व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत सितंबर महीना खत्म होने को है और भारत में सेमीनार और सम्मेलनों के आयोजन का मौसम शुरू हो गया है। आम तौर पर कॉन्फ्रेंस में एक व्यापक विषयवस्तु पर विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। दूसरी ओर, सेमीनार में किसी एक खास विषय या उपविषय के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है जो मिलकर उस विषय पर विचारों का आदान-प्रदान और समीक्षा करते हैं। सम्मेलनों में श्रोता या प्रतिभागी किसी ऐसे विषय पर तकरीरें सुनते हैं जिससे वे परिचित नहीं हैं। इस तरह से यह उनके लिए सीखने का एक अवसर होता है। विशेष-थीम पर केंद्रित सेमीनार में प्रतिभागी सेमीनार में मात्र श्रोता नहीं होते, वे उस विषय से परिचित होते हैं और विषय की बारीकियां सुनते हैं, जिसमें से वे कुछ नया सीखते हैं, सराहते हैं और उससे कुछ ग्रहण करते हैं। इस तरह सम्मेलन और सेमीनार दोनों उपयोगी होते हैं।

लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। प्रस्तुतीकरण या तकरीर के दौरान कुछ या कई श्रोता सिर हिलाते-हिलाते ऊंघने लगते हैं और झपकी ले लेते हैं। इसे नॉड ऑफ कहते हैं। इस संदर्भ में 15 साल पहले (दिसंबर 2004 में) केनेडियन मेडिकल एसोसिएशन जर्नल में के. रॉकवुड और साथियों द्वारा प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया था कि व्याख्यानों के दौरान श्रोता ऐसा क्यों करते हैं, कितनी दफा करते हैं और झपकी आने के क्या कारक हैं। इस हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक शोधपत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने चुपके से एक ही समूह का लगातार (कोहॉर्ट) अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पता लगाया कि वैज्ञानिक मीटिंग के दौरान श्रोता-चिकित्सक कितनी बार झपकी लेते हैं, और झपकी आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं।

एक दो-दिवसीय व्याख्यान, जिसमें तकरीबन 120 लोग शामिल हुए थे, के अध्ययन में उन्होंने पाया कि प्रत्येक 100 प्रतिभागी पर प्रति व्याख्यान झपकी की संख्या (नॉडिंग ऑफ इवेंट पर लेक्चर, एनओईएल) 15-20 मिनट के व्याख्यान के दौरान 10 रही, लेकिन व्याख्यान 30-40 मिनट का होने पर बढ़कर तकरीबन 22 हो गई थी। अर्थात जितना लंबा व्याख्यान उतनी अधिक झपकी संख्या (एनओईएल)।

अध्ययन में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना एकदम अलग-अलग हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।

ऐसा क्यों होता है? और किन कारणों से होता है? इसके कई कारक सामने आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान, आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड, माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय, भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी कारण (जैसे नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।

आजकल तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटॉप वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटॉप में मशगूल हो जाते हैं, जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है। जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।

अध्ययन में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि गलती उनकी थी।

वक्ताओं को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड, पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट, 29 प्रतिशत चित्र और 33 प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग से लिखा टेक्स्ट)। इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर बोलें। आप कुछ उपयोगी सुझाव इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://www.med-ed-online.org)

और अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह (A2A रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो A2A रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है। एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी A2A रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी A2A रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके विपरीत कॉफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए रखते हैं।

तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला कॉफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हड्डियों से स्रावित हारमोन

ड्रीनेलिन, यह उस मशहूर हारमोन का नाम है जो अचानक आए किसी खतरे या डर की स्थिति से निपटने या पलायन करने के लिए हमारे शरीर को तैयार करता है। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि तनाव की स्थिति में होने वाली प्रतिक्रिया के लिए एड्रीनेलिन की अपेक्षा हड्डियों में बनने वाला एक अन्य हार्मोन ज़्यादा ज़िम्मेदार होता है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स वैज्ञानिक गैरार्ड कारसेन्टी का कहना है कि कंकाल शरीर के लिए हड्डियों का कठोर ढांचा भर नहीं है। हमारी हड्डियां ऑस्टियोकैल्सिन नामक प्रोटीन का स्राव करती हैं जो कंकाल का पुनर्निर्माण करता है। 2007 में कारसेन्टी और उनके साथियों ने इस बात का पता लगाया था कि ऑस्टियोकैल्सिन नामक यह प्रोटीन एक हार्मोन की तरह काम करता है, जो रक्त शर्करा स्तर को नियंत्रित रखता है और चर्बी कम करता है। इसके अलावा यह प्रोटीन मस्तिष्क गतिविधि को बनाए रखने, शरीर को चुस्त बनाए रखने, वृद्ध चूहों में स्मृति फिर से सहेजने और चूहों और लोगों में व्यायाम के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने के लिए भी ज़िम्मेदार होता है। इस आधार पर कारसेन्टी का मानना था कि जानवरों में कंकाल का विकास खतरों से बचने या खतरे के समय भागने के लिए हुआ होगा।

अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने चूहों को कुछ तनाव-कारकों का सामना कराया। जैसे उनके पंजों में हल्का बिजली का झटका दिया और लोमड़ी के पेशाब की गंध छोड़ी, जिससे चूहे डरते हैं। इसके बाद उन्होंने चूहों के रक्त में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर जांचा।

उन्होंने पाया कि तनाव से सामना करने के 2-3 मिनट के बाद चूहों के शरीर में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर चौगुना हो गया। इसी तरह के नतीजे उन्हें मनुष्यों के साथ भी मिले। जब शोधकर्ताओं ने वालन्टियर्स को लोगों के सामने मंच पर कुछ बोलने को कहा तब उनमें भी ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर अधिक पाया गया। उनका यह शोध सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क और कंकाल के बीच के तंत्रिका सम्बंध की पड़ताल करने पर पाया कि कैसे ऑस्टियोकैल्सिन आपात स्थिति में ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया शुरू करता है। इस प्रतिक्रिया में नब्ज़ का तेज़ होना, तेज़ सांस चलना और रक्त में शर्करा की मात्रा में वृद्धि शामिल होते हैं। कुल मिलाकर इसके चलते शरीर को भागने या लड़ने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा मिल जाती है। जब मस्तिष्क के एक हिस्से, एमिग्डेला, को खतरे का आभास होता है तो वह ऑस्टियोब्लास्ट नामक अस्थि कोशिकाओं को ऑस्टियोकैल्सिन का स्राव करने का संदेश देता है। ऑस्टियोकैल्सिन पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र की उस क्रिया को धीमा कर देता है जो दिल की धड़कन और सांस को धीमा करने का काम करती है। इसके चलते सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र पर लगा अंकुश हट जाता है और वह एड्रीनेलिन स्राव सहित शरीर की तनाव-प्रतिक्रिया शुरू कर देता है।

इस शोध के मुताबिक एड्रीनेलिन नहीं बल्कि ऑस्टियोकैल्सिन इस बात का ख्याल रखता है कि शरीर कब ‘लड़ो या भागो’ की स्थिति में आएगा। यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे एड्रीनल ग्रंथि रहित चूहे या वे लोग भी मुसीबत के समय तीव्र शारीरिक प्रतिक्रिया देते हैं जिनका शरीर किसी कारणवश एड्रीनेलिन नहीं बना सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दा विंची की पेंटिंग के पीछे छिपी तस्वीर

लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।

दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।

और अब पेंटिंग के पीछे ढंके चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों – इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।

इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी, और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।

इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़ से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव विकास और मनुष्यों की विलुप्त पूंछ – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

जापान की कियो युनिवर्सिटी के बायोइंजीनियर्स के एक दल ने हाल ही में इंसानों के लिए एक रोबोटिक पूंछ बनाई है। पहली नज़र में यह खबर थोड़ी हास्यापद लगती है लेकिन विस्तार से पढ़ने पर पता चलता है कि उन्होंने ज़रूरतमंद लोगों के लिए एक ऐसी रोबोटिक पूंछ बनाई है जिसे पहना जा सकता है। लेकिन फिर भी यह विचार तो आता ही है मनुष्यों को पूंछ की क्या ज़रूरत है!

इस पूंछ का नाम आक्र्यू है जो बुज़ुर्गों को चलने में, उन्हें गिरने से बचाने, सीढ़ी चढ़ने के दौरान संतुलन बनाने आदि में सहायक है। इसके बारे में और भी विस्तार से आप टेकएक्सप्लोर के 7 अगस्त के अंक में प्रकाशित नैन्सी कोहेन का लेख में पढ़ सकते हैं या यू-ट्यूब की इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=Tr1-IhEhXYQ पर जाकर देख सकते हैं कि कैसे यह कृत्रिम पूंछ मनुष्य के लिए उपयोगी हो सकती है। ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों के अलावा आक्र्यू बोझा ढोने वाले मज़दूरों, खड़ी ऊंचाई पर चढ़ने वाले पर्वतारोहियों के लिए भी मददगार है।

जब हममें से कुछ लोगों को उम्र बढ़ने पर चलने-फिरने में दिक्कत होती है तब यदि आक्र्यू जैसी कृत्रिम पूंछ मददगार है तो फिर प्रकृति ने  पूंछ को मनुष्य (और हमारे करीबी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला या बोनोबो) में क्यों बनाए नहीं रखा। भूमि व पानी में रहने वाले अधिकतर जीवों की पूंछ होती है (चाहे छोटी हो या बड़ी) और कई महत्वपूर्ण कार्य करती है। युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. डेविड यंग के मुताबिक जानवरों में पूंछ मक्खियां या कीट उड़ाने के अलावा भी कई कार्य करती है। पानी में मछली मुड़ने के लिए अपनी पूंछ की मदद लेती है, मगरमच्छ अपनी पूंछ में अतिरिक्त वसा संग्रहित करके रखते हैं जो आड़े वक्त ऊर्जा प्रदान करती है, और स्तनधारियों में पूंछ दौड़ते वक्त सिर के वज़न का संतुलन बनाने में मददगार होती है। तेज़ दौड़ने वाले जानवरों की पूंछ लंबी होती है। पेड़ पर चढ़ने वाले बंदरों की भी पूंछ लंबी होती है जो उनका संतुलन बनाए रखती है।

तो क्यों खोई?

जैसे ही हमने चार पैरों की जगह दो पैरों पर चलना शुरू किया, पूंछ से सहूलियत मिलने की बजाए असुविधा होने लगी। हैना ऐशवर्थ ने बीबीसी साइंस फोकस मैग्ज़ीन (sciencefocus.com) में बताया है कि पूंछ का जब कोई उपयोग ना हो तो वह महज़ ऐसा अंग होती है जिसे बढ़ने के लिए ऊर्जा चाहिए और वह शिकारियों को झपटने के लिए एक और चीज़ बन जाती है। छिपकली के लिए पूंछ सुरक्षा का एक साधन है – हमले या खतरे का आभास होने पर वह अपनी पूंछ गिरा देती है, जो बाद में फिर से उग जाती है। हम दोपाए मनुष्य सीधे चलते हैं, और शरीर के गुरुत्व केंद्र को ज़मीन से जोड़ने वाली रेखा हमारी रीढ़ की हड्डी से होती हुई पैरों तक जाती है। इसलिए हमें संतुलन बनाने के लिए पूंछ जैसे किसी अतिरिक्त अंग की ज़रूरत नहीं होती। ऐशवर्थ  आगे बताती हैं कि जंगल से घास के मैदानों (सवाना) की ओर प्रवास के समय  प्राकृतिक चयन ने हमारे उन पूर्वजों को वरीयता दी जिनकी पूंछ छोटी थी।

और अगले कुछ लाख सालों में धीरे-धीरे यह खत्म हो गई। वैसे मनुष्यों और ऐप्स (वनमानुषों) के बीच और भी कई अंतर हैं। इंडियाना युनिवर्सिटी के डॉ. केविन हंट को लगता है कि हमारे पूर्वज वृक्षों की नीचे लटकती डालियों तक पहुंचने के लिए सीधे खड़े होने लगे होंगे। “आज से लगभग 65 लाख साल पहले जब अफ्रीका में सूखा पड़ने लगा तब हमारे पूर्वज पूर्वी इलाकों में फंसे रह गए। यह इलाका सबसे ज़्यादा सूखा था। जंगल के मुकाबले सूखे इलाकों में पेड़ छोटे और अलग किस्म के होते हैं। इस तरह हमारे पूर्वज अफ्रीका के सूखे और झाड़-झंखाड़ भरे इलाकों में भोजन प्राप्त करने के लिए दो पैरों पर खड़े होने लगे। जबकि जंगलों में रहने वाले चिम्पैंज़ियों ने ऐसा नहीं किया। वे दोनों तरह से चलते रहे – दो पैरों पर और ज़रूरत पड़ने पर चार पैरों पर।” इस तरह के प्राकृतवास और दोपाया होने के कारण हमारी और पूर्वज वानरों की नाक की बनावट में भी अंतर आया – वह थोड़ी उभरी हुई हो गई। डार्विन ने बताया है कि सीधा खड़े होना या दो पैरों पर खड़े होने की मामूली-सी घटना के कारण वे सारे बदलाव हुए हैं जो मनुष्य को वानरों से अलग करते हैं। औज़ारों को ही लें। हंट बताते हैं कि “जैसे ही हमने दो पैरों पर चलना शुरू किया तो हमें औज़ार साथ रखने के लिए दो हाथ मिल गए। अलबत्ता मनुष्य ने औज़ारों का उपयोग दोपाया होने के 15 लाख साल बाद करना शुरू किया था।)” चौपाए से दोपाए होने की प्रक्रिया में इस तरह के जैव-संरचनात्मक, ऊर्जात्मक और कार्यात्मक प्रभाव पड़े।

वास्तव में, गर्भ के अंदर एकदम शुरुआती चार हफ्तों के जीवन के दौरान हमारी पूंछ होती है जो बाद में सातवें हफ्ते तक खत्म (अवशोषित) हो जाती है और हमारी रीढ़ की हड्डी के आधार में सिर्फ कॉक्सीक्स (पुच्छास्थि) बचती है, जो मांसपेशी के जुड़ाव-स्थल का कार्य करती है। चिम्पैंजी, गोरिल्ला जैसे वानरों में भी कॉक्सीक्स होती है।

पूरी विलुप्त नहीं हुई

अब सवाल यह है कि यदि भ्रूण में सात हफ्तों बाद भी पूंछ का अवशोषण ना हो और शिशुओं में पूंछ बनने लगे तो क्या होगा? सौभाग्यवश यह स्थिति दुर्लभ है, और अब तक दुनिया भर में इस तरह के सिर्फ 40 मामले रिपोर्ट हुए हैं। भारत में 6 इंच से ज़्यादा लंबी पूंछ किसी मामले में नहीं देखी गई है। शिशुओं में, कमर के नीचे के हिस्से में पूंछ वाले सिर्फ 3 मामले और रीढ़ की हड्डी के अन्य स्थानों पर पूंछ के कुल 8 मामले सामने आए हैं। सबसे हाल का मामला 2017 में सामने आया था। इन सभी नवजात शिशुओं में पूंछ को सफलतापूर्वक हटा दिया गया और सभी स्वस्थ और सामान्य हैं। निकाली गई पूंछ का अध्ययन करने पर पता चला कि ये पूंछ वसा ऊतकों, कोलेजन फाइबर, तंत्रिका फाइबर, रक्त वाहिकाओं और नाड़ी-ग्रंथि कोशिकाओं से बनी थीं जिसमें हड्डी नहीं थी। पूंछ के प्रारंभिक जीन-आधारित विश्लेषण से पता चला है कि पूंछ के विकास को नियंत्रित करने वाला जीन ज़्दद्य कुल का है। इस दुर्लभ विकार के कारणों और समाधान पर अनुसंधान उपयोगी होगा। (स्रोत फीचर्स) 

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कानों की सफाई के लिए कपास का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं

साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा कर दिया।

एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही। कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने लगा।    

तब कान, नाक और गले के विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था। विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।

आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।

आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं, कान के पर्दे को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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अंगों की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास

अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर प्रयोग कर रहे हैं।

वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।

अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।

फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कुत्तों और मनुष्य के जुड़ाव में आंखों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।

कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।

यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है। शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al., Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)

 कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।

कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों में समरूपी लक्षण दिखते हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना चाहेंगे।

इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद करती हैं, जो मनुष्यों को लुभाता है।

क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई है।

ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।

कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लोग खुद के सोच से ज़्यादा ईमानदार होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए ईमानदारी अनिवार्य है। लेकिन आजकल हम देखते हैं कि कैसे लोग, कंपनियां और सरकार अपने मतलब और फायदे के लिए धोखाधड़ी कर रहे हैं। क्या दुनिया के सभी 205 देशों में ऐसा ही होता है? क्या लोग व्यक्तिगत लेन-देन में ईमानदारी को तवज़्जो देते हैं? यही सवाल ए. कोह्न और उनके साथियों के शोध पत्र का विषय था (कोह्न और उनके साथी जानकारी संग्रहण और विश्लेषण, अर्थशास्त्र और प्रबंधन विषयों के विशेषज्ञ हैं)। उनका शोध पत्र “civic honesty around the globeसाइंस पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन उन्होंने 40 देशों के 355 शहरों में लगभग 17,000 लोगों के साथ किया, जिसमें उन्होंने लोगों में ईमानदारी और खुदगर्ज़ी के बीच संतुलन को जांचा। इस अध्ययन के नतीजे काफी दिलचस्प रहे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर वास्तव में उससे ज़्यादा ईमानदार होते हैं जितना वे खुद अपने बारे में सोचते हैं।

यह प्रयोग उन्होंने कैसे किया। शोधकर्ताओं ने कुछ वालन्टियर चुने जो किसी बैंक, पुलिस स्टेशन या होटल के पास एक बटुआ गिरा देते थे। हर बटुए के एक तरफ एक पारदर्शी कवर लगा था, जिसके अंदर एक कार्ड रखा होता था। इस कार्ड पर बटुए के मालिक का नाम और उससे संपर्क सम्बंधी जानकारी होती थी। कार्ड के साथ घर के लिए खरीदने के कुछ सामान (जैसे दूध, ब्रोड, दवाई वगैरह) की एक सूची भी होती थी। इस जानकारी के साथ बटुओं के अलग-अलग सेट बनाए गए। जैसे, कुछ बटुए बिना रुपयों के थे, कुछ बटुओं में थोड़े-से रुपए (14 डॉलर या उस देश के उतने ही मूल्य की नगदी) और कुछ में अधिक (95 डॉलर या समान मूल्य की नगदी) रखे गए। अर्थात बटुओं के 5 अलग-अलग सेट थे। पहले सेट में नगदी नहीं थी, दूसरे सेट में मामूली रकम थी, तीसरे सेट में अधिक रकम थी, चौथे सेट में नगदी नहीं लेकिन एक चाबी रखी गई थी, और पांचवे सेट में नगदी के साथ एक चाबी रखी थी।

वालन्टियर्स ने इन बटुओं को किसी सार्वजनिक स्थल (जैसे पुलिस स्टेशन, होटल या बैंक के पास) पर गिराया और इस बात पर नज़र रखी कि जब बटुआ किसी व्यक्ति को मिलता है तो वह उसके साथ क्या करता है। क्या वह नज़दीकी सहायता काउंटर पर जाकर सम्बंधित व्यक्ति तक बटुआ वापस पहुंचाने को कहता है? अध्ययन के नतीजे क्या रहे?

अध्ययन में उन्होंने पाया कि उन बटुओं को लोगों ने अधिक लौटाया जिनमें पैसे थे, बजाए बिना पैसों वाले बटुओं के। सभी 40 देशों में उन्हें इसी तरह के नतीजे मिले।

और यदि बटुओं में बहुत अधिक रुपए रहे हों, तो? क्या वे बटुआ लौटाने के पहले उसमें से थोड़े या सारे रुपए निकाल लेते? क्या उन्होंने सिर्फ सज़ा के डर से बटुए लौटाए? या इनाम मिलने की उम्मीद में लोगों ने पूरे रुपयों सहित बटुआ लौटाया? या ऐसा सिर्फ परोपकार की मंशा से किया गया था? यह वाला प्रयोग उन्होंने तीन देशों (यूके, यूएस और पोलैंड) में किया, जिसके नतीजे काफी उल्लेखनीय रहे। 98 प्रतिशत से अधिक लोगों ने अधिक रुपयों से भरा बटुआ भी लौटाया। (यह अध्ययन उन देशों में करना काफी दिलचस्प होगा जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं।)

अपने अगले प्रयोग में उन्होंने बटुओं के तीन सेट बनाए। पहले सेट में बटुए में सिर्फ थोड़े रुपए रखे, दूसरे सेट में बटुए में थोड़ी-सी रकम और एक चाबी रखी, और तीसरे सेट में बटुए में काफी सारे रुपए और चाबी दोनों रखे। इस अध्ययन में देखा गया कि बिना चाबी वाले बटुओं की तुलना में चाबी वाले बटुओं को अधिक लोगों ने लौटाया। इन नतीजों को देखकर लगता है कि लोग बटुए के मालिक को परेशानी में नहीं देखना चाहते। इसी तरह के नतीजे सभी देशों में देखने को मिले।

भारतीय शहर

इस अध्ययन में हमारे लिए दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, मुंबई, अहमदाबाद, कोयम्बटूर और कोलकाता शहर में लगभग 400 लोगों के साथ यह अध्ययन किया। इन शहरों के नतीजे अन्य जगहों के समान ही रहे। एशिया के थाईलैंड, मलेशिया और चीन, और केन्या और साउथ अफ्रीका के शहरों में भी इसी तरह के परिणाम मिले।

शोधकर्ताओं के अनुसार “हमने यह जानने के लिए 40 देशों में प्रयोग किया कि क्या लोग तब ज़्यादा बेईमान होते हैं जब प्रलोभन बड़ा हो, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। ज़्यादा नगदी से भरे बटुओं को अधिक लोगों द्वारा लौटाया गया। यह व्यवहार समस्त देशों और संस्थानों में मज़बूती से देखने को मिला, तब भी जब बटुओं में बेईमानी उकसाने के लिए पर्याप्त रकम थी। हमारे अध्ययन के नतीजे उन सैद्धांतिक मॉडल्स से मेल खाते हैं जिनमें परोपकार और आत्म-छवि को स्थान दिया जाता है, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि बेईमानी करने पर मिलने वाले भौतिक लाभ के साथ गैर-आर्थिक प्रेरणाओं का भी प्रत्यक्ष योगदान होता है। जब बेईमानी करने पर बड़ा लाभ मिलता है तो बेईमानी करने या धोखा देने की इच्छा बढ़ती है, लेकिन अपने आप को चोर के रूप में देखने की कल्पना इस इच्छा पर हावी हो जाती है। …तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि आर्थिक रूप से अनुकूल भौगोलिक परिवेश, समावेशी राजनैतिक संस्थान, राष्ट्रीय शिक्षा और नैतिक मानदंडों पर ज़ोर देने वाले सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बंध नागरिक ईमानदारी से है।”

ऐसे अध्ययन भारत के विभिन्न स्थानों, गांवों (गरीब और सम्पन्न दोनों), कस्बों, नगरों, शहरों और आदिवासी इलाकों में करना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के नतीजे उपरोक्त अध्ययन से निकले सामान्य निष्कर्षों से मेल खाते हैं या नहीं। भारत उन 40 देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो आर्थिक और सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों को साझा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर में बदलाव – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन थे, उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा किया था। इस से भड़ककर यू.एस. ने ‘प्रोजेक्ट अपोलो’ लॉन्च किया था जिसके तहत पहली बार मनुष्य चांद पर उतरा था। चंद्रमा से वापस धरती पर आने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि “मनुष्य का एक छोटा कदम मानवजाति के लिए बड़ी छलांग है।” उसके बाद से अब तक 37 देशों के लगभग 536 लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर चुके हैं। और आज यदि आपके पास पर्याप्त पैसा और जज़्बा है तो दुनिया की कम-से-कम चार कंपनियां आपको अंतरिक्ष की सैर करवाने की पेशकश कर रही हैं।

लेकिन अंतरिक्ष यात्रा मानव शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- इस दौरान शरीर के रसायन शास्त्र, शरीर क्रियाओं, जीव विज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सीय परिस्थितियां कैसे प्रभावित होती हैं। मसलन, मंगल से पृथ्वी की दूरी औसतन 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर है और वहां पहुंचने में लगभग 300 दिन लगते है। तो इस एक साल की यात्रा के दौरान शरीर में क्या-क्या बदलाव होंगे? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए एक प्रयोग किया था जिसमें एक अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर स्थित इंटनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसए) में रखा गया।

इस अध्ययन में अंतरिक्ष यात्री स्कॉट केली को एक साल तक अंतरिक्ष स्टेशन में रखा गया और इस दौरान उनकी कई जीव वैज्ञानिक पैमानों पर जांच की गई। अंतरिक्ष यात्रा के कारण होने वाले प्रभावों की पुष्टि के लिए कंट्रोल के तौर पर स्कॉट के आइडेंटिकल जुड़वां भाई मार्क केली पृथ्वी पर ही रुके थे। इस दौरान मार्क की भी उन्हीं पैमानों पर जांच की गई। इस अध्ययन में कंट्रोल रखना एक बेहतरीन योजना है, क्योंकि स्कॉट में आए बदलाव अंतरिक्ष यात्रा का ही प्रभाव है इसकी पुष्टि मार्क के साथ तुलना करके की जा सकती है।

अंतरिक्ष के कौन से कारक शरीर को प्रभावित करते हैं। शरीर को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है अंतरिक्ष का शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण भारहीनता का एहसास होता है, जो शरीर को प्रभावित करता है। पृथ्वी पर हमें सीधा या तनकर खड़े होने में गुरुत्वाकर्षण मदद करता है। खड़े होने या चलने की स्थिति में हमारे शरीर में रक्त या अन्य तरल का प्रवाह नीचे की ओर होता है (शरीर में मौजूद पंप और वाल्व, इस नैसर्गिक प्रवाह के विपरीत, इन तरल पदार्थों का पूरे शरीर में संचार करते हैं)। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण शरीर का तरल या रक्त संचार प्रभावित होता है। डॉ. लॉबरिच और डॉ. जेग्गो साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन ने पृथ्वी की सतह पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण के अनुरूप आकार लिया है, और लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं इसके अनुकूल ढली हैं। तो शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी।

अंतरिक्ष में शरीर को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है आयनीकारक विकिरण से संपर्क। आयनीकारक विकिरण ब्राहृांडीय किरणों तथा सौर किरणों जैसे रुाोत से निकलती हैं। यह विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभाव डालता है। पृथ्वी पर मौजूद वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस विकिरण से हमारी सुरक्षा करता है। यानी अध्ययन के दौरान अंतरिक्ष स्टेशन निवासी स्कॉट पृथ्वी पर रुके मार्क की तुलना में आयनीकारक किरणों के संपर्क में अधिक आए थे।

जुड़वां भाइयों के इस अध्ययन में उनके शरीर में हुए रसायनिक, भौतिक और जैव-रासायनिक बदलावों की विस्तारपूर्वक तुलना फ्रेंसिन गेरेट, बैकलमेन और उनके साथियों द्वारा की गई। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा से पहले, यात्रा के दौरान, यात्रा से वापसी के तुरंत और 6 महीने बाद स्कॉट में संज्ञान सम्बंधी, शारीरिक, जैव-रासायनिक परिवर्तनों, सूक्ष्मजीव विज्ञान और जीन के व्यवहार और टेलोमेयर (क्रोमोसोम के सिरों वाले खंड) का अध्ययन किया। साथ ही साथ यही अध्ययन पृथ्वी पर रुके मार्क के साथ भी किए गए। उनका यह अध्ययन 25 महीने तक चला।

अध्ययन के नतीजे क्या रहे? अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर की कुछ जैविक प्रक्रियाएं जैसे प्रतिरक्षा प्रणाली (टी-कोशिकाएं), शरीर का द्रव्यमान, आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव वगैरह कम प्रभावित हुए थे। कुछ अन्य प्रक्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह मध्यम स्तर तक प्रभावित हुए थे। लेकिन अंतरिक्ष यात्रा के दौरान टेलोमेयर गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे; स्कॉट के टेलोमेयर छोटे हो गए थे। इससे लगता है कि आयनीकारक किरणों ने स्कॉट को प्रभावित किया था। शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रक्त और ऊतकों का तरल ऊपरी हिस्सों में पहुंच गया था, कैरोटिड (गर्दन में मौजूद धमनी) की दीवार मोटी हो गई थी जिसके परिणाम-स्वरूप ह्मदय और मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में बदलाव हुए थे। साथ ही स्कॉट में रेटिना के इर्द-गिर्द रक्त प्रवाह और कोरोइड का मोटा होना देखा गया था, जिसके कारण नज़र हल्की धुंधली पड़ गई थी।

वापसी पर सामान्य स्थिति

वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद भी स्कॉट की जांच करते रहे थे। उन्होंने पाया कि स्कॉट में जो बदलाव अंतरिक्ष यात्रा के दौरान आए थे, पृथ्वी पर लौटने के बाद वे सामान्य स्थिति में लौट आए थे। हमें इस तरह के और भी अध्ययनों की ज़रूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि लंबी अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक रूप से किस तरह प्रभावित करती है क्योंकि जितनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा होगी प्रभाव भी उतना अधिक होगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद सामान्य अवस्था में लौटने में भी अधिक वक्त लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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