हाल ही में यूएस खाद्य एवं औषधि
प्रशासन ने टीबी के एक नए उपचार क्रम को मंजूरी दी है, और इस उपचार में एक नई दवा शामिल है। पिछले 50 वर्षों में
पहली बार किसी नई दवा को टीबी के इलाज के लिए मंज़ूरी मिली है। यह नई दवा
बहुऔषधि-प्रतिरोधी टीबी के उपचार में कारगर है जिससे विकासशील देशों में बढ़ रही
टीबी की समस्या पर काबू किया जा सकेगा।
टीबी के इस उपचार में तीन दवाएं
शामिल हैं। इनमें से दो तो पहले भी टीबी के उपचार में उपयोग की जाती रही हैं –
जॉनसन एंड जॉनसन की बेडाक्वीलीन और लिनेज़ोलिड। तीसरी दवा नई है – प्रेटोमेनिड नामक
एंटीबॉयोटिक।
नए उपचार के क्लीनिकल परीक्षण
में अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी के लगभग 90 प्रतिशत मरीज़ 6 महीनों में ही चंगे हो
गए। यह फिलहाल किए जा रहे अन्य इलाज से तीन गुना अधिक सफलता दर है। अन्य औषधि
मिश्रण से उपचारों में मरीज़ को ठीक होने में लगभग 2 साल तक का वक्त लग जाता है।
प्रेटोमेनिड नामक यह एंटीबॉयोटिक दवा गैर-मुनाफा संस्था टीबी अलाएंस ने विकसित है। टीबी अलाएंस के प्रमुख मेल स्पाईजलमेन का कहना है कि गैर-मुनाफा संस्था के लिए काम करने का एक फायदा यह होता है कि यह चिंता नहीं करनी पड़ती कि शेयरधारकों को कितना पैसा और कैसे लौटाना है। टीबी अलाएंस ने इस दवा को बनाने और बेचने के अधिकार पेनिसिल्वेनिया स्थित दवा कंपनी मायलेन एनवी को दिए हैं। कंपनी प्रमुख कहना है कि वे यूएस और उन जगह पर ध्यान देंगे जहां अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी की समस्या गंभीर है जिनमें से अधिकतर देश निम्न और मध्यम आमदनी वाले हैं। टीबी अलाएंस ने युरोप में भी टीबी के इलाज के लिए प्रेटोमेनिड को अन्य दवा के साथ उपयोग पर मंज़ूरी के लिए आवेदन किया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://miro.medium.com/max/1200/1*Rs457GyF3MEQMzITIuTq3w.jpeg
अक्सर फल,
ब्रेड या खाने की चीज़ों पर कुछ दिनों बाद फफूंद लगने लगती
है, खासकर बारिश के मौसम में। यदि फफूंद खाने पर बहुत फैली ना हो तो कई लोग फफूंद
लगा हिस्सा हटाकर बाकी खा लेते हैं। यदि आप भी ऐसा करते हैं तो एक बार फिर सोचिए
कि हटाने के बावजूद भी कहीं आप फफूंद तो
नहीं खा रहे।
दरअसल खाद्य सामग्री पर दिखाई देने वाली हरी-सफेद मखमली फफूंद पूरी फफूंद के
बीजाणु भर होते हैं जो फफूंद को फैलाने का काम करते हैं। फफूंद का बाकी हिस्सा, जिसे कवकजाल या मायसेलियम कहते हैं, खाद्य पदार्थ में काफी अंदर तक
धंसा रहता है और दिखाई नहीं देता। फफूंद हटाते वक्त लोग दिखाई देने वाला हिस्सा ही
हटाते हैं जबकि फफूंद का शेष हिस्सा तो खाने में रह जाता है।
यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर की विशेषज्ञ नडीन शॉ का कहना है कि वैसे तो अधिकतर फफूंद हानिरहित होती हैं लेकिन कुछ फफूंद खतरनाक होती हैं। जैसे कुछ फफूंदों में कवकविष मौजूद होता है जो काफी ज़हरीला होता है और शरीर में पहुंचने पर एलर्जी पैदा कर सकता है या श्वसन तंत्र को प्रभावित कर सकता है। खास तौर से एस्परजिलस फफूंद का विष (एफ्लॉटॉक्सिन) कैंसर का कारण बन सकता है। कवकविष प्रमुख रूप से अनाजों और मेवे पर लगने वाली फफूंद में पाया जाता है लेकिन अंगूर के रस, अजवाइन, सेब और अन्य खाद्यों पर पनपने वाली फफूंद में भी हो सकता है। इसके अलावा घातक एफ्लॉटॉक्सिन अक्सर मक्का और मूंगफली की फसलों में पनपने वाली फफूंद में पाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन
एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा
कर दिया।
एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन
को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके
बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान
में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही।
कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने
लगा।
तब कान,
नाक और गले के
विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को
एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था।
विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।
आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को
हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने
बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।
आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ
करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों
में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक
गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या
कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं,
कान के पर्दे को
नुकसान पहुंचा सकते हैं।
इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
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अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार
बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि
सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के
काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर
प्रयोग कर रहे हैं।
वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ
है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं
किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल
सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की
स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है
कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई
शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के
लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन
जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।
अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती
अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती
हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य
प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में
विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार
मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की
स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।
फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल वैश्विक पोलियो उन्मूलन के प्रयास थोड़े मुश्किल में फंसते
नज़र आ रहे हैं। इस मामले में बाधाएं दो मोर्चों पर आ रही हैं। आंकड़े बता रहे हैं
कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो का वायरस अभी भी मौजूद है और वहां पोलियो
के प्रकरण सामने आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन में पोलियो अनुसंधान के प्रभारी
रोलैण्ड सटर का कहना है कि फिलहाल जिस तरह से कामकाज चल रहा है, वह हमें मंज़िल तक नहीं पहुंचा पाएगा।
वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम पर पिछले तीस वर्षों में 16 अरब डॉलर खर्च
हो चुके हैं। अधिकांश देशों से पोलियो का सफाया भी हो चुका है। किंतु पाकिस्तान और
अफगानिस्तान में 2018 की इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष चार गुना प्रकरण सामने आए
हैं। यह सही है कि पोलियो प्रकरणों की संख्या मात्र 51 है किंतु सोचने वाली बात यह
है कि पोलियो वायरस से संक्रमित 200 में से मात्र 1 व्यक्ति को ही लकवा होता है।
यानी वास्तविक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कहीं ज़्यादा है। इसका मतलब यह है कि
वायरस अभी भी विचर रहा है। और तो और, हाल ही में इरान में भी
इस वायरस को देखा गया है।
एक ओर तो कुदरती पोलियो वायरस खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं दूसरी ओर, टीके में उपयोग किए गए दुर्बलीकृत वायरस की
वजह से भी पोलियो के प्रकरण सामने आए हैं। खास तौर से अफ्रीका में टीका-जनित
पोलियो देखा जा रहा है।
लगता है कि अफ्रीका में कुदरती वायरस का तो सफाया हो चुका है लेकिन टीका-जनित वायरस का प्रवाह में बने रहना भी घातक साबित हो सकता है। दरअसल मुंह से पिलाए जाने वाले पोलियो के टीके में वायरस का दुर्बलीकृत रूप होता है। इस दुर्बलीकृत वायरस में जेनेटिक परिवर्तन की वजह से यह एक बार फिर से संक्रामक हो जाता है। पिछले वर्ष टीका-जनित वायरस की वजह से दुनिया भर में 105 बच्चे लकवाग्रस्त हुए थे जबकि कुदरती वायरस ने मात्र 31 बच्चों को प्रभावित किया था। टीका-जनित वायरस से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया है कि जब कुदरती वायरस का सफाया हो जाए तो हमें मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को छोड़कर इंजेक्शन की ओर बढ़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)
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शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।
इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए
बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से
इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की
मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत:
चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।
इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों से
लगता है कि कुपोषित बच्चों को पूरक आहार देने के अलावा उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव
संसार को सुधारने से सेहत में काफी फायदा हो सकता है।
वैसे उपरोक्त अध्ययनों में अधिकांश प्रयोग
जंतुओं पर किए गए थे किंतु यह भी देखा गया कि जिन थोड़े-से बच्चों के साथ प्रयोग
किया गया था, उनकी सेहत में सुधार आया। यह शोध कार्य बांग्लादेश के
अंतर्राष्ट्रीय अतिसार अनुसंधान केंद्र के तहमीद अहमद और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय
के जेफ्री गॉर्डन के दलों ने संयुक्त रूप से किया है। दरअसल, अहमद
पिछले 30 वर्षों से कोशिश कर रहे हैं कि कुपोषित बच्चों की सेहत में अच्छा सुधार
हो। फिर उन्होंने गॉर्डन के शोध कार्य को देखा तो आशा की एक नई किरण नज़र आई।
गॉर्डन ने मोटापे का सम्बंध आंतों के कुछ बैक्टीरिया से देखा था। दोनों ने सोचा कि
क्या मोटापे के विपरीत ये सूक्ष्मजीव कुपोषण में भी कोई भूमिका निभाते हैं।
दोनों दलों ने 2014 में रिपोर्ट किया कि जब
कोई शिशु घुटने चलने की स्थिति में आता है तो उसकी आंतों का सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्व’ होने लगता है।
उन्होंने यह भी देखा कि गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों में सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्वता’ तक नहीं पहुंचता। इस
समझ के आधार पर शोधकर्ताओं ने बच्चों से प्राप्त परिपक्व और अपरिपक्व सूक्ष्मजीव
संसार को ऐसे चूहों में डाला जिन्हें बगैर सूक्ष्मजीवों के पाला गया था। प्रयोग
में पता चला कि जिन चूहों को अपरिपक्व सूक्ष्मजीव संसार मिला था उनमें मांसपेशियां
कम विकसित हुर्इं, हड्डियां कमज़ोर रहीं और उनका चयापचय भी गड़बड़ रहा। इसके आधार
पर उनका निष्कर्ष था कि परिपक्व सूक्ष्मजीव संसार सही विकास के लिए ज़रूरी है।
इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि
आंतों के सूक्ष्मजीवों में से कौन-से सूक्ष्मजीव परिपक्वता के लिए ज़िम्मेदार हैं।
अहमद के दल ने बांग्लादेश के 50 बढ़ते शिशुओं के मल के नमूने प्रति माह एकत्र करके
रखे थे। इनके विश्लेषण से पता चला कि इनमें से 15 बैक्टीरिया ऐसे हैं जो
सूक्ष्मजीव संसार की परिपक्वता के साथ घटते-बढ़ते हैं। यही स्थिति पेरू और भारत के
स्वस्थ शिशुओं में देखी गई।
तो विचार यह बना कि इन विशिष्ट
सूक्ष्मजीवों को बढ़ावा देकर या उनका दमन करके कुपोषित बच्चों को वापिस स्वस्थ होने
में मदद मिलेगी। चूहों और सूअर के पिल्लों में इस विचार का परीक्षण किया गया। कुछ
चूहों और पिल्लों को कुपोषित बच्चों से प्राप्त सूक्ष्मजीव संसार दिया गया।
शोधकर्ता देखना यह चाहते थे कि क्या कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं जो सूक्ष्मजीव संसार
को बेहतर बना सकते हैं। निष्कर्ष निकला कि आम तौर पर खाद्य सहायता में जो चावल और
दूध पावडर दिया जाता है वह कुपोषण दूर करने में नाकाम रहा। इसकी बजाय काबुली चने, केले
और सोयाबीन और मूंगफली के आटे ने सूक्ष्मजीव संसार को स्वस्थ बनाने में मदद की।
उनका कहना है कि इससे पता चलता है कि कुपोषित बच्चों के लिए खाद्य वस्तुओं के सही
चुनाव का कितना महत्व है।
बांग्लादेश के कुपोषित बच्चों के साथ ऐसे ही एक सीमित अध्ययन में पता चला कि उपरोक्त चार चीज़ों का मिला-जुला उपयोग सही परिणाम देता है। अब अहमद इसी तरह चुने गए भोजन को लेकर बच्चों के एक बड़े समूह पर अध्ययन करने जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हालिया समाचार रिपोर्ट
के अनुसार उत्तरी कैरोलिना के स्थानीय वॉटर पार्क के तालाब में तैराकी के बाद एक
59 वर्षीय व्यक्ति की दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा के संक्रमण से मृत्यु हो गई।
नार्थ कैरोलिना डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज़
(एनसीडीएचएच) द्वारा जारी किए गए एक बयान के अनुसार उस व्यक्ति में एक एककोशिकीय
जीव नेगलेरिया फाउलेरी पाया गया। यह जीव कुदरती रूप से झीलों और नदियों के गर्म
मीठे पानी में पाया जाता है। इस प्रकार का संक्रमण अक्सर अमेरिका के दक्षिणी
राज्यों में पाया जाता है जहां लंबी गर्मियों में पानी का तापमान बढ़ जाता है।
गौरतलब है कि पानी में उपस्थित नेगलेरिया फाउलेरी को निगलने
से तो संक्रमण नहीं होता, लेकिन
अगर यह पानी नाक से ऊपर चला जाए तो अमीबा मस्तिष्क में प्रवेश कर सकता है। यह
मस्तिष्क में ऊतकों को नष्ट कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क में सूजन के बाद आम तौर पर मौत
हो जाती है।
वैसे तो यह अत्यंत दुर्लभ संक्रमण है;
1962 से लेकर 2018 तक अमेरिका में
नेगलेरिया फाउलेरी के सिर्फ 145 मामले सामने आए हैं। लेकिन इस बीमारी की मृत्यु दर
काफी उच्च है। अभी तक के 145 मामलों में सिर्फ 4 लोग ही बच पाए हैं।
भारत में भी इसके कुछ मामले सामने आए हैं। अन्य इलाकों के
अलावा, मई 2019 में केरल के
मालापुरम ज़िले के एक 10 वर्षीय बच्चे की मृत्यु भी इसी परजीवी के कारण हुई। वैसे
कई रोगियों को तात्कालिक निदान द्वारा बचा भी लिया गया। नार्थ कैरोलिना में यह
समस्या पानी में तैरने के कारण हुई जबकि भारत में अधिकांश संक्रमण वाटर-पार्क में
दूषित पानी के इस्तेमाल से हुए हैं।
सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के
अनुसार पानी में नेगलेरिया फाउलेरी की उपस्थिति का पता लगाने का कोई त्वरित
परीक्षण नहीं है। इस जीव की पहचान करने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं। महामारीविद्
डॉ. ज़ैक मूर का सुझाव है कि लोगों को यह जानकारी होना चाहिए कि यह जीव उत्तरी
केरोलिना में गर्म मीठे पानी की झीलों, नदियों और गर्म झरनों में मौजूद है, इसलिए ऐसी जगहों पर जाएं तो विशेष ध्यान रखना चाहिए।
एनसीडीएचएच ने लोगों को सुझाव दिया है कि जब भी झील वगैरह के गर्म मीठे पानी में तैरने के लिए जाएं तो सावधानी बरतें कि नाक से पानी अंदर न जाएं। लोग विशेष रूप से पानी के उच्च तापमान और कम स्तर के दौरान गर्म ताज़े पानी में तैरने से बचकर भी इस जोखिम को कम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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यह
आलेख डॉ. सी. सत्यमाला के ब्लॉग डेपो-प्रॉवेरा एंड एच.आई.वी. ट्रांसमिशन: दी
ज्यूरी इस स्टिल आउट का अनुवाद है। मूल आलेख को निम्नलिखित लिंक पर पढ़ा जा सकता
है: https://issblog.nl/2019/07/23/depo-provera-and-hiv-transmission-the-jurys-still-out-by-c-sathyamala/
एड्स वायरस (एच.आई.वी.) के प्रसार और डेपो-प्रॉवेरा नामक एक गर्भनिरोधक
इंजेक्शन के बीच सम्बंध की संभावना ने कई चिंताओं को जन्म दिया है। एक प्रमुख
चिंता यह है कि यदि इस गर्भनिरोधक इंजेक्शन के इस्तेमाल से एच.आई.वी. संक्रमण का
खतरा बढ़ता है तो क्या उन इलाकों में इसका उपयोग किया जाना चाहिए जहां एच.आई.वी.
का प्रकोप ज़्यादा है। जुलाई के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन इस संदर्भ में
दिशानिर्देश विकसित करने के लिए एक समूह का गठन करने जा रहा है ताकि हाल ही में
सम्पन्न एक अध्ययन के परिणामों पर विचार करके डेपो-प्रॉवेरा की स्थिति की समीक्षा
की जा सके। अलबत्ता, जिस अध्ययन के आधार पर यह समीक्षा करने का प्रस्ताव है, उसके अपने नतीजे स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए ज़रूरी होगा कि जल्दबाज़ी न करते हुए
विशेषज्ञों,
सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों
के प्रतिनिधियों को अपनी राय व्यक्त करने हेतु पर्याप्त समय दिया जाए।
जुलाई 29-31 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एक दिशानिर्देश विकास समूह का गठन
करने जा रहा है जो “एच.आई.वी. का उच्च जोखिम झेल रही” महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक
विधियों के बारे में मौजूदा सिफारिशों की समीक्षा करेगा। इस समीक्षा में खास तौर
से एक रैंडमाइज़्ड क्लीनिकल ट्रायल के नतीजों पर ध्यान दिया जाएगा। एविडेंस फॉर
कॉन्ट्रासेप्टिव ऑप्शन्स एंड एच.आई.वी. आउटकम्स (गर्भनिरोधक के विकल्प और
एच.आई.वी. सम्बंधी परिणाम, ECHO) नामक इस अध्ययन के परिणाम
पिछले महीने लैन्सेट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। ECHO ट्रायल चार अफ्रीकी
देशों (दक्षिण अफ्रीका, केन्या, स्वाज़ीलैंड और ज़ाम्बिया) में
किया गया था। इसका मकसद लंबे समय से चले आ रहे उस विवाद का पटाक्षेप करना था कि
डेपो-प्रॉवेरा इंजेक्शन लेने से महिलाओं में एच.आई.वी. प्रसार की संभावना बढ़ती
है। गौरतलब है कि डेपो-प्रॉवेरा एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन है जो महिला को तीन महीने
में एक बार लेना होता है।
डेपो-प्रॉवेरा कोई नया गर्भनिरोधक नहीं है। 1960 के दशक में अमरीकी दवा कंपनी
अपजॉन ने गर्भनिरोधक के रूप में इसके उपयोग का लायसेंस प्राप्त करने के लिए आवेदन
किया था। तब से ही यह विवादों से घिरा रहा है। डेपो-प्रॉवेरा को खतरनाक माना जाता
है क्योंकि इसके कैंसरकारी, भ्रूण-विकृतिकारी और
उत्परिवर्तनकारी असर होते हैं।
अलबत्ता,
1992 में मंज़ूरी मिलने के बाद इस बात के प्रमाण मिलने लगे
थे कि इसका उपयोग करने वाली महिलाओं में एच.आई.वी. संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है।
2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी की थी कि इसका उपयोग करने वाली
महिलाओं को “स्पष्ट सलाह दी जानी चाहिए कि वे हमेशा कंडोम का उपयोग भी करें।”
अवलोकन आधारित अध्ययनों के परिणामों में अनिश्चितताओं को देखते हुए एक रैंडमाइज़्ड
ट्रायल डिज़ाइन करने हेतु 2012 में ECHO संघ का गठन किया गया। रैंडमाइज़ का मतलब
होता है सहभागियों को दिए जाने उपचार का चयन पूरी तरह बेतरतीबी से किया जाता है।
चूंकि इस ट्रायल में तीन अलग-अलग गर्भनिरोधकों का उपयोग किया जाना था, इसलिए रैंडमाइज़ का अर्थ होगा कि बेतरतीब तरीके से प्रत्येक महिला के लिए
इनमें से कोई तरीका निर्धारित कर दिया जाएगा।
शुरू से ही इस ट्रायल लेकर कई आशंकाएं भी ज़ाहिर की गर्इं। जैसे यह कहा गया कि
रैंडमाइज़ेशन समस्यामूलक है क्योंकि इसके ज़रिए कुछ सहभागियों को एक ऐसे
गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करवाया जाएगा जो एच.आई.वी. संक्रमण की संभावना को बढ़ा
सकता है। ऐसी सारी शंकाओं के बावजूद कक्क्तग्र् संघ ने 2015 में ट्रायल का काम
किया। अपेक्षाओं के विपरीत, पर्याप्त संख्या में महिलाएं इस
अध्ययन में शामिल हो गर्इं और उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्हें बेतरतीबी से तीन
में से किसी एक गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने वाले समूह में रख दिया जाएगा। ये तीन
गर्भनिरोधक थे: डेपो-प्रॉवेरा, लेवोनोजेस्ट्रल युक्त त्वचा के
नीचे लगाया जाने वाला एक इम्प्लांट और कॉपर-टी जैसा कोई गर्भाशय में रखा जाने वाला
गर्भनिरोधक साधन। पूरा अध्ययन डेपो-प्रॉवेरा के बारे में तो निष्कर्ष निकालने के
लिए था। शेष दो गर्भनिरोधक इसलिए रखे गए थे ताकि एच.आई.वी. प्रसार के साथ
डेपो-प्रॉवेरा के सम्बंधों की तुलना की जा सके। कई लोगों ने कहा है कि इतनी संख्या
में महिलाओं को अध्ययन में भर्ती कर पाना और उन्हें बेतरतीबी से विभिन्न
गर्भनिरोधक समूहों में बांट पाना इसलिए संभव हुआ है क्योंकि उन पर दबाव डाला गया
था और ट्रायल के वास्तविक मकसद को छिपाया गया था। इस दृष्टि से ECHO ट्रायल ने विश्व
चिकित्सा संघ के हेलसिंकी घोषणा पत्र के एक प्रमुख बिंदु का उल्लंघन किया है।
हेलसिंकी घोषणा पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि “यह सही है कि चिकित्सा अनुसंधान का
मुख्य उद्देश्य नए ज्ञान का सृजन करना है किंतु यह लक्ष्य कभी भी अध्ययन के
सहभागियों के अधिकारों व हितों के ऊपर नहीं हो सकता।” स्पष्ट है कि संघ ने महिलाओं
को पूरी जानकारी न देकर अपने मकसद को उनके अधिकारों व हितों से ऊपर रखा।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में सैम्पल साइज़ (यानी उसमें कितनी
महिलाओं को शामिल किया जाए) का निर्धारण यह जानने के हिसाब से किया गया था कि क्या
डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. के प्रसार के जोखिम में 30 प्रतिशत से
ज़्यादा की वृद्धि होती है। जोखिम में इससे कम वृद्धि को पहचानने की क्षमता इस
अध्ययन में नहीं रखी गई थी। इसका मतलब है कि यदि त्वचा के नीचे लगाए जाने वाले
इम्प्लांट के मुकाबले डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. प्रसार की दर 23-29
प्रतिशत तक अधिक होती है, तो उसे यह कहकर नज़रअंदाज़ कर
दिया जाएगा कि वह सांख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। जो महिला डेपो-प्रॉवेरा
का इस्तेमाल करती है या ट्रायल के दौरान जिसे डेपो-प्रॉवेरा समूह में रखा जाएगा, उसकी दृष्टि से यह सीमा-रेखा बेमानी है। यह सीमा-रेखा सार्वजनिक स्वास्थ्य
सम्बंधी निर्णयों की दृष्टि से भी निरर्थक है।
विभिन्न परिदृश्यों को समझने के लिए मॉडल विकसित करने के एक प्रयास में देखा
गया है कि यदि डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. का प्रसार बढ़कर 1.2 गुना
भी हो जाए,
तो इसकी वजह से प्रति वर्ष एच.आई.वी. संक्रमण के 27,000 नए
मामले सामने आएंगे। इसकी तुलना प्राय: गर्भ निरोधक के रूप में डेपो-प्रॉवेरा के
इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी कारणों से होने वाली मौतों में संभावित कमी से की
जाती है। डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी मृत्यु दर में जितनी कमी
आने की संभावना है, उससे कहीं ज़्यादा महिलाएं तो इस गर्भनिरोधक का उपयोग करने
की वजह से एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि कक्क्तग्र् टीम इस बात
से अनभिज्ञ थी। उन्होंने माना है कि उनकी ट्रायल में 30 प्रतिशत से कम जोखिम पता
करने की शक्ति नहीं है।
पूरे अध्ययन का एक और पहलू अत्यधिक चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का
कहना है कि डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बढ़ने के कुछ
प्रमाण हैं। संगठन का मत है कि जिन महिलाओं को एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा अधिक है
वे इसका उपयोग कर सकती हैं क्योंकि गर्भनिरोध के रूप में जो फायदे इससे मिलेंगे वे
एच.आई.वी. के बढ़े हुए जोखिम से कहीं अधिक हैं। साफ है कि इस ट्रायल में शामिल
एक-तिहाई महिलाओं को जानते-बूझते इस बढ़े हुए जोखिम को झेलना होगा। दवा सम्बंधी
अधिकांश ट्रायल में जो लोग भाग लेते हैं उन्हें कोई बीमारी होती है जिसके लिए
विकसित दवा का परीक्षण किया जा रहा होता है। मगर गर्भनिरोध का मामला बिलकुल भिन्न
है। गर्भनिरोधकों का परीक्षण स्वस्थ महिलाओं पर किया जाता है। बीमार व्यक्ति को एक
आशा होती है कि बीमारी का इलाज इस परीक्षण से मिल सकेगा लेकिन इन महिलाओं को तो
मात्र जोखिम ही झेलना है।
इसी संदर्भ में ECHO ट्रायल की एक और खासियत है। इस अध्ययन का एक जानलेवा
अंजाम ही यह है कि शायद वह महिला एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएगी। यही जांचने के
लिए तो अध्ययन हो रहा है कि क्या डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमित
होने की संभावना बढ़ती है। यह शायद क्लीनिकल ट्रायल के इतिहास में पहली बार है कि
कुछ स्वस्थ महिलाओं को जान-बूझकर एक गर्भनिरोधक दिया जा रहा है जिसका मकसद यह
जानना नहीं है कि वह गर्भनिरोधक गर्भावस्था को रोकने/टालने में कितना कारगर है
बल्कि यह जानना है कि उसका उपयोग खतरनाक या जानलेवा है या नहीं। यानी ट्रायल के
दौरान कुछ स्वस्थ शरीरों को बीमार शरीरों में बदल दिया जाएगा।
इस सबके बावजूद मीडिया में भ्रामक जानकारी का एक अभियान छेड़ दिया गया है। इस अभियान को स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस वक्तव्य से हवा मिली है कि ट्रायल में इस्तेमाल की गई गर्भनिरोधक विधियों और एच.आई.वी. प्रसार का कोई सम्बंध नहीं देखा गया है। इससे तो लगता है कि डेपो-प्रॉवेरा को उच्च जोखिम वाली आबादी में उपयोग के लिए सुरक्षित घोषित करने का निर्णय पहले ही लिया जा चुका है। हकीकत यह है कि ECHO ट्रायल ने मुद्दे का पटाक्षेप करने की बजाय नई अनिश्चितताएं उत्पन्न कर दी हैं। लिहाज़ा, यह ज़रूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दिशानिर्देश विकास समूह जल्दबाज़ी में कोई निर्णय न करे। बेहतर यह होगा कि विशेषज्ञों, सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को समय दिया जाए कि वे कक्क्तग्र् और इसके नीतिगत निहितार्थों को उजागर कर सकें। तभी एक ऐसे मुद्दे पर जानकारी-आधारित निर्णय हो सकेगा जो करोड़ों महिलाओं को प्रभावित करने वाला है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.bmj.com/sites/default/files/sites/defautl/files/attachments/bmj-article/2019/07/depo-provera-injection.jpg
‘तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होगा।’ यह आश्वासन था महिला सोनोग्राफर
का। न कोई इंजेक्शन, न निश्चेतक। वह केवल एक ठंडी और चिकनी जेल
काफी मात्रा में मरीज़ की छाती पर पोत देती है। वॉशिंग मशीन के बराबर स्कैनर को
ठेलती हुई वह मरीज़ के पलंग के पास लाती है। उसके ऊपर टेलीविज़न स्क्रीन लगा है।
फिर वह एक छोटे माइक्रोफोन से मिलते-जुलते ट्रांसड्यूसर को मरीज़ की पांचवीं और
छठी पसली के बीच में रखती है।
मशीन को चालू करने के बाद वीडियो पर एक
विचित्र-सी चीज़ का चित्र प्रकट होता है जिसका गड्ढेनुमा मुंह लयबद्ध तरीके से
फूलता और पिचकता है। यह होता है परा-ध्वनि (अल्ट्रासाउंड) की सहायता से, जिसकी ध्वनि तरंगों की आवृत्ति इतनी अधिक है कि मनुष्य
उन्हें नहीं सुन सकते। मरीज़ अपने धड़कते हुए ह्मदय के महाधमनी वाल्व को खुलते और
बंद होते देख रहा है। एकदम भीतर तक उतर जाने वाली यह दृष्टि चिकित्सा के लिए एक
क्रांतिकारी आयाम है। अब चिकित्सक बगैर चीरफाड़ शरीर के लगभग हर भाग की गहन जांच
कर सकते हैं।
पराध्वनि तरंगों की मदद से देखा जा सकता है
कि कौन-सी धमनियां मोटी या अवरुद्ध हो गई हैं, किन
मांसपेशियों को रक्त नहीं मिल पा रहा है। वास्तव में शरीर के लगभग हर भाग की ऐसी
जांच संभव है। चिकित्सक ग्रंथियों, घावों, अवरोधों के बारे में पता लगा सकते हैं।
जांच के अलावा परा-ध्वनि तरंगों को लेंस की
मदद से संकेंद्रित किया जा सकता है जिससे वे शरीर के भीतर एक सूक्ष्म स्थान पर
प्रहार कर सकें। नेत्र रोग विशेषज्ञ इनका प्रयोग आंखों के ट्यूमर का उपचार करने के
अलावा उस दबाव को कम करने में भी करते हैं जिससे मोतियाबिंद होता है। अति तीव्र
पराध्वनि की केवल एक चोट गुर्दे की पथरी को चूर-चूर कर देती है, और पीड़ादायक ऑपरेशनों की ज़रूरत ही नहीं रहती।
एक्सरे के विपरीत परा-ध्वनि के कोई
दुष्प्रभाव नहीं हैं। लगभग हर किस्म की जांच में इनका प्रयोग किया जा सकता है।
जांच के अन्य तरीकों की तुलना में यह तेज़ भी है और सस्ता भी।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान समुद्र की
गहराइयों को नाप कर जर्मन पनडुब्बियों का पता लगाने के लिए ईजाद किया गया
प्रतिध्वनि मापी परा-ध्वनि पर आधारित था। ध्वनि तरंगों के रास्ते में कोई वस्तु आए
(चाहे वह समुद्र में पनडुब्बी हो, हमारे कान के पर्दे
हों या स्टील के टुकड़े में दरार हो) तो तरंगें टकरा कर बिखर जाती हैं और कुछ वहीं
लौट आती हैं, जहां से शुरू हुई थीं। इस तरह प्राप्त
प्रतिध्वनियों को एकत्रित करके इलेक्ट्रॉनिक के ज़रिए चित्र में परिवर्तित किया जा
सकता है।
प्रतिध्वनि चित्र द्वारा शारीरिक जांच का
विचार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजा था। पर वे चित्र इतने अस्पष्ट थे कि उनसे
विश्वसनीय निदान नहीं हो सकते थे। सत्तर के दशक में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक
तकनीक के विकास के कारण बहुत सारी जानकारी का लगभग तत्क्षण विश्लेषण किया जाने
लगा।
उपरोक्त ट्रांसड्यूसर में पिन के सिरे के
आकार के 64 लाउडस्पीकर लगे थे। हर लाउडस्पीकर मरीज़ की त्वचा से ध्वनि के अविश्वसनीय
25 लाख स्पंदन प्रति सेकंड भेजता है, और
लौटती हुई मंद प्रतिध्वनियों को सुनता है। कंप्यूटर गणना करता है कि वे कितने
सेंटीमीटर तक चली हैं और तुरंत उस जानकारी को एक चित्र में परिवर्तित कर देता है।
अपने अनुभवी हाथों से ट्रांसड्यूसर को
फिराती हुई महिला सोनोग्राफर ह्मदय के विभिन्न वाल्व और प्रकोष्ठों के चित्र दिखा
सकी। मरीज़ अपने मिट्रल वाल्व को भी तितली के पंख की तरह फड़फड़ाते देख सकता था।
एक महिला मरीज़ को सांस लेने में कठिनाई हो
रही थी। महिला सोनोग्राफर स्कैनर को उसके पास लाई और कुछ ही क्षणों में उसकी तकलीफ
स्पष्ट दिखाई दी। ह्मदय के आसपास तरल पदार्थ इकट्ठा हो कर उसे दबा रहा था जिससे
उसके प्रकोष्ठ हवा नहीं भर पा रहे थे। उसका ह्मदय किसी भी क्षण रुक सकता था। रोग
का पता तुरंत चल गया और तरल पदार्थ को निकाल दिया गया।
अगर तब परा-ध्वनि उपलब्ध नहीं होता तो रोग
का पता चलाने के लिए चिकित्सकों को एक्सरे और अन्य चिकित्सा तकनीकों की सहायता
लेनी पड़ती या फिर तारों को शिराओं में घुसाकर ह्मदय तक पहुंचाने वाला लंबा और
अंतरवेधी तरीका अपनाना पड़ता।
परा-ध्वनि गर्भवती महिलाओं के लिए भी
उपयोगी है। क्या बच्चे जुड़वां हैं? क्या शिशु ठीक जगह पर
है? क्या उसका दिल धड़क रहा है? परा-ध्वनि की सहायता से शल्य चिकित्सक भ्रूण का ऑपरेशन भी
कर सकते हैं।
पूर्व में यकृत के कुछ रोगों का पता कई
सप्ताहों तक किए जाने वाले जटिल रक्त परीक्षणों या फिर जोखिम भरे ऑपरेशन के बाद
चलता था। परा-ध्वनि की सहायता से चिकित्सक तुरंत ही अवरोध या घाव को देख सकते हैं, एकदम सही स्थान पर सुई डाल कर परीक्षण के लिए कोशिकाएं
प्राप्त कर सकते हैं और कुछ ही घंटों के भीतर रोग का कारण, गंभीरता
और विस्तार जान सकते हैं।
चिकित्सा के अलावा भी परा-ध्वनि से तकनीकी
उपलब्धियों के नए आयाम खुले हैं। प्रबल ध्वनि तरंगें प्लास्टिक और पोलीमर को
जोड़ने का काम करती हैं। वैक्यूम क्लीनर के थैले, जूस
के गत्ते के डिब्बे, कैसेट टेप, डिब्बे
वगैरह परा-ध्वनि द्वारा पैक किए जाते हैं। और आपको अंगवस्त्र या मूंगफलियों का
पैकेट खोलने में जो मुश्किल होती है वह इसलिए कि उनके जोड़ों को संकेंद्रित
परा-ध्वनि से तब तक गरम किया जाता है जब तक वे पिघलते नहीं और दोनों भाग जुड़कर एक
नहीं बन जाते।
परा-ध्वनि से सफाई भी कर सकते हैं। तरल
पदार्थ पर परा-ध्वनि ऊर्जा की बौछार करने से वह नन्हे बुलबुलों वाला झाग बन जाता
है जो सूक्ष्म दरारों में घुस कर मैल को निकाल फेंकते हैं। हालांकि यह तकनीक
रसोईघर में इस्तेमाल करने के लिए अभी भी बहुत महंगी है। इसका बड़े पैमाने पर
इस्तेमाल प्रयोगशालाओं, युद्ध पोतों, कारखानों
और आभूषणों की सफाई में होता है।
परा-ध्वनि गहराई मापी की मदद से मछुआरे
समुद्रों में मछलियों के समूहों का पता लगा सकते हैं। फिलहाल विमानों में
छोटी-मोटी खराबियों का पता लगाने के लिए विमान को खोल कर उसके ज़रूरी कलपुर्जों की
जांच करने में लाखों डॉलर खर्च होते हैं। एक जेट विमान के रोटर की जांच में 40
घंटे लगते हैं। परा-ध्वनि तकनीक से यह काम चंद मिनटों में हो सकता है।
जब धातु के एक कलपुर्ज़े से ध्वनि तरंगें
टकराती हैं तो वह एक निश्चित आवृत्ति पर ‘बजता’ है। अनुनाद का पैटर्न फिंगर प्रिंट
की भांति अनूठा होता है, और कोई खराबी होने पर
ही बदलता है। परा-ध्वनि टेस्टिंग प्रोजेक्ट के मुख्य भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट
मिगलिमोरी के अनुसार, “हर कलपुर्ज़े के बनने के समय उसके ध्वनि
चित्र को संचित करने का प्रस्ताव है। बाद में जांच करने पर अगर यह उससे भिन्न
निकलता है तो उस कलपुर्ज़े को निकाल देंगे। आशा है कि हर कॉकपिट में एक बॉक्स होगा
जिससे विमान अपनी जांच स्वयं करेगा।”
सबसे अधिक रोचक प्रगति चिकित्सा के क्षेत्र
में हुई है। नई प्रणालियां, जिनमें डिजिटल तकनीक
का प्रयोग होता है, उनके द्वारा महज़ एक मिलीमीटर मोटी शिराओं
को देखा जा सकता है और रक्त प्रवाह का पता लग सकता है। पर चिकित्सक केवल उनको देख
पाने से ही संतुष्ट नहीं हैं। परा-ध्वनि के उन्नत तरीकों द्वारा ह्मदय रोग
विशेषज्ञ को इस बात की सटीक जानकारी मिलेगी कि आपके ह्मदय के वाल्व से कितनी
मात्रा में रक्त प्रवाहित हो रहा है।
सान फ्रांसिस्को हार्ट इंस्टीट्यूट में
शोधकर्ताओं का एक दल ट्रांसड्यूसर को ही ह्मदय तक ले जाने और अल्ट्रासाउंड के
द्वारा अवरुद्ध और सख्त हो गई धमनियों की सफाई के तरीके खोजने में जुटा है।
धमनियों में जमा हुआ प्लाक परा-ध्वनि के प्रहार से गायब हो जाता है। इसमें धमनी के
क्षतिग्रस्त होने का कोई खतरा नहीं है।
प्रतिदिन नई खोजें हो रही हैं। चिकित्सक परा-ध्वनि की सहायता से वह सब देख रहे हैं जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था और ऐसे नतीजे पा रहे हैं जिनकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। (स्रोत फीचर्स)
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