हाल ही में वायरल निमोनिया के एक अज्ञात रूप ने चीन के वुडान शहर
में कई दर्जन लोगों को प्रभावित किया है। इससे देश भर में सीवियर एक्यूट
रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के प्रकोप की संभावना
व्यक्त की जा रही है।
यूएस सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, इससे पहले वर्ष 2002 और 2003 में SARS छब्बीस देशों में फैला था जिसने 8000 लोगों में गंभीर फ्लू जैसी बीमारी के
लक्षण पैदा किए थे। इसके कारण लगभग 750 लोगों की मृत्यु भी हुई थी। उस समय इस
प्रकोप की शुरुआत चीन में हुई थी जिसके चलते चीन में 349 और हांगकांग में 299
लोगों की जानें गई थीं।
जब कोई SARS संक्रमित व्यक्ति छींकता या
खांसता है तब संभावना होती है कि वह अपने आसपास के लोगों और चीजों को दूषित कर
देगा।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2004 में चीन को SARS मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं ने इस बीमारी की वापसी के संकेत
दिए हैं।
अभी तक सामने आए 40 मामलों में से 11 मामले गंभीर माने गए हैं। संक्रमित लोगों
में से अधिकतर लोगों की हुआनन सीफूड थोक बाज़ार में दुकान हैं, उनकी दुकानें स्वास्थ्य अधिकारियों ने अगली सूचना तक बंद कर दी हैं। इसके
अलावा हांगकांग,
सिंगापुर और ताइवान के हवाई अड्डों पर भी बुखार से पीड़ित
व्यक्तियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई है।
वैसे अभी तक इस संक्रमण का कारण अज्ञात है, लेकिन
वुडान नगर पालिका के स्वास्थ्य आयोग ने इन्फ्लुएंज़ा, पक्षी-जनित
इन्फ्लुएंज़ा,
एडेनोवायरस संक्रमण और अन्य सामान्य श्वसन रोगों की संभावना
को खारिज कर दिया है। WHO के चीनी प्रतिनिधि के मुताबिक कोरोनावायरस की संभावना की न तो अभी तक कोई
पुष्टि की गई है और न ही इसे खारिज किया गया है।
गौरतलब है कि इस दौरान वुडान पुलिस द्वारा SARS से जुड़ी अपुष्ट खबरें फैलाने के ज़ुर्म में आठ लोगों को
दंडित किया गया है। चाइनीज़ युनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग की प्रोफेसर एमिली चैन
यिंग-येंग का मानना है कि यदि यह वास्तव में SARS है तो उन्हें इससे निपटने का तज़ुर्बा है लेकिन यदि यह कोई
नया वायरस या वायरस की कोई नई किस्म है तो इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
2002 में मृत्यु दर युवाओं में अधिक थी, इसलिए यह देखना भी
आवश्यक है कि इस बार वायरस का अधिक प्रभाव युवाओं पर है या बुज़ुर्गों पर।
2002 की महामारी के विपरीत अब तक व्यक्ति-से-व्यक्ति रोग-प्रसार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, नहीं तो यह संक्रमण एक सामुदायिक प्रकोप के रूप में उभरकर आता। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2020/01/09/science/09CHINA-VIRUS1/09CHINA-VIRUS1-articleLarge.jpg?quality=75&auto=webp&disable=upscale
न्यूयॉर्क टाइम्स के 28 दिसंबर
के अंक में एक आलेख के शीर्षक का भावार्थ कुछ ऐसा था: दीवालियापन के शिकार
एंटीबायोटिक्स – स्वास्थ्य का संकट मंडरा रहा है क्योंकि दवा-प्रतिरोधी कीटाणुओं
के खिलाफ लड़ाई में मुनाफा कम होने की वजह से निवेशक कतरा रहे हैं (Lifelines
at risk as bankruptcies stall antibiotics – a health crisis looms: scant
profits in fighting drug-resistant bugs sours investors)। इसका सम्बंध ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया और फफूंद से है जो अब पारंपरिक
एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हो चले हैं। इनमें स्यूडोमोनास, ई. कोली, क्लेबसिएला, साल्मोनेला
और तपेदिक का बैक्टीरिया शामिल हैं। ऐसे बहु-औषधि प्रतिरोधी (MDR) रोगाणु उभर
रहे हैं। ये प्रति वर्ष दुनिया भर में लगभग 30 लाख लोगों को बीमार करते हैं और
राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि हमने जल्दी ही ऐसे रोगाणुओं से लड़ने के लिए दवाइयां
विकसित न कीं तो 2050 तक इनकी वजह से सालाना 1 करोड़ लोग मौत के शिकार होंगे।
सवाल है कि ये बहु-औषधि
प्रतिरोधी रोगाणु आए कहां से? पेनिसिलीन और उसी जैसे एंटीबायोटिक्स (एरिथ्रोमायमीन, फ्लॉक्सिन) वगैरह का इस्तेमाल 60-70 साल पहले शुरू हुआ था।
तब से हम इनका उपयोग सफलतापूर्वक करते रहे हैं क्योंकि ऐसी कोई भी परंपरागत दवा
करोड़ों रोगाणुओं को मार डालती है। लेकिन फिर भी ऐसे रोगाणुओं की एक छोटी-सी संख्या
बच निकली। उनके जीन्स में कतिपय छोटे-मोटे अंतरों की वजह से उनमें बचाव के कुछ
रास्ते रहे होंगे जिसकी बदौलत उनमें ऐसी क्षमता होती है कि वे दवा को अपनी
कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं करने देते या प्रवेश करने के बाद उसे निकाल बाहर करते
हैं। ऐसे बचे हुए रोगाणु लगातार संख्यावृद्धि करते हैं और महीनों-वर्षों में करोड़ों
की तादाद में इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें से कुछ एकाधिक दवाइयों से बचने का जुगाड़
कर लेते हैं। सारे प्रचलित एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधी ऐसे रोगाणुओं को ही MDR कहते हैं।
ऐसी स्थिति में ज़रूरत इस बात
की है कि वैज्ञानिक और दवा कंपनियां MDR रोगाणुओं के जीव विज्ञान को लेकर बुनियादी
अनुसंधान करें और उनके खिलाफ लड़कर फतह हासिल करने के लिए कारगर दवाइयां विकसित
करें।
किसी नई दवा की खोज/आविष्कार
करके उसे बाज़ार में उपलब्ध कराने में प्राय: दस वर्ष तक का समय लग जाता है। दरअसल,
इसी तरह के अनुसंधान व विकास के प्रयासों के दम पर ही
मधुमेह, गठिया,
रक्त विकार और कैंसर जैसी जीर्ण बीमारियों के खिलाफ दवाइयां
विकसित हुई हैं। और इनमें से हरेक से सम्बंधित अनुसंधान व विकास के काम पर अरबों
डॉलर का निवेश लगता है और कंपनी की अपेक्षा होती है कि उसे हर साल अरबों डॉलर का
मुनाफा मिले। न्यूयॉर्क टाइम्स के उपरोक्त लेख में एंड्रू जैकब कहते हैं कि प्रमुख
दवा कंपनियां MDR रोगाणु सम्बंधी शोध से कतराती रही हैं क्योंकि जीर्ण रोगों
के विपरीत एंटीबायोटिक दवाइयों में अच्छा मुनाफा नहीं है। कारण यह है कि जहां
जीर्ण रोगों की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं, वहीं एंटीबायोटिक तो कुछ दिनों या, बहुत हुआ तो, हफ्तों के लिए दी जाती हैं।
यही स्थिति MDR रोगाणुओं के
संदर्भ में अनुसंधान और विकास कार्य करके उनके खिलाफ दवा विकसित करने के मामले में
भी है। इसके लिए भी लंबी अवधि के प्रयासों और अरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है।
इसी मामले में कुछ निजी कंपनियों ने योगदान दिया है। खुशी की बात है कि इन्हें
अनुसंधान व विकास कार्य के लिए वित्तपोषण कुछ निजी प्रतिष्ठानों और सरकारी रुाोतों
से प्राप्त हो रहा है। उक्त लेख में बताया गया है कि कैसे एकाओजेन नामक
जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी यूएस सरकार के बायोमेडिकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से
एक अरब डॉलर का अनुदान पाने में सफल रही है और उसने 15 साल के अनुसंधान व विकास
कार्य के फलस्वरूप ज़ेमड्री नामक दवा तैयार की है। ज़ेमड्री दरअसल प्लेज़ोमायसिन का
ब्राांड नाम है और यह मूत्र मार्ग के दुष्कर संक्रमण के उपचार में कारगर पाई गई
है। ज़ेमड्री को यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी
मिल चुकी है। बदकिस्मती से, एकाओजेन इस औषधि से ज़्यादा मुनाफा नहीं कमा सकी, जिसके चलते उसके निवेशक खफा हो गए और कंपनी दिवालिया हो गई।
इसी प्रकार से टेट्राफेज़ नामक
कंपनी को एक गैर-मुनाफा संस्था से बड़ा अनुदान मिला था और उसने ज़ेरावा नामक दवा का
विकास किया जो कुछ MDR रोगाणुओं के खिलाफ कारगर है। लेकिन कंपनी को गिरते स्टॉक
मूल्य के चलते स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी और आगे अनुसंधान व विकास कार्य में भी
कटौती करनी पड़ी।
यही हालत एक तीसरी कंपनी
मेंलिंटा थेराप्यूटिक्स की भी हुई। इस कंपनी ने बैक्सडेला नामक औषधि विकसित की थी
जिसे खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा-प्रतिरोधी निमोनिया के लिए मंज़ूरी दे दी थी।
यह बात गौरतलब है कि एकाओजेन
कंपनी को सिप्ला-यूएस ने खरीद लिया था। सिप्ला-यूएस भारतीय लोकहितैषी दवा कंपनी
सिप्ला की यूएस शाखा है। इसके अंतर्गत सारे उपकरण भी खरीदे गए और ज़ेमड्री को बनाने
की टेक्नॉलॉजी तथा उसे बनाने व दुनिया भर में बेचने के अधिकार भी शामिल थे।
सिप्ला का यह कदम अन्य भारतीय
कंपनियों के लिए मिसाल है कि उन्हें भी इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। वे अपने
तर्इं यूएस की अन्य कंपनियों से बातचीत करके उन्हें खरीद सकती हैं या पार्टनर अथवा
मालिक के रूप में रोगाणुओं के खिलाफ दवाइयां बनाने की वह टेक्नॉलॉजी अर्जित कर
सकती हैं जो इन कंपनियों ने कड़ी मेहनत करके विकसित की है। इसके बाद ये भारतीय
कंपनियां ये दवाइयां न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के ज़रूरतमंद मरीज़ों को
मुहैया करा सकती है।
हाल ही में भारत में MDR रोगाणुओं की
वजह से होने वाली मौतों को लेकर सोमनाथ गंद्रा व साथियों ने देश के 10 अस्पतालों
में अध्ययन किया था। क्लीनिकल इंफेक्शियस डिसीज़ेस में प्रकाशित उनके शोध पत्र में
बताया गया है कि MDR रोगाणुओं की वजह से मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। यदि यह
अस्पताल में पहुंचने वाले मरीज़ों की स्थिति है, तो कल्पना कर सकते हैं कि देश के गांवों-कस्बों में लाखों
लोग ऐसी बीमारियों की वजह से दम तोड़ रहे होंगे। और इसमें कोई संदेह नहीं कि
अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वी
एशिया और अन्य कम आमदनी वाले देशों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी। लिहाज़ा,
भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया अनुसंधान व विकास कार्य
जन स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा।
अच्छी बात यह है कि भारत सरकार
और उसकी वित्तपोषक संस्थाएं सरकारी शोध व विकास संस्थानों और वि·ाविद्यालयों में इस फोकल थीम के क्षेत्र में शोधकर्ताओं को
अनुदान देने को तत्पर हैं। इसके अलावा, गैर-सरकारी संस्थाओं और दवा कंपनियों को भी यह अनुदान मिल सकता है। भारत में
निजी गैर-मुनाफा प्रतिष्ठानों को भी अपने बटुए खोलने चाहिए।
हममें से कई यह बात शायद नहीं जानते कि हमारा देश दुनिया भर में बचपन के टीकों का एक प्रमुख सप्लायर बन चुका है। भारत के मुट्ठी भर टीका-उत्पादक आज अपने अनुसंधान व विकास कार्य के दम पर दुनिया भर में 35 प्रतिशत बचपन के टीके सप्लाय करते हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि क्यों भारत MDR किस्म के रोगों और अन्य संक्रमणों के खिलाफ अपने अनुसंधान के दम पर दुनिया के 7 अरब लोगों को अच्छा स्वास्थ्य देने के मामले में अग्रणि नहीं हो सकता। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://smw.ch/journalimage/1170/0/ratio/view/article/ezm_smw/en/smw.2017.14553/881440033726048a489670fb0ed97d05d9ab76c4/14553_14553.jpg/rsrc/ji
वर्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में
याद किया जाएगा,
जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की।
यह वही वर्ष था,
जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप
का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता
हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु
बनाने की घोषणा की।
इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की।
यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है।
भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ
ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन
व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।
इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का
चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना,
स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस
परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य
मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर
एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक
होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।
उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है।
ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल
का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में
वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।
इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु
की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित
डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान
डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है।
संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द
है,
जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का
खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम
योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।
सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54
क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा
किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे
पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा
सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।
वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं
वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की
घोषणा की थी,
जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का
विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम
आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए
मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा
गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर
एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का
शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के
प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन
का अहम योगदान रहा है।
विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन
वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके
साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन
परमाणु हैं,
जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं
के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा।
लिहाज़ा,
कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग
की संभावनाएं हैं।
गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस
वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए
चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के
79 चंद्रमा हैं।
गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान
पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी
बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार
इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में
वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी)
का पता लगाया है,
जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना
बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि
तापमान भी अनुकूल है।
साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे
हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4
जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी
ले गया था।
अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया
गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की
मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय
अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह
निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन
चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।
बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद
अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन
तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे।
जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही
प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का
दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की
नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे
जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस
जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258
वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने
‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण
कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी
का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।
इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी।
हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों
में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के
प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और
प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा
पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक
व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।
विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स
में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल
मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी
अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।
इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा
को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई
परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।
गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र
और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी
के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ
नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया –
विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ।
इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों
की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स
पीबल्स,
मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों
अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।
ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का
अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले
वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।
वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन
उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना
2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन
उहलेनबेक पहली महिला हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख
वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया
है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी
ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में
पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।
5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2019/12/122119_YE_landing_full.jpg
हाल ही में अंग प्रत्यारोपण का एक विचित्र मामला सामने आया
है। एक व्यक्ति क्रिस लॉन्ग को किसी अन्य व्यक्ति की अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण
किया गया था। इस प्रक्रिया में यह तो अपेक्षित है कि लॉन्ग के खून में दानदाता का
डीएनए मिलेगा। लेकिन प्रक्रिया के चार वर्ष बाद की गई जांच में पता चला कि उसके
होठों और गाल से रूई के फोहे की मदद से लिए गए नमूनों में दानदाता का डीएनए पाया
गया। और तो और,
लॉन्ग के वीर्य में भी दानदाता का ही डीएनए था।
गौरतलब है कि डीएनए वह पदार्थ है जो हर कोशिका में पाया जाता है और यह
वंशानुगत गुणधर्मों का वाहक है। प्रत्येक व्यक्ति का डीएनए अनूठा होता है। एक ही
व्यक्ति में दो व्यक्तियों के डीएनए होने का मतलब है कि वह व्यक्ति एक से अधिक
जीवों का मिश्रित जीव है। ऐसे जीव को जीव वैज्ञानिक शिमेरा कहते हैं। अपराध
वैज्ञानिक मामले की जांच में लगे हैं। वैसे तो वैज्ञानिकों को बरसों से पता है कि
कतिपय चिकित्सकीय प्रक्रियाएं व्यक्ति को शिमेरा में तबदील कर सकती हैं लेकिन यह
पहला मामला है जहां खून के अलावा विभिन्न अंगों में भी दानदाता का डीएनए प्रकट हो
रहा है।
हर वर्ष रक्त कैंसर, ल्यूकेमिया, लिम्फोमा और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित हज़ारों लोग अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण
करवाते हैं। प्रत्यारोपण के बाद उनका डीएनए संघटन बदल जाता है। ज़रूरी नहीं कि ऐसे
सब लोग जाकर कोई अपराध करेंगे या हादसों के शिकार होंगे मगर खुदा न ख्वास्ता ऐसा
हो गया तो डीएनए की मदद से उनकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। लॉन्ग का प्रकरण जब
अंतर्राष्ट्रीय अपराध विज्ञान सम्मेलन में प्रस्तुत हुआ तो सबके कान खड़े हो गए और
अब यह डीएनए विश्लेषकों के लिए एक मिसाल बन गया है।
वैसे प्रत्यारोपण करने वाले डॉक्टरों को इस बात की ज़्यादा परवाह नहीं होती कि
दानदाता का डीएनए मरीज़ के शरीर में कहां-कहां प्रकट हो जाएगा क्योंकि इस किस्म का
शिमेरिज़्म हानिकारक नहीं होता और न ही यह उस व्यक्ति की शख्सियत को बदलता है। कई
बार मरीज़ों को चिंता होती है कि पुरुष के शरीर में महिला या महिला के शरीर में
पुरुष डीएनए आने पर समस्या होगी लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन अपराध वैज्ञानिकों के लिए इसके मायने एकदम अलग हैं। जब लॉन्ग की जांच की गई तो पता चला था कि उसके शरीर के अलग-अलग अंगों में दानदाता का डीएनए नज़र आ रहा है और अलग-अलग समय पर इसका प्रतिशत भी बदलता रहता है। और जब लॉन्ग का समूचा वीर्य दानदाता का हो गया तो अपराध वैज्ञानिकों का चौंकना स्वाभाविक था। ऐसे कुछ मामले अतीत में सामने आ चुके हैं और अपराध वैज्ञानिक जानना चाहते हैं कि डीएनए आधारित पहचान की प्रामाणिकता पर इसका क्या असर होगा। (स्रोत फीचर्स)
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गर्भ के कुछ हफ्तों बाद गर्भवती महिलाओं को शिशु के लात
मारने का एहसास होने लगता है। लेकिन सवाल यह है कि गर्भ में शिशु लात क्यों मारते
हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की बायो-इंजीनियर नियाम नोवलन ने लाइव साइंस को
बताया है कि गर्भ वैसे तो काफी तंग जगह होती है लेकिन लातें चलाना हड्डियों और
जोड़ों के स्वस्थ विकास के लिए ज़रूरी व्यायाम है।
वास्तव में गर्भ के शुरूआती 7 हफ्ते के बाद भ्रूण हरकत करने लगता है जिसमें
आहिस्ता-आहिस्ता वह अपनी गरदन घुमाने लगता है। जैसे-जैसे भ्रूण का विकास होता है
वह हिचकी,
हाथ-पैर हिलाना, अंगड़ाई लेना, उबासी लेना और अंगूठा चूसने जैसी हरकतें भी करने लगता है। लेकिन गर्भवती
महिलाओं को हाथ-पैर हिलाने जैसी बड़ी हरकतें 16 से 18 हफ्तों के बाद ही महसूस होने
लगती हैं।
हालांकि अध्ययनों में अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि गर्भ में शिशु की हरकतें
स्वैच्छिक हैं या अनैच्छिक, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि
जन्म के बाद शिशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए गर्भ में हाथ-पैर मारने जैसी ये
हरकतें आवश्यक हैं, खासकर जोड़ों और हड्डियों के लिए। युरोपियन
सेल एंड मटेरियल में प्रकाशित एक समीक्षा में नोवलन बताती हैं कि कैसे भ्रूण
की कम हरकत के कारण कुछ जन्मजात विकार (जैसे छोटे जोड़ या पतली हड्डियां) हो सकते
हैं,
जिनकी वजह से फ्रैक्चर की संभावना अधिक रहती है।
लेकिन फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि गर्भ में शिशु की कितनी हरकत सामान्य
कहलाएगी और कितनी कम या ज़्यादा क्योंकि भ्रूण की हरकतों पर निगरानी सिर्फ
अस्पतालों में ही रखी जा सकती है और गर्भवती महिलाएं अस्पताल में तो थोड़े समय के
लिए ही होती हैं। इसलिए भ्रूण की हरकत का तफसील से अध्ययन करना अब तक मुश्किल रहा
है।
इस समस्या के समाधान के लिए नोवलन की टीम ने एक ऐसा मॉनीटर बनाया है जिसे
महिलाएं दिन भर पहने रख सकती हैं और रोज़मर्रा के सारे काम भी करती रह सकती हैं।
नोवलन के दल ने इस मॉनीटर को 24 से 34 सप्ताह के गर्भ वाली 44 गर्भवती महिलाओं पर
आज़माया। इसकी मदद से वे शिशुओं की सांस लेने, चौंकने
और अन्य सामान्य शारीरिक हरकतें सटीकता से रिकॉर्ड कर पाए। उनका यह अध्ययन प्लॉस
वन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि शिशु की हरकत सम्बंधी कई अध्ययन किए जाना या निष्कर्षों की पुष्टि किया जाना अभी बाकी है – जैसे कौन-सी बार गर्भधारण किया है, क्या इससे शिशु के लात मारने पर कोई प्रभाव पड़ता है? या शिशु के लिंग और लात मारने के परिमाण के बीच कोई सम्बंध है? उम्मीद है कि इस नए विकसित मॉनीटर से शिशु की हरकत के बारे में और विस्तार से जानने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
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मीठा खाना हम सबको पसंद है, लेकिन
अधिक चीनी के सेवन से वज़न बढ़ने, मोटापे, टाइप-2 मधुमेह और दंत रोग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मीठा खाने से
खुद को रोक पाना इतना कठिन होता है कि मानो मस्तिष्क को मीठा खाने के लिए
प्रोग्राम किया गया हो। वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि मोटापा बढ़ाने
वाला भोजन मस्तिष्क और व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है और इससे निपटने के लिए
क्या किया जा सकता है।
ग्लूकोज़ मस्तिष्क कोशिकाओं सहित अन्य कोशिकाओं के लिए र्इंधन का काम करता है।
हमारे आदिम पूर्वजों के लिए मीठे खाद्य पदार्थ ऊर्जा के बेहतरीन स्रोत थे जिसके
चलते मनुष्य विशेष रूप से मीठे खाद्य पदार्थों को पसंद करने लगे। कड़वा, खट्टा स्वाद कच्चे फलों का या ज़हरीला हो सकता है।
मीठे का सेवन करने पर हमारे मस्तिष्क की डोपामाइन प्रणाली सक्रिय हो जाती है
जो एक तरह के पारितोषिक का काम करती है। इस रसायन को मस्तिष्क एक सकारात्मक संकेत
के रूप में दर्ज करता है। यह रसायन उसी कार्य को फिर से करने के लिए प्रेरित करता
है और हमारा आकर्षण मिठास के प्रति बढ़ जाता है। लेकिन क्या चीनी का अत्यधिक सेवन
मस्तिष्क पर कोई नकारात्मक प्रभाव डालता है?
न्यूरोप्लास्टिसिटी नामक प्रक्रिया के माध्यम से मस्तिष्क खुद का पुनर्लेखन
करता है। दवा या अधिक चीनी युक्त पदार्थों का बार-बार सेवन करने से यह प्रणाली
मस्तिष्क को इस उद्दीपन के प्रति उदासीन कर देती है और एक तरह की सहनशीलता उत्पन्न
होती है। इसके चलते वही असर प्राप्त करने के लिए आपको उस चीज़ का ज़्यादा मात्रा में
सेवन करना होता है। इसे लत लगना कहते हैं। यह विवाद का विषय रहा है कि क्या भोजन
की लत लग सकती है।
ऊर्जा के स्रोत के अलावा कई लोगों में खाने की लालसा तनाव, भूख या भोजन के आकर्षक चित्र देखकर पैदा होती है। इस लालसा को रोकने के लिए
हमें अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। इसमें
निषेध न्यूरॉन्स की प्रमुख भूमिका होती है। ये न्यूरॉन्स निर्णय लेने के साथ-साथ
नियंत्रण तथा संतुष्टि को टालने का काम करते हैं। ये न्यूरॉन्स मस्तिष्क में ब्रेक
की तरह काम करते हैं। चूहों में अध्ययन से पता चला है कि उच्च चीनी युक्त आहार
लेने से निषेध न्यूरॉन्स में बदलाव आ सकता है। ऐसे चूहे अपने व्यवहार को नियंत्रित
करने में और निर्णय लेने में कम सक्षम पाए गए। इससे लगता है हम जो भी खाते हैं वो
इन प्रलोभनों का विरोध करने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर सकता है और आहार में
बदलाव करना मुश्किल हो सकता है।
हाल के अध्ययन से मालूम चला है कि जो लोग नियमित रूप से उच्च वसा, उच्च चीनी वाले आहार खाते हैं वे भूख न लगने पर भी खाने की लालसा महसूस करते
हैं। यानी नियमित रूप से उच्च चीनी युक्त खाद्य पदार्थ खाने से लालसा बढ़ती जाती
है।
अध्ययन से पता चला है कि उच्च मात्रा में चीनी आहार लेने वाले चूहों में
याददाश्त की समस्या उत्पन्न हुई। चीनी के कारण हिप्पोकैम्पस में नए न्यूरॉन्स की
कमी पाई गई जो याददाश्त बढ़ाने और उत्तेजना से जुड़े रसायनों में वृद्धि करने के लिए
महत्वपूर्ण हैं।
अब सवाल यह है कि अपने मस्तिष्क को चीनी से कैसे बचाएं? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हमें अपने दैनिक कैलोरी सेवन की मात्रा में शक्कर का सेवन केवल 5 प्रतिशत तक सीमित करना चाहिए जो लगभग 25 ग्राम (छह चम्मच) के बराबर है। इसके मद्देनज़र आहार में काफी परिवर्तन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
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दिसंबर 2019 में जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट में मलेरिया
उन्मूलन के लिए उठाए गए कदमों के चलते भारत सुर्खियों में है। रिपोर्ट के अनुसार
वैसे तो मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों में स्थिरता आई है लेकिन पिछले वर्ष
22 करोड़ 80 लाख लोग मलेरिया की चपेट में आए थे जिनमें से लगभग 4 लाख लोगों की मौत
हुई थी। अधिकतर मौतें अफ्रीका क्षेत्र में हुई थी।
भारत में मलेरिया का प्रकोप सदियों से हो रहा है। आज़ादी से पहले तक देश की
लगभग एक चौथाई आबादी मलेरिया से प्रभावित होती थी। 1947 में भारत की 33 करोड़ आबादी
में से 7.5 करोड़ लोग मलेरिया से पीड़ित हुए थे और 8 लाख लोग मारे गए थे।
इस घातक रोग पर काबू पाने के लिए भारत सरकार ने 1953 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया
नियंत्रण कार्यक्रम’ लागू किया। यह कार्यक्रम काफी सफल रहा और इससे मलेरिया के
रोगियों की संख्या में काफी कमी आई। इस कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित होकर सरकार
ने 1958 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन’ कार्यक्रम आरंभ किया। डी.डी.टी. वगैरह के
छिड़काव में ढील के कारण 1960 और 1970 के दशक में मलेरिया के मरीज़ों की संख्या तेज़ी
से बढ़ गई,
और 1976 में देश भर में 60 लाख 45 हज़ार केस दर्ज किए
गए।
मलेरिया की रोकथाम के तमाम प्रयासों के कारण रोगियों की संख्या काफी घट गई
लेकिन 1990 के दशक में यह रोग नई ताकत के साथ वापस लौट आया। इसकी वापसी के कारणों
में कीटनाशकों के खिलाफ मच्छरों की प्रतिरोधकता, खुले
स्थानों में मच्छरों की बढ़ती तादाद एवं जल परियोजनाओं, शहरीकरण, औद्योगीकरण,
मलेरिया परजीवी के रूप बदलने और क्लोरोक्विन तथा मलेरिया की
अन्य दवाइयों के खिलाफ प्लाज़्मोडियम फाल्सिपेरम की प्रतिरोध क्षमता मुख्य थे।
मलेरिया उन्मूलन की दिशा में ओडिशा एक प्रेरणा रुाोत के रूप में उभरकर सामने
आया है। हाल के वर्षों में इसने अपने ‘दुर्गम अंचलारे मलेरिया निराकरण’ नामक पहल
के माध्यम से मलेरिया के प्रसार पर अंकुश लगाने तथा उसके निदान और उपचार के व्यापक
प्रयास किए हैं। इन प्रयासों के चलते बहुत ही कम समय में प्रभावशाली परिणाम
प्राप्त हुए हैं। भारत में मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में प्रमुख मोड़ 2015 में पूर्वी
एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान आया जब देश ने 2030 तक इस बीमारी को खत्म करने का
संकल्प लिया था।
2017 में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने लगभग एक करोड़
मच्छरदानियां वितरित करने में मदद की। यह कदम सबसे जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में सभी
निवासियों को मलेरिया जैसे रोगों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये आवश्यक था। इनमें
आवासीय विद्यालयों के छात्रावास भी शामिल थे।
अपने निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप ओडिशा ने साल 2017 में मलेरिया के
मामलों और उसके कारण होने वाली मौतों में 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की। इस योजना
का उद्देश्य राज्य के दुर्गम और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों के लोगों तक सेवाओं
का विस्तार करना है।
स्पष्ट है कि मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों को आगे बढ़ाने में भारत एक
अग्रणी देश के रूप में सामने आया है। मलेरिया उन्मूलन के मामले में भारत की सफलता
मलेरिया से सर्वाधिक प्रभावित अन्य देशों को इससे निपटने के लिये एक उम्मीद प्रदान
करती है।
इसके अलावा सरकार ने विभिन्न माध्यमों से मलेरिया उन्मूलन सम्बंधी जागरूकता अभियान चलाया। मलेरिया उन्मूलन पर फिल्में एवं रेडियो कार्यक्रम बनाए गए। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया। इसके अलावा विज्ञान प्रसार द्वारा एडूसेट के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों को देश भर में कार्यरत 52 केंद्रों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया गया। सीएसआईआर ने मलेरिया पर एक राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता का आयोजन विज्ञान प्रसार के साथ किया। इस प्रकार विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता के ज़रिए लोगों का ध्यान बीमारी की गंभीरता और रोकथाम की ओर आकर्षित किया गया। (स्रोत फीचर्स)
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विष्ठा प्रत्यारोपण यानी किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में
उपस्थित सूक्ष्मजीव किसी ऐसे व्यक्ति की आंतों में प्रविष्ट कराए जाते हैं जो
आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के अभाव के कारण रोगग्रस्त है। फिलहाल विष्ठा
प्रत्यारोपण जैसे उपचार का सहारा उन मामलों में लिया जा रहा है जहां कोई व्यक्ति क्लॉस्ट्रिडियम
डिफिसाइल के संक्रमण से त्रस्त हो, जो जानलेवा भी साबित हो
सकता है। अब विष्ठा प्रत्यारोपण को सामान्य रूप से ऐसी तकलीफों के लिए भी आज़माया
जा रहा है जो क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के कारण उत्पन्न न हुई हों।
पहले किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में से सूक्ष्मजीवों को पृथक किया जाता है
और फिर इनकी गोली/कैप्सूल बनाकर या एनिमा के माध्यम से रोगी व्यक्ति की आंतों में
पहुंचाया जाता है। इस उपचार के क्लीनिकल परीक्षण के दौरान काफी सावधानी की
आवश्यकता होती है। यह क्लीनिकल परीक्षण मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में किया जा रहा
है। दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस
परीक्षण में दो व्यक्ति शामिल थे और दोनों को एक ही व्यक्ति की विष्ठा
प्रत्यारोपित की गई थी। जांच इस बात की हो रही थी कि लीवर के रोग के मामले में
विष्ठा प्रत्यारोपण कितना कारगर हो सकता है।
प्रत्यारोपण के अंतिम चरण के आठ दिन बाद एक 73 वर्षीय मरीज़ को बुखार आ गया और
ठंड लगने लगी। उसकी मानसिक हालत भी बिगड़ गई और पूरे शरीर में ऐसे लक्षण दिखने लगे
जैसे उसका शरीर किसी संक्रमण से लड़ रहा हो। दो दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके
रक्त में दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया ई. कोली पाया गया।
दूसरा मरीज़ 69 वर्षीय था। वह भी इसी प्रकार की अस्वस्थता का शिकार हुआ और उसके खून में भी दवा-प्रतिरोधी ई. कोली मिला लेकिन उसके संक्रमण को दवाइयों से काबू कर लिया गया। इस क्लीनिकल परीक्षण की सुनवाई करके तय किया जाएगा कि यदि आगे बढ़ना है तो कैसे कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQC-sBsA1UlrStv8hvmtsPIK9tuDhsrB_wyQPNkxyeF3zvhzOVd
खसरा एक वायरस-जन्य रोग है जो प्राय: बच्चों में होता है।
बुखार,
सूखी खांसी, नाक बहना, मुंह के अंदर फुंसियां और शरीर पर लाल-लाल चकत्ते इसके प्रमुख लक्षण हैं। एक
अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग एक लाख बच्चों की मृत्यु खसरा यानी मीज़ल्स के
कारण होती है।
खसरा अपने आप में तो एक घातक रोग है ही, हाल के
एक अध्ययन से पता चला है कि यह शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को भी तहस-नहस कर देता
है। इसके चलते बच्चे अन्य रोगों के प्रति भी दुर्बल हो जाते हैं। सबसे पहले इस बात
का अंदाज़ ऐसे लगा था कि किसी आबादी में खसरा के प्रकोप के बाद अन्य बीमारियों का
प्रकोप भी बढ़ जाता है। मामले की तह तक जाने के लिए नेदरलैंड के ऐसे बच्चों के समूह
का अध्ययन किया गया जिन्हें कोई टीका नहीं लगा था। यू.के. स्थिति वेलकम सैंगर
इंस्टीट्यूट की वेलिस्लावा पेट्रोवा के समूह और हारवर्ड विश्वविद्यालय के स्टीफन
एलिज के समूह ने इनमें से 77 बच्चों के खून के नमूने लिए। जब इलाके में खसरा फैला
तो उसके बाद फिर से इन बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गई। जांच का मकसद यह
देखना था कि उनके खून में सामान्य रोगजनक वायरसों के खिलाफ एंटीबॉडी की क्या
स्थिति थी।
पता चला कि खसरा के प्रकोप से पहले सभी बच्चों में विभिन्न वायरसों के विरुद्ध
एंटीबॉडी मौजूद थीं। अर्थात ये तंदुरुस्त बच्चे थे। लेकिन खसरा संक्रमण के बाद के
नमूनों में एंटीबॉडी खज़ाने में से 20 प्रतिशत नष्ट हो चुका था। कुछ में तो
एंटीबॉडी की क्षति 70 प्रतिशत तक देखी गई। जिन बच्चों (जिन्हें खसरा का टीका नहीं
लगा था) को खसरा संक्रमण नहीं हुआ था उनमें ऐसा नहीं हुआ। जिन बच्चों को टीका लगा
था,
उनमें भी एंटीबॉडी को कोई नुकसान नहीं हुआ था।
इसका मतलब है कि यदि गैर-टीकाकृत बच्चे को खसरा होता है तो उसका प्रतिरक्षा
तंत्र वह सब भूल जाता है जो उसने रोगजनकों से लड़ने के बारे में सीखा था। दूसरे
शब्दों में बच्चा प्रतिरक्षा-विस्मृति का शिकार हो जाता है। जंतुओं पर किए गए
प्रयोगों से भी पता चला है कि खसरा वायरस प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करता है।
अध्ययन का एक ही संदेश है। आज जब खसरा का संक्रमण फिर से बढ़ रहा है तो खसरा से बचाव तथा अन्य रोगों से बचाव के लिए भी खसरा टीकाकरण अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/escyCS2FtGfiBfLcoSLBBe-320-80.jpg
यह जानी-मानी बात है कि काली चाय (जो हम हिंदुस्तान पीते
हैं) वह एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। हेल्थलाइन के 16 मई 2018 के अंक में डॉ.
ए. एनलो ने एक सारगर्भित समीक्षा में इसके दस फायदे गिनाए हैं। इसी प्रकार से कॉफी
के स्वास्थ्यवर्धक गुणों का विश्लेषण स्पेशलिटी मेडिकल डायलॉग्स नामक शोध
पत्रिका के 28 नवंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसमें डॉ. हिना ज़ाहिद लिखती
हैं,
“कॉफी संभवत: हमारे आहार का वह घटक है जिसका सबसे ज़्यादा
अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में मानसिक प्रदर्शन, खेलकूद
में प्रदर्शन,
शरीर में तरल पदार्थों के संतुलन, टाइप-2
मधुमेह,
लीवर के कामकाज, तंत्रिका विघटन विकारों, गर्भावस्था,
कैंसर और ह्रदय-रक्त वाहिनी रोगों पर इसके असर को लेकर काफी
शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।” एक अनुमान के मुताबिक मेटाबोलिक सिंड्रोम (चयापचय
सम्बंधी लक्षण) दुनिया भर में 1 अरब से ज़्यादा लोगों को प्रभावितकरता है।
(मेटाबोलिक सिंड्रोम कुछ लक्षणों का समूह है जिसमें उच्च रक्तचाप, कमर के आसपास चर्बी जमा होना तथा असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर शामिल हैं।)
मेटाबोलिक सिंड्रोम होने पर ह्रदय-रक्तवाहिनी रोगों की आशंका बढ़ती है (जिनमें ह्रदयधमनी
रोग तथा स्ट्रोक शामिल हैं)। इंस्टीट्यूट फॉर साइन्टिफिक इन्फॉर्मेशन ऑन कॉफी की
एक रिपोर्ट में मेटोबोलिक सिंड्रोम कम करने में कॉफी की संभावित भूमिका को
रेखांकित करते हुए कहा गया है कि “मेटा-एनालिसिस की ताज़ा रिपोर्ट से लगता है कि
रोज़ाना 1-4 कप कॉफी के सेवन और मेटाबोलिक सिंड्रोम में गिरावट का सम्बंध है।”
मेटा-एनालिसिस का मतलब होता है कि एक ही विषय पर किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों
के परिणामों का विश्लेषण करके यह देखा जाए कि क्या ये सब एक ही निष्कर्ष पर
पहुंचते हैं और यदि नहीं तो इनके निष्कर्षों में क्या अंतर हैं। इसका फायदा यह
होता है कि निष्कर्ष ज़्यादा भरोसेमंद होते हैं और संदेश स्पष्ट होता है। इटली के
कैटेनिया विश्वविद्यालय के डॉ. गिसेप ग्रॉसो और उनके साथियों का निष्कर्ष है कि
कॉफी के सेवन से टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप वगैरह की आशंका
कम होती है। नवारो व साथियों द्वारा किए गए एक अन्य मेटा एनालिसिस में पता चला कि
कॉफी का नियमित सेवन उच्च रक्तचाप का खतरा कम करता है।
कॉफी और स्वास्थ्य के बारे में और जानने चाहते हैं, तो http://www.coffeeandhealth.org पर जाएं, जहां कॉफी के स्वास्थ्य
सम्बंधी फायदों की विस्तृत चर्चा की गई है। इन सबसे तो लगता है कि कॉफी एक
स्वास्थ्यवर्धक पेय है। लेकिन थोड़ी मात्रा में (3-5 कप प्रतिदिन)। ज़्यादा पिएंगे
तो यह हानिकारक भी हो सकती है। मेयो क्लीनिक का मत है कि इससे ज़्यादा कॉफी का सेवन
ओवरडोज़ की श्रेणी में आएगा और कैफीन के उच्च स्तर की वजह से माइग्रेननुमा सिरदर्द, अनिद्रा,
बेचैनी, मांसपेशीय कंपकंपाहट और ह्रदय
गति बढ़ना जैसे लक्षण उभर सकते हैं। लिहाज़ा कपों की संख्या पर नियंत्रण रखने में ही
होशियारी है। गर्भवती स्त्रियों को तो कपों की संख्या पर ज़्यादा नियंत्रण रखना
चाहिए। बच्चों को तो कॉफी दोनी ही नहीं चाहिए।
भारत में आगमन
कॉफी वस्तुत: इथियोपियन मूल की है। इसे जल्दी ही अरब लोगों ने अपना लिया और
पेय पदार्थ के रूप में इससे चिपके रहे ताकि इमाम और अन्य श्रद्धालु लोगों चौकन्ने
रहें (क्योंकि शराब उनके लिए प्रतिबंधित थी)। http://madrascouriers.com के 19 जून 2017 के इनसाइट स्तंभ में बताया गया है कि सोलहवीं सदी के
सूफी संत बाबा बुदन कॉफी के कई सारे बीज अरब एकाधिकार से चोरी-छिपे निकाल लाए थे
और 1670 में उन्हें मैसूर साम्राज्य के चिकमगलूर नामक स्थान पर बोया था। वैसे हो
सकता है कि इससे पहले ही अरब व्यापारी कॉफी को मलाबार तट पर ला चुके थे। इस प्रकार
से कॉफी कर्नाटक,
केरल और तमिलनाडु में उगाई जाने लगी। हाल ही में इसे आंध्र
प्रदेश की अरकू घाटी में उगाया जाने लगा है। इसके अलावा, उत्तर-पूर्वी
भारत के राज्यों में भी कॉफी उगाई जाती है। ऐसा लगता है कि इसी तरह से कॉफी कई
सदियों से प्रायद्वीपीय भारत में एक लोकप्रिय पेय बन गई।
अलबत्ता,
अधिकांश दक्षिण भारतीय लोग शुद्ध कॉफी नहीं पीते, बल्कि कॉफी और चिकरी का मिश्रण पीते हैं। चिकरी एक देशी पौधा है जिसे स्पैन, यूनान और तुर्की के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। युरोप में यह
कॉफी में मिलाने के लिहाज़ से भी और अपने आप में भी लोकप्रिय हो गया। वेबसाइट Bynemara Tales-Medium के 19
जुलाई 2017 के अंक में बताया गया है कि फ्रांस में 1880 के दशक की शुरुआत में कॉफी
की कमी के चलते चिकरी का उपयोग किया जाने लगा था। उसी समय से कॉफी-चिकरी मिश्रण
लोकप्रिय हो गया। डेविड कॉपरफील्ड और ए टेल ऑफ टू सिटीज़ जैसे उपन्यासों के
लेखक लेखक चार्ल्स डिकेंस ने कहा है, “कॉफी में थोड़ी-सी चिकरी
मिलाने से कॉफी की खुशबू नष्ट नहीं होती बल्कि खुशबू में इज़ाफा होता है, और रंगत में गाढ़ापन आता है जिसके चलते यह कई लोगों के लिए स्वागत-योग्य से भी
बढ़कर हो जाती है।” यह भी एक रोचक तथ्य है कि ब्रिटिश लोगों ने ‘कैम्प कॉफी’ नामक
एक पेय की शुरुआत की थी। यह पानी, शकर, 4
प्रतिशत कैफीन-रहित कॉफी का अर्क और 26 प्रतिशत चिकरी के अर्क से बना एक मिश्रण
होता था। हिंदुस्तानी सिपाहियों और अन्य लोगों को यह पेय खूब भाता था। समय के साथ
दक्षिण भारतीय कॉफी विभिन्न अनुपातों में कॉफी और चिकरी का एक मिश्रण बन गई – 80
प्रतिशत कॉफी-20 प्रतिशत चिकरी से लेकर 60 प्रतिशत कॉफी-40 प्रतिशत चिकरी तक।
चिकरी भारत में भी गुजरात और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है।
दक्षिण भारत के पार
पारंपरिक रूप से दक्षिण भारतीय कॉफी चार दक्षिणी राज्यों तक सीमित रही जबकि
उत्तरी भारत में चाय लोकप्रिय रही और लगभग यही एकमात्र पेय रही। चाय का उत्पादन
आसाम,
पश्चिम बंगाल के अलावा कुछ अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में
किया जाता था। यहां की जलवायु और मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है। अलबत्ता, हाल के वर्षों में ‘दक्षिणियों’ ने भी चाय को अपनाया है – कॉफी के विकल्प के
रूप में नहीं बल्कि एक पूरक के रूप में। दूसरी ओर, ‘उत्तरियों’
ने कॉफी पीना शुरू कर दिया है। इसका कारण मूलत: मार्केटिंग में छिपा है। और कॉफी
के मामले में भी पारंपरिक ‘फिल्टर कॉफी’ के अलावा आजकल कई अन्य कॉफियां मिलती हैं
– एस्प्रेसो,
कैपुचिनो वगैरह। ये सब पाश्चात्य आविष्कार हैं और खास तौर
से शहरों में लोकप्रिय हुए हैं।
एक समय था जब ‘चाय पर चर्चा’ लोकप्रिय थी जहां हर किस्म की बातचीत, बहस, और विचारों का मेलजोल, लेन-देन हो सकता था। नए-नए राजनैतिक विचार चाय की चुस्कियों पर जन्म लिया करते थे, जैसा कि सत्यजीत राय ने अपनी मशहूर फिल्म आगंतुक में दर्शाया है। आजकल इस विचार में कॉफी शॉप (वाई-फाई कनेक्टिविटी समेत) जुड़ गई है, जिनके बारे में विज्ञापन किया जा रहा है कि ‘कॉफी के साथ बहुत कुछ हो सकता है’। लेकिन ये बीते समय के अड्डों जैसे तो कदापि नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.pressreader.com/india/the-hindu/20191208/282166473057361