जुड़वां बच्चों के संसार में एक विचित्रता – सुशील जोशी

म तौर पर माना जाता है कि जुड़वां बच्चे हूबहू एक समान होते हैं। जुड़वां बच्चों की थीम पर बनी हिंदी फिल्मों ने इस धारणा को काफी बल दिया है। लेकिन तथ्य यह है कि दुनिया भर में जितने जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं उनमें से मात्र लगभग 10 प्रतिशत ही ऐसे ‘फिल्मी’ जुड़वां होते हैं। आम तौर पर जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं – समान और असमान। इन दोनों के निर्माण के तरीके में अंतर है। तकनीकी भाषा में इन्हें एकयुग्मज (समान) और द्वियुग्मज (असमान) जुड़वां कहते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि ऐसे जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है जो न तो पूरी तरह समान हैं न पूरी तरह असमान; ये आंशिक रूप से समान हैं। इस बात को समझने के लिए पहले जुड़वां बच्चों की बात को समझना आवश्यक है।

द्वियुग्मज जुड़वां बच्चे दो अलग-अलग अंडाणुओं के दो अलग-अलग शुक्राणुओं के साथ मेल के द्वारा विकसित होते हैं। स्त्री शरीर में सामान्य व्यवस्था यह है कि प्रति माह दो में से किसी एक अंडाशय में से अंडाणु मुक्त होता है। इस अंडाणु के किसी शुक्राणु से मिलन (निषेचन) के फलस्वरूप युग्मज यानी ज़ायगोट बनता है। यही ज़ायगोट विकसित होकर भ्रूण तथा शिशु का रूप लेता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही समय पर दोनों अंडाशयों में से एक-एक अंडाणु मुक्त हो जाता है। यदि इन दोनों का निषेचन हो जाए तो दो ज़ायगोट बन जाते हैं। दोनों ज़ायगोट बच्चादानी में जुड़ सकते हैं और आगे विकास जारी रख सकते हैं। चूंकि ये दोनों अलग-अलग अंडाणुओं और अलग-अलग शुक्राणुओं के निषेचन से बने हैं इसलिए इनमें उतनी ही समानता होती है जितनी किन्हीं भी दो भाई-बहनों के बीच होती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि ये दोनों एक साथ एक ही समय पर गर्भाशय में पलते हैं। इनमें दोनों लड़के, दोनों लड़कियां या एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं।

दूसरी ओर, एकयुग्मज जुड़वां (यानी समान जुड़वां) एक ही अंडाणु के एक ही शुक्राणु द्वारा निषेचन से पैदा होते हैं। इनमें जो ज़ायगोट बनता है वह निषेचन के बाद दो भागों में बंट जाता है और दोनों से शिशुओं का विकास होता है। इनमें आनुवंशिक सामग्री एक ही होती है और इसलिए ये हूबहू एक जैसे होते हैं। एकयुग्मज जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़कियां।

जिन कोशिकाओं से शुक्राणु और अंडाणु बनते हैं उनमें प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो प्रतियां पाई जाती हैं। शुक्राणु/अंडाणु बनते समय इनमें से एक ही प्रति उनमें जाती है। इस प्रकार से शुक्राणु/अंडाणु में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति होती है। निषेचन के समय हरेक गुणसूत्र की एक प्रति शुक्राणु से और एक प्रति अंडाणु से आती है। इस प्रकार से बच्चे अपने माता या पिता से 50-50 प्रतिशत आनुवंशिक सामग्री प्राप्त करते हैं।

लेकिन यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि इनके अलावा एक तीसरे किस्म के जुड़वां बच्चे भी होते हैं जिन्हें अर्ध-समान जुड़वां या सेमी-आइडेंटिकल ट्विन्स कहते हैं। ये बहुत बिरले होते हैं और यह भी पता नहीं है कि दुनिया में ऐसे आंशिक-समान जुड़वां कितने हैं – रिकॉर्ड में तो मात्र 1 था। हाल ही में दी न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में ऐसे ही अर्ध-समान जुड़वां के जन्म की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इनका जन्म जनवरी 2014 में ऑस्ट्रेलिया में हुआ था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें मां से मिलने वाले तो सारे जीन्स एक जैसे हैं मगर पिता से आए तीन-चौथाई जीन्स ही एक-दूसरे से मेल खाते हैं।

उक्त शोधपत्र के प्रमुख लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड बायोमेडिकल इनोवेशन के माइकेल गैबेट ने बताया है कि ऐसे अर्ध-समान जुड़वां पहली बार 2007 में यूएस में जन्म के बाद पहचाने गए थे। इस बार जो जुड़वां पहचाने गए हैं उन्हें सबसे पहले गर्भ में ही सोनोग्राफी की मदद से पहचाना गया था। पहली सोनोग्राफी में पता चला था कि वे समान जुड़वां हैं। मगर कुछ समय बाद यह देखकर डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ये दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की थे। समान जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़की।

इसके बाद डॉक्टरों ने उनके गर्भजल की जांच की। दोनों बच्चे अलग-अलग गर्भजल थैलियों में बढ़ रहे थे। इस जांच में पता चला कि इन जुड़वां में मां के 100 प्रतिशत जीन्स एक समान थे किंतु पिता के मात्र 78 प्रतिशत जीन्स ही समान थे।

तो ये अर्ध-समान जुड़वां कैसे बने? गैबेट ने इसे समझाने के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक संभवत: हुआ यह है कि एक अंडाणु को दो शुक्राणुओं ने निषेचित किया। प्रत्येक शुक्राणु में गुणसूत्र का अपना-अपना सेट होता है। यानी अंडाणु के गुणसूत्र दो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों से मिल गए। एक बार निषेचन हो जाने के बाद अंडाणु अभेद्य हो जाता है – एक शुक्राणु के अंडाणु में प्रवेश के बाद दूसरे शुक्राणु अंदर नहीं पहुंच सकते। यानी संयोगवश ये दो शुक्राणु एक ही समय पर अंडाणु से टकराए होंगे और दोनों को प्रवेश मिल गया होगा। तो अंदर गुणसूत्रों के तीन सेट हो गए होंगे। ये तीन कोशिकाओं में बंटे होंगे – एक में अंडाणु और प्रथम शुक्राणु के गुणसूत्र, दूसरी में अंडाणु और दूसरे शुक्राणु के गुणसूत्र तथा तीसरी में दोनों शुक्राणुओं के गुणसूत्र। संतान के विकास के लिए माता-पिता दोनों के गुणसूत्र होना ज़रूरी है। लिहाज़ा तीसरी कोशिका की मृत्यु हो गई होगी। शेष दो कोशिकाएं आपस में मिल गई होंगी और फिर दो में विभाजित होकर दो शिशु विकसित हुए होंगे।

एक परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की गई है कि पहले कोई अनिषेचित अंडाणु दो में बंट जाता है और ये दोनों भाग आपस में जुड़े रह जाते हैं। इन दोनों का ही निषेचन हो सकता है। इन दोनों अंडाणुओं का निषेचन अलग-अलग शुक्राणुओं से हो जाता है और निषेचन के बाद ये आपस में मिल जाते हैं। कुछ समय विकास के बाद यह मिला-जुला अंडा फिर से दो में विभाजित होकर दो शिशुओं को जन्म देता है। इस तरह से इन दोनों में मां के तो सारे गुणसूत्र एक जैसे होंगे मगर पिता के दो शुक्राणुओं से प्राप्त मिले-जुले गुणसूत्र होंगे।

इन जुड़वां में कुछ और भी विचित्रताएं हैं। जैसे दोनों में नर व मादा दोनों लिगों के गुणसूत्र हैं। मनुष्य में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक-दूसरे के पूरक होते हैं मगर 23वीं जोड़ी के गुणसूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें एक्स और वाय गुणसूत्र कहते हैं। 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक्स हों तो लड़की बनती है और यदि 23वीं जोड़ी में एक एक्स तथा दूसरा वाय गुणसूत्र हो तो लड़का बनता है। ऑस्ट्रेलियाई जुड़वां में दोनों की कुछ कोशिकाओं में एक्स-एक्स जोड़ी है जबकि कुछ कोशिकाओं में एक्स-वाय जोड़ी है। विभिन्न कोशिकाओं में इस तरह से नर व मादा गुणसूत्र जोड़ियों का पाया जाना कई समस्याओं को जन्म देता है। जब डॉक्टरों ने जुड़वां में से लड़की के अंडाशय की जांच की तो पाया कि उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जो कैंसर को जन्म दे सकते हैं। ऐहतियात के तौर पर उसके अंडाशय हटा दिए हैं। अच्छी खबर यह है कि ये दो जुड़वां बच्चे अब साढ़े चार साल के हो चुके हैं और सामान्य ढंग से विकसित हो रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारियों को सूंघने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नाक

ह तो जानी-मानी बात है कि कुत्तों की सूंघने की क्षमता ज़बरदस्त होती है। मगर जिस इलेक्ट्रॉनिक नाक की बात हो रही है वह कुत्तों को सूंघने का काम करती है। यह इलेक्ट्रॉनिक नाक खास तौर से लेश्मानिएसिस नामक रोग से ग्रस्त कुत्तों को पहचानने के लिए विकसित की गई है। इस रोग को भारत में कालाज़ार या दमदम बुखार के नाम से भी जाना जाता है।

लेश्नानिएसिस एक रोग है जो कुत्तों और इंसानों में एक परजीवी लेश्मानिया की वजह से फैलता है और इस परजीवी की वाहक एक मक्खी (सैंड फ्लाई) है। मनुष्यों में इस रोग के लक्षणों में वज़न घटना, अंगों की सूजन, बुखार वगैरह होते हैं। कुत्तों में दस्त, वज़न घटना तथा त्वचा की तकलीफें दिखाई देती हैं। सैंड फ्लाई इस रोग के परजीवियों को कुत्तों से इंसानों में फैलाने का काम करती है। यह रोग ब्राज़ील में ज़्यादा पाया जाता है और इसका प्रकोप लगातार बढ़ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक नाक दरअसल वाष्पशील रसायनों का विश्लेषण करने का उपकरण है। इसमें नमूने के वाष्पशील रसायनों के द्वारा उत्पन्न वर्णक्रम के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। फिलहाल स्वास्थ्य विभाग के पास लेश्मानिएसिस की जांच के लिए जो तरीका है उसमें काफी समय लगता है। इलेक्ट्रॉनिक नाक इसमें मददगार हो सकती है।

पिछले दिनों शोधकर्ताओं ने 16 लेश्मानिया पीड़ित कुत्तों और 185 अन्य कुत्तों के बालों के नमूनों पर प्रयोग किया। इन बालों को एक पानी भरी थैली में रखकर गर्म किया गया ताकि इनमें उपस्थित वाष्पशील रसायन वाष्प बन जाएं। इसके बाद प्रत्येक नमूने का विश्लेषण इलेक्ट्रॉनिक नाक द्वारा किया गया। ई-नाक ने लेश्मानिएसिस पीड़ित कुत्तों की पहचान 95 प्रतिशत सही की। अब इसे और सटीक बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक नाक रोग निदान का एक उम्दा उपकरण साबित होगा। उम्मीद तो यह है कि इसका उपयोग मलेरिया, मधुमेह जैसे अन्य रोगों की पहचान में भी किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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आंतों के बैक्टीरिया बताएंगे आपकी सच्ची उम्र

ह तो जानी-मानी बात है कि हमारी आंतों में अरबों बैक्टीरिया निवास करते हैं। दरअसल, अनुमान तो यही है कि किसी मनुष्य के शरीर में उसकी अपनी कोशिकाओं की तुलना में इन बैक्टीरिया की संख्या ज़्यादा होती है। और ये बैक्टीरिया आपकी पाचन शक्ति से लेकर आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली तक को प्रभावित करते हैं। हमारे इन सूक्ष्मजीव साथियों को हमारा सूक्ष्मजीव संसार कहते हैं। लेकिन जो बात पता नहीं है, वह है कि यह सूक्ष्मजीव संसार उम्र के साथ कैसे बदलता जाता है या एक सामान्य सूक्ष्मजीव संसार किसे कहें। हाल ही में इनसिलिको मेडिसिन नामक कंपनी के शोधकर्ता एलेक्स ज़वोरोनकोव और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की है।

शोधकर्ताओं ने इसके लिए दुनिया भर के 1165 स्वस्थ व्यक्तियों के आंतों के बैक्टीरिया के नमूने लिए। इनमें से लगभग एक-तिहाई की उम्र 20 से 39 वर्ष, एक-तिहाई की 40 से 59 वर्ष और शेष की 60 से 90 वर्ष थी। इन नमूनों के आंकड़ों का विश्लेषण कंप्यूटर से मशीन लर्निंग तकनीक से किया गया। इसके लिए उन्होंने जिस एल्गोरिदम का उपयोग किया वह ठीक उस तरह काम करता है जैसे मस्तिष्क की तंत्रिकाएं काम करती हैं। उन्होंने 90 प्रतिशत नमूनों का विश्लेषण उनमें पाए गए बैक्टीरिया की 95 प्रजातियों के आधार पर किया था। इसके आधार पर कंप्यूटर ने यह सीख लिया कि उम्र के साथ इन बैक्टीरिया के अनुपात में किस तरह के परिवर्तन आते हैं।

इसके बाद ज़वोरोनकोव की टीम ने कंप्यूटर को बाकी 10 प्रतिशत लोगों के बारे में उनकी उम्र का अंदाज़ लगाने को कहा। देखा गया कि उनका एल्गोरिद्म व्यक्ति की उम्र का अंदाज़ 4 वर्ष की सीमा के अंदर सही लगा लेता है। यानी कंप्यूटर सूक्ष्मजीव संसार के आधार पर व्यक्ति की जो उम्र बताता है उसमें 2 वर्ष की कमी-बेशी हो सकती है। यह भी पता चला कि उम्र का अंदाज़ लगाने में बैक्टीरिया की 95 प्रजातियों में से 39 प्रजातियां सबसे महत्वपूर्ण हैं।

ज़वोरोनकोव की टीम को पता चला कि उम्र के साथ कुछ बैक्टीरिया का अनुपात बढ़ता है (जैसे यूबैक्टीरियम हैली, जो आंतों में चयापचय में महत्वपूर्ण माना जाता है)। दूसरी ओर कुछ बैक्टीरिया की संख्या घटती है (जैसे बैक्टीरॉइड्स वल्गेरिस, जो आंतों की एक किस्म की सूजन के लिए जवाबदेह माना जाता है)। यह भी लगता है कि भोजन, नींद की आदतें, शारीरिक व्यायाम वगैरह बैक्टीरिया की प्रजातियों की प्रचुरता में बदलाव लाते हैं।

यदि टीम के उपरोक्त निष्कर्ष की पुष्टि होती है, तो यह अन्य जैविक चिंहों के समान व्यक्ति की उम्र का एक और चिंह साबित होगा। इसके अलावा यह कई बीमारियों को समझने में भी मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन की बारहखड़ी में चार नए अक्षर

कुछ वर्ष पहले यह खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में 2 नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। अब फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के स्टीवन बेनर की टीम ने साइन्स में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने आनुवंशिक अणु में चार नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है और यह नया डीएनए अणु कुदरती अणु के समान कई कार्य करने में सक्षम है और काफी स्थिर है।

दरअसल, किसी भी जीव की शारीरिक क्रियाएं प्रोटीन्स के दम पर चलती हैं। इन प्रोटीन्स के निर्माण का सूत्र डीएनए में होता है। डीएनए की रचना मूलत: चार क्षारों एडीनीन, ग्वानीन, सायटोसीन और थायमीन से बनी होती है। इन क्षारों की विशेषता है कि डीएनए में सदा एडीनीन के सामने थायमीन तथा सायटोसीन के सामने ग्वानीन होता है। इस प्रकार से यदि डीएनए की एक शृंखला मौजूद हो तो उसके अनुरूप दूसरी शृंखला बनाई जा सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण की बुनियाद है। तीन-तीन क्षारों की तिकड़ियां एक-एक अमीनो अम्ल की द्योतक होती है। इस प्रकार से डीएनए अमीनो अम्लों की एक विशिष्ट शृंखला का निर्देश दे सकता है और अमीनो अम्लों के जुड़ने से प्रोटीन बनते हैं। कुदरत का काम चार क्षार-अक्षरों से चल जाता है।

बेनर की टीम ने सामान्य क्षारों की संरचना में फेरबदल करके चार नए क्षार बनाए और इन्हें डीएनए के अणु में जोड़ दिया। इस आठ अक्षर वाले डीएनए को उन्होंने हचिमोजी नाम दिया है – जापानी भाषा में हचि मतलब आठ और मोजी मतलब अक्षर। प्रत्येक कृत्रिम क्षार किसी एक कुदरती क्षार के समान रचना वाला है। सबसे पहले उन्होंने यह दर्शाया कि नए क्षार कुदरती क्षारों के साथ जोड़ियां बना लेते हैं। डीएनए के हज़ारों अणु बनाकर वे यह दर्शा पाए कि प्रत्येक क्षार एक ही जोड़ीदार से जुड़ता है। प्रयोगों के दौरान उन्होंने यह भी देखा कि इस संश्लेषित डीएनए की रचना काफी स्थिर है।

इसके बाद बेनर की टीम ने यह भी करके दिखाया कि उनके संश्लेषित डीएनए से एक अन्य अणु आरएनए भी बनाया जा सकता है। दरअसल, डीएनए में उपस्थित सूचना का उपयोग आरएनए के माध्यम से होता है। यानी उनके संश्लेषित डीएनए में न सिर्फ सूचना (प्रोटीन निर्माण के निर्देश) संग्रहित रहती है बल्कि उसे प्रोटीन के रूप में अनूदित भी किया जा सकता है।

इस शोध के द्वारा बेनर ने एक तो यह दर्शा दिया है कि जीवन का आधार डीएनए अन्य क्षारों से भी काम चला सकता है। इसके अलावा, यह भी दर्शाया जा चुका है ऐसा संश्लेषित डीएनए कैंसर कोशिकाओं से निपटने में भूमिका निभा सकता है। और इस नए डीएनए की मदद से सर्वथा नए प्रोटीन भी बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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एक दुर्लभ ब्लड ग्रुप की जांच संभव हुई – एस. अनंतनारायण

दुर्घटनावश अधिक खून बह जाने पर, सर्जरी के वक्त, किसी बीमारी या अन्य कारणों में मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है। सन 1901 में पता लगा था कि मरीज़ को चढ़ाया जाने वाला खून सही रक्त समूह (मरीज के रक्त समूह) का होना चाहिए। इस खोज के पहले, मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने पर कभी-कभी तो मरीज़ ठीक हो जाते थे लेकिन अक्सर मरीज़ की मृत्यु हो जाती थी क्योंकि उसका शरीर बाहर से चढ़ाए गए खून को अस्वीकार कर देता था। 1901 में पता यह चला था कि रक्त के चार समूह होते हैं और हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इसके बाद मरीज़ों को सही रक्त समूह का खून चढ़ाया जाने लगा और मरीज़ बच सके।

वैसे इन चार रक्त समूहों के अलावा कई अन्य गुणधर्मों का भी मिलान करना पड़ता है मगर ये दुर्लभ रक्त समूह के व्यक्तियों के मामले में ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसे मामलों में सिर्फ इतने से बात नहीं बनती कि मरीज़ और रक्तदाता का रक्त समूह मेल खाए। और भी कई कारकों का मिलना आवश्यक होता है। अन्यथा मरीज़ को खुद अपना रक्त सर्जरी या आपात स्थिति के लिए भंडार करके रखना पड़ता है।

ऐसे ही एक दुर्लभ रक्त समूह (Vel नेगेटिव) के बारे में 1952 में पता चला था। यह रक्त समूह रक्त-परीक्षण द्वारा पहचान में नहीं आता है और मरीज़ को खुद पता नहीं होता कि उसे इस दुर्लभ रक्त समूह की ज़रूरत है। इसी वजह से इस रक्त समूह के रक्तदाता पहचाने नहीं जाते और ब्लड बैंक में इसका भंडारण नहीं हो पाता। वरमॉन्ट विश्वविद्यालय के ब्राायन बैलिफ और फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूज़न के लियोनेल अरनॉड और उनके साथियों ने ईएमबीओ मॉलीक्यूलर मेडिसिन पत्रिका में बताया है कि उन्होंने इस दुर्लभ रक्त समूह की पहचान करने का तरीका खोज लिया है। अब इसकी मदद से लोगों में दुर्लभ रक्त समूहों को पहचाना जा सकेगा।

रक्त समूह

रक्त समूह लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर उपस्थित एंटीजन से तय होता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी तत्वों के खिलाफ एंटीबॉडी बनाकर उन्हें मारती है। एंटीबॉडी का निर्माण एंटीजन को पहचानकर होता है। किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अपनी रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट को पहचानती है और उन्हें नहीं मारती। रक्त कोशिकाओं की इन्हीं बनावट के आधार पर रक्त को चार रक्त समूह (A, B, AB  और O) में बांटा गया है। रक्त समूह A और B की बनावट एकदम भिन्न होती हैं। AB रक्त समूह में A और B दोनों रक्त समूह की बनावट होती है जबकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन नहीं होते। A, B और O रक्त समूह के लोग सिर्फ अपने रक्त समूह का रक्त ले सकते हैं। जबकि AB रक्त समूह के व्यक्ति किसी भी रक्त समूह (A, B और O) का रक्त ले सकते हैं। चूंकि रक्त समूह O की सतह पर कोई एंटीजन नहीं होते इसीलिए किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को O समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है।

रक्त समूह के अलावा एक और फैक्टर होता है – Rh फैक्टर। Rh फैक्टर नेगेटिव या पॉज़ीटिव हो सकता है। जिन लोगों का रक्त समूह Rh पॉज़ीटिव  होता है उन्हें Rh नेगेटिव रक्त चढ़ा सकते हैं लेकिन इसके विपरीत, Rh नेगेटिव वाले व्यक्ति को Rh पॉज़ीटिव  रक्त नहीं चढ़ा सकते। यानी  A नेगेटिव, B नेगेटिव या O नेगेटिव रक्त समूह के व्यक्ति को सिर्फ उन्हीं के समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है। AB पॉज़ीटिव रक्त समूह के व्यक्ति को किसी भी रक्त समूह का खून चढ़ाया जा सकता है। जबकि O नेगेटिव किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है।

इनके अलावा लगभग 32 अन्य फैक्टर हैं जिन्हें रक्तदान के समय मिलाने की ज़रूरत होती है। हालांकि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में ज़रूरी होता है। यह देखा गया है कि इनमें से कुछ फैक्टर कुछ खास समुदाय के लोगों में ही होते हैं। जैसे U नेगेटिव रक्त समूह सिर्फ अफ्रीकी मूल के लोगों का होता है। जबकि Vel नेगेटिव और Lan नेगेटिव समूह सिर्फ हल्के रंग की त्वचा के लोगों का होता है। तो यदि रक्तदाता के समुदाय के बारे में पता हो तो इन दुर्लभ रक्त समूहों को इमरजेंसी के वक्त ढूंढ़ने में आसानी होगी।

Vel नेगेटिव रक्त समूह

Vel नेगेटिव ऐसा ही एक दुर्लभ रक्त समूह है। इस रक्त समूह का नाम एक 66 वर्षीय मरीज़ के नाम पर रखा गया है जो आंत के कैंसर से पीड़ित थी। 1962 में इस मामले की जानकारी चिकित्सा शोध पत्रिका रेव्यू डी’हिमेटोलॉजी में प्रकाशित हुई थी। पूर्व में कभी खून चढ़ाने के दौरान वेल के शरीर ने एक अज्ञात यौगिक के खिलाफ एक बहुत ही शक्तिशाली एंटीबॉडी बना ली थी। यह यौगिक सामान्यत: लोगों की लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है लेकिन वेल की रक्त कोशिकाओं से नदारद था। इसके बाद इस अज्ञात यौगिक की खोज शुरु हुई और एक नए रक्त समूह Vel नेगेटिव के बारे में पता चला। इसके बाद इससे मिलते-जुलते कई मामले सामने आए। युरोप और उत्तरी अमेरिका के लगभग 2500 लोगों में से एक व्यक्ति का रक्त समूह Vel नेगेटिव  है।

पिछले 60 सालों में यह पता नहीं चल पाया था कि Vel नेगेटिव रक्त समूह के लिए कौन-सा रासायनिक अणु ज़िम्मेदार है। इस वजह से इस रक्त समूह के लोगों की पहचान का भी कोई तरीका नहीं था। इस रक्त समूह के बारे में तभी पता चलता है जब किसी व्यक्ति का शरीर बार-बार बाहरी रक्त को अस्वीकार कर रहा हो। एक तो Vel नेगेटिव रक्त समूह बिरले ही किसी का होता है, ऊपर से इसकी पहचान करना भी मुश्किल है। इस कारण इमर्जेंसी में अघिकांश मरीज़ सही रक्त ना मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। यदि रक्त समूह पता हो तो भी इस समूह का रक्तदाता मिलना मुश्किल होता है।

Vel नेगेटिव रक्त समूह की पहचान की मुश्किल हल करने में बैलिफ, अरनॉड और उनके साथियों का योगदान महत्वपूर्ण है। सबसे पहले अरनॉड और उनके साथियों ने Vel नेगेटिव रक्त समूह की एंटीबॉडी काफी मात्रा में इकठ्ठा की। उसके बाद जैव-रासायनिक विधि से लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से रहस्यमय प्रोटीन (एंटीबॉडी) को अलग किया। इसके बाद वरमॉन्ट विश्वविद्यालय में बैलिफ के नेतृत्व में कार्य आगे बढ़ा। बैलिफ ने उच्च आवर्धक क्षमता वाले उपकरणों, जो आवेशित आणविक हिस्सों को भी अलग-अलग कर देते हैं, की मदद से छिपकर बैठे प्रोटीन की पहचान की। बैलिफ ने बताया,  “हमें हज़ारों प्रोटीन में से एक को पहचानना था। जो प्रोटीन हमें मिला, वह प्रोटीन के मान से बहुत छोटा था, जिसे SIMM 1 नाम दिया गया।” इसके बाद अरनॉड की टीम ने 70 ऐसे लोगों का परीक्षण किया जिनका रक्त समूह Vel नेगेटिव था। उन्होंने पाया कि हरेक व्यक्ति के जीन में डीएनए का एक हिस्सा गायब था, जो कोशिका को SIMM 1  बनाने का निर्देश देता है। यह इस बात का प्रमाण था कि किसी व्यक्ति की लाल रक्त कोशिका में SIMM 1 प्रोटीन की अनुपस्थिति या कमी की वजह से ही Vel नेगेटिव रक्त समूह बनता है।

इस खोज के बाद किसी व्यक्ति का डीएनए परीक्षण करके इस रक्त समूह की पहचान की जा सकती है। Vel नेगेटिव जैसे दुर्लभ रक्त समूह की पहचान और उसकी आसान उपलब्धता सबके लिए चिकित्साके लक्ष्य की ओर एक कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आंत के सूक्ष्मजीव मनोदशा को प्रभावित करते हैं

व्यक्ति की आंत व अन्य ऊतकों में बैक्टीरिया का संसार स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। लेकिन मस्तिष्क पर इसके प्रभाव सबसे अधिक हो सकते हैं। युरोप के दो बड़े जनसमूहों के एक अध्ययन में पाया गया है कि अवसादग्रस्त लोगों की आंत में बैक्टीरिया की कई प्रजातियां मौजूद नहीं होती हैं। बैक्टीरिया की अनुपस्थिति किसी बीमारी की वजह से हो या यह अनुपस्थिति किसी बीमारी को जन्म देती हो लेकिन तथ्य यह है कि आंत के कई बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए पदार्थ तंत्रिकाओं के कार्य और मिज़ाज को प्रभावित करते हैं। 

पूर्व में किए गए कुछ छोटे-छोटे अध्ययनों में पाया गया था कि अवसाद की दशा में आंत के बैक्टीरिया की स्थिति में बदलाव आता है। इस अध्ययन को बड़े समूह पर करने के लिए कैथोलिक विश्वविद्यालय, बेल्जियम के सूक्ष्मजीव विज्ञानी जीरोन रेस और उनके सहयोगियों ने सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के आकलन के लिए 1054 बेल्जियम नागरिकों को चुना। इनमें 173 लोग अवसाद से ग्रसित रहे थे या जीवन की गुणवत्ता के सर्वेक्षण में उनकी हालत घटिया पाई गई थी। इसके बाद टीम ने अन्य प्रतिभागियों से इनके सूक्ष्मजीव संसार की तुलना की। इस अध्ययन में स्वस्थ लोगों की तुलना में अवसाद ग्रस्त लोगों के सूक्ष्मजीव संसार में दो प्रकार के बैक्टीरिया (कोप्रोकॉकस और डायलिस्टर) नहीं पाए गए। शोधकर्ताओं ने अवसादग्रस्त लोगों में क्रोह्न रोग के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि भी देखी।

अक्सर एक आबादी में सूक्ष्मजीव संसार सम्बंधी परिणाम अन्य समूहों से मेल नहीं खाते हैं। इसके लिए टीम ने 1064 डच लोगों के सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों पर भी गौर किया। वहां भी अवसादग्रस्त लोगों में वही दो बैक्टीरिया प्रजातियां नदारद थीं।

बैक्टीरिया को मनोदशा से जोड़ने की कड़ी को समझने के लिए रेस और उनके सहयोगियों ने तंत्रिका तंत्र कार्य के लिए महत्वपूर्ण 56 पदार्थों की एक सूची तैयार की, जिनका उत्पादन या विघटन आंत के बैक्टीरिया करते हैं। उन्होंने पाया कि कोप्रोकोकस डोपामाइन नामक रसायन जैसा मार्ग अपनाते हैं जो अवसाद का एक प्रमुख मस्तिष्क संकेत है। यह वही बैक्टीरिया है जो ब्यूटिरेट नामक एक सूजन उत्तेजक पदार्थ भी बनाता है, और सूजन का सम्बंध अवसाद से देखा गया है।

बैक्टीरिया की अनुपस्थिति और अवसाद का सम्बंध तो समझ में आता है लेकिन आंत में सूक्ष्मजीवों द्वारा बनाए गए यौगिक कैसे असर डालते हैं यह समझना मुश्किल है। इसका एक संभव रास्ता वेगस तंत्रिका है, जो आंत और मस्तिष्क को जोड़ती है।

कुछ चिकित्सक और कंपनियां पहले से ही अवसाद के लिए विशिष्ट प्रोबायोटिक्स की खोज कर कर रहे हैं लेकिन वे आम तौर से इस नए अध्ययन में पहचाने गए बैक्टीरिया समूह को शामिल नहीं करते हैं। बेसल विश्वविद्यालय, स्विट्जरलैंड में मल-प्रत्यारोपण के एक परीक्षण की योजना बनाई जा रही है, जो अवसादग्रस्त लोगों में आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को ठीक कर सकता है। कई लोग और अध्ययन करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अपने खुद के रक्तदाता बनिए – नरेंद्र देवांगन

क महिला स्विट्जरलैंड की सीमा शुल्क चौकी पर एक छोटा-सा सूटकेस तथा प्लास्टिक की बर्फपेटी लिए कतार में लगी थी। सीमा शुल्क अधिकारी ने पूछा कि इस पेटी में क्या है? उसे लगा था कि उसमें कोई फ्रांसीसी व्यंजन है जो वह दोस्तों के लिए ले जा रही है।

लेकिन उत्तर मिला, खून अधिकारी चौंक गया, खून? महिला ने स्पष्ट किया कि बर्फपेटी में स्वयं उसके खून की तीन थैलियां बर्फ में दबाकर रखी हैं जो पेरिस के ब्रूसे अस्पताल में पिछले तीन सप्ताह में उसके शरीर से निकाला गया था। कल यही खून लौसाने स्थित एक अस्पताल में उसकी ह्मदय की बायपास सर्जरी के बाद उसे ही चढ़ा दिया जाएगा। सर्जन वहां सर्जरी के दौरान निकले खून को सोखने तथा शोधन के लिए सेल वॉशर का भी उपयोग करते थे। इस प्रकार, सर्जरी के दौरान व बाद में उसे अपना ही खून दिया जाने वाला था ताकि एड्स या हेपेटाइटिस का कोई जोखिम न रहे।

अध्ययन दर्शाते हैं कि दान किए गए खून में एड्स वायरस (एचआईवी) मिलावट की संभावना बनी रहती है, भले यह अत्यल्प है। जॉर्जिया के अटलांटा स्थित अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्र के अनुसार दान किए गए खून द्वारा या किसी ओर का खून चढ़ाए जाने के कारण अमरीका में 1985 से अब तक प्रति वर्ष लगभग 460 व्यक्ति एड्स वायरस से संक्रमित होते रहे हैं। प्रसंगवश, इसी वर्ष दान में आए खून की एड्स सम्बंधी जांच अनिवार्य की गई थी।

वैसे शल्य चिकित्सा के अधिकांश मामलों में खून चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन कई सर्जरी के दौरान अत्यधिक खून बह सकता है। जैसे बायपास सर्जरी में 2 से 4.7 लीटर तक खून बह सकता है जो औसत वयस्क व्यक्ति के कुल खून का आधा है। इस कमी को पूरा करने की तत्काल आवश्यकता होती है वरना रोगी गहरे आघात वाली स्थिति में पहुंच सकता है तथा उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

पहले कुछ ही रोगी पर-रक्ताधान (किसी अन्य का खून लेना) के खतरों के प्रति चिंतित रहा करते थे। उदाहरण के लिए, एक पोत के सेवानिवृत्त कप्तान राइटेर को 1980 में न्यूयॉर्क के अस्पताल में कूल्हा बदलवाना पड़ा। वह जानता था कि इस प्रक्रिया में उसे अत्यधिक खून गंवाना पड़ेगा, लेकिन वह यह भी जानता था कि खून की कमी की पूर्ति किसी रक्तदान केंद्र से सही ग्रुप के खून से कर दी जाएगी। पर न तो राइटेर और न ही उसके चिकित्सक वाकिफ थे कि ऐसे खून की एक-एक बूंद खतरे का कारण बन सकती है। इसके कुछ वर्षों बाद ही चिकित्सा क्षेत्र में यह जागरूकता आई कि एड्स का वायरस खून से भी एक से दूसरे तक पहुंचता है। तो अत्यधिक विश्वसनीय एवं जीवन रक्षक उपचार अचानक जोखिम से घिर गया।

खैर, राइटेर में तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं हुआ किंतु 1979 से 1985 में पर-रक्त प्राप्त करने वाले अन्य सभी लोग इतने भाग्यशाली न थे। अध्ययनों के अनुसार, जिन रोगियों को 80 के दशक के शुरू में पर-रक्त चढ़ाया गया था, उनमें से लगभग 5 से 6 प्रतिशत एड्स के संपर्क में आ गए, तथा 5 से 17 प्रतिशत हेपेटाइटिस-सी के विषाणुओं से संक्रमित हो गए।

पर-रक्त की सर्वथा निरापद आपूर्ति असंभव है। यद्यपि दान में आए रक्त में एचवाईवी की उपस्थिति की जांच अधिकतर देशों में अनिवार्य हो गई है, लेकिन वायरस आरंभिक अवस्था में हो तो वे पकड़ में नहीं आते हैं। अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्रों के अनुसार सर्जरी में रोगी को 5 युनिट पर-रक्त देने पर एड्स विषाणु से संक्रमित होने की संभावना दस हज़ार में एक को होती है।

अत: पूर्णत: निरापद रूप से रक्त चढ़ाना हो तो इसका उपाय यही है कि रक्त स्वयं आपका ही हो। सर्जरी के अधिकतर मामलों में रक्तदान सर्जरी से तीन सप्ताह पहले शुरू कर दिया जाता है तथा सामान्यत: रक्त को संपूर्ण अथवा प्राकृतिक अवस्था में किसी आम रेफ्रिजरेटर में रख दिया जाता है। हां, रक्त ज़्यादा बह जाने की आशंका हो तो रक्तदान शल्य चिकित्सा से कई माह पहले भी शुरू हो सकता है। ऐसे में रक्त कोशिकाओं, जिन्हें केवल पांच सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है, को अलग कर लिया जाता है तथा रोगी को चढ़ा दिया जाता है। शेष तरल रक्त प्लाज़्मा को शून्य से 56 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर एकदम से जमा कर फ्रीजर में रख दिया जाता है। इस अवस्था में इसे दो से तीन वर्षों तक अच्छी दशा में यथावत रखा जा सकता है।

घालमेल से बचने के लिए थैलियों पर पर्चियां लगा दी जाती हैं। अक्सर कंप्यूटर द्वारा पठनीय लिपि कोड तक संलग्न होता है जिसमें रोगी का नाम, खून का वर्ग, पहचान संख्या तथा आंकडे होते हैं। अतिरिक्त स्वरक्त चाहिए हो तो शल्य क्रिया के ठीक पहले लाल रक्त कोशिका के अनुपात में प्लाज़्मा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक को रक्त तनुकरण कहा जाता है।

स्वरक्ताधान को महत्वपूर्ण तकनीकी बढ़ावा छोटे आकार के सेंट्रिफ्यूज जैसे यंत्र से मिला है जिसे सेल वॉशर कहते हैं। इससे सर्जरी के दौरान तथा बाद में बहे रक्त का उपयोग शोधन के बाद कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए जब राइटेर ही दूसरी बाद कूल्हा बदलवाने के लिए गया तो उसके घावों से बहते खून को ‘नली’ द्वारा चूसकर ऑपरेशन की मेज़ के पास लगे सेल वॉशर में पहुंचा दिया गया।

इसके साथ ही साथ डॉक्टरों द्वारा अलग किए गए रक्त से भरे पतले स्पंजों को इकट्ठा कर चीनी मिट्टी के पात्र में निचोड़ा जाता है तथा रक्त की छोटी मात्रा को उसी नली का प्रयोग कर चूस लिया जाता है।

शल्य क्रिया के दौरान रक्त शोधन का दोहरा लाभ है। वॉशर लाल रक्त कोशिकाओं को पुन: चढ़ाए जाने के लिए 3 से 7 मिनटों में तैयार कर देता है और रोगी के अपने रक्त का प्रयोग होने के कारण रक्त के बेमेल होने, संक्रमित होने तथा एलर्जी होने के जोखिम समाप्त हो जाते हैं। राइटेर के मामले में सर्जरी के दौरान बहे रक्त का लगभग 75 प्रतिशत वॉशर द्वारा फिर से प्राप्त कर लिया गया। 4 युनिट रक्त सर्जरी से पहले निकाला गया था वह बाद में उसे चढ़ा दिया गया। 

यद्यपि ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां स्वरक्ताधान न तो संगत है, न ही अनुमोदनीय। उदाहरण के लिए कैंसर सर्जरी में रोगी का अपना रक्त शरीर के अन्य भागों में भी कैंसर को फैला देगा। फिर आपात सर्जरी के पहले से रक्तदान के लिए समय नहीं होता तथा हो सकता है कि अस्पताल में वॉशर न हो। फिर दुर्घटना में घायल रोगी के अपने खून का बड़ा हिस्सा दुर्घटनास्थल पर ही बह चुका होता है तथा दुर्बल तथा खून की कमी से ग्रस्त रोगी के मामले में स्वरक्तदान उसकी दशा और भी बिगाड़ सकते हैं। ऐसे मामलों में पररक्त के अलावा और कोई चारा नहीं है।

लेकिन ऐसे प्रत्येक रोगी को, जो स्वैच्छिक शल्य चिकित्सा करवाने जा रहा है, स्वरक्ताधान का विकल्प प्रस्तुत क्यों नहीं किया जाता है? एक कारण है धन। फ्रांस में ही वॉशर की कीमत लगभग 2 लाख यूरो है तथा रक्तदान केंद्रों द्वारा संशोधित रक्त का प्रयोग करना लगभग तीन गुना महंगा पड़ता है। इसी के परिणामस्वरूप अधिकतर अस्पताल मानते भी हैं कि दान किए गए पररक्त द्वारा एड्स तथा यकृतशोथ के संक्रमण होने के छोटे से जोखिम को देखते हुए ऐसी महंगी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है।

अपने रक्त की पर्याप्त आपूर्ति की सुनिश्चितता के लिए अस्पताल से दूर रहने वाले स्वैच्छिक रोगी अपने इलाके में भी स्वरक्तदान की व्यवस्था कर सकते हैं तथा रक्त को अपने साथ कहीं भी लाया ले जाया जा सकता है या विमान से भी भेजा जा सकता है। एक से दूसरे अस्पताल तथा एक से दूसरे देश के नियम पृथक होते हैं, इसलिए रोगी को पहले से ही रक्तदान और रक्ताधान के विषय में पूछताछ कर लेनी चाहिए। स्वरक्तदान द्वारा अब कम से कम दो घातक रोगों से बचने का उपाय उपलब्ध हो गया है। इसलिए सबसे निरापद यही है कि आप बन सकते हैं तो अपने खुद के रक्तदाता बनिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्थाआधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौरतरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।

संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।

तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उपसहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांसखाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।

चलतेचलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि वि·ा के पानी में से एकतिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।

इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंदमूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।

अतिभक्षण से बचें

इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा अतिभक्षण से बचें। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।

भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतुआधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतुआधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दालफली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।

और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरणसम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।

शाकाहारी बनें या वेगन?

हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायुस्नेही लोग लचीलाहारीहोने की दिशा में आगे बढ़े हैं। लचीलाहारीशब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे मौकाहारीभी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौकाटेरियनका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौकाटेरियन है।

शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीवजंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येताकवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक,और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे

शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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घाव के इलाज में तैनात इल्लियां

घाव में कीड़े पड़ना बहुत बुरी बात समझी जाती है। कई जगहों पर तो यदि किसी व्यक्ति के घाव में कीड़े पड़ जाएं तो उसका बहिष्कार किया जाता है और वापिस समाज में शामिल होने के लिए उसे सबको दावत देनी होती है। मगर अब चिकित्सा शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि ऐसी इल्लियों का उपयोग घायल लोगों के घावों के उपचार के लिए किया जाए।

यू.के. ने इल्ली-उपचार को वास्त्विक परिस्थिति में आंकने के लिए मैगट प्रोजेक्ट नामक एक परियोजना तैयार की है। इस प्रोजेक्ट के तहत यू.के. सरकार सीरिया, यमन और दक्षिणी सूडान जैसे इलाकों में इल्लियां भेजने जा रही है जहां उनका उपयोग घायलों के उपचार में किया जाएगा। ये इल्लियां ग्रीन बॉटल मक्खियों की हैं। यह देखा गया है कि जैसे ही ये घाव में पहुंचती हैं, वहां उपस्थित मृत कोशिकाओं को खाना शुरू कर देती हैं और अपनी बैक्टीरिया-रोधी लार फैला देती हैं जिससे घाव में बैक्टीरिया नहीं पनपने पाते।

वीभत्स लगने वाले इस उपचार का उपयोग काफी समय से होता आया है। जैसे ऑस्ट्रेलिया के देशज लोग इल्लियों का उपयोग घाव की सफाई हेतु करते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी इनका उपयोग किया गया था।

प्रोजेक्ट के तहत स्थानीय अस्पताल स्वयं इल्लियां पालेंगे। इसके लिए मक्खियां पाली जाएंगी और उनके अंडों को बैक्टीरिया मुक्त करके एक-दो दिन तक रखा जाएगा। अंडों में से निकली इल्लियों को सीधे घाव में डाला जा सकता है या थैलियों में भरकर पट्टी की तरह घाव पर बांधा भी जा सकता है।

ऐसी बैक्टीरिया मुक्त इल्लियां उन स्थानों पर काफी कारगर हो सकती हैं जहां उपचार की सुविधाएं न हों। ये इल्लियां मृत ऊतकों का भक्षण करती हैं और घाव को साफ रखती हैं। दरअसल घाव में होने वाले द्वितीयक संक्रमण ही स्थिति को बिगाड़ते हैं और ये इल्लियां ऐसे संक्रमणों से बचाव करती हैं। इस सम्बंध में 2012 में इंडियन जर्नल ऑफ प्लास्टिक सर्जरी में सुरजीत भट्टाचार्य की एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी।

यदि यह योजना कारगर रहती है तो मैदानी अस्पतालों में इल्लियां पैदा की जाने लगेंगी जो प्रतिदिन 250 घावों के लिए पर्याप्त होंगी। इस प्रोजेक्ट के लिए ज़रूरी तकनीकी जानकारी ऑस्ट्रेलिया के ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के फ्रेंक स्टेडलर के समूह द्वारा उपलब्ध कराई गई है। (स्रोत फीचर्स)

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