स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लैक्टोस पचाने की क्षमता की शुरुआत कहां से हुई

ह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।

आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।

पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दुनिया का सबसे छोटा जीवित शिशु सेब के बराबर था

दिसंबर 2018 के दौरान शार्प मैरी बर्च हॉस्पिटल फॉर वीमेन एंड न्यूबॉर्न्स, सैन डिएगो में मात्र लगभग 245 ग्राम वज़न की एक बच्ची का जन्म हुआ। एक बड़े सेब के वज़न की इस बच्ची को अस्पताल में काम करने वाली नर्सों ने ‘सेबी’ नाम दिया है। अस्पताल ने बताया है कि सेबी दुनिया की सबसे छोटी बच्ची है जो जीवित रह पाई है।

गर्भावस्था की जटिलताओं के चलते सेबी का जन्म ऑपरेशन के माध्यम से सिर्फ 23 सप्ताह और 3 दिनों के गर्भ से हुआ था। चूंकि उस समय गर्भ केवल 23 सप्ताह का था इसलिए बच्ची के जीवित रहने की संभावना मात्र 1 घंटे ही थी लेकिन धीरे-धीरे एक घंटा दो घंटे में परिवर्तित हुआ और फिर एक हफ्ते और अब जन्म के पांच महीने बाद सेबी का वज़न लगभग ढाई किलोग्राम है और उसे अस्पताल छोड़ने की अनुमति भी मिल गई है।

युनिवर्सिटी ऑफ आयोवा में सबसे छोटे जीवित शिशुओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। जन्म के समय सेबी का वज़न पिछले रिकॉर्ड से 7 ग्राम कम था, जो 2015 में जर्मनी में पैदा हुआ एक बच्ची का है। इस साल फरवरी में, डॉक्टरों ने सबसे छोटे जीवित लड़के के जन्म की सूचना दी, जिसका वजन जन्म के समय 268 ग्राम था।

अस्पताल के अनुसार सेबी को केवल जीवित रखने के अलावा उनको किसी अन्य मेडिकल चुनौति का सामना नहीं करना पड़ा जो आम तौर पर माइक्रोप्रीमीस (28 सप्ताह से पहले जन्म लेने वाले बच्चों) में देखने को मिलती हैं। माइक्रोप्रीमीस में मस्तिष्क में रक्तस्राव तथा फेफड़े और ह्मदय सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं।

यह अस्पताल माइक्रोप्रीमीस की देखभाल करने में माहिर है। इसलिए कहा जा सकता है कि सेबी सही जगह पर पैदा हुई है। लेकिन फिर भी माइक्रोप्रीमीस को आगे चलकर काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे-जैसे ये बच्चे बड़े होते जाते हैं उनमें दृष्टि समस्याएं, सूक्ष्म मोटर दक्षता और सीखने की अक्षमताओं जैसी समस्याएं होने लगती हैं।

अगले कुछ वर्षों के लिए, सेबी को अस्पताल के अनुवर्ती क्लीनिक में नियमित रूप से जाना होगा जिसका उद्देश्य ऐसे शिशुओं के विकास में मदद करना है।(स्रोत फीचर्स)

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कितना सही है मायर्स-ब्रिग्स पर्सनैलिटी टेस्ट?

क्सर व्यक्तित्व परीक्षण के लिए मायर्स-ब्रिग्स पर्सनालिटी टेस्ट (एमबीटी) का उपयोग किया जाता है। इस परीक्षण में लोगों को 16 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

एमबीटी का आविष्कार 1942 में कैथरीन कुक ब्रिग्स और उनकी बेटी, इसाबेल ब्रिग्स मायर्स ने किया था। उनका मकसद ऐसे टाइप इंडिकेटर विकसित करना था, जिनसे लोगों को खुद की प्रवृत्ति को समझने और उचित रोज़गार चुनने में मदद मिले। परीक्षण में कुछ सवालों के आधार पर निम्नलिखित लक्षणों का आकलन किया जाता है: 

·         अंतर्मुखी (I) बनाम बहिर्मुखी (E)

·         सहजबोधी (N) बनाम संवेदना-आधारित (S)

·         विचारशील (T) बनाम जज़्बाती (P)

·         फैसले सुनाने वाला (J) बनाम समझने की कोशिश करने वाला (P)

इस परीक्षण के आधार पर लोगों को 16 लेबल प्रकार प्रदान दिए जाते हैं, जैसे  INTJP, ENPF

मायर्स ब्रिग्स परीक्षण का प्रबंधन करने वाली कंपनी के अनुसार हर साल लगभग 15 लाख लोग इसकी ऑनलाइन परीक्षा में शामिल होते हैं। कई बड़ी-बड़ी कंपनियों और विद्यालयों में इस परीक्षण का उपयोग में किया जाता है। और तो और, हैरी पॉटर जैसे काल्पनिक पात्र को भी एमबीटी लेबल दिया गया है।

लोकप्रियता के बावजूद कई मनोवैज्ञानिक इसकी आलोचना करते हैं। मीडिया में कई बार इसको अवैज्ञानिक, अर्थहीन या बोगस बताया गया है। लेकिन कई लोग परीक्षण के बारे में थोड़े उदार हैं। ब्रॉक विश्वविद्यालय, ओंटारियो के मनोविज्ञान के प्रोफेसर माइकल एश्टन एमबीटी को कुछ हद तक वैध मानते हैं लेकिन उसकी कुछ सीमाएं भी हैं। 

एमबीटी के साथ मनोवैज्ञानिकों की मुख्य समस्या इसके पीछे के विज्ञान से जुड़ी है। 1991 में, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की समिति ने एमबीटी अनुसंधान के आंकड़ों की समीक्षा करते हुए कहा था कि इसके अनुसंधान परिणामों में काफी विसंगतियां हैं।

एमबीटी उस समय पैदा हुआ था जब मनोविज्ञान एक अनुभवजन्य विज्ञान था और इसे व्यावसायिक उत्पाद बनने से पहले उन विचारों का परीक्षण तक नहीं किया गया था। लेकिन आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की मांग है कि किसी व्यक्तित्व परीक्षण को कुछ मानदंड पूरे करने चाहिए।

कुछ शोध एमबीटी को अविश्वसनीय बताते हैं क्योंकि एक ही व्यक्ति दोबारा टेस्ट ले तो परिणाम भिन्न हो सकते हैं। अन्य अध्ययनों ने एमबीटी की वैधता पर सवाल उठाया है कि इसके लेबल वास्तविक दुनिया से मेल नहीं खाते, जैसे यह पक्का नहीं है कि एक तरह से वर्गीकृत लोग किसी कार्य में कितना अच्छा प्रदर्शन करेंगे। मायर्स-ब्रिग्स कंपनी के अनुसार एमबीटी को बदनाम करने वाले ऐसे अध्ययन पुराने हैं।

हालांकि, परीक्षण की कुछ सीमाएं इसकी डिज़ाइन में ही निहित हैं। जैसे इसमें श्रेणियां सिर्फ हां या नहीं के रूप में हैं। किंतु हो सकता है कोई व्यक्ति इस तरह वर्गीकृत न किया जा सके। एमबीटी व्यक्तित्व के केवल चार पहलुओं का आकलन करके बारीकियों पर ध्यान नहीं दे रहा है। फिर भी, कई लोग मानते हैं कि एमबीटी पूरी तरह से बेकार भी नहीं है। उनका मानना है कि यह व्यक्तित्व के कुछ मोटे-मोटे रुझान तो बता ही सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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हज़ारों साल पुरानी चुइंगम में मिला मानव डीएनए

हाल ही में शोधकर्ताओं को स्कैन्डिनेविया के खुदाई स्थल से दस हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी चुइंगम के अवशेष मिले हैं। खास बात यह है कि इन चुइंगम में  उन्होंने मानव डीएनए के नमूने प्राप्त करने में सफलता हासिल की है।

ओस्लो स्थित म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री के नतालिज़ा कसुबा और उनके साथियों को स्वीडन के पश्चिम तटीय क्षेत्र ह्युसबी क्लेव खुदाई स्थल से 8 चुइंगम मिली हैं। ये चुइंगम भोजपत्र (सनोबर) की छाल के रस से बनी हैं। इन च्वुइंगम में मिठास नहीं थी, इनका स्वाद गोंद जैसा होता था। पाषाण युग में औज़ार बनाने में भी मनुष्य राल का उपयोग करते थे।

चुइंगम के विश्लेषण में शोधकर्ताओं को इन पर मानव डीएनए प्राप्त हुए। डीएनए की जांच में पता चला है कि ये डीएनए पाषाण युग के तीन अलग-अलग मनुष्यों के हैं, इनमें दो महिलाएं और एक पुरुष है। जिन मनुष्यों के डीएनए प्राप्त हुए हैं वे आपस में एक-दूसरे के करीबी सम्बंधी नहीं थे लेकिन इनके डीएनए पाषाण युग के दौरान स्कैन्डिनेविया और उत्तरी युरोप में रहने वाले मनुष्यों के समान हैं। असल में साल 1990 में भी इसी जगह पर खुदाई में मानव हड्डियों के अवशेष मिले थे। लेकिन तब प्राचीन मनुष्य के डीएनए को जांच पाना संभव नहीं था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अक्सर प्राचीन चुइंगम में चबाने वाले के दांत की छाप भी मिल जाती हैं। लेकिन उन्हें जो चुइंगम मिली हैं उनमें से तीन पर दांतों के निशान नहीं हैं। और चुइंगम का कालापन यह दर्शाता है कि उन्हें कितना चबाया गया था।

म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री में कार्यरत और इस अध्ययन में शामिल पेर पेरसोन का कहना है कि गोंद और अन्य पदार्थों से बनी हज़ारों साल पुरानी चुइंगम दुनिया भर में कई जगह मिलती हैं, वहां भी जहां मानव अवशेष मुश्किल से मिलते हैं। इस स्थिति में ये चुइंगम डीएनए विश्लेषण और अन्य जानकारी प्राप्त करने का अच्छा स्रोत हो सकती हैं। इसके अलावा चुइंगम में मौजूद लार से प्राचीन मानवों के बारे में जेनेटिक जानकारी, उनके स्थान और उनके प्रसार के बारे में जानकारी पता चलती है। इसके अलावा विश्लेषण से उनके बीच के सामाजिक रिश्ते, उनकी बीमारियों और उनके आहार के बारे में भी पता चलता है। उनका यह शोध कम्यूनिकेशन बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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फिलीपींस में मिली आदिमानव की नई प्रजाति – प्रदीप

हम आधुनिक मानव (होमो सेपिएंस) पिछले दस हज़ार सालों से एकमात्र मानव प्रजाति होने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि किसी दूसरी मानव प्रजाति के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभ में मानव वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने हमारी इस सोच को बदलते हुए बताया कि वास्तव में सेपिएंस कई मानव प्रजातियों में से महज एक है। आज से तकरीबन एक लाख साल पहले पृथ्वी कम से कम सात होमो प्रजातियों का घर हुआ करती थी। और इस दिशा में खोज की दर इतनी तेज़ है कि साल-दर-साल मानव वंश वृक्ष (फैमिली ट्री) में नए-नए नाम जुड़ते जा रहें हैं। इसी कड़ी में हाल ही में पुरातत्वविदों को उत्तरी फिलीपींस में आदिमानव की एक अलग और नई प्रजाति के अवशेष खोज निकालने में सफलता मिली है।

इस हालिया खोज से यह पता चला है कि जिस समय वर्तमान मानव प्रजाति यानी होमो सेपिएंस अफ्रीका से बाहर निकलकर दक्षिण पूर्व एशिया में फैल रही थी उस वक्त फिलीपींस में एक और मानव प्रजाति मौजूद थी। मानव वैज्ञानिकों को फिलीपींस के लूज़ोन द्वीप में मानव की उस प्रजाति के पुख्ता सबूत मिले हैं। इसके अवशेष लूज़ोन द्वीप में पाए गए हैं इसलिए इस प्रजाति का नाम होमो लूज़ोनेंसिस रखा गया है। मनुष्य के ये दूर के सम्बंधी आज से 50 से 67 हज़ार साल पहले फिलीपींस के इस द्वीप पर रहते थे।

बीते 10 अप्रैल को विज्ञान पत्रिका नेचर में इस खोज का खुलासा किया गया है। नेचर पत्रिका के मुताबिक होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेष लूज़ोन के उत्तर में मौजूद कैलाओ गुफा में मिले हैं। ये अवशेष कम से कम तीन लोगों के हैं जिनमें एक युवा है। साल 2007, 2011 और 2015 में ही इस गुफा से सात दांत, पैरों की छह हड्डियां, हाथ और टांग की हड्डियां प्राप्त हुई थीं। अब इस मानव प्रजाति को होमो लूज़ोनेंसिस नाम दिया गया है।

 होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेषों में पैरों की उंगलियां भीतर की तरफ मुड़ी हुई हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि शायद इनके लिए पेड़ों पर चढ़ना एक बेहद ज़रूरी काम हुआ करता था। छोटे दांतों के आधार पर इनके छोटे कद के होने का भी दावा किया जा रहा है। इसकी कुछ विशेषताएं मौजूदा मानव प्रजाति से मिलती हैं (जैसे सीधे खड़े हो कर चलना), जबकि कई विशेषताएं आदि वानरों के एक आरंभिक जीनस ऑस्ट्रलोपीथेकस से मिलती-जुलती हैं जो करीब 20 से 40 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में पाए जाते थे। इसलिए अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि आदि मानव के ये सम्बंधी अफ्रीका से जुड़े हो सकते हैं जो बाद में दक्षिण पूर्व एशिया में आ कर बस गए होंगे। गौरतलब है कि इस खोज से पहले ऐसा होना लगभग असंभव माना जा रहा था। इस खोज के बाद अब यह माना जा रहा है कि फिलीपींस और पूर्वी एशिया में मानव प्रजाति का विकास बेहद जटिलता से भरा हो सकता है क्योंकि यहां पहले से ही तीन या उससे ज़्यादा मानव प्रजातियां निवास कर रही थीं। इनमें से एक थे इंडोनेशिया के फ्लोर्स द्वीप के निवासी छोटे कद वाले हॉबिट या होमो फ्लोरसीएंसिस। इनकी ऊंचाई अधिकतम एक मीटर होती थी!

गौरतलब है कि होमो लूज़ोनेंसिस पूर्वी एशिया में उस समय रह रहे थे जब होमो सेपियंस, होमो निएंडरथल्स, डेनिसोवंस और होमो फ्लोरसीएंसिस भी पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में मौजूद थीं। अब तक वैज्ञानिकों का यह मानना था कि मनुष्य जैसी दिखने वाली सबसे पुरानी प्रजाति होमो इरेक्टस अफ्रीका से बाहर निकलकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली और बाकी मानव प्रजातियां होमो इरेक्टस के क्रमिक विकास की ही देन हैं। इस निष्कर्ष को अब होमो लूज़ोनेंसिस की खोज से चुनौती मिलने लगी है, जो होमो इरेक्टस के वंशज प्रतीत नहीं होते हैं। नेचर पत्रिका में इस खोज के बारे में लिखा गया है कि यह खोज इस बात की सबूत है कि मानवीय विकास एक सीधी रेखा में नहीं हुआ है जैसा कि आम तौर पर समझा जाता रहा है। यह सवाल भी है कि आखिर यह प्रजाति चारों ओर पानी से घिरे लूज़ोन द्वीप पर कैसी पहुंची? अफ्रीका से प्रवास करने वाले आदिमानव के किस वंशज से ये जुड़े हैं? फिलीपींस से मानव की इस प्रजाति के खत्म होने के क्या कारण थे? लेकहेड युनिवर्सिटी के मानव वैज्ञानिक मैथ्यू टोचेरी के मुताबिक, “इससे समझ में आता है कि एशिया में मानव का क्रमिक विकास कितना जटिल और खलबली से भरा हुआ था।” (स्रोत फीचर्स)

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शारीरिक संतुलन से जुड़े कुछ तथ्य

रोज़ाना उठते-बैठते-चलते वक्त हम अपने संतुलन के बारे में ज़्यादा सोचते नहीं हैं, लेकिन संतुलन बनाने में हमारे मस्तिष्क को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। शरीर के कई जटिल तंत्रों से सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचती हैं, जो मिलकर शरीर का संतुलन बनाती हैं। इन तंत्रों में ज़रा-सी भी गड़बड़ी असंतुलन की स्थिति पैदा करती है। संतुलन बनाने में मददगार ऐसे कुछ तथ्यों की यहां चर्चा की जा रही है।

संतुलन में कान की भूमिका

कान सिर्फ सुनने में ही नहीं, शरीर का संतुलन बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आंतरिक कान में मौजूद कई संरचनाएं स्थान और संतुलन सम्बंधी संकेत मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। सिर की सीधी गति (ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं) और गुरुत्वाकर्षण सम्बंधी संदेश के लिए दो संरचनाएं युट्रिकल और सैक्युल ज़िम्मेदार होती हैं। अन्य कुंडलीनुमा संरचनाएं, जिनमें तरल भरा होता है, सिर की घुमावदार गति से सम्बंधित संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं।

यदि आंतरिक कान में कोई क्षति होती है तो शरीर का संतुलन बिगड़ने लगता है। उदाहरण के लिए आंतरिक कान में कैल्शियम क्रिस्टल्स गलत स्थान पर पहुंचने पर मस्तिष्क को संकेत मिलता है कि सिर हिल रहा है जबकि वास्तव में सिर स्थिर होता है, जिसके कारण चक्कर आते हैं।

मांसपेशी, जोड़ और त्वचा

वेस्टिब्युलर डिस्ऑर्डर एसोसिएशन के मुताबिक मांसपेशियों, जोड़ों, अस्थिबंध (कंडराओं) और त्वचा में मौजूद संवेदना ग्राही भी स्थान सम्बंधी सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। पैर के तलवों या पीठ के संवेदना ग्राही दबाव या खिंचाव के प्रति संवेदनशील होते हैं।

गर्दन में मौजूद ग्राही मस्तिष्क को सिर की स्थिति व दिशा के बारे में संदेश पहुंचाते हैं जबकि ऐड़ी में मौजूद ग्राही जमीन के सापेक्ष शरीर की गति के बारे में बताते हैं। चूंकि नशे में मस्तिष्क को अंगों की स्थिति पता करने में दिक्कत महसूस होती है इसलिए अक्सर यह जांचने के लिए कि गाड़ी-चालक नशे में हैं या नहीं पुलिसवाले परीक्षण में चालक को अपनी नाक छूने को कहते हैं।

बढ़ती उम्र में संतुलन

संतुलन बनाने में नज़र, वेस्टीबुलर तंत्र और स्थान सम्बंधी संवेदी तंत्र भी अहम होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है शरीर के अंगों के साथ ये तंत्र भी कमज़ोर होने लगते हैं और गिरने के संभावना बढ़ती है।

चलने का अहसास होना

यदि आप ट्रेन में बैठे हैं और खिड़की से बाहर देख रहे हैं, तभी अचानक आपको महसूस होने लगता है कि आपकी ट्रेन चलने लगी है जबकि वह स्थिर होती है। इस स्थिति को वेक्शन कहते हैं। वेक्शन की स्थिति तब बनती है जब मस्तिष्क को प्राप्त होने वाली सूचनाएं आपस में मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए ट्रेन के मामले में आंखें खिड़की से दृश्य पीछे जाते देखती हैं, और मस्तिष्क को गति होने का संदेश भेजती हैं, लेकिन मस्तिष्क को शरीर में मौजूद अन्य संवेदना ग्राहियों से गति से सम्बंधित कोई संकेत नहीं मिलते और भ्रम की स्थिति बनती है। हालांकि दूसरी ओर देखने पर यह भ्रम खत्म हो जाता है।

माइग्रेन और संतुलन

माइग्रेन से पीड़ित लोगों में से लगभग 40 प्रतिशत लोग संतुलन बिगड़ने या चक्कर आने की समस्या का भी सामना करते हैं। इस समस्या को माइग्रेन-सम्बंधी वर्टिगो कहते हैं। समस्या का असल कारण तो फिलहाल नहीं पता, लेकिन एक संभावित यह कारण है कि माइग्रेन मस्तिष्क की संकेत प्रणाली को प्रभावित करता है। जिसके कारण मस्तिष्क की आंख, कान और पेशियों से आने वाले संवेदी संकेतों को समझने की गति धीमी हो जाती है, और फलस्वरूप चक्कर आते हैं। इसका एक अन्य संभावित कारण यह दिया जाता है कि मस्तिष्क में किसी रसायन का स्राव वेस्टीबुलर तंत्र को प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप चक्कर आते हैं।

सफर का अहसास होना

कई लोगों को जहाज़ या ट्रेन से उतरने के बाद भी यह महसूस होता रहता है कि वे अब भी ज़हाज या ट्रेन में बैठे हैं। सामान्य तौर पर यह अहसास कुछ ही घंटे या एक दिन में चला जाता है लेकिन कुछ लोगों में यह एहसास कई दिनों, महीनों या सालों तक बना रहता है। इसका एक कारण यह माना जाता है कि इससे पीड़ित लोगों के मस्तिष्क के मेटाबोलिज़्म और मस्तिष्क गतिविधि में ऐसे बदलाव होते हैं जो शरीर को हिलती-डुलती परिस्थिति से तालमेल बनाने में मददगार होते हैं। लेकिन सामान्य स्थिती में लौटने पर बहाल नहीं होते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मनुष्य साबुत सांप खाते थे?

हाल ही में टेक्सास स्थित ए-एंड-एम युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं को मानव मल में ज़हरीले सांप की हड्डियां, त्वचा और दांत मिले हैं। यह मल लगभग 1500 साल पुराना है। शोधकर्ता इलेनॉर सोन्डरमेन और उनके साथियों को यह मल सूखी अवस्था में टेक्सास के किसी स्थान में मिला था।

सभी जीव मल त्यागते हैं और सभी जीवों के मल में विविधता होती है। मल के विश्लेषण से उस जीव के बारे में कई बातें पता चलती है। मानव मल में मिले ये अवशेष इस बात की ओर इशारा करते हैं कि मानव किसी समय कुछ अवसरों या अनुष्ठानों के मौके पर पूरा सांप खाते होंगे।

वैसे उत्तरी अमेरिका में रहने वाले प्राचीन मानव नियमित रूप से सांप खाते थे। लेकिन आम तौर पर वे सांप की त्वचा और सिर हटा देते थे। किंतु शोधकर्ताओं को इस मल में सांप की त्वचा और दांत भी मिले हैं। उन्हें मल में सांप की 22 हड्डियां, 48 शल्क और 1 सेंटीमीटर लंबा विषदंत मिला है। जिससे अंदाज़ा लगता है कि ये अवशेष वेस्टर्न डायमंडबैक रैटलस्नेक (Crotalus atrox) के हैं। दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य के कुछ कबीले सांप की पूजा करते हैं। इसी आधार पर टीम ने अंदाज़ा व्यक्त किया है कि संभवत: इस सांप को किसी अनुष्ठान के दौरान खाया गया होगा। मल में शोधकर्ताओं को चूहे के भी अवशेष मिले हैं जिसे कच्चा और पूरा खाया गया था। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चूहा सांप ने खाया था या मानव ने। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होमो सेपिएंस, धर्म और विज्ञान – गंगानंद झा

क्रमिक जैव विकास के फलस्वरूप आज से लगभग पच्चीस लाख साल पहले मानव के विकास की शृंखला की शुरुआत अफ्रीका में होमो वंश के उद्भव के साथ हुई। फिर काल क्रम में इसकी कई प्रजातियां विकसित हुर्इं और अंत में आधुनिक मानव प्रजाति (होमो सेपिएंस) का विकास आज से करीब दो लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका में हुआ।

आधुनिक मनुष्य के इतिहास की शुरुआत आज से सत्तर हजार पहले संज्ञानात्मक क्रांति (Cognitive revolution) के रूप में हुई जब उसने बोलने की, शब्द गठन करने की क्षमता पाई। और तब वह अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों — युरोप, एशिया वगैरह में पसरता गया।

इतिहास का अगला पड़ाव करीब 12 हज़ार साल पहले कृषि क्रांति के साथ आया, जब मनुष्य ने खेती करना शुरू किया। मनुष्य अब यायावर नहीं रह गया, वह स्थायी बस्तियों में रहने लगा। सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानियां बनने लगीं।

अब जब मनुष्य ने समझने और अपनी समझ ज़ाहिर करने की क्षमता हासिल कर ली थी, तो उसने अपने चारों ओर के परिवेश के साथ अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की। धरती, आसमान और समंदर को समझने की कोशिश की। जानकारियां इकठ्ठी होती चली गर्इं। ये जानकारियां विभिन्न समय में अनेक धाराओं में प्रतिष्ठित हुई। ये धाराएं धर्म कहलार्इं। 

अब मनुष्य के पास अपनी समस्याओं, कौतूहल और सवालों के जवाब पाने का एक जरिया हासिल हो गया था।

जीवनयापन के लिए आवश्यक सारी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राचीन काल के मनीषियों द्वारा हमें धार्मिक ग्रंथों अथवा मौखिक परंपराओं में उपलब्ध कराई जा चुकी हैं। मान्यता यह बनी कि इन ग्रंथों और परंपराओं के समीचीन अध्ययन और समझ के ज़रिए ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लोगों की आस्था थी कि वेद, कुरान और बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों में विश्व ब्राहृांड के सारे रहस्यों का विवरण उपलब्ध है। इन धर्मग्रंथों के अध्ययन या किसी जानकार, ज्ञानी व्यक्ति से संपर्क करने पर सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। इसलिए नया कुछ आविष्कार करने की ज़रूरत नहीं रह गई है। 

ज़िम्मेदारी के साथ कहा जा सकता है कि सोलहवीं सदी के पहले मनुष्य प्रगति और विकास की आधुनिक अवधारणा में विश्वास नहीं करते थे। उनकी समझ थी कि स्वर्णिम काल अतीत में था और विश्व अचर है। जो पहले नहीं हुआ, वह भविष्य में नहीं हो सकता। युगों की प्रज्ञा के श्रद्धापूर्वक अनुपालन से स्वर्णिम अतीत को वापस लाया जा सकता है और मानवीय विदग्धता हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी के कई पहलुओं में सुधार ज़रूर ला सकती है लेकिन दुनिया की बुनियादी समस्याओं से उबरना मनुष्य की कूवत में नहीं है। जब सर्वज्ञाता बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ईसा मसीह, और मोहम्मद तक अकाल, भुखमरी, रोग और युद्ध रोकने में नाकामयाब रहे तो इन्हें रोकने की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही है।

हालांकि तब की सरकारें और संपन्न महाजन शिक्षा और वृत्ति के लिए अनुदान देते थे, किंतु उनका उद्देश्य उपलब्ध क्षमताओं को संजोना और संवारना था, न कि नई क्षमता हासिल करना। तब के शासक पुजारियों, दार्शनिकों और कवियों को इस आशा से दान दिया करते थे कि वे उनके शासन को वैधता प्रदान करेंगे और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखेंगे। उन्हें इनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रहती थी कि वे नई चिकित्सा पद्धति का विकास करेंगे या नए उपकरणों का आविष्कार करेंगे और आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करेंगे। सोलहवीं शताब्दी से जानकारियों की एक स्वतंत्र धारा उभरी। इसे वैज्ञानिक धारा के रूप में पहचाना जाता है।

वैज्ञानिक क्रांति ने सन 1543 में कॉपर्निकस की विख्यात पांडुलिपि डी रिवॉल्युशनिबस ऑर्बियम सेलेस्चियम (आकाशीय पिंडों की परिक्रमा) के प्रकाशन के साथ आहट दी थी। इस पांडुलिपि ने स्पष्टता के साथ ज्ञान की पारंपरिक धाराओं की स्थापित मान्यता (कि पृथ्वी ब्राहृांड का केंद्र है) के साथ अपनी असहमति की घोषणा की। कॉपर्निकस ने कहा कि पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य ब्राह्मांड का केंद्र है। पारंपरिक प्रज्ञा (wisdom) के साथ असहमति वैज्ञानिक नज़रिए की पहचान है।

कॉपर्निकस की पांडुलिपि के प्रकाशन के 21 साल पहले मेजेलान का अभियान पृथ्वी की परिक्रमा कर स्पेन लौटा था। इससे यह स्थापित हुआ कि पृथ्वी गोल है। इससे इस विचार को आधार मिला कि हम सब कुछ नहीं जानते। नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं। कोई भी अवधारणा, विचार या सिद्धांत ऐसा नहीं होता जो पवित्र और अंतिम हो और जिसे चुनौती न दी जा सके।

अगली सदी में फ्रांसीसी गणितज्ञ रेने देकार्ते ने वैज्ञानिक तरीकों से सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने की वकालत की। अंतत: सन 1859 में चार्ल्स डार्विन द्वारा प्राकृतिक वरण से विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किए जाने के साथ ही वैज्ञानिक विचारधारा को व्यापक स्वीकृति और सम्माननीयता मिली।

विज्ञान की पहचान इस बात में निहित है कि वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सामूहिक अज्ञान को खुले तौर पर स्वीकार करता है। विज्ञान का वक्तव्य है कि डार्विन ने कभी नहीं दावा किया कि वे जीव वैज्ञानिकों की आखिरी मोहर हैं और उनके पास सारे सवालों के अंतिम जवाब हैं। धर्म का आधार आस्था है, विज्ञान का आधार है परंपरा से मिली प्रज्ञा से असहमति। विज्ञान सवाल पूछने को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्म सवाल उठाने को निरुत्साहित करता है। 

आधुनिक विज्ञान का आधार यह स्वीकृति है कि हम सब कुछ नहीं जानते। और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि विज्ञान स्वीकार करता है कि नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं।

विज्ञान अज्ञान को कबूल करने के साथ-साथ नई जानकारियां इकट्ठा करने का लक्ष्य रखता है। अवलोकनों को इकट्ठा कर उन्हें व्यापक सिद्धातों में बदलने के लिए गणितीय उपकरणों का उपयोग कर ऐसा किया जाता है। आधुनिक विज्ञान नए सिद्धांत देने तक सीमित नहीं रहता, इन सिद्धांतों का उपयोग नई क्षमताएं हासिल करने और नई तकनीकों को विकसित करने में होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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