प्राचीन मिस्र के पुजारियों की कब्रगाह मिली

मिस्र के पुरावशेष मंत्रालय द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में पुरातत्वविदों ने एक विशाल कब्रगाह खोज निकाला है। इस कब्रगह में प्राचीन मिस्र के मुख्य पुरोहितों के साथ उनके सहायकों की कब्रें पाई गई हैं। अभी तक पुरातत्वविद 20 पाषाण-ताबूत निकाल पाए हैं जो उच्च कोटि के चूना पत्थर से तैयार किए गए थे। मिस्र की सुप्रीम काउंसिल ऑफ एंटीक्विटीज़ के महासचिव मुस्तफा वज़ीरी के अनुसार यह स्थान काहिरा से लगभग 270 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।

इसके अलावा खुदाई में सोने और कीमती पत्थर से बने 700 तावीज़, चमकदार मिट्टी से बनी 10,000 से अधिक शाबती (ममीनुमा) मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। प्राचीन मिस्रवासियों का ऐसा मानना था कि शाबती मूर्तियां मरणोपरांत मृतकों की सेवा करती हैं। शोधकर्ताओं को अभी तक इन ममियों की कुल संख्या के बारे में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन अभी भी खुदाई का काम जारी है और आगे इस तरह के और ताबूत मिलने की संभावना है।       

ऐसा माना जा रहा है कि यह प्राचीन कब्रें ‘उत्तर काल’ (664-332 ईसा पूर्व) के दौर की हैं जब प्राचीन मिस्र के लोग नूबियन, असीरियन और ईरानी लोगों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। ये कब्रें इस काल के शुरुआत की लगती हैं (लगभग 688 से 525 ईसा पूर्व) जिस समय उन्होंने नूबियन शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी।

यह उत्तर काल 332 ईसा पूर्व में सिकंदर की सेनाओं के मिस्र में प्रवेश करने के साथ समाप्त हुआ। सिकंदर की मृत्यु के बाद 323 ईसा पूर्व में सिकंदर के एक जनरल टोलेमी प्रथम और उसके वंशजों ने लगभग तीन शताब्दियों तक मिस्र पर शासन किया। इसके बाद 30 ईसा पूर्व से रोम साम्राज्य ने मिस्र पर शासन किया।   भले ही कई विदेशी शक्तियों ने मिस्र पर राज किया था फिर भी वहां की धार्मिक परंपरा लगातार फलती-फूलती रही। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि रोमन सहित विभिन्न विदेशी शासकों ने मिस्र की प्राचीन धार्मिक परंपराओं का हमेशा से सम्मान किया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तीन हज़ार साल पुराना शव बोला!

शायद यह बात सुनने में अटपटी लगे कि कोई मुर्दा बोला। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसी ऑडियो क्लिप रिलीज़ की है जिसमें उन्होंने मृत व्यक्ति की आवाज़ रिकॉर्ड की है। और यह जिस मृत व्यक्ति की आवाज़ है वह एक 3000 साल पुरानी मिस्र की ममी है जिसका नाम नेसियामुन रखा गया है।

चूंकि हर व्यक्ति की भिन्न आवाज़ के लिए वोकल ट्रैक्ट (ध्वनि मार्ग) की लंबाई-चौड़ाई ज़िम्मेदार होती है, इसलिए वैज्ञानिकों ने ममी की आवाज़ को पुन: निर्मित करने के लिए ममी का कंप्यूटेड टोमोग्राफी स्कैन (सी.टी. स्कैन) किया और ममी के ध्वनि मार्ग के आकार की माप हासिल कर ली। और इसकी मदद से उन्होंने नेसियामुन के ध्वनि मार्ग का एक त्रि-आयामी मॉडल बनाया। फिर इसे इलेक्ट्रॉनिक स्वर यंत्र (कृत्रिम लैरिंक्स) से जोड़ा जिसने ध्वनि मार्ग के लिए ध्वनि के स्रोत की तरह कार्य किया। इस सेटअप से वैज्ञानिकों ने नेसियामुन की आवाज़ पैदा की। हालांकि जो आवाज़ वे पैदा कर पाए हैं वो सुनने में भेड़ के मिमियाने जैसी सुनाई पड़ती है लेकिन इससे नेसियामुन के आवाज़ कैसी होगी इसका अंदाज़ लगता है।

नेसियामुन के ताबूत पर लिखी जानकारी और उसके साथ दफन चीज़ों के आधार पर वैज्ञानिक बताते हैं कि वह एक मिस्री पादरी और मुंशी थे, जो संभवत: गुनगुनाते रहे होंगे और भगवान से बातें करते रहे होंगे। यह उनके धार्मिक कामकाज का ही हिस्सा रहा होगा। उनके ताबूत पर लिखी इबारत से पता चलता है कि नेसियामुन की इच्छा थी कि वे भगवान के दर्शन करें और उससे बातचीत करें, जैसा कि वे अपने जीवनकाल में भी करते रहे थे। शुक्र है आधुनिक टेक्नॉलॉजी का, अब मरने के बाद, वे हम सबसे बातें कर पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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2600 वर्षों तक सुरक्षित मस्तिष्क

शोधकर्ताओं को एक ऐसे व्यक्ति की खोपड़ी और दिमाग मिले हैं जिसका लगभग 2600 वर्ष पहले सिरकलम किया गया था। यह घटना जिस जगह हुई थी वह आजकल के यॉर्क (यू.के.) में है। वर्ष 2008 में शोधकर्ताओं को जब खोपड़ी मिली थी, तो उसमें से मस्तिष्क का ऊतक प्राप्त हुआ जो आम तौर पर मृत्यु के तुरंत बाद सड़ने लगता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि यह ढाई हज़ार वर्षों तक संरक्षित रहा। और तो और, मस्तिष्क की सिलवटों और खांचों में भी कोई परिवर्तन नहीं आया था। ऐसा लगता है कि धड़ से अलग होकर वह सिर तुरंत ही कीचड़ वाली मिट्टी में दब गया था।

शोधकर्ताओं ने मामले को समझने के लिए विभिन्न आणविक तकनीकों का उपयोग करके बचे हुए ऊतकों का परीक्षण किया। शोधकर्ताओं ने इस प्राचीन मस्तिष्क में दो संरचनात्मक प्रोटीन पाए जो न्यूरॉन्स और ताराकृति ग्लियल कोशिकाओं दोनों के लिए एक किस्म के कंकाल या ढांचे का काम करते हैं। लगभग एक वर्ष तक चले इस अध्ययन में पाया गया कि उक्त प्राचीन मस्तिष्क में यह प्रोटीन-पुंज ज़्यादा सघन रूप से भरा हुआ था और आधुनिक मस्तिष्क की तुलना में अधिक स्थिर भी था। जर्नल ऑफ रॉयल सोसाइटी इंटरफेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस प्राचीन प्रोटीन-पुंज ने ही मस्तिष्क के नरम ऊतक की संरचना को दो सहस्राब्दियों तक संरक्षित रखने में मदद की होगी। 

पुंजबद्ध प्रोटीन उम्र के बढ़ने और मस्तिष्क की अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों की पहचान हैं। लेकिन शोधकर्ताओं को इनसे जुड़े कोई विशिष्ट पुंजबद्ध प्रोटीन नहीं मिले। वैज्ञानिकों को अभी भी मालूम नहीं है कि ऐसे पुंज बनने की वजह क्या है लेकिन उनका अनुमान है कि इसका सम्बंध दफनाने के तरीकों से है जो परंपरागत ढंग से हुआ होगा। ये नए निष्कर्ष शोधकर्ताओं को ऐसे अन्य प्राचीन ऊतकों के प्रोटीन से जानकारी इकट्ठा करने में मदद कर सकते हैं जिनसे आसानी से डीएनए बरामद नहीं किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से अधिक पुरुष हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व भर में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और चिकित्सा (STEM) के क्षेत्र में महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक हैं। इस लिंग-आधारित बंटवारे के पीछे के क्या सामाजिक कारण हैं? शोध बताते हैं कि चाहे श्रम बाज़ार हो या उच्च योग्यता वाले क्षेत्र, इनमें जब महिला और पुरुष दोनों ही नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तब पुरुष उम्मीदवार स्वयं का खूब प्रचार करते हैं और अपनी शेखी बघारते हैं जबकि समान योग्यता वाली महिलाएं ‘विनम्र’ रहती हैं और स्वयं को कम प्रचारित करती हैं। और उन जगहों पर जहां महिला और पुरुष सहकर्मी के रूप में होते हैं, वहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं के विचारों या मशवरों को या तो अनदेखा कर दिया जाता है या उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। नतीजतन, पुरुषों की तुलना में महिलाएं स्वयं की क्षमताओं को कम आंकती हैं, खासकर सार्वजनिक स्थितियों में, और अपनी बात रखने में कम सफल रहती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की डॉ. सपना चेरियन और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में उपरोक्त अंतिम बिंदु को विस्तार से उठाया है। साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित अपने शोध पत्र, ‘क्यों कुछ चुनिंदा STEM क्षेत्रों में अधिक लिंग संतुलन है?’ में वे बताती हैं कि अमेरिका में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान विषयों में 60 प्रतिशत से अधिक उपाधियां महिलाएं प्राप्त करती हैं जबकि कंप्यूटर साइंस, भौतिकी और इंजीनियरिंग में सिर्फ 25-30 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। सवाल है कि इन क्षेत्रों में इतना असंतुलन क्यों है? चेरियन इसके तीन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारण बताती हैं (1) मर्दाना संस्कृति, (2) बचपन से लड़कों की तुलना में लड़कियों की कंप्यूटर, भौतिकी या सम्बंधित विषयों तक कम पहुंच, और (3) स्व-प्रभाविता में लैंगिक-विषमता।

रूढ़िगत छवियां

‘मर्दाना संस्कृति’ क्या है? रूढ़िगत छवि है कि कुछ विशिष्ट कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुष इन कामों में अधिक निपुण होते हैं, और महिलाएं ‘कोमल’ और ‘नाज़ुक’ होती हैं इसलिए वे ‘मुश्किल’ कामों के लिए अयोग्य हैं। इसके अलावा महिलाओं के समक्ष पर्याप्त महिला अनुकरणीय उदाहरण भी नहीं हैं जिनसे वे प्रेरित हो सकें और उनके नक्श-ए-कदम पर चल सकें। (866 नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से सिर्फ 53 महिलाएं हैं। यहां तक कि जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में अब तक दिए गए 400 से भी अधिक लास्कर पुरस्कारों में से भी सिर्फ 33 महिलाओं को मिले हैं।)

दूसरा बिंदु (यानी बचपन से लड़कियों की कुछ नियत क्षेत्रों में कम पहुंच) की बात करें तो कंप्यूटर का काम करने वालों के बारे में यह छवि बनाई गई है कि वे ‘झक्की’ होते हैं और सामाजिक रूप से थोड़े अक्खड़ होते हैं, जिसके चलते महिलाएं कतराकर अन्य क्षेत्रों में चली जाती हैं।

तीसरा बिंदु, स्व-प्रभाव उत्पन्न करने में लैंगिक-खाई, यह उपरोक्त दो कारणों के फलस्वरूप पैदा होती है। इसके कारण लड़कियों और महिलाओं के मन में यह आशंका जन्मी है कि शायद वास्तव में वे कुछ चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और जीव विज्ञान) के ही काबिल हैं। उनमें झिझक की भावना पैदा हुई है। यह भावना स्पष्ट रूप से प्रचलित मर्दाना संस्कृति के कारण पैदा हुई है और इसमें मर्दाना संस्कृति झलकती है।

फिर भी यदि हम जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों की बात करें तो, जहां विश्वविद्यालयों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के पद और तरक्की के लिए महिला और पुरुष दोनों ही दावेदार होते हैं, वहां भी लैंगिक असामनता झलकती है। विश्लेषण बताते हैं कि शोध-प्रवण विश्वविद्यालय कम महिला छात्रों को प्रवेश देते हैं। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि कई काबिल महिला वैज्ञानिकों ने, यह महसूस करते हुए कि उनके अनुदान आवेदन खारिज कर दिए जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूटट ऑफ हैल्थ जैसी बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं में अनुदान के लिए आवेदन करना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में लेर्चेनमुलर, ओलेव सोरेंसन और अनुपम बी. जेना का एक पठनीय व विश्लेषणात्मक पेपर Gender Differences in How Scientists Present the Importance of their Research: Observational Study (वैज्ञानिकों द्वारा अपने काम का महत्व प्रस्तुत करने में लैंगिक अंतर) दी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के 16 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है (नेट पर मुफ्त उपलब्ध है)। अपने पेपर में उन्होंने 15 वर्षों (2002 से 2017) के दौरान पबमेड में प्रकाशित 1 लाख से ज़्यादा चिकित्सीय शोध लेख और 62 लाख लाइफ साइंस सम्बंधी शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चिकित्सा फैकल्टी के रूप में और जीव विज्ञान शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं की संख्या कम है। पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, कुछ ही शोध अनुदान मिलते हैं और उनके शोध पत्रों को कम उद्धरित किया जाता है।

भारत में स्थिति

 भारत में भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन क्यों? महिलाओं की तुलना में पुरुष अपने काम की तारीफ में भड़कीले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, और अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। लेखकों ने ऐसे 25 शब्द नोट किए हैं, इनमें से कुछ शब्द तो बार-बार दोहराए जाते हैं जैसे अनूठा, अद्वितीय, युगांतरकारी, मज़बूत और उल्लेखनीय। जबकि इसके विपरीत महिलाएं विनम्र रहती हैं और खुद को कम आंकती हैं। लेकिन अफसोस है कि इस तरह अपनी शेखी बघारने के कारण पुरुषों को अधिक अनुदान मिलते हैं, जल्दी पदोन्नती मिलती है, वेतनवृद्धि होती है और निर्णायक समिति में सदस्यताएं मिलती है। इस तरह खुद को स्थापित करने को चेरियन ने अपने पेपर में मर्दानगी कहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित चेरियन के उपरोक्त पेपर के नतीजे कई नामी अखबारों में भी छपे थे, जिनमें से एक का शीर्षक था – पुरुष वैज्ञानिक ऊंचा बोलकर महिलाओं को चुप करा देते हैं!

तो क्या भारतीय वैज्ञानिक भी इसके लिए दोषी हैं? उक्त 62 लाख शोध पत्रों में निश्चित रूप से ऐसे शोधपत्र भी होंगे जिनका विश्लेषण करके भारतीय वैज्ञानिकों की स्थिति को परखा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में अनुदान प्रस्तावों, निर्णायक दलों और प्रकाशनों के इस तरह के विश्लेषण की हमें प्रतीक्षा है। सेज पब्लिकेशन द्वारा साल 2019 में प्रकाशित नम्रता गुप्ता की किताब Women in Science and Technology: Confronting Inequalities (विज्ञान व टेक्नॉलॉजी में महिलाएं: असमानता से सामना) स्पष्ट करती है कि इस तरह की असमानता भारत में मौजूद है। वे बताती हैं कि भारत के पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा रही है कि महिलाओं को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं है। यह धारणा हाल ही में बदली है। आगे वे बताती हैं कि आईआईटी, एम्स, सीएसआईआर और पीजीआई के STEM विषयों के शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों में सिर्फ 10-15 प्रतिशत ही महिला शोधकर्ता और अध्यापक हैं। निजी शोध संस्थानों में भी बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं। अर्थात भारत में भी स्थिति बाकी दुनिया से बेहतर नहीं है।

भारतीय वैज्ञानिकों को प्राप्त सम्मान और पहचान की बात करें तो इस बारे में जी. पोन्नारी बताते हैं कि विज्ञान अकादमियों में बमुश्किल 10 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। अब तक दिए गए 548 भटनागर पुरस्कारों में से सिर्फ 18 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है। और 52 इंफोसिस पुरस्कारों में से 15 महिलाएं पुरस्कृत की गई हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन पुरस्कारों की निर्णायक समिति (जूरी) में एक भी महिला सदस्य नहीं थी।

भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे DST, DBT, SERB, ICMR, DRDO) द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान में लैंगिक अनुपात का अध्ययन करना रोचक हो सकता है। साथ ही लेर्चेनमुलर के अध्ययन की तर्ज पर, नाम और जानकारी गुप्त रखते हुए, दिए गए अनुदान के शीर्षक और विवरण का विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या भारतीय पुरुष वैज्ञानिक भी हो-हल्ला करके हावी हो जाते हैं? (स्रोत फीचर्स)

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श्वसन सम्बंधी रहस्यमयी वायरस

हाल ही में वायरल निमोनिया के एक अज्ञात रूप ने चीन के वुडान शहर में कई दर्जन लोगों को प्रभावित किया है। इससे देश भर में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के प्रकोप की संभावना व्यक्त की जा रही है।

यूएस सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, इससे पहले वर्ष 2002 और 2003 में SARS छब्बीस देशों में फैला था जिसने 8000 लोगों में गंभीर फ्लू जैसी बीमारी के लक्षण पैदा किए थे। इसके कारण लगभग 750 लोगों की मृत्यु भी हुई थी। उस समय इस प्रकोप की शुरुआत चीन में हुई थी जिसके चलते चीन में 349 और हांगकांग में 299 लोगों की जानें गई थीं।

जब कोई SARS संक्रमित व्यक्ति छींकता या खांसता है तब संभावना होती है कि वह अपने आसपास के लोगों और चीजों को दूषित कर देगा।

हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2004 में चीन को SARS मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं ने इस बीमारी की वापसी के संकेत दिए हैं।

अभी तक सामने आए 40 मामलों में से 11 मामले गंभीर माने गए हैं। संक्रमित लोगों में से अधिकतर लोगों की हुआनन सीफूड थोक बाज़ार में दुकान हैं, उनकी दुकानें स्वास्थ्य अधिकारियों ने अगली सूचना तक बंद कर दी हैं। इसके अलावा हांगकांग, सिंगापुर और ताइवान के हवाई अड्डों पर भी बुखार से पीड़ित व्यक्तियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई है।  

वैसे अभी तक इस संक्रमण का कारण अज्ञात है, लेकिन वुडान नगर पालिका के स्वास्थ्य आयोग ने इन्फ्लुएंज़ा, पक्षी-जनित इन्फ्लुएंज़ा, एडेनोवायरस संक्रमण और अन्य सामान्य श्वसन रोगों की संभावना को खारिज कर दिया है। WHO के चीनी प्रतिनिधि के मुताबिक कोरोनावायरस की संभावना की न तो अभी तक कोई पुष्टि की गई है और न ही इसे खारिज किया गया है।

गौरतलब है कि इस दौरान वुडान पुलिस द्वारा SARS से जुड़ी अपुष्ट खबरें फैलाने के ज़ुर्म में आठ लोगों को दंडित किया गया है। चाइनीज़ युनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग की प्रोफेसर एमिली चैन यिंग-येंग का मानना है कि यदि यह वास्तव में SARS है तो उन्हें इससे निपटने का तज़ुर्बा है लेकिन यदि यह कोई नया वायरस या वायरस की कोई नई किस्म है तो इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 2002 में मृत्यु दर युवाओं में अधिक थी, इसलिए यह देखना भी आवश्यक है कि इस बार वायरस का अधिक प्रभाव युवाओं पर है या बुज़ुर्गों पर।  

2002 की महामारी के विपरीत अब तक व्यक्ति-से-व्यक्ति रोग-प्रसार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, नहीं तो यह संक्रमण एक सामुदायिक प्रकोप के रूप में उभरकर आता। (स्रोत फीचर्स)

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माया सभ्यता का महल खोजा गया

मेक्सिकन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी एंड हिस्ट्री के पुरातत्वविदों को माया सभ्यता का पत्थरों से बना एक महल मिला है जो कुछ हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। माया सभ्यता वर्तमान के दक्षिणी मेक्सिको से लेकर ग्वाटेमाला, बेलीज़ और होंडुरास तक फैली हुई थी। इस सभ्यता को ऊंचे-ऊंचे पिरामिड, धातुकला, सिंचाई प्रणाली तथा कृषि के साथ-साथ जटिल चित्रलिपि के लिए जाना जाता है।

पुरातत्वविदों का मानना है कि यह महल खास तौर पर समाज के अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि वैज्ञानिक कई वर्षों से महल के आस-पास माया सभ्यता स्थल की खुदाई और इमारतों के जीर्णोद्धार का कार्य कर रहे थे। यह पुरातात्विक स्थल मशहूर शहर कानकुन से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिम में कुलुबा में है।

वैज्ञानिकों ने इस महल पर अध्ययन हाल ही में शुरू किया है। महल में 180 फीट लंबे, 50 फीट चौड़े और 20 फीट ऊंचे छह कमरे हैं। चूंकि यह महल काफी बड़ा था इसलिए इसे पूरी तरह से बहाल करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। पुरातत्वविदों की टीम के प्रमुख अल्फ्रेडो बरेरा रूबियो के अनुसार इस महल में कमरों के साथ अग्नि-वेदिका, भट्टी और रिहायशी कमरों के अलावा सीढ़ियां भी मौजूद थीं। महल का अध्ययन करने से मालूम चलता है कि दो अलग-अलग समय के दौरान लोग यहां रहे – एक तो 900 से 600 ईसा पूर्व के दौरान और दूसरा 1050 से 850 ईसा पूर्व के दौरान। इस क्षेत्र की स्थापत्य विशेषताओं की जानकारी के अभाव में मुख्य उद्देश्य इस सांस्कृतिक विरासत की बहाली और वास्तुकला का अध्ययन करना था। 

अध्ययन के दौरान टीम को कुछ द्वितीयक कब्रें भी मिलीं, यानी पहले कहीं दफन किए शव को निकालकर इन कब्रों में फिर से दफनाया गया था। इनकी मदद से आगे चलकर इस सभ्यता के लोगों की उम्र, लिंग और उनकी तंदुरुस्ती के बारे में पता लगाया जा सकेगा।

हालांकि इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि 800 से 1000 ईसा पूर्व के बीच यह सभ्यता का खत्म क्यों हुई, फिर भी कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि वनों की कटाई और सूखे के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

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साढ़े पांच हज़ार वर्ष पुरानी चुर्इंगम – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चुर्इंगम को चबाते हुए हमने कई अठखेलियां की हैं। हाल ही में दक्षिणी डेनमार्क से 5700 वर्ष पूर्व इंसानों द्वारा चबाए गए टार के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से बनी चिपचिपी एवं काली टार की इस चुर्इंगम को चबाते-चबाते उन लोगों ने अपने कई रहस्य उसमें कैद कर दिए। इनकी मदद से आज के वैज्ञानिक उनके रहन-सहन और खान-पान की आदतों का पता लगा सकते हैं।

5700 वर्ष पूर्व के प्राचीन डेनमार्क निवासी शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे। वे तीर के सिरे पर नुकीले पत्थर चिपकाने के लिए या पत्थरों के सूक्ष्म औजारों को लकड़ी पर चिपकाने के लिए चिपचिपे टार का उपयोग करते थे। टार प्राप्त होता था बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से। लगातार चबाने से टार चुर्इंगम के समान नरम हो जाता था और औज़ारों को चिपकाने-सुधारने के काम आता था। शायद, टार में पाए जाने वाले एन्टिसेप्टिक तेल और रसायन का उपयोग दांत दर्द से राहत पहुंचाने के लिए भी किया जाता हो। यह भी हो सकता है कि आज के बच्चों के समान उस समय के बच्चे भी टार की चुर्इंगम से खिलवाड़ करते रहे हों। टार की चुर्इंगम को चबाते-चबाते मुंह के अंदर की टूटी कोशिकाएं, भोजन के कण एवं सूक्ष्मजीव भी उसमें संरक्षित हो गए थे। यह प्राचीन चुर्इंगम वैज्ञानिकों को प्राचीन मानव के डीएनए का अध्ययन करने का बेहतरीन अवसर दे रही है।

नेचर कम्यूनिकेशन में दी एनशियंट डीएनए (प्राचीन डीएनए) नामक शोध पत्र में बताया गया है कि प्राचीन चुर्इंगम से प्राप्त डीएनए उस क्षेत्र में बसे लोगों की शारीरिक रचना तथा उनके भोजन और दांतों पर पाए जाने वाले जीवाणु के सुराग देता है।

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ता हेंस श्रोडर ने बताया है कि अक्सर वैज्ञानिक डीएनए अध्ययन के लिए हड्डियों का उपयोग करते हैं क्योंकि उनका कठोर आवरण अंदर नाज़ुक कोशिकाओं और डीएनए को संरक्षित कर लेता है। परंतु, इस शोध में वैज्ञानिकों ने हड्डियों के बजाय प्राचीन टार की चुर्इंगम का उपयोग किया। उन्होंने यह भी बताया कि टार की चुर्इंगम से बहुत से जीवाणुओं के संरक्षित डीएनए भी प्राप्त हुए हैं।

शोधकर्ताओं को टार की चुर्इंगम पिछले साल खोजबीन के दौरान एक सुरंग से प्राप्त हुई थी। डॉ. श्रोडर ने कहा कि इस स्थान से प्राप्त जीवाश्म के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस इलाके के रहने वाले लोग मुख्य रूप से मछली पकड़ने, शिकार करने और जंगली बेर और फल खाकर अपना जीवन यापन करते थे। यद्यपि, आसपास के इलाकों में लोगों ने खेती और पशुपालन भी प्रारंभ कर दिया था।

जब शोधकर्ताओं ने 5700 साल पुरानी टार की चुर्इंगम में संरक्षित मानव डीएनए का विश्लेषण किया तो पाया कि जिसने उसे चबाया था वह एक महिला थी जो शिकारी समुदाय से अधिक निकटता रखती थी। वैज्ञानिकों ने उस महिला का नाम लोला रखा। लोला के डीएनए को पूरा पढ़ने के बाद उसी क्षेत्र की वर्तमान आबादी के डीएनए आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करके वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लोला की त्वचा का रंग गहरा था, बाल भी गहरे रंग के थे तथा आंखों का रंग नीला था। वह लेक्टोस असहिष्णुता से ग्रसित थी जिसके कारण वह दूध की शर्करा का पाचन नहीं कर सकती थी।

डीएनए में क्षारों के अनुक्रम को पढ़कर व्यक्ति के रंग-रूप, कद-काठी एवं अन्य लक्षणों से चेहरे और शरीर का पुनर्निर्माण करना अब कोई आश्यर्चजनक कार्य नहीं रह गया है। वैज्ञानिकों ने कुछ ही समय पहले दस हज़ार वर्ष पुराने ब्रिटिश व्यक्ति (चेडर मेन) के कंकाल को देखकर और डीएनए को पढ़कर शारीरिक लक्षणों का अंदाज़ लगाया था।

टार की चुर्इंगम से प्राप्त कुछ अन्य डीएनए नमूनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि लोला ने टार की चुर्इंगम को चबाने से पहले हेसलनट तथा बतख खाई थी। बर्च टार से बैक्टीरिया एवं वायरस का डीएनए भी प्राप्त हुआ है। हम सभी के मुंह और आंत में बैक्टीरिया, वायरस और फफूंद होती हैं। अत: प्राप्त सबूतों से लोला के मुंह में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

लोला की चुर्इंगम से कई बैक्टीरिया भी प्राप्त हुए हैं जो दांतों में प्लाक और जीभ पर भी पाए जाते हैं। चुर्इंगम से प्राप्त एक बैक्टीरिया पोकायरोमोनास जिंजिवेलिस मसूड़ों की बीमारी का द्योतक है। चुर्इंगम में स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिया जैसे अन्य प्रकार के बैक्टीरिया एवं वायरस भी प्राप्त हुए हैं जो लोला के स्वास्थ्य का सुराग देते हैं।

छोटे से गम के टुकड़े से जानकारी का खजाना प्राप्त करना उत्कृष्ट शोध का नमूना है। अलबत्ता, वैज्ञानिक लोला की उम्र ज्ञात नहीं कर पाए हैं। और निश्चित तौर पर यह भी कहा नहीं जा सकता कि लोला ने चुर्इंगम को क्यों चबाया (स्रोत फीचर्स)

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प्रागैतिहासिक युग के बच्चे और हथियारों का उपयोग

प्रागैतिहासिक युग का अध्ययन करते समय पुरातत्वविद अक्सर बच्चों को अनदेखा कर देते हैं। उनका ऐसा मानना है कि उनका बचपन केवल माता-पिता के लालन-पालन तथा खेल और खिलौनों के बीच ही गुज़रता होगा। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे भी कठोर कार्य करते थे। वे कम आयु में ही उपकरणों और हथियारों का उपयोग करना सीख लेते थे जिससे बड़े होकर उनको मदद मिलती थी।     

कनाडा स्थित अल्बर्टा विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद रॉबर्ट लोसी और एमिली हल को ओरेगन के तट पर 1700 वर्ष पुरानी वस्तुओं का अध्ययन करते हुए कुछ टूटे हुए तीर और भाले मिले। गौरतलब है कि यह क्षेत्र अतीत में चिनूकन और सलीश भाषी लोगों का घर रहा है। इस अध्ययन के दौरान उन्हें टूटे ऐटलेटल (भालों को फेंकने के हथियार) भी मिले। 

लोसी बताती हैं कि उनको इन हथियारों के केवल बड़े नहीं बल्कि छोटे संस्करण भी दिखाई दिए। एंटिक्विटी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वयस्कों ने हथियारों के लघु संस्करण भी तैयार किए होंगे ताकि उनकी युवा पीढ़ी शिकार करने के कौशल सीख सके जिसकी उन्हें बाद में आवश्यकता होगी। वास्तव में एक सफल शिकारी बनने के लिए ऐटलेटल में महारत हासिल करना आवश्यक था। हालांकि यह हथियार आज शिकारियों के शस्त्रागार से लगभग गायब हो चुका है लेकिन इसमें पूर्ण महारत हासिल करने में कई साल लग जाते थे। 

देखा जाए तो आज भी कई समाजों में काफी कम उम्र से ही बच्चों को ऐसे उपकरणों और साधनों का उपयोग सिखाया जाता है। कई अध्ययनों से पता चला है कि जो बच्चे औज़ारों से खेलते हैं वे जल्द उनका उपयोग करना भी सीख जाते हैं। उदाहरण के तौर पर थाईलैंड के मानिक समाज के 4 वर्षीय बच्चे बड़ी सफाई से खाल उतारने और आंत को अलग करने का काम कर लेते हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि तंज़ानिया के हाज़दा समाज के 5 वर्षीय बच्चे उम्दा संग्रहकर्ता होते हैं और अपनी दैनिक कैलोरी खपत का आधा हिस्सा खुद इकट्ठा कर सकते हैं। इस प्रकार के कई अन्य अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे लघु-प्रसंस्करण के औज़ारों और खाद्य प्रसंस्करण के औज़ारों का उपयोग किया करते थे। कई अध्ययन के अनुसार कंकाल के प्रमाणों से पता चला है कि वाइकिंग किशोर भी सेना में शामिल थे।  लोगान स्थित ऊटा स्टेट युनिवर्सिटी की मानव विज्ञानी लैंसी के अनुसार इन अध्ययनों के बाद औद्योगिक समाज के माता-पिता को सीख लेनी चाहिए। आजकल एक कामकाजी बच्चे के विचार को एक प्रकार के शोषण के रूप में देखा जाता है, अधिकतर माता-पिता इसे गलत मानते हैं। लेकिन लैंसी का ऐसा मानना है कि बाल-श्रम और बच्चों के काम में काफी फर्क है। काम करते हुए बच्चे उपयोगी कौशल सीखते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि बच्चों का काम करना आज भी कई समाजों में एक सामान्य बात है और लगता है कि ऐसा सहरुााब्दियों से रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ते समुद्र से बचाव के लिए एक प्राचीन दीवार

आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व विश्व भर के महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने लगी थी। हिमयुग के बाद हिमनदों के पिघलने से भूमध्य सागर के तट पर बसे लोगों को इस बढ़ते जलस्तर से काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन इस परेशानी से निपटने के लिए उन्होंने एक दीवार का निर्माण किया जिससे वे अपनी फसलों और गांव को तूफानी लहरों और नमकीन पानी की घुसपैठ से बचा सकें। हाल ही में पुरातत्वविदों ने इरुााइल के तट पर उस डूबी हुई दीवार को खोज निकाला है जो एक समय में एक गांव की रक्षा के लिए तैयार की गई थी।    

इस्राइल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ हायफा के पुरातत्वविद एहुद गैलिली के अनुसार इरुााइल की अधिकतर खेतिहर बस्तियां, जो अब जलमग्न हैं, उत्तरी तट पर मिली हैं। ये बस्तियां रेत की एक मीटर मोटी परत के नीचे संरक्षित हैं। कभी-कभी रेत बहने पर ये बस्तियां सतह पर उभर आती हैं।   

गैलिली और उनकी टीम ने इस दीवार को 2012 में खोज निकाला था। यह दीवार तेल हराइज़ नामक डूबी हुई बस्ती के निकट मिली है। बस्ती समुद्र तट से 90 मीटर दूर तक फैली हुई थी और 4 मीटर पानी में डूबी हुई थी। टीम ने स्कूबा गियर की मदद से अधिक से अधिक जानकारी खोजने की कोशिश की। इसके बाद वर्ष 2015 के एक तूफान ने उन्हें एक मौका और दिया। उन्हें पत्थर और लकड़ी से बने घरों के खंडहर, मवेशियों की हड्डियां, जैतून के तेल उत्पादन के लिए किए गए सैकड़ों गड्ढे, कुछ उपकरण, एक चूल्हा और दो कब्रों भी मिलीं। लकड़ी और हड्डियों के रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर बस्ती 7000 वर्ष पुरानी है।        

प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दीवार 100 मीटर लंबी थी और बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई थी जिनका वज़न लगभग 1000 किलोग्राम तक था। गैलिली का अनुमान है कि यह गांव 200-300 वर्ष तक अस्तित्व में रहा होगा और लोगों ने सर्दियों के भयावाह तूफान कई बार देखे होंगे। आधुनिक समुद्र की दीवारों की तरह इसने भी ऐसे तूफानों से निपटने में मदद की होगी। गैलिली के अनुसार मानवों द्वारा समुद्र पानी से खुद को बचाने का यह पहला प्रमाण है।

गैलिली का ऐसा मानना है कि तेल हराइज़ पर समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। कुछ समय बाद उस क्षेत्र में रहने वाले लोग समझ गए होंगे कि अब वहां से निकल जाना ही बेहतर है। समुद्र का स्तर बढ़ता रहा होगा और पानी दीवारनुमा रुकावट को पार करके रिहाइशी इलाकों में भर गया होगा। लोगों ने बचाव के प्रयास तो किए होंगे लेकिन अंतत: समुद्र को रोक नहीं पाए होंगे और अन्यत्र चले गए होंगे। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

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