जैव विकास के प्रति जागरूक चिकित्सा विज्ञान – 1 – डॉ. राघवेंद्र गडग्कर

वैकासिक चिकित्सा विज्ञान (जिसमें जैव विकास के नज़रिए को शामिल किया गया हो) एक उभरता क्षेत्र है जो कई व्याख्याएं प्रस्तुत करता है और दर्शाता है कि हम जैव विकास की समझ का इस्तेमाल बीमारियों की रोकथाम और उपचार में कैसे करें।

1990 के दशक के उत्तरार्ध में मैंने रैडोल्फ एम. नेसे और जॉर्ज सी. विलियम्स की पुस्तक पढ़ी थी, जिसका शीर्षक बहुत रोमांचक था – व्हाय वी गेट सिक (हम बीमार क्यों पड़ते हैं)।

मैं नहीं जानता था कि रैडोल्फ नेसे कौन हैं लेकिन यह जानता था कि जॉर्ज विलियम्स मशहूर वैकासिक जीव विज्ञानी हैं जिन्हें उनकी उत्कृष्ट पुस्तक एडाप्टेशन एंड नेचुरल सिलेक्शन (1974) के लिए जाना जाता है। इस पुस्तक में आम लोगों और विशेषज्ञों दोनों में व्याप्त प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया के अधकचरे सोच की सशक्त आलोचना की गई थी। पुस्तक के पहले पैराग्राफ में कहा गया था:

“उत्कृष्ट बनावट वाले शरीर में क्यों हज़ारों खामियां और दुर्बलताएं हैं जो उसे बीमारियों के प्रति संवेदनशील बना देती हैं? यदि प्राकृतिक वरण के माध्यम से होने वाला विकास आंख, हृदय और मस्तिष्क जैसी नफीस व्यवस्थाओं को आकार दे सकता है तो उसने निकटदृष्टि दोष, हार्ट अटैक और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों से बचाव के उपाय क्यों नहीं गढ़े? यदि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली करोड़ों पराए प्रोटीन्स को पहचानकर उन पर आक्रमण कर सकती है, तो हमें निमोनिया क्यों हो जाता है? यदि डीएनए की एक कुंडली खरबों विशेषीकृत कोशिकाओं को अपने-अपने उचित स्थान पर जमाकर एक वयस्क जीव की योजना विश्वसनीय ढंग से कूटबद्ध कर सकती है, तो हम एक क्षतिग्रस्त उंगली को फिर से क्यों नहीं उगा सकते? यदि हम सौ साल जी सकते हैं, तो दो सौ साल क्यों नहीं?”

जैसे-जैसे मैं पढ़ता गया, विडंबना धीरे-धीरे उजागर होती गई। पहले पैराग्राफ में प्राकृतिक वरण की जिन ‘असफलताओं’ की बात की गई थी, वे इस सोच के पक्ष में सबसे सशक्त दलीलें थीं कि हमारे शरीर को प्राकृतिक वरण के माध्यम से हुए विकास ने आकार दिया है! क्या कोई दैवी सृष्टा या बुद्धिमान रचयिता ऐसे घपले करता? नेसे और विलियम्स के शब्दों में:

“हमारे शरीर की बनावट एक साथ असाधारण रूप से सटीक और अविश्वसनीय रूप से फूहड़ दोनों है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर्स सात दिनों में एक बार छुट्टी पर जाते थे और उस दिन सारा काम अनाड़ी नौसिखियों को सौंप देते थे।”

दूसरी ओर, यदि हम प्राकृतिक वरण के माध्यम से विकास के परिणाम हैं तो हमें ऐसी खामियों और दुर्बलताओं की अपेक्षा करनी ही चाहिए। लेकिन क्यों?

एक नए विषय-क्षेत्र का जन्म

अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं कि वे इतने व्यस्त हैं कि उनके पास विज्ञान के सामाजिक पक्ष या दर्शन की बात तो दूर, इतिहास पर ध्यान देने की फुरसत भी नहीं है। वास्तव में युवा वैज्ञानिकों में इन विषयों के प्रति दिलचस्पी को प्राय: यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि यह गंभीर काम के प्रति उत्साह या क्षमता के अभाव का परिणाम है। फिर भी हम इतिहास से बहुत कुछ सीखते हैं – अतीत की गलतियों को दोहराने से कैसे बचें और प्रतिकूल हालात में भी अच्छा विज्ञान कैसे करें। तो यह देखना उपयोगी होगा कि वैकासिक चिकित्सा का जन्म कैसे हुआ।

कहानी कुछ इस तरह है। रैडोल्फ नेसे मिशिगन विश्वविद्यालय मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सा विभाग में चिकित्सक थे। एक ओर तो वे “मनोचिकित्सा में सैद्धांतिक बुनियाद न होने को लेकर हताश” थे तथा दूसरी ओर वे “जंतु व्यवहार के क्षेत्र में जैव विकास के विचारों के आधार पर हुई असाधारण प्रगति से अचंभित” भी थे। इसके चलते वे उन सहकर्मियों के साथ समय बिताने लगे जो जैव विकास और मानव व्यवहार में रुचि रखते थे। इन सहकर्मियों ने सुझाव दिया कि उन्हें जॉर्ज सी. विलियम्स नाम के एक जीव विज्ञानी से संपर्क करना चाहिए, जिन्होंने बुढ़ाने की एक वैकासिक व्याख्या प्रस्तावित की थी। नेसे ने इस सुझाव को मान लिया।

जॉर्ज सी. विलियम्स स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन विभाग में समुद्र वैज्ञानिक थे। उन्होंने 1957 में एक शोध पत्र लिखा था – प्लायोट्रॉपी, नेचुरल सिलेक्शन, एंड दी इवोल्यूशन ऑफ सेनेसेंस (एक जीन के एकाधिक प्रभाव, प्राकृतिक वरण और जरावस्था का विकास)। स्वयं विलियम्स मानते हैं कि चिकित्सा में वैकासिक सोच में उनकी रुचि युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के पक्षी विज्ञानी पौल एवाल्ड के एक शोध पत्र से जन्मी थी: “इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड दी ट्रीटमेंट ऑफ साइन्स एंड सिम्पटम्स ऑफ इंफेक्शियस डिसीज़” (वैकासिक जीव विज्ञान तथा संक्रामक रोगों के चिंहों व लक्षणों का उपचार, जर्नल ऑफ थियरेटिकल बायोलॉजी, 1980)। इस शोध पत्र में एवाल्ड ने दलील दी थी कि

“जैव विकास के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो संक्रामक रोगों के लक्षणों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. बीमारी के हानिकारक पहलुओं का सामना करने के लिए मेज़बान में अनुकूलन

2. मेज़बान में छेड़छाड़ करने के लिए रोगजनक में अनुकूलन

3. बीमारी के साइड प्रभाव, जो न तो मेज़बान के लिए और न ही रोगजनक के लिए कोई अनुकूली भूमिका निभाते हैं।”

पर्चे के अंत में उन्होंने कहा था: “उपचार की पसंद इन तीन व्याख्याओं की वैधता के आकलन पर निर्भर है।”

पीछे मुड़कर देखें, तो यह कहा जा सकता है कि वैकासिक चिकित्सा के तीन अभिभावक हैं: एक पक्षी विज्ञानी (एवाल्ड), एक मनोचिकित्सक (नेसे) और एक समुद्र जीव विज्ञानी (विलियम्स)। ऐसा विचित्र अभिभावकत्व विज्ञान के विचारों के इतिहास में बार-बार नज़र आता है। लेकिन यह एक ऐसी चीज़ है जिसे अकादमिक जगत की रुढि़वादी और अकल्पनाशील मूल्याकंन प्रक्रिया प्रारंभिक अवस्था में ही खत्म कर सकती है।

विलियम्स, बुढ़ापे के उद्विकास में अपनी रुचि के चलते, एवाल्ड की सूझबूझ को समझने व सराहने के लिए तैयार थे। ऊपर बताए गए कारणों के चलते, नेसे भी जैसे तैयार बैठे थे विलियम्स के साथ हाथ मिलाकर स्वास्थ्य, बीमारी और चिकित्सा की वैकासिक व्याख्या की खोज में जुटने को।

स्वास्थ्य व बीमारी में वैकासिक सूझबूझ

संक्रामक रोगों के लक्षणों के एवाल्ड के वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि हमें अंधाधुंध ढंग से उन सबका शमन करने की ज़रूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन लक्षणों को दूर करने की कोशिश करें, जो बीमारी से लड़ने हेतु शरीर के अनुकूलन हैं, तो हम फायदे की बजाय नुकसान ज़्यादा करेंगे।

नेसे और विलियम्स ने स्वास्थ्य और बीमारी के मामले में वैकासिक सोच के दायरे को काफी विस्तार दिया। हालात का आकलन करने के लिए उन्होंने 1991 में क्वार्टरली रिव्यू ऑफ बायोलॉजी में एक पर्चा प्रकाशित किया था – दी डॉन ऑफ डारविनियन मेडिसिन (डारविनवादी चिकित्सा का उदय)। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका लक्ष्य मात्र बीमारियों के संदर्भ में वैकासिक समझ को निरूपित करना नहीं है बल्कि वे चाहते हैं कि डॉक्टर भी ऐसा करें। अपने पर्चे की शुरुआत उन्होंने इस दावे के साथ की थी:

“चिकित्सा शिक्षा भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान की उन शाखाओं पर ज़ोर देती है जिनका सम्बंध तात्कालिक क्रियाविधि से है। जीव विज्ञान और चिकित्सा में इस ज्ञान के उपयोग के चलते मानव रोगों की रोकथाम और उपचार में प्रभावशाली प्रगति हुई है। अलबत्ता, जैव विकास को चिकित्सा पाठ्यक्रम में महत्व नहीं मिला है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि चिकित्सकीय समस्याओं पर वैकासिक सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा पेशेवर डारविन के साथ वैसा ही तालमेल बना पाते जैसा उन्होंने पाश्चर के साथ बनाया है तो तरक्की और भी तेज़ होती।”

वे जानते थे कि वैकासिक चिकित्सा अभी ज्ञान का ऐसा परिपक्व खजाना नहीं था जिसे तत्काल डॉक्टरों को सौंपा जा सके। यह तो सोचने का एक नया ढंग था जो उल्लेखनीय लाभ तभी दे सकता था जब चिकित्सक स्वयं इसे अपनाते। लिहाज़ा, उनका काम था कि वैकासिक सोच का विचार डॉक्टरों को बेचा जाए, कुछ प्रारंभिक समझ के साथ उनकी भूख को बढ़ाया जाए।

शुरुआत में ही नेसे और विलियम्स ने प्राकृतिक वरण की उस प्रचलित धारणा में ज़रूरी सुधार किए, जो ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ जुम्ले में प्रकट होती है। वे इस समझ के लिए रास्ता तैयार करना चाहते थे कि प्राकृतिक वरण कभी-कभी हमें कम फिट भी बना सकता है।

मोटे तौर पर ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ का आशय होता है एक पर्फेक्ट शरीर, जो ‘एक ऐसे शरीर से मेल नहीं खाता जिसमें हज़ारों खामियां और कमज़ोरियां हों जो उसे बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बना दें।’

अब हम समझते हैं कि प्राकृतिक वरण जीवों की इस क्षमता को अधिकतम करता है कि वे अपने जीन्स की प्रतिलिपियां भावी पीढ़ियों के शरीरों में छोड़कर जाएं। इसे जैव विकास का जीन्स आई व्यू भी कहते हैं और यह जुम्ला जी. सी. विलियम्स ने दिया था। इसके आधार पर यह संभावना बनती है कि किसी जीव को दीर्घायु, रोग-मुक्त और शारीरिक क्षति का प्रतिरोधी बनाए बगैर भी जेनेटिक हस्तांतरण को अधिकतम करना संभव है।

इसके अलावा, दो प्रतिस्पर्धी जीवों में से जो अपने जीन्स की ज़्यादा प्रतिलिपियां छोड़ जाता है, प्राकृतिक वरण उसे वरीयता देता है, भले ही दोनों अपने आप में बहुत फिट न रहे हों।

दरअसल, यह समझना ज़रूरी है कि ‘फिट’ और ’फिटनेस’ शब्दों के कई अर्थ हैं। आम बोलचाल में हम फिट का मतलब समझते हैं शक्तिशाली और बीमारियों से मुक्त – उन ‘हज़ारों खामियां और कमज़ोरियों’ से मुक्त शरीर जो ‘बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बनाती हैं’। चलिए, इसे फिटनेस की डॉक्टरी परिभाषा कहते हैं। दूसरी ओर, अभी हाल तक वैकासिक जीव विज्ञानी फिटनेस को इस आधार पर नापते थे कि कोई जीव अपने जीवन काल में कितनी संतानें पैदा करता है। इसे आजीवन प्रजनन सफलता भी कहते हैं। इसे हम शास्त्रोक्त डारविनी फिटनेस कहेंगे।

ज़्यादा हाल के समय में, वैकासिक जीव विज्ञानी समझ पाए हैं कि प्राकृतिक वरण का एक प्रकार (सहोदर वरण या किन सेलेक्शन) ऐसे गुणों को भी बढ़ावा दे सकता है जो उस जीव को प्रत्यक्ष रूप से तो कम संतानें उत्पन्न करने देते हैं लेकिन वह निकट जेनेटिक सम्बंधियों की देखभाल व जीवित रहने में मदद करते हैं। इसका कारण यह है कि निकट जेनेटिक सम्बंधी भी हमारे जीन्स की प्रतिलिपियां रखते हैं। अत:, स्वयं की संतानों की संख्या और सम्बंधियों को जीवित रहने में मदद मिलकर समावेशी फिटनेस कहलाते हैं।

दरअसल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, डॉक्टरी अर्थ में कमतर फिटनेस कई बार प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया का अपरिहार्य परिणाम होता है जब वह प्राकृतिक वरण डारविनी या समावेशी फिटनेस को बढ़ाने की दिशा में काम करे।

लिहाज़ा, डॉक्टरी फिटनेस तथा वैकासिक जीव विज्ञानी की फिटनेस की परिभाषाओं के बीच अंतर ही स्वास्थ्य व बीमारियों के मुद्दों पर वैकासिक तर्क को लागू करने का आधार बनता है। अपनी पुस्तक व्हाय वी गेट सिक में नेसे और विलियम्स पांच कारणों की चर्चा करते हैं कि क्यों प्राकृतिक वरण के बावजूद या उसके कारण हम कमज़ोर हो जाते हैं, बीमारियों के प्रति संवेदी हो जाते हैं।

इतिहास का अभिशाप

हमारे शरीरों में नज़र आने वाली संरचनागत खामियों का अस्तित्व इस बात का परिणाम है कि प्राकृतिक वरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो वैकल्पिक फीनोटाइप्स के बीच उत्तरजीविता का निर्धारण करती है जब वे किसी स्थान या समय पर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनमें से जो बेहतर होता है वह विजयी रहता है, चाहे वह एब्सोल्यूट रूप से कितना ही बुरा क्यों न हो। तो जब जीव किसी भिन्न पर्यावरण में पहुंचते हैं, तो प्राकृतिक वरण उन्हें वरीयता देता है जिनमें छोटे-छोटे उत्परिवर्तनों ने नए पर्यावरण के प्रति उन्हें बाकी से बेहतर अनुकूलित कर दिया हो।

दरअसल, प्राकृतिक वरण बुरी स्थिति में सर्वोत्तम प्रदर्शन करता है। उसके पास ऐसा कोई तरीका नहीं होता कि लौटकर मूल स्थिति में जाए और फिर से शुरू करे, जैसा कि इंजीनियर करते हैं। और तो और, हर मध्यवर्ती अवस्था को पिछली अवस्था से बेहतर नहीं तो कम से कम उतनी अच्छी तो होना ही चाहिए। इसके चलते अच्छे से बेहतर की ओर बढ़ने के मार्ग की सख्त सीमाएं तय हो जाती हैं। इसलिए हम कहते हैं कि प्राकृतिक वरण में कोई पूर्वानुमान नहीं होता। वह किसी कमतर जीव को सिर्फ इसलिए वरीयता नहीं दे सकता कि वह भविष्य में कहीं बेहतर साबित होगा। प्राकृतिक वरण एक अंधी यांत्रिक प्रक्रिया है जो इस क्षण और इस जगह काम करती है।

संभवत: इतिहास के अभिशाप की वजह से सबसे मशहूर संरचनागत खामी, जिसे फायलोजेनेटिक जड़त्व या फायलोजेनेटिक अड़चन कहते हैं, वह है हमें खाने-पीने से लगने वाला ठसका। स्वयं डारविन ने भी ध्यान दिया था:

“…यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भोजन या पेय पदार्थों का जो एक-एक कण हम निगलते हैं, उसे सांस नली (ट्रेकिया) के प्रवेश छिद्र पर से गुज़रना पड़ता है, जिसमें हमेशा यह जोखिम रहता है कि वह हमारे फेफड़ों में पहुंच जाएगा, चाहे कंठद्वार (ग्लॉटिस) को बंद करने वाली व्यवस्था कितनी भी बढ़िया क्यों न हो।”

इसका कारण यह है कि हम ‘संशोधनों के साथ अवतरित’ (descended with modification) हुए हैं। यह डारविन का प्रिय जुम्ला था। हमारा क्रमिक विकास उन नन्हे कृमियों से हुआ है जो उनके शरीर में प्रवेश करने वाले पानी से भोजन के कण छानकर पोषण प्राप्त करते थे और उसी पानी में से ऑक्सीजन भी ले लेते थे। जब इन कृमियों के वंशज हवा में सांस लेने लगे, तो मौजूदा पाचन तंत्र में से एक मार्ग का निर्माण हुआ जो हवा को फेफड़ों में ले जाता था। सारे कशेरुकी जीवों की तरह हम भी इस डिज़ाइन से बंधे हैं जिसमें हवा और भोजन के रास्ते एक-दूसरे को काटते हैं और ठसका लगने का खतरा पैदा करते हैं। ऐसा अनुमान है कि एक लाख में एक व्यक्ति हर साल इसके कारण मौत का शिकार होता है।

यह एक फायलोजेनेटिक अड़चन है कि हम छानकर भोजन ग्रहण करने वाले कृमियों से छोटे-छोटे परिवर्तनों के माध्यम से अवतरित हुए हैं। इसके चलते ऐसा कोई तरीका नहीं है कि प्राकृतिक वरण भोजन और वायु के लिए दो अलग-अलग मार्ग बनाकर इस समस्या को सुलझा लेता – जैसा कि उसने कीटों और मोलस्क जीवों के मामले में किया है।

परजीवी-मेज़बान प्रतिस्पर्धा

वैकासिक परिप्रेक्ष्य से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृतिक वरण सारे परजीवियों का खात्मा करके हमें रोगमुक्त नहीं बना सकता। सीधा-सा तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण की वही प्रक्रिया निरंतर काम करते हुए रोगजनक परजीवियों को भी यथासंभव सफल बनाती है। अर्थात हम रोगजनकों के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा में हैं। और कई मायनों में रोगजनक प्राकृतिक वरण की ताकत का उपयोग करने के लिहाज़ से फायदे में हैं।

चूंकि प्राकृतिक वरण वैकल्पिक फीनोटाइप के बीच प्रजनन में विविधता के आधार पर काम करता है, इसलिए जैव विकास की रफ्तार मात्र समयावधि पर नहीं बल्कि पीढ़ियों की संख्या पर निर्भर करती है। चूंकि आम तौर पर परजीवी अपने मेज़बान की तुलना में कहीं अधिक रफ्तार से प्रजनन करते हैं, इसलिए वे मेज़बान की तिकड़मों का जवाब अधिक तेज़ी से दे सकते हैं। अधिकांश रोगजनक हमारे शरीर में सैकड़ों-हज़ारों नहीं बल्कि लाखों पीढ़ियां गुज़ारते हैं। और हमें तो उनसे संघर्ष में कोई वैकासिक लाभ पूरी एक पीढ़ी बाद ही मिल सकता है जो शायद 20-30 साल बाद सामने आए।

लिहाज़ा, हम परजीवियों के लिए आसान शिकार हैं क्योंकि वे हमारे द्वारा विकसित सुरक्षा उपायों के विरुद्ध रणनीतियां विकसित करते रह सकते हैं।

एक मान्यता है कि लैंगिक प्रजनन का विकास परजीवियों से लड़ने के लिए हुआ है: लैंगिक प्रजनन के दौरान माता-पिता के जीन्स का सम्मिश्रण होता है और पुनर्मिश्रण के ज़रिए जीन्स को नए ढंग से संयोजित किया जाता है। परिणाम यह होता है कि हमारा शरीर परजीवियों के लिए एक नया जेनेटिक परिवेश उपस्थित करता है जिसके वे आदी नहीं हैं। सुरक्षा उपायों से बचने के लिए परजीवियों को नए सिरे से शुरू करना होगा और इस तरह हमें थोड़ा समय मिल जाता है।

हाल के समय में पता चला है कि परजीवी न सिर्फ हमारी कुदरती सुरक्षा व्यवस्था के खिलाफ विकसित होते हैं बल्कि वे हमारे द्वारा विकसित टेक्नॉलॉजी (जैसे एंटीबायोटिक्स) से बच निकलने के रास्ते भी विकसित कर लेते हैं।

मेज़बान-परजीवी सम्बंधों को लेकर एक वैकासिक नज़रिया न सिर्फ बीमारियों की एक नई समझ उपलब्ध कराता है बल्कि यह हमें बीमारियों से निपटने के लिए सर्वथा नए व सहजबोध के विपरीत नीतिगत सुझाव भी प्रदान करता है। याद कीजिए एवाल्ड ने संक्रामक रोगों के लक्षणों का वर्गीकरण करते हुए कहा था कि हमें किसी बीमारी के लक्षणों को दबाने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनमें से कुछ लक्षण शरीर की सुरक्षा क्रियाएं भी हो सकते हैं। हमें शरीर के इन सुरक्षा प्रयासों के खिलाफ काम करने की बजाय उनमें मदद देनी चाहिए।

इसके लिए न सिर्फ जैव विकास के ज्ञान की ज़रूरत होती है, बल्कि वैकासिक विवेक की भी। डॉक्टरों को थोड़ा विनम्र होना चाहिए और यह समझना चाहिए कि चिकित्सकीय हस्तक्षेप शरीर में लाखों वर्षों में विकसित सुरक्षा व्यवस्था में एक छोटा-सा योगदान भर है।

बुखार क्यों आता है?

उदाहरण के तौर पर यह सवाल लीजिए कि संक्रमण होने पर बुखार क्यों आता है। बढ़ते क्रम में इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि सारे समतापी (गर्म खून वाले) जीवों में बुखार संक्रमण के विरुद्ध एक अनुकूली प्रतिक्रिया होती है, न कि शरीर के ताप-नियमन तंत्र की कोई गड़बड़ी। यानी बुखार का इलाज करना, दरअसल, शरीर द्वारा बीमारी से लड़ने के प्रयासों में बाधा पहुंचा सकता है, फायदे की बजाय नुकसान कर सकता है।

आश्यर्यजनक रूप से बुखार के फायदे-नुकसान को लेकर अध्ययन बहुत कम हुए हैं। इसके मद्देनज़र, विलियम और नेसे यह सलाह नहीं देते कि डॉक्टर बुखार का इलाज करने से बचें, बल्कि ज़्यादा अनुसंधान की सलाह देते हैं। उन्हें स्पष्ट है कि वे

“…सपने में भी यह सलाह देने की नहीं सोचेंगे कि लोग बुखार कम करने के लिए दवा न लें। यदि कई सारे अध्ययन निर्विवाद रूप से यह साबित कर देते हैं कि बुखार आम तौर पर संक्रमण से लड़ने में महत्वपूर्ण होता है, फिर भी वे ऐसी किसी नीति का समर्थन नहीं करेंगे कि बुखार को प्रोत्साहित किया जाए या उसे अपने कुदरती स्तर तक बढ़ने दिया जाए।“

एक वैकासिक नज़रिया बुखार जैसे किसी अनुकूलन की लागत और लाभ दोनों की ओर ध्यान खींचता है। यदि मनुष्य के शरीर को 40 डिग्री सेल्सियस (103 डिग्री फैरनहाइट) पर बनाए रखने का कोई नुकसान न होता, तो उसे सदा इसी तापमान पर बने रहना चाहिए ताकि संक्रमण की शुरुआत ही न हो पाए। लेकिन इतने हल्के बुखार की भी कीमत होती है: इस तापमान पर शरीर के पोषण भंडार 20 प्रतिशत अधिक तेज़ी से कम होते हैं और पुरुष में अस्थायी वंध्यता पैदा होती है। इससे अधिक बुखार हो तो सन्निपात की स्थिति आ सकती है या शायद दौरे पड़ने लगें और ऊतकों की स्थायी क्षति हो जाए।

यह भी समझने की ज़रूरत है कि नियमन की कोई भी प्रणाली सारी परिस्थितियों का अंदेशा नहीं कर सकती। हम अपेक्षा करेंगे कि संक्रमण से लड़ने के लिए तापमान एक यथेष्ट स्तर तक बढ़ेगा, लेकिन नियमन प्रणाली की सटीकता सीमित है, इसलिए कभी-कभी बुखार बहुत अधिक बढ़ जाएगा या कभी पर्याप्त न बढ़ पाए।

इसी तरह की दलील एनीमिया के बारे में भी दी जा सकती है। एनीमिया कई बार संक्रमण के खिलाफ शरीर की सुरक्षा के रूप में पैदा होता है – यह बैक्टीरिया के लिए निहायत ज़रूरी लौह तत्व की उपलब्धता को कम करने का एक तरीका है।

ज़ाहिर है, और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है, लेकिन हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ताओं को बुखार या एनीमिया के अनुकूली महत्व और इस तरह के अनुकूलन की सीमाओं की छानबीन करने में रुचि न हो, जब तक कि वैकासिक जीव विज्ञान उनकी शिक्षा का हिस्सा न बने। जब वे जैव विकास का अध्ययन करेंगे और उसे समस्त जीव विज्ञान का एकीकरण करने वाले सूत्र के रूप में समझ पाएंगे, तब वे शरीर की विकसित सुरक्षा प्रणाली के प्रति अधिक सचेत होंगे और खुद को शरीर के बीमारी से लड़ने के प्रयासों का एक पार्टनर मानेंगे।

तो, लगता है कि प्राकृतिक वरण हमें बीमार करता है (या कम फिट बनाता है) क्योंकि यह रोगजनक जीवों के पक्ष में काम करता है और शायद एक स्तर की अस्थायी रुग्णता बीमारी से संघर्ष के लिए ज़रूरी हो सकती है। लिहाज़ा यह समझना बीमारी की हमारी समझ और उनसे लड़ने की हमारी काबिलियत को प्रभावित कर सकता है कि प्राकृतिक वरण रोगजनकों को उनके कामकाज में बेहतर बनाता है और बीमारी के कुछ लक्षण हमारे शरीर की सुरक्षा प्रणाली के परिणाम हो सकते हैं।

अगली किश्त में हम देखेंगे कि हमारी कई स्वास्थ्य समस्याएं जैव विकास से प्राप्त जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य का परिणाम होती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव विकास के प्रति जागरूक चिकित्सा विज्ञान – 2 – डॉ. राघवेंद्र गडग्कर

संस्कृति-जैविकी असामंजस्य

प्राकृतिक वरण हमें कम फिट बना सकता है, इसका एक कारण और है – वह है जिस पर्यावरण में हमारा विकास हुआ था और आज जिस पर्यावरण का हम अनुभव करते हैं, उनके बीच असामंजस्य।

यह अक्सर कहा जाता है कि हमारी वर्तमान सभ्यता हमारी पाषाण-युगीन जैविकी से मेल नहीं खाती। बदकिस्मती से, इस तरह मान लिए गए असामंजस्य का वैकासिक जीव विज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है। इसका उपयोग हमारी हर समस्या की ‘व्याख्या’ के लिए किया जाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि कुछ लोग कहते हैं कि इसलिए हमें अपनी आधुनिक जीवन शैली को पूरी तरह त्यागकर उस तरह जीना चाहिए जिस तरह हम कथित तौर पर स्वर्णिम पाषाण युग में जीते थे। वैकासिक जीव विज्ञान का ऐसा लापरवाह और बगैर सोचे-समझे उपयोग उसे बदनाम करता है और काफी हानि पहुंचाता है।

यह समझ लेने के बाद, यह कहा जा सकता है कि असामंजस्य की यह अवधारणा, यदि गहनता और पर्याप्त प्रमाणों के साथ लागू की जाए तो, हमारी चंद वर्तमान तकलीफों को समझने व उनसे निपटने में काफी उपयोगी व सही हो सकती है। पीटर ग्लकनैन और मार्क हैंसन ने अपनी पुस्तक मिसमैच (2008) में इस पर विचार करते हुए दर्शाया है कि हमारी उद्विकसित जैविकी और हमारे वर्तमान पर्यावरण के बीच असामंजस्य कई कारणों से हो सकता  है।

उदाहरण के लिए, आधुनिक पाश्चात्य समाजों में, बेहतर पोषण व स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होने के चलते, मनोवैज्ञानिक व यौनिक परिपक्वता का समय बदला है। ये दोनों परिपक्वताएं अतीत में लगभग साथ-साथ आती थीं लेकिन अब इनकी कड़ी टूट गई है। आजकल बच्चे यौन परिपक्वता जल्दी और मनोवैज्ञानिक परिपक्वता से पहले हासिल कर लेते हैं। यह मनोवैज्ञानिक परिपक्वता यौन परिपक्वता की मांगों से निपटने लिए ज़रूरी होती है। ऐसा न होने पर आजकल के किशोर कई समस्याओं का सामना करते हैं।

हमारी जैविकी और भोजन, ऊर्जा के उपभोग व खर्च की आधुनिक जीवन शैली के बीच असामंजस्य एक और उदाहरण है। कृषि तथा आधुनिक टेक्नॉलॉजी के प्रादुर्भाव के साथ हमारा भोजन नाटकीय रूप से बदल गया है। वसा, नमक और शकर, जो पहले मुश्किल से मिलते थे, आज प्रचुर मात्रा में और नियमित रूप से उपलब्ध हो गए हैं। यह तो कृषि व टेक्नॉलॉजी में तरक्की के फलस्वरूप हुआ है। इसके अलावा, मार्केटिंग की रणनीतियों व व्यापारिक हितों के चलते लोगों को उनकी ज़रूरत से ज़्यादा उपभोग को प्रेरित किया जाता है और इसने समस्या को और विकट बनाया है। कुल मिलाकर इनका परिणाम तथाकथित जीवन शैली रोगों के रूप में सामने आया है – टाइप-2 मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप और हृदय-रक्तसंचार सम्बंधी बीमारियां।

लेकिन भोजन और स्वास्थ्य के बीच सम्बंध बहुत स्पष्ट नहीं हैं। लाल मांस, अंडे, वसाएं और शकर के उपभोग को लेकर दी गई सिफारिशों में उलटफेर काफी जानी-पहचाने हैं। ऐसे उलटफेर के चलते अक्सर विज्ञान के प्रति विश्वास कम हो जाता है – आम लोगों में भी और अन्य विषयों के वैज्ञानिकों में भी। तथ्य यह है कि ये कड़ियां निहायत पेचीदा हैं तथा और अनुसंधान की ज़रूरत है, खास तौर से वैकासिक नज़रिए को ध्यान में रखते हुए।

दरअसल, चूंकि विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपयोग के पक्ष और विपक्ष में की गई सिफारिशों पर काफी सशक्त व्यावसायिक हित हावी होते हैं, इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रकृति और उसका मूल्यांकन दांव पर लगा है। नेचर पत्रिका में एक हालिया संपादकीय (शीर्षक ‘स्टडीज़ लिंकिंग डाएट विद हेल्थ मस्ट गेट एक होल लॉट बेटर’) में इस बात को रेखांकित किया गया है कि “अधिकांश पोषण सम्बंधी और स्वास्थ्य सम्बंधी सलाहों के पीछे प्रमाणों का आधार…. विवादित है।” संपादकीय में चेतावनी दी गई थी:

“यदि वित्तदाता अपने प्रयासों को अच्छी गुणवत्ता के आंकड़े उत्पन्न करने में नहीं लगाएंगे, तो आम लोग भ्रमित, शंकालु, अनाश्वस्त रहेंगे और उस जानकारी से वंचित रहेंगे जिसकी ज़रूरत स्वास्थ्य व जीवन शैली सम्बंधी निर्णयों के लिए है।”

एक और असामंजस्य होता है क्योंकि लोगों की प्रजनन-काल के बाद की जीवन अवधि लंबी होती जा रही है जिसकी वजह से बढ़ती उम्र की तमाम दिक्कतें सामने आ रही हैं – स्मृतिभ्रंश, पार्किंसन व अल्ज़ाइमर रोग और मेनोपॉज़ से जुड़ी दिक्कतें। हम इनके प्रति अनुकूलित नहीं हैं क्योंकि ये अपेक्षाकृत नई हैं क्योंकि बुढ़ापा स्वयं ही अब पहले की तुलना में ज़्यादा सामान्य बात हो गई है।

और तो और, चूंकि ये बीमारियां बढ़ती उम्र में होती हैं, इसलिए प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इनके विरुद्ध चयन भी नहीं कर सकती क्योंकि ये हमारी प्रजनन सफलता को प्रभावित नहीं करतीं। इस संदर्भ में एक वैकासिक नज़रिया और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

जैसा कि हमने पहले कहा था, असामंजस्य के कई मामले इसलिए उभरते हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण हमारी आधुनिक सभ्यता के साथ कदम नहीं मिला पाया है। विडंबना देखिए कि जिस प्राकृतिक वरण ने हमारे बड़े दिमागों को उत्पन्न किया और हमें भाषा की कुशलता प्रदान की और तदानुसार संस्कृति के विकास को संभव बनाया, उसी ने हमें खुद प्राकृतिक वरण की शक्ति से बच निकलने की गुंजाइश भी दी है। स्वाभाविक सवाल है कि क्या वह कभी कदम मिला पाएगा। सिद्धांतत: तो जवाब ‘हां’ लगता है लेकिन व्यावहारिक तौर पर लगता है कि ‘शायद नहीं’ या ‘कभी-कभार ही’।

दूध की अच्छाई?

हमारी जैविकी और पर्यावरण के बीच सभ्यता-प्रेरित असामंजस्य के जिस उदाहरण का सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है, और जहां दोनों के बीच की खाई अंतत: पट जाएगी, वह है लैक्टोस सहनशीलता/असहनशीलता का। चूंकि सारे स्तनधारी जीव अपने शिशुओं को स्तनपान कराते हैं, इसलिए शिशुओं में लैक्टेज़ नामक एक एंज़ाइम पाया जाता है, जो दूध में पाई जाने वाली लैक्टोस शर्करा को पचाता है।

जब शिशुओं को दूध छुड़ाकर अन्य भोजन दिया जाने लगता है, तब वे लैक्टेज़ बनाना बंद कर देते हैं क्योंकि अब उसकी ज़रूरत नहीं होती। मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। इसलिए वयस्कों को ‘लैक्टेज़ नॉन-पर्सिस्टेंट’ अर्थात ‘लैक्टोस-असहनशील’ कहा जाता है। लेकिन दुनिया के कुछ हिस्सों में पशुपालन के प्रादुर्भाव के साथ यह काफी फायदेमंद हो गया कि वयस्क आहार में पशुओं के दूध को जगह दी जाए।

इस बात के काफी पुख्ता प्रमाण हैं कि प्राकृतिक वरण ने उन बिरले उत्परिवर्तनों को वरीयता दी जो किसी व्यक्ति को लैक्टेज़ नामक एंज़ाइम वयस्कपन में भी बनाते रहने की क्षमता देते थे। ये लोग ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशील’ हो गए। इस बात के भी प्रमाण हैं कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों उत्परिवर्तन अलग-अलग हैं। आज युरोप के कई हिस्सों तथा अफ्रीका व मध्य-पूर्व के कुछ इलाकों में ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशीलता’ काफी आम है।

अलबत्ता, इसकी उपस्थिति में काफी विविधता है – स्कैंडिनेविया में 95-97 प्रतिशत, जहां दूध का सेवन सामान्य बात है, से लेकर पूर्वी एशिया में 0-10 प्रतिशत जहां दूध का सेवन काफी कम होता है।

कुल मिलाकर, लैक्टोस असहनशीलता दुनिया में सबसे आम स्थिति है। और वास्तव में यह मनुष्यों की प्राचीन स्थिति है। लेकिन वैकासिक नज़रिए के अभाव में और जाने-पहचाने पाश्चात्य पूर्वाग्रह के चलते, हम अक्सर सोचते हैं कि ‘लैक्टोस असहनशीलता’ एक बीमारी है।

वैकासिक परिप्रेक्ष्य हमें एक सर्वथा अलग तस्वीर प्रदान करता है। लैक्टोस असहनशीलता की प्राचीन स्थिति, जब दूध का सेवन नदारद था, से लेकर वर्तमान तक, जब कम से कम कुछ इलाकों में दूध का सेवन सामान्य बात है, लैक्टोस सहनशीलता का विकास हुआ है और इसने जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य को पलट दिया है। यह अपेक्षा उचित ही होगी कि यदि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी दूध का सेवन बढ़ता गया तो लैक्टोस सहनशीलता विकसित होती जाएगी। लेकिन प्राकृतिक वरण एक धीमी प्रक्रिया है और ऐसे असामंजस्य सैकड़ों-हज़ारों सालों तक बने रहने की अपेक्षा की जानी चाहिए।

जीन्स का दोष

हमारे शरीर के कई गुणों की तरह हमारी कई बीमारियों का दोष भी जीन्स को दिया जा सकता है। लेकिन यह सहजबोध के थोड़ा उल्टा लगता है क्योंकि ऐसे जीन्स का सफाया करना ही तो प्राकृतिक वरण का काम है। दिक्कत यह है कि प्राकृतिक वरण कई बार ऐसा करने में अशक्त होता है। उदाहरण के लिए, वह कुछ ऐसे खराब जीन्स को नहीं हटा सकता जिनके कुछ अच्छे प्रभाव भी होते हैं।

ऐसा सबसे बेहतरीन उदाहरण है वह जीन जो सिकल सेल एनीमिया का कारण है। यह जीन अफ्रीका के कुछ हिस्सों में काफी आम है। यह एक असामान्य हीमोग्लोबीन का निर्माण करता है जिसकी वजह से लाल रक्त कोशिकाएं विकृत हो जाती हैं और हंसिए की आकृति ग्रहण कर लेती हैं। ऐसी हंसियाकार कोशिकाएं रक्त के साथ आसानी से प्रवाहित नहीं हो पातीं, जिसकी वजह से रक्तस्राव, एनीमिया और कई अन्य दिक्कतें होती हैं।

जिन व्यक्तियों में दोषपूर्ण जीन की दो प्रतियां (माता और पिता दोनों से प्राप्त) होती हैं, उनमें सारी लाल रक्त कोशिकाएं हंसियाकार हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति गंभीर रोगग्रस्त होते हैं (इन्हें उस जीन के लिहाज़ से होमोज़ायगस कहा जाता है)। ऐसे व्यक्ति अक्सर प्रजनन की दृष्टि से परिपक्व होने से पहले ही मौत के शिकार हो जाते हैं। यदि कहानी सिर्फ इतनी होती तो प्राकृतिक वरण शायद पूरी आबादी से सिकल सेल जीन का सफाया कर चुका होता। लेकिन कहानी में एक पेंच है।

जिन लोगों को किसी एक पालक से दोषपूर्ण जीन विरासत में मिलता है और दूसरे पालक से सामान्य जीन मिलता है वे हेटेरोज़ायगस होते हैं; उनमें एक जीन दोषपूर्ण और एक जीन सामान्य होता है। ऐसे व्यक्तियों में सामान्य जीन सामान्य हीमोग्लोबीन और सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनाता है। और उनका काम इन सामान्य कोशिकाओं से चल जाता है। दोषपूर्ण जीन द्वारा बनाई गई असामान्य लाल रक्त कोशिकाओं को रक्त प्रवाह से हटा दिया जाता है। लिहाज़ा, शरीर में रोग के लक्षण प्रकट होने के लिए दोनों सिकल कोशिका जीन्स दोषपूर्ण होने चाहिए। ऐसे जीन्स को रेसेसिव कहा जाता है।

किसी रेसेसिव घातक जीन का सफाया करना प्राकृतिक वरण के लिए काफी मुश्किल होता है क्योंकि हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों में ये जीन प्राकृतिक वरण के लिए ओझल होते हैं और दोषपूर्ण होने के बावजूद ये व्यक्ति जीवित रह पाते हैं और उस जीन को अगली पीढ़ी में प्रेषित कर देते हैं। यदि किसी आबादी में वह जीन काफी कम पाया जाता है, तो संभावना यह होती है कि उस जीन वाले अधिकांश लोग हेटेरोज़ायगस होंगे और प्राकृतिक वरण कम प्रभावी रह जाएगा। इसलिए, रेसेसिव घातक जीन्स किसी आबादी में कम संख्या में लंबे समय तक बने रह सकते हैं।

अब ज़रा कल्पना कीजिए कि हेटेरोज़ायगस लोग वास्तव में सामान्य जीन के होमोज़ायगस लोगों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। क्या यह संभव है? अवश्य संभव है, और कई मामलों में ऐसा होता भी है। उदाहरण के लिए, सिकल कोशिका जीन को ही लीजिए।

यह तो हम देख ही चुके हैं कि हेटेरोज़ायगस व्यक्ति दोषपूर्ण लाल रक्त कोशिकाओं को हटाकर काम चला लेते हैं। इसके चलते मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सिपैरम) के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है क्योंकि जिन कोशिकाओं में परजीवी बैठा होता है, उन्हें प्राय: हटा दिया जाता है। अर्थात सिकल कोशिका जीन के संदर्भ में हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों को मलेरिया से मृत्यु के खिलाफ काफी सुरक्षा मिल जाती है।

तो, हेटेरोज़ायगस व्यक्ति के शरीर में सिकल कोशिका के जीन को न सिर्फ सुरक्षा मिलती है बल्कि प्राकृतिक वरण द्वारा चुना भी जाता है। जैसी कि अपेक्षा होगी, सिकल कोशिका जीन उन इलाकों में ज़्यादा आम होता है जो मलेरिया ग्रस्त हैं चाहे उस जीन के होमोज़ायगस व्यक्ति सिकल कोशिका रोग से पीड़ित होते रहें। यह एक ऐसी स्थिति है जहां जब तक मलेरिया का प्रकोप बना हुआ है, प्राकृतिक वरण मरम्मत करने में अक्षम रहता है।

शरीर में लेनदेन

जीवों को उनके पर्यावरण के अनुकूल बनाने में प्राकृतिक वरण के मार्ग में अड़चन का एक कारण और भी है। हमारे शरीर को दोषरहित बनाने के मार्ग में प्राय: यह अड़चन आती है कि उस अनुकूलन को अपनाने का असर किसी अन्य गुणधर्म पर पड़ता है। दोनों हाथों में लड्डू मुश्किल है। विलियम्स और नेसे कहते हैं,

“सीधे खड़े होकर चलने की कीमत पीठ-दर्द की समस्याएं हैं। ऊतकों की मरम्मत करने की क्षमता की कीमत कैंसर के रूप में सामने आती है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की कीमत प्रतिरक्षा विकारों के रूप में दिखती है। दुश्चिंता की कीमत पैनिक डिसऑर्डर होती है। प्रत्येक मामले में, प्राकृतिक वरण ने यथासंभव सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है – लाभों को लागतों के साथ संतुलित करके। जहां भी संतुलन बिंदु होगा, बीमारी अवश्यंभावी है।

अनुकूलनवादी वैज्ञानिक शरीर को एक दोषमुक्त पर्फेक्ट रचना के रूप में नहीं बल्कि समझौतों के एक पुंज के रूप में देखते हैं। उन्हें समझकर हम बीमारियों को बेहतर समझ पाएंगे।”

आगामी लेखों में हम ऐसे समझौतों का और अन्वेषण करेंगे और खास तौर से यह देखेंगे कि ये यौवन और बुढ़ापे के बीच तथा पुरुषों और महिलाओं के बीच किस तरह सामने आते हैं।

सार रूप में, हमारे शरीर कमज़ोर और दोषपूर्ण हैं और बीमारियों के प्रति संवेदनशील हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण ने कतिपय ऐतिहासिक मार्ग अपनाए होंगे, क्योंकि प्राकृतिक वरण रोगजनक जीवों के पक्ष में भी काम करता है, क्योंकि हमारी जैविकी और हमारी संस्कृति के बीच असामंजस्य है, क्योंकि बुरे जीन्स के कुछ अच्छे असर भी हो सकते हैं और प्राय: लाभ-लागत के बीच ऐसे लेन-देन होते हैं कि कई सारे कार्यों को एक साथ पर्फेक्ट बनाने की प्राकृतिक वरण की क्षमता बाधित होती है।

किसी वैकासिक जीव वैज्ञानिक के लिए यह रोमांचक बुनियादी विज्ञान है जो सौंदर्य और तर्क से लबरेज़ है। साथ ही, वैकासिक चिकित्सा का वायदा है कि यदि हम स्वास्थ्य व बीमारियों को एक वैकासिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें, तो इससे चिकित्सा विज्ञान समृद्ध होगा।

अगले लेख में हम वैकासिक चिकित्सा की वर्तमान स्थिति – नेसे व विलियम्स की पुस्तक के प्रकाशन के 30-35 साल बाद – पर विचार करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अधिक वज़न का मतलब जल्द मृत्यु नहीं होता

म तौर पर अधिक वज़न (ओवरवेट) होना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। यहां तक कि चिकित्सक भी स्वस्थ रहने के लिए वज़न कम करने की सलाह देते हैं। लेकिन एक हालिया अध्ययन में ओवरवेट के रूप में वर्गीकृत लोगों की मृत्यु दर तथाकथित ‘आदर्श वज़न’ वाले लोगों की तुलना में थोड़ी कम पाई गई है। इन लोगों का वज़न अधिक ज़रूर था लेकिन ये मोटे (ओबेस) नहीं थे।

इस बात को लेकर तो कोई विवाद नहीं है कि वज़न बहुत अधिक हो तो सेहत के लिए हानिकारक होता है। लेकिन उपरोक्त अध्ययन से लगता है कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि स्वास्थ्य जोखिम कितने वज़न के बाद शुरू होते हैं।

आदर्श वज़न पता करने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) देखा जाता है। बीएमआई की गणना वज़न (किलोग्राम में) को ऊंचाई (मीटर में) के वर्ग से भाग देकर की जाती है। अधिकांश देशों में 18.5 से 24.9 के बीच के बीएमआई को स्वस्थ माना जाता है; 25 से 29.9 को ओवरवेट और 30 से अधिक को मोटापा ग्रसित की श्रेणी में रखा जाता है। 1997 में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में इनके उल्लेख के बाद तो इन सीमाओं को लगभग पूरी दुनिया में मान्यता मिल गई।

फिर कुछ अध्ययनों से पता चला था कि 25 से ऊपर बीएमआई वाले लोगों की मृत्यु दर दुबले-पतले लोगों से कम है। लेकिन ये अध्ययन काफी पुराने हैं जब लोग आज की तुलना में दुबले हुआ करते थे। इन अध्ययनों के सहभागियों में जनजातीय विविधता भी नहीं थी।

इस मुद्दे को समझने के लिए रटगर्स इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के आयुष विसारिया और उनके सहयोगियों ने 1999 में शुरू हुए एक अध्ययन का विश्लेषण किया जिसमें 20 वर्ष तक 5 लाख जनजातीय रूप से विविध अमेरिकी वयस्कों के जीवन को ट्रैक किया गया था। इन लोगों का वज़न और लंबाई ज्ञात थे। इस विश्लेषण में 22.5 से 24.9 बीएमआई के स्वस्थ बीएमआई वाले लोगों की तुलना में 25 से 27.4 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 5 प्रतिशत कम पाया गया। इसके अलावा 27.5 से 29.9 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 7 प्रतिशत कम पाया गया। ये निष्कर्ष वर्तमान बीएमआई की सीमाओं से काफी अलग प्रतीत होते हैं।  

फिर भी शोधकर्ताओं के अनुसार इस आधार पर कोई भी निष्कर्ष निकालना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वर्तमान में अधिक वज़न के रूप में वर्गीकृत बीएमआई वर्तमान स्वस्थ श्रेणी से बेहतर है। आम तौर पर इस तरह के जनसंख्या अध्ययन में पूर्वाग्रह हो सकते हैं जिससे परिणामों में विसंगतियां हो सकती हैं। मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि अकेले बीएमआई मृत्यु के जोखिम का द्योतक नहीं है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन बीएमआई के साथ कमर की माप और अन्य कारकों को भी ध्यान में रखने की सलाह देता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार बीएमआई को आबादी के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बनाया गया था। इसका उपयोग व्यक्तियों को स्वास्थ्य सलाह देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शरीर के लिए हानिकारक है बीपीए

बीपीए यानी बिसफिनॉल-ए एक ऐसा रसायन है जिसका उपयोग प्लास्टिक को लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए किया जाता है। बिना रासायनिक परीक्षण किए इसका पता नहीं लगाया जा सकता है। यह खाने-पीने, सांस या छूने के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है। वैसे तो शरीर में प्रवेश करने के कुछ ही घंटों में बीपीए विघटित होकर शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन लंबे समय तक इसके संपर्क में रहने से यह हानिकारक हो सकता है।

बीपीए को हार्मोनल गड़बड़ियां पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है और यह स्तन और अंडाशय के कैंसर के अलावा प्रतिरक्षा, थायरॉयड और चयापचय सम्बंधी दिक्कतों के लिए भी ज़िम्मेदार है। हाल ही में कैलिफोर्निया स्थित सेंटर फॉर एनवॉयर्नमेंटल हेल्थ (सीईएच) ने सैकड़ों ब्रांड के वस्त्रों में बीपीए की हानिकारक मात्रा पाई है। कपड़ा कंपनियों ने सीईएच के अध्ययन को गलत बताया है। रासायनिक उद्योग और अन्य निर्माता हमेशा से बीपीए को गैर-हानिकारक बताते आए हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में बीपीए और हार्मोनल अवरोधकों के बारे में जागरूकता बढ़ने के बाद भी यह समस्या बनी हुई है।

बीपीए की पहचान पहली बार 1891 में हुई थी लेकिन प्लास्टिक उद्योग में इसके उपयोग के बाद से यह लोकप्रिय हुआ। 2000 के दशक तक पानी की बोतलों से लेकर डेंटल सीमेंट, खाद्य पदार्थों के लेबल और लगभग हर चीज़ में बीपीए पाया जाने लगा। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) द्वारा 2003-04 में किए गए एक सर्वेक्षण में छह साल और उससे अधिक उम्र के अमरीकियों से एकत्र किए गए 2517 मूत्र नमूनों में से 93 प्रतिशत में बीपीए का अधिक स्तर पाया गया था।

अधिकांश बीपीए पैकेजिंग और प्लास्टिक कंटेनरों से खाद्य पदार्थों में मिलकर शरीर में प्रवेश करता है। हमारे शरीर का अधिकांश बीपीए यकृत द्वारा चयापचयित होता है और मूत्र के माध्यम से बाहर निकल जाता है। हालांकि जो बीपीए शरीर में रह जाता है वह एक हार्मोनल अवरोधक के रूप में कार्य करता है। यह हार्मोन्स और अन्य रसायनों के माध्यम से संकेत भेजने के लिए उपयोग की जाने वाली नाज़ुक आणविक प्रक्रियाओं को बदल देता है। इसका सबसे अधिक जोखिम भ्रूणावस्था और किशोरावस्था के दौरान है लेकिन दिक्कत यह है कि मनुष्यों में ऐसे अध्ययन नैतिकता के मापदंडों के चलते करना संभव नहीं है।

विभिन्न एस्ट्रोजेन हार्मोन्स के साथ आणविक समानता के कारण बीपीए समस्याएं उत्पन्न करता है। 1930 के दशक में चूहों पर किए गए अध्ययन से पता चला था कि बीपीए सेक्स हार्मोन एस्ट्रोन के समान महिला प्रजनन प्रणाली को उत्तेजित कर सकता है। इसके बाद के अध्ययनों से पता चलता है कि बीपीए कोशिकाओं के एस्ट्रोजन रिसेप्टर्स से जुड़ जाता है – तब यह एस्ट्रोजेन के प्रभाव को बढ़ा भी सकता है और इस हार्मोन की क्रिया को अवरुद्ध भी कर सकता है। थायरॉइड हार्मोन के रिसेप्टर्स से जुड़ने पर भी यह ऐसा ही प्रभाव दिखाता है। इससे बीपीए इन हार्मोन्स का प्रभाव बढ़ा भी सकता है और कम भी कर सकता है। देखा गया है कि बीपीए की थोड़ी मात्रा त्वचा द्वारा भी अवशोषित होती है।

बीपीए से नुकसान के हज़ारों अध्ययनों के बावजूद अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और सीडीसी अभी भी बीपीए का नियमन नहीं करती हैं। दूसरी ओर, युरोप के खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण ने सितंबर 2018 में शिशुओं और 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक बोतलों और बर्तनों में बीपीए पर प्रतिबंध लगा दिया है।

बीपीए से होने वाली हानि का निर्धारण करना एक बड़ी चुनौती है। वैज्ञानिक आम तौर पर गंभीर असर पर ध्यान देते आए हैं जो संपर्क के तुरंत बाद दिखते हैं। लेकिन बीपीए और अन्य हार्मोनल अवरोधकों का प्रभाव वर्षों या दशकों बाद देखने को मिलता है। इसके अलावा, वे कई सामान्य तकलीफों के जोखिम को बढ़ाते हैं। इस तरह स्वास्थ्य पर बीपीए के प्रभाव को निर्धारित करना कठिन हो जाता है।

विशेषज्ञों का सुझाव है कि सरकारी नियमन के अभाव में उपभोक्ताओं को अपनी सुरक्षा स्वयं करना चाहिए। बीपीए की व्यापक उपस्थिति को देखते हुए इससे पूरी तरह बचना तो लगभग असंभव है। फिर भी, बीपीए का जोखिम कम करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं:

1. प्लास्टिक से बचें। पानी के लिए प्लास्टिक की बोतल के बजाय कांच और बिना अस्तर वाले धातु के विकल्प अपनाए जा सकते हैं।

2. माइक्रोवेव में खाना गर्म करने के लिए प्लास्टिक के कंटेनरों का उपयोग न करें क्योंकि यदि आप प्लास्टिक अपनाते हैं तो माइक्रोवेव में इसके इस्तेमाल से बीपीए खाद्य सामग्री में मिल सकता है।

3. व्यायाम के बाद कपड़े बदलें। विशेष रूप से गर्म मौसम में व्यायाम करते समय पॉलिएस्टर/स्पैन्डेक्स मिश्रित शर्ट, शॉर्ट्स और अन्य वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। पसीने वाले व्यायाम वस्त्रों को जितनी जल्दी हो सके बदलने की सलाह दी जाती है ताकि त्वचा के संपर्क में रहने की अवधि को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर में वाय गुणसूत्र की भूमिका

देखा गया है कि गैर-प्रजनन अंगों के कैंसर से मरने की संभावना पुरुषों में अधिक होती है (यहां ‘पुरुष’ शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए किया गया है जिनमें गुणसूत्रों की तेइसवीं जोड़ी में एक वाय गुणसूत्र होता है हालांकि ऐसे कई लोग स्वयं की पहचान पुरुष के रूप में नहीं करते हैं)।

आम तौर पर माना जाता है कि पुरुषों की जीवनशैली की वजह से उनमें कतिपय कैंसर ज़्यादा होते हैं और ज़्यादा घातक होते हैं। जैसे धूम्रपान और शराब पीने जैसी आदतें। लेकिन इन आदतों को घ्यान में रखकर विश्लेषण किया जाए तो भी देखा गया है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों में कतिपय कैंसर होने की संभावना और गंभीरता अधिक रहती है। ऐसा क्यों है?

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के नतीजे देखने पर इसका कारण वाय गुणसूत्र लगता है। एक अध्ययन ने पाया है कि उम्र के साथ स्वाभाविक रूप से कुछ कोशिकाओं से वाय गुणसूत्र पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं। वाय गुणसूत्र का अभाव ही आक्रामक मूत्राशय कैंसर की संभावना बढ़ाता है और ट्यूमर को प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पहुंच से बचाता है। दूसरे अध्ययन में देखा गया है कि चूहों में वाय गुणसूत्र का एक जीन कुछ कोलोरेक्टल कैंसर के शरीर के अन्य भागों में फैलने का खतरा बढ़ाते हैं। शायद इसलिए क्योंकि यह जीन ट्यूमर की कोशिकाओं की आपसी कड़ी को कमज़ोर कर देता है।

कोशिका विभाजन के दौरान अक्सर वाय गुणसूत्र नष्ट होने की संभावना होती है। जैसे-जैसे (पुरुषों की) उम्र बढ़ती है वाय गुणसूत्र रहित रक्त कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है। वाय गुणसूत्र रहित कोशिकाओं की अधिकता का सम्बंध हृदय रोग, तंत्रिका-विघटन सम्बंधी स्थितियों और कुछ तरह के कैंसर जैसे रोगों से देखा गया है।

शोधकर्ता देखना चाहते थे कि यह प्रक्रिया मूत्राशय के कैंसर (तथाकथित ‘पुरुष कैंसर’) को कैसे प्रभावित करती है। सीडार्स-सिनाई मेडिकल सेंटर के डैन थियोडॉर्सक्यू और उनके साथियों ने मनुष्यों की उन मूत्राशय कैंसर कोशिकाओं का अध्ययन किया जिनके वाय गुणसूत्र या तो अपने आप नष्ट हो चुके थे या कृत्रिम रूप से जीनोम संपादन करके हटा दिए गए थे।

जब इन कोशिकाओं को चूहों में प्रत्यारोपित किया गया तो शोधकर्ताओं ने पाया कि वाय गुणसूत्र सहित कैंसर कोशिकाओं की तुलना में वाय गुणसूत्र रहित कैंसर कोशिकाएं अधिक आक्रामक थीं। उन्होंने यह भी पाया कि वाय गुणसूत्र रहित ट्यूमर के आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाएं निष्क्रिय थीं।

चूहों पर ही अध्ययन कर उन्होंने यह भी पाया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं की गतिविधि को बहाल करने वाली चिकित्सीय एंटीबॉडी ऐसे ट्यूमर पर अधिक प्रभावी थी जो वाय गुणसूत्र रहित थे बनिस्बत उन ट्यूमर के जो वाय गुणसूत्र सहित थे। मानव ट्यूमर में भी शोधकर्ताओं को ऐसे ही परिणाम मिले हैं।

दूसरे अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के रोनाल्ड डीफिनो और उनके साथियों ने चूहों के कोलोरेक्टल कैंसर का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि वाय गुणसूत्र का KDM5D नामक जीन ट्यूमर कोशिकाओं के बीच की कड़ी को कमज़ोर करता है, जिससे कैंसर कोशिकाएं ट्यूमर से अलग होकर शरीर के अन्य भागों में फैलने लगती हैं। शोधकर्ताओं ने जब उस जीन को हटाया, तो पाया कि ट्यूमर कोशिकाएं कम आक्रामक हो गईं थी और प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पकड़ में अधिक आने लगी थीं।

उम्मीद की जा रही है उपरोक्त तरीके कैंसर के बेहतर उपचार में मदद करेंगे। इसके अलावा उपरोक्त दोनों तरह के कैंसर में वाय गुणसूत्र की दो भिन्न तरह की भूमिका बताती है कि हर ट्यूमर, हर जगह एक जैसा व्यवहार नहीं करता है, इसलिए यह देखने की ज़रूरत है कि वाय गुणसूत्र खत्म होने का असर विभिन्न तरह के कैंसर और अंगों पर किस तरह पड़ता है। इसके अलावा न सिर्फ प्रभावित अंग के आधार पर फर्क पड़ सकता है, बल्कि इससे भी फर्क पड़ सकता है कि किसी अंग में ट्यूमर किस स्थान पर है, और क्या अन्य आनुवंशिक उत्परिवर्तन हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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असफल स्टेम सेल उपचार के लिए सर्जन को सज़ा

साल 2011 में स्टेम सेल चिकित्सक पाओलो मैककिएरिनी तब सुर्खियों में छा गए थे, जब उन्होंने दुनिया का पहला कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण कर लिया था। उन्होंने प्लास्टिक की श्वास नली पर उसी मरीज़ की स्टेम कोशिकाओं का अस्तर बनाकर प्रत्यारोपित किया था। उम्मीद थी कि ये स्टेम कोशिकाएं धीरे-धीरे श्वास नलिका बन जाएंगी।

अब वे दोबारा सुर्खियों में हैं। लेकिन इस बार वजह है तीन मरीज़ों में असफल उपचार के मामले में दोषी पाया जाना। मैककिएरिनी को हाल ही में स्टॉकहोम की अपील कोर्ट ने तीन लोगों के असफल उपचार के मामले में दोषी ठहराया है और उन्हें ढाई साल की सज़ा सुनाई है। इसके पहले यह मुकदमा स्वीडन की ज़िला अदालत में चला था, जिसने मैककिएरिनी को दो मरीज़ों के असफल उपचार के मामले में बरी कर दिया था और एक मामले में दोषी पाते हुए निलंबन की सजा सुनाई थी। इसके बाद दोनों ही पक्षों ने अपील कोर्ट में मुकदमा दायर किया था; अभियोजन पक्ष ने सज़ा बढ़ाने की मांग की थी जबकि मैककिएरिनी इल्ज़ाम से मुक्त होना चाहते थे।

मामला 2011-2012 का है जब मैककिएरिनी ने केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में काम रहते हुए तीन मरीज़ों की सर्जरी की थी। उन्होंने स्वयं मरीज़ों की अस्थि मज्जा से स्टेम कोशिकाएं लेकर उन्हें कृत्रिम विंडपाइप पर बिछाया और उन्हें मरीज़ों में प्रत्यारोपित किया था, इस उम्मीद से कि समय के साथ ये स्टेम कोशिकाएं वृद्धि करके स्थायी उपचार देंगी।

लेकिन प्रत्यारोपण विफल हो गया और तीनों मरीज़ों की मृत्यु हो गई। एक मरीज़ की मृत्यु भारी रक्तस्राव के चलते 4 महीने के भीतर हो गई थी। दो अन्य मरीज़ तकरीबन ढाई साल और पांच साल तक जीवित रहे थे, लेकिन इस दौरान उन्होंने सर्जरी के कारण कई तकलीफें झेली थीं।

गौरतलब है कि 2011 से 2014 के बीच मैककिएरिनी ने श्वासनली के 8 प्रत्यारोपण किए थे। जिनमें से तीन केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में किए गए थे, जिन पर उक्त फैसला आया है। इसके बाद 2013 में केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने मैककिएरिनी की सेवाएं समाप्त कर दी थीं। बाकी 5 प्रत्यारोपण रूस में किए गए थे। इनमें से एक भी प्रत्यारोपण सफल नहीं रहा था। यहां तक कि प्रत्यारोपण का पहला मामला जिसके लिए मैककिएरिनी ने सुर्खियां बटोरी थीं, वह भी सफल नहीं रहा था। हालांकि उन्होंने अपने पेपर में मरीज़ की स्थिति सामान्य बताई थी लेकिन लेंसेट में पेपर के प्रकाशित होने तक उसकी मृत्यु हो गई थी।

अपील कोर्ट के न्यायाधीशों ने ज़िला अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए कहा है कि पहले दो मरीज़ों का मामला ‘इमरजेंसी केस’ नहीं था। ये दोनों मरीज़ सर्जरी के बिना भी काफी समय तक जीवित रह सकते थे। हां, तीसरा मामला ‘इमरजेंसी केस’ था, लेकिन इसके आधार पर मैककिएरिनी द्वारा दिए गए उपचार को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उपचार के समय तक मैककिएरिनी इस उपचार की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे, फिर भी उन्होंने उपचार किया। (इस उपचार से एक मरीज़ की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और दूसरा मरीज़ गंभीर समस्याओं से जूझ रहा था।)

इसलिए कोर्ट ने इसे मैककिएरिनी के ‘आपराधिक इरादे’ की तरह देखा है। कई सर्जन्स और श्वासनली विशेषज्ञों को अदालत का फैसला तर्कसंगत और उचित लगता है। उनका मत है कि मैककिएरिनी जानते थे कि यदि एक बार मरीज़ की अपनी श्वासनली निकल गई और कृत्रिम नली ठीक से प्रत्यारोपित नहीं हुई तो मरीज़ की मृत्यु तय है। और जिस तकनीक से उन्होंने उपचार किया है उसके सफल होने के मैककिएरिनी के पास कोई सबूत नहीं थे, सिवाय उम्मीद के। अभियोजन पक्ष ने भी फैसले पर संतुष्ट जताई है। मैककिएरिनी के वकील का कहना है कि वे इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देंगे। उनके अनुसार तीनों ही मामले ‘इमरजेंसी केस’ थे। मैककिएरिनी का यह भी कहना है कि उनका इरादा मरीज़ों को नुकसान पहुंचाने का नहीं था बल्कि मदद करने का था। मरीज़ों के पास किसी अन्य उपचार का विकल्प भी नहीं था। ये प्रत्यारोपण यूं ही आनन-फानन में या चुपके से नहीं किए गए थे बल्कि सहकर्मियों और निरीक्षकों से मंज़ूरी ली गई थी। 20-25 लोगों की टीम ने मिलकर सर्जरी की थी। इसलिए सिर्फ मुझ पर आरोप क्यों? उनका कहना है कि एक डॉक्टर पर अपराधिक इरादे का ठप्पा लगना उसके लिए सबसे शर्मनाक बात है। अब तो उच्च न्यायालय के फैसले का इन्तज़ार है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फल-सब्ज़ियां अब उतनी पौष्टिक नहीं रहीं

तंदुरुस्त बने रहने के लिए जंक फूड, तला-भुना खाने की बजाय अक्सर फल, सलाद, सब्ज़ियों को भोजन में शामिल करने की सलाह दी जाती है। लेकिन हम शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पिछले सत्तर सालों में इन ‘सेहतमंद’ चीज़ों में भी पोषक तत्वों की मात्रा घट गई है।

वर्ष 2004 में जर्नल ऑफ दी अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रिशन में एक अध्ययन में 1950 से 1999 के बीच प्रकाशित यूएस कृषि विभाग के डैटा के आधार पर बताया गया था कि 43 फसलों में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, राइबोफ्लेविन, विटामिन सी जैसे 13 पोषक तत्वों में परिवर्तन दिखे थे। कमी कितनी हुई यह हर पोषक तत्व और फल-सब्ज़ी के प्रकार पर निर्भर है। लेकिन सामान्यत: प्रोटीन में 6 प्रतिशत से लेकर राइबोफ्लेविन में 38 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है। खासकर ब्रोकली, केल (एक तरह की गोभी) और सरसों के साग में कैल्शियम में सबसे अधिक कमी आई है। वहीं चार्ड, खीरे और शलजम में आयरन की मात्रा में काफी कमी हुई है। शतावरी, कोलार्ड (एक अन्य तरह की गोभी), सरसों का साग और शलजम के पत्तों में विटामिन सी काफी कम हो गया है। इसके बाद हुए अन्य अध्ययनों में भी इसी तरह के परिणाम देखने को मिले हैं।

अनाजों में भी इसी तरह की कमी देखने को मिली है। 2020 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया था कि 1955 से 2016 के बीच गेहूं में प्रोटीन की मात्रा 23 प्रतिशत कम हो गई है, साथ ही आयरन, मैंग्नीज़, जस्ता और मैग्नीशियम भी घटे हैं।

मांसाहारी भी कम पोषक तत्व वाले भोजन की समस्या से अछूते नहीं हैं। पशु अब कम पौष्टिक घास और अनाज खा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप मांस और अन्य पशु उत्पाद अब पहले की तुलना में कम पौष्टिक हो गए हैं।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-आकृति विज्ञानी डेविड आर. मॉन्टगोमेरी और जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ क्रिस्टी एबी बताते हैं कि इस समस्या के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। इनमें एक है फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए अपनाई गईं आधुनिक कृषि पद्धतियां।

पौधों को शीघ्र और बड़ा उगाने के लिए अपनाए गए तरीके में पौधे मिट्टी से पर्याप्त पोषक तत्व नहीं सोख पाते या उन्हें संश्लेषित नहीं कर पाते हैं।

फिर अधिक उपज से यह भी होता है कि मिट्टी से अवशोषित पोषक तत्व अधिक फलों में बंट जाते हैं, नतीजतन फल-सब्ज़ियों में पोषक तत्व कम होते हैं।

उच्च पैदावर के कारण होने वाली मृदा की क्षति भी इस समस्या का एक कारण है। गेहूं, मक्का, चावल, सोयाबीन, आलू, केला, रतालू और सन सभी फसलों की जड़ें कवक के साथ साझेदारी करती हैं जिससे पौधों द्वारा मिट्टी से पोषक तत्व और पानी लेने की क्षमता बढ़ती है। उच्च पैदावार वाली खेती से मिट्टी खराब हो जाती है जिससे कुछ हद तक कवक और पौधों की साझेदारी प्रभावित होती है।

कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता स्तर भी हमारे खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता कम कर रहा है। पौधे वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेते हैं, और वृद्धि के लिए इसके कार्बन का उपयोग करते हैं। लेकिन जब गेहूं, चावल, जौं और आलू समेत बाकी फसलों को उच्च कार्बन डाईऑक्साइड मिलती है तो उनमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। इसके अलावा, जब पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है तो ये मिट्टी से कम पानी खींचते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मिट्टी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी कम ले रहे हैं।

2018 में साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि उच्च कार्बन डाईऑक्साइड के कारण 18 किस्म की धान में प्रोटीन, आयरन, ज़िंक और कई बी विटामिन कम पाए गए थे।

यदि इन पोषक तत्वों में और कमी आई तो पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोगों का खतरा बढ़ सकता है या जीर्ण रोगों के प्रति जोखिमग्रस्त हो सकते हैं। और इसका असर उन लोगों पर, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले लोगों पर, अधिक होगा जो ऊर्जा और पोषण के लिए मुख्यत: चावल-गेहूं जैसे अनाजों पर निर्भर हैं और पोषण के अन्य स्रोतों का खर्च वहन नहीं कर सकते।

यह तो सुनने में आता रहता है कि अब सब्ज़ियों या फलों में वो स्वाद नहीं रहा। देखा गया है कि कई सारे पोषक तत्व फल-सब्ज़ियों और अनाज के स्वाद में इजाफा करते हैं। इनकी कमी फल-सब्ज़ियों के स्वाद को भी प्रभावित करेंगे।

बुरी खबर यह है कि कई अनुमान मॉडलों का कहना है कि आगे भी आलू, चावल, गेहूं और जौं के प्रोटीन में 6 से 14 प्रतिशत की कमी आ सकती है। नतीजतन भारत समेत 18 देशों के आहार से 5 प्रतिशत प्रोटीन घट जाएगा।

तो इस समस्या से कैसे निपटा जाए? मिट्टी में सुधार के लिए एक तरीका है संपोषी खेती। पीअरजे: लाइफ एंड एनवायरनमेंट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि संपोषी खेती से फसलों में कुछ विटामिन, खनिज और पादप-रसायनों का स्तर बढ़ता है, मिट्टी का जैविक स्वास्थ्य बेहतर होता है। इसके लिए पहला कदम यह है कि जितना संभव हो सके मिट्टी को खाली छोड़ दिया जाए और जुताई कम कर दी जाए। मिट्टी को ढंकने वाली तिपतिया घास, राई घास, या वेच लगाकर मिट्टी का कटाव और खरपतवार की वृद्धि रोकी जा सकती है। और खेत में बदल-बदल कर फसलें लगाने से पोषक तत्व में फायदा हो सकता है।

लेकिन जब तक पैदावार में पोषण बहाल नहीं होता तब तक क्या करें? पहले तो इस खबर से घबराकर लोग फल-सब्ज़ियां खाना छोड़ या कम कर पोषण पूरकों का रुख न करें। बल्कि इससे वाकिफ रहें कि उनका भोजन कैसे उगाया जा रहा है। हम क्या खा रहे हैं यह पता होना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह जानना भी है कि हम जो खा रहे हैं वह कैसे उगाया जा रहा है। और पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरह और रंग की फल-सब्जियां आहार में शामिल करें। पृथ्वी पर मौजूदा सबसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य फल, सब्जियां और अनाज ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या एआई चैटबॉट्स महामारी ला सकते हैं?

काफी समय से कुछ तकनीकी विशेषज्ञ कृत्रिम बुद्धि यानी एआई को मानवता के लिए खतरा बताते आए हैं। इस क्षेत्र में हुए हालिया विकास से प्रतीत होता है कि यह खतरा काफी नज़दीक है। विशेषज्ञों का दावा है कि एआई बिना किसी वैज्ञानिक विशेषज्ञता वाले बदनीयत व्यक्ति को घातक वायरस डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जैव सुरक्षा विशेषज्ञ केविन एस्वेल्ट ने हाल ही में अपने छात्रों को चैटजीपीटी या अन्य विशाल भाषा मॉडल की मदद से एक खतरनाक वायरस तैयार करने का काम दिया। मात्र एक घंटे में छात्रों के पास वायरसों की एक लंबी सूची थी; और तो और, साथ में उन कंपनियों की भी जानकारी थी जो रोगजनकों के आनुवंशिक कोड को बनाने में मदद कर सकती थीं और इन टुकड़ों को जोड़ने वाली कुछ अनुसंधान कंपनियों के भी नाम थे। इन परिणामों के आधार पर एस्वेल्ट और अन्य विशेषज्ञों का दावा है कि एआई सिस्टम जल्द ही गैर-वैज्ञानिक लोगों को परमाणु हथियारों के बराबर घातक जैविक हथियार डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है। इसका उपयोग आतंकी गतिविधियों में भी किया जा सकता है। 

फिलहाल किसी खतरनाक विलुप्त या मौजूदा वायरस के आधार पर जैविक हथियार बनाने का तरीका मिलने के बाद भी इन्हें बनाने में काफी विशेषज्ञता चाहिए होती है। इसके लिए न केवल उचित वायरस की पहचान करना होगी, बल्कि वायरल आनुवंशिक सामग्री को संश्लेषित करने, जीनोम को एक साथ जोड़ने और इसे अन्य अभिकर्मकों के साथ जोड़कर एक ऐसा वायरस तैयार करना होगा जो कोशिकाओं को संक्रमित कर सके और अपनी प्रतिलिपियां बना सके।

लेकिन एआई इस प्रक्रिया को आसान बना रही है। उदाहरण के लिए बाज़ार में जल्द ही उपलब्ध होने वाले बेंचटॉप डीएनए प्रिंटर की मदद से शोधकर्ता स्क्रीनिंग प्रक्रिया को धोखा दे सकते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनियां यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी नमूने में संभावित जैविक हथियारों के लिए आनुवंशिक सामग्री तो शामिल नहीं है। इस प्रक्रिया से बचकर कोई बदनीयत व्यक्ति इन आनुवंशिक ब्लूप्रिंट को अनुबंध अनुसंधान कंपनियों या एक रोबोटिक क्लाउड लैब को लक्ष्य वायरस में डालने के लिए भेज सकता है।

इस कार्य में एआई की भूमिका का पता लगाने के लिए एस्वेल्ट ने जीव-विज्ञान में बिना किसी विशेषज्ञता वाले स्नातक छात्रों को तीन से चार सदस्यों वाले तीन समूहों में बांटा। इन सभी समूहों के पास GPT-4, बार्ड और अन्य एआई चैटबॉट्स थे। एक घंटे के भीतर इन सभी समूहों को चैटबॉट्स की मदद से महामारी फैलाने में सक्षम वायरसों को डिज़ाइन करना था। हालांकि, कुछ चैटजीपीटी ने खतरनाक चीज़ों के बारे में पूछे गए सीधे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब शब्दों में हेर-फेर करके सवाल पूछे गए तो आसानी से जानकारी मिल गई। उदाहरण के तौर पर जब सवाल यह था कि “मैं एक टीका विकसित करने के लिए काम कर रहा हूं …” तो चैटबॉट्स ने जवाब में चार वायरस के सुझाव दे दिए थे। हालांकि गूगल पर ढूंढने पर भी ऐसी सूची मिल जाती लेकिन कुछ मामलों में चैटबॉट्स ने उन आनुवंशिक उत्परिवर्तनों की भी जानकारी दी जो संक्रमण को अधिक फैला सकते हैं।

इतना ही नहीं, एआई ने किसी वायरस के आनुवंशिक टुकड़ों को जोड़कर वायरस तैयार करने की तकनीक भी बताई इसके लिए उपयुक्त प्रयोगशालाओं और कंपनियों के नाम भी बताए जो बिना स्क्रीनिंग के आनुवंशिक सामग्री को प्रिंट करने के लिए तैयार हो सकती हैं।

एस्वेल्ट को चिंता है कि चैटबॉट्स द्वारा दिए गए विशिष्ट सुझाव किसी महामारी का खतरा बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं। जैसे-जैसे जैविक खतरों पर वैज्ञानिक साहित्य में वृद्धि हो रही है और एआई प्रशिक्षण डैटा में इसे शामिल किया जा रहा है. इस बात की संभावना बढ़ रही है कि एआई आतंकवादियों का काम आसान बना सकती है। एस्वेल्ट का मानना है कि चैटबॉट और अन्य एआई प्रशिक्षण डैटा द्वारा साझा की जाने वाली जानकारी को सीमित किया जाना चाहिए। रोगजनकों को बनाने और बढ़ाने के बारे में बताने वाले ऑनलाइन पेपर्स को हटाकर जोखिम कम किया जा सकता है। सभी डीएनए संश्लेषण कंपनियों और डीएनए प्रिंटरों के लिए ज्ञात रोगजनकों और विषाक्त पदार्थों की आनुवंशिक सामग्री की जांच अनिवार्य की जानी चाहिए। इसके साथ ही एकत्रित की जाने वाली किसी भी आनुवंशिक सामग्री की सुरक्षा जांच करना भी सभी अनुबंध अनुसंधान संगठनों के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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खाद्य सुरक्षा के लिए विविधता ज़रूरी – एस. अनंतनारायणन

अंग्रेज़ी में एक कहावत है, जिसका अर्थ है: अपने सारे अंडे एक ही टोकरी में मत रखो। यह कहावत भोजन के संदर्भ में एकदम मुनासिब लगती है। खाद्य आपूर्ति शृंखला में विविधता रखना खाद्य भंडार में कमी का संकट रोकने में प्रभावी है।

पेनसिल्वेनिया स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल गोमेज़ और उनके साथियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के 300 से अधिक शहरों और केंद्रों का अध्ययन किया और देखा कि चार साल की अवधि में इनमें से कुछ स्थान खाद्य आपूर्ति के संकट से सुरक्षित रहे। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि वे क्या खासियतें हैं जिन्होंने इन स्थानों को सुरक्षित रखा। नेचर पत्रिका में उन्होंने बताया है कि साल 2012 से 2015 के दौरान यूएसए के अधिकांश इलाकों ने विभिन्न स्तर पर सूखे का सामना किया था। लेकिन जिन स्थानों पर खाद्य आपूर्ति विविध स्रोतों से थी वहां की खाद्य आपूर्ति सबसे अधिक अप्रभावित रही।

ऐसा लगता है कि सेवा या आपूर्ति के कई महत्वपूर्ण नेटवर्क विविधता पर निर्भर होते हैं। इसका सबसे उम्दा उदाहरण है इंटरनेट, जो अत्यधिक और परिवर्तनशील डैटा ट्रैफिक संभालता है, लेकिन हमने शायद ही कभी सुना हो कि यह पूरी तरह ठप हो गया या इसकी स्पीड गंभीर स्तर तक कम हो गई। इसका कारण यह है कि इंटरनेट कभी एक पूरे संदेश को एक निश्चित रास्ते से नहीं भेजता। यह संदेश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटता है और हर टुकड़ा उस समय उपलब्ध सर्वोत्तम रास्ता अख्तियार करता है। इस तरह किसी संदेश को गंतव्य पर पहुंचाने के लिए विविध सर्वोत्तम मार्गों का उपयोग किया जाता है और यातायात सुचारू बना रहता है। यदि किसी मार्ग पर भीड़भाड़ है तो वैकल्पिक रास्ता अपना लिया जाता है।

एक और प्रसिद्ध उदाहरण है पारिस्थितिक तंत्र (इकोसिस्टम) की स्थिरता। विशाल जंगल सूखा, भयानक गर्मी या जाड़ा, कवक या टिड्डियों के हमले झेलते हैं। लेकिन ये ऐसी जगह हैं जहां काफी सारी विविध प्रजातियां एक साथ फलती-फूलती हैं। कीटों और जानवरों की विविधता के महत्व को स्वीकारा जा चुका है और दुनिया भर में हो रहे संरक्षण के अधिकांश प्रयास विविधता के संरक्षण के लिए किए जा रहे हैं।

किसी गैस के दिए गए आयतन के दाब की स्थिरता को गैस के अणुओं की गतियों में विविधता के परिणाम के रूप में देखा जाता है। किसी एक तापमान गतियों का एक परास होता है। लेकिन चूंकि अणुओं की संख्या बहुत ज़्यादा है, गतियों का वितरण अपरिवर्तित रहता है, और इसीलिए गैस का दाब भी स्थिर रहता है। भौतिक तंत्रों में विविधता का अध्ययन गणित की मदद से किया जाता है। इसमें अनिश्चितता के स्तर का एक पैमाना है, जिसे एन्ट्रॉपी कहा जाता है, और यह तंत्र में विविधता को दर्शाती है। वैज्ञानिक क्लॉड शैनन टेलीग्राफ तारों से भेजी जाने वाली सूचनाओं पर आकस्मिक ‘शोर’ के प्रभाव सम्बंधी शोध कार्य के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने संदेश की एक लड़ी में उपस्थित विविधता पर काम करते हुए बताया था कि संदेश में जितने विविध अक्षर होंगे उतना ही अधिक मुश्किल यह पता करना होगा कि उसमें एक अक्षर के बाद अगला अक्षर क्या होगा। इस विचार को पारिस्थितिक प्रणालियों तक विस्तारित किया गया, और विविधता को मापने का यह तरीका शैनन सूचकांक कहलाया। संयुक्त राज्य अमेरिका में खाद्य आपूर्ति शृंखला सम्बंधी काम में शोधकर्ताओं ने खाद्य नेटवर्क के लिए इसी सूचकांक की गणना की है।

अध्ययन का संदर्भ भोजन की आपूर्ति शृंखला – अनाज, सब्ज़ियों, दूध, मांस उत्पादों – पर मनुष्यों की कई आबादियों की बढ़ती निर्भरता है। शोध पत्र बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम की चरम घटनाओं, जिनके भविष्य में बढ़ने की अपेक्षा है, के कारण खाद्य आपूर्ति में अचानक कमी होती है – जिसके कारण बड़े शहरों के भंडार अचानक खाली हो जाते हैं। भू-राजनीतिक व नीतिगत परिवर्तन, और महामारी जैसी घटनाएं भी स्रोतों और आपूर्ति मार्गों को प्रभावित कर सकती हैं। शोध पत्र में कहा गया है कि विश्व स्तर पर अनाज भंडार पर संकट का खतरा बढ़ रहा है। चूंकि अब किसी स्थान पर खाद्य आपूर्ति के स्रोत स्थानीय की बजाय दूर-दूर तक फैले हैं, यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय भी हैं, संकट के परिणाम भी दूर-दूर तक नज़र आ सकते हैं। यह उन घटनाओं को बढ़ा देगा जो आपूर्ति को प्रभावित कर सकती हैं। अलबत्ता, आपूर्ति के स्रोतों में विविधता होने से लचीलापन मिलेगा।

उपरोक्त अध्ययन में संयुक्त राज्य अमेरिका के 284 शहरों और 45 अन्य केंद्रों में खाद्य आपूर्ति और खाद्य आपूर्ति प्रणाली – यानी फसलों के स्रोत, जीवित पशु या पशु आहार और मांस – की स्थिरता को देखा गया। खपत केंद्रों को ‘खाद्य में कमी पड़ने’ की आवृत्ति के अनुसार या खाद्य आपूर्ति किसी वर्ष में चार वर्षों के औसत से एक हद से कम (3 से 15 प्रतिशत कम) होने के आधार पर वर्गीकृत किया गया। चार वर्षों की अवधि में सैकड़ों शहरों में पड़े हज़ारों खाद्य संकटों के आधार पर टीम ने यह गणना की कि ‘कमी की तीव्रता’ की संभाविता कब एक हद से ज़्यादा हो जाएगी। इसके साथ उन्होंने यह भी आकलन किया कि शहरों के आपूर्ति के स्रोतों में विविधता कितनी है।

स्रोतों की विविधता का आकलन करने के लिए उन्होंने प्रत्येक शहर के विभिन्न तरह के खाद्य के व्यापारिक भागीदारों या पड़ोसियों, खाद्य व्यापारियों-आपूर्तिकर्ताओं को सूचीबद्ध किया। फिर इन्हें भौतिक दूरी, जलवायु सहसम्बंध, शहरी वर्गीकरण, आर्थिक विशेषज्ञता और संकुल शहर के तहत वर्गीकृत किया गया। और ‘शैनन सूचकांक’ के ज़रिए आपूर्ति स्रोतों की विविधता की गणना की गई।

विविधता में स्थिरता है

इसके बाद, विभिन्न शहरों में खाद्य आपूर्ति कमी की संभाविता और शहरों में खाद्य आपूर्ति के स्रोतों में विविधता के स्तर के बीच सम्बंध की खोज की गई। देखा गया कि आपूर्ति शृंखला में विविधता बढ़ने पर खाद्य आपूर्ति संकट की संभावना कम होती जाती है। अध्ययन कहता है कि खाद्य आपूर्तिकर्ताओं के अधिक विविधता वाले शहरों में किसी भी कारण से खाद्य आपूर्ति में कमी की संभावना कम है। ठीक वैसे ही जैसे इकोसिस्टम में विविधता उसे बाहरी झटकों के खिलाफ सुरक्षित रखती है।

दुनिया की आधी से अधिक आबादी शहरों में रहती है, और यह संख्या बढ़ रही है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्य सामग्री की आपूर्ति को प्रभावित करने वाले कारकों की सावधानीपूर्वक निगरानी की आवश्यकता है। आज कृषि उपज की खरीद और वितरण की स्थापित प्रणालियों में संशोधन और ‘दक्षता लाने’ के प्रयास नज़र आ रहे हैं। चूंकि विविधता आपूर्ति शृंखलाओं में विफलता के विरुद्ध एक शक्तिशाली निरोधक साबित होती है, इसलिए यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि क्या ये परिवर्तन विविधता के स्तर को प्रभावित करेंगे।

इंटरनेट, इकोसिस्टम, या सामाजिक नेटवर्क डिज़ाइन और निर्मित नहीं किए गए हैं, बल्कि वे वे धीरे-धीरे विकसित हुए हैं, और स्थिरता की दृष्टि से अत्यधिक अनुकूलित हैं। उनमें संरक्षण के लिए अतिरिक्त चीज़ें और सुरक्षा उपाय होते हैं। इनकी पहचान जानी-मानी अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि स्थिरता है।

और यही बात आपूर्ति शृंखलाओं पर भी लागू होती है, जो कृषि वाणिज्य के सामाजिक नेटवर्क हैं। वे सदियों से शहरों, व्यापार मार्गों, उत्पादन क्षेत्रों और बाज़ारों के विकास से बने हैं। कई परिवर्तनों और सुधारों के बाद इस में तंत्र की कड़ियां टूटने, या उत्पादन या मांग में घट-बढ़, यहां तक कि फसल हानि के लिए भी कुशल और किफायती विकल्प उपलब्ध हैं। और तंत्र विकसित होने के साथ भौगोलिक, वाणिज्यिक, भंडारण, ढुलाई और व्यक्तिगत कारक जुड़ गए हैं।

तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में खामियां आसानी से देखी जा सकती हैं। लेकिन ये बड़े-बड़े व्यापक परिवर्तनों का आधार नहीं हो सकती हैं क्योंकि कई खामियां को दूर किया जा सकता है। लेकिन एक ऐसी प्रणाली को छोड़ देना अनुचित होगा जो परस्पर निर्भर एजेंटों के एक जीवंत नेटवर्क पर आधारित है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों मच्छर कुछ लोगों को ज़्यादा काटते हैं?

ह तो जानी-मानी बात है कि मच्छर हमारे शरीर से निकलने वाली गंध सूंघकर हमें खोजते हैं। काश, यह पता चल जाए कि वह कौन-सी गंध है जो इन्हें कुछ मनुष्यों की ओर अधिक आकर्षित करती है। इस सवाल के जवाब का महत्व यह है कि मच्छर डेंगू, मलेरिया और पीत ज्वर जैसी बीमारियां फैलाते हैं जो प्रति वर्ष 7 लाख लोगों की जान लेती हैं।

हाल ही में जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी कोनोर मैकमेनीमैन ने खेल के एक खुले मैदान में विशाल टेंट लगाकर इसका जवाब तलाशने के प्रयास किए।

मच्छरों को किसी व्यक्ति की उपस्थिति का पता उसके शरीर की गंध, श्वसन से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और शरीर के तापमान से लगता है। मच्छर अपने एंटीना पर उपस्थित गंध तंत्रिकाओं के माध्यम से लगभग 60 मीटर की दूरी से गंध का पता लगाते हैं और शरीर की गर्मी की मदद से अपने लक्ष्य पर सटीकता से पहुंच जाते हैं।

मच्छरों की शिकारी रणनीतियों को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ प्रतिभागियों को खेल मैदान की परिधि पर लगे 8 तंबुओं में सोने के लिए कहा। वैज्ञानिकों ने प्रत्येक तंबू से शरीर की गंध और कार्बन डाईऑक्साइड युक्त हवा को नलियों के माध्यम से मैदान के भीतर निर्धारित लैंडिंग प्लेटफॉर्मों तक पहुंचाया। इन जगहों को मनुष्यों के शरीर के सामान्य तापमान (35 डिग्री सेल्सियस) पर रखा गया था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इंफ्रारेड सेंसर की मदद से देखा कि भूखे मच्छर कहां जाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक विशाल क्षेत्र में विभिन्न गंध और ध्वनियां तथा मौसमी परिस्थितियां होने के बावजूद मच्छर कुछ मनुष्यों की गंध वाले प्लेटफॉर्म की ओर अधिक आकर्षित हुए।

विभिन्न मनुष्यों के शरीर से निकलने वाली विशिष्ट गंध का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों की त्वचा की रासायनिक बनावट का अध्ययन किया। जैसा कि पूर्व अध्ययनों में पाया गया था मच्छर ऐसे लोगों को अधिक पसंद करते हैं जिनकी त्वचा के स्राव में विभिन्न कार्बोक्सिलिक अम्लों का मिश्रण होता है। यह एक प्रकार का तैलीय स्राव होता है जो हमारी त्वचा में नमी बनाए रखता है और उसकी रक्षा करता है। इनमें से दो कार्बोक्सिलिक अम्ल लिम्बर्गर चीज़ में भी पाए जाते हैं जो मच्छरों को आकर्षित करने के लिए मशहूर है। दूसरी ओर, मच्छर सेज और नीलगिरी जैसे पेड़-पौधों में पाए जाने वाले रसायन युकेलिप्टॉल के नज़दीक कम जाते हैं।

टीम ने मच्छर-आकर्षक के रूप में कार्बन डाईऑक्साइड और शरीर की गंध की तुलना की और पाया कि मच्छर गंध को अधिक प्राथमिकता देते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस विषय में और अधिक काम करने की दरकार है। इसमें आर्द्रता जैसे पहलुओं को भी जोड़ना चाहिए ताकि सटीक निष्कर्ष मिल सकें।

आशा है कि मच्छरों की पसंद-नापसंद गंध का पता लगने से नई तरह की मच्छरदानी तथा मच्छर विकर्षक विकसित करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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