भारत में कोविड-19 टीकाकरण: विज्ञान बनाम राजनीति – डॉ. अनंत फड़के

भारत में कोविड-19 टीके का इस्तेमाल एक अंतर्विरोध का शिकार रहा। एक ओर था कोविड-19 टीका शीघ्र उपलब्ध कराने वाले अद्भुत तकनीकी-वैज्ञानिक विकास तथा दूसरी ओर था सरकार का संकीर्ण, लोकलुभावन राजनीतिक हित जिसके चलते लोगों के बीच अपनी छवि को मसीहा के रूप में पेश करना था लेकिन साथ ही टीका निर्माताओं के हितों को भी साधना था।

गैरमुनाफा पहलों का स्वागत

आम तौर पर कोई भी नया टीका विकसित करने में 5 से 15 साल तक का समय लग जाता है, क्योंकि यह वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन, SARS-Cov-2 वायरस, दरअसल SARS-CoV-1 वायरस और MERS वायरस के जैसा था जिन पर पहले ही काफी काम किया जा चुका था।

इसके अलावा, WHO तथा कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की पहल के चलते वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बन पाई कि सामान्य क्रमिक परीक्षण की प्रक्रिया की बजाय चरण-1 व चरण-2 की प्रक्रिया को तेज़ी से सम्पन्न करने के लिए उन्हें साथ-साथ चलाया जाए और आंकड़ों की समीक्षा की जाए।

सरकारों द्वारा भारी निवेश और नवाचारी वित्तीय मॉडल्स ने दवा कंपनियों को मदद की कि वे पूरा का पूरा वित्तीय जोखिम झेले बिना टीका विकसित करने का काम कर सकें। ऐसी गैर-मुनाफा पहलों (निवेश) से टीका विकास में जुटी कंपनियां काफी लाभान्वित भी हुईं। उदाहरण के लिए, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोविशील्ड टीका बनाने वाली ब्रिटिश फार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका से कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया। अपने तईं एस्ट्राज़ेनेका ने भी सहमति जताई कि वह महामारी खत्म होने तक इस टीके पर कोई मुनाफा नहीं कमाएगी। लिहाज़ा, उसने सीरम इंस्टीट्यूट से इस टीके का उत्पादन करने के एवज में अत्यधिक शुल्क नहीं लिया।

अलबत्ता, दवा कंपनियों के मुनाफा हितों और विभिन्न दक्षिणपंथी सरकारों के राष्ट्रवादी दिखावे (अंधराष्ट्रवाद की हद तक) ने इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट में वैश्विक मानवतावादी प्रतिक्रिया को बहुत नुकसान पहुंचाया। यहां मैं सिर्फ भारत का उदाहरण लेकर यह दर्शाने की कोशिश करूंगा कि लोकलुभावन, राष्ट्रवादी दिखावे और मुनाफा-केंद्रित दवा कंपनियों की भूमिका कैसी रही।

टीके की भूमिका और राजनीति

वायरस संक्रमण वाली कोई भी महामारी असुरक्षित या कमज़ोर आबादी (अधिकांश मामलों में बच्चों) को अपना शिकार बनाती है और फिर ‘सामूहिक प्रतिरक्षा’ (हर्ड इम्युनिटी) विकसित होने के बाद खत्म हो जाती है।

टीके विकसित होने के पहले तक खसरा, गलसुआ जैसी महामारियां फैलती रहती थीं और लोगों के स्वास्थ्य को क्षीण कर देने के बाद बिना किसी टीकाकरण के ही खत्म भी हो जाती थीं। स्वाइन फ्लू महामारी भी बिना किसी टीके के खत्म हो गई थी। 1918 की कुख्यात फ्लू महामारी को छोड़ दें तो अन्य किसी भी वायरल महामारी की तुलना में कोविड-19 महामारी कहीं अधिक क्षतिकारक थी, और अन्य वायरल महामारियों की तुलना में सिर्फ एक वर्ष में कोविड-19 से कहीं अधिक लोगों की मौतें हुई।

अलबत्ता, शुक्र है चमत्कारी वैज्ञानिक-तकनीकी विकास का, जिसने मानव इतिहास में पहली बार हमें एक ऐसा टीका दिया जो किसी नई बीमारी की पहली महामारी में ही लोगों को उसके प्रकोप से बचा सके। अन्य सभी टीकों ने केवल महामारी की रोकथाम की है और कुछ ने असुरक्षित या कमज़ोर लोगों को संक्रमित होने से बचाया है। कोविड-19 टीका दुनिया का पहला ऐसा टीका था जिसने महामारी के दौरान ही लोगों के स्वास्थ्य को कुछ हद तक सुरक्षित रखने में मदद की।

हालांकि इस पर शंका है कि क्या कोविड-19 के टीके ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वायरस के प्रसार को कम करके महामारी को फैलने से रोका है। लेकिन कोविड-19 का टीका असुरक्षित या कमज़ोर लोगों, जैसे वृद्धजनों और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा एवं फेफड़ों के जीर्ण रोग वगैरह से पीड़ित लोगों, में बीमारी के बिगड़ने और इसके चलते उनकी मृत्यु की संभावना को कम करता है। (कोविड-19 का टीका बच्चों के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि सामान्यत: छोटे बच्चों में कोविड-19 विकसित नहीं होता है और वे कोविड-19 से नहीं मरते हैं। दूसरी ओर, अति बुज़ुर्ग लोगों में कोविड-19 की मृत्यु दर बहुत अधिक है)।

देखा जाए तो, भारत के संदर्भ में कोविड-19 टीके को रक्षक कहने की बात बकवास है। इस महामारी पर काबू पाने में इस टीके की भूमिका के बारे में भारत सरकार और उसके समर्थकों के दावे वास्तविक कम और प्रपोगंडा अधिक थे। सरकार ने तरह-तरह से यह दावा किया है कि भारत में कोविड-19 टीकाकरण से महामारी पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिली और लोगों को कोविड-19 के कारण होने वाली स्वास्थ्य-क्षति से काफी हद तक बचाया जा सका।

वैज्ञानिक साहित्य पहले दावे की पुष्टि नहीं करते हैं कि टीके ने SARS-Cov-2 के प्रसार को कम किया है, लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि समय पर टीकाकरण ने असुरक्षित आबादी में गंभीर संक्रमण पनपने को रोका है और मृत्यु दर को कम किया है। बहरहाल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत में कोविड-19 के नैसर्गिक तरह से फैलने की रफ्तार टीकाकरण की रफ्तार से कहीं अधिक थी क्योंकि टीकाकरण कार्यक्रम बहुत धीमी गति से चला था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में इस टीकाकरण ने कोविड-19 की गंभीरता और मृत्यु दर को कम करने में कोई खास भूमिका निभाई हो।

विपणन अनुमति पर सवाल

किसी भी नई औषधि या टीके के विपणन या प्रचार-प्रसार की अनुमति प्राप्त होने के लिए उसे पहले जंतु मॉडल परीक्षण से गुज़रना होता है, फिर मानव प्रतिभागियों पर तीन चरणों (चरण-I, II, III) के क्लीनिकल परीक्षणों से गुज़रना होता है। चरण-I व चरण-II के अध्ययन मुख्य रूप से औषधि या टीके की सुरक्षितता और प्रतिरक्षा उत्पन्न करने की क्षमता का आकलन करते हैं, और चरण-III में बड़े पैमाने पर क्लीनिकल परीक्षण किए जाते हैं जिसमें मुख्यत: प्लेसिबो से तुलना करते हुए टीके की प्रभाविता परखी जाती है।

भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ विनिर्माण समझौते की मदद से ‘कोविशील्ड’ टीके का उत्पादन किया। इस टीके के विकास में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका के टीके को इंग्लैंड और ब्राज़ील में तीसरे चरण के परीक्षण को पूरा करने के बाद यूके के नियामक प्राधिकरण से विपणन (या इस्तेमाल) की अनुमति मिल गई। भारत में यहां के ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के तहत,  किसी अन्य देश में अनुमति प्राप्त किसी भी औषधि या टीके को भारत में उपयोग से पहले एक सेतु परीक्षण (ब्रिज ट्रायल) से गुज़रना पड़ता है ताकि यह जाना जा सके कि क्या वह औषधि या टीका भारतीय आबादी पर प्रभावी है या नहीं। लेकिन, तीसरे चरण के परीक्षण का भारतीय डैटा न होने के बावजूद भी सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड की विपणन अनुमति के लिए भारत के औषधि नियंत्रक को आवेदन दे दिया था। ऐसा करने के लिए कोई भी विस्तृत एवं विश्वसनीय वैज्ञानिक तर्क नहीं दिया गया था। लेकिन 2 जनवरी 2021 को अनुमति मिल गई; वैज्ञानिक रूप से और ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के मद्देनज़र इसे उचित ठहराना मुश्किल है।

विषय विशेषज्ञ समिति, भारत के औषधि नियामक को भारत में किसी नए टीके या दवा अपनाने के बारे में सलाह देती है। 30 दिसंबर, 2020 को इस समिति ने मीटिंग के दौरान, सीरम इंस्टीट्यूट को ‘पर्याप्त डैटा’ प्रस्तुत करने को कहा था। 1 जनवरी, 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा इंग्लैंड और ब्राज़ील में किए गए परीक्षण के आंकड़े पेश किए थे, जिसके अनुसार कोविड-19 की गंभीर स्थिति न बनने देने और मृत्यु न होने देने में टीके की प्रभाविता औसतन 70 प्रतिशत है। इसे भारत के संदर्भ में चरण-I और चरण-II के परीक्षण का डैटा माना गया था। इसके आधार पर, 2 जनवरी 2021 को इस समिति ने चरण-III के भारतीय डैटा के बिना ही कोविशील्ड के उपयोग को हरी झंडी दिखा दी और चरण-III का डैटा न होने के पीछे कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया।

कोवैक्सीन के मामले में तो चरण-III डैटा के सर्वथा अभाव में अनुमति दी गई थी!! हालांकि, अनुमति में कहा गया था कि इंग्लैंड में उभरे नए उत्परिवर्ती संस्करण के मद्देनजर कोवैक्सीन का उपयोग ‘अत्यधिक ऐहतियात’ के साथ और ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ के तहत किया जाएगा। तकनीकी विवरण में गए बिना, यह कहा जाना चाहिए कि कोवैक्सीन की यह सशर्त अनुमति भी वैज्ञानिक मानदंडों और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक अधिनियम के प्रासंगिक नियमों के मद्देनज़र सवालों के घेरे में है। इसके अलावा ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ का पालन बमुश्किल ही किया गया और आगे चलकर तो इसे भुला ही दिया गया।

यह तो सही है कि टीकाकरण महामारी काफी फैल जाने से पहले करना ज़रूरी होता है; लेकिन तीसरे चरण के भारतीय परीक्षणों के डैटा के अभाव में अनुमति देने की जल्दबाज़ी के पीछे इस ज़रूरत के अलावा दो अन्य बातें भी थीं।

सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक ने अनुमति का आवेदन करने से पहले ही क्रमश: 5 करोड़ और 1 करोड़ टीके बना लिए थे। सीरम इंस्टीट्यूट को इस स्टॉक को प्राथमिकता के आधार पर भारत सरकार को 200 रुपए प्रति खुराक की विशेष रियायती दर पर बेचना था, जबकि सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक अदार पूनावाला ने कहा था कि वे कोविशील्ड की प्रति खुराक खुले बाज़ार में 1000 रुपए में बेचेंगे। यदि हम टीके की कीमत 200 रुपये प्रति खुराक भी मानें, तो यदि कोविशील्ड को अनुमति नहीं मिलती तो सीरम इंस्टीट्यूट 1000 करोड़ रुपए गंवाता और कोविशील्ड की 5 करोड़ खुराक बर्बाद हो जाती। लिहाज़ा, व्यवसाय के नज़रिए से सीरम इंस्टीट्यूट के लिए ज़रूरी था कि टीके को जल्द से जल्द अनुमति मिले। यही हाल भारत बायोटेक का भी था।

नियामक निर्णय-प्रक्रिया को व्यावसायिक मसलों से पूरी तरह अलग रखा जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने में पारदर्शिता सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस विषय विशेषज्ञ समिति के सदस्य कौन थे, क्या इन सदस्यों का सम्बंधित दवा कंपनियों के साथ कोई सम्बंध था, समिति द्वारा अनुमति देने के पक्ष में दिए गए विस्तृत वैज्ञानिक तर्क क्या थे? अमेरिका में इस तरह की विशेषज्ञ सलाहकार समिति की मीटिंग बाहरी लोगों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होती हैं। भारत में नए टीकों के बारे में सरकार को सलाह देने के लिए नेशनल टेक्निकल एडवायज़री ग्रुप ऑन इम्युनाइज़ेशन (NTAGI) है। अलबत्ता, इसकी वेबसाइट पर कोविड-19 के इन दो टीकों की अनुमति के बारे में कोई जानकारी नहीं है!

कुछ लोगों ने राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर कोवैक्सीन की अनुमति को इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की कि कोवैक्सीन को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने विकसित किया है। यकीनन यह बहुत ही संतोष और गर्व की बात है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने एक वर्ष के भीतर कोविड-19 के लिए एक नया टीका विकसित कर लिया। लेकिन यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि भारतीय लोगों में किसी टीके की प्रभाविता और सुरक्षितता के पर्याप्त सबूत के बिना ही उसके उपयोग की अनुमति दे दी जाए।

ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया था, और न ही एस्ट्राज़ेनेका ने सीरम इंस्टीट्यूट से कोई पेटेंट शुल्क लिया। चूंकि सीरम इंस्टीट्यूट एक भारतीय कंपनी है इसलिए इसे कोविशील्ड के विपणन की अनुमति आत्म-निर्भर भारत की नीति के पूरी तरह अनुकूल थी, और इसीलिए कोविशील्ड को ‘विदेशी’ टीका कहने और कोवैक्सीन को भारतीय स्वदेशी टीके की तरह पेश करने का कोई तुक नहीं था।

टीकों की धीमी खरीद

सरकार ने 12 जनवरी 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट को केवल 2.1 करोड़ खुराक और अप्रैल के अंत तक 13.1 करोड़ खुराक का ऑर्डर दिया था। यह तब था जब सीरम इंस्टीट्यूट ने पहले ही, दिसंबर 2020 तक, टीके की 5 करोड़ खुराकें बना ली थीं और उसके पास प्रति माह 5 करोड़ खुराक बनाने की क्षमता थी। एक बार जब कोविशील्ड को भारत में विपणन की अनुमति दे दी गई, तो सार्वजनिक क्षेत्र के टीका निर्माताओं को शामिल करने के अलावा भारत सरकार को कोविड-19 टीकों के लिए अग्रिम ऑर्डर देना चाहिए था और इसके लिए अग्रिम भुगतान करना चाहिए था, जैसा कि कई विकसित देशों ने किया था। ऐसा करने पर टीका उत्पादन क्षमता बहुत तेज़ी से बढ़ती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। 13.1 करोड़ खुराक के ऑर्डर पर करीब 200 करोड़ रुपए दिए गए थे जबकि वित्तमंत्री ने घोषणा की थी कि केंद्रीय बजट में कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं! भारत बायोटेक की प्रति माह लगभग 2 से 3 करोड़ खुराक उत्पादन करने क्षमता थी। और यदि अग्रिम ऑर्डर मिल जाते, तो सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक मिलकर लक्ष्य (31 दिसंबर 2021 तक 200 करोड़ खुराक) को हासिल करने के लिए आवश्यक खुराकों की आपूर्ति कर सकते थे। लेकिन ऐसी योजना के अभाव में अप्रैल 2021 के बाद टीकों की कमी पड़ गई।

दूसरी बात। 45 वर्ष से अधिक उम्र के (सभी) लोगों को टीका लगाने का अपना लक्ष्य पूरा करने के पहले ही सरकार ने 18 अप्रैल को घोषणा कर दी कि अब 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी वयस्कों को टीका लगाया जाएगा! टीकाकरण केंद्रों पर बहुत अधिक तादाद में वयस्क टीका लगवाने पहुंचने लगे, जिसके परिणामस्वरूप केंद्रों पर टीकों की भारी कमी पड़ गई।

उससे भी बदतर तो केंद्र सरकार की यह घोषणा थी कि वह केवल 50 प्रतिशत टीकों की आपूर्ति करेगी; 25 प्रतिशत टीके निजी क्षेत्रों द्वारा खरीदे जाएंगे और 25 प्रतिशत टीके राज्य सरकारें खरीदेंगी। हालांकि कुल टीकाकरण केंद्रों में से केवल 3 प्रतिशत ही निजी टीकाकरण केंद्र थे, लेकिन निजी क्षेत्र को 25 प्रतिशत टीके आवंटित किए गए थे! जाहिर तौर पर यह फैसला इन दोनों कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए था (जिसकी कीमत आम लोगों से वसूली जाती) क्योंकि खुले बाज़ार में इन दोनों टीकों की कीमत काफी अधिक तय की गई थी।

इसके चलते बड़ा विवाद और अराजकता पैदा हो गई क्योंकि विभिन्न राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए पर्याप्त निवेश करने में असमर्थता जताई। सबके लिए मुफ्त कोविड-19 टीकाकरण की नीति को लागू करने की बजाय निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करने के लिए कई विशेषज्ञों और जनप्रतिनिधियों ने सरकार की कड़ी आलोचना की। जबकि अन्य सभी देशों सरकारों द्वारा मुफ्त टीकाकरण किया जा रहा था। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया और केंद्र सरकार को यह याद दिलाया कि सबका निशुल्क टीकाकरण करना केंद्र सरकार की सामान्य ज़िम्मेदारी है और इसके लिए केंद्रीय बजट में आवंटित 35,000 करोड़ के फंड का उपयोग किया जाना चाहिए।

टीकाकरण की धीमी गति

महामारी विज्ञानियों का कहना था कि कोविड-19 बीमारी के खिलाफ सामूहिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) हासिल करने के लिए लगभग 70 प्रतिशत भारतीय (95 करोड़ लोग) टीकाकृत हो जाने चाहिए। इसका मतलब था कि 31 दिसंबर 2021 तक (यानी 351 दिनों में) करीब 180 करोड़ खुराकें दी जानी थीं, यानी औसतन प्रति दिन लगभग 51 लाख खुराकें। भारत सरकार द्वारा 16 जनवरी 2021 से शुरू किए गए टीकाकरण कार्यक्रम में सबसे पहले सभी स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को टीकाकृत करना था, जिनकी कुल संख्या लगभग 3 करोड़ थी। इसके बाद अप्रैल के अंत से चरणबद्ध तरीके से 50 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों (कुल संख्या 27 करोड़) को टीका लगाया जाना था। फिर 50 वर्ष से कम आयु के उन सभी लोगों को भी टीका लगाने की आवश्यकता थी जिन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, जीर्ण फेफड़ों सम्बंधी बीमारी, एचआईवी संक्रमण आदि जैसी बीमारियां थी। इस तरह कुल मिलाकर करीबन 40-50 करोड़ लोग ऐसे थे जिन्हें जल्द और पहले टीकाकृत किया जाना चाहिए था ताकि वायरस इन लोगों तक पहुंचने के पहले ये टीकाकृत हो चुके हों।

गौरतलब है कि भारत में सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता हर साल पांच साल से छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को लगभग 15 करोड़ विभिन्न टीके लगाते हैं। अब उसी तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह आने वाले तीन महीनों में अतिरिक्त 3 करोड़ कोविड-19 टीके लगाएगा, का मतलब था कि वे लगभग दुगनी गति से काम करें। कर्मचारियों की कमी और (1980 के दशक की निजीकरण की नीति की बदौलत) वित्त के अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पहले से ही थकी हुई थी क्योंकि उसे महामारी में जबरदस्त अतिरिक्त काम करना पड़ा था। सरकार द्वारा टीकाकरण की गति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती भी नहीं की गई थी। सरकार ने शुरुआत में केवल 3000 टीकाकरण केंद्र स्थापित किए थे जिनमें प्रति दिन 100-100 टीके लगाए गए, यानी प्रति दिन ज़रूरी 51 लाख की बजाय मात्र 3 लाख टीके लगाए गए। इस दर से तो 3 करोड़ लोगों को टीकाकृत करने में 100 दिन लगते, और प्राथमिकता वाले 30 करोड़ लोगों को कवर करने में 1000 दिन!

टीकाकरण को रफ्तार देने के लिए, अस्थायी रूप से ही सही, प्रशिक्षित लोगों को त्वरित और बड़े पैमाने पर भर्ती करने की ज़रूरत थी, और आवश्यकतानुसार निजी क्षेत्र के डॉक्टरों को भी शामिल करना लाज़मी था। ऐसे डॉक्टरों की संख्या दस लाख से अधिक है। लेकिन इन दोनों उपायों पर कोई बात तक नहीं हुई। बस, टीकाकरण अभियान के बारे में प्रचार-प्रसार खूब हुआ! ‘कोविड-19 के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान’ के बारे में झूठे, दम्भी दावे किए गए!

शुरुआती महीनों में टीकाकरण की इस बहुत धीमी गति के चलते 21 जुलाई 2021 तक केवल 23 प्रतिशत भारतीयों को टीके की एक खुराक मिली थी और केवल 6.2 प्रतिशत को दो खुराक मिली थी। अलबत्ता, ICMR द्वारा किए गए अखिल भारतीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ के चौथे दौर के सर्वेक्षण से पता चला था कि जुलाई 2021 के अंत तक 67 प्रतिशत वयस्कों में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो गई थी। (बच्चों को टीका नहीं लगाया गया था, लेकिन लगभग इसी अनुपात में बच्चों में भी कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडीज़ मिलीं!) इससे यह स्पष्ट है कि जितनी तेज़ी से कोविड-19 फैला उसकी तुलना में टीकाकरण बहुत धीमा था। इसलिए भारत में जिन लोगों ने कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी, उनमें से अधिकांश में यह नैसर्गिक संक्रमण के ज़रिए विकसित हुई थी। भारतीयों का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही टीकाकरण के कारण गंभीर कोविड-19 बीमारी और मृत्यु से सुरक्षित हो पाया था।

बहरहाल, उपरोक्त ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ ने बहुत तेज़ी से अपना काम करके लोगों के स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित किया, क्योंकि SARS-Cov-2 वायरस से संक्रमित हुए अधिकांश लोगों को कोविड-19 रुग्णता हुई; इनमें से काफी लोग मध्यम से लेकर गंभीर स्थिति तक पहुंच गए और लगभग 0.1 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई।

अर्थात कोविड-19 के खिलाफ यह ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ लोगों को बहुत महंगा पड़ा। इसलिए, कोविड-19 टीकों के बेतुके विरोध पर आधारित राजनीति से भी दूरी बनाने की आवश्यकता है। भारत में शुरुआती महीनों में बहुत धीमी खरीद और टीकाकरण प्रक्रिया के कारण गैर-टीकाकृत लाखों लोग कोविड-19 के संक्रमण की चपेट में आए, और सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम उन तक पहुंचने के पहले लाखों लोग मारे गए।

हैरतअंगेज़ बात है कि ICMR ने जुलाई 2021 के बाद राष्ट्रीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ करना बंद कर दिया था, और इस तथ्य के बारे में बहुत कम चर्चा हुई कि अधिकांश भारतीयों में टीकाकरण के पहले SARS-Cov-2 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी थी! बाद का टीकाकरण ‘घोड़े के भाग जाने के बाद अस्तबल का दरवाज़ा बंद करने’ जैसा था!

कोविशील्ड के कुप्रभाव

यह पहली बार व्यापक रूप से यूके और कुछ अन्य युरोपीय देशों में बताया गया था कि एस्ट्राज़ेनेका टीके की पहली खुराक देने के बाद पहले चार हफ्तों के भीतर टीके के कारण कुछ मुख्य शिराओं में रक्त का थक्का जमने (वैक्सीन इनड्यूस्ड थ्रम्बोसाइटोपेनिया और थ्रम्बोसिस, VITT) की स्थिति बन सकती है। इसलिए कुछ युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को अस्थायी तौर पर बंद भी कर दिया था। बाद में यह सामने आया कि यह स्थिति करीब 10 लाख लोगों में से महज 5 मामलों में उभरने संभावना है और इनमें मृत्यु की संभावना 25 प्रतिशत है। दूसरी ओर, स्वयं कोविड-19 के कारण इस तरह के रक्त के थक्के जमने की संभावना 8-10 गुना अधिक थी। इसलिए युरोपीय मेडिसिन एजेंसी ने यह सिफारिश की थी कि एस्ट्राज़ेनेका का टीका कोविड-19 के कारण अधिक गंभीर जोखिम से बचाव के लिए देना जारी रखा जाए। भारत में, कोविशील्ड पर सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी फैक्ट शीट में लिखा है कि लगभग एक लाख में से एक व्यक्ति में टीकाकरण की पहली खुराक के बाद रक्त का थक्का बनने की समस्या हो सकती है।

टीकाकरण उपरांत प्रतिकूल प्रभाव (AEFI) देखने के लिए भारत सरकार के निगरानी तंत्र द्वारा पहले 75 करोड़ टीकाकरणों में AEFI के केवल 27 मामले दर्ज हुए, यानी प्रति 15 लाख में 1 मामला! ऐसा इसलिए है कि 1988 में स्थापित इस तंत्र का काम संतोषप्रद नहीं रहा है। इसकी कार्यप्रणाली भी विवादास्पद है। चूंकि यह प्रणाली पारदर्शी नहीं है, इसलिए हो सकता है कि टीके से सम्बंधित किसी घटना या दुष्परिणाम को ‘टीके से सम्बंधित नहीं’ की श्रेणी में डाल दिया गया हो और इसलिए मुआवजे से कोई अनुचित इनकार नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारत में टीके से पहुंची क्षति के लिए पीड़ितों को ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’  (no fault compensation)देने की कोई व्यवस्था नहीं है, और इन 27 मामलों में से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया। भारत में ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’ व्यवस्था शुरू करने की सख्त ज़रूरत है। इससे सरकार पर राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत पर्याप्त जांच-परीक्षण और औचित्य के बिना नए टीके लाने पर भी लगाम लगेगी।

निजी निर्माताओं की मुनाफाखोरी

आपूर्ति की बाधा को दूर करने के लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों में इन टीकों के उत्पादन की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का प्रावधान लागू करना चाहिए था। ये इकाइयां आज़ादी के 40 वर्षों बाद तक राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बहुत कम कीमत पर उच्च गुणवत्ता वाले टीकों का मुख्य स्रोत रही हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विपरीत जाकर सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर कर देने के बाद स्थिति काफी बदल गई है। ICMR के वैज्ञानिक एक साल के भीतर कोविड-19 का एक अच्छा टीका विकसित करने में सक्षम हुए हैं, यह बड़े गर्व की बात है। सरकार के लिए यह काफी तर्कपूर्ण होता कि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को इस टीके का उत्पादन करने देती। लेकिन इस आपात स्थिति में भी, निजीकरण की नीति जारी रही और कोविड-19 टीके का निर्माण पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में ही रहा।

सरकार ने सम्बंधित निजी कंपनियों को कोविड-19 टीके पर अत्यधिक मुनाफा कमाने की अनुमति भी दी। उदाहरण के लिए, सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला ने एनडीटीवी को बताया कि जब वे केंद्र सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक की दर पर टीका बेच रहे थे तो उन्हें घाटा तो नहीं हुआ, लेकिन यह कीमत इतना लाभ कमाने के लिए पर्याप्त नहीं है जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु निवेश किया जा सके। मान लेते हैं कि कोविशील्ड की प्रति खुराक उत्पादन लागत लगभग 125 रुपए थी और इसलिए सरकार को इस टीके की (अधिकतम) कीमत 250 रुपए प्रति खुराक रखनी चाहिए थी। यह 1995-2013 तक सरकारी नीति के अनुसार होती, जिसमें कहा गया है कि मूल्य नियंत्रण के तहत आने वाली सभी ज़रूरी दवाइयों का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) उत्पादन लागत से दुगना तक हो सकता है (उससे अधिक नहीं)। इस तथ्य को देखते हुए कि कोविशील्ड न केवल एक आवश्यक टीका था बल्कि जीवनरक्षक भी था, अत: इसकी MRP 250 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने घोषणा की कि 7 जून 2021 से लोगों को कोविशील्ड 780 रुपए में उपलब्ध होगा (अस्पतालों के 150 रुपए सेवा शुल्क सहित)। इसका मतलब यह हुआ कि सीरम इंस्टीट्यूट को प्रति खुराक करीब 500 रुपए का मुनाफा होता। निजी अस्पतालों में कोवैक्सीन की कीमत 1410 रुपए प्रति खुराक घोषित की गई थी!!

निष्कर्ष में, यह कहा जा सकता है कि भारत में कोविड-19 टीकों के मामले में संकीर्ण कॉर्पोरेट हितों और लोकलुभावने, राष्ट्रवादी राजनीतिक हितों/रुखों ने इस महामारी के प्रति मानवतावादी, विज्ञान-आधारित प्रतिक्रिया को धूमिल कर दिया। सरकार के कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम का बड़े ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार का उद्देश्य यह धारणा बनाना था कि इस टीकाकरण ने लोगों को महामारी से बचाया है। लेकिन कटु सत्य यह है कि भारत सरकार की कोविड-19 टीकों की खरीद और उपयोग में ढिलाई के कारण टीकारण कार्यक्रम से इस महामारी से लोगों को गंभीर हालत में पहुंचने और मौत के घाट उतरने से बचाने में बहुत मदद नहीं मिली। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत के लिए ‘मौत का कुआं’

नुष्यों ने चंद्रमा की धरती पर आखिरी बार कदम सन 1972 में, अपोलो मिशन के तहत रखा था। तब से अब तक चंद्रमा पर कोई अंतरिक्ष यात्री नहीं उतरा है, हालांकि अपने विभिन्न अंतरिक्ष यानों और मिशनों के ज़रिए खगोलविद लगातार चंद्रमा की निगरानी करते आए हैं। लेकिन अब वे फिर से चंद्रमा पर उतरने की तैयारी में है; वर्ष 2026 में नासा अपने आर्टेमिस मिशन के तहत चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारने वाला है।

चंद्रमा तक पहुंचने और उतरने की कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इनमें से एक चुनौती है चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में अंतरिक्ष यात्रियों को कमज़ोर और दुर्बल होने से बचाना।

वास्तव में, अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर रहना उतना आसान और सहज नहीं है, जितना कि पृथ्वी पर। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा का न तो वातावरण पृथ्वी जैसा है और न ही गुरुत्वाकर्षण – चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का करीब 1/6 है। मिशन के दौरान यह सुनिश्चित करना होता है कि वहां अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पर्याप्त हवा, भोजन और पानी हो, और वे विकिरण से सुरक्षित रहें। साथ ही, उन्हें बदली परिस्थितियों में शारीरिक तकलीफ न हो; सामान्य से कम गुरुत्वाकर्षण पर काम करने से अंतरिक्ष यात्रियों की हड्डियां भुरभुराने लगती हैं, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, चलने-फिरने या ताल-मेल वाले अन्य किसी काम को करने के लिए ज़रूरी तंत्रिका तंत्र का आवश्यक नियंत्रण नहीं रहता है और ह्रदय और श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है।

इससे निपटने के लिए ‘डीकंडीशनिंग’ उपाय यानी कि व्यायाम वगैरह करना पड़ता है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। लेकिन मसला यह है कि प्रत्येक संभावित स्वास्थ्य समस्या के लिए अलग-अलग तरह के व्यायाम करने पड़ते हैं। जैसे तेज़ दौड़ना, कूदना, उछलना, जॉगिंग जैसे उपाय दिल और फेफड़ों को तो ठीक-ठाक बनाए रखते हैं लेकिन मांसपेशियों और हड्डियों को उतना दुरूस्त नहीं रख पाते।

रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी चुनौती से निपटने का तरीका सुझाया है। उनका सुझाव है कि अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर यदि सर्कस वाले ‘मौत का कुआं’ में दौड़ लगाएं तो इन सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

दरअसल, मिलान युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिस्ट अल्बर्टो मिनेट्टी और उनके सहयोगियों ने अपनी गणना में पाया था कि भले ही मनुष्य धरती पर ‘मौत के कुएं’ के चारों ओर चल या दौड़ न पाएं लेकिन चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में वे यह करतब बहुत आसानी से कर पाएंगे; उन्हें 12 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना पर्याप्त होगा।

उन्होंने अपने इस विचार को जांचा। इसके लिए उन्होंने अपने दो शोधकर्ताओं को 36 मीटर ऊंची क्रेन और नायलोन की इलास्टिक रस्सी की मदद से मौत के कुएं में लटकाया। इस सेट-अप ने उनके शरीर के वज़न को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर महसूस होने वाले वज़न जितना कर दिया, यानी परिस्थिति चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण जैसी बन गई। इस सेटअप के साथ शोधकर्ताओं को दौड़ाया। उन्होंने पाया कि प्रत्येक दिन की शुरुआत और अंत में कुछ मिनट इस तरह दौड़ने से हड्डियों, मांसपेशियों, हृदय और तंत्रिका तंत्र सम्बंधी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

नतीजे तो उनको बढ़िया मिले हैं लेकिन सवाल उठता है कि जहां अंतरिक्ष में थोड़ा भी अतिरिक्त वज़न भेजना बहुत खर्चीला होता है वहां इतना बड़ा ‘मौत का कुआं’ भेजना कितना व्यावहारिक होगा? इस पर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वास्तव में चंद्रमा पर ‘मौत का कुआं’ ले जाने की बजाय अंतरिक्ष यात्रियों के रहने वाले कक्ष ही गोलाकार बनाए जा सकते हैं ताकि वे उसकी दीवार के चारों ओर दौड़ सकें।

सवाल वही आ जाता है कि क्या चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने लिए बनाए जाने वाले कक्ष ऐसा ट्रैक बनाने के लिए पर्याप्त बड़े होंगे। बहरहाल, अन्य दल भी इस पर काम कर रहे हैं। जैसे, एक दल अंगों को सिकोड़ने और रक्त प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए इनफ्लेटैबल कफ पर काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

इस प्रयोग को निम्नलिखित साइट्स पर विडियो रूप में देखा जा सकता है

https://www.youtube.com/watch?v=xU3wkAExTgc https://www.theguardian.com/science/2024/may/01/astronauts-could-run-round-wall-of-death-to-keep-fit-on-moon-say-scientists

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2024/04/30140714/SEI_202022472.jpg?width=1200

महामारी समझौता: कोविड-19 से सबक – सोमेश केलकर, ऋचा पांडे

कोविड-19 महामारी पूरी दुनिया के लिए अप्रत्याशित त्रासदी थी। तालाबंदी के दौरान दुनिया भर के लोगों को पैसे, भोजन, नौकरी, यातायात आदि चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। सरकारों को एक अलग किस्म की चुनौती का सामना करना पड़ा था; अपने आलीशान दफ्तरों में बैठकर उन्हें विपक्ष, पत्रकारों और जनता के सवालों का सामना करना पड़ा था। ऐसे सवाल, जिनका उनके पास कोई जवाब नहीं था: वे अपने नागरिकों का इलाज कैसे करेंगे, महामारी के प्रसार पर अंकुश कैसे लगाएंगे, महामारी के दौरान नागरिकों के लिए आवश्यक सेवाओं का इंतज़ाम कैसे करेंगे?

ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कोई पूर्व दिशानिर्देश नहीं थे; न तो स्वास्थ्य कर्मियों के लिए और न ही अधिकतर सरकारों के लिए। परिणामस्वरूप, तालाबंदी और अन्य ऐहतियाती उपाय लागू किए गए जो अलग-अलग स्तर पर सफल भी रहे। जल्द ही टीकों पर काम और टीकाकरण कार्यक्रम भी शुरू हो गया। यहीं से बात बिगड़ने लगीं। कुछ देश खुद अपने यहां टीके बनाने में सक्षम थे, कुछ को टीके आयात करना पड़े। टीकों की मांग भारी थी और आपूर्ति कम। राष्ट्रों द्वारा टीके हासिल करने की होड़ ने समस्या को और गहरा दिया था।

कुछ देशों के पास तो इतने टीके थे कि वे अपनी पूरी आबादी का कई बार टीकाकरण कर सकते थे, जबकि कुछ अन्य देशों के पास अपने सभी फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के टीकाकरण के लिए भी पर्याप्त टीके नहीं थे। दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में, हमें दिखा कि विकसित देश विकासशील देशों को हाशिए पर धकेल रहे हैं। यदि टीके की जगह कोई अन्य वस्तु होती तो कह सकते थे कि पूरा मामला बाज़ार से संचालित हो रहा है, लेकिन टीके तो सीधे तौर पर जीवन बचाते हैं। ऐसे समय में, कुछ देशों द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा टीके खरीदना क्या सिर्फ इसलिए जायज़ ठहराया जा सकता था कि उनके पास अधिक क्रय शक्ति थी? विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की महामारी संधि का उद्देश्य इसी तरह की समस्या से निपटना है। उम्मीद है, भविष्य में यह संधि महामारियों को बेहतर संभालने में मदद करेगी।

महामारी संधि क्या है?

WHO में इस पर वार्ता जारी है कि भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महामारियों से निपटने के तरीके क्या हों। इन्हें मई 2024 तक अंतिम रूप देने का लक्ष्य है। इस नई संधि को संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी के 194 सदस्य देशों द्वारा अपनाया जाएगा।

वैसे तो इस संदर्भ में WHO के अनिवार्य (या बाध्यकारी) नियम पहले से ही मौजूद हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन (IHR) कहा जाता है। लेकिन महामारी रोकथाम, तैयारी और प्रतिक्रिया समझौते (Pandemic Prevention, Preparedness and Response, PPR समझौते) का उद्देश्य पहले से मौजूद नियमों में इज़ाफा करना है ताकि भविष्य की महामारियों से बेहतर तरीके से निपटा जा सके।

कोविड महामारी ने स्पष्ट कर दिया है कि हर राष्ट्र के समस्याओं से अकेले निपटने के दिन लद गए हैं। ͏इस संधि में मज़बूत वैश्विक सहयोग स्थापित करने का प्रयास है। संधि जानकारियां साझा करने के महत्व पर ज़ोर देती है। रोगाणु किसी सरहद को नहीं मानते, और यही बात उनके बारे में हमारे ज्ञान पर भी लागू होना चाहिए। यह समझौता सदस्य राष्ट्रों के बीच डैटा और नमूनों के त्वरित और पारदर्शी आदान-प्रदान करने की बात कहता है। किसी भी नवीन वायरस को जल्दी ताड़ना और पहचानना उससे निपटने की दृष्टि से अहम है। 

PPR समझौते का एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु है संसाधनों तक समान पहुंच। महामारियों के परिणाम राष्ट्रों की समृद्धि-संपदा में भेदभाव नहीं करते, लेकिन अफसोस कि कोविड-19 के मामले में ऐसा हुआ। समझौते का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी देशों की, उनकी आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना, महामारी से निपटने के लिए आवश्यक साधन/उपकरणों तक पहुंच हो। इसमें टीके, नैदानिक जांच, उपचार और निजी सुरक्षा साधन (पीपीई किट) शामिल हैं। आदर्श रूप से, यह समझौता इन महत्वपूर्ण संसाधनों के वैश्विक भंडार का आधार तैयार करेगा, जिसे संकट के समय तुरंत इस्तेमाल किया जा सकेगा।

इसका एक अन्य प्रमुख हिस्सा है राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को मज़बूत करना। महामारी ने पूरी दुनिया की स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की कमज़ोरियां उजागर कर दी हैं। PPR समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को रख पाने क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशालाओं के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है। राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र का मज़बूत आधार समन्वित वैश्विक प्रतिक्रिया में निर्णायक होगा।

कहते हैं, इलाज से बेहतर रोकथाम होती है। यह समझौता महामारी सम्बंधी तैयारियों के लिए रणनीतियों की रूपरेखा तैयार करने पर काम कर रहा है। इसके तहत संभावित महामारी के खिलाफ टीकों और उपचार पर अनुसंधान व विकास पर निवेश शामिल है। इसके अतिरिक्त, संधि वैश्विक महामारी प्रतिक्रिया योजना विकसित करने को बढ़ावा देती है जो संचार, समन्वय प्रोटोकॉल और संसाधन आवंटन तंत्र को स्पष्टता से परिभाषित करे। नियमित पूर्वाभ्यास और सिमुलेशन से इन योजनाओं को परखने में मदद मिलेगी और वास्तविक महामारी उभरने पर बेहतर कदम उठाए जा सकेंगे।

संधि की राह में रोड़े

PPR समझौते पर वार्ता जारी है। यदि सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो भविष्य की महामारियों से लड़ने की हमारी राह उतनी कठिन नहीं होगी जितनी अतीत में रही है। चूंकि सभी देश संधि के सभी हिस्सों पर सहमत नहीं हैं; अंतिम और प्रभावी समझौते का मार्ग चुनौतियों से भरा है।

1. संतुलन: संप्रभुता बनाम सहयोग

संधि की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है राष्ट्रीय संप्रभुता और वैश्विक सहयोग के बीच संतुलन बनाना। अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों और निर्णय-प्रक्रियाओं पर से नियंत्रण छोड़ने में राष्ट्रों की हिचक स्वाभाविक है। उन्हें WHO या सार्वजनिक स्वास्थ्य के संचालक अन्य राष्ट्रपारी निकायों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी उपायों में दखलअंदाज़ी का डर है जो उनकी अर्थव्यवस्था या सामाजिक ताने-बाने को अस्त-व्यस्त कर सकती है।

अलबत्ता, संधि की प्रभाविता के लिए एक स्तर का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ज़रूरी है। जल्दी नियंत्रण के लिए महामारी के बारे में शीघ्रातिशीघ्र और पारदर्शिता से जानकारी साझा करना अहम है। इसके लिए परस्पर विश्वास और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को तात्कालिक राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखने की इच्छाशक्ति ज़रूरी है।

संभावित समाधान

  • R͏ समझौता निर्णय लेने की एक स्तरबद्ध प्रणाली स्थापित कर सकता है, जिसमें समन्वित प्रतिक्रिया की ज़रूरत वाली आपातकालीन स्थितियों के सम्बंध में स्पष्ट दिशानिर्देश हों। वहीं, गैर-आपातकालीन स्थितियों में राष्ट्रीय स्वायत्तता का सम्मान किया जाए।
  • WHO को सशक्त किया जा सकता है, और साथ ही सदस्य राष्ट्रों का अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्रवाइयों के निर्णय का अंतिम अधिकार होना चाहिए।

2. समता बनाम लाभ: संसाधन द्वंद्व

एक और बड़ी चुनौती है महामारी के दौरान संसाधनों तक समतामूलक पहुंच सुनिश्चित करना। पिछली महामारी में विकसित और विकासशील देशों के बीच संसाधनों तक पहुंच में भारी असमानता देखी गई थी जिसके चलते गरीब देश जूझते रहे। PPR͏ समझौते का लक्ष्य सुरक्षित टीकों, उपचारों और नैदानिक सुविधाओं जैसे ज़रूरी साधनों तक सभी की उचित और किफायती पहुंच सुलभ करने वाला तंत्र स्थापित करना है।

गौरतलब है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में दवा कंपनियों का मुनाफा कमाने का उद्देश्य आड़े आएगा। ये कंपनियां अनुसंधान और विकास पर भारी धन निवेश करती हैं। ज़ाहिर है वे अपने निवेश पर मुनाफा भी चाहेंगी। इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा का अधिकार एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने आता है।

संभावित समाधान

  • समझौता अनिवार्य लाइसेंसिंग जैसे तरीके आज़मा सकता है, जिसके तहत देशों को महामारी के दौरान पेटेंट दवाओं के जेनेरिक संस्करण उत्पादन की अनुमति मिल जाए। नवाचार और बौद्धिक संपदा पर अधिकार सम्बंधी चिंताओं को दूर करने के लिए समझदारी से बातचीत करने की आवश्यकता है।
  • , निदान और उपचार का एक वैश्विक भंडार बनाया जा सकता है, जो अमीर देशों द्वारा वित्त पोषित हो और महामारी के दौरान सभी देशों के लिए सुलभ हो।

3. लचीलेपन के बिल्डिंग ब्लॉक: स्वास्थ्य तंत्र का सशक्तिकरण

महामारी ने दुनिया भर की स्वास्थ्य प्रणालियों की कमज़ोरियों को उजागर किया है। PPR͏ समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को संभालने की क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशाला के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है।

हालांकि यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि सीमित वित्तीय संसाधनों से जूझ रहे विकासशील देशों के लिए इतना बड़ा निवेश करना मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों के सुदृढ़ीकरण में समय लगता है, और अक्सर महामारी इसका इंतज़ार नहीं करती।

संभावित समाधान

  • , विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने के लिए एक समर्पित वित्तपोषण तंत्र स्थापित किया जा सकता है। जिसमें समृद्ध राष्ट्र तयशुदा मानदंडों के आधार पर योगदान दें।
  • , प्रयोगशाला नेटवर्क स्थापित करना और रोगों पर नज़र रखने के सर्वोत्तम तरीके साझा करना शामिल हो सकता है।
  • , जो पहले से ही जारी किए जा सकते हैं ताकि आवश्यक तैयारियों के लिए धन जुटाया जा सके।

4. विज्ञान बनाम राजनीति: साक्ष्य-आधारित निर्णयों की चुनौती

महामारी के प्रति प्रभावी कार्रवाई पुख्ता वैज्ञानिक साक्ष्यों पर निर्भर करती है। लेकिन, राजनीति अक्सर इस पर पानी फेर देती है। डिजिटल युग में अफवाहें और गलत-जानकारियां आसानी और तेज़ी से फैलती हैं, और कभी-कभी राजनीतिक एजेंडे देश के रोग नियंत्रण के तरीकों को प्रभावित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, राजनेता आर्थिक उथल-पुथल की समस्या से बचने के लिए प्रकोप की गंभीरता को कम बता सकते हैं या वे साक्ष्य-आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों की बजाय अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं पर रोक लगाने को प्राथमिकता दे सकते हैं। PPR͏ समझौते के तहत साक्ष्य-आधारित निर्णय प्रक्रिया के लिए ऐसा स्पष्ट तंत्र बनाने की आवश्यकता है।

संभावित समाधान

  • ͏ समझौते के तहत, प्रकोप के दौरान सदस्य राष्ट्रों को निष्पक्ष मार्गदर्शन देने के लिए एक स्वतंत्र वैज्ञानिक सलाहकार निकाय बनाया जा सकता है।
  • , और वैज्ञानिक निष्कर्षों को सभी के साथ साझा करना महत्वपूर्ण होगा।

5. अज्ञात की बातचीत: लचीलेपन की चुनौती

महामारियों की प्रकृति है कि वे अक्सर अनुमानों से परे होती हैं। नए वायरस में ऐसी विशेषताएं हो सकती है जो पहले कभी किसी में न रही हों, जिससे विभिन्न नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता बदल सकती है। इसलिए संधि में कुछ हद तक लचीलापन आवश्यक है।

लेकिन जैसा कि हम भली-भांति जानते हैं, जटिल बारीकियों वाले दस्तावेज़ पर चर्चा कर हल निकालना एक धीमी और बोझिल प्रक्रिया हो सकती है। लचीलेपन पर संतुलन बनाना और कार्रवाई के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा बनाना महत्वपूर्ण साबित होगा।

संभावित समाधान

  • ͏ समझौता महामारी के दौरान शीघ्र निर्णय लेने के लिए एक रूपरेखा दे सकता है, ताकि प्रत्येक प्रकोप की विशेषताओं के आधार पर अनुकूलन की गुंजाइश रहे। इसके अंतर्गत एक केंद्रीय समन्वय निकाय को अस्थायी सिफारिशें जारी करने के लिए समर्थ बनाना शामिल हो सकता है।
  • , संभवत: हर पांच साल में, नए वैज्ञानिक ज्ञान और पिछले प्रकोपों से सीखे गए सबक के आधार पर अपडेट करने में मदद करेगी। इससे उभरते खतरों के लिए संधि प्रासंगिक और प्रभावी बनी रहेगी।
  • , प्रकोप का सिमुलेशन और कार्रवाई योजनाओं का परीक्षण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। इन प्रयासों से कमज़ोरियां और सुधार के बिंदु पहचानने में मदद मिलेगी।

निष्कर्ष

कोविड-19 महामारी ने हमारी कमज़ोरियों को उजागर किया, और सरहदों के बंधनों से स्वतंत्र वायरस का विनाशकारी रूप दिखाया है। इसके मद्देनजर, प्रस्तावित PPR͏ समझौता आशा की किरण जगाता है। हालांकि संधि को अंतिम स्वरूप में आने के लिए कई चुनौतियों से निपटना है। उपरोक्त चिंताओं और चुनौतियों को संबोधित करती वार्ता संधि को एक वैश्विक सुरक्षा कवच का रूप दे सकती है, ताकि महामारी आने पर कोई भी देश पीछे न छूटे, वंचित न रहे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नारियल के फायदे अनेक – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

र्ष 2014 में उमा आहूजा और उनके साथियों ने एशियन एग्री-हिस्ट्री पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया था कि नारियल के पेड़ों को मलेशिया (Malesia) जैव-भौगोलिक क्षेत्र मूल का माना जाता है। जैव-भौगोलिक क्षेत्र यानी वह क्षेत्र जिसमें वितरित जंतुओं और पादपों के गुणों में समानता होती है। मलेशिया जैव-भौगोलिक क्षेत्र में दक्षिण पूर्व एशिया (विशेष रूप से भारत), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित कई द्वीप समूह आते हैं। इस पेपर में पुरातात्विक साक्ष्यों, पुरालेखों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों, और इसके उपयोग एवं इससे जुड़ी लोककथाओं के माध्यम से नारियल के इतिहास पर बात की गई है।

पुरातात्विक खुदाई के अलावा भारत में नारियल का उल्लेख शिलालेखों तथा धार्मिक, कृषि और आयुर्वेदिक महत्व के ग्रंथों में मिला है। इसके उपयोगों की बहुलता ने इसे जीवन-वृक्ष, समृद्धि-वृक्ष और कल्पवृक्ष (एक वृक्ष जो जीवन की सभी ज़रूरतें पूरी करता है) जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। लेखक बताते हैं कि इसके खाद्य महत्व के अलावा इसके स्वास्थ्य, औषधीय और सौंदर्य लाभ भी हैं।

भारत में, नारियल मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों – केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। 90% से अधिक नारियल का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन पेड़ों को गर्म और रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है – ऐसी मिट्टी जिसमें जल निकासी बढ़िया हो और पोषक तत्व भरपूर हों। साथ ही, इन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु, और प्रचुर वर्षा की भी ज़रूरत होती है।

उत्तर भारत की जलवायु मुख्यत: समशीतोष्ण है, जिसमें – जाड़े में अच्छी ठंड और गर्मियों में भीषण गर्म पड़ती है। इस क्षेत्र में अलग-अलग मौसम होते हैं और वर्षा भी असमान होती है, जो नारियल के पेड़ों की वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी उपयुक्त तापमान और वर्षा के चलते नारियल उगाते हैं, लेकिन वहां की मिट्टी चिकनी है जो नारियल के पेड़ों के उगने के लिए आदर्श नहीं है।

नारियल की भूमिका

भगवान को प्रसाद में चढ़ाई जाने वाली कई वस्तुओं में नारियल का एक विशेष और उच्च स्थान है। इसका उपयोग धार्मिक और सामाजिक समारोहों में किया जाता है, वहां भी जहां इसकी खेती नहीं होती। नारियल के पेड़ का रत्ती भर हिस्सा भी बेकार नहीं जाता, सभी हिस्सों को किसी न किसी उपयोग में लिया जाता है। अपनी अनगिनत उपयोगिताओं और खाद्य, चारा एवं पेय के रूप में प्रत्यक्ष उपयोग के ज़रिए नारियल ने विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई तौर पर जगह बना ली है।

दक्षिण भारत में नारियल दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक मंदिर को नारियल के पेड़ों से सजाया जाता है, इसके (श्री)फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा सा खोपरा और नारियल पानी दिया जाता है।

तरावट और स्वास्थ्य के मामले में नारियल पानी का कोई सानी नहीं है; यह तो अमृत ही है! और, मिठाई ‘कोलिक्कतई’ (या ‘मोदक’) का भी कोई सानी नहीं है, जो नारियल की ‘गरी’ से बनाई जाती है! (यह भगवान गणेश की पसंदीदा मिठाई है)। इसके अलावा, तमिलनाडु में पले-बढ़े होने के कारण मुझे (मेरी इच्छा के विपरीत) मेरी दादी हर महीने अरंडी के तेल या नारियल के तेल से स्नान करने के लिए मजबूर किया करती थीं!

स्वास्थ्य लाभ

नारियल के कई फायदे हैं। वेबसाइट Healthline.com इसकी ‘गरी’ में पाए जाने वाले कई पोषक तत्वों को सूचीबद्ध करती है: भरपूर वसा, भरपूर फाइबर, और विटामिन ए, डी, ई और के, जो अधिक खाने को नियंत्रित करते हैं और पेट को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं।

इसके तेल की बात करें तो कुछ समूहों का सुझाव है कि नारियल का तेल शरीर की धमनियों और नसों में रक्त प्रवाह को लाभ पहुंचाता है, इस प्रकार यह हमारे हृदय की सेहत के लिए फायदेमंद होता है। कुछ समूह यह भी सुझाव देते हैं कि इससे अल्ज़ाइमर रोग थोड़ा टल सकता है, हालांकि इस सम्बंध में अधिक प्रमाण की आवश्यकता है।

एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं नारियल तेल का उपयोग करता हूं, इस उम्मीद में कि यह मुझे ऐसी स्थितियों से बचाएगा। मैं अक्सर अपने सुबह के नाश्ते में टोस्ट पर मक्खन की जगह नारियल का तेल ही लगाता हूं। मेरी दादी देखतीं, तो प्रसन्न होतीं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या अश्वगंधा सुरक्षित है?

न दिनों वैद्य और सेलिब्रिटीज़ अश्वगंधा का काफी गुणगान कर रहे हैं। यह औषधीय पौधा हज़ारों वर्षों से पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में उपयोग किया जाता रहा है। और कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों ने भी दर्शाया है कि तनाव, चिंता, अनिद्रा तथा समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन में अश्वगंधा उपयोगी है। इन सबके चलते अश्वगंधा में जिज्ञासा स्वाभाविक है।

कहना न होगा कि अश्वगंधा सभी समस्याओं का कोई रामबाण इलाज नहीं है। इस बारे में न्यूयॉर्क स्थित प्रेस्बिटेरियन हॉस्पिटल की विशेषज्ञ चिति पारिख के अनुसार इसकी प्रभाविता व्यक्ति के लक्षण, शरीर की संरचना और चिकित्सा इतिहास के आधार पर अलग-अलग हो सकती है। इसके अलावा इसके गलत उपयोग से प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकते हैं।

अश्वगंधा (Withania somnifera) जिसे इंडियन जिनसेंग या इंडियन विंटर चेरी के रूप में भी जाना जाता है, एक सदाबहार झाड़ी है जिसका उपयोग सदियों से विभिन्न स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं के लिए किया जाता रहा है। पारिख इसे एक संतुलनकारी बताती हैं। संतुलनकारी या एडाप्टोजेन ऐसे पदार्थ होते हैं जो शरीर को तनाव के अनुकूल होने और संतुलन बहाल करने में मदद करते हैं, और साथ ही सूजन (शोथ) को कम करने, ऊर्जा बढ़ाने, चिंता को कम करने और नींद में सुधार करने में उपयोगी होते हैं।

ऐसा माना जाता है कि यह पौधा अपने सक्रिय घटकों (जैसे एल्केलॉइड, लैक्टोन और स्टेरॉइडल यौगिकों) के माध्यम से शरीर में तनाव प्रतिक्रिया को नियमित करने और शोथ को कम करने का काम करता है। नैसर्गिक रूप से पाए जाने वाले स्टेरॉइड यौगिक विदानोलाइड्स को एंटीऑक्सीडेंट और शोथ-रोधी प्रभावों का धनी माना जाता है। कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि विदानोलाइड्स के सांद्र अर्क सबसे प्रभावी होते हैं।

नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के ओशर सेंटर फॉर इंटीग्रेटिव हेल्थ की मेलिंडा रिंग के अनुसार ये जैव-सक्रिय घटक कोशिका क्रियाओं को निर्देशित करने वाले संकेतक मार्गों को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन इनकी सटीक क्रियाविधि को समझने के लिए अभी भी शोध चल रहे हैं।

कई छोटे पैमाने के शोध अश्वगंधा के लाभों का समर्थन करते हैं। भारत में 2021 के दौरान 491 वयस्कों पर किए गए सात अध्ययनों की समीक्षा में पाया गया कि जिन प्रतिभागियों ने अश्वगंधा का सेवन किया उनमें प्लेसिबो (औषधि जैसे दिखने वाले गैर-औषधि पदार्थ) लेने वालों की तुलना में तनाव और चिंता का स्तर काफी कम रहा। भारत में ही 372 वयस्कों पर किए गए पांच अध्ययनों की समीक्षा में नींद की अवधि और गुणवत्ता में मामूली लेकिन उल्लेखनीय सुधार देखा गया। यह खासकर अनिद्रा से पीड़ित लोगों के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुआ।

इसके अलावा अश्वगंधा की पत्तियों में पाया जाने वाला ट्रायएथिलीन ग्लायकॉल संभावित रूप से GABA रिसेप्टर्स को प्रभावित कर नींद को बढ़ावा देता है, जो तनाव या भय से जुड़ी तंत्रिका कोशिका गतिविधि को अवरुद्ध करके मस्तिष्क में एक शांत प्रभाव पैदा करता है। रिंग यह भी बताती हैं कि अश्वगंधा अर्क नींद से जागने पर बिना किसी गंभीर दुष्प्रभाव के मानसिक सतर्कता में सुधार करता है। कुछ अध्ययन गठिया, यौन स्वास्थ्य, पुरुषों में बांझपन, मधुमेह और एकाग्रता अवधि और स्मृति सुधार में अश्वगंधा को प्रभावी बताते हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश मामलों में और अधिक डैटा की आवश्यकता है।

सुरक्षितता के मामले में यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की विशेषज्ञ बारबरा सी. सॉर्किन का सुझाव है कि अधिकांश लोगों के लिए लगभग तीन महीने तक अश्वगंधा का सेवन सुरक्षित है। लेकिन गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं, प्रोस्टेट कैंसर पीड़ितों और थायराइड हारमोन की दवाओं का सेवन करने वालों को सावधानी बरतनी चाहिए। अश्वगंधा संभवत: यकृत की समस्याएं पैदा कर सकता है, थायरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित कर सकता है तथा थायरॉइड औषधियों व अन्य दवाओं के साथ अंतर्क्रिया भी कर सकता है। यकृत स्वास्थ्य और हारमोन के स्तर पर इसके प्रभाव को देखते हुए डेनमार्क में तो अश्वगंधा पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है। लेकिन भारत में इसका काफी अधिक उपयोग किया जा रहा है।

चूंकि यू.एस. में अश्वगंधा जैसे आहार अनुपूरक का नियमन दवाओं की तरह नहीं किया जाता है, इसलिए अनुपूरकों के वास्तविक घटक और गुणवत्ता पता करना मुश्किल होता है। लेकिन कंज़्यूमरलैब जैसी स्वतंत्र प्रयोगशाला संस्थाएं उपभोक्ताओं को गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने वाले ब्रांड पहचानने में मदद कर सकती हैं।

बहरहाल, विशेषज्ञ अश्वगंधा के सेवन से पहले डॉक्टर से परामर्श लेने की सलाह देते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह आपकी स्वास्थ्य स्थितियों और दवाओं के साथ उपयुक्त है या नहीं। साथ ही इस बात का ख्याल रखें कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मितली होने पर भूख क्यों मर जाती है

भूख कई वजह से मर जाती है। पेट भरा हो या हमारा जी मिचलाए या उल्टी का जी हो तो खाने की इच्छा मर जाती है। क्या हर मामले में क्रियाविधि एक ही होती है या हर बार तंत्रिका तंत्र में कुछ अलग ही खिचड़ी पक रही होती है? सेल रिपोर्ट्स में प्रकाशित ताज़ा शोध में शोधकर्ताओं ने इसी सवाल का जवाब खोजा है। इसके लिए उन्होंने मॉडल के तौर पर चूहों को लिया और उनके मस्तिष्क में झांक कर देखा कि हर स्थिति में खाने के प्रति यह अनिच्छा ठीक कहां जागती है।

दरअसल पूर्व में हुए अध्ययन में बताया गया था कि पेट भर जाने और मितली होने, दोनों मामलों में खाने के प्रति अनिच्छा मस्तिष्क में एक ही जगह से नियंत्रित होती है – सेंट्रल एमिगडेला (CeA) के एक ही न्यूरॉन्स समूह (Pkco) से।

लेकिन मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकल इंटेलिजेंस के वेन्यू डिंग को इस बात पर संदेह था। इस संदेह को दूर करने के लिए उन्होंने ऑप्टोजेनेटिक्स नामक प्रकाशीय तकनीक से लंबे समय से भूखे कुछ चूहों में इन न्यूरॉन्स को सक्रिय किया; ऐसा करने पर चूहों ने कुछ नहीं खाया जबकि वे एकदम भूखे थे। जब इन न्यूरॉन्स को ‘शांत’ कर दिया गया तो चूहे खाने लगे। और तो और, भोजन के दौरान ही इन न्यूरॉन्स को सक्रिय करने पर चूहों ने फिर खाना छोड़ दिया।

इससे शोधकर्ताओं को लगा कि यही न्यूरॉन्स मितली या जी मिचलाने जैसी अनुभूतियों में शामिल होंगे। इसलिए उन्होंने चूहों को मितली पैदा करने वाले रसायनों का इंजेक्शन लगाया और फिर उनके मस्तिष्क का स्कैन किया। पाया गया कि जब चूहों को मितली महसूस होती है तो CeA के मध्य भाग (CeM) के DLK1 न्यूरॉन्स सक्रिय होते हैं। लेकिन ये न्यूरॉन्स तब सक्रिय नहीं हुए थे जब चूहों का पेट सामान्य रूप से भर गया था या उन्हें सामान्य रूप से तृप्ति का एहसास हुआ था। अर्थात मस्तिष्क में तृप्ति और मितली के कारण खाने की अनिच्छा दो अलग जगह से नियंत्रित होती है।

फिर शोधकर्ताओं ने मितली से परेशान और भूखे चूहों में इन न्यूरॉन्स की गतिविधि को अवरुद्ध करके देखा। पाया कि मितली की समस्या होने के बावजूद चूहों ने खाना खा लिया।

मस्तिष्क में मितली या तृप्ति को नियंत्रित करने वाले स्थान के बारे में समझना अनियमित खानपान, जैसा मोटापे या क्षुधानाश (एनोरेक्सिया) में होता है, जैसी समस्या को समझने में महत्वपूर्ण हो सकता है। यह इन समस्याओं को थामने के लिए ऐसे उपचार तैयार करने में मददगार हो सकता है जो भूख को दबाकर तृप्ति का एहसास दें लेकिन मितली का अहसास न जगाएं। दूसरी ओर, मितली के अहसास को दबाकर खाने की इच्छा जगाई जा सकती है। मितली कई तरह के कैंसर उपचारों का एक आम साइड-इफेक्ट है जिसके कारण खाने के प्रति अरुचि पीड़ित को पर्याप्त पोषण नहीं लेने देती, जिसके चलते शरीर और कमज़ोर होता जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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निजी स्वास्थ्य सेवा में सुधार की तत्काल आवश्यकता – डॉ. अभय शुक्ला

कोविड-19 महामारी के दौरान इलाज के लिए भटकते लाखों भारतीयों को दर्दनाक अनुभवों का सामना करना पड़ा था। इसने हमारे स्वास्थ्य सेवा तंत्र में दो परस्पर सम्बंधित परिवर्तनों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है। एक तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करना और दूसरा निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का नियमन। चूंकि भारत में स्वास्थ्य सेवा का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र के नियंत्रण में है, इसलिए स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की कोई भी पहल निजी स्वास्थ्य सेवा को शामिल किए बिना पूरी नहीं हो सकती।

गौरतलब है कि फोर्ब्स द्वारा 2024 में जारी अरबपतियों की सूची में 200 भारतीय शामिल हैं। विनिर्माण (मैन्यूफेक्चरिंग) के बाद, भारत में अरबपतियों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या (36) स्वास्थ्य सेवा (फार्मास्यूटिकल्स सहित) उद्योग से है। और यह संख्या हर साल बढ़ रही है, खासकर कोविड-19 महामारी के दौरान और उसके बाद। भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा उद्योग भरपूर मुनाफा कमाता है क्योंकि इसका समुचित नियमन नहीं होता है, और अक्सर मरीज़ों से अनाप-शनाप शुल्क वसूला जाता है।

यह परिदृश्य हाल ही में जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा प्रकाशित 18 सूत्री जन स्वास्थ्य घोषणापत्र में शामिल नीतिगत सिफारिशों की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, निजी स्वास्थ्य सेवा, औषधि नीति और सबके लिए स्वास्थ्य सेवा के अधिकार सहित विविध विषयों को शामिल किया गया है और परस्पर-सम्बंधित नीतिगत सिफारिशें प्रस्तुत की गई हैं। इस लेख में भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा से सम्बंधित कुछ प्रमुख उपायों की संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है।

पारदर्शिता और सेवा दरों का मानकीकरण

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता सभी व्यावसायिक सेवाओं में सबसे अनोखे हैं। अनोखापन यह है कि इनकी दरें आम तौर पर सार्वजनिक डोमेन में पारदर्शी रूप से उपलब्ध नहीं होती हैं। ये दरें एक ही प्रक्रिया या उपचार के लिए बहुत अलग-अलग होती हैं – न केवल एक ही क्षेत्र के विभिन्न अस्पतालों में बल्कि एक ही अस्पताल के अंदर विभिन्न रोगियों के लिए भी अलग-अलग हो सकती हैं। चिकित्सा प्रतिष्ठान (केंद्र सरकार) नियम, 2012 के अनुसार सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को अपनी दरें प्रदर्शित करना अनिवार्य है और समय-समय पर सरकार द्वारा निर्धारित मानक दरों पर शुल्क लेना भी अनिवार्य है। लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन कानूनी प्रावधानों के अधिनियमित होने के 12 साल बाद भी इन्हें अभी तक लागू नहीं किया गया है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से स्वास्थ्य सेवा दरों को कानून के अनुसार मानकीकृत करने का आदेश दिया है। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवा दरों में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए और दरों के मानकीकरण को उचित तरीके से लागू किया जाए। यह तकनीकी रूप से संभव भी है। चूंकि हज़ारों निजी अस्पताल केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना जैसे बड़े सरकारी कार्यक्रमों के तहत सभी सामान्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए मानक दरों पर भुगतान स्वीकार करते हैं, इसलिए इन उपायों को कानूनी रूप से लागू करना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम या राज्य सरकारों द्वारा अपनाए जाने वाले अधिक बेहतर अधिनियमों को लागू करते हुए सुनिश्चित किया जा सकता है।

बेतुके स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को रोकने के लिए भी मानक प्रोटोकॉल लागू करना अनिवार्य है। वर्तमान में व्यापारिक उद्देश्यों से ऐसे बेतुके हस्तक्षेपों को व्यापक पैमाने पर प्रचारित किया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में सिज़ेरियन डिलीवरी का अनुपात निजी अस्पतालों (48%) में सरकारी अस्पतालों (14%) की तुलना में तीन गुना अधिक है। चिकित्सकीय रूप से सीज़ेरियन प्रक्रिया की दर कुल प्रसवों का 10-15% अनुशंसित है जबकि निजी अस्पतालों में ये कहीं अधिक होते हैं। उपचार पद्धतियों को तर्कसंगत बनाने और ज़रूरत से ज़्यादा चिकित्सीय प्रक्रियाओं पर अंकुश लगाने से न केवल निजी अस्पतालों द्वारा वसूले जाने वाले भारी-भरकम बिलों में कमी आएगी, बल्कि रोगियों के लिए स्वास्थ्य सेवा परिणामों में भी महत्वपूर्ण सुधार होगा।

रोगियों के अधिकार

रोगियों और अस्पतालों के बीच जानकारी और शक्ति की भारी असमानता होती है। इसे देखते हुए रोगियों की सुरक्षा के लिए कुछ अधिकारों को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया है। इनमें शामिल हैं: प्रत्येक रोगी को अपने स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार की बुनियादी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार; चिकित्सा की अपेक्षित लागत तथा उसका मदवार बिल प्राप्त करने का अधिकार; दूसरी राय लेने का अधिकार; पूरी जानकारी के आधार पर सहमति देने का अधिकार; गोपनीयता और औषधियां व नैदानिक परीक्षण के लिए प्रदाता चुनने का अधिकार; और यह सुनिश्चित करना कि कोई भी अस्पताल किसी भी बहाने से रोगी के शव को रोके न रखे।

भारतीय संदर्भ में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2018 में रोगियों के अधिकारों और ज़िम्मेदारियों की एक सूची तैयार की थी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2019 में इस चार्टर का संक्षिप्त रूप और फिर 2021 में एक समग्र चार्टर सभी राज्य सरकारों को भेजा था जिसमें रोगियों के 20 अधिकारों को शामिल किया गया था। अलबत्ता, अब तक इन अधिकारों पर आधिकारिक स्तर पर कम ही ध्यान दिया गया है। संपूर्ण रोगी अधिकार चार्टर (कुछ अस्पतालों में अपनाया गया कमज़ोर संस्करण नहीं) को देश की सभी स्वास्थ्य संस्थाओं में प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। इससे रोगियों और उनकी देखभाल करने वालों को अनुकूल वातावरण में स्वास्थ्य सेवा का लाभ मिल सकेगा। ऐसा सुरक्षित माहौल बनाने से रोगियों और प्रदाताओं के बीच आवश्यक विश्वास को फिर से स्थापित करने में मदद मिलेगी।

इसके अलावा, रोगियों की निजी अस्पतालों से सम्बंधित गंभीर शिकायतों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में मेडिकल काउंसिल जैसे मौजूदा तंत्र की विफलता को देखते हुए ज़रूरी है कि जिला स्तरीय उपयोगकर्ता-अनुकूल शिकायत निवारण प्रणाली शुरू हो, जिसकी निगरानी विविध हितधारकों द्वारा हो।

कॉलेजों का व्यावसायीकरण

जन स्वास्थ्य अभियान के घोषणापत्र में निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं पर लगाम कसने के साथ-साथ चिकित्सा शिक्षा से सम्बंधित कुछ उपायों का भी उल्लेख किया गया है। इसमें विशेष रूप से व्यावसायिक निजी मेडिकल कॉलेजों को नियंत्रित करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी फीस सरकारी मेडिकल कॉलेजों से अधिक न हो। इसके अलावा, चिकित्सा शिक्षा का विस्तार व्यावसायिक निजी संस्थानों की बजाय सरकारी कॉलेजों पर आधारित होना चाहिए। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को स्वतंत्र, बहु-हितधारक समीक्षा और सुधार की आवश्यकता है। इस निकाय की आलोचना होती रही है कि इसमें विविध हितधारकों के प्रतिनिधित्व का अभाव है, निर्णय प्रक्रिया अत्यधिक केंद्रीकृत है और चिकित्सा शिक्षा को अधिक व्यावसायिक बनाने का रुझान है।

इसके अलावा, राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) के पुनर्गठन की भी आवश्यकता है। वर्तमान स्वरूप में यह परीक्षा कमज़ोर वर्ग के उम्मीदवारों के लिए घाटे का सौदा प्रतीत हो रही है और राज्यों से स्वयं की मेडिकल प्रवेश प्रक्रियाओं को निर्धारित करने की स्वायत्तता छीन रही है।

जनहित में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के इन उपायों को एक लोक-केंद्रित सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा विकसित करने के व्यापक प्रयास के हिस्से के रूप में देखना चाहिए जो सार्वजनिक सेवाओं के सुदृढ़ीकरण और विस्तार पर आधारित हो और ज़रूरत पड़ने पर विनियमित निजी प्रदाताओं को भी शामिल किया जा सकता है। थाईलैंड के स्वास्थ्य सेवा तंत्र जैसे सफल मॉडलों का उदाहरण लेते हुए, भारत में भी मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक अधिकार-आधारित पहुंच प्रदान की जानी चाहिए।

आज, सभी राजनीतिक दलों को इन परिवर्तनों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, जबकि एक नागरिक होने की हैसियत से हमें दृढ़तापूर्वक इनकी मांग करनी चाहिए। भारत में 2024 का विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने का यही सबसे उपयुक्त तरीका होगा। (स्रोत फीचर्स)

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डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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जेरोसाइंस: बढ़ती उम्र से सम्बंधित विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय (जहां से मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की) के महामारी विज्ञानी डॉ. डेनियल बेल्स्की ने एक नया शब्द गढ़ा है ‘जेरोसाइंस’, जिसका अर्थ है बुढ़ापा या बढ़ती उम्र सम्बंधी विज्ञान। इसके तहत, उन्होंने एक अनोखा रक्त परीक्षण तैयार किया है जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति किस रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है।
उनके दल ने एक विधि विकसित की है जिसमें वरिष्ठजनों के डीएनए में एक एंज़ाइम के ज़रिए मिथाइल समूहों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने पाया है कि डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना (मिथाइलेशन) उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील है। इस एंज़ाइम को अक्सर ‘जेरोज़ाइम’ कहा जाता है। (मिथाइलेशन डीएनए और अन्य अणुओं का रासायनिक संशोधन है जो तब होता है जब कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिका बनाती हैं।)
जेरोज़ाइम को नियंत्रित करने के लिए कई शोध समूह औषधियों और अन्य तरीकों पर काम कर रहे हैं। ये प्रयास किसी भी व्यक्ति की बढ़ती उम्र को कैसे प्रभावित करते हैं? एक शोध समूह ने बताया है कि मेटफॉर्मिन नामक औषधि बढ़ती उम्र को लक्षित करने का एक साधन है (सेल मेटाबॉलिज़्म, जून 2016)। एक अन्य समूह ने पाया है कि यदि हम TORC1 एंजाइम को बाधित कर देते हैं, तो यह बुज़ुर्गों में प्रतिरक्षा को बढ़ा सकता है और संक्रमणों को कम कर सकता। हाल ही में, जोन बी. मेनिक और उनके दल ने नेचर एजिंग पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में मानव रोगों के पशु मॉडल्स की उम्र व जीवित रहने पर रैपामाइसिन औषधि के प्रभावों की समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि कैसे हम इस औषधि के अवरोधकों को वृद्धावस्था के रोगों की मानक देखभाल में शामिल कर सकते हैं।
डॉ. बेल्स्की के समूह ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी) के लोगों में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का भी अध्ययन किया और पाया कि सामाजिक-आर्थिक स्तर की प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें भूमिका निभाती हैं।
कोलंबिया एजिंग सेंटर ने पाया है कि संतुलित आहार शोथ को कम करके मस्तिष्क के स्वास्थ्य की देखभाल करता है, आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति करके उचित रक्त प्रवाह बनाए रखता है जो संज्ञानात्मक कार्य में सहायक होता है। वेबसाइट healthline.com बात को आगे बढ़ाते हुए बताती है कि प्रोटीन के स्वास्थ्यवर्धक स्रोत, स्वास्थ्यकर वसा और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थ, जैसे सब्ज़ियां, तेल से भरपूर खाद्य पदार्थ और बहुत सारे फल स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं।
भारत में हमारे लिए यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां (143 करोड़ की कुल जनसंख्या में से) 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की कुल संख्या लगभग 10 करोड़ है। healthline.com का सुझाव है कि (जंतु और वनस्पति) प्रोटीन, पौष्टिक अनाज (गेहूं, चावल, रागी, बाजरा), तेल, फल और सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। ये मांसाहारियों और शाकाहारियों दोनों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं।
व्यायाम से रोकथाम
स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि घायल या बूढ़े चूहों की शक्ति बढ़ाने वाली एक औषधि तंत्रिकाओं और मांसपेशीय तंतुओं के बीच कड़ियों को बहाल करती है। यह औषधि उम्र बढ़ने से जुड़े जेरोज़ाइम, 15-PGDH, की गतिविधि को अवरुद्ध करती है। यह जेरोज़ाइम उम्र बढ़ने के साथ और न्यूरोमस्कुलर रोग के चलते मांसपेशियों में कुदरती रूप से बढ़ता है। लेकिन यह औषधि देने पर उम्रदराज़ चूहों की शारीरिक गतिविधि फिर से बढ़ गई थी।
मिनेसोटा का मेयो क्लीनिक नियमित शारीरिक गतिविधि के सात लाभ बताता है। ये लाभ हैं: वज़न पर नियंत्रण; स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज़ और कैंसर जैसी स्थितियों और बीमारियों से लड़ता है; मूड में सुधार; ऊर्जा देता है; अच्छी नींद लाता है; यौन जीवन बेहतर करता है; और कहना न होगा कि यह मज़ेदार और सामाजिक हो सकता है। जैसे दूसरों से मेल-जोल होना, घूमना या खेलना। हम सभी, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, व्यायाम से बहुत लाभ होगा, और इस प्रकार जेरोज़ाइम बाधित होगा।
संगीत भी जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है और यह डिमेंशिया (स्मृतिभ्रंश) का इलाज भी हो सकता है! 2020 में, स्पेन के टोलेडो के एक समूह ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसका निष्कर्ष था – संगीत डिमेंशिया के उपचार का एक सशक्त तरीका हो सकता है। और हाल ही में, स्पेन के ही एक अन्य समूह द्वारा प्रकाशित पेपर का शीर्षक है: संगीत बढ़ती उम्र से सम्बंधित संज्ञानात्मक विकारों में परिवर्तित जीन अभिव्यक्ति की भरपाई कर देता है (Music compensates for altered gene expression in age-related cognitive disorders)। यह पेपर बताता है कि संगीत हमारे जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है। तो दोस्तों! गाना गाएं या गा नहीं सकते तो कम से कम सुनें ज़रूर! (स्रोत फीचर्स)

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एआई निर्मित कैथेटर से संक्रमण की रोकथाम

विश्व भर में हर वर्ष 10 करोड़ से अधिक मूत्र कैथेटर लगाए जाते हैं जिनके रास्ते होने वाले मूत्र मार्ग संक्रमणों (यूटीआई) को रोकना चिकित्सकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से एक नवीन मूत्र कैथेटर डिज़ाइन प्रस्तुत हुई है। यह कैथेटर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किए बिना कैथेटर के रास्ते होने वाले मूत्रमार्ग संक्रमण (यूटीआई) के जोखिम को कम कर सकता है।

गौरतलब है कि पारंपरिक कैथेटर अंदर से चिकने होते हैं जिसके कारण बैक्टीरिया के लिए ऊपर की ओर बढ़ना और आंतरिक सतह पर टिकना सहज हो जाता है। यही बैक्टीरिया यूटीआई का कारण बनते हैं।

नवीन कैथेटर में एक अनोखा इंटीरियर तैयार किया गया है। इसकी अंदरुनी संरचना से एक ऐसा बाधापूर्ण मार्ग तैयार होता है जो बैक्टीरिया को पकड़ प्राप्त करने और मूत्राशय तक पहुंचने से रोकता है।

पूर्व में चिकित्सक बैक्टीरिया को मारने के लिए कैथेटर की आंतरिक सतह पर एंटीबायोटिक दवाओं या चांदी जैसे धातु एजेंटों का लेप करते थे। ये तरीके महंगे होते हैं और बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की आशंका रहती है। नया उपकरण किसी विशेष अस्तर की बजाय सरल ज्यामिति पर काम करता है। 

इस अध्ययन की सह-लेखक और कंप्यूटर वैज्ञानिक अनिमाश्री आनंदकुमार बताती हैं कि यह डिज़ाइन सरल ज्यामिति से प्रेरित है जिसमें नुकीले त्रिकोण के आकार की लकीरों की एक शृंखला है। इस प्रकार के कैथेटर में जब बैक्टीरिया ऊपर की ओर तैरने का प्रयास करते हैं तो इन कंटकों के कारण उनकी ऊपर की ओर बढ़ने की गति बाधित होती है। इसको डिज़ाइन करते हुए शोधकर्ताओं ने सबसे प्रभावी बैक्टीरिया-विकर्षक रचना की पहचान करने के लिए एआई की मदद से हज़ारों डिज़ाइनों की डिजिटल अनुकृतियां तैयार कीं। सर्वोत्तम डिज़ाइन चुनने के बाद, उन्होंने कैथेटर का 3-डी प्रोटोटाइप तैयार किया और ई. कोली बैक्टीरिया पर इसका और सामान्य कैथेटर का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि 24 घंटों की अवधि में पारंपरिक कैथेटर की तुलना में नवनिर्मित प्रायोगिक कैथेटर में सौवें हिस्से से भी कम बैक्टीरिया जमा हुए थे।

फिलहाल वर्तमान डिज़ाइन यूटीआई से जुड़े एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली के हिसाब से बनाई गई है लेकिन शोधकर्ता अन्य जीवाणु प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए इस डिज़ाइन को और अधिक परिष्कृत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि इसे रोगाणुओं की एक विस्तृत शृंखला की रोकथाम के लिए तैयार किया जा सके। देखा जाए तो उपकरण डिज़ाइन में एआई की क्षमता कैथेटर से कहीं आगे तक है। फिलहाल आनंदकुमार एआई का उपयोग दवाएं विकसित करने, ऊर्जा-कुशल हवाई जहाज़ प्रोपेलर डिज़ाइन करने और कई अन्य चीज़ों के लिए कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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