वर्ष 2016 के दी लैसेंट की स्तनपान शृंखला में सीज़र विक्टोरा और उनके साथियों ने लिखा था: “नवजात शिशुओं के लिए स्तनपान न सिर्फ बखूबी संतुलित पोषण आपूर्ति है, बल्कि संभवत: यह उसे मिलने वाली सबसे विशिष्ट वैयक्तिकृत औषधि है, जो ऐसे समय उसे मिलती है जब जीवन के लिए उसकी जीन अभिव्यक्ति बेहतर तालमेल बैठा रही होती है।”
अब मानव दूध की इस ध्यानपूर्वक संरचित समृद्धि के बारे में आई नई खोज ने मायो-इनोसिटॉल के महत्व पर प्रकाश डाला है। मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा अल्कोहल है। स्तनपान के पहले दो हफ्तों में मायो-इनोसिटॉल का स्तर उच्च होता है फिर कुछ महीनों की अवधि में धीरे-धीरे इसका स्तर कम होता जाता है। शुरुआती चरणों में, नवजात शिशु के मस्तिष्क में तेज़ी से नए-नए सायनेप्स (तंत्रिकाओं के संगम बिंदु) बनकर ‘तार’ जुड़ रहे होते हैं (या ‘वायरिंग’ हो रही होती है)। प्रारंभिक विकास के दौरान उचित सायनेप्स बनना संज्ञानात्मक विकास की नींव रखते हैं; अपर्याप्त सायनेप्स निर्माण से मस्तिष्क के विकास में कठिनाई आती है।
येल विश्वविद्यालय के थॉमस बाइडरर के शोध दल द्वारा PNAS में प्रकाशित निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से मेल खाते हैं – परखनली में संवर्धित चूहे की तंत्रिकाओं में मायो-इनोसिटॉल देने पर उनकी तंत्रिकाओं के बीच प्रचुर मात्रा में सायनेप्स बने थे।
मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा-अल्कोहल है, जो चीनी से लगभग आधा मीठा होता है। यह मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है, जहां यह कई हार्मोनों की क्रियाओं में मध्यस्थता करता है। हमारे शरीर को कोशिका झिल्ली बनाने के लिए इनोसिटॉल की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर ग्लूकोज़ से मायो-इनोसिटॉल बनाता है और यह प्रक्रिया अधिकांशत: किडनी में होती है। कॉफी और चीनी के सेवन से, और मधुमेह जैसी स्थितियों में हमारे शरीर की इनोसिटॉल ज़रूरत बढ़ जाती है। अनाज और बीजों के चोकर (ऊपरी छिलके) में इनोसिटॉल के निर्माण में शामिल घटक, फायटिक एसिड, होता है। बादाम, मटर और खरबूजे भी इसके समृद्ध स्रोत हैं।
मधुमेह से ग्रसित जंतु मॉडल में, इनोसिटॉल से वंचित चूहों के आहार में मायो-इनोसिटॉल पुन: शामिल करने से उनमें मोतियाबिंद और मधुमेह से जुड़ी अन्य समस्याओं को रोकने में मदद मिली।
मानव दूध के अन्य घटक भी विशिष्ट पोषकों से परिपूर्ण होते हैं। मेक्सिको स्थित मीड जॉनसन पीडियाट्रिक न्यूट्रिशन इंस्टीट्यूट के डॉ. शे फिलिप्स और उनके साथियों ने मानव दूध के संघटन को प्रभावित करने वाले कई कारकों का विश्लेषण किया है। वे बताते हैं कि एक आवश्यक पोषक तत्व, ओमेगा-3 वसा अम्ल (डाइकोसा-हेक्सेनोइक एसिड या डीएचए) की मात्रा गर्भवती स्त्री द्वारा लिए गए भोजन के आधार पर बदलती है। स्तनपान कराने वाली मां के दूध में डीएचए का स्तर विभिन्न देशों में अलग-अलग होता है – चीन की महिलाओं के दूध में 2.8 प्रतिशत, जापान की महिलाओं में 1 प्रतिशत, युरोप और अमेरिका की महिलाओं में लगभग 0.4-0.2 प्रतिशत और कई विकासशील देशों की महिलाओं के दूध में महज़ 0.1 प्रतिशत। डीएचए विकासशील मस्तिष्क और रेटिना के लिए महत्वपूर्ण होता है।
नेक्रोटाइज़िंग एंटरोकोलाइटिस (एनईसी) पाचन तंत्र की एक गंभीर तकलीफ है जो समय-पूर्व जन्मे या बेहद कम वज़न वाले शिशुओं को प्रभावित करती है। लक्षण हैं: पर्याप्त दूध न पीना, पेट में सूजन, अंगों की गड़बड़। यह जानलेवा हो सकती है। बोतल से दूध पिलाना, समय-पूर्व जन्म और जन्म के समय कम वज़न (<1.5 किलोग्राम) इसके होने का जोखिम बढ़ाते हैं। यह स्थिति खराब रक्त संचार और आंतों के संक्रमण के मिले-जुले असर से उत्पन्न होती है। स्तनपान और प्रोबायोटिक्स के उपयोग से एनईसी को होने से रोका जा सकता है। समय-पूर्व जन्मे लगभग 10 प्रतिशत शिशु एनईसी से ग्रसित हो जाते हैं, और प्रभावित शिशुओं में से एक चौथाई इस बीमारी के कारण दम तोड़ देते हैं। समय-पूर्व जन्मे बच्चों की आंतें पर्याप्त मात्रा में इंटरल्यूकिन-22 नामक पदार्थ नहीं बना पातीं जो हमें संक्रमण से बचाने में सहायक होता है।(स्रोत फीचर्स)
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स्वास्थ्य के बारे में हमारी अधिकांश चर्चा उन चंद आम बीमारियों तक सिमटी होती है जिनसे हमारे परिचित पीड़ित होते हैं – डायबिटीज़ संभवत: इन बीमारियों की सूची में सबसे ऊपर है। यद्यपि, कई बीमारियां ऐसी हैं जो बिरले (किसी-किसी को) ही होती हैं, लेकिन इनका प्रभाव/परिणाम पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए भयावह हो सकता है।
दुर्लभ बीमारी की सबसे सामान्य परिभाषा है कि प्रति 10,000 लोगों में जिसका एक मामला मिले। इनके लिए ‘अनाथ रोग’ शब्द कई कारणों से उपयुक्त है। दुर्लभ होने के कारण इनका निदान/पहचान करना कठिन होता था, क्योंकि कई युवा चिकित्सकों ने संभवत: इनका एक भी मामला नहीं देखा होता था। इसी कारण से इन पर अधिक शोध नहीं हुए थे, जिसके कारण अक्सर इनके उपचार भी उपलब्ध नहीं होते थे।
यह स्थिति अब बदल रही है क्योंकि बीमारियों के बारे में जागरूकता और उनके निदान के लिए जीनोमिक तकनीकें बढ़ गई है। कई देशों में नियामक संस्थाएं उपेक्षित बीमारियों की औषधि के विकास हेतु निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी देती हैं। उम्मीद के मुताबिक, इस तरह के कदमों से ‘अनाथ रोगों’ की औषधियों’ में रुचि बढ़ गई है। वर्ष 2009 से 2014 के बीच, यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा औषधियों/उपचारों को दी गई सभी मंज़ूरियों में से आधी दुर्लभ बीमारियों और कैंसर के लिए थीं। अलबत्ता, इन उपचारों की कीमतें, खासकर भारत के दृष्टिकोण से, पहुंच से परे हैं। अनुमान है कि इनका खर्च प्रति वर्ष 10 लाख रुपए से 2 करोड़ रुपये के बीच है।
रोगी समूहों द्वारा पहल
वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 7000 दुर्लभ बीमारियां हैं जो 30 करोड़ लोगों को प्रभावित करती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना से पता चलता है कि भारत में ऐसे 7 करोड़ मामले होने चाहिए। लेकिन भारत के अस्पतालों ने अब तक इनमें से 500 से भी कम बीमारियों की सूचना दी है। जिन समुदायों में ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनके बारे में रोगप्रसार विज्ञान सम्बंधी पर्याप्त डैटा उपलब्ध नहीं है। इन विकारों की पुष्टि करने के लिए अक्सर परिष्कृत नैदानिक जीनोमिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार की राष्ट्रीय नीति (NPRD) ने हाल ही में अपना असर दिखाना शुरू किया है। हमारे देशों में प्रचलित बीमारियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया, लाइसोसोमल स्टोरेज विकार, सिकल सेल एनीमिया आदि शामिल हैं।
‘अनाथ रोगों’ के सम्बंध में नागरिकों की पहल भारत की प्रगति की एक और उल्लेखनीय बात है। इसका एक अच्छा उदाहरण है DART, डिस्ट्रॉफी एनाइलेशन रिसर्च ट्रस्ट, जो डुख्ने पेशीय अपविकास से पीड़ित रोगियों के माता-पिता द्वारा बनाया गया है। इस बीमारी में, तीन साल की उम्र से कूल्हे की मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं। इस ट्रस्ट ने जोधपुर स्थित आईआईटी और एम्स के साथ मिलकर इस अपविकास के लिए एक कुशल और व्यक्तिपरक एंटीसेंस ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड (ASO) आधारित उपचारात्मक आहार का क्लीनिकल परीक्षण शुरू किया है।
कुष्ठ मुक्त भारत
प्रति 10,000 लोगों में 0.45 मामले मिलने की दर के साथ भारत में कुष्ठ रोग अब एक दुर्लभ बीमारी मानी जाती है। लेकिन इस बीमारी के प्रसार को थामने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुष्ठ रोग इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह ‘अनाथ रोगों’ पर शोध के सामाजिक लाभ हो सकते हैं। सिंथेटिक एंटीबायोटिक रिफापेंटाइन, जिसका व्यापक रूप से उपयोग तपेदिक (टीबी) के खिलाफ किया जाता है, पर हालिया शोध से पता चला है कि इस दवा की एक खुराक जब कुष्ठ रोगियों के घरवालों को दी गई तो इसने चार साल की अध्ययन अवधि में उन लोगो में कुष्ठ रोग के प्रसार को काफी कम कर दिया था। यह अध्ययन न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निष्कर्ष हमारी सरकार के 2027 तक कुष्ठ रोग मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार पारंपरिक चिकित्सा का वैश्विक सम्मेलन 17-18 अगस्त को गांधीनगर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जी-20 व अन्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रियों के अलावा 88 देशों के वैज्ञानिक, पारंपरिक चिकित्सक, स्वास्थ्यकर्मी तथा सिविल सोसायटी प्रतिनिधि शामिल हुए।
सम्मेलन विभिन्न सम्बद्ध लोगों के लिए अपने अनुभव, सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों तथा आपसी सहयोग के लिए विचारों के आदान-प्रदान का मंच बना। सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों (ऑस्ट्रेलिया, बोलीविया, ब्राज़ील, कनाडा, ग्वाटेमाला, न्यूज़ीलैंड वगैरह) से आदिवासी लोगों ने भी शिरकत की। ये वे लोग हैं जिनके लिए पारंपरिक चिकित्सा स्वास्थ्य में ही नहीं बल्कि संस्कृति व आजीविका में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के वैश्विक सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। रिपोर्ट से पता चलता है कि लगभग 100 देशों में पारंपरिक चिकित्सा से सम्बंधित राष्ट्रीय नीतियां और रणनीतियां हैं। कई सारे देशों में पारंपरिक चिकित्सा के उपचार ज़रूरी दवा सूचियों में, और अनिवार्य स्वास्थ्य सेवा में शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कई देशों में ये उपचार राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा में शामिल किए गए हैं। बड़ी संख्या में लोग गैर-संक्रामक रोगों के उपचार, रोकथाम, प्रबंधन व पुनर्वास में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग करते हैं।
सम्मेलन का सबसे प्रमुख निष्कर्ष था कि पारंपरिक चिकित्सा से संदर्भ में सशक्त प्रमाणों के आधार की ज़रूरत है। सशक्त प्रमाणों की उपस्थिति में ही देश पारंपरिक चिकित्सा को लेकर उपयुक्त नियामक ढांचा बना सकेंगे और नीतियों को आकार दे सकेंगे।
सम्मेलन में एक प्रमुख संकल्प यह व्यक्त हुआ कि सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने और 2030 तक स्वास्थ्य सम्बंधी सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि पारंपरिक चिकित्सा की संभावनाओं को साकार किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
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जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारे बाल सफेद होने लगते हैं जो तो होना ही है। वास्तव में ये हमें विशिष्ट बनाते हैं। और सेवानिवृत्त और अनुभवी बुज़ुर्ग इसे अवसर की तरह देखते हैं और इसका फायदा भी उठाते हैं। लेकिन कई पुरुष, खासकर फिल्म और प्रदर्शन कलाओं से जुड़े पुरुष, बालों की सफेदी को लेकर चिंतित रहते हैं, और युवा और सुंदर दिखने के लिए तरह-तरह के लोशन व रोगन लगाते हैं। महिलाओं के मामले में बात अलग लगती है, उनके बाल उम्र के हिसाब से थोड़ा देर में सफेद होते हैं। ऐसा शायद उनके पारंपरिक और आधुनिक औषधीय तेलों को लगाने और सिर धोने के तरीकों के कारण हो सकता है। पुरुषों की तरह महिलाओं में दाढ़ी-मूंछ भी नहीं होती हैं। तो क्या इस अंतर का कोई लिंग-आधारित कारण है?
नेचर पत्रिका (16 अप्रैल, 2023) में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि अज्ञात कारणों से मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाएं, जो चूहों और मनुष्यों में त्वचा और बालों को रंग देती हैं, शरीर की अन्य स्टेम कोशिकाओं की तुलना में पहले ठप होने लगती हैं। लेख बताता है कि उम्र बढ़ने के दौरान जब चूहों को रंजक देने वाली कुछ स्टेम कोशिकाएं थम जाती हैं तब चूहों के बाल सफेद होने लगते हैं। पिगमेंट बनाने वाली स्टेम कोशिकाओं का गतिशील रहना आवश्यक है वरना बाल सफेद हो जाएंगे। क्या यही बात मनुष्यों में भी लागू होती है, और क्या इसमें लिंग-आधारित अंतर है? इसका जवाब अभी पता लगना बाकी है।
उपरोक्त शोध के आने के पूर्व 30 मार्च, 2022 को कोलेरेडो स्टेट युनिवर्सिटी के कोलंबाइन हेल्थ सिस्टम्स फॉर हेल्दी एजिंग द्वारा एक लेख ‘दी साइंस ऑफ ग्रे हेयर’ प्रकाशित हुआ था। यह लेख बताता है कि बालों का रंग कहां से और कैसे आता है। हमारे बालों के रोमकूप (फॉलीकल्स) में दो तरह के मेलेनिन अणु मौजूद होते हैं। पहला यूमेलेनिन, यह मेलेनिन जब बालों की कोशिकाओं में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होता है तो बाल काले और भूरे रंग के होते हैं, जबकि यह कम मात्रा में हो तो बाल सुनहरे (ब्लॉन्ड) रंग के होते हैं। जिस तरह हमारे उम्रदराज़ फिल्मी हीरो युवा दिखना चाहते हैं, उसी तरह हमारी फिल्मी नायिकाएं जवां सुनहरे (ब्लॉन्ड) बाल चाहती हैं। और इसके लिए तरह-तरह के तेल आज़माती हैं और बालों को ब्लीच करवाती हैं।
तो क्या बालों के सफेद होने में लिंग-आधारित अंतर है, और क्या आप जहां रहते हैं वहां के वातावरण से इस पर कोई फर्क पड़ता है? इन दोनों ही सवालों के जवाब मिलना अभी बाकी है। लेकिन इस बारे में ज़रूर कुछ सलाहें दी गई है कि कैसे बालों के झड़ने (गंजेपन) की समस्या और बाल सफेद होने को कम किया जाए। इनमें से कुछ सुझाव/सलाह हैं: एंटीऑक्सीडेंट सब्जि़यां और फल अधिक खाएं, धूम्रपान से बचें या छोड़ दें और प्राकृतिक उपचार अपनाएं। आयुर्वेदिक च्यवनप्राश ऐसे ही उपचार का दावा करता है; इसमें एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन से भरपूर कई प्राकृतिक चीज़ें होती हैं, और यह दावा करता है कि इसके सेवन से बाल बढ़ेंगे और सफेद कम होंगे। यूनानी दवा ज़िंदा तिलिस्मात भी ऐसा ही दावा करती है, इसमें प्रचुर मात्रा में नीलगिरी का तेल, विटामिन और बुढ़ापा रोधी रसायन होते हैं।
फिर भी, बाल बढ़ाने या झड़ना कम करने, और सफेद होना कम कर जवां बने रहने के लिए सबसे अच्छा उपाय है खूब सारी सब्ज़ियां और फल खाएं। जैसे टमाटर, पालक, रैस्पबेरी, ब्रोकोली और डार्क चॉकलेट। साथ ही, भोजन में गेहूं या चावल की बजाय रागी, ज्वार, बाजरा जैसा मोटा अनाज शामिल करें, क्योंकि ये बालों के बढ़ने में मदद करते हैं और मौजूदा बालों को स्वस्थ रखते हैं।
बालों के सफेद होने में मेलेनिन का हाथ है या मेलानोसाइट्स का हाथ है? और क्या महिला-पुरुष में बालों की समस्या का फर्क लिंग-आधारित है? बहरहाल इन सवालों का जवाब मिलने के लिए इंतज़ार करना होगा।(स्रोत फीचर्स)
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आगे पढ़ने से पहले इनमें से किसी एक लिंक पर जाकर रिकॉर्डिंग सुनें:
इस रिकॉर्डिंग में गिटार के तारों की आवाज़ अजीब सी गूंजती सुनाई देती है, गायक की आवाज़ भी ठीक से नहीं आती, गाने के बोल बमुश्किल समझ में आते हैं। फिर भी, जो लोग इस गीत से वाकिफ हैं वे गीत को पहचान पाते हैं। यह रॉक बैंड पिंक फ्लॉयड के 1979 के सुपरहिट एल्बम ‘दी वॉल’ का गीत ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ है।
यह रिकॉर्डिंग किसी पुरानी कैसेट को दुरुस्त करके नहीं बनाई गई है। यह रिकॉर्डिंग तो उन लोगों की मस्तिष्क तरंगों के आधार पर बनाई गई है जिन्होंने इस गीत को सुना था। इस तरह पुनर्निर्मित इस धुन से यह पता चला है कि मस्तिष्क संगीत का प्रोसेसिंग कहां करता है।
वास्तव में, मस्तिष्क तरंगों की यह रिकॉर्डिंग काफी पुरानी है। दस से भी अधिक साल से पहले अल्बेनी मेडिकल सेंटर के तंत्रिका विज्ञानियों ने मिर्गी पीड़ितों के दौरों के दौरान मस्तिष्क गतिविधियों को देखने के लिए 29 मरीज़ों में से प्रत्येक के मस्तिष्क में 2668 इलेक्ट्रोड लगाए और उनकी मस्तिष्क गतिविधि रिकॉर्ड की। ऐसा करते समय उन्होंने इन मरीज़ों को गीत सुनाए थे।
इस प्रक्रिया ने शोधकर्ताओं को यह भी जानने का मौका दे दिया कि मस्तिष्क संगीत पर कैसे प्रतिक्रिया देता है। अधिकांश लोगों में, बोली गई भाषा को समझने के लिए ज़िम्मेदार रचनाएं मस्तिष्क के बाएं गोलार्ध में होती हैं। लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि संगीत को समझने या प्रोसेस करने में मस्तिष्क का एक जटिल नेटवर्क शामिल होता है जो संभवत: दोनों गोलार्ध में फैला होता है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी लुडोविक बेलियर बताते हैं कि मरीज़ों को पिंक फ्लॉयड बेहद पसंद था। वास्तव में मरीजों ने कई गाने सुने थे जिनमें बैंड का सबसे प्रसिद्ध और हिट गाना ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 2)’ भी था। लेकिन सबसे विस्तृत मस्तिष्क रिकॉर्डिंग उन लोगों से मिली जिन्होंने कम लोकप्रिय गाना (भाग 1) सुना था।
शोधकर्ताओं ने इन रिकॉर्डिंग्स का उपयोग एक कम्प्यूटेशनल मॉडल को यह सिखाने के लिए किया कि संगीत की किस विशेषता के लिए मस्तिष्क में क्या गतिविधि हुई। टीम को उम्मीद थी कि उनका मॉडल सीख जाएगा और अंतत: मूल गीत का ऐसा संस्करण बना देगा जिसे पहचाना जा सके।
शोधकर्ताओं ने मॉडल को मात्र 90 प्रतिशत गीत के लिए प्रशिक्षित किया। बाकी हिस्सा मॉडल को सीखकर तैयार करने दिया। मॉडल ने गीत का शेष 10 प्रतिशत हिस्सा (करीब 15 सेकंड लंबा हिस्सा) पुन: बना लिया।
फिर शोधकर्ताओं ने विभिन्न संगीत विशेषताओं से जुड़ी मस्तिष्क गतिविधि को पहचानने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मॉडल में मस्तिष्क रिकॉर्डिंग्स डालीं जिसमें कुछ इलेक्ट्रोड का डैटा उन्होंने हटा दिया और फिर से बनाए गए गाने पर प्रभाव देखा। इस तरह एक नए पहचाने गए मस्तिष्क क्षेत्र का पता चला जो संगीत में लय – जैसे ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ में बजने वाले गिटार – को समझने में शामिल है। ये नतीजे प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन इस बात की पुष्टि भी करता है कि संगीत को समझने में भाषा प्रसंस्करण के विपरीत मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध शामिल होते हैं।
बेलियर को उम्मीद है कि इस शोध से एक दिन उन मरीज़ों को मदद मिल सकेगी जिन्हें आघात, चोट या एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियों के कारण बोलने में मुश्किल होती है। हालांकि वर्तमान में ऐसे मस्तिष्क-मशीन इंटरफेस मौजूद हैं जिनकी मदद से ये मरीज़ संवाद कर पाते हैं। लेकिन भाषा को जिस लयबद्धता या आवाज़ में उतार-चढ़ाव के साथ बोला जाता है ये प्रौद्योगिकियां संवाद में वैसी लयबद्धता नहीं ला पातीं, इसलिए मरीज़ों की आवाज़ धीमी और रोबोटिक लगती है। इसलिए उम्मीद है कि कृत्रिम बुद्धि पर आधारित ब्रेन मशीन इंटरफेस संवाद में लयबद्धता ला सकते हैं, जिससे मरीज़ों का संवाद अधिक स्वाभाविक लगेगा।
हालांकि वर्तमान में इस तरह की तकनीक के लिए घुसपैठी सर्जरी लगेगी। लेकिन जैसे-जैसे तकनीकों में सुधार होगा, ऐसा हो सकता है किसी दिन खोपड़ी की सतह से जुड़े इलेक्ट्रोड से इस तरह की रिकॉर्डिंग संभव हो जाए।(स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो लोग पसीने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं और इससे निजात पाने के लिए तरह-तरह के डिओ और अन्य उपाय अपनाते हैं। लेकिन आजकल पसीना चलन और स्टाइल में है, खासकर जिम में। इसके अलावा पसीना बहाने के लिए तरह-तरह के विकल्प चलन में हैं, जैसे हॉट योगा, इन्फ्रारेड सौना वगैरह। लोग ये सब इस चाह में अपना रहे हैं कि इस तरह पसीना बहाकर वे अपने शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकाल देंगे, अन्य शब्दों में कहें तो शरीर को डिटॉक्स कर देंगे।
लेकिन वास्तविकता थोड़ी अलग है। पसीना बहाऊ गतिविधियां करके आप शरीर से अधिकतर पानी ही बाहर निकालते हैं और अन्य पदार्थ न के बराबर। पसीना मुख्यत: हमारे शरीर को ठंडा रखने के लिए निकलता है, शरीर से अपशिष्ट या विषाक्त पदार्थ बाहर निकालने के लिए नहीं। इस काम के लिए हमारे शरीर में किडनी और लीवर हैं।
मैकगिल युनिवर्सिटी में विज्ञान और समाज विभाग के निदेशक व रसायन शास्त्री जो श्वार्क्ज़ बताते हैं कि पसीने से शरीर को डिटॉक्स करने की बात एक मिथक है। पसीने में ज़्यादातर पानी होता है, साथ ही इसमें अत्यल्प मात्रा में अन्य सैकड़ों पदार्थ हो सकते हैं जिनमें से कुछ विषैले पदार्थ भी हो सकते हैं। इसलिए जब भी इस तरह डिटॉक्स करने की बात हो तो ये सवाल ज़रूरी है कि पसीना बहाकर कितना डिटॉक्स होगा? और क्या? क्या पसीने के साथ कीटनाशक शरीर से बाहर निकल जाएंगे? धातुएं या कुछ और बाहर निकल जाएगा?
जब आप इस बात पर गौर करेंगे कि वास्तव में हमारे शरीर में विषाक्त पदार्थ कैसे जमा होते हैं, उनके गुण क्या हैं, और शरीर उनसे छुटकारा पाने के क्या तरीके अपनाता है तो आप पाएंगे कि अधिकांश डिटॉक्स योजनाएं बकवास हैं।
जब हमारा शरीर गर्म होता है या हम व्यायाम करते हैं तो हमारे पूरे शरीर में फैली एक्राइन ग्रंथियां पसीना स्रावित करती हैं। हमारे शरीर में इनकी संख्या करीब तीस लाख है। चूंकि हमारा शरीर अपने को ठंडा रखने के लिए पसीना बहाता हैं इसलिए इसमें 99 प्रतिशत से अधिक पानी होता है। इस पानी में बहुत थोड़ी मात्रा में सोडियम और कैल्शियम जैसे खनिज, विभिन्न प्रोटीन, लैक्टिक एसिड और थोड़ा यूरिया होता है।
यूरिया भोजन में प्रोटीन के टूटने से लीवर में बनता है। यह हमारे शरीर में बनने वाला एक अपशिष्ट उत्पाद है। यह कहना तो ठीक है कि पसीने के साथ शरीर से थोड़ा यूरिया भी निकल जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि इसका अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से बाहर निकलता है और यह काम किडनी करती है।
अब बात करते हैं मानव निर्मित प्रदूषकों की। कार्बनिक प्रदूषक जैसे कीटनाशक, अग्निरोधी और पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल (पीसीबी) शरीर में प्रवेश करके शरीर की वसा में जाकर जमा हो जाते हैं क्योंकि ये पदार्थ वसा-प्रेमी (या वसा में घुलनशील) होते हैं। पसीने में मुख्यत: पानी होता है, वसा नहीं। नतीजतन, ये वसा-प्रेमी पदार्थ पानी में नहीं घुलते और पसीने के साथ इतनी कम मात्रा में निकलते हैं कि इसे डिटॉक्स कहना व्यर्थ है। ओटावा विश्वविद्यालय के एक्सरसाइज़ फिज़ियोलॉजिस्ट पास्कल इम्बॉल्ट ने 2018 में अपने अध्ययन में पसीने में इन्हीं विषाक्त पदार्थों की मात्रा की गणना की थी। और पाया था कि 45 मिनट का कठोर व्यायाम करके कोई सामान्य व्यक्ति पूरे दिन में कुल दो लीटर पसीना बहा सकता है, और इस पसीने में इन प्रदूषकों की मात्रा एक नैनोग्राम के दसवें हिस्से से भी कम होती है।
इसे इस तरह समझते हैं कि आप दिन भर में जितनी भी मात्रा में विषाक्त पदार्थ का सेवन करते हैं पसीने के साथ उसका महज 0.02 प्रतिशत हिस्सा ही बहाते हैं। और आप कुछ भी करके पूरे दिन में अधिक से अधिक दैनिक सेवन का 0.04 प्रतिशत तक ही प्रदूषक पसीने में बहा सकते हैं।
यह भी बात ध्यान में रखने की है कि अधिकांश लोगों के शरीर में कीटनाशकों और अन्य प्रदूषकों का स्तर बेहद कम होता है। सिर्फ इसलिए कि वे हमारे शरीर में मौजूद हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी इतनी मात्रा हमें कोई नुकसान पहुंचा रही है, या शरीर से इन्हें हटाने से स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव पड़ेगा।
चलिए अब इस मिथक की लेशमात्र सच्चाई को देखते हैं। प्लास्टिक में मौजूद सीसा जैसी भारी धातुएं और बीपीए वसा की जगह पानी में आसानी से घुलते हैं। इसलिए ये बहुत थोड़ी मात्रा में पसीने के साथ बाहर निकल जाते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि बीपीए का अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से निकलता है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पानी पी-पीकर पेशाब करते रहें ताकि शरीर विषमुक्त रहे। इसकी बजाय विशेषज्ञों की सलाह है कि प्लास्टिक की चीज़ों में खाने-पीने से बचें ताकि बीपीए का सेवन कम से कम हो। कोशिश करें कि कीटनाशक या अन्य प्रदूषक रहित खाद्य का सेवन करें और इनके संपर्क में आने से बचें। इसके अलावा शरीर के सफाईकर्मी अंग यानी किडनी को स्वस्थ रखें – इसके लिए आप धूम्रपान से, उच्च रक्तचाप और इबुप्रोफेन जैसी दर्दनिवारक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग से बचें। और पर्याप्त पानी पिएं। शरीर में पानी की कमी से किडनी पर दबाव पड़ता है, इसलिए पर्याप्त पानी पिए बिना खूब पसीना बहाने से शरीर की सफाई प्रणाली गड़बड़ा सकती है।
और, बाज़ार के चलन के झांसे में न आएं। बाज़ार जानता है कि हर मनुष्य स्वस्थ रहना चाहता है। और, क्योंकि हम विषाक्त पदार्थों को देख नहीं सकते इसलिए बाज़ार लोगों को बहुत आसानी से यह विश्वास दिला देता है कि इस तरह का उपवास करने से, डाइट प्लान लेने से, या सलाद-सब्ज़ियां खाने या जूस पीने से, या बहुत अधिक पसीना बहाने के उनके विकल्प अपनाकर आप स्वस्थ रहेंगे।
दरअसल, कई मामलों में स्वेट थेरेपी की अति से लोगों की जान तक गई है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन के अनुसार एक बार में 10 मिनट से अधिक समय तक सौना रूम में नहीं रहना चाहिए। 2011 में, एरिज़ोना में एक स्व-सहायता गुरु द्वारा आयोजित दो घंटे लंबे पसीना समारोह के बाद तीन लोगों की मौत हो गई थी। इसी वर्ष, क्यूबेक में एक 35 वर्षीय महिला की मृत्यु हो गई थी। इस महिला के शरीर पर डिटॉक्स स्पा उपचार के तहत मिट्टी का लेप किया गया था, फिर उसे प्लास्टिक में लपेटकर सिर पर एक कार्डबोर्ड का बक्सा रख दिया गया। और ऊपर से कंबल ओढ़ाकर उसे नौ घंटे तक रखा गया। इस तरह वह पसीना तो बहाती रही लेकिन उपचार के कुछ घंटों बाद ही अत्यधिक गर्मी के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
यह तो जानी-मानी बात है कि बाज़ार आपकी स्वस्थ रहने और अन्य हसरतों को जानता है। इसका फायदा उठाकर वह दावे करता है कि कोई उत्पाद या विकल्प अपनाकर आप तुरंत वैसे हो सकते हैं जैसे आप होना चाहते हैं। बाज़ार को रोकना मुश्किल है, लेकिन आप बाज़ार के झांसे में न आएं और समझदारी से काम लें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.gq.com/photos/5a8736365329a30b1ccdfb2f/4:3/w_1727,h_1295,c_limit/detox-diet.jpg
डॉ. उल्बे बोस्मा की पुस्तक दी वर्ल्ड ऑफ शुगर (शकर का संसार) को हाल ही में हारवर्ड युनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक बताती है कि शकर का सामाजिक प्रभुत्व एक हालिया सामाजिक घटना है। भारत में छठी शताब्दी से दानेदार चीनी बनाई और खाई जा रही है। वास्तव में, डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड – ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन (भारतीय भोजन – एक ऐतिहासिक सहचर) में बताते हैं कि भारत में गन्ने के बारे में अथर्ववेद के समय (लगभग 900 ईसा पूर्व) से और गुड़ के बारे में 800 ईसा पूर्व से पता रहा है।
हालांकि, दानेदार शकर के बारे में जानकारी छठवीं शताब्दी से थी, लेकिन परिष्कृत शकर 19वीं शताब्दी में युरोप में व्यापक पैमाने पर फैली। जैसा कि लेखक बताते हैं, शकर का सामाजिक प्रभुत्व प्रगति की कहानी है, और साथ ही शोषण, नस्लवाद, मोटापे और पर्यावरण विनाश की कड़वी-मीठी कहानी है।
गुलामों का व्यापार
दी कनवर्सेशन में एक लेख प्रकाशित हुआ है: ‘ए हिस्ट्री ऑफ शुगर – दी फूड देट नोबडी नीड्स, बट एव्रीवन क्रेव्स फॉर’ (शकर का इतिहास – ऐसा खाद्य जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं है, लेकिन हर कोई तरसता है)। इस लेख में बताया गया है कि किस तरह शकर का उत्पादन मध्य पूर्व में, और औपनिवेशिक काल के दौरान गुलामों द्वारा वेस्ट इंडीज़ में, और ब्राज़ील में किया जाता था। ब्राज़ील और कैरेबियाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर गन्ना बागानों में काम करने के लिए श्रमिकों की भारी मांग थी। यह मांग अटलांटिक-पार गुलाम व्यापार से पूरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप 1501 से 1867 के बीच लगभग 1,25,70,000 लोगों को अफ्रीका से अमेरिका महाद्वीप भेजा गया। प्रत्येक यात्रा में लोगों की मृत्यु दर संभवत: 25 प्रतिशत तक थी, और इसमें 10 लाख से 20 लाख लाशों को समुद्र में फेंका गया था। सौभाग्य से, अब दास व्यापार समाप्त हो गया है। ब्राज़ील और भारत शीर्ष शकर उत्पादक बने हुए हैं, और अब वैश्विक शकर उत्पादन में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा चुकंदर से आता है।
भारत में हम सभी गन्ने और उससे बनी दानेदार शकर से परिचित हैं। हमारे यहां गुड़ भी है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। आजकल लोग यह जानना चाहते हैं कि क्या थैलीबंद दानेदार चीनी की अपेक्षा ठेलेवालों द्वारा बेचा जाने वाला ताज़ा गन्ने का रस लेना बेहतर है। इसका जवाब है – हां, क्योंकि इसमें थोड़ी मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट और खनिज होते हैं जो चीनी बनाते समय नष्ट हो जाते हैं। गुड़ को अक्सर अन्य तरह की शकर की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक बताया जाता है, क्योंकि इसमें एंटीऑक्सिडेंट, विटामिन और खनिज होते हैं।
स्वास्थ्य जोखिम
वैसे हम सभी जानते हैं कि किसी भी प्रकार की शकर का बहुत अधिक सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे मधुमेह हो सकता है, जिसमें शकर का अधिक सेवन रक्तप्रवाह में इंसुलिन स्रवण को शुरू करवाता है जिससे दृष्टि की दिक्कतें, और हृदय और किडनी सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं। यही कारण है कि डॉक्टर बहुत अधिक मीठा न खाने का सुझाव देते हैं। टाइप-1 डायबिटीज़ के रोगियों को इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है, जबकि टाइप-2 डायबिटीज़ रोगियों को रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर सावधानीपूर्वक नियंत्रित रखना पड़ता है, और शकर के विकल्प (स्टीवियोल ग्लायकोसाइड या सुक्रेलोज़ वगैरह) लेना पड़ता है। हाल ही में जीन क्लीनिक नामक कंपनी ने एक ऐसा उपकरण पेश किया है जो बांह या पेट पर एक पट्टी की तरह चिपक जाता है। हमेशा पहनने योग्य यह उपकरण आपको रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर बताता है, और ज़रूरत पड़ने पर यह भी बताता है कि कब आपको अपने डॉक्टर से परामर्श लेना है।
इन सबके मद्देनज़र शकर का सेवन कम करना सबसे अच्छा है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है।(स्रोत फीचर्स)
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मलेरिया आज भी एक बड़ी वैश्विक स्वास्थ्य चुनौती है। इससे हर वर्ष पांच लाख से अधिक मौतें होती हैं जिसमें अधिकांश 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे होते हैं। मच्छरों में कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो जाता है और टीकाकरण आंशिक सुरक्षा ही प्रदान करता है। इनके चलते नियंत्रण के प्रयास विफल रहे हैं। अब, वैज्ञानिकों ने मलेरिया की रोकथाम के लिए एक नया तरीका खोज निकाला है। यदि मच्छरों को एक कुदरती बैक्टीरिया खिलाया जाए तो उनकी आंतों में मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम) के विकास को रोका जा सकता है।
वैज्ञानिकों ने पहले भी मच्छर जनित बीमारियों से निपटने के लिए रोगाणुओं की क्षमता पर प्रयोग किए हैं। इस दौरान वोल्बाचिया पिपिएंटिस बैक्टीरिया ने डेंगू बुखार के विरुद्ध सकारात्मक परिणाम दिए हैं। मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम को रोकने के लिए अक्सर आनुवंशिक रूप से संशोधित बैक्टीरिया पर काम हुआ है। लेकिन नियामक अनुमोदन की अड़चनें और पारिस्थितिक प्रभाव इस प्रकार के संशोधन के मार्ग में बाधा बन जाते हैं।
हाल ही में साइंस में प्रकाशित अध्ययन ने आशाजनक विकल्प प्रस्तुत किया है। शोधकर्ताओं को संयोगवश एक प्राकृतिक बैक्टीरिया डेल्फ्टिया सुरुहेटेंसिस टीसी1 का पता चला जो मच्छरों में मलेरिया परजीवी के विकास को रोकता है। गौरतलब है कि इस बैक्टीरिया का प्रभाव जेनेटिक परिवर्तन के बिना होता है। मच्छरों की आंत में उपस्थित डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरिया प्लाज़्मोडियम का विकास रोकता है और इसके अंडों की संख्या को 75 प्रतिशत तक कम कर देता है। इसका परीक्षण करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरियम संक्रमित मच्छरों के दंश से ग्रस्त चूहों में सिर्फ तिहाई ही मलेरिया से पीड़ित हुए जबकि सामान्य मच्छरों द्वारा काटे गए सभी चूहे मलेरिया से संक्रमित हुए।
चूंकि यह बैक्टीरिया मच्छर या उसकी संतानों के जीवित रहने पर प्रभाव नहीं डालता इसलिए मच्छरों में इसके खिलाफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना कम है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि यह बैक्टीरिया हारमैन नामक एक अणु भी मुक्त करता है। यह अणु पौधों में भी पाया जाता है जिसका उपयोग कहीं-कहीं परंपरागत चिकित्सा में होता है। यह अणु प्लाज़्मोडियम की विकास प्रक्रिया को रोकता है।
मच्छरों के शरीर में हारमैन किसी सतह से भी आ सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि हारमैन का उपयोग मच्छरों में प्लाज़्मोडियम का विकास रोकने में किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने बुर्किना फासो में इसका परीक्षण भी किया। उन्होंने पहले तो मच्छरों को डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 खाने पर मजबूर किया। इन मच्छरों ने संक्रमित व्यक्तियों का खून पीया तो इनके शरीर में परजीवी का विकास प्रभावी ढंग से अवरुद्ध हो गया।
शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण बात यह बताई है कि यह बैक्टीरिया एक से दूसरे मच्छर में नहीं पहुंचता जो एक अच्छी बात है। संभवत: जल्द ही हमारे पास बैक्टीरिया के चूर्ण या हारमैन के रूप में कोई मलेरिया-रोधी उत्पाद होगा। (स्रोत फीचर्स)
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वैकासिक चिकित्सा के क्षेत्र में अपेक्षा यह है कि अधिकांश गतिविधि जिज्ञासा-प्रेरित पहेली सुलझाने पर आधारित अनुसंधान से जुड़ी होंगी और सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि नए निष्कर्ष कितने सुंदर और तार्किक हैं और कैसे वे अब तक असम्बंधित दिखने वाली परिघटनाओं को संतोषजनक ढंग से आपस में जोड़ते हैं। विज्ञान के फलने-फूलने के लिए यही तो चाहिए। आइए अब कुछ हालिया उदाहरणों पर गौर करते हैं।
रोगनुमा मोटापा: वैकासिक उत्पत्ति
मैरी जेन एक अत्यंत प्रतिष्ठित वैकासिक जीव विज्ञानी हैं। उनकी पुस्तक डेवलपमेंटल प्लास्टिसिटी एंड इवोल्यूशन (Developmental Plasticity and Evolution, 2003) ने उन्हें वैकासिक जीव विज्ञान में एक प्रमुख समकालीन विचारक के रूप में स्थापित कर दिया है। खुशी की बात है कि ऐसे लेखक ने अब अपना ध्यान वैकासिक चिकित्सा की समस्या पर लगाया है।
वर्ष 2019 में PNAS के एक परिप्रेक्ष्य आलेख – ‘न्यूट्रिशन, दी विसरल इम्यून सिस्टम, एंड दी इवोल्यूशनरी ओरिजिन्स ऑफ पैथोजेनिक ओबेसिटी’ – में मैरी जेन ने एक नवीन परिकल्पना प्रस्तावित की थी: ‘VAT prioritisation’। उनका मुख्य सुझाव यह था कि आमाशयी वसा और त्वचा के नीचे जमा वसा के बीच भेद किया जाना चाहिए। इन्हें एक ही श्रेणि में रखना ठीक नहीं है जैसा कि बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) के संदर्भ में किया जाता है। बीएमआई का मतलब होता है आपका कुल वज़न बटा मीटर में कद का वर्ग।
बीएमआई अति वज़न और मोटापे की स्थिति का विवऱण देने या उनका निदान करने के लिए पर्याप्त नहीं होता और न ही उनसे सम्बंधित तमाम रोगों (जैसे टाइप-2 डायबिटीज़ या रक्त संचार सम्बंधी रोग) को समझने में मददगार होता है। इसका कारण यह है कि आमाशयी वसा, जिसे तकनीकी भाषा में विसरल एडिपोज़ टिश्यू (VAT) कहते हैं, और त्वचा के नीचे जमा वसा, जिसे सबक्यूटेनियस एडिपोज़ टिश्यू (SAT) कहते हैं, इन दोनों के कार्य अलग-अलग हैं और ये पर्यावरणीय कारकों के प्रति अलग-अलग ढंग से प्रत्युत्तर देते हैं। स्वास्थ्य, सामाजिक व वैकासिक संदर्भ में इनके परिणाम भी अलग-अलग होते हैं।
लिहाज़ा, मैरी जेन का कहना है कि “इन मुख्य संरचनाओं के जैविक कार्यों को समझे बगैर, मोटापे की बीमारी का विश्लेषण करना ऐसा है जैसे हृदय के जैविक कार्य को समझे बगैर रक्त संचार सम्बंधी रोगों को समझने की कोशिश।”
VAT के प्रमुख प्रतिरक्षा सम्बंधी कार्य हैं जिनमें प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू करने के लिए ज़रूरी कुछ वसा अम्लों का भंडारण करना और ऐसे संकेतों का प्रत्युत्तर देना जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की ज़रूरत दर्शाते हैं। लिहाज़ा, VAT आमाशयी संक्रमणों से निपटने में निर्णायक भूमिका निभाता है। दूसरी ओर, SAT संक्रमणों से निपटने में महत्वपूर्ण नहीं होता और उसके अन्य कार्य होते हैं जैसा कि हम आगे देखेंगे।
VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना कहती है कि जब भ्रूण को कम पोषण मिले तो उसे SAT के मुकाबले VAT में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि जन्म के समय बच्चे का वज़न कम होगा, जो संक्रमण के उच्च जोखिम से जुड़ा देखा गया है।
लेकिन कभी-कभी अभावग्रस्त भ्रूणीय पर्यावरण के आधार पर अभावग्रस्त वयस्क पर्यावरण की भविष्यवाणी असफल रहती है (जैसा तब होता है जब कम वज़न वाले बच्चे को बढ़िया भोजन मिलने लगता है) तो एक दिक्कत होती है, एक नए किस्म का असामंजस्य प्रकट होता है। अतिरिक्त व अनावश्यक आमाशयी वसा जमा होने लगती है, जिसका परिणाम मोटापे के रूप में सामने आता है, जिसका सम्बंध डायबिटीज़ और रक्तसंचार सम्बंधी रोगों से देखा गया है।
आमाशयी वसा के अतिरेक की समस्या तब और विकट हो जाती है जब वयस्कों को वसा व शकर से भरपूर भोजन मिलने लगता है। ऐसा भोजन शरीर को सूजननुमा (शोथनुमा) प्रतिक्रिया शुरू करने को उकसाता है। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अतिरिक्त वसा व शकर आंतों के बैक्टीरिया को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण संभवत: विसरल रोगजनकों के लिए पारगम्यता और बढ़ जाती है।
शरीर के विभिन्न कार्यिकीय घटकों की जटिल परस्पर क्रियाओं की जानकारी के बगैर चिकित्सकीय हस्तक्षेपों को लेकर सचेत हो जाना चाहिए।
मुझे खास तौर से मैरी जेन द्वारा उद्धरित एक शोध पत्र ने प्रभावित किया था जिसमें नीना मोदी और इम्पीरियल कॉलेज लंदन और किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल, पुणे के उनके साथियों ने भारतीय व युरोपीय शिशुओं की तुलना की थी। इसमें कहा गया था, “वयस्क एशियाई भारतीय फीनोटाइप में कमतर बॉडी मास इंडेक्स के बावजूद कमर वाले हिस्से में मोटापा पाया जाता है।”
उनका निष्कर्ष गौरतलब है। युरोपीय शिशुओं की तुलना में एशियाई भारतीय नवजातों में VAT वसा-संग्रह कहीं ज़्यादा था, जबकि पूरे शरीर के स्तर पर वसा संग्रह लगभग बराबर था। उनका निष्कर्ष था कि “वसा ऊतकों का विभाजन जन्म के समय ही अस्तित्व में होता है” और उन्होंने सलाह दी थी कि “खोजबीन, स्क्रीनिंग तथा रोकथाम के उपायों में मां के स्वास्थ्य, गर्भाशय में रहने की अवधि और शैशवावस्था को शामिल किया जाना चाहिए।”
SAT के ऊपर VAT को प्राथमिकता देना शरीर का एक उपयोगी प्रत्युत्तर हो सकता है – लेकिन गर्भावस्था के दौरान घटिया पोषण की भरपाई ज़्यादा वसा और शकर युक्त आहार देकर करना शायद मामले को और बिगाड़ सकता है। कहने का मतलब यह है कि जीवन में खराब परिस्थितियों के कारण हुए असर को किसी अन्य समय पर परिस्थिति में सुधार करके संभाला नहीं जा सकता। दरअसल, यह बात को बिगाड़ सकता है।
यह एक बार फिर दर्शाता है कि चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल में शरीर की उन क्रियाविधियों का ध्यान रखना होगा, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए विकसित हुई हैं। कोशिश इन प्रक्रियाओं को सुदृढ़ बनाने की होनी चाहिए, न कि उनको अनदेखा करके कुछ एकदम नया करने की।
दूसरी ओर, SAT का अतिरेक स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इसीलिए अधिक SAT वाले लोगों पर ‘चयापचयी रूप से स्वस्थ मोटा’ का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना का एक प्रमुख तत्व यह है कि VAT-SAT संतुलन फीनोटायपिक लचीलेपन से आकार पाता है – कहने का मतलब कि एक ही जीन समुच्चय पर्यावरण के अनुसार अलग-अलग प्रकट रूपों को जन्म दे सकता है: यदि परिस्थितियां खराब हों तो VAT ज़्यादा और यदि बाहर सब कुछ ठीक-ठाक लगे तो SAT ज़्यादा। तो आखिर ज़्यादा SAT क्यों अच्छा है?
विविध साहित्य के आधार पर, मैरी जेन का तर्क है कि SAT व्यक्ति को स्तनों और कूल्हों जैसे क्षेत्रों में वसा संग्रह की अनुमति देता है, जिनसे शरीर का शेप तथा सौंदर्य व उर्वरता के अन्य लक्षण परिलक्षित होते हैं और यौन व सामाजिक आकर्षण के ज़रिए प्रजनन में सफलता मिलती है। यौन व सामाजिक आकर्षण ऐसी परिघटना है जिसका मैरी जेन पहले काफी विस्तार में अध्ययन कर चुकी हैं और ये प्राकृतिक वरण की विविधताएं हैं जहां व्यक्ति प्रजनन या सामाजिक सहयोग के लिए साथी के रूप में वरीयता पाकर वैकासिक सफलता हासिल करता है।
कुल मिलाकर मैरी जेन का निष्कर्ष था कि “VAT–SAT संतुलन को वैकासिक दृष्टि से देखा जा सकता है जिसमें VAT की प्रतिरक्षा भूमिका और SAT की सामाजिक भूमिका (शरीर को आकार देना) के बीच लेन-देन होता है।”
निसंदेह इन विचारों को संभावित परिकल्पना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिनकी आगे जांच करना उपयोगी होगा। कोई परिकल्पना जितने विविध व सहजबोध विरुद्ध अवलोकनों को जोड़ सके वह उतनी ही आकर्षक होनी चाहिए।
अलबत्ता, परिकल्पना के उच्चतर आकर्षण का मतलब ज़रूरी नहीं कि वह सही हो, लेकिन इतना तो है कि ऐसी परिकल्पना को परीक्षण में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
टाइप-2 डायबिटीज़ पर पुनर्विचार
मेरे मित्र व सहकर्मी मिलिंद वाटवे ने पिछले दो दशक टाइप-2 डायबिटीज़ के बारे में हमारी समझ को चुनौती देते व्यतीत किए हैं और एक संभव नया मान्यता-आधार सुझाने की कोशिश की है। एक पुस्तक डव्स, डिप्लोमैट्स एंड डायबिटीज़ में वाटवे पहले तो टाइप-2 डायबिटीज़ की हमारी पारंपरिक समझ का सार प्रस्तुत करते हैं:
1. मोटापा धनात्मक ऊर्जा संतुलन का परिणाम है – यानी हम जितना जलाते हैं, उससे ज़्यादा खाते हैं।
2. मोटापा इंसुलिन प्रतिरोध का प्रमुख कारण है।
3. इंसुलिन प्रतिरोध से निपटने के लिए शरीर ज़्यादा इंसुलिन बनाने लगता है।
4. इंसुलिन निर्माण की क्षमता में क्रमिक गिरावट और इंसुलिन प्रतिरोध का विकास मिलकर रक्त शर्करा में वृद्धि का कारण बनते हैं।
5. बढ़ी हुई रक्त शर्करा डायबिटीज़ के रोग परिणामों के लिए उत्तरदायी होती है।
दूसरे भाग में तमाम शोध साहित्य की मदद से वे इनमें से प्रत्येक वक्तव्य पर सवाल खड़े करते हैं:
1. धनात्मक ऊर्जा संतुलन का कारण अस्पष्ट है; क्या यह इसलिए होता है कि हम ज़्यादा खाते हैं या कमजलाते हैं? यदि हम नहीं जानते कि कौन-सी बात सही है, तो धनात्मक ऊर्जा संतुलन का विचार उपयोगी नहीं रह जाता। दूसरे शब्दों में, हम आजकल के मोटापे के कारणों को नहीं समझते।
2. मोटापा और इंसुलिन प्रतिरोध में सह-सम्बंध तो है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन-सा कारण है और कौन-सा उसका परिणाम। यदि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध मान लिया जाए, तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि मोटापा किस क्रियाविधि से इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता है।
3. यह भी सही है कि इंसुलिन प्रतिरोध और इंसुलिन के उत्पादन के बीच सह-सम्बंध है लेकिन यहां भी कार्य-कारण सम्बंध अस्पष्ट है। यदि ऐसा हो कि इंसुलिन का अति-उत्पादन इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता हो, तो कहानी पलट जाएगी और खुराक व मोटापे की भूमिकाओं पर सवाल खड़े हो जाएंगे।
4. शोध-साहित्य में सारे प्रमाण संकेत देते हैं कि इंसुलिन की कमी और इंसुलिन प्रतिरोध, दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये रक्त शर्करा में वृद्धि पैदा करने के लिए न तो आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त।
5. उच्च रक्त शर्करा और डायबिटीज़ के रोगनुमा प्रभावों के बीच प्रस्तावित कड़ी सबसे कमज़ोर है और इसके चलते पूरा मामला प्रमाणित तथ्य की बजाय एक विश्वास ज़्यादा लगता है।
प्रचलित मान्यता-आधार से असंतुष्ट होकर, वाटवे ने एक नया मान्यता-आधार प्रस्तुत करने की कोशिश की। संक्षेप में, वाटवे का नया मान्यता-आधार यह है कि हमारी व्यवहारगत रणनीतियां स्वास्थ्य और बीमारी, खास तौर से चयापचय-सम्बंधी बीमारियों, के संदर्भ में महत्वपूर्ण तत्व हैं।
व्यापक शोध साहित्य के आधार पर वाटवे ने अपनी परिकल्पना और वर्तमान मान्यता-आधार का अंतर संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया था:
“क्लासिकल सिद्धांत की दलील है कि सुस्त जीवन शैली मोटापे को जन्म देती है, मोटापा इंसुलिन-प्रतिरोध पैदा करता है। [मेरी] नई परिकल्पना कहती है कि शारीरिक गतिविधियां और खास तौर से आक्रामक गतिविधियां, मोटापे से स्वतंत्र, अपने-आप में इंसुलिन के प्रति संवेदनशील बनाती हैं…।”
अर्थात, वाटवे द्वारा प्रस्तावित कार्य-कारण दिशा ‘जीवन शैली से इंसुलिन प्रतिरोध से मोटापे’ की ओर जाती है, न कि पूर्व में बताई गई ‘जीवन शैली से मोटापा से इंसुलिन प्रतिरोध’ की ओर। ज़ाहिर है कि यह प्रस्तावित नया कार्य-कारण सम्बंध बहुत अलग किस्म के नीतिगत नुस्खे का रास्ता खोलता है।
वाटवे ने दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (पुणे) में हाल ही में स्थापित बिहेवियोरल इंटरवेंशन फॉर लाइफस्टाइल डिस-ऑर्डर्स (BILD) में चिकित्सकों के साथ काम शुरू भी कर दिया है। एक हालिया प्रकाशन में उन्होंने और उनके साथियों ने दर्शाया है कि “कामकाजी फिटनेस के एक बहुआयामी स्कोर का टाइप-2 डायबिटीज़ के साथ ज़्यादा सशक्त सह-सम्बंध है बनिस्बत मोटापे के।”
अलबत्ता, मान्यता-आधारों को बदलना बहुत मुश्किल काम है। एक हालिया ईमेल में वाटवे ने मुझे बताया था:
“मैं डायबिटीज़ के सम्बंध में शोध कार्य प्रकाशित करता रहा हूं (अब तक 20 शोध पत्र और 2 पुस्तकें)। लेकिन मैं डायबिटीज़ अनुसंधान समुदाय की प्रतिक्रिया से हैरान हूं। किसी ने विरोध में तर्क नहीं दिए, जो कुछ मैं कह रहा हूं, किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाए और संदेह व्यक्त नहीं किए। मैंने हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जोसलिन डायबिटीज़ सेंटर जैसी जगहों पर व्याख्यान दिए। लोगों ने मुझे रुचिपूर्वक सुना और व्यक्ति की हैसियत से सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन विज्ञान के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। प्रचलित मान्यता-आधार में कोई परिवर्तन नहीं दिखा जबकि अनगिनत प्रयोग उसका खंडन कर रहे हैं। मेरे शोध पत्रों को बहुत कम उद्धरित किया जाता है। चिकित्सकीय कामकाज में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।”
वाटवे के साथ न्याय करते हुए, कहना होगा कि उनके दावे और अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं हैं। अपनी पुस्तक का समापन करते हुए उन्होंने लिखा है कि हो सकता है कि वे गलत हों और उन्हें खुशी होगी कि कोई उनकी गलतियां बताए या उनकी भविष्यवाणियों को परखने के लिए प्रयोग करे।
वैकासिक सोच, डॉक्टर और मरीज़
बदकिस्मती से, वैकासिक जीव विज्ञान में वैकासिक चिकित्सा के विचार से प्रेरित गतिविधियों का अंबार अपने आप चिकित्सा के कामकाज में, डॉक्टरों के पेशेवर जीवन में या मरीज़ों के अनुभव में कोई ठोस परिवर्तन नहीं लाएगा।
नए अनुसंधान का डॉक्टरों व मरीज़ों पर कोई असर हो, इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान का उतना ही लाभदायक असर चिकित्सा विज्ञान तथा चिकित्सकीय कामकाज पर हो। यह तभी होगा जब डॉक्टर और चिकित्सा शोधकर्ता वैकासिक जीव विज्ञान को मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार करें।
इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान चिकित्सा शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बने ताकि चिकित्सा शोधकर्ता और चिकित्सक स्वयं चिकित्सा का एक जैव विकास प्रेरित अजेंडा विकसित कर सकें। यहां जॉर्ज विलियम्स और रैडॉल्फ नेसे की वह टिप्पणी दोहराना मुनासिब है जो उन्होंने अपने महत्वपूर्ण शोध पत्र दी डॉन ऑफ डार्विनियन मेडिसिन (1991) में व्यक्त की थी:
“चिकित्सा सम्बंधी समस्याओं में जैव विकास के सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा व्यवसायी डार्विन से उसी तरह प्रेरित हों, जिस तरह से वे पाश्चर से हुए हैं, तो प्रगति और भी तेज़ होगी।”
जैव विकास और चिकित्सा पाठ्यक्रम
चिकित्सा विद्यालयों को यह समझाने के काफी प्रयास किए गए हैं कि वे चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में वैकासिक जीव विज्ञान को शामिल करें लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली है। रैडॉल्फ नेसे ने एक हालिया ईमेल में मुझे बताया था:
“कोई चिकित्सा विद्यालय यह विषय नहीं पढ़ाता, हालांकि एक व्याख्यान होता है। क्यों नहीं पढ़ाता? एक वास्तविक तहकीकात ज़रूरी है लेकिन मुख्य बात यह है कि डॉक्टर्स वैकासिक जीव विज्ञान जानते ही नहीं, और चिकित्सा विद्यालयों की फैकल्टी में कोई वैकासिक जीव वैज्ञानिक नहीं होता…और चिकित्सा एक ऐसा व्यवसाय है जो सिर्फ ठीक करने (फिक्सिंग) पर ध्यान देता है और मात्र उस समझ को बढ़ावा देता है जो ठीक करने में या स्थापित चिकित्सा वैज्ञानिकों के कैरियर में मदद करे…। PNAS में मेरे आलेख (कि क्यों चिकित्सा पाठ्यक्रम में जैव विकास ज़रूरी है) में हारवर्ड और येल विश्वविद्यालय के डीन्स सहलेखक थे किंतु उसका लगभग कोई असर नहीं हुआ।”
पाठ्यक्रम सुधार प्राय: विभिन्न विषयों के संरक्षकों के बीच दंगल-सा होता है। जैव विकास के मामले में एक अतिरिक्त समस्या है – जैव विकास को लेकर धार्मिक आपत्तियां और कतिपय समाजों में हित-सम्बंधी समूहों के तुष्टिकरण की राजनैतिक मजबूरी। डॉक्टरों और चिकित्सा विज्ञान शोधकर्ताओं को वैकासिक सोच आत्मसात करवाना पाठ्यक्रम सुधार के बिना संभव नहीं है। लेकिन यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रगति बहुत कम हुई है और भविष्य भी बहुत आशाजनक नहीं लगता।
इस बात की तत्काल ज़रूरत है कि शिक्षाविद और प्रशासक इस बाधा को पार करने के उपाय निकालें, क्योंकि दांव पर काफी कुछ लगा है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg
पिछले लेख में हमने वैकासिक चिकित्सा नामक एक नए विषय-क्षेत्र के प्रादुर्भाव की चर्चा की थी। अब इस पनपते विषय की वर्तमान हालत का जायज़ा लेंगे।
वर्तमान में वैकासिक चिकित्सा
तीन विद्वानों (पक्षी वैज्ञानिक पौल एवाल्ड, मनोचिकित्सक रैडोल्फ नेसे, और समुद्री जीव विज्ञानी जॉर्ज विलियम्स) के शुरुआती प्रयासों के बाद वैकासिक चिकित्सा ने लंबा सफर तय किया है। आज इस विषय में हज़ारों शोध पत्र हैं, दर्जनों मोनोग्राफ्स और पाठ्य पुस्तकें हैं, एक जर्नल है (इवोल्यूशन, मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ), एक इंटरनेशनल सोसायटी फॉर इवोल्यूशन, मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ और वर्चुअल इवोल्यूशनरी मेडिसिन कंवर्सेशन के लिए एक क्लब है। यहां तक कि एक नया विषय वैकासिक मनोचिकित्सा भी अस्तित्व में आ चुका है। इस प्रगति में येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीफन सी. स्टर्न्स का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिन्होंने इस नए विकसित होते विषय में गहरी रुचि दिखाई।
स्टर्न्स खास तौर से ‘जीवन चक्र के उद्विकास’ विषय से जुड़े थे। जीवन चक्र के विकास के अंतर्गत ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि जीव बूढ़े क्यों होते हैं और मरते क्यों हैं, वे कैसे तय करते हैं कि कितनी संतानें पैदा करें, किस साइज़ की और अपने जीवन के किस समय, और कैसे जीनोटाइप का वही सेट अलग-अलग पर्यावरण में अलग-अलग फीनोटाइप को जन्म देता है।
स्टर्न्स ने अटकलों और कुछ दावों के समर्थन में प्रायोगिक जानकारी के अभाव की दिक्कत को सुलझाने के लिए – 1999 से पहले ही – एक संपादित ग्रंथ तैयार कर लिया था – इवोल्यूशन इन हेल्थ एंड डिसीज़(Evolution in Health and Disease)। इसमें विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा लिखे गए उच्च स्तर के 24 अध्याय थे।
अंतत: स्टर्न्स ने येल विश्वविद्यालय के अपने सहकर्मी रुसलन मेडज़ितोव (प्रतिरक्षा विज्ञान के प्रोफेसर) के साथ टीम बनाकर इवोल्यूशनरी मेडिसिन (Evolutionary Medicine, 2018) लिखी। स्टर्न्स और मेडज़ितोव ने वैकासिक चिकित्सा को एक मज़बूत सैद्धांतिक आधार दिया और इस विषय के कई दावों के प्रायोगिक प्रमाण प्रस्तुत किए।
मुझे यह बात बहुत प्रभावशाली लगी कि उन्होंने अपनी काफी सारी अवधारणाएं और आंकड़े ऐसे विषयों से हासिल किए थे जो पारंपरिक रूप से वैकासिक चिकित्सा से सम्बंधित नही हैं।
चिकित्सकीय परिणामों वाली प्राचीन वैकासिक घटनाएं
स्टर्न्स और मेडज़ितोव की इस पुस्तक में एक खंड है “प्राचीन इतिहास जिनके चिकित्सकीय परिणाम हुए हैं”। आशय सचमुच ‘प्राचीन’ से है; वे 3 अरब से लेकर 20-30 लाख वर्षों पूर्व जीवन के इतिहास में घटी पांच घटनाओं का उल्लेख करते हैं।
असममिति (asymmetry) की उत्पत्ति – 3 अरब वर्ष पहले एक-कोशिकीय जीवों में असममित विभाजन होने लगा था – विभाजन के बाद एक पुत्री कोशिका को मातृ कोशिका की पूरी सामग्री मिलती जबकि दूसरी कोशिका को नए सिरे से संश्लेषित सामग्री। इस पड़ाव पर, अपरिहार्य रूप से प्राकृतिक वरण का प्रवेश हुआ और उसने नवीन पुत्री कोशिका, जिसमें प्रजनन की बेहतर क्षमता थी, में सुधार शुरू कर दिए और कमतर प्रजनन क्षमता वाली ‘पुरानी’ कोशिका की उपेक्षा की।
लिहाज़ा, ‘पुरानी’ पुत्री कोशिका में हो रहे हानिकारक उत्परिवर्तनों पर वरण की सख्ती नहीं हुई और वे एकत्रित होते रहे और वह कोशिका बुढ़ाने लगी और अंतत: मारी गई। दूसरी ओर, ‘नवीन’ पुत्री कोशिका में होने वाले हानिकारक उत्परिवर्तनों को ज़्यादा कुशलता से हटाया गया और वह कोशिका स्वस्थ व युवा बनी रही। बुढ़ाने की उत्पत्ति कुछ इसी तरह हुई है जो, डॉक्टर तो डॉक्टर, हमें भी परेशान करता है।
मुझे यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि (1) असममित कोशिका विभाजन का यह विचार जर्मन जीव विज्ञानी ऑगस्ट वाइसमैन (1834-1914) पहले ही 1882 में सुझा चुके थे लेकिन इसे भुला दिया गया था और हाल ही में पुन: खोजा गया है; और (2) कोशिका विभाजन में ऐसी असममिति को प्रयोगशाला में ई. कोली नामक बैक्टीरिया की आबादी में भी देखा जा सकता है – दो पुत्री कोशिकाएं बनावट की दृष्टि से असममित होती हैं, हालांकि सामग्री की दृष्टि से नहीं।
यह काफी रोमांचक बात है और इससे असममित कोशिका विभाजन की जेनेटिक व आणविक क्रियाविधि को समझने में मदद मिल सकती है।
स्टेम कोशिकाओं का आविष्कार – करीब 1-2 अरब साल पहले बहुकोशिकीय जीवों ने तथाकथित स्टेम कोशिकाओं को अलग सहेजना शुरू कर दिया जिनमें बहुसक्षमता बरकरार होती थीं। इसलिए ये कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हिस्सों की मरम्मत कर सकती थी। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकांश कैंसर स्टेम कोशिकाओं में ही जन्म लेते हैं। तो आज लगता है कि स्टेम कोशिकाओं के नवाचार ने कैंसर विकास की ज़मीन तैयार कर दी थी।
स्टर्न्स और मेडज़ितोव बताते हैं कि बहुकोशिकत्व का विकास बहुकोशिकीय जीवों की कोशिकाओं के बीच एक समझौता है, जहां कायिक कोशिकाएं तब संख्यावृद्धि बंद कर देंगी जब वे ज़रूरी ऊतकों और अंगों का निर्माण कर देंगी; जनन कोशिकाएं कायिक कोशिकाओं के जीन्स की एक प्रतिलिपि को अगली पीढ़ी में पहुंचाएंगी। और, स्टेम कोशिकाएं संख्यावृद्धि की क्षमता बरकरार रखेंगी ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे क्षतिग्रस्त ऊतकों व अंगों की मरम्मत कर सकें।
लेकिन ‘कैंसर इस समझौते का उल्लंघन करता है।’ स्टेम कोशिकाएं बहुसक्षम होती हैं, और उनमें, मरम्मत के लिए ज़रूरी होने पर, संख्यावृद्धि करने तथा किसी भी किस्म की कोशिकाएं में विभेदित होने की क्षमता होती है; लेकिन वे इस क्षमता का दुरुपयोग करने लगती हैं।
कशेरुकी अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र की उत्पत्ति – 50 करोड़ साल पहले एक क्रांतिकारी घटना घटी थी। हुआ यह था कि एक ट्रांसपोज़ेबल घटक (डीएनए के ऐसे अंश जो जीनोम में एक स्थान से दूसरे स्थान पर छलांग लगा सकते हैं) जिसमें दो जीन्स थे, मछली जैसे किसी पूर्वज में इम्यूनोग्लोबुलिन के एक जीन में जुड़ गया। संभवत: इसने ही कशेरुकी जीवों के अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र को अत्यंत विविध एंटीबॉडीज़ बनाने की क्षमता प्रदान की है। ये एंटीबॉडीज़ बाहर से आए एंटीजन को पहचानकर उनका सफाया कर सकती हैं।
इन दो जीन्स को RAG1 तथा RAG2 कहते हैं (रिकॉम्बीनेशन एक्टिवेटिंग जीन्स)। बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले कुछ वायरस (जैसे mu) स्वयं ट्रांसपोज़ेबल तत्व (तथाकथित फुदकते जीन्स)) हैं। इन ट्रांसपोज़ेबल तत्व की खोज के लिए बारबरा मैक्लिंटॉक को 1983 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
हमारे प्रतिरक्षा तंत्र में लगभग अनगिनत एंटीबॉडीज़ बनाने की जो क्षमता है – उन सारे एंटीजन्स के लिए जिनकी आप कल्पना कर सकते हैं – और अतीत के संक्रमणों की स्मृति रखने की जो क्षमता है, वह भी ताश के समान डीएनए को फेंटने की क्षमता पर ही टिकी है। इसे कायिक (सोमेटिक) रीकॉम्बिनेशन कहते हैं। एक व्याख्यान में स्टर्न्स ने बताया था कि यह विचित्र बात है कि हमारे पूर्वजों में हुए वायरस संक्रमण ने ही हमें वायरस से लड़ने की क्षमता प्रदान की है।
माता-संतान के टकराव में एक मध्यस्थ के रूप में आंवल – इसके बाद वे चिकित्सकीय महत्व की एक और ऐतिहासिक घटना की चर्चा करते हैं। यह घटना हमारे विकास के दौर में लगभग डेढ़ करोड़ साल पहले घटी थी। यह खास तौर से चकराने वाली है क्योंकि यह स्तनधारी आंवल का सम्बंध कैंसर की संभावना से जोड़ती है। इस तरह की सहजबोध विरुद्ध सूझबूझ वैकासिक सोच के सुखद परिणाम हैं। बदकिस्मती से, जिस घटना की चर्चा की जा रही है वह बहुत खुशनुमा नहीं है क्योंकि यह हमें मेटास्टेटिक (फैलने वाले) कैंसर का जोखिम देती है।
सवाल है कि आंवल और कैंसर के बीच क्या कड़ी हो सकती है। वैकासिक जीव विज्ञानी सोच से उभरा एक और सहजबोध विपरीत विचार यह है कि अभिभावकों और संतान के बीच कुछ टकराव अपरिहार्य है क्योंकि अभिभावक, जो सभी संतानों से बराबर सम्बंधित होते हैं, संसाधनों का आवंटन सभी संतानों में समानता से करेंगे। लेकिन उन संतानों को वरीयता मिलेगी जो अपने अभिभावकों से ज़्यादा की मांग करेंगे।
अभिभावक-संतान टकराव कई रूप ले सकता है। स्तनधारियों में भ्रूण की स्टेम कोशिकाएं आंवल के माध्यम से मां के शरीर में घुसपैठ कर सकती हैं। ये स्टेम कोशिकाएं मां की धमनियों के व्यास में बदलाव कर सकती हैं ताकि भ्रूण को मां की मंशा से ज़्यादा खून मिल पाए।
स्तनधारियों के वैकासिक इतिहास में कई उथल-पुथल देखने को मिलती हैं। शुरुआती वंशों में अत्यंत घुसपैठी आंवल का विकास हुआ है (यानी भ्रूण विजयी हुआ), गाय-घोड़ों जैसे कुछ वंशों में मां द्वारा घुसपैठी आंवल का दमन किया जाता है (मां विजयी), कुत्तों-बिल्लियों में ज़्यादा घुसपैठी आंवल पाई जाती है (भ्रूण विजयी) और अपेक्षाकृत हाल में, लगभग डेढ़ करोड़ वर्ष पूर्व, मनुष्यों, चिम्पैंज़ियों, गोरिल्ला में आंवल का पुनर्विकास ज़्यादा घुसपैठी रूप में हुआ है (भ्रूण विजयी रहा है)।
ज़्यादा घुसपैठी आंवल वाली स्तनधारी प्रजातियों (जिनमें मनुष्य शामिल हैं) में मेटास्टेटिक कैंसर की उच्च दर पाई जाती है। वहीं कम घुसपैठी आंवल वाली प्रजातियों में मेटास्टेटिक कैंसर कम होता है। ऐसा लगता है कि यदि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं मां के शरीर में घुसपैठ करने में कुशल हैं, तो वे खुद अपने शरीर के अन्य हिस्सों में ज़्यादा घुसपैठ कर पाएंगी और मेटास्टेटिक कैंसर को बढ़ावा देंगी। यह एक विचित्र अदला-बदली को जन्म देता है – भ्रूण में ऐसे बदलाव जो भ्रूण के लिए मां के शरीर से ज़्यादा पोषण प्राप्त करने में सहायक हों लेकिन बाद के वयस्क जीवन में कैंसर का खतरा बढ़ाते हों।
दरअसल, मां के साथ अंतर्किया के दौरान भ्रूण जिन कई जीन्स और अंतर-कोशिकीय प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं, वे वही होती हैं जिनका उपयोग कैंसर कोशिकाएं मेटास्टेसिस के दौरान करती हैं। जिन कोशिकीय व आणविक प्रक्रियाओं की मदद से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं घुसपैठ करके मां की कार्यिकी के साथ छेड़छाड़ करती है और घुसपैठी आंवल का दमन करने के लिए मां द्वारा अपनाई गई रणनीतियां, संभवत: मेटास्टेसिस और उसके नियंत्रण की समझ बनाने में मददगार हो सकती हैं।
यह देखना रोचक है कि (उदाहरणार्थ) गायों और घोड़ों में मां की बचाव रणनीतियां भ्रूण के अत्याचार को पलटने में सफल रही हैं और इन्होंने वैकासिक दृष्टि से अधिक टिकाऊ फीनोटाइप को जन्म दिया है जो कम घुसपैठी है।
दोपाया चलन – चिकित्सकीय असर वाली ऐसी प्राचीन वैकासिक घटनाओं में से सबसे हाल की लगभग 20-30 लाख वर्ष पूर्व घटित हुई थी। चिम्पैंज़ियों से अलग होने के बाद मनुष्य के पूर्वज बढ़ते क्रम में सीधे खड़े होकर दो पैरों पर चलने लगे। इसने उन्हें परस्पर सहयोग से बड़े प्राणियों का शिकार करने में मदद दी।
कुशलतापूर्वक दो पैरों पर चल पाने के लिए कूल्हे में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए, जिनके चलते प्रसव की वर्तमान दिक्कतें पैदा हुईं। हमारे बड़े दिमाग के विकास ने इन दिक्कतों को और बढ़ाया – परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क के विकास का काफी बड़ा हिस्सा जन्म के बाद की अवधि के लिए विलंबित करना पड़ा। बहरहाल, प्रसव कठिन प्रक्रिया है और इसके लिए भ्रूण को घूमना पड़ता है और उल्टा होकर प्रसव मार्ग में से गुज़रना होता है। प्रसव के दौरान इन दिक्कतों के चलते बढ़ती मृत्यु दर से निपटने का एकमात्र समाधान यही था कि हम सहयोगी समूहों में जीने की काबिलियत रखते थे और प्रसव के दौरान एक-दूसरे की मदद कर सकते थे।
सहयोगी समूहों में जीवन को बड़े दिमागों ने सुगम बनाया, और, अपने तईं और बड़े दिमागों का मार्ग प्रशस्त किया। इसी से शिकारी-संग्रहकर्ता जीवन शैली संभव हुई जो चलने से जुड़ी है। तो दोपाएपन का एक और परिणाम यह हुआ कि चलना हमारे जीने और स्वास्थ्य के लिए निहायत महत्वपूर्ण हो गया।
सदर्न कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डेविड ए. रायक्लेन और हारवर्ड विश्वविद्यालय के डेनियल ई. लाइबरमैन ने हाल ही में मनुष्यों के चलने के व्यवहार की तहकीकात की है। उन्होंने फिटबिट व अन्य पहनने योग्य उपकरणों की मदद से यह गणना की है कि आधुनिक मनुष्य प्रतिदिन कितने कदम चलते हैं। हमारे पूर्वजों के लिए उन्होंने अन्य तरीकों से उनके द्वारा प्रतिदिन चले गए कदमों का भी अनुमान लगाया है।
गैर-मानव एप पूर्वजों, जैसे ओरांगुटान (1000 से थोड़े कम कदम प्रतिदिन), गोरिल्ला (1000 से थोड़े अधिक कदम प्रतिदिन), चिम्पैंज़ी (लगभग 4000 कदम प्रतिदिन), बोनोबो (लगभग 5000 कदम प्रतिदिन) और छोटे आकार के शिकारी-संग्रहकर्ता समाजों के मनुष्यों (18 से 20 हज़ार कदम प्रतिदिन) की तुलना के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि मानव विकास के दौरान इस बात का काफी चयनात्मक दबाव रहा कि चलने के रूप में शारीरिक गतिविधियां बढ़ाई जाएं ताकि चुस्त-दुरुस्त बने रह सकें।
लिहाज़ा, आधुनिक औद्योगिक समाजों में घटा हुआ चलना (लगभग 5000 कदम प्रतिदिन) चिम्पैंज़ियों और बोनोबो के तुल्य है लेकिन यह हमारे शिकारी संग्रहकर्ता पूर्वजों से बहुत कम है। कम चलना कुछ हद तक टाइप-2 डायबिटीज़ और रक्त-संचार सम्बंधी रोगों में योगदान देता है।
ज़्यादा हाल की चिकित्सकीय असर वाली वैकासिक घटनाएं
अपेक्षाकृत हाल की कुछ वैकासिक घटनाओं के भी उल्लेखनीय चिकित्सकीय प्रभाव रहे हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है हमारा अफ्रीका से बाहर प्रवास (करीब डेढ़ लाख साल पहले) और धरती के अधिकांश हिस्सों पर बस जाना। इस सफर में मानव समुदाय कई बार विभाजित हुए और कई बार फिर से साथ आए। परिणामस्वरूप, जेनेटिक विविधता के वितरण के निहायत जटिल पैटर्न बने।
जेनेटिक विविधता चिकित्सा के लिए विशेष चुनौती पेश करती है क्योंकि इसका मतलब होता है कि एक उपचार सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होगा। जेनेटिक विविधता की चुनौती और बढ़ जाती है क्योंकि मानव जेनेटिक विविधता के सामाजिक व राजनैतिक निहितार्थ होते हैं। एक परिणाम यह होता है कि किसी आबादी के अंदर या आबादियों के बीच जेनेटिक विविधता का अध्ययन करने का विरोध होता है या ऐसे अध्ययन करने में अनिच्छा होती हैं क्योंकि इनके दुरुपयोग का डर होता है। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि अधिकांश जेनेटिक विविधता आबादियों और नस्लों के अंदर होती है, उनके बीच नहीं। यह काफी सुकूनदायक विचार है क्योंकि यह नस्ल-आधारित भेदभाव के जीव वैज्ञानिक आधार की धारणा को झुठलाता है और शायद ऐसे भेदभाव के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करेगा।
लेकिन यह तथ्य कि काफी सारी जेनेटिक विविधता आबादी के अंदर ही होती है, निजीकृत उपचारों के विकास को चुनौतीपूर्ण बना देता है। विभिन्न रोगों (संक्रामक और जीवन शैली से सम्बंधित) के प्रति संवेदनशीलता के मामले में व्यक्ति-व्यक्ति में काफी अंतर हो सकते हैं और इस बात में भी अंतर हो सकते हैं कि उनके शरीर दवाइयों के प्रति कैसा प्रत्युत्तर देंगे।
वैकासिक परिप्रेक्ष्य इस बात को भी रेखांकित करता है कि मानव जीवन चक्र के लक्षणों का स्वास्थ्य व रोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है; जैसे, जन्म के समय वज़न-कद, यौन परिपक्वता की उम्र और वज़न-कद, पोषण व अन्य पर्यावरणीय कारकों के प्रति संवेदनशीलता। और ये बातें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अंतर करती हैं और डॉक्टर का काम मुश्किल बना देती हैं।
वैकासिक चिकित्सा बीमारियों के इलाज में ठोस लाभ देने लगे, उससे भी पहले, यह दर्शा सकती है कि क्यों हमारे वर्तमान चिकित्सकीय हस्तक्षेप अपेक्षा के अनुरूप कारगर नहीं हैं। यदि उनकी प्रभावहीनता कुछ हद तक मरीज़ों के बीच जेनेटिक विविधता की वजह से है, तो चिकित्सा अनुसंधान के लिए बहुत अलग मार्ग का संकेत मिलता है बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई हस्तक्षेप सबके लिए प्रभावी या निष्प्रभावी साबित हो।
वैकासिक चिकित्सा, यानी स्वास्थ्य व बीमारियों के प्रति एक जैव विकास आधारित नज़रिया, जैव विकास के शोधकर्ताओं के लिए एक विस्तृत कार्यक्षेत्र में अनुसंधान की रोमांचक संभावनाएं प्रस्तुत करता है जिसमें नए सवाल, नई समस्याएं और नए मॉडल तंत्र होंगे। दरअसल, वैकासिक जीव विज्ञान परक वैकासिक चिकित्सा का सकारात्मक असर दिखने भी लगा है। इस संदर्भ में शोध पत्रों, पुस्तकों और मोनोग्राफ्स वगैरह में काफी वृद्धि हुई है और आगे भी जारी रहेगी। इसके अलावा विश्वविद्यालयीन विभागों, पाठ्यक्रमों, फैकल्टी, सम्मेलनों, पीएच.डी. आदि में काफी वृद्धि हुई है। अगले लेख में हम कुछ अन्य मुद्दों को समझने में वैकासिक चिकित्सा के अनुभवों पर विचार करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg