युग से कांस्य युग (3300-1300 ईसा पूर्व) में प्रवेश कर गई थी। धातुकर्म का अभ्यास किया जाता था।

2600 ईसा पूर्व के आसपास सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजो-दाड़ो और हड़प्पा के शहरों में अपने शहरीकरण के लिए अच्छी तरह से पहचानी जाती है, जो अब पाकिस्तान में है। फिर भारत के उत्तर-पश्चिमी इलाके में लिखित ग्रंथों, कृषि, जल प्रबंधन, खगोल विज्ञान और दर्शन का उपयोग दिखता है। इस पर और अधिक जानकारी इस वेबसाइट से प्राप्त की जा सकती है: study.com/academy/lesson/the-bronze-age-in-india-history-culture-technology.html। कृषि में, हम देखते हैं कि बाजरा, चावल, गेहूं, घास उगाए जाते थे। प्रोद्योगिकी में, जल प्रबंधन किया जाता था। व्यापार में, इस क्षेत्र और मध्य एशिया, मेसोपोटामिया और दक्षिणी लेवंट के बीच व्यापार किया जाता था। और यह सब रेशम मार्ग बनने के बहुत पहले हो रहा था। (स्रोत फीचर्स)

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खाया-पीया पता करने की नई विधि

ल्द ही वैज्ञानिक दांतों में जमा टार्टर का विश्लेषण कर बता सकेंगे कि प्राचीन लोग किन (मादक) पदार्थों का सेवन किया करते थे। नई विकसित विधि से उन्नीसवीं सदी के कंकाल पर किए गए परीक्षण में शोधकर्ताओं को ड्रग्स के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा हाल ही में मृत 10 शवों पर मानक रक्त परीक्षण विधि से किए गए ड्रग परीक्षण की तुलना में नई विधि से अधिक ड्रग्स की उपस्थिति का पता चला है।

अब तक, खुदाई में प्राप्त धूम्रपान या मद्यपान के पात्रों में जमा अवशेषों के आधार पर प्राचीन मनुष्यों की औषधियों और मादक पदार्थों के सेवन की आदतों के बारे में पता किया जाता था। लेकिन इस तरह के विश्लेषण में अक्सर उन ड्रग्स का पता नहीं चलता जिनके सेवन के लिए पात्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती जैसे भ्रांतिजनक मशरूम। इसके अलावा पात्रों के विश्लेषण से यह भी पता नहीं चलता कि सेवन किसने किया था।

लीडेन युनिवर्सिटी के पुरातत्वविद ब्योर्न पियरे बार्थहोल्डी का अनुमान था कि उन्नीसवीं सदी में, जब डॉक्टर नहीं थे, ग्रामीण अपनी बीमारियों और दर्द का इलाज स्वयं ही करते होंगे। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने कंकालों के दांतों पर जमा कठोर परत से प्राचीन लोगों के आहार की पड़ताल करने वाली एक तकनीक का सहारा लिया। दांतों पर जमा इस कठोर परत को टार्टर कहते हैं। टार्टर में खाते-पीते वक्त भोजन, पेय या अन्य पदार्थ के कुछ कण फंस जाते हैं, जो जीवाश्मो में लगभग 10 लाख सालों तक बने रह सकते हैं।

लेकिन अफीम, भांग और अन्य औषधियों के फंसे हुए अवशेषों के बारे में पता करने की कोई मानक विधि नहीं थी। इसलिए शोधकर्ताओं ने ऑरहस युनिवर्सिटी के फॉरेंसिक डेंटिस्ट डॉर्थे बाइंडस्लेव की मदद से जीवित या हाल ही में मृत लोगों के रक्त या बालों के नमूनों में ड्रग्स की उपस्थिति का पता लगाने की मानक विधि में बदलाव कर कंकालों में ड्रग्स की उपस्थिति पता लगाने की एक नई विधि विकसित की।

शोधकर्ताओं ने टार्टर का मुख्य खनिज हाइड्रॉक्सीएपैटाइट लिया और उसमें कैफीन, निकोटीन और कैनबिडिओल जैसे वैध ड्रग्स नपी-तुली मात्रा मिलाए और ऑक्सीकोडोन, कोकीन और हेरोइन जैसे कुछ प्रतिबंधित ड्रग्स मिलाए। फिर इन नमूनों की उन्होंने मास स्पेक्ट्रोमेटी की। इस तरह मिश्रण में उन्हें 67 ड्रग्स और ड्रग के पाचन से बने पदार्थ मिले। मास स्पेक्ट्रोमेट्री में पदार्थ के आवेश और भार के अनुपात के आधार पर विभिन्न रसायनों का पता लगाया जाता है।

इसके बाद उन्होंने हाल ही में मृत 10 शवों में नई परीक्षण विधि से ड्रग्स की उपस्थिति जांची और इन परिणामों की तुलना रक्त आधारित मानक ड्रग परीक्षण के नतीजों से की। फॉरेंसिक साइंस इंटरनेशनल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार नई विधि से इन शवों में हेरोइन, हेरोइन मेटाबोलाइट और कोकीन सहित 44 ड्रग्स और मेटाबोलाइट्स मिले, जो मानक रक्त परीक्षण में मिले कुल ड्रग्स से थोड़े अधिक थे।

अब तक परीक्षणों में रक्त से ड्रग्स गायब हो जाने के बाद बालों के नमूनों से ड्रग्स के सेवन या उपस्थिति के बारे में पता किया जाता था। चूंकि टार्टर ड्रग्स सेवन का लंबे समय तक रिकॉर्ड रख सकता है इसलिए अब बालों की जगह टार्टर का उपयोग ड्रग्स की उपस्थिति पता करने के लिए किया जा सकता है। इससे ड्रग्स उपयोग के इतिहास को दोबारा लिखने में मदद मिल सकती है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि नई विधि अच्छी तो है और इसमें रेत के एक कण से भी छोटे नमूने से काम चल जाता है, लेकिन इसके लिए एक अत्यधिक संवेदनशील मास स्पेक्ट्रोमीटर की ज़रूरत पड़ती है जो सामान्य प्रयोगशालाओं में उपलब्ध नहीं होते। इसके अलावा इस विधि से परीक्षण के बाद नमूने नष्ट हो जाते हैं। कुछ रसायन टार्टर के भीतर भी समय के साथ विघटित हो जाते हैं। इसके अलावा, इस विधि में वे पौधे भी छूट गए हैं जो किसी समय में प्राचीन लोगों द्वारा मादक, उत्तेजक और औषधियों के रूप में उपयोग किए जाते थे, लेकिन आधुनिक समय में उपयोग नहीं किए जाते या इनके बारे में मालूम नहीं है। लेकिन इस काम के आधार पर हम तकनीक को और अच्छी तरह विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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