क्षयरोग पर नियंत्रण के लिए नया टीका – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

लगभग दस हज़ार साल पूर्व, जब से मनुष्यों ने समुदायों में रहना शुरू किया, तब से टीबी (क्षयरोग) हमारे साथ रहा है। पश्चिमी एशिया की तरह भारत में भी लोग प्राचीन काल से ही टीबी के बारे में जानते थे। लगभग 1500 ईसा पूर्व के संस्कृत ग्रंथों में इसके बारे में उल्लेख मिलता है जिनमें इसे शोष कहा गया है। 600 ईसा पूर्व की सुश्रुत संहिता में क्षय रोग के उपचार के लिए मां का दूध, अल्कोहल और आराम की सलाह दी गई है। 900 ईस्वीं के मधुकोश नामक ग्रंथ में इस बीमारी का उल्लेख यक्ष्मा (या क्षय होना) के नाम से है। टीबी के बारे में यह भी जानकारी थी कि मनुष्य से मनुष्य में यह रोग खखार और बलगम के माध्यम से फैलता है (यहां तक कि पशुओं के बलगम से भी यह रोग फैल सकता है)। इसके इलाज के लिए कई औषधि-उपचार आज़माए जाते थे, मगर सफलता बहुत अधिक नहीं मिलती थी।

वर्ष 1882 में जाकर जर्मन सूक्ष्मजीव विज्ञानी रॉबर्ट कॉच ने पता लगाया था कि टीबी रोग मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (एमटीबी) नामक रोगाणु के कारण होता है, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1905 में नोबेल पुरस्कार मिला था। कॉच ने टीबी के उपचार के लिए दवा खोजने के भी प्रयास किए थे, जिसके परिणाम स्वरूप ट्यूबरक्यूलिन नामक दवा बनी, हालांकि यह टीबी के उपचार में ज़्यादा सफल नहीं रही। उस समय से अब तक टीबी के उपचार के लिए कई दवाएं बाज़ार में आ चुकी हैं, जैसे रिफेम्पिसिन, आइसोनिएज़िड, पायराज़िनेमाइड, और हाल ही में प्रेटोमेनिड और बैडाक्विलिन। भारत सरकार हर साल टीबी के लाखों मरीज़ों के उपचार के लिए इनमें से कई या सभी दवाओं का उपयोग करती है।  

अलबत्ता, इलाज से बेहतर है बचाव। प्रतिरक्षा विज्ञान इसी कहावत पर अमल करते हुए हमलावर रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश करने और बीमारी फैलाने से रोकने का प्रयास करता है। इसी दिशा में वर्ष 1908-1921 के दौरान दो फ्रांसिसी जीवाणु विज्ञानियों अल्बर्ट कामेट और कैमिली ग्यूरिन को एक ऐसा उत्पाद बनाने में सफलता मिली थी जो टीबी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता प्रदान कर सकता था। इसे बैसिलस-कामेट-ग्यूरिन (बीसीजी) नाम दिया गया था। जब बीसीजी को टीके के रूप में शरीर में इंजेक्ट किया गया तो इसने एमटीबी के हमले के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता दी। इस तरह टीबी का पहला टीका बना। आज भी यह टीका दुनिया भर में नवजात शिशुओं और 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को टीबी से बचाव के लिए लगाया जाता है। हालिया अध्ययन बताते हैं कि टीके से यह सुरक्षा 20 वर्षों तक मिलती रहती है। भारत दशकों से सफलतापूर्वक बीसीजी टीके का उपयोग कर रहा है।

सांस के ज़रिए टीका

अलबत्ता, अब यह पता चला है कि बीसीजी का टीका बच्चों के लिए जितना असरदार है उतना वयस्कों पर प्रभावी नहीं रहता क्योंकि वयस्कों में फेफड़ों की टीबी ज़्यादा होती है जबकि बच्चों में आंत, हड्डियों या मूत्र-मार्ग में ज़्यादा देखी गई है और बीसीजी फेफड़ों की टीबी में कम प्रभावी है। किसी अन्य बीमारी (जैसे एड्स) के होने पर भी टीका प्रभावी नहीं रहता क्योंकि प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो जाता है। कभी-कभी बीसीजी का टीका देने पर कुछ लोगों को बुखार आ जाता है या इंजेक्शन की जगह पर खुजली होने लगती है; यह भी टीके के उपयोग को असहज बनाता है। इसलिए अब एक वैकल्पिक टीके की ज़रूरत है जो खुद तो टीबी के टीके की तरह काम करे ही, साथ में बीसीजी टीके के लिए बूस्टर (वर्धक) का काम भी करे। और यदि यह टीका इंजेक्शन की बजाय अन्य आसान तरीकों से दिया जा सके तो सोने में सुहागा।

लगभग 50 साल पहले टीकाकरण का एक ऐसा तरीका खोजा गया था जिसमें फेफड़ों में सांस के ज़रिए टीका दिया जाता है। इसे ·ासन मार्ग टीका कहते हैं। फुहार के रूप में टीके का पहला परीक्षण 1951 में इंग्लैंड में मुर्गियों के झुंड पर वायरस के खिलाफ किया गया था। इसके बाद 1968 में बीसीजी का इसी तरह का परीक्षण गिनी पिग और कुछ इंसानों पर किया गया। इसकी मदद से मेक्सिको में 1988-1990 के दौरान स्कूली बच्चों में खसरा के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने में सफलता मिली थी और इसके बाद टीबी के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने में। (अधिक जानकारी के लिए मायकोबैक्टीरियल डिसीज़ में प्रकाशित कॉन्ट्रेरास, अवस्थी, हनीफ और हिक्की द्वारा की गई समीक्षा इन्हेल्ड वैक्सीन फॉर द प्रिवेंशन ऑफ टीबी पढ़ सकते हैं)। अच्छी बात यह है कि इस तरीके से टीकाकरण में सुई की कोई आवश्यकता नहीं होती, प्रशिक्षित व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती, कचरा कम निकलता है और लागत भी कम होती है।

जब रोगजनक जीव शरीर पर हमला करते हैं तो वे शरीर को भेदते हैं और अपनी संख्या वृद्धि करने के लिए अंदर की सामग्री का उपयोग करते हैं, और तबाही मचाते हैं। मेज़बान शरीर अपने प्रतिरक्षा तंत्र की मदद से इन रोगजनक जीवों के खिलाफ लड़ता है। इसमें तथाकथित बी-कोशिकाएं एंटीबॉडी नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर के साथ बंधकर उसे निष्क्रिय कर देता है। और सुरक्षा के इस तरीके को याद भी रखा जाता है ताकि भविष्य में जब यही हमलावर हमला करे तो उससे निपटा जा सके। टीके के कार्य करने का आधार यही है, जो सालों तक काम करता रहता है।

वास्तव में एंटीबॉडी बनाने के लिए पूरे हमलावर जीव की ज़रूरत नहीं होती। बी-कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी बनाने के लिए हमलावर जीव के अणु का एक हिस्सा (‘कामकाजी अंश’ या एपिटोप, एंटीजन का वह हिस्सा जिससे एंटीबॉडी जुड़ती है) ही पर्याप्त होता है। प्रतिरक्षा प्रणाली की एक और श्रेणी होती है टी-कोशिकाएं, जो बी-कोशिकाओं के साथ मिलकर काम करती हैं। टी-कोशकाओं में मौजूद अणु हमलावर को मारने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया में भी पूरे अणु की ज़रूरत नहीं होती बल्कि मात्र उस हिस्से की ज़रूरत होती है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के लिए सहायक के रूप में काम करता है।

ऑस्ट्रेलिया की युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के शोधकर्ताओं के दल ने इन तीनों सिद्धांतों की मदद से सांस के द्वारा दिया जा सकने वाला टीबी का टीका तैयार किया है। उनका यह शोधकार्य जर्नल ऑफ केमिस्ट्री के 16 अगस्त 2019 अंक में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने टी-कोशिकाओं के अणु के एक हिस्से को सहायक के रूप में  प्रयोगशाला में संश्लेषित किया और फिर इसे प्रयोगशाला में ही संश्लेषित किए गए एमटीबी के एपिटोप वाले हिस्से से जोड़ दिया। इस तरह संश्लेषित किए गए टीके (जिसे कंपाउंड I कहा गया) को चूहों में नाक से दिया गया। और इसके बाद चूहों को एमटीबी से संक्रमित किया गया और कुछ हफ्तों बाद चूहों के फेफड़े और तिल्ली को जांचा गया। जांच में बैक्टीरिया काफी कम संख्या में पाए गए जो यह दर्शाता है कि सांस के ज़रिए दिए जाने पर I एक टीके की तरह सुरक्षा दे सकता है। और तो और, इंजेक्शन की बजाय सांस के ज़रिए टीका देना बेहतर पाया गया है। इस तरह के टीके से बच्चे और टीके से घबराने वाले वयस्क खुश हो जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैक्टीरिया की मदद से मच्छरों पर नियंत्रण

हाल के एक प्रयोग में देखा गया है कि वोल्बेचिया नामक बैक्टीरिया डेंगू फैलाने वाले मच्छरों की आबादी को काबू में रख सकते हैं।

वोल्बेचिया बैक्टीरिया लगभग 50 प्रतिशत कीट प्रजातियों की कोशिकाओं में कुदरती रूप से पाया जाता है और यह उनके प्रजनन में दखलंदाज़ी करता है। मच्छरों में देखा गया है कि यदि नर मच्छर इस बैक्टीरिया से संक्रमित हो और वोल्बेचिया मुक्त कोई मादा उसके साथ समागम करे, तो उस मादा के अंडे जनन क्षमता खो बैठते हैं। इसकी वजह से वह मादा प्रजनन करने में पूरी तरह अक्षम हो जाती है क्योंकि आम तौर पर मादा मच्छर एक ही बार समागम करती है। लेकिन यदि उस मादा के शरीर में पहले से उसी किस्म का वोल्बेचिया बैक्टीरिया मौजूद हो तो उसके अंडे इस तरह प्रभावित नहीं होते।

वैज्ञानिकों का विचार बना कि यदि मच्छरों की किसी आबादी में ऐसे वोल्बेचिया संक्रमित नर मच्छर छोड़ दिए जाएं तो जल्दी ही उनकी संख्या पर नियंत्रण हासिल किया जा सकेगा। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने इस विचार को वास्तविक परिस्थिति में आज़माया। उन्होंने इस तरीके से हांगकांग के निकट गुआंगडांग प्रांत में एडीस मच्छरों पर नियंत्रण हासिल करने में सफलता प्राप्त की।

प्रयोग में एक समस्या यह थी कि यदि छोड़े गए वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों में मादा मच्छर भी रहे तो पूरा प्रयोग असफल हो जाएगा। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों को हल्के-से विकिरण से उपचारित किया ताकि यदि उनमें कोई मादा मच्छर हो, तो वह वंध्या हो जाए।

इस तरह किए गए परीक्षण में एडीस मच्छरों की आबादी में 95 प्रतिशत की गिरावट आई। यह भी देखा गया कि आबादी में यह गिरावट कई महीनों तक कायम रही। गौरतलब है कि नर मच्छर तो काटते नहीं, इसलिए उनकी आबादी बढ़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस परीक्षण के परिणामों से लगता है कि मच्छरों पर नियंत्रण के लिए एक नया तरीका मिल गया है जिसमें कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है। वैसे अभी कई सारे अगर-मगर हैं। जैसे, वोल्बेचिया संक्रमित मच्छर छोड़ने के बाद यदि बाहर से नए मच्छर उस इलाके में आ गए तो क्या होगा? इसका मतलब होगा कि आपको बार-बार संक्रमित मच्छर छोड़ते रहना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग की कैमेस्ट्री बिगाड़ रही है इंटरनेट की लत – प्रदीप

इंटरनेट ने हमारे जीवन को कई मायनों में बदलकर रख दिया है। इसने हमारे जीवन स्तर को ऊंचा कर दिया है और कई कार्यों को बहुत सरल-सुलभ बना दिया है। सूचना, मनोरंजन और ज्ञान के इस अथाह भंडार से जहां सहूलियतों में इजाफा हुआ है, वहीं इसकी लत भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की एक टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि इंटरनेट का अधिक इस्तेमाल हमारे दिमाग की अंदरूनी संरचना को तेज़ी से बदल रहा है, जिससे उपभोक्ता (यूज़र) की एकाग्रता, स्मरण प्रक्रिया और सामाजिक सम्बंध प्रभावित हो सकते हैं। दरअसल, यह बदलाव कुछ-कुछ हमारे तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं की वायरिंग और री-वायरिंग जैसा है।

मनोरोग अनुसंधान की विश्व प्रतिष्ठित पत्रिका वर्ल्ड सायकिएट्री के जून 2019 अंक में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक इंटरनेट का ज़्यादा इस्तेमाल हमारे दिमाग पर स्थाई और अस्थाई रूप से असर डालता है। इस अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने उन प्रमुख परिकल्पनाओं की जांच की जो यह बताती हैं कि किस तरह से इंटरनेट संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को बदल सकता है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने इसकी भी पड़ताल की कि ये परिकल्पनाएं मनोविज्ञान, मनोचिकित्सा और न्यूरोइमेजिंग के हालिया अनुसंधानों के निष्कर्षों से किस हद तक मेल खाती हैं।

इंटरनेट मस्तिष्क की संरचना को कैसे प्रभावित करता है, इसके बारे में शोध दल के नेतृत्वकर्ता और वेस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के सीनियर रिसर्च फेलो डॉ. जोसेफ फर्थ के मुताबिक “इस शोध का प्रमुख निष्कर्ष यह है कि उच्च स्तर का इंटरनेट उपयोग मस्तिष्क के कई कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण के लिए, इंटरनेट से लगातार आने वाले नोटिफिकेशन और सूचनाओं की असीम धारा हमें अपना ध्यान उसी ओर लगाए रखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इसके परिणामस्वरूप किसी एक काम पर ध्यान केंद्रित करने, उसे गहराई से समझने और आत्मसात करने की हमारी क्षमता बहुत तेज़ी से कम हो सकती है।”

यह शोध मुख्य रूप से यह बताता है कि इंटरनेट दिमाग की संरचना, कार्य और संज्ञानात्मक विकास को कैसे प्रभावित कर सकता है। हाल के समय में सोशल मीडिया के साथ-साथ अनेक ऑनलाइन तकनीकों का व्यापक रूप से अपनाया जाना शिक्षकों और अभिभावकों के लिए भी चिंता का विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा साल 2018 में जारी दिशानिर्देशों के मुताबिक छोटे बच्चों (2-5 वर्ष की आयु) को प्रतिदिन एक घंटे से ज़्यादा स्क्रीन के संपर्क में नहीं आना चाहिए। हालांकि वर्ल्ड साइकिएट्री के हालिया अंक में प्रकाशित इस शोधपत्र में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि मस्तिष्क पर इंटरनेट के प्रभावों की जांच करने वाले अधिकांश शोध वयस्कों पर ही किए गए हैं, इसलिए बच्चों में इंटरनेट के इस्तेमाल से होने वाले फायदे और नुकसान को निर्धारित करने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।

डॉ. फर्थ कहते हैं, “हालांकि बच्चों और युवाओं को इंटरनेट के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत है मगर अभिभावकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे डिजिटल डिवाइस पर ज़्यादा समय तो नहीं बिता रहे हैं। माता-पिता को बच्चों की अन्य महत्वपूर्ण विकासात्मक गतिविधियों, जैसे सामाजिक संपर्क और शारीरिक क्रियाकलापों पर अधिक ध्यान देना चाहिए।”

इस शोध का लब्बोलुबाब यह है कि आज हमें यह समझने की ज़रूरत है कि इंटरनेट की बदौलत जहां वैश्विक समाज एकीकृत हो रहा है, वहीं यह पूरी दुनिया (बच्चों से लेकर बूढ़ों तक) को साइबर एडिक्ट भी बना रहा है। इंटरनेट की लत वैसे ही लग रही है जैसे शराब या सिगरेट की लगती है। इंटरनेट की लत से जूझ रहे लोगों के मस्तिष्क के कुछ खास हिस्सों में गामा अमिनोब्यूटरिक एसिड (जीएबीए) का स्तर बढ़ रहा है। जीएबीए का मस्तिष्क के तमाम कार्यों, मसलन जिज्ञासा, तनाव, नींद आदि पर बड़ा असर होता है। जीएबीए का असंतुलन अधीरता, बेचैनी, तनाव और अवसाद (डिप्रेशन) को बढ़ावा देता है। इंटरनेट की लत दिमागी सर्किटों की बेहद तेज़ी से और पूर्णत: नए तरीकों से वायरिंग कर रही है! इंटरनेट के शुरुआती दौर में हम निरंतर कनेक्टेड होने की बात किया करते थे और आज यह नौबत आ गई कि हम डिजिटल विष-मुक्ति की बात कर रहे हैं! इंटरनेट के नशेड़ियों के इलाज के लिए ठीक उसी तकनीक को आज़माने की जरूरत है, जिसका इस्तेमाल शराब छुड़ाने के लिए किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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50 वर्षों बाद टीबी की नई दवा

हाल ही में यूएस खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने टीबी के एक नए उपचार क्रम को मंजूरी दी है, और इस उपचार में एक नई दवा शामिल है। पिछले 50 वर्षों में पहली बार किसी नई दवा को टीबी के इलाज के लिए मंज़ूरी मिली है। यह नई दवा बहुऔषधि-प्रतिरोधी टीबी के उपचार में कारगर है जिससे विकासशील देशों में बढ़ रही टीबी की समस्या पर काबू किया जा सकेगा।

टीबी के इस उपचार में तीन दवाएं शामिल हैं। इनमें से दो तो पहले भी टीबी के उपचार में उपयोग की जाती रही हैं – जॉनसन एंड जॉनसन की बेडाक्वीलीन और लिनेज़ोलिड। तीसरी दवा नई है – प्रेटोमेनिड नामक एंटीबॉयोटिक।

नए उपचार के क्लीनिकल परीक्षण में अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी के लगभग 90 प्रतिशत मरीज़ 6 महीनों में ही चंगे हो गए। यह फिलहाल किए जा रहे अन्य इलाज से तीन गुना अधिक सफलता दर है। अन्य औषधि मिश्रण से उपचारों में मरीज़ को ठीक होने में लगभग 2 साल तक का वक्त लग जाता है।

प्रेटोमेनिड नामक यह एंटीबॉयोटिक दवा गैर-मुनाफा संस्था टीबी अलाएंस ने विकसित है। टीबी अलाएंस के प्रमुख मेल स्पाईजलमेन का कहना है कि गैर-मुनाफा संस्था के लिए काम करने का एक फायदा यह होता है कि यह चिंता नहीं करनी पड़ती कि शेयरधारकों को कितना पैसा और कैसे लौटाना है। टीबी अलाएंस ने इस दवा को बनाने और बेचने के अधिकार पेनिसिल्वेनिया स्थित दवा कंपनी मायलेन एनवी को दिए हैं। कंपनी प्रमुख कहना है कि वे यूएस और उन जगह पर ध्यान देंगे जहां अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी की समस्या गंभीर है जिनमें से अधिकतर देश निम्न और मध्यम आमदनी वाले हैं। टीबी अलाएंस ने युरोप में भी टीबी के इलाज के लिए प्रेटोमेनिड को अन्य दवा के साथ उपयोग पर मंज़ूरी के लिए आवेदन किया है। (स्रोत फीचर्स)

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कहीं आप फफूंद तो नहीं खा रहे

अक्सर फल, ब्रेड या खाने की चीज़ों पर कुछ दिनों बाद फफूंद लगने लगती है, खासकर बारिश के मौसम में। यदि फफूंद खाने पर बहुत फैली ना हो तो कई लोग फफूंद लगा हिस्सा हटाकर बाकी खा लेते हैं। यदि आप भी ऐसा करते हैं तो एक बार फिर सोचिए कि  हटाने के बावजूद भी कहीं आप फफूंद तो नहीं खा रहे।

दरअसल खाद्य सामग्री पर दिखाई देने वाली हरी-सफेद मखमली फफूंद पूरी फफूंद के बीजाणु भर होते हैं जो फफूंद को फैलाने का काम करते हैं। फफूंद का बाकी हिस्सा, जिसे कवकजाल या मायसेलियम कहते हैं, खाद्य पदार्थ में काफी अंदर तक धंसा रहता है और दिखाई नहीं देता। फफूंद हटाते वक्त लोग दिखाई देने वाला हिस्सा ही हटाते हैं जबकि फफूंद का शेष हिस्सा तो खाने में रह जाता है।

यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर की विशेषज्ञ नडीन शॉ का कहना है कि वैसे तो अधिकतर फफूंद हानिरहित होती हैं लेकिन कुछ फफूंद खतरनाक होती हैं। जैसे कुछ फफूंदों में कवकविष मौजूद होता है जो काफी ज़हरीला होता है और शरीर में पहुंचने पर एलर्जी पैदा कर सकता है या श्वसन तंत्र को प्रभावित कर सकता है। खास तौर से एस्परजिलस फफूंद का विष (एफ्लॉटॉक्सिन) कैंसर का कारण बन सकता है। कवकविष प्रमुख रूप से अनाजों और मेवे पर लगने वाली फफूंद में पाया जाता है लेकिन अंगूर के रस, अजवाइन, सेब और अन्य खाद्यों पर पनपने वाली फफूंद में भी हो सकता है। इसके अलावा घातक एफ्लॉटॉक्सिन अक्सर मक्का और मूंगफली की फसलों में पनपने वाली फफूंद में पाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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कानों की सफाई के लिए कपास का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं

साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा कर दिया।

एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही। कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने लगा।    

तब कान, नाक और गले के विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था। विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।

आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।

आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं, कान के पर्दे को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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अंगों की उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास

अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर प्रयोग कर रहे हैं।

वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।

अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।

फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या पोलियो जल्दी हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा?

हाल वैश्विक पोलियो उन्मूलन के प्रयास थोड़े मुश्किल में फंसते नज़र आ रहे हैं। इस मामले में बाधाएं दो मोर्चों पर आ रही हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो का वायरस अभी भी मौजूद है और वहां पोलियो के प्रकरण सामने आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन में पोलियो अनुसंधान के प्रभारी रोलैण्ड सटर का कहना है कि फिलहाल जिस तरह से कामकाज चल रहा है, वह हमें मंज़िल तक नहीं पहुंचा पाएगा।

वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम पर पिछले तीस वर्षों में 16 अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं। अधिकांश देशों से पोलियो का सफाया भी हो चुका है। किंतु पाकिस्तान और अफगानिस्तान में 2018 की इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष चार गुना प्रकरण सामने आए हैं। यह सही है कि पोलियो प्रकरणों की संख्या मात्र 51 है किंतु सोचने वाली बात यह है कि पोलियो वायरस से संक्रमित 200 में से मात्र 1 व्यक्ति को ही लकवा होता है। यानी वास्तविक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कहीं ज़्यादा है। इसका मतलब यह है कि वायरस अभी भी विचर रहा है। और तो और, हाल ही में इरान में भी इस वायरस को देखा गया है।

एक ओर तो कुदरती पोलियो वायरस खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं दूसरी ओर, टीके में उपयोग किए गए दुर्बलीकृत वायरस की वजह से भी पोलियो के प्रकरण सामने आए हैं। खास तौर से अफ्रीका में टीका-जनित पोलियो देखा जा रहा है।

लगता है कि अफ्रीका में कुदरती वायरस का तो सफाया हो चुका है लेकिन टीका-जनित वायरस का प्रवाह में बने रहना भी घातक साबित हो सकता है। दरअसल मुंह से पिलाए जाने वाले पोलियो के टीके में वायरस का दुर्बलीकृत रूप होता है। इस दुर्बलीकृत वायरस में जेनेटिक परिवर्तन की वजह से यह एक बार फिर से संक्रामक हो जाता है। पिछले वर्ष टीका-जनित वायरस की वजह से दुनिया भर में 105 बच्चे लकवाग्रस्त हुए थे जबकि कुदरती वायरस ने मात्र 31 बच्चों को प्रभावित किया था। टीका-जनित वायरस से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया है कि जब कुदरती वायरस का सफाया हो जाए तो हमें मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को छोड़कर इंजेक्शन की ओर बढ़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अदरख के अणु सूक्ष्मजीव संसार को बदल देते हैं

शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।

इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत: चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।

इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)

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सूक्ष्मजीव कुपोषण से लड़ने में सहायक

हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों से लगता है कि कुपोषित बच्चों को पूरक आहार देने के अलावा उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को सुधारने से सेहत में काफी फायदा हो सकता है।

वैसे उपरोक्त अध्ययनों में अधिकांश प्रयोग जंतुओं पर किए गए थे किंतु यह भी देखा गया कि जिन थोड़े-से बच्चों के साथ प्रयोग किया गया था, उनकी सेहत में सुधार आया। यह शोध कार्य बांग्लादेश के अंतर्राष्ट्रीय अतिसार अनुसंधान केंद्र के तहमीद अहमद और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के जेफ्री गॉर्डन के दलों ने संयुक्त रूप से किया है। दरअसल, अहमद पिछले 30 वर्षों से कोशिश कर रहे हैं कि कुपोषित बच्चों की सेहत में अच्छा सुधार हो। फिर उन्होंने गॉर्डन के शोध कार्य को देखा तो आशा की एक नई किरण नज़र आई। गॉर्डन ने मोटापे का सम्बंध आंतों के कुछ बैक्टीरिया से देखा था। दोनों ने सोचा कि क्या मोटापे के विपरीत ये सूक्ष्मजीव कुपोषण में भी कोई भूमिका निभाते हैं।

दोनों दलों ने 2014 में रिपोर्ट किया कि जब कोई शिशु घुटने चलने की स्थिति में आता है तो उसकी आंतों का सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्व’ होने लगता है। उन्होंने यह भी देखा कि गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों में सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्वता’ तक नहीं पहुंचता। इस समझ के आधार पर शोधकर्ताओं ने बच्चों से प्राप्त परिपक्व और अपरिपक्व सूक्ष्मजीव संसार को ऐसे चूहों में डाला जिन्हें बगैर सूक्ष्मजीवों के पाला गया था। प्रयोग में पता चला कि जिन चूहों को अपरिपक्व सूक्ष्मजीव संसार मिला था उनमें मांसपेशियां कम विकसित हुर्इं, हड्डियां कमज़ोर रहीं और उनका चयापचय भी गड़बड़ रहा। इसके आधार पर उनका निष्कर्ष था कि परिपक्व सूक्ष्मजीव संसार सही विकास के लिए ज़रूरी है।

इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि आंतों के सूक्ष्मजीवों में से कौन-से सूक्ष्मजीव परिपक्वता के लिए ज़िम्मेदार हैं। अहमद के दल ने बांग्लादेश के 50 बढ़ते शिशुओं के मल के नमूने प्रति माह एकत्र करके रखे थे। इनके विश्लेषण से पता चला कि इनमें से 15 बैक्टीरिया ऐसे हैं जो सूक्ष्मजीव संसार की परिपक्वता के साथ घटते-बढ़ते हैं। यही स्थिति पेरू और भारत के स्वस्थ शिशुओं में देखी गई।

तो विचार यह बना कि इन विशिष्ट सूक्ष्मजीवों को बढ़ावा देकर या उनका दमन करके कुपोषित बच्चों को वापिस स्वस्थ होने में मदद मिलेगी। चूहों और सूअर के पिल्लों में इस विचार का परीक्षण किया गया। कुछ चूहों और पिल्लों को कुपोषित बच्चों से प्राप्त सूक्ष्मजीव संसार दिया गया। शोधकर्ता देखना यह चाहते थे कि क्या कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं जो सूक्ष्मजीव संसार को बेहतर बना सकते हैं। निष्कर्ष निकला कि आम तौर पर खाद्य सहायता में जो चावल और दूध पावडर दिया जाता है वह कुपोषण दूर करने में नाकाम रहा। इसकी बजाय काबुली चने, केले और सोयाबीन और मूंगफली के आटे ने सूक्ष्मजीव संसार को स्वस्थ बनाने में मदद की। उनका कहना है कि इससे पता चलता है कि कुपोषित बच्चों के लिए खाद्य वस्तुओं के सही चुनाव का कितना महत्व है।

बांग्लादेश के कुपोषित बच्चों के साथ ऐसे ही एक सीमित अध्ययन में पता चला कि उपरोक्त चार चीज़ों का मिला-जुला उपयोग सही परिणाम देता है। अब अहमद इसी तरह चुने गए भोजन को लेकर बच्चों के एक बड़े समूह पर अध्ययन करने जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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