सूक्ष्मजीव
हमारे शरीर पर हर जगह, जैसे हमारे मुंह,
हमारी आंत में रहते हैं। इसी तरह हमारी जीभ पर भी लाखों
सूक्ष्मजीव रहते हैं। और अब सेल बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन
बताता है कि हमारी जीभ पर रहने वाले ये सूक्ष्मजीव यूं ही बेतरतीब नहीं बसते हैं
बल्कि वे अपनी तरह के सूक्ष्मजीवों के आसपास रहना पसंद करते है और अपनी प्रजाति के
आधार पर बंटकर अलग-अलग
समूहों में रहते हैं।
जीभ
पर इन सूक्ष्मजीवों की बसाहट कैसी है, यह
जानने के लिए मरीन बायोलॉजिकल लैबोरेटरी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी जेसिका मार्क
वेल्च और उनके साथियों ने पहले 21 स्वस्थ लोगों की जीभ को खुरचकर साफ किया। इसके बाद उन्होंने
बैक्टीरिया के विशिष्ट समूहों की पहचान करने के लिए उन पर अलग-अलग रंग के
फ्लोरोसेंट टैग लगाए, ताकि यह देख सकें कि
ये बैक्टीरिया जीभ पर ठीक-ठीक
कहां रहते हैं। उन्होंने पाया कि सभी बैक्टीरिया अपनी प्रजाति के एक मजबूत और
सुगठित समूह में रहते हैं।
माइक्रोस्कोप
से इन सूक्ष्मजीवों को देखने पर इनका झुंड एक सूक्ष्मजीवीय इंद्रधनुष जैसा दिखता
है। माइक्रोस्कोपिक तस्वीर में देखने पर पाया गया कि एक्टिनोमाइसेस
बैक्टीरिया जीभ के उपकला (या
एपिथिलीयल) ऊतक
के करीब पनपते हैं। रोथिया बैक्टीरिया अन्य समुदायों के बीच बड़ा समूह बना
कर रहते हैं। स्ट्रेप्टोकोकस प्रजाति के बैक्टीरिया जीभ के किनारे-किनारे एक पतली लकीर
बनाते हुए और महीन नसों के आसपास रहते हैं। इन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा
सकता है कि ये कॉलोनियां कैसे बसी और फली-फूली होंगी।
हालांकि डीएनए अनुक्रमण के ज़रिए वैज्ञानिक इस बारे में तो जानते थे कि हमारे शरीर में कौन से बैक्टीरिया रहते हैं लेकिन पहली बार जीभ पर रहने वाले सूक्ष्मजीवों के समुदाय का इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियां कहां जमा होती हैं और वे स्वयं को कैसे व्यवस्थित करती हैं, इस बारे में पता लगाकर बैक्टीरिया की कार्यप्रणाली के बारे में पता लगाया जा सकता है और देखा जा सकता है कि वे एक-दूसरे से कैसे संपर्क बनाते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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जैसे-जैसे नए कोरोनोवायरस
का प्रकोप दुनिया में फैल रहा है, लोगों को हिदायत दी
जा रही है कि वे एक-दूसरे
से कम-से-कम 6 फीट दूर रहें,
अपने हाथों को धोते रहें और अपने चेहरे को छूने से बचें। और
लोग इन हिदायतों का पालन करने की कोशिश भी कर रहे हैं।
लेकिन
नाक-आंख
वगैरह में होने वाली खुजली नज़रअंदाज करने की हिदायत देना आसान है,
नज़रअंदाज़ करना नहीं। यहां तक हिदायत देने वाले भी इसके आवेग
में अपने को रोक नहीं पाते। 2015 में, अमेरिकन जर्नल ऑफ
इंफेक्शन कंट्रोल में
प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक संक्रामक रोग की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित मेडिकल
स्कूल के छात्रों ने एक व्याख्यान के दौरान एक घंटे में 23 बार अपने चेहरे को छुआ।
तो
सवाल यह उठता है कि खुद को अपना चेहरा छूने से रोकना इतना मुश्किल क्यों है?
लोग अक्सर दांतों की सफाई, बालों
को संवारने, मेक-अप करने जैसे कामों
के चलते अपना चेहरा छूते रहते हैं। दिनचर्या में शामिल चेहरा छूने की ये आदतें फिर
आपको निरुद्देश्य ढंग से चेहरा छूने को प्रेरित करती हैं,
जैसे आंखों को मसलना।
यह
प्रवृत्ति सिर्फ आदत की बात भी नहीं है। केनटकी सेंटर फॉर एन्गज़ाइटी एंड रिलेटेड
डिसऑर्डर्स के संस्थापक-निदेशक
और मनौवैज्ञानिक केविन चैपमैन लाइव साइंस में बताते हैं कि “यह इस बात को
सुनिश्चित करने की आदत है कि हम सार्वजनिक तौर पर कैसे दिख रहे हैं।” उदाहरण के लिए,
मुंह के आसपास भोजन के अंश लगे होना यह दर्शा सकता है कोई
व्यक्ति गंदा है या वह अपनी प्रस्तुति का ध्यान नहीं रखता है। अपने चेहरे को छूकर
लोग खुद को संवार सकते हैं और यह भी दर्शा सकते हैं कि वे स्वयं के प्रति जागरूक
हैं।
हालांकि
चेहरे को छूना कई लोगों में एक बुरी आदत बन जाती है जो चिंताग्रस्त लोगों में और
भी बुरी साबित हो सकती है। चैपमैन कहते हैं कि उच्च स्तर के न्यूरोटिज़्म वाले लोग
तनाव को कम करने के लिए दोहराव वाले व्यवहार करते हैं। जैसे नाखून चबाना या बालों
में हाथ फेरना वगैरह। यह व्यक्ति के जीवन को प्रभावित कर सकता है,
जैसे हो सकता है इसकी वजह से उसे अन्य लोगों के साथ जुड़ाव
बनाने में दिक्कत हो या वह शक्तिहीन या लज्जित महसूस करे। ब्रेन रिसर्च में
प्रकाशित एक छोटे नमूने पर किए गए अध्ययन के मुताबिक,
कम गंभीर स्तर पर, लोग
तनाव के समय में खुद को शांत रखने के लिए अपने चेहरे को छूते हैं।
रोग
नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार, नए कोरोनावायरस से
संक्रमित होने का मुख्य कारण चेहरा छूना नहीं है। फिर भी,
सीडीसी नाक, मुंह या आंखों को ना
छूने की सलाह देता है क्योंकि यह वायरस इस तरह से फैलता है। और यदि आपने किसी
संक्रमित या दूषित सतह को छुआ है तो हाथों को साबुन और पानी से धोना या हैंड
सैनिटाइज़र का उपयोग करना कदापि ना भूलें।
चैपमैन बताते हैं कि जब लोग अपना चेहरा ना छूने के लिए सतर्क होते हैं तो संभावना होती है कि वे सामान्य से अधिक बार अपना चेहरा छू लें। जैसे किसी व्यक्ति को गुलाबी हाथी के बारे में ना सोचने को कहा जाए और वह तुरंत ही गुलाबी हाथी के बारे में सोचने लगता है। इस आदत को छोड़ने के लिए यह सोचें कि आप कब-कब अपना चेहरा छूते हैं, लेकिन यदि आप अपने आपको चेहरा छूते हुए पाएं तो खुद को इसकी सज़ा ना दें।(स्रोत फीचर्स)
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पिछले
हाल के समय में हिमालय क्षेत्र में हाईवे निर्माण व हाईवे को चौड़ा करने में हज़ारों
करोड़ रुपए का निवेश हुआ है, पर क्रियान्वयन में
कमियों, उचित नियोजन के अभाव
व आसपास के गांववासियों से पर्याप्त विमर्श न करने के कारण खुशहाली के स्थान पर
गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। अत: बहुत ज़रूरी है कि इन गलतियों को सुधारने के लिए असरदार
कार्रवाई की जाए ताकि विकास-मार्गों को विनाश मार्ग बनने से रोका जा सके।
इस
संदर्भ में दो सबसे चर्चित परियोजनाएं हैं उत्तराखंड की चार धाम परियोजना व हिमाचल
प्रदेश की परवानू-सोलन
हाईवे परियोजना। दोनों परियोजनाओं को मिला कर देखा जाए तो हाल के समय में हिमालय
के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में लगभग 50,000 पेड़ कट चुके हैं। एक बड़ा पेड़ कटता है तो
उससे आसपास के छोटे पेड़ों को भी क्षति पहुंचती है।
इन
दोनों परियोजनाओं के कारण अनेक नए भूस्खलन क्षेत्र उभरे हैं व पुराने भूस्खलन
क्षेत्र अधिक सक्रिय हो गए हैं। इस कारण यात्रियों को अधिक खतरे व परेशानियां
झेलनी पड़ रही हैं जबकि गांववासियों के लिए अधिक स्थायी संकट उत्पन्न हो गया है।
कुछ गांवों व बस्तियों का तो अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। परवानू-सोलन हाईवे के
किनारे बसे गांव मंगोती नंदे का थाड़ा गांव के लोगों ने बताया कि हाईवे के कार्य
में पहाड़ों को जिस तरह अस्त-व्यस्त किया है उससे उनका गांव ही संकटग्रस्त हो गया है।
सरकार को चाहिए कि उन्हें कहीं और सुरक्षित व अनुकूल स्थान पर बसा दे।
इसी
हाईवे पर सनवारा, हार्डिग कालोनी व
कुमारहट्टी के पास के कुछ स्थानों की स्थिति भी चिंताजनक हुई है। कुछ किसानों ने
बताया कि हाईवे चौड़ा करने के पहले उनसे जो भूमि ली गई उसका तो मुआवज़ा तो मिल गया
था पर हाईवे कार्य के दौरान जो भयंकर क्षति हुई उसका मुआवज़ा नहीं के बराबर मिला।
अनेक छोटे दुकानदारों को हटा दिया गया है।
इसी
तरह चार धाम परियोजना में भी अनेक किसानों व दुकानदारों की बहुत क्षति हुई है व कई
अन्य इससे आशंकित हैं। इस परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा संकट तो यह है कि इससे किसी
बड़ी आपदा की संभावना बढ़ रही है। इस परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान बहुत बड़ी
मात्रा में मलबा नदियों में डाला गया है व इस कारण किसी भीषण बाढ़ की संभावना बढ़ गई
है।
इन
दोनों परियोजनाओं में अनेक सावधानियों की उपेक्षा की गई है। कमज़ोर संरचना के
संवेदनशील पर्वतों में भारी मशीनों से बहुत अनावश्यक छेड़छाड़ की गई। स्थानीय लोग
बताते हैं कि पहाड़ों को ध्वस्त किए बिना ट्रैफिक को सुधारना संभव था,
पर इस बात को अनसुनी करके पहाड़ों को भारी मशीनों से गलत ढंग
से काटा गया। स्थानीय लोगों से विमर्श नहीं हुआ। भू-वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की सलाह की
उपेक्षा हुई। सड़क को ज़रूरत से अधिक चौड़ी करने की ज़िद से भी काफी क्षति हुई जिससे
बचा जा सकता था। लोगों की आजीविका, खेतों,
वृक्षों की किसी भी क्षति को न्यूनतम रखना है,
इस दृष्टि से योजना बनाई ही नहीं गई थी। मज़दूरों की भलाई व
सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। योजनाएं तैयार करने में पर्यटन,
तीर्थ व सुरक्षा की दुहाई दी गई,
पर भूस्खलनों व खतरों की संभावना बढ़ने से इन तीनों
उद्देश्यों की भी क्षति ही हुई है।
अत: समय आ गया है कि अब तक हुई गंभीर गलतियों को हर स्तर पर सुधारने के प्रयास शीघ्र से शीघ्र किए जाएं व हिमालय की अन्य सभी हाईवे परियोजनाओं में भी इन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)
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परिवर्तन
और बूढ़े होने की प्रक्रियाएं ही हैं जो हमें समय बीतने का एहसास कराती हैं। और समय
बीतने का एहसास न हो तो मानव विकास, कला
व सभ्यता काफी अलग होंगे।
प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (पीएनएएस) में ए एंड एम विश्वविद्यालय,
एरिज़ोना स्टेट विश्वविद्यालय, चाइना
कृषि विश्वविद्यालय और स्कोल्वो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी संस्थान के शोधकर्ताओं के एक
शोध पत्र में सजीवों में बुढ़ाने की प्रक्रिया की क्रियाविधि की एक समझ एक कदम आगे
बढ़ी है।
इस
कदम का सम्बंध कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए के एक अंश से है,
जो कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण में भूमिका निभाता है।
यह घटक सबसे पहले ठहरे हुए पानी की एक शैवाल में खोजा गया था और आगे चलकर पता चला
कि यह अधिकांश सजीवों के डीएनए में पाया जाता है। पीएनएएस के शोध पत्र में टीम ने
खुलासा किया है कि यह घटक पौधों में कैसे काम करता है। धरती पर सबसे लंबी उम्र
पौधे ही पाते हैं, इसलिए इनमें इस घटक
की समझ को आगे चलकर अन्य जीवों और मनुष्यों पर भी लागू किया जा सकेगा।
सजीवों
में वृद्धि और प्रजनन दरअसल कोशिका विभाजन के ज़रिए होते हैं। विभाजन के दौरान कोई
भी कोशिका दो कोशिकाओं में बंट जाती हैं, जो
मूल कोशिका के समान होती हैं। यह प्रतिलिपिकरण कोशिका के केंद्रक में उपस्थित
डीएनए की बदौलत होता है। डीएनए एक लंबा अणु होता है जिसमें कोशिका के निर्माण का
ब्लूप्रिंट भी होता है और स्वयं की प्रतिलिपि बनाने का साधन भी होता है। डीएनए की
प्रतिलिपि इसलिए बन पाती है क्योंकि यह दो पूरक शृंखलाओं से मिलकर बना होता है। जब
ये दोनों शृंखलाएं अलग-अलग
होती हैं, तो दोनों में यह
क्षमता होती है कि वे अपने परिवेश से पदार्थ लेकर दूसरी शृंखला बना सकती हैं।
लेकिन
इसमें एक समस्या है। प्रतिलिपिकरण के दौरान ये शृंखलाएं लंबी हो सकती हैं या किसी
अन्य डीएनए से जुड़ सकती हैं। ऐसा होने पर जो अणु बनेगा वह अकार्यक्षम होगा और इस
तरह से बनने वाली कोशिकाएं नाकाम साबित होंगी। लिहाज़ा डीएनए में एक ऐसी व्यवस्था
बनी है कि ऐसी गड़बड़ियों को रोका जा सके। प्रत्येक डीएनए के सिरों पर कुछ ऐसी
रासायनिक रचना होती है जो बताती है कि वह उस अणु का अंतिम हिस्सा है। और डीएनए में
यह क्षमता होती है कि वह अपने सिरों पर यह व्यवस्था बना सके।
सिरे
पर स्थित इस व्यवस्था को टेलामेयर कहते हैं। यह वास्तव में उन्हीं इकाइयों से बना
होता है जो डीएनए को भी बनाती हैं। और यह टेलोमेयर एक एंज़ाइम की मदद से बनाया जाता
है जिसे टेलोमरेज़ कहते हैं। कोशिकाओं में किसी भी रासायनिक क्रिया के संपादन हेतु
एंज़ाइम पाए जाते हैं।
बुढ़ाने
की प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की दिशा में शुरुआती खोज यह हुई थी कि कोई भी
कोशिका कितनी बार विभाजित हो सकती है, इसकी
एक सीमा होती है। आगे चलकर इसका कारण यह पता चला कि हर बार विभाजन के समय जो नई
कोशिकाएं बनती हैं, उनका डीएनए मूल
कोशिका के समान नहीं होता। हर विभाजन के बाद टेलोमेयर थोड़ा छोटा हो जाता है। एक
संख्या में विभाजन के बाद टेलोमेयर निष्प्रभावी हो जाता है और कोशिका विभाजन रुक
जाता है। लिहाज़ा, वृद्धि धीमी पड़ जाती
है, सजीव का कामकाज ठप होने लगता है और तब कहा
जाता है कि वह जीव बुढ़ा रहा है।
उपरोक्त
खोज 1980 में
एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर और
जैक ज़ोस्ताक ने की थी और इसके लिए उन्हें 2009 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अच्छी
बात यह थी कि इन शोधकर्ताओं ने एक एंज़ाइम (टेलोमरेज़) की खोज भी की थी जिसमें टेलोमेयर के विघटन
को रोकने या धीमा करने और यहां तक कि उसे पलटने की भी क्षमता होती है। टेलोमरेज़
में वह सांचा मौजूद होता है जो आसपास के परिवेश से पदार्थों को जोड़कर डीएनए का
टेलोमरेज़ वाला खंड बना सकता है। इसके अलावा टेलोमरेज़ में यह क्षमता भी होती है कि
वह पूरे डीएनए की ऐसी प्रतिलिपि बनवा सकता है, जिसमें
अंतिम सिरा नदारद न हो। इस तरह से टेलोमरेज़ विभाजित होती कोशिकाओं को तंदुरुस्त रख
सकता है।
टेलोमेयर
और टेलोमरेज़ की क्रिया कोशिका मृत्यु और कोशिकाओं की वृद्धि में निर्णायक महत्व
रखती है। वैसे किसी भी जीव की अधिकांश कोशिकाएं बहुत बार विभाजित नहीं होतीं,
इसलिए अधिकांश कोशिकाओं को टेलोमेयर के घिसाव या संकुचन से
कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन स्टेम कोशिकाओं की बात अलग है। ये वे कोशिकाएं होती हैं
जो क्षति या बीमारी की वजह से नष्ट होने वाली कोशिकाओं की प्रतिपूर्ति करती हैं।
उम्र बढ़ने के साथ ये स्टेम कोशिकाएं कम कारगर रह जाती हैं और जीव चोट या बीमारी से
उबरने में असमर्थ होता जाता है। दरअसल, कई
सारी ऐसी बीमारियां है जो सीधे-सीधे टेलोमरेज़ की गड़बड़ी की वजह से होती हैं। जैसे एनीमिया,
त्वचा व श्वसन सम्बंधी रोग।
इसके
आधार पर शायद ऐसा लगेगा कि टेलोमरेज़ को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजकर हम
वृद्धावस्था से निपट सकते हैं। लेकिन गौरतलब है कि टेलोमरेज़ का बढ़ा हुआ स्तर कैंसर
कोशिकाओं को अनियंत्रित विभाजन में मदद कर नई समस्याएं पैदा कर सकता है। अत: टेलोमरेज़ की
क्रियाविधि को समझना आवश्यक है ताकि हम ऐसे उपचार विकसित कर सकें जिनमें ऐसे साइड
प्रभाव न हों।
पीएनएएस के
शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि वैसे तो टेलोमरेज़ की भूमिका सारे जीवों में एक-सी होती है,
लेकिन यह सही नहीं है कि उसका कामकाजी हिस्सा भी सारे
सजीवों में एक जैसा हो। कामकाजी हिस्से से आशय टेलोमरेज़ के उस हिस्से से है जो
कोशिका विभाजन के दौरान डीएनए को टेलोमेयर के संश्लेषण में मदद देता है। इस घटक को
टेलोमरेज़ आरएनए (या
संक्षेप में टीआर) कहते
हैं। शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है कि टीआर की प्रकृति को समझना काफी
चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि विभिन्न प्रजातियों में टीआर की प्रकृति व संरचना बहुत
अलग-अलग
होती है।
टीम
ने अपना कार्य एरेबिडॉप्सिस थैलियाना नामक पौधे के टेलोमरेज़ के साथ प्रयोग और
विश्लेषण के आधार पर किया। एरेबिडॉप्सिस थैलियाना पादप वैज्ञानिकों के लिए पसंदीदा
मॉडल पौधा रहा है। शोध पत्र के मुताबिक अध्ययन से पता चला कि टीआर अणु में विविधता
के बावजूद इस अणु के अंदर दो ऐसी विशिष्ट रचनाएं हैं जो विभिन्न प्रजातियों में एक
जैसी बनी रही हैं। पिछले अध्ययनों से आगे बढ़कर वर्तमान अध्ययन में एरेबिडॉप्सिस
थैलियाना में टीआर का एक प्रकार पहचाना गया है जो संभवत: टेलोमेयर के रख-रखाव में मदद करता है और टेलोमेयर की एक उप-इकाई के साथ जुड़कर
टेलोमरेज़ की गतिविधि का पुनर्गठन करता है।
अध्ययन
में पादप कोशिका, तालाब में पाई जाने
वाली स्कम और अकशेरुकी जंतुओं के टीआर के तुलनात्मक लक्षण भी उजागर किए हैं। इनसे
जैव विकास के उस मार्ग का भान होता है जिसे एक-कोशिकीय प्राणियों से लेकर वनस्पतियों और
ज़्यादा जटिल जीवों तक के विकास के दौरान अपनाया गया है। इस मार्ग को समझकर हम यह
समझ पाएंगे कि टेलोमेयर के काम को किस तरह बढ़ावा दिया जा सकता है या रोका जा सकता
है।
टेलोमेयर घिसाव की प्रक्रिया अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकने के लिए अनिवार्य है। इसी वजह से जीव बूढ़े होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जंतुओं की आयु चंद दशकों तक सीमित होती है। दूसरी ओर, ब्रिासलकोन चीड़ और यू वृक्ष हज़ारों साल जीवित रहते हैं। यदि हम यह समझ पाएं कि पादप जगत बुढ़ाने की प्रक्रिया से कैसे निपटता है, तो शायद हमें मनुष्यों की आयु बढ़ाने या कम से कम जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने का रास्ता मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)
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ऐसा
कहते हैं कि तनाव के कारण लोगों के बालों का रंग उड़ जाता है,
बाल सफेद हो जाते हैं। कहा जाता है कि मुमताज़ महल की मृत्यु
के बाद शाहजहां के बाल एकाध हफ्ते में ही सफेद हो गए थे। इसी तरह फ्रांस की रानी
मैरी एंतोनिएट के बाल उस रात सफेद हो गए थे जिसके अगले दिन उनका सिरकलम किया जाना
था। तो क्या यह संभव है?
हारवर्ड
स्टेम सेल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मामले की तह तक पहुंचना चाहते थे। बात
को समझने के लिए या-चिए
ह्सू और उनके साथियों ने अपने सारे प्रयोग चूहों पर किए हैं लेकिन उन्हें लगता है
कि परिणाम मनुष्यों पर लागू होंगे।
सबसे
पहले उन्होंने उन स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जो मेलेनोसाइट (मेलेनीन रंजक युक्त
कोशिका) का
निर्माण करती हैं। ये मेलेनोसाइट प्रत्येक बाल में मेलेनीन पहुंचाती हैं जिसका रंग
काला होता है। मेलेनोसाइट बनानी वाली स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक था
क्योंकि मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं की तादाद में फर्क पड़ने से बालों के रंग पर असर
पड़ता है।
पहले
तो शोधकर्ताओं ने इन चूहों को उनके डील-डौल के हिसाब से तनाव दिया। जैसे उनके
पिंजड़ों को झुकाकर रखा गया या उनके सोने की जगह को गीला रखा गया या रात भर लाइटें
चालू रखी गर्इं। शोधकर्ताओं ने देखा कि तनाव के कारण वास्तव में चूहों के बाल सफेद
हो जाते हैं।
विचार
बना कि शायद इन चूहों में तनाव बढ़ने पर उनकी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं
मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं पर आक्रमण कर रही हैं, जिसकी
वजह से इन स्टेम कोशिकाओं की संख्या कम होने लगी है। लेकिन जिन चूहों में
प्रतिरक्षा कोशिकाएं नहीं थीं, उनके भी बाल सफेद
हुए। निष्कर्ष: तनाव
के कारण बाल सफेद होने में प्रतिरक्षी कोशिकाओं का हाथ नहीं है।
अगला
विचार आया कि संभवत: इसमें
कॉर्टिसोल की भूमिका होगी। कॉर्टिसोल वह प्रमुख हारमोन है जो तनाव के समय बनता है।
यह बालों पर भी असर डालता है। लेकिन प्रयोगों में देखा गया कि बाल सफेद उन चूहों
में भी हुए जिनकी कॉर्टिसोल बनाने वाली ग्रंथि निकाल दी गई थी। तो अब क्या?
इसके
बाद उनका ध्यान अनुकंपी तंत्रिका तंत्र पर गया। यही तंत्रिका तंत्र हारमोन के
प्रभाव से तनाव जनित व्यवहारों और ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया को अंजाम देता है। इन अनुकंपी तंत्रिकाओं के
सिरे हर रोम के आसपास लिपटे होते हैं। जब टीम ने चूहों में इन कनेक्शन को काट दिया
तो जल्दी ही चूहों के बाल सफेद हो गए।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उम्र के साथ बाल सफेद होने की प्रक्रिया में भी अनुकंपी तंत्रिकाओं की भूमिका है लेकिन शोधकर्ताओं का ख्याल है कि सफेद बालों की समस्या के संदर्भ में कुछ तो आशा जगी है।(स्रोत फीचर्स)
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गंध से हमारा
बेहद करीबी रिश्ता रहा है। पकवानों की खुशबू से ही हम यह बता देते हैं कि पड़ोसी के
घर में क्या बना है। गरमा-गरम कचोरी, कढ़ाई से उतरती सेव व पकोड़े, पके आम व खरबूज़े की मीठी खुशबू हो या चंदन, गुलाब, मोगरा, चंपा आदि के
इत्र की मदहोश कर देने वाली गंध हमें दीवाना बनाने के लिए काफी है। अलबत्ता,
हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो तपेली में जलते हुए दूध,
बासी दाल और हींग जैसी तेज़ गंध को भी नहीं सूंघ पाते।
स्वाद की तरह गंध भी एक रासायनिक संवेदना है। हमारे आसपास
का वातावरण गंध के वाष्पशील अणुओं से भरा हुआ है। जब हम नाक से सांस खींचते हैं तो
गंध के अणु नाक के भीतर रासायनिक ग्राहियों से क्रिया करके संदेश को मस्तिष्क में
पहुंचा देते हैं। अभी तक यही समझा जाता था कि मस्तिष्क के कुछ विशेष हिस्से (जैसे
घ्राण बल्ब) गंध संदेशों की विवेचना कर हमें गंध का बोध कराते हैं। लेकिन कुछ ही
समय पहले एक शोध टीम ने कुछ ऐसी महिलाओं की खोज की है जिनकी सूंघने की क्षमता तो
सामान्य है परन्तु उनके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं है।
विभिन्न जंतुओं में गंध को पहचानने वाले जीन्स की संख्या
अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अक्सर गंध के जीन्स की संख्या का
सीधा सम्बंध गंध संवेदना से है – ज़्यादा जीन्स मतलब सूंघने की बेहतर क्षमता। विभिन्न प्रजातियों पर किए गए एक
अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाथी, भालू और शार्क कुछ ऐसे जंतु हैं जिनमें सूंघने की क्षमता बहुत विकसित होती है।
भालू की सूंघने की क्षमता बेहद तगड़ी है। ये सुगंध का पीछा करते-करते जंगलों से
बाहर मानव आवास, कैम्प स्थल
तथा कूड़ेदानों तक पहुंच जाते हैं। हालांकि भालू का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क का केवल
एक तिहाई ही होता है परन्तु अग्र मस्तिष्क में स्थित घ्राण बल्ब मनुष्यों के
मुकाबले पांच गुना बड़े होते हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि मानव की तुलना
में भालू में गंध को ग्रहण करने की क्षमता 2000 गुना से भी बेहतर है। भालू न केवल
भोजन बल्कि यौन साथी की खोज, खतरे और शावकों पर नज़र रखने के लिए भी गंध का उपयोग करते हैं। कितने आश्चर्य
की बात है कि मादा भालू अपने बच्चों की निगरानी उन पर निगाह रखे बगैर भी कर सकती है।
मांसाहारी ध्रुवीय भालू बर्फ से ढंके विशाल भू-भाग में 150 कि.मी. की दूरी से
प्रणय को आतुर मादाओं की गंध पहचान लेते हैं। भारतीय जंगलों के भालू भी 30 कि.मी.
दूर से मृत जानवर की गंध पहचानकर उस ओर खिंचे चले आते हैं।
ग्रेट व्हाइट शार्क में घ्राण ग्रंथियां बेहद विकसित होती
हैं। कुत्तों के समान विकसित सूंघने की क्षमता के चलते इसे डॉग फिश भी कहा जाता
है। ग्रेट व्हाइट शार्क में तो मस्तिष्क का दो तिहाई हिस्सा गंध की संवेदनाओं के
लिए निर्धारित होता है। शार्क के नथुनों से लगातार पानी बहता रहता है और गंध के
अणु रिसेप्टर्स से जुड़कर संवेदना देते रहते हैं।
अफ्रीकन हाथियों में खुशबू लेने वाले जीन्स की संख्या 1948
होती है। गंध के जीन्स किस खूबी से हाथियों में कार्य करते हैं,
यह तब पता चलता है जब पानी को खोजते हुए हाथी 20 कि. मी.
दूर से आती गंध को पहचान कर उस स्थान पर पहुंच जाते हैं। बहु-उपयोगी सूंड में ही
गंध को पहचानने वाले रिसेप्टर्स पाए जाते हैं।
इरुााइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में शोधकर्ता ताली
वीस और नोआम सोबेल की टीम गंध एवं प्रजनन क्षमता के बीच सम्बंध की तलाश में
मस्तिष्क का एमआरआई देख रही थी। अनेक वालंटियर्स की जांच के दौरान उन्होंने पाया
कि एक महिला के मस्तिष्क में घ्राण बल्ब है ही नहीं। यह एक असामान्य घटना थी
परन्तु पूर्व के शोध भी बताते हैं कि 10,000 में से एकाध मनुष्य में घ्राण बल्ब
नहीं होता है और वे गंध नहीं सूंघ सकते।
उस महिला से पूछा गया कि क्या वह गंध नहीं पहचान सकती?
महिला इस बात पर दृढ़ रही कि उसकी गंध सूंघने की क्षमता
बेहतरीन है। शंका से भरे वैज्ञानिकों ने महिला की गंध पहचानने की क्षमता पर अनेक
परीक्षण किए और आश्चर्यजनक रूप से महिला ने गंध पहचानने की उत्तम क्षमता का परिचय
दिया। आम तौर पर घ्राण बल्ब और उससे निकले न्यूरॉन्स गंध की पहचान में महत्वपूर्ण
माने जाते हैं। शोध के दौरान कुछ ही समय में एक और ऐसी महिला मिली जिसकी सूंघने की
क्षमता तो बेहतरीन थी परन्तु गंध के अणुओं को ज्ञात करने वाला मस्तिष्क का भाग
अनुपस्थित था।
शोधकर्ताओं ने शंका के समाधान के लिए ह्यूमन कनेक्टोम
प्रोजेक्ट की ओर रुख किया जो प्रतिभागियों के गंध स्कोर एकत्रित करता है। 600
महिलाओं और 500 पुरुषों से प्राप्त आंकड़ों में खोजबीन करने पर तीन महिलाएं ऐसी
निकलीं जिनकी सूंघने की शक्ति तो बहुत अच्छी थी परन्तु उन सबके मस्तिष्क में घ्राण
बल्ब का अभाव था। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत केवल 0.6 था।
उपरोक्त तीनों महिलाओं में से एक लेफ्ट हेण्डेड थी। आंकड़े
और खंगालने तथा एमआरआई एवं गंध परीक्षण करने पर तीन और महिलाएं मिलीं जिनमें से एक
ऐसी थी जिसके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं था और सूंघने की क्षमता भी नहीं थी।
बाकी दोनों अन्य सामान्य व्यक्तियों के समान ही अधिकांश गंधों को पहचान सकती थीं।
अब यह देखने की कोशिश की गई कि प्रतिभागी कौन-सी गंधों को पहचानते हैं। इसके लिए
लगभग समान आयु की 140 महिलाओं को दो गंध सुंघाकर यह पता लगाया गया कि क्या वे अंतर
कर पाती हैं? फिर बगैर
घ्राण बल्ब वाली महिलाओं और बाकी सभी सामान्य महिलाओं में सूंघने की क्षमता में
तुलनात्मक अंतर देखा गया। घ्राण बल्ब रहित महिलाएं बाकी सभी के विपरीत एक जैसी गंध
पहचानती थीं। पूरे शोध से दो निष्कर्ष प्राप्त हुए। एमआरआई के आंकड़ों में से केवल
महिलाएं ही ऐसी थीं जिनमें घ्राण बल्ब नहीं थे और वे भी ऐसी थी जो लेफ्ट हेण्डेड
(खब्बू) थीं। इस विषय पर शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिक सोबेल ने पाया कि ब्रोन स्केन
के आंकड़े लेते समय लेफ्ट हेण्डेड महिलाओं को छोड़ ही दिया गया था क्योंकि उनकी वजह
से आंकड़ों में असमानता एवं भिन्नता उत्पन्न हो रही थी।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बगैर घ्राण बल्ब के इन महिलाओं में गंध पहचानने की क्षमता कैसे विकसित हो गई। एक परिकल्पना के अनुसार घ्राण बल्ब के बगैर पैदा होने के बाद शैशवावस्था में ही मस्तिष्क ने गंध को पहचानने का अन्य तरीका निकाल लिया और उसका एक अन्य हिस्सा इस कार्य को करने लगा। या शायद हमें घ्राण बल्ब की आवश्यकता सूंघने, गंध पहचानने और गंध में अंतर करने में पड़ती ही नहीं है। तो शायद अभी तक हम जैसा समझते थे, घ्राण बल्ब वैसा सूंघने का कार्य करते ही नहीं है। यह भी हो सकता है कि वे घ्राण बल्ब बताते है कि गंध किस दिशा से आ रही है। इसलिए आप खाने की गंध कहां से आ रही है तुरंत बता देते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.brainfacts.org/thinking-sensing-and-behaving/smell/2015/making-sense-of-scents-smell-and-the-brain
भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने हाल में एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें उसने लंबे समय से चले आ रहे एक अधिकारिक मत को दोहराया है: “आयुर्वेद के सिद्धांतों, अवधारणाओं और तरीकों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से कदापि नहीं की जा सकती।” यह मत इन दो प्रणालियों के बीच स्पष्ट विभाजन को व्यक्त करता है और परोक्ष रूप से वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि आयुर्वेद की दुनिया में इस मत को व्यापक मान्यता कैसे मिली है।
अंधविश्वास
काफी दिलचस्प हो सकते हैं, खास तौर से तब जब वे
प्रभावशाली लोगों के दिमाग में बसे हों। यह कहानी एक ऐसे ही अंधविश्वास की है जो
बीसवीं सदी के सारे आयुर्वेदिक विचारकों पर हावी रहा है।
जिस अंधविश्वास की बात हो रही
है,
वह मोटे तौर पर निम्नानुसार है: प्राचीन भारतीय ऋषियों
(मनीषियों),
जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिपादन किया, के पास विशेष यौगिक शक्तियां थीं; इन विशेष शक्तियों ने
उन्हें प्रकृति को नज़दीक से जांचने-परखने तथा उसके रहस्यों को उजागर करने में
समर्थ बनाया था। इसके बाद इन रहस्यों को उन्होंने अपने दर्शन के ग्रंथों में
सूक्तियों के रूप में संहिताबद्ध किया। कहने का आशय यह है कि भारतीय ऋषियों ने
विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए खोजबीन की बाह्र तकनीकों का सहारा न लेकर आंतरिक
यौगिक पद्धतियों का सहारा लिया, जो सिर्फ उन लोगों की पहुंच
में थीं जिन्होंने इनकी साधना की हो। अत: भारतीय दार्शनिक साहित्य उन्नत वैज्ञानिक
ज्ञान से भरा है जिसमें से काफी सारे की पुष्टि तो आधुनिक भौतिक शास्त्र की
विधियों से हो ही चुकी है। यदि किसी मामले में पुष्टि नहीं हुई है तो समझदारी इसी
में है कि प्रतीक्षा करें।
यह तो ज़ाहिर है कि यह अंधविश्वास
क्यों है। एक प्राचीन संस्कृत श्लोक (शांतारक्षिता का तत्वसंग्रह, अध्याय 26,
श्लोक 3149) इस विचारधारा की समस्या को बखूबी उभारता है:
सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा।, अथोभावपि
सर्वज्ञौ मतभेदस्तयो: कथम।। (“यदि बुद्ध को सर्वज्ञाता माना गया है, तो कपिल को क्यों नहीं? यदि ये दोनों बराबर के
सर्वज्ञाता हैं,
तो ये आपस में असहमत क्यों हैं?”)
सीधा-सा तथ्य यह है कि एक ही
विषय को लेकर दार्शनिकों में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि
उनके निष्कर्ष अंतिम होने का दावा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में, जब यौगिक पद्धति तक सबकी पहुंच आसान नहीं है, तो
किसी मत को मानना दार्शनिक विशेष के प्रति निजी प्रीति का मामला रह जाता है, न कि उसके दर्शन में सत्य का परिमाण।
ऐसे में, सहज बुद्धि का स्थान अथॉरिटी ले लेती है और प्रत्यक्ष खोजबीन का स्थान लिखित
शब्द ले लेते हैं। अटकलों को, यहां तक सुविचारित अटकलों को
भी यौगिक अंतज्र्ञान का जामा पहनाने की प्रवृत्ति का परिणाम सहज बुद्धि के निजीकरण
और संपूर्ण बौद्धिक अशक्तिकरण के रूप में सामने आता है। ये दोनों ही संजीदा
विज्ञान कर्म का गला घोंटने के लिए पर्याप्त हैं।
आयुर्वेद के क्षेत्र में इस
विज्ञान-निषेध विश्व दृष्टि की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करना लाभप्रद होगा। कहानी
लगभग 100 वर्ष पहले की है। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी की तत्कालीन सरकार ने एक
समिति का गठन किया था। इस समिति को देसी चिकित्सा प्रणाली को मान्यता तथा
प्रोत्साहन देने के सवाल पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। मुहम्मद
उस्मान की अध्यक्षता में इस समिति ने अनुकरणीय काम किया और एक विस्तृत रिपोर्ट
तैयार की,
जो आज भी आयुर्वेदिक कामकाज का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत
करने की दृष्टि से मूल्यवान है। कैप्टन जी. श्रीनिवास मूर्ति समिति के सचिव थे। वे
आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। उनके द्वारा प्रस्तुत
मेमोरेंडम समिति की रिपोर्ट में संलग्न था। यह संभवत: आयुर्वेद को पाश्चात्य
चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के रूबरू खड़ा करने का पहला औपचारिक
प्रयास था। विडंबना यह है कि यह उपरोक्त विज्ञान-विरोधी नज़रिए को संस्थागत स्वरूप
देने का भी प्रयास था। लगभग 100 साल पहले मूर्ति ने अनजाने में जो बात लिखी थी, वह आज आयुर्वेद जगत का प्रचलित नज़रिया बन गई है: “हिंदुओं ने जिस पद्धति से
चीज़ों को जानने की कोशिश की वह ज्ञानेंद्रियों के दायरे से परे है और वह पश्चिम के
तरीके से एक खास मायने में भिन्न है; आधुनिक विज्ञान में हम
अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं से पार पाने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी और वर्णक्रमदर्शी जैसे बाह्र उपकरणों का सहारा लेते हैं; दूसरी ओर हिंदुओं ने वही प्रभाव प्राप्त करने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों को
बाह्र साधनों का सहारा न देकर, अपने आंतरिक संवेदी अंगों को
उन्नत बनाने की कोशिश की, ताकि उनकी अनुभूति का दायरा
किसी भी वांछित सीमा तक बढ़ जाए; और यह उन्नति लाने का तरीका यह
था कि अपनी इंद्रियों का अभ्यास गुरू द्वारा शिष्य को बताए गए विशेष तरीके से किया
जाए।” भारतीय दार्शनिक विचारों और आधुनिक भौतिकी के बीच कुछ समानताएं बताने का
प्रयास करने के उपरांत वे उम्मीद जताते हैं कि “जब हम देखते हैं कि कैसे इनमें से
कई सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान की ताज़ा घटनाओं ने सही साबित कर दिया है, तो हम यह महसूस करने से इन्कार नहीं कर सकते कि जिस तरह से कुछ सिद्धांत सही
साबित हो चुके हैं, वही अन्य सिद्धांतों को लेकर भी होगा।”
इस बात को न तो संजीदा विज्ञान
का समर्थन हासिल है और न ही संजीदा दर्शन शास्त्र का, लेकिन
आयुर्वेद जगत में इसे पूरी स्वीकृति मिल गई है। अचंता लक्ष्मीपति और पंडित शिव
शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोगों ने इस विचार का समर्थन किया है। आजकल के ज़माने का
नया ‘फितूर’ है कि क्वांटम भौतिकी के विचारों को भारतीय दार्शनिक साहित्य में
‘खोज’ निकाला जाए। इससे भी उपरोक्त धारणा को समर्थन मिला है।
और तो और, आयुर्वेद का पाठ¬क्रम
भी इसी आधार पर बनाया गया और इसके चलते उक्त धारणा आयुर्वेद का अधिकारिक नज़रिया बन
गई। इस धारणा का सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक
छानबीन के दायरे से बाहर रखा गया और वह भी इस काल्पनिक उम्मीद में कि विज्ञान को
अभी पर्याप्त प्रगति करनी है, उसके बाद ही वह इन सिद्धांतों
की जांच के काबिल हो पाएगा। इस तरह से अधिकारिक आयुर्वेद वैज्ञानिक पद्धति की
सार्वभौमिकता के साथ बेमेल हो गया।
रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था, “विशेषज्ञों की अज्ञानता में विश्वास का नाम विज्ञान है।” आयुर्वेद को संस्थागत अंधवि·ाास की जकड़न से मुक्त कराना इसी बात पर निर्भर है कि क्या आयुर्वेद के विद्यार्थी इस विश्वास में समर्थ हैं। आयुर्वेद का एक प्राक्विज्ञान से आगे बढ़कर एक पूर्ण विज्ञान बनना इसी बात पर निर्भर है कि इन संस्थागत अंधविश्वासों को कितने कारगर ढंग से चुनौती दी जाती है। यदि चुनौती नहीं दी गई तो यह महान चिकित्सकीय विरासत एक छद्म विज्ञान में विघटित हो जाएगी। हमें इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201509/super-1_647_091215035412.jpg
एथनोलॉग पूरे विश्व की भाषाओं के बारे
में जानकारी उपलब्ध कराने वाला एक विशाल ऑनलाइन डैटाबेस है। इसमें ऐसी तमाम
जानकारी उपलब्ध है जैसे विश्व में कितनी भाषाएं हैं, किसी
भाषा (हिब्रू से लेकर हौसा और हाक्का तक) को दुनिया में कितने लोग बोलते हैं या
किसी भाषा के विलुप्त होने की संभावना कितनी है (1 से 10 के पैमाने पर)। यह
भाषाविदों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन रहा है। लेकिन कुछ समय पहले इस संसाधन तक
शोधकर्ताओं की पहुंच महंगी कर दी गई है।
दरअसल एथनोलॉग को लंबे समय तक समर इंस्टीट्यूट ऑफ लिंग्विस्टिक्स (SIL) ने संचालित किया। लेकिन 2015 में जब SIL की फंडिंग खत्म होने लगी तब एथनोलॉग के संचालक गैरी
साइमन्स को इसके संचालन के ढंग को बदलने की ज़रूरत महसूस हुई। एथनोलॉग को
चलाने में सालाना लगभग दस लाख डॉलर का खर्च आता है। इसलिए 2015 के अंत में पहली
बार एथनोलॉग के उपयोगकर्ताओं से सदस्यता शुल्क लेना शुरू किया गया। यह
शुल्क अब बढ़कर 480 डॉलर से शुरू होता है।
इस पर मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर दी साइंस ऑफ ह्युमन हिस्ट्री के भाषाविद
साइमन ग्रीनहिल कहना है कि पिछले कुछ सालों में एथनोलॉग तेज़ी से महंगा हुआ
है और इस पर पहुंच भी बाधित हुई है, जो बहुत दुखद है। उनका कहना है
कि शोधकर्ता अब अन्य सस्ते या मुफ्त विकल्प खोज रहे हैं। उन्होंने खुद अपने अध्ययन,
भूगोलभाषा की विविधता को कैसे प्रभावित करता है, के लिए एथनोलॉग के पुराने डैटा का उपयोग किया जिसके लिए वे पहले भुगतान
कर चुके थे,
क्योंकि ताज़ा डैटा हासिल करने में कई हज़ार डॉलर का शुल्क
आता।
साइमन्स समझते हैं कि भाषाविद क्यों परेशान हैं। लेकिन उनका कहना है कि आर्थिक
हालात बदलने तक वे शुल्क में राहत नहीं दे सकते। 2013 के बाद से साइमन्स और SIL के मुख्य नवाचार विकास अधिकारी स्टीफन मोइतोजो एथनोलॉग को विकसित करने
और इसे आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
मोइतोजो का कहना है कि उन्हें लगता था कि एथनोलॉग का उपयोग करने वाले अधिकतर
लोग अकादमिक शोधकर्ता हैं लेकिन वेबलॉग ट्रैफिक के अनुसार एथनोलॉग का उपयोग
करने वालों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही अकादमिक शोधकर्ता हैं। अन्य उपयोगकर्ताओं में
हाई स्कूल छात्रों और सलाहकारों के अलावा, अदालतों, अस्पतालों और आप्रवास कार्यालयों के लिए दुभाषिया तलाशने वाले हैं। बहुत सारे
संगठन अपने दैनिक कार्य के लिए एथनोलॉग पर निर्भर हैं।
साइमन्स स्वतंत्र शोधकर्ताओं और जिन छात्रों के संस्थानों के पास एथनोलॉग की सदस्यता नहीं है, उनके लिए बेहतर विकल्प लाने की उम्मीद रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगर हम इसे इस तरह बना पाए कि जिन लोगों का काम वास्तव में एथनोलॉग पर निर्भर है वे इसकी वाजिब सदस्यता लें, तब उन लोगों के बारे में सोच सकते हैं जो यह शुल्क वहन नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ethnologue.com/sites/default/files/inline-images/how-many-languages-map-hires-title.png
लगभग 100 वर्ष पहले डूबे एक जहाज़ के मलबे ने बरमुडा त्रिकोण
के मिथक को एक बार फिर धराशायी कर दिया है। यह कहा गया था कि 1925 में एसएस
कोटोपैक्सी नामक जो मालवाहक जहाज़ डूबा था उसमें बरमुडा त्रिकोण की भूमिका थी। यह
मालवाहक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच सका था।
बरमुडा त्रिकोण उत्तरी अटलांटिक सागर में एक अपरिभाषित-से क्षेत्र को कहते
हैं। इसे शैतान का तिकोन भी कहा जाता है। यह बरमुडा से फ्लोरिडा और प्यूएर्टो रिको
के बीच स्थित है। इसके बारे में कहा जाता रहा है कि यहां कई जहाज़, हवाई जहाज़ वगैरह डूबे हैं और इसका कारण पारलौकिक शक्तियों या अन्य ग्रहों के
निवासियों को बताया जाता है। तथ्य यह है कि यहां कई जहाज़ नियमित रूप से पार होते
हैं और कई हवाई जहाज़ इस क्षेत्र के ऊपर से होकर उड़ते हैं।
हाल ही में एक समुद्री जीव वैज्ञानिक और गोताखोर माइकेल बार्नेट ने उस जहाज़
कोटोपैक्सी का मलबा ढूंढ निकाला है। बार्नेट पिछले कई वर्षों से डूबे हुए जहाज़ों
के मलबे खोजने का काम करते रहे हैं। इसी दौरान उन्हें पता चला कि उत्तरी फ्लोरिडा
के सेन्ट ऑगस्टीन के तट से करीब 65 कि.मी. की दूरी पर एक बड़ा जहाज़ डूबा था जिसे
स्थानीय लोग बेयर रेक के नाम से जानते हैं। यह वास्तव में बहुत बड़ा था।
तो बार्नेट ने गोताखोरी करके उस जहाज़ के मलबे का नाप जोख किया, अखबारों में उस समय छपे लेखों का जायज़ा लिया और साथ ही बीमा के रिकॉर्ड भी
देखे और जहाज़ के मलबे से मिली वस्तुओं का मुआयना किया। उनकी तहकीकात से लगता था कि
वह जहाज़ शायद कोटोपैक्सी ही था। तो उन्होंने खबर फैलाई कि एसएस कोटोपैक्सी शायद
अटलांटिक महासागर के पेंदे में पड़ा है।
कोटोपैक्सी दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह से कोयला भरकर हवाना के लिए
रवाना हुआ था। रास्ते में एक तूफान ने इसे डुबो दिया और इस पर सवार 32 कर्मचारियों
का कोई अता-पता नहीं मिला था। बाद में पता चला कि कोटोपैक्सी में कई खामियां थीं
और इसकी मरम्मत का काम होने वाला था। जांच-पड़ताल में यह भी सामने आया कि
कोटोपैक्सी ने डूबने से पहले एसओएस संदेश भी प्रसारित किए थे और फ्लोरिडा स्थित
जैकसनविले स्टेशन ने ये संदेश पकड़े भी थे।
मज़ेदार बात है कि जहाज़ का मलबा सेन्ट ऑगस्टीन के तट से कुछ दूरी पर मिला है जो बरमुडा त्रिकोण के आसपास भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/yp6mEvWV6smXikWNe5258Z-1200-80.jpg
कुपोषण व अल्प-पोषण की समस्या को देखते हुए भारत में पोषण
योजनाओं व अभियानों का विशेष महत्व है। इस संदर्भ में भारत सरकार का हाल का
बहुचर्चित कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ है। इस अभियान के अंतर्गत वित्तीय संसाधनों का
आवंटन तो काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप हुआ है, पर
वास्तविक उपयोग में काफी कमी के कारण इसका समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है।
एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च) के एक आकलन के अनुसार
वित्तीय वर्ष 2017-18 से 2019-20 वित्तीय वर्ष में 30 नवंबर तक, इस कार्यक्रम के लिए जारी किया गया मात्र 34 प्रतिशत धन वास्तव में खर्च हुआ।
इस अभियान में नई दिशा दिखाने वाली सफल प्रयोगात्मक परियोजनाओं के लिए विशेष
अनुदान का प्रावधान है। इसका उपयोग 30 नवंबर 2019 तक मात्र 12 राज्यों में ही हो
सका। वित्तीय वर्ष 2019-20 में नवंबर तक इस अभियान के लिए 15 राज्यों में कोई धन
रिलीज़ ही नहीं हुआ।
इस अभियान के बारे में यह भी समझना ज़रूरी है कि इसमें सूचना तकनीक, स्मार्टफोन खरीदने, सॉफ्टवेयर, मॉनीटरिंग, व्यवहार में बदलाव सम्बंधी आयोजनों आदि पर अधिक खर्च होता है और एकाउंटिबिलिटी
इनिशिएटिव के अनुसार 72 प्रतिशत खर्च ऐसे मदों पर है। यह बताना इसलिए ज़रूरी है
क्योंकि पोषण अभियान से लोग यही समझते हैं कि इसके अंतर्गत अधिकतर धन का उपयोग भूख
व कुपोषण से पीड़ित लोगों व बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करने में खर्च
होता है।
इस कार्यक्रम के लिए धन भारत सरकार के अतिरिक्त राज्यों व केन्द्र शासित
प्रदेशों से आता है और विश्व बैंक व बहुपक्षीय बैंक अंतर्राष्ट्रीय सहायता भी
उपलब्ध करवाते हैं।
बच्चों के लिए पोषण का सबसे बड़ा कार्यक्रम आई.सी.डी.एस. (आंगनवाड़ी) है। इस
कार्यक्रम पर वर्ष 2014-15 में 16,664 करोड़ रुपए खर्च हुए थे व 2019-20 का संशोधित
अनुमान 17,705 करोड़ रुपए है। अर्थात महंगाई का असर कवर करने लायक भी वृद्धि नहीं
हुई है जबकि 5 वर्षों में इसके कवरेज में आने वाले बच्चों की संख्या तो निश्चय ही
काफी बढ़ी है।
वर्ष 2019-20 में इसके लिए बजट अनुमान 19,834 करोड़ रुपए था व वर्ष 2020-21 का
बजट अनुमान 20,532 करोड़ रुपए है, जिससे पता चलता है कि बहुत
मामूली वृद्धि है जो महंगाई के असर की मुश्किल से पूर्ति करेगी।
इतना ही नहीं, वर्ष 2019-20 में इस स्कीम के लिए मूल
आवंटन तो 19,834 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान तैयार करते
समय ही इसे 17,705 करोड़ रुपए पर समेट दिया गया था यानि 2129 करोड़ रुपए की कटौती इस
पोषण के कार्यक्रम में की गई जो बहुत चिंताजनक है।
इसी तरह किशोरी बालिकाओं के स्वास्थ्य व पोषण की स्कीम ‘सबला’ के लिए 2019-20
के मूल बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान था जिसे संशोधित बजट में मात्र 150 करोड़
रुपए कर दिया गया यानी इसे आधा कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में 250 करोड़
रुपए का प्रावधान है।
प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को सरकार ने स्वयं विशेष महत्व की योजना माना है।
किंतु वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए जो मूल प्रावधान था, वास्तव में उसका मात्र 44 प्रतिशत ही खर्च किया गया। ज़्यां ड्रेज़ और रीतिका
खेरा के एक अध्ययन में बताया गया है कि इस योजना के लिए योग्य मानी जाने वाली
मात्र 51 प्रतिशत माताओं तक ही इसका लाभ पहुंच सका। जिनको लाभ मिला उनमें से मात्र
61 प्रतिशत को तयशुदा तीनों किश्तें प्राप्त हो सकीं (कुल 5000 रुपए)।
वर्ष 2019-20 में इस योजना के लिए 2500 करोड़ रुपए का मूल प्रावधान था। इसे
संशोधित अनुमान में 2300 करोड़ रुपए कर दिया गया।
स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। इस पर वर्ष
2014-15 में वास्तविक खर्च 10,523 करोड़ रुपए था। वर्ष 2019-20 का इस कार्यक्रम का
संशोधित अनुमान 9,912 करोड़ रुपए है यानि 5 वर्ष पहले के बजट से भी कम, जबकि महंगाई कितनी बढ़ गई है।
वर्ष 2019-20 के बजट में इस कार्यक्रम का मूल प्रावधान 11,000 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान में इसे 9,912 करोड़ रुपए कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट
में फिर 11,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है।
इस तरह पोषण कार्यक्रमों पर कम आवंटन, बड़ी कटौतियों, समय पर फंड जारी न होने आदि का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। इस स्थिति को सुधारना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pulitzercenter.org/sites/default/files/styles/node_images_768x510/public/07-18-14/mdm_show7_0.jpg?itok=I8-WOSy5