पंखे कितने तापमान तक फायदेमंद होते हैं?

गर्मियों में लोग राहत के लिए पंखे (fans) चलाते हैं। इस मामले में यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (CDC – Center for Disease Control) ने 32.2 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान (temperature) पर ही पंखे चलाने की सलाह दी है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO – World Health Organization) की सलाह है कि 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर पंखा चला सकते हैं। सवाल उठता है कि पंखे का उपयोग कब सुरक्षित (safe usage) है और कब तकलीफदायक? 

इसके समाधान के लिए दो अध्ययनों (studies) ने तापमान और नमी (humidity) दोनों को ध्यान में रखते हुए यह निर्धारित करने का प्रयास किया है कि पंखे का उपयोग कब फायदेमंद (beneficial) है और कब नुकसानदेह। 

दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन (The New England Journal of Medicine) में प्रकाशित एक अध्ययन (study) में, शोधकर्ताओं (researchers) ने 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों पर दो परिस्थितियों में पंखे के असर का परीक्षण किया – एक गर्म और नम (38 डिग्री सेल्सियस और 60 प्रतिशत आर्द्रता) तथा दूसरी गर्म और शुष्क (45 डिग्री सेल्सियस और 15 प्रतिशत आर्द्रता)। परिणामों से पता चला कि नम परिस्थिति में, पंखे 38 डिग्री सेल्सियस तक भी फायदेमंद (effective cooling) थे। पंखे ने पसीने को अधिक प्रभावी ढंग से वाष्पित करने में मदद की, जिससे हृदय सम्बंधी तनाव (cardiovascular stress) 31 प्रतिशत तक कम हुआ। इस स्थिति में जब प्रतिभागियों पर पानी (water spray) छिड़का गया तो उनके हृदय सम्बंधी तनाव में 55 प्रतिशत तक की कम आई। दूसरी ओर शुष्क गर्मी में परिणाम बिलकुल अलग थे। कम नमी में 45 डिग्री सेल्सियस पर पंखा हानिकारक (harmful effects) साबित हुआ। नमी की कमी के कारण पसीना बहुत जल्दी वाष्पित हो गया, जिससे बहुत कम ठंडक मिली। नतीजा, प्रतिभागियों को गंभीर हृदय तनाव हुआ और प्रयोग जल्दी रोकना पड़ा। इससे पता चलता है कि नमी की उपस्थिति में पंखे सुरक्षित (safe fans) हैं और CDC द्वारा सुझाए गए तापमान से अधिक तापमान पर भी फायदेमंद हैं। लेकिन शुष्क गर्मी में पंखे गर्म हवा को फैलाकर गर्मी बढ़ा सकते हैं। 

जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of American Medical Association) में प्रकाशित दूसरे अध्ययन में ओटावा विश्वविद्यालय (University of Ottawa) की प्रयोगशाला में इसी तरह के परीक्षण किए गए। वहां कमरे में नमी 45 प्रतिशत और तापमान 36 डिग्री सेल्सियस रखा गया। पंखा चलाने पर शरीर का कोर तापमान (core body temperature) 0.1 डिग्री सेल्सियस तक कम हुआ और हृदय गति (heart rate) थोड़ी कम हुई लेकिन इसके लाभ पहले अध्ययन की तरह नहीं थे। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि पंखे कुछ हद तक राहत (relief) दे सकते हैं, लेकिन 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर वृद्धों को ठंडक देने में प्रभावी नहीं होते। 

तो क्या करें? WHO ने पंखे के इस्तेमाल की सीमा 40 डिग्री सेल्सियस तक रखी है, CDC 32.2 डिग्री सेल्सियस की सीमा पर कायम है। लेकिन दोनों संगठन इस बात पर सहमत हैं कि पंखे के इस्तेमाल की सुरक्षित स्थिति (safe conditions) निर्धारित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। तो, सटीक सलाह आने तक आप अपनी सहूलियत (comfort) के हिसाब से पंखा चलाएं और जिस तापमान पर आपको पंखे से परेशानी होने लगे, पंखा बंद करने से न झिझकें। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज़्यादा खाने से मधुमेह कैसे होता है?

मोटापा (obesity) मधुमेह (diabetes) के जोखिम को काफी बढ़ा देता है, लेकिन इसका सटीक कारण अभी तक स्पष्ट नहीं है। लेकिन नए शोध (new research) से पता चलता है कि अत्यधिक उच्च वसायुक्त भोजन (high-fat diet) के सेवन से लीवर (liver) सहित पूरे शरीर में तंत्रिका-संप्रेषकों (न्यूरोट्रांसमीटर – neurotransmitters) में उछाल आता है। इनके प्रभाव से लीवर में वसीय ऊतक विघटित (fatty tissue breakdown) होने लगते हैं। यह खोज लंबे समय से चली आ रही धारणाओं को चुनौती देती है कि ज़्यादा खाने से मधुमेह होता है। यह अध्ययन नई उपचार रणनीतियों (treatment strategies) का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 

आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि मधुमेह तब होता है जब शरीर इंसुलिन (insulin) के प्रति प्रतिक्रिया करना बंद कर देता है, जिससे रक्तप्रवाह (bloodstream) में हानिकारक फैटी एसिड (fatty acids) बढ़ जाते हैं। हालांकि, सेल मेटाबॉलिज़्म (Cell Metabolism) में प्रकाशित हालिया निष्कर्षों (findings) में इसके पीछे शरीर के रासायनिक संदेशवाहक यानी न्यूरोट्रांसमीटर की भूमिका को उजागर किया गया है। मोटे (obese) लोगों में ये न्यूरोट्रांसमीटर, विशेष रूप से नॉरएपिनेफ्रिन (norepinephrine), इंसुलिन की उपस्थिति में भी शरीर में वसीय अम्लों का अत्यधिक विघटन जारी रखते हैं। वसीय अम्लों में यह वृद्धि मधुमेह, फैटी लीवर (fatty liver) और ऊतकों में सूजन (inflammation) जैसी स्थितियों को जन्म देती है। 

रटगर्स यूनिवर्सिटी (Rutgers University) के क्रिस्टोफ ब्यूटनर और केनिची सकामोटो के शोध दल ने इस बात का पता लगाने के लिए एक चूहा मॉडल (mouse model) का इस्तेमाल किया, जिनके मस्तिष्क (brain) को छोड़कर अन्य अंगों से न्यूरोट्रांसमीटर बनाने के लिए ज़िम्मेदार जीन को हटा दिया गया था। इसके बाद दोनों तरह के चूहों को उच्च वसा वाला आहार (high-fat diet) दिया गया। 

नतीजे काफी चौंकाने वाले थे। हालांकि चूहों के दोनों समूहों ने समान वज़न (weight gain) हासिल किया और दोनों में ही समान इंसुलिन गतिविधि देखी गई, लेकिन संशोधित चूहों में इंसुलिन प्रतिरोध (insulin resistance), फैटी लीवर या सूजन विकसित नहीं हुई। वहीं, असंशोधित चूहों में गंभीर इंसुलिन प्रतिरोध व लीवर क्षति (liver damage) देखी गई। 

जैव-रसायनज्ञ मार्टिना श्वेइगर (Martina Schweiger) के अनुसार, यह शोध एक नई दिशा का संकेत देता है। इंसुलिन की विफलता मधुमेह का एकमात्र कारण होने की बजाय, न्यूरोट्रांसमीटर भी शरीर को हानिकारक स्थिति में धकेलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अध्ययन कहता है कि मोटापे से ग्रस्त लोगों में केवल इंसुलिन पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय न्यूरोट्रांसमीटर्स पर ध्यान देने से मधुमेह के इलाज (diabetes treatment) या रोकथाम (prevention) के नए तरीके मिल सकते हैं। 

हालांकि यह खोज एक बड़ी सफलता (major breakthrough) है, लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब दिए जाने बाकी हैं। उच्च वसा वाले आहार से न्यूरोट्रांसमीटर उछाल (neurotransmitter spike) कैसे शुरू होता है? क्या मस्तिष्क को प्रभावित किए बिना, विशिष्ट ऊतकों (specific tissues) में न्यूरोट्रांसमीटर को लक्षित करने के लिए दवाएं बनाई जा सकती हैं? क्या ऐसा करने से मोटापे से संबंधित इंसुलिन प्रतिरोध (obesity-related insulin resistance) का प्रभावी ढंग से मुकाबला किया जा सकता है? 

बहरहाल, यह अध्ययन मधुमेह एवं मोटापे से जुड़े अन्य चयापचय विकारों (metabolic disorders) के बेहतर उपचार की उम्मीद जगाता है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नेत्रदान और कॉर्निया प्रत्यारोपण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, तेजा बालनत्रपु

अंधत्व रोकथाम के लिए कार्यरत इंटरनेशनल एजेंसी फॉर दी प्रीवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस (International Agency for the Prevention of Blindness – IAPB) प्रति वर्ष अक्टूबर के दूसरे गुरुवार को विश्व दृष्टि दिवस (World Sight Day) के रूप में मनाती है। इस वर्ष यह दिन 10 अक्टूबर को था। इसका उद्देश्य जागरूकता बढ़ाना और दुनिया भर में हर किसी को दृष्टि का लाभ पहुंचाने के प्रयासों का समर्थन करना है। इन प्रयासों में शामिल हैं ज़रूरतमंदों को चश्मा वितरण (Eyeglasses Distribution) और आंख के क्षतिग्रस्त हिस्सों का इलाज करना, जैसे मोतियाबिंद के उपचार (Cataract Surgery) के लिए आंख के अपारदर्शी लेंस को बदलना, या अंधेपन के इलाज के लिए कॉर्निया का प्रत्यारोपण (Corneal Transplant). 

कॉर्नियल क्षति (Corneal Damage) के कारण हुआ अंधापन भारत में अंधेपन की समस्या का एक प्रमुख कारण है। कॉर्निया के प्रत्यारोपण में दानदाता (Donor) के स्वस्थ ऊतक लेकर क्षतिग्रस्त कॉर्निया वाले व्यक्ति में प्रत्यारोपित कर उसकी दृष्टि को बहाल किया जाता है। अलबत्ता, प्रत्यारोपण की दीर्घकालिक सफलता (Long-term Success) कई कारकों से प्रभावित होती है: दाता के ऊतकों की गुणवत्ता (Tissue Quality), कॉर्निया की हालत, और सबसे महत्वपूर्ण लंबे समय तक नियमित जांच और देखभाल (Regular Check-ups and Care)। 

कॉर्निया (Cornea), आंख की पुतली और तारे को ढंकने वाली एक पतली, पारदर्शी और गुंबदनुमा परत होती है। कॉर्निया के ऊतकों का विशिष्ट गुण होता है पारदर्शी बने रहना ताकि वह आने वाले प्रकाश (Incoming Light) को रेटिना तक पहुंचने दे सके। रेटिना (Retina) पर प्रकाश-ग्राही कोशिकाएं होती हैं जो हमें देखने में मदद करती हैं। यदि किसी कारण से कॉर्निया क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो यह प्रकाश को रेटिना की ओर अंदर आने देने की अपनी क्षमता खो देता है और व्यक्ति की दृष्टि चली जाती है। ऐसे में, दृष्टि बहाल करने का एकमात्र तरीका होता है कॉर्निया का प्रत्यारोपण। 

सन 1905 में ऑस्ट्रियाई नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. ई. के. ज़िम (Dr. Eduard Zirm) ने पहला मानव कॉर्नियल प्रत्यारोपण (First Corneal Transplant) किया था। भारत में पहला प्रत्यारोपण सन 1948 में डॉ. मुथैया (Dr. Muthayya) ने चेन्नई के अपने नेत्र बैंक (Eye Bank) में किया था, और इंदौर के डॉ. आर. पी. धोंडा ने 1960 में पहला सफल कॉर्निया प्रत्यारोपण किया था। तब से, कॉर्निया प्रत्यारोपण और भी परिष्कृत (Refined) हुए हैं और प्रत्यारोपण की सफलता दर (Success Rate) भी काफी बढ़ गई है। कॉर्निया के पारदर्शी ऊतक को छह परतों में बांटा जा सकता है और अब सर्जन पूरे कॉर्निया की बजाय कॉर्निया की केवल एक विशिष्ट उप-परत (Specific Sub-layer) का प्रत्यारोपण कर सकते हैं। इस सर्जरी में रिकवरी तेज़ (Faster Recovery) होती है और प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा अस्वीकृति (Immune Rejection) की संभावना कम होती है। 

ये सभी विशेषताएं कॉर्निया के प्रत्यारोपण को एक आसान विकल्प बनाती हैं। इसके बावजूद, भारत में तकरीबन दस लाख से अधिक लोग कॉर्नियल क्षति (Corneal Damage) के कारण अंधेपन का शिकार हैं। राष्ट्रीय दृष्टिहीनता और दृश्य हानि नियंत्रण कार्यक्रम (National Programme for Control of Blindness – NPCBVI) के अनुसार, 50 वर्ष से कम आयु के लोगों में अंधेपन का मुख्य कारण यही है। पिछले कई वर्षों से, भारत ने प्रति वर्ष एक लाख कॉर्निया प्रत्यारोपण (100,000 Corneal Transplants) करने का अनौपचारिक लक्ष्य रखा है। लेकिन हम इस लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। कॉर्निया के ऊतक केवल व्यक्ति की मृत्यु के बाद (Post-mortem Donation) ही दान किए जा सकते हैं। भारत में दर्ज लाखों मौतों में से कुछ ही कॉर्नियल दान (Corneal Donations) के योग्य होते हैं। हालांकि, वर्तमान में हम सभी योग्य दाताओं से कॉर्निया हासिल नहीं कर पाते हैं, खासकर प्रक्रियागत देरी (Procedural Delays) और सहमति कानूनों (Consent Laws) के कारण। 

इस कमी को दूर करने के लिए सरकार मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 (Transplantation of Human Organs Act – THOA) में संशोधन पर विचार कर रही है, जो ‘मान ली गई या मानित सहमति’ (Presumed Consent) का रास्ता खोलता है। ‘मानित सहमति’ से आशय है ऐसा मान कर चलना कि सभी योग्य दाताओं की अंगदान के लिए सहमति है। हालांकि, मानित सहमति पर सख्ती या दबाव नहीं होना चाहिए, इसमें सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance) सुनिश्चित करने के लिए परिवार की औपचारिक अनुमति (Family Approval) भी शामिल होनी चाहिए – एक ‘स्वीकार्य’ विकल्प।  वक्त की मांग है उदार नेत्रदान (Generous Eye Donations), समर्पित प्राप्तकर्ता (Committed Recipients) की जो नियमित चेक-अप या देखभाल के लिए आता रहे, और एक ऐसी प्रणाली (Systematic Framework) की जो इन दोनों को सक्षम बनाए। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सरकार के नारे ‘नेत्र दान’ और नेत्ररोग विशेषज्ञों के बोध वाक्य ‘पश्यन्तु सर्वे जन: (सभी के पास दृष्टि हो)’ के बीच तालमेल हो, जिसे परिवार की सहमति (Family Consent) से समर्थन मिले: ‘सम्मति परिवारस्य।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपातकालीन गर्भनिरोधक की ‘ओव्हर दी काउंटर’ बिक्री पर रोक गलत – डॉ. क्रिस्टियनेज़ रत्ना किरुबा

कुछ दिनों पहले यह खबर आई थी कि केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली (emergency contraceptive pill) (यानी ‘अगली-सुबह-की-गोली’) की ओव्हर दी काउंटर (over the counter) उपलब्धता पर रोक लगाने पर विचार कर रहा है। ओव्हर दी काउंटर (OTC) का मतलब होता है कि वह औषधि डॉक्टरी पर्ची (prescription) के बगैर मिल जाती है। इस प्रतिबंध की सिफारिश संभवत: एक छ:-सदस्यीय विशेषज्ञ उप समिति द्वारा की जाएगी। इस समिति में लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के एक प्रसव व स्त्री रोग विशेषज्ञ (gynecologist) तथा भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research) और डीजीसीए के प्रतिनिधि होंगे।

ओव्हर दी काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध (ban on OTC sale) लगाने का कारण यह बताया जा रहा है कि इस अगली-सुबह-की-गोली (morning after pill) का बेतुका व अत्यधिक उपयोग हो रहा है, जिसकी वजह से महिलाओं को स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें हो सकती हैं। यह कहा जा रहा है कि इस गोली के लिए डॉक्टरी पर्ची (prescription) ज़रूरी बनाने से महिलाओं की सेहत की सुरक्षा होगी और आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) के अनावश्यक उपयोग से होने वाली परेशानियों से बचा जा सकेगा।

इस संदर्भ के मद्देनज़र इस बात पर चर्चा की ज़रूरत है कि भारत में आपातकालीन गोली (emergency pill) की ओव्हर दी काउंटर उपलब्धता (over the counter availability) की सुरक्षा को लेकर वैज्ञानिक प्रमाण (scientific evidence) क्या कहते हैं। क्या इस तरह के प्रतिबंध (restriction) के लिए कोई वैज्ञानिक औचित्य है? साथ ही, इस बात पर भी विचार करना होगा कि इस तरह बिक्री पर प्रतिबंध की वजह से किस तरह की समस्याएं पैदा होंगी।

आपातकालीन गोली सुरक्षित है (Emergency Contraceptive Pill is Safe) 

कई रासायनिक नुस्खों का उपयोग अगली-सुबह-की-गोली (morning after pill) के रूप में किया जा सकता है। जैसे मिफेप्रिस्टोन (Mifepristone), लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) और उलीप्रिस्टाल (Ulipristal)। लेकिन भारत में ओव्हर दी काउंटर बिक्री (OTC sale) के लिए इनमें से एक को ही मंज़ूरी मिली है – लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel)। यह मशहूर ब्रांड नामों आईपिल (I-Pill) या अनवांटेड 72 (Unwanted 72) के नाम से बिकती है। इस गोली में 1.5 मि.ग्रा. लेवोनॉरजेस्ट्रेल होता है और यदि इसे संभोग के 72 घंटे के अंदर ले लिया जाए तो यह 89 प्रतिशत गर्भावस्था से बचाव करती है।

लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) के साइड इफेक्ट्स में मितली (nausea), उल्टी (vomiting) के अलावा कुछ हल्का-सा खून आना हो सकता है। इस दवा का अर्ध-जीवन काल 20-60 घंटे है। इसका मतलब है कि इसे 5 दिन से 2 सप्ताह के बीच शरीर से पूरी तरह साफ कर दिया जाता है। फिलहाल इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि इस गोली का बार-बार सेवन करने से यह शरीर में जमा होती रहती है या इसके साइड इफेक्ट (side effects) बढ़ जाते हैं।

आपातकालीन गोली का सबसे बुरा ज्ञात असर एनाफायलेक्सिस (गंभीर एलर्जिक प्रतिक्रिया) है। यह तब होता है जब आपको किसी चीज़ से एलर्जी हो और आप उसका उपभोग कर लें। लेकिन यह सिर्फ उन लोगों के मामले में प्रासंगिक होगा जिन्हें आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraception) गोली से एलर्जी का इतिहास रहा है। देखा जाए तो यह खतरा तो दुनिया की लगभग किसी भी दवाई के साथ हो सकता है। 

आज तक मात्र एक रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति को आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली की वजह से आंख में खून का थक्का जम गया था, एक रिपोर्ट मस्तिष्क में खून के थक्के की है और एक रिपोर्ट ब्रेन स्ट्रोक की है। लेकिन मात्र प्रोजेस्टरॉन आधारित आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली और खून के थक्कों के बीच सम्बंध की बात को मात्र इन तीन प्रकरणों के दम पर स्थापित नहीं किया जा सकता। और तो और, इस बात के काफी प्रमाण हैं कि मात्र प्रोजेस्टरॉन वाली आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों से खून का थक्का नहीं बनता है। लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) दरअसल प्रोजेस्टरॉन का संश्लेषित रूप है। 

एक अन्य संभावित साइड इफेक्ट है माहवारी में अनियमितता, जो चिंता का सबब हो सकता है। हालांकि, यह साइड इफेक्ट काफी आम है (15 प्रतिशत) लेकिन यह अगले मासिक चक्र तक बगैर किसी उपचार के ठीक भी हो जाता है। 

लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) के उपयोग का एकमात्र पक्का निषेध लक्षण है पक्की गर्भावस्था। लेकिन जिन महिलाओं ने यह गोली ली और बाद में पता चला कि वे पहले से गर्भवती थीं, उनके मामले में भी गोली ने न तो मां के लिए और न ही शिशु के लिए गर्भावस्था के दौरान कोई दिक्कत पैदा की। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने इसे सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधकों में शामिल किया है और स्तनपान कराती महिलाओं के लिए भी मंज़ूरी दी है। 

हालांकि इसे मात्र आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी दी गई है, लेकिन हो सकता है कि कुछ लोग अगली-सुबह-की-गोली (morning-after pill) का उपयोग नियमित गर्भनिरोधक के रूप में करते हों। तमिलनाडु सरकार द्वारा ड्रग कंसल्टेटिव कमिटी (Drug Consultative Committee) की सन 2023 की 62वीं बैठक में इसकी ओव्हर दी काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का जो सुझाव दिया गया था, उसके पीछे यही चिंता लगती है।

डीएमके के मीडिया शाखा के प्रांतीय उपसचिव डॉ. एस.ए.एस. हफीज़ुल्ला ने अपने ट्वीट में कहा था, “आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraception) गोली के गैर-तार्किक उपयोग से स्वास्थ्य सम्बंधी प्रतिकूल असर होते हैं और लगातार उपयोग की वजह से जानलेवा बीमारियों का जोखिम हो सकता है। ये गोलियां कुछ बीमारियों में पूर्णत: निषिद्ध हैं।” वैसे उनकी इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। 

गर्भनिरोध (contraception) की पात्रता के सम्बंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) की फैक्ट शीट और दिशानिर्देशों में बताया गया है कि कौन-सी महिलाएं किसी खास किस्म के गर्भनिरोध के उपयोग के कारण दुष्प्रभाव के जोखिम में हो सकती हैं। इनको देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि लेवोनॉरजेस्ट्रेल (levonorgestrel) का बारंबार उपयोग सभी महिलाओं के लिए सुरक्षित है, हालांकि आदर्श नहीं है। आदर्श स्थिति तो वह होगी जहां आपातकालीन गोली का उपयोग किसी नियमित अवरोधक विधि (कंडोम वगैरह), या नियमित गर्भनिरोधक गोली या आई.यू.डी. (IUD – intrauterine device) या नसबंदी के साथ-साथ किया जाए।

गलतफहमियां 

आपातकालीन गोली के सुरक्षित होने की बात करते हुए यह ध्यान देना ज़रूरी है कि कई अध्ययनों से पता चला है कि इसके बारे में गलत जानकारी खूब फैली है। यहां तक कि, डॉक्टरों की भी यही स्थिति है। 

उत्तर प्रदेश में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि 96 प्रतिशत डॉक्टरों को इस बारे में सही जानकारी नहीं थी कि आपातकालीन गोली काम कैसे करती है। पॉपुलेशन कौंसिल इंस्टीट्यूट (Population Council Institute) द्वारा स्त्री रोग विशेषज्ञों के एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष था कि 96 प्रतिशत विशेषज्ञों में भी इस गोली की क्रियाविधि की सही-सही जानकारी नहीं थी। इन विशेषज्ञों मानना था कि यह गोली भ्रूण को गर्भाशय में ठहरने से रोकती है जबकि इस बात के पर्याप्त वैश्विक प्रमाण हैं कि यह गोली अंडोत्सर्ग (ovulation) की क्रिया को ही रोक देती है।  

यह आम गलतफहमी है कि आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraceptive) गर्भाशय में भ्रूण के ठहरने को रोकती है और इस गलतफहमी की वजह से यह गलत धारणा बनी है कि यह गोली अस्थानिक (ectopic pregnancy) गर्भावस्था का कारण बन जाती है। कई डॉक्टर तो यह गलत जानकारी मीडिया प्लोटफॉर्म्स (media platforms) पर भी फैलाते रहते हैं। एक शोध पत्र में 136 अध्ययनों का विश्लेषण किया गया था और इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला था कि आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली अस्थानिक गर्भधारण का कारण बनती है। और तो और, यह कहने का कोई जीव वैज्ञानिक आधार भी नहीं है कि लेवोनॉरजेस्ट्रेल-आधारित गर्भनिरोधक अस्थानिक गर्भ का कारण बन सकता है। 

सही जानकारी तक पहुंच के अभाव के चलते कई डॉक्टरों की यह धारणा बन गई है कि अगली-सुबह-की-गोली (morning-after pill) जानलेवा खून के थक्के (blood clots) पैदा कर सकती है। अलबत्ता, मात्र वही गोलियां ऐसे खून के थक्के पैदा कर सकती हैं जिनमें एस्ट्रोजेन (estrogen) हॉर्मोन होता है। एस्ट्रोजेन कई सारी मिश्रित गर्भनिरोधक गोलियों में पाया जाता है जिनकी रोज़ाना सेवन की सलाह दी जाती है। लेवोनॉरजेस्ट्रेल, जो प्रोजेस्टरॉन नामक हॉर्मोन का संश्लेषित रूप है जिसमें खून के थक्के बनने की कोई संभावना नहीं है। 

उत्तर प्रदेश के अध्ययन में यह भी पता चला था कि लगभग 25 प्रतिशत डॉक्टरों में यह गलत धारणा व्याप्त है कि इस गोली के बारंबार उपयोग से स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम हो सकते हैं और बांझपन (infertility) तक पैदा हो सकता है। एक अन्य अध्ययन से पता चला था कि दो-तिहाई स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को लगता है कि स्तनपान (breastfeeding) के दौरान आपातकालीन गोलियों का सेवन असुरक्षित है। यह धारणा भी गलत है। 

स्वास्थ्य कर्मियों के बीच भी गलतफहमियों के इस अंबार के मद्देनज़र यदि इन गोलियों के लिए डॉक्टरी पर्ची अनिवार्य कर दी गई, तो उन लोगों के लिए भी गर्भनिरोधकों तक पहुंच असंभव हो जाएगी, जिन्हें सचमुच उनकी ज़रूरत है।

उपयोगकर्ताओं के प्रति पूर्वाग्रह 

जब डॉक्टरों के बीच यह धारणा व्याप्त है कि आपातकालीन गोली भ्रूण को ठहरने से रोकती है, तो उनमें इसके उपयोग के खिलाफ यह पूर्वाग्रह पैदा हो सकता है कि यह गोली शायद गर्भपात (abortion) भी करवा सकती है। तो कुछ प्रो-लाइफ डॉक्टर इसके विरुद्ध नैतिक मुद्दा भी उठा सकते हैं। उत्तर प्रदेश के अध्ययन में पता चला था कि कुछ डॉक्टर इस गोली को गर्भपात-कारी मानते हैं। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया था, इस गोली की क्रिया अंडोत्सर्ग को रोकने की है, अर्थात लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित गोली गर्भपात नहीं करवा सकती। 

उत्तर भारत में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि आधे से ज़्यादा डॉक्टर (53 प्रतिशत) यह भी मानते हैं कि आपातकालीन गोली चाहने वाले लोगों की विवाह-पूर्व यौन सम्बंधों (premarital sex) में लिप्त होने की ज़्यादा संभावना है और तीन-चौथाई का विश्वास था कि आपातकालीन गोली के उपयोग से यौन स्वच्छंदता (sexual freedom) को बढ़ावा मिलेगा। एक अन्य अध्ययन में पता चला था कि लगभग आधे डॉक्टर मानते हैं कि आपातकालीन गोली चाहने वाले लोग यौन सम्बंधों को लेकर स्वच्छंद होते हैं। 

दी न्यूज़ मिनट (The News Minute) में एक खोजी पत्रकारिता रिपोर्ट में बताया गया था कि दो गुप्त रिपोर्टर्स चेन्नै के एक सरकारी अस्पताल से आपातकालीन गर्भनिरोधक के लिए पर्ची हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी इस कोशिश में उन्हें अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ा और नर्सों व डॉक्टरों की नैतिक निगरानी से गुज़रना पड़ा, तब जाकर उन्हें गोली दी गई। यदि ओव्हर दी काउंटर (over the counter) उपलब्धता प्रतिबंधित हुई तो यह नज़ारा सामान्य होने में देर नहीं लगेगी। 

वैश्विक नज़रिया 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली की ओव्हर दी काउंटर उपलब्धता की ज़ोरदार सिफारिश करता है। इसके अलावा, 112 देश ओव्हर दी काउंटर बिक्री (OTC sale) की अनुमति देते हैं और अर्जेंटाइना व जापान भी 2023 में इन देशों में शामिल हो गए हैं। ज़ाहिर है, वैश्विक रुझान ओव्हर दी काउंटर बिक्री के पक्ष में है। 

लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित आपातकालीन गर्भनिरोधक यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (FDA) की उस कसौटी पर भी खरी उतरती है जिन्हें ओव्हर दी काउंटर बिक्री की अनुमति दी जा सकती है। प्रशासन ने इसे 2013 में ओव्हर दी काउंटर बिक्री की अनुमति दे दी थी। 

प्रतिबंध के नकारात्मक असर 

भारत में असुरक्षित गर्भपातों (unsafe abortions) की संख्या काफी अधिक है। 2019 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2007 से 2011 के दरम्यान भारत में कुल गर्भपातों में से दो-तिहाई खतरनाक हालात में हुए थे और इनकी वजह से देश में प्रतिदिन औसतन 8 मौतें हुई थीं। अध्ययन में यह भी बताया गया था कि हाशिए की महिलाएं (marginalized women) ज़्यादा प्रभावित होती हैं। दी लैंसेट ग्लोबल हेल्थ रिपोर्ट (The Lancet Global Health Report) के मुताबिक भारत में 2015 में 8 लाख असुरक्षित गर्भपात हुए थे। 

जो लोग गर्भपात सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करते हैं उन्हें कलंकित (stigma) होने और अपमान का सामना करना पड़ता है। ऐसे हालात में आपातकालीन गर्भनिरोधक तक पहुंच से अनचाहे गर्भ (unwanted pregnancies) से बचा जा सकेगा और ऐसे गर्भ की वजह से किए जाने वाले असुरक्षित गर्भपातों से बचा जा सकेगा, जो कई बार महिला के लिए जानलेवा साबित होते हैं। 

लिहाज़ा, ओव्हर दी काउंटर आपातकालीन गर्भनिरोधकों पर प्रतिबंध अनचाहे गर्भ और असुरक्षित गर्भपातों में वृद्धि करके भारत में मातृत्व मृत्यु (maternal mortality) की स्थिति को बदतर कर सकता है। प्रतिबंध लगने पर शायद आपातकालीन गर्भनिरोधकों का ब्लैक मार्केट (black market) पनपे। इसके चलते अमानक और नकली दवाइयों के बाज़ार को बढ़ावा मिलेगा। 

इसके अलावा, देहरादून में किए गए एक एथ्नोग्राफिक अध्ययन में उजागर हुआ था कि ओव्हर दी काउंटर पहुंच विभिन्न सामाजिक-आर्थिक तबकों की महिलाओं को अपनी स्वायत्तता और निजता (privacy and autonomy) को सुरक्षित रखते हुए गर्भनिरोध हासिल करने में मददगार होती है। खास तौर से भारत में, जहां कंडोम का उपयोग बहुत कम (मात्र 9.5 प्रतिशत) है, वहां कई महिलाओं (जिनमें विवाहित महिलाएं भी शामिल हैं) के लिए अपने साथी को कंडोम (condom) का उपयोग करने के लिए राज़ी करना मुश्किल होता है। ऐसे में आपातकालीन गोली उन्हें अपनी सुरक्षा का एक विकल्प उपलब्ध कराती हैं जिसमें शर्मिंदगी और अपमान न हो और असुरक्षित गर्भपात का खतरा न हो। 

ज़रा अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुर्का (Lipstick Under My Burkha) का वह दृश्य याद कीजिए जिसमें कोंकणा सेन शर्मा (Konkona Sen Sharma) द्वारा अभिनीत पात्र बार-बार एक स्थानीय स्वास्थ्य सेवा प्रदाता (healthcare provider) के पास गर्भपात (abortion) के लिए जाती है। कारण यह बताती है कि उसका पति कंडोम (condom) का उपयोग नहीं करता। दुनिया के सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधकों (contraceptives) में शुमार लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित गोली (Levonorgestrel pill) यकीनन एक बेहतर विकल्प लगती है।   

अटकलों के आधार पर नीतियां न बनें 

भारत वह देश है जहां तंबाकू (tobacco), अल्कोहल (alcohol), और यहां तक कि कीटनाशक (pesticides) जैसे जानलेवा पदार्थ आसानी से मिल जाते हैं जो 66 देशों में प्रतिबंधित हैं। दूसरी ओर, एक ऐसी अत्यंत सुरक्षित दवा के दुरुपयोग (misuse of drugs) को लेकर अटकलें (speculations) लगाई जा रही हैं जो यौन व प्रजनन स्वास्थ्य (sexual and reproductive health) में उपयोगी है और ऐसी अटकलों के आधार पर इसकी ओव्हर दी काउंटर बिक्री (over-the-counter sale) पर रोक लगाने की योजना बनाई जा रही है। 

इतना तो स्पष्ट है कि प्रतिबंध (ban) की इस सिफारिश के समर्थन में कोई वैज्ञानिक प्रमाण (scientific evidence) नहीं है। इसके अलावा, जो चिकित्सक (doctors) इस दवा की पर्ची लिखने के लिए ज़िम्मेदार होंगे, उनके पास इन दवाइयों (medications) के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं हैं और उनकी धारणा है कि ये कई साइड इफेक्ट (side effects) उत्पन्न करती हैं। यह भी संभव है कि उन्हें समुचित जेंडर संवेदनशीलता प्रशिक्षण (gender sensitivity training) भी न मिला हो कि वे अपने पूर्वाग्रहों (bias) से ऊपर उठ सकें। 

अभी तो यही लगता है कि नीतिगत परिवर्तन (policy change) के बारे में वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर नहीं बल्कि अटकलों के आधार पर विचार किया जा रहा है। वैसे तो काफी प्रमाण (evidence) उपलब्ध हैं लेकिन यदि इनके बावजूद कुछ शंकाएं (doubts) हैं तो जनसंख्या आधारित अध्ययन (population-based studies) किए जाने चाहिए, ताकि यह पता चल सके कि क्या देश में आपातकालीन गोलियों (emergency contraceptive pills) का दुरुपयोग काफी अधिक हो रहा है, और साइड इफेक्ट (side effects) कितने आम हैं। 

दरअसल, उपलब्धता व पहुंच (availability and access) पर रोक लगाने की बजाय बेहतर यह होगा कि आम लोगों व स्वास्थ्य पेशेवरों (healthcare professionals) दोनों को आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) के सही व सुरक्षित उपयोग (safe use) के बारे में जागरूक किया जाए ताकि महिलाएं (women) अपने प्रजनन स्वास्थ्य (reproductive health) के बारे में निर्णय सोच-समझकर ले सकें। 

डॉ. एस.ए.एस. हफीज़ुल्ला ने एक ट्वीट (tweet) में स्वयं को महिलाओं के पक्षधर (women’s advocate) के रूप में पेश किया है। वे कहते हैं कि आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) पर प्रतिबंध (ban) लगना चाहिए ‘क्योंकि गर्भनिरोध की ज़िम्मेदारी (responsibility of contraception) मात्र महिला पर क्यों रहे?’ लेकिन यदि देश के लगभग 90 पुरुष (men) आगे आकर सुरक्षित बैरीयर विधियों (barrier methods) (जैसे कंडोम (condoms)) का उपयोग करना या नसबंदी (sterilization) करवाना नहीं चाहते तो क्या यह महिलाओं के हक में होगा कि उन्हें अपनी सुरक्षा (safety) के विकल्पों (options) से वंचित किया जाए? (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमेह से निपटने के लिए स्मार्ट इंसुलिन

हाल ही में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन का एक नया रूप विकसित किया है जिसकी सक्रियता रक्त शर्करा (Blood Sugar) के स्तर के आधार पर नियंत्रित होती है। NNC2215 नामक यह ‘स्मार्ट’ इंसुलिन (Smart Insulin), शर्करा के स्तर को प्रभावी ढंग से कम करने के अलावा खून में शर्करा बहुत कम होने से भी बचाता है।

गौरतलब है कि मधुमेह (Diabetes) से दुनिया भर में लगभग 42.2 करोड़ लोग प्रभावित हैं, जिसमें से कई लोगों को रक्त शर्करा नियंत्रित रखने के लिए इंसुलिन (Insulin Injection) लेना पड़ता है। टाइप-1 मधुमेह (Type-1 Diabetes) में, हर दिन इंसुलिन का एक इंजेक्शन लगता है, लेकिन बहुत अधिक इंसुलिन हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) का कारण बन सकता है। यानी रक्त शर्करा का स्तर सामान्य से नीचे जा सकता है, जिससे दुश्चिंता, कमज़ोरी, भ्रम जैसी समस्याएं हो सकती हैं, यहां तक कि जान का जोखिम भी रहता है।

ऐसे तरीके उपलब्ध हैं जिनमें ऐसे यौगिकों का उपयोग किया जाता है जो खून में ग्लूकोज़ (Glucose Levels) बढ़ने पर इंसुलिन छोड़ते हैं। लेकिन इसका नुकसान यह है कि एक बार इंसुलिन रक्त में पहुंचने के बाद इस पर नियंत्रण नहीं रह जाता, जिससे हाइपोग्लाइसीमिया (Low Blood Sugar) का जोखिम रहता है।

नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन को संशोधित किया है। डेनमार्क स्थित नोवो नॉर्डिस्क (Novo Nordisk) की रीटा स्लाबी के नेतृत्व में टीम ने ग्लूकोज़ के प्रति संवेदी इंसुलिन अणु में फेरबदल करके एक ‘स्विच’ जोड़ा है। यह स्विच रक्त शर्करा के स्तर के मुताबिक अपनी गतिविधि को चालू या बंद करता है। इस स्विच में दो भाग होते हैं: एक मैक्रोसाइकल (Macrocyle Structure) और एक ग्लूकोसाइड। जब रक्त शर्करा कम होती है, तो इंसुलिन निष्क्रिय रहता है। जैसे ही ग्लूकोज़ का स्तर बढ़ता है, इंसुलिन सक्रिय हो जाता है, और रक्त शर्करा का स्तर कम हो जाता है।

सूअरों और चूहों पर किए गए परीक्षणों में, NNC2215 ने रक्त शर्करा को कम करने में सामान्य इंसुलिन (Regular Insulin) के समान ही प्रभाव दर्शाया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसने वर्तमान इंसुलिन उपचारों के साथ देखी जाने वाली रक्त शर्करा में गंभीर गिरावट की दिक्कत को भी रोका।

हालांकि, यह सफलता आशाजनक है फिर भी कुछ सवाल बने हुए हैं। जैसे यह परीक्षण मधुमेह रोगियों में आम तौर पर देखे जाने वाले रक्त शर्करा स्तर से कहीं अधिक व्यापक परास में किया गया। भविष्य के अध्ययनों को अधिक वास्तविक सीमा में इसका प्रभाव देखना होगा। इसके अतिरिक्त, इसे बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने से पहले इसकी सुरक्षा और खर्च सम्बंधी मूल्यांकन (Cost Evaluation) किया जाना चाहिए।

फिलहाल, कई अन्य शोध टीमें ‘स्मार्ट’ इंसुलिन उपचार (Smart Insulin Therapy) विकसित कर रही हैं। इनका लक्ष्य स्मार्ट इंसुलिन दवाओं की एक शृंखला बनाना है जिसे अलग-अलग रोगियों के लिए तैयार किया जा सके और मधुमेह रोगियों को गुणवत्तापूर्ण जीवन (Quality of Life for Diabetes Patients) दिया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपका टूथब्रश सैकड़ों वायरसों का अड्डा है

क्या आप जानते हैं कि आपके टूथब्रश (Toothbrush) और शॉवरहेड (Showerhead) में सैकड़ों वायरस (Viruses) हो सकते हैं? लेकिन घबराने की कोई ज़रूरत नहीं! बैक्टीरियोफेज (Bacteriophages) नामक ये वायरस सिर्फ बैक्टीरिया (Bacteria) को संक्रमित करते हैं, इंसानों को इससे कोई खतरा नहीं हैं। उल्टा ये वायरस हमें खतरनाक, दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Drug-Resistant Bacteria) से लड़ने के नए तरीके खोजने में मदद कर सकते हैं। 

नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की एरिका हार्टमैन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने आम घरेलू सतहों पर वायरस की अदृश्य दुनिया की अधिक जानकारी के लिए अमेरिकी घरों से 92 शॉवरहेड और 36 टूथब्रश का अध्ययन किया। उन्नत डीएनए अनुक्रमण तकनीकों (DNA Sequencing) का उपयोग करके, इन नमूनों में उन्होंने 600 से अधिक विभिन्न प्रकार के बैक्टीरियोफेज (Phages) पाए। इनमें से ज़्यादातर वायरस टूथब्रश में पाए गए और वहां मिले कई वायरस तो विज्ञान के लिए सर्वथा नए थे। 

बैक्टीरियोफेज आम तौर पर दो में से किसी एक तरीके से कार्य करते हैं: वे या तो बैक्टीरिया की मशीनरी को हाईजैक (Hijack Bacterial Machinery) कर लेते हैं और अपनी प्रतियां बनाकर अंतत: मेज़बान बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं, या वे बैक्टीरिया के जीनोम (Bacterial Genome) में एकीकृत हो जाते हैं और बैक्टीरिया के व्यवहार को बदल देते हैं। ये वायरस संभवत: हमारे घरों में रसोई के सिंक (Kitchen Sink) या रेफ्रिजरेटर जैसी अन्य नम सतहों पर भी मौजूद होते हैं। 

यह अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि बैक्टीरियोफेज रोज़मर्रा के वातावरण (Everyday Environment) में कैसे काम करते हैं, जिससे शोधकर्ताओं को आसपास छिपी हुई सूक्ष्मजीवी दुनिया (Microbial World) को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैक गिल्बर्ट इसे एक ‘आकर्षक संसाधन’ के रूप में देखते हैं जो हमारे घरों के अंदर फेज गतिविधि (Phage Activity) के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करता है। 

इस शोध की एक दिलचस्प संभावना यह भी है कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Antibiotic-Resistant Bacteria) से निपटने के लिए नए खोजे गए बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया जा सकता है। जब एंटीबायोटिक्स विफल हो जाते हैं, तो इंजीनियर्ड बैक्टीरियोफेज (Engineered Phages) का उपयोग कभी-कभी इन सुपरबग्स (Superbugs) को मारने के लिए किया जा सकता है। यह उपचार के लिए एक आशाजनक विकल्प प्रदान करता है। 

सारत: साधारण-सा दिखने वाला टूथब्रश अदृश्य वायरसों (Invisible Viruses) से भरा और चिकित्सा में उपयोगी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीन नियमन के एक नए रास्ते की खोज के लिए नोबेल

डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का चिकित्सा अथवा कार्यिकी क्षेत्र का नोबेल सम्मान दो वैज्ञानिकों – विक्टर एम्ब्रोस तथा गैरी रुवकुन – को संयुक्त रूप से कोशिका के कामकाज के नियमन सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान के लिए दिया गया है। 

यह तो आज जीव विज्ञान (biology research) में सर्वमान्य तथ्य है कि गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम्स (chromosomes) सजीवों की कोशिकाओं के लिए एक निर्देश पत्र के समान होते हैं। इन गुणसूत्रों में डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए) (DNA structure) के रूप में सारी सूचनाएं अंकित होती हैं। प्रत्येक सूचना खंड को जीन (genes) कहते हैं। यह भी ज़ाहिर है कि किसी भी सजीव की सारी कोशिकाओं में एक-से गुणसूत्र पाए जाते हैं। अर्थात हर कोशिका में संचालन के लिए निर्देश पत्र (जीन्स) एक ही होता है। फिर भी हर किस्म की कोशिकाएं अलग-अलग काम करती हैं। तो यह कैसे संभव होता है? इसका जवाब जीन नियमन (gene regulation) की प्रक्रिया में निहित है। इसी के परिणामस्वरूप हर किस्म की कोशिका में जीन्स का अलग-अलग समुच्चय सक्रिय होता है। 

एम्ब्रोस और रुवकुन ने जीन नियमन (gene expression) की इस प्रणाली का खुलासा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका यह अनुसंधान लगभग 30 वर्षों के अंतराल के बाद पुरस्कृत हुआ है। कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना डीएनए (DNA transcription) में संग्रहित होती है। इसे संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में नकल किया जाता है। इस प्रक्रिया को प्रतिलेखन (transcription process) कहते हैं। यह एमआरएनए कोशिका की अन्य मशीनरी की मदद से सम्बंधित प्रोटीन (protein synthesis) का निर्माण करवाता है। इस प्रक्रिया को अनुलेखन कहते हैं। यह अत्यंत सटीकता से की जाती है ताकि डीएनए के जीन में अंकित सूचना के आधार पर प्रोटीन बने। विभिन्न किस्म की कोशिकाओं में एक-सी आनुवंशिक सूचना (genetic code) होने के बावजूद वे एकदम अलग-अलग काम करती हैं, उनमें अलग-अलग प्रोटीन का निर्माण होता है। अर्थात उनमें अलग-अलग जीन्स अभिव्यक्त (gene expression regulation) होते हैं। तभी तो मांसपेशियों की कोशिकाएं, पैंक्रियास की कोशिकाएं, आंतों की कोशिकाएं सर्वथा भिन्न-भिन्न काम कर पाती हैं। इसके अलावा एक मसला यह भी है कि हरेक कोशिका को शरीर की स्थिति और पर्यावरण के हिसाब से अपने कामकाज का तालमेल बनाना पड़ता है। और यह सब होता है जीन नियमन के द्वारा। यदि जीन नियमन गड़बड़ हो जाए तो तमाम किस्म की दिक्कतें पैदा होने लगती हैं। जैसे कैंसर (cancer research), डायबिटीज़ (diabetes research) वगैरह। 

तो जीन नियमन (gene regulation research) को समझना जीव विज्ञान में एक महत्वपूर्ण अनुसंधान क्षेत्र रहा है। 1960 के दशक में यह दर्शाया गया था कि कुछ विशेष प्रोटीन्स (proteins) इस बात का नियमन करते हैं कि कौन-से एमआरएनए का निर्माण होगा। इन्हें प्रतिलेखन कारक (transcription factors) कहते हैं। इस समझ के बाद हज़ारों प्रतिलेखन कारक खोजे जा चुके हैं और यह लगभग मान लिया गया था कि जीन नियमन की गुत्थी को सुलझा लिया गया है। लेकिन… 

जी हां, लेकिन। 1993 में इस वर्ष के नोबेल विजेताओं ने ऐसी अनपेक्षित खोज (Nobel Prize discovery) का प्रकाशन किया जिसने जीन-नियमन के सर्वथा नए स्तर को उजागर किया। यह अनुसंधान एक नन्हे कृमि सीनोरेब्डाइटिस एलेगेंस (Caenorhabditis elegans) की मदद से हुआ था। 

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं।

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल (model organism) माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं। 

एम्ब्रोस और रुवकुन की रुचि विभिन्न जेनेटिक प्रोग्राम्स (genetic programs) के सक्रिय होने के समय को नियंत्रित करने वाले जीन्स में थी। इन्हीं के द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि विभिन्न किस्म की कोशिकाएं सही समय पर विकसित हों। इस काम के लिए उन्होंने सी. एलेगेंस के उत्परिवर्तित रूपों को चुना। इन्हें lin-4 और lin-14 कहते हैं। इन दोनों में विकास के दौरान जेनेटिक प्रोग्राम्स के क्रियाशील होने के समय में गड़बड़ी देखने को मिलती थी। हमारे इस वर्ष के नोबेल विजेता इनमें उपस्थित उत्परिवर्तित जीन्स की शिनाख्त करना चाहते थे और उनकी क्रियाविधि को समझना चाहते थे। 

एम्ब्रोस पहले ही यह दर्शा चुके थे कि lin-4 जीन lin-14 जीन की सक्रियता को बाधित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वह ऐसा कैसे करता है। एम्ब्रोस और रुवकुन इसी गुत्थी को सुलझाने में भिड़ गए। 

एम्ब्रोस ने lin-4 उत्परिवर्तित कृमि का अध्ययन किया। उन्होंने इस जीन का क्लोन बनाया तो विचित्र परिणाम प्राप्त हुए। lin-4 जीन ने एक ऐसे आरएनए (RNA regulation) का निर्माण किया जो असाधारण रूप से छोटा था और वह किसी प्रोटीन का कोड नहीं था। एक अनुमान था कि यही लघु आरएनए दूसरे जीन lin-14 को बाधित करने के लिए ज़िम्मेदार है। 

लगभग इसी समय रुवकुन ने lin-14 जीन के नियमन की खोजबीन शुरू की। उस समय जीन नियमन की जो प्रणाली ज्ञात थी उसमें यह होता था कि किसी जीन द्वारा निर्मित संदेशवाहक आरएनए (messenger RNA) किसी दूसरे जीन द्वारा एमआरएनए के निर्माण को बाधित करता है। लेकिन रुवकुन ने दर्शाया कि lin-4 जीन lin-14 जीन की क्रिया में बाधा एमआरएनए के निर्माण के दौरान नहीं पहुंचाता है बल्कि बाद के किसी चरण में पहुंचाता है। वह चरण होता है प्रोटीन के निर्माण का। शोध से यह भी पता चला कि lin-14 जीन का एक खंड lin-4 जीन की क्रिया को बाधित करने के लिए अनिवार्य होता है। 

जब एम्ब्रोस और रुवकुन ने अपने परिणामों को जोड़कर देखा तो एक ज़ोरदार खोज (breakthrough discovery) सामने आई। lin-4 का एक खंड हूबहू lin-14 के निर्णायक खंड से मेल खाता है। आगे किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि lin-4 द्वारा बनाया गया माइक्रो-आरएनए (micro-RNA) जाकर lin-14 द्वारा बनाए गए एमआरएनए के पूरक अनुक्रम से जुड़ जाता है और उसके द्वारा प्रोटीन निर्माण को रोक देता है। तो इस प्रकार जीन नियमन का एक नया सिद्धांत उभरा – जिसे माइक्रो-आरएनए (microRNA regulation) के माध्यम से क्रियांवित किया जाता है। 

1993 में सेल पत्रिका में प्रकाशित इन निष्कर्षों पर वैज्ञानिकों ने यह कहकर ध्यान नहीं दिया कि ये शायद महज़ सी. एलेगेंस कृमि के संदर्भ में हैं। लेकिन वर्ष 2000 में यह मत बदलने लगा जब रुवकुन के समूह ने एक और माइक्रो-आरएनए की खोज (microRNA discovery) का प्रकाशन किया। यह माइक्रो-आरएनए एक अन्य जीन let-7 द्वारा बनाया जाता है। ध्यान खींचने वाली बात यह थी कि let-7 जीन समूचे जंतु जगत में पाया जाता है। इस खोज के प्रकाशन के बाद तो सैकड़ों माइक्रो-आरएनए पहचाने गए और आज हम मनुष्य में माइक्रो-आरएनए (human microRNA genes) बनाने वाले एक हज़ार से ज़्यादा जीन्स जानते हैं। और यह भी ज्ञात हो चुका है कि माइक्रो-आरएनए द्वारा जीन्स का नियमन बहु-कोशिकीय जीवों में सर्वत्र पाया जाता है। 

1993 में हुई इस महत्वपूर्ण खोज (important discovery) के लिए नोबेल पुरस्कार 30 से अधिक वर्षों बाद दिया गया है। इस बीच कई सारे समूहों ने यह पता लगा लिया है कि माइक्रो-आरएनए का निर्माण कैसे होता है और उन्हें उनकी पूरक शृंखला तक कैसे पहुंचाया जाता है। जब माइक्रो-आरएनए जाकर एमआरएनए के पूरक खंड से जुड़ जाता है तो या तो वह एमआरएनए प्रोटीन का संश्लेषण नहीं करवा पाता है या उसका विघटन हो जाता है। यह भी पता चल चुका है कि एक अकेला माइक्रो-आरएनए कई सारे अलग-अलग जीन्स की अभिव्यक्ति (gene expression) का नियमन कर सकता है और कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति का नियमन एक से अधिक माइक्रो-आरएनए कर सकते हैं। 

माइक्रो-आरएनए निर्माण की क्रियाविधि का इस्तेमाल कई अन्य लघु आरएनए के निर्माण में भी किया जाता है जो प्रोटीन का संश्लेषण करवा सकते हैं। जैसे ये लघु आरएनए पौधों को वायरस संक्रमण से बचाते हैं। इसी संदर्भ में आरएनए इंटरफेरेंस (RNA interference) की प्रक्रिया की खोज के लिए 2006 में नोबेल सम्मान मिल चुका है। 

माइक्रो-आरएनए के शरीर क्रियात्मक असर काफी व्यापक हैं। ज़ाहिर है, जटिलतम होते गए सजीवों का विकास इन्हीं के दम पर हुआ है। काफी शोध की बदौलत हम जानते हैं कि माइक्रो-आरएनए की अनुपस्थिति में कोशिकाएं और ऊतक सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाते। यदि माइक्रो-आरएनए नियमन गड़बड़ा जाए तो कैंसर जैसी समस्याएं (cancer-related issues) पैदा हो सकती हैं। मनुष्यों में माइक्रो-आरएनए के उत्परिवर्तित जीन्स पाए गए हैं जो कई दिक्कतों को जन्म देते हैं। 

कुल मिलाकर कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना के नियमन (genetic information regulation) को लेकर एक बुनियादी जिज्ञासा से प्रेरित एम्ब्रोस और रुवकुन ने एक कृमि पर शोध की मदद से ऐसी असाधारण खोज (extraordinary discovery) की जिसने जीन नियमन का एक नया आयाम उजागर किया जो बहु-कोशिकीय जीवों के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फोर्टिफाइड चावल से चेतावनी हटाने के निर्णय को चुनौती

पिछले कुछ वर्षों से देश की राशन दुकानों (ration shops) पर और आंगनवाड़ियों (Anganwadis) में जो चावल मिलता है उसमें कई पोषक तत्व मिलाए जाते हैं। इसे फोर्टिफाइड चावल (fortified rice) कहते हैं। इनमें एक पोषक तत्व लौह (iron) भी होता है। वर्ष 2022 में शुरू की गई इस योजना के संदर्भ में 2023 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में चिंता व्यक्त की गई थी कि थैलेसीमिया (thalassemia) और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) जैसे हीमोग्लोबीन सम्बंधी कुछ रोगों के रोगियों के लिए लौह का अतिरिक्त सेवन नुकसानदायक हो सकता है। तब फैसला यह हुआ था कि भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India, FSSAI) ऐसे फोर्टिफाइड चावल के पैकेट्स पर यह चेतावनी चस्पा करेगा कि थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित लोग इस चावल का सेवन न करें। दरअसल, खाद्य सुरक्षा व मानक (खाद्य पदार्थों का समृद्धिकरण) नियमन 2018 के मुताबिक ऐसे लोगों के लिए लौह का सेवन प्रतिबंधित है। विश्व भर से प्राप्त प्रमाण भी इस प्रतिबंध का समर्थन करते हैं। 

थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) से पीड़ित लोगों को अतिरिक्त लौह के सेवन से लिवर सिरोसिस (liver cirrhosis), कार्डियोमायोपैथी (cardiomyopathy), हृदय की नाकामी (heart failure), हायपोगोनेडिज़्म (hypogonadism), डायबिटीज़ (diabetes) और विलंबित यौवनारंभ जैसी दिक्कतों का जोखिम होता है। ऑनलाइन याचिका में लौह के अतिरेक से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (health risks) को लेकर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों का ज़िक्र भी किया गया है। 

फिलहाल लौह-फोर्टिफाइड चावल पर यह चेतावनी होती है कि ‘लौह-फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थ का सेवन थैलेसीमिया पीड़ित (thalassemia patients) व्यक्तियों को चिकित्सकीय देखरेख के तहत और सिकल सेल एनीमिया पीड़ितों को नहीं करना चाहिए।’ अब प्रस्ताव यह आया है कि यह चेतावनी हटा दी जाए। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research, ICMR) की एक समिति ने इसकी सिफारिश की है और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने खाद्य सुरक्षा एवं मानक (खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन) नियमन में संशोधन हेतु 18 सितंबर को एक मसौदा भी जारी किया है। 

इस प्रस्ताव ने व्यापक स्तर पर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं (health concerns) को जन्म दिया है। इस प्रस्ताव के विरुद्ध एक ऑनलाइन अभियान (online campaign) शुरू किया गया है। ऑनलाइन याचिका के मुताबिक यह चेतावनी व्यापक वैज्ञानिक विचार-विमर्श के उपरांत शामिल की गई थी। याचिका कहती है कि यह वैधानिक परामर्श सर्वप्रथम 2018 में काफी वैज्ञानिक विचार-विमर्श के बाद जोड़ा गया था। 

याचिका में स्पष्ट कहा गया है कि सामान्य परिस्थिति में भी कुपोषण (malnutrition) की समस्या के इलाज के रूप में फोर्टिफिकेशन (fortification) को बढ़ावा देना प्रमाण सम्मत नहीं है। एनीमिया (anemia) के प्रबंधन में लौह-फोर्टिफिकेशन अनावश्यक है और असरहीन है। कारण यह है कि एनीमिया सिर्फ लौह तत्व की कमी (iron deficiency) से नहीं होता, इसके कई अन्य कारण भी हैं। जैसे, फोलेट, विटामिन बी-12 (vitamin B12) की कमी, संक्रमण (infections) वगैरह। 

कोक्रेन अध्ययन (Cochrane studies) जैसे विश्वसनीय अध्ययनों का भी निष्कर्ष है कि सामान्य फोर्टिफिकेशन के लाभ अनिश्चित व अस्पष्ट हैं। स्वयं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि ‘एनीमिया में सुधार की दृष्टि से लौह-फोर्टिफाइड चावल और मध्यान्ह भोजन बराबर प्रभावी थे।’ 

इन निष्कर्षों के प्रकाश में उन लोगों को लौह फोर्टिफाइड चावल देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, जिनमें इसकी वजह से दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। जैसे सिकल सेल एनीमिया या थैलेसीमिया पीड़ित लोगों में अतिरिक्त लौह तत्व का सेवन न सिर्फ डायबिटीज़ का ज़ोखिम बढ़ा सकता है बल्कि अन-अवशोषित लौह की वजह से आंतों में सूक्ष्मजीवी असंतुलन (gut microbiota imbalance) को भी जन्म दे सकता है। 

भारत सरकार के खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग (Department of Food and Public Distribution) का एक अध्ययन भी बताता है कि कभी-कभी खाद्य पदार्थों में लौह का फोर्टिफिकेशन हीमोक्रोमेटोसिस (hemochromatosis) पीड़ित व्यक्तियों में लौह-अतिरेक पैदा कर सकता है। इसलिए लौह के अतिरिक्त सेवन की निगरानी किसी भी फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए। विभिन्न देशों में किए गए अध्ययन भी ऐसे ही परिणाम दर्शाते हैं। 

वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की जिस समिति को स्वास्थ्य चेतावनी पर सलाह देने के लिए गठित किया गया था, उसका कहना है कि अन्य देशों में भी ऐसी चेतावनी नहीं होती और विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization, WHO) भी ऐसी किसी चेतावनी का समर्थन नहीं करता। लेकिन याचिका में स्पष्ट किया गया है कि अन्य देशों में भी उपयुक्त लेबल (labeling) लगाए जाते हैं ताकि मरीज़ सोच-समझकर निर्णय कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिकित्सा अनुसंधान के लिए लास्कर पुरस्कार

डॉ. सुशील जोशी

2024 का लास्कर-डीबेकी पुरस्कार (Lasker-DeBakey Award 2024) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के जील हेबनर (Joel Habener), रॉकफेलर विश्वविद्यालय की स्वेतलाना मोजसोव (Svetlana Mojsov) और नोवो लॉरडिस्क की लोटे ब्येरो नडसन (Lotte Bjerre Knudsen)। इन्होंने जीएलपी-1 (GLP-1 hormone) नामक हॉर्मोन के सक्रिय रूप को पहचाना और उसे वज़न घटाने की औषधि (weight loss medication) के रूप में विकसित किया।

दुनिया भर में अनुमानित 90 करोड़ वयस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। मोटापा कई घातक रोगों का कारण बनता है। पूर्व में मोटापे से निपटने के लिए कारगर औषधियों के विकास को ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। उक्त तीन वैज्ञानिकों ने जीएलपी-1 आधारित औषधियों का मार्ग प्रशस्त किया जो काफी उम्मीदें जगाता है।

एक नया हॉर्मोन

1970 के दशक में मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में कार्यरत एंडोक्रायनोलॉजिस्ट हेबनर का ध्यान डायबिटीज़ ने आकर्षिक किया था। आम तौर पर ग्लूकोज़ की उपस्थिति अग्न्याशय (pancreas) को इंसुलिन स्रावित करने के लिए प्रेरित करती है। यह इंसुलिन शर्करा को रक्त प्रवाह में से हटाकर कोशिकाओं में पहुंचाता है।

डायबिटीज़(diabetes) में होता यह है कि इंसुलिन की कमी के चलते रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ की मात्रा अधिक बनी रहती है जबकि कोशिकाएं भूखी मरती हैं। इंसुलिन की आपूर्ति करना डायबिटीज़ के एक उपचार के रूप में उभरा था लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा की तलाश जारी रही। पैंक्रियास द्वारा स्रावित एक अन्य हॉर्मोन – ग्लूकागोन – रक्त में शर्करा की मात्रा को बढ़ाता है। तो एक विचार यह आया कि यदि ग्लूकागोन को बाधित कर दिया जाए तो डायबिटीज़ रोगियों को मदद मिलेगी।

हेबनर ने सोचा कि वे ग्लूकागोन का जीन पृथक करेंगे। लेकिन उस समय नियमों के तहत यूएस में स्तनधारी जीन्स के साथ छेड़छाड़ की अनुमति नहीं थी। तो हेबन ने एंगलरफिश का सहारा लिया। एंगलरफिश के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी था कि इसमें एक विशिष्ट अंग होता है जो भरपूर मात्रा में ग्लूकागोन बनाता है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि पेप्टाइड हॉर्मोन बड़े प्रोटीन अणुओं में से बनते हैं, जब एंज़ाइम उन्हें विशिष्ट स्थानों पर काट देते हैं। 1982 में हेबनर ने रिपोर्ट किया कि एंगलरफिश का ग्लूकागोन जीन एक ऐसे पूर्ववर्ती प्रोटीन का निर्माण करवाता है जिसमें ग्लूकागोन के अलावा एक और पेप्टाइड होता है जो ग्लूकागोन जैसा ही है। इस प्रोटीन में दो अमीनो अम्ल – लायसीन-आर्जिनीन – जोड़ियां कई स्थानों पर पाई जाती हैं। यह वही जोड़ी है जो कई हॉर्मोन के पूर्ववर्ती प्रोटीन्स में कटान स्थल दर्शाती हैं। विचार यह बना कि इन स्थलों पर काटने से ग्लूकागोन भी मुक्त होगा और वह दूसरा पेप्टाइड भी।

इसके अगले वर्ष चिरॉन कॉर्पोरेशन (Chiron Corporation) के ग्रेम बेल ने पाया कि हैमस्टर का ग्लूकागोन जीन भी फिश पेप्टाइड के एक अन्य संस्करण को कोड करता है – इसे उन्होंने नाम दिया ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1)। आगे चलकर मनुष्यों तथा अन्य स्तनधारियों में भी ऐसे ही परिणाम मिले।

एक उपेक्षित चरण

स्वेतलाना मोजसोव ने ग्लूकागोन की क्रियाविधि का अध्ययन करने के लिए बड़ी मात्रा में इसके निर्माण के प्रयास में इस हॉर्मोन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने प्रोटीन संश्लेषण की एक नई विधि का उपयोग किया जो शुद्ध पदार्थ की पर्याप्त मात्रा बनाने के लिए पसंदीदा विधि बन चुकी थी।

1983 के आसपास मोजसोव ने मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में जीएलपी-1 के काम को आगे बढ़ाया। 1990 के दशक की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि आंतों में उपस्थित कतिपय पदार्थ पैंक्रियास को यह हॉर्मोन बनाने को उकसाते हैं। 1964 में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया था कि यदि ग्लूकोज़ को मुंह से लिया जाए तो वह ज़्यादा इंसुलिन उत्पादन को प्रेरित करता है बनिस्बत उसे इंजेक्शन के माध्यम से लेने पर। निष्कर्ष यह था कि आंतों में उपस्थित कोई चीज़ इंसुलिन स्राव को प्रेरित करती है। इन पदार्थों को इंक्रेटिन कहते हैं। उस समय तक ऐसे इंक्रेटिन्स की पहचान नहीं हो पाई थी। अब जीएलपी-1 एक उम्मीदवार के रूप में उभरा क्योंकि यह एक ऐसे हॉर्मोन (glucagon) से मेल खाता है जो रक्त-शर्करा के स्तर को प्रभावित करता है।

जीएलपी-1 के लिए 37 अमीनो अम्लों (amino acids) की शृंखला सुझाई गई थी और उन अमीनो अम्लों के अनुक्रम की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। यदि अलग-अलग प्रोटीन्स में एक से अमीनो अम्ल एक-से स्थानों पर पाए जाएं, तो माना जाता है कि वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। लेकिन जीएलपी-1 की शृंखला की शुरुआत में ऐसे अमीनो अम्ल पाए गए थे जो ग्लूकागोन में नहीं पाए जाते। जीएलपी-1 में पोज़ीशन 6 पर आर्जिनीन था। आर्जिनीन को जाने-माने मानव एंज़ाइमों द्वारा काटा जाता है। यदि इन प्रथम 6 अमीनो अम्लों को काटकर अलग कर दिया जाए तो शेष पेप्टाइड 37 नहीं बल्कि 31 अमीनो अम्ल लंबा होगा और यह ग्लूकागोन कुल के सदस्यों से पूरी तरह मेल खाएगा। मोजसोव ने यह पता करने के प्रयास शुरू कर दिए कि क्या जीएलपी-1 का लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] जीएलपी-1 के लंबे संस्करण [GLP-1 (1-37)] से मुक्त होकर उस अज्ञात इंक्रेटिन की भूमिका निभा सकेगा। इसके लिए उन्होंने दोनों शुद्ध पेप्टाइड का बड़ी मात्रा में संश्लेषण एक ही मिश्रण में किया। उन्होंने ऐसी एंटीबॉडीज़ भी बनाईं जो एक साझा स्थान पर इन दोनों पेप्टाइड्स से जुड़ें – अर्थात वे दोनों संस्करणों को पहचानने में मददगार थीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने मिश्रण में से GLP-1 (1-37) और GLP-1 (7-37) को अलग-अलग करने का तरीका भी खोज निकाला। अंतत: वे सक्रिय पेप्टाइड को पहचान पाईं।

इसके बाद मोजसोव ने पेप्टाइड्स(peptides) को रेडियोधर्मी (radioactive) परमाणुओं से चिंहित किया और फिर जीएलपी-1 एंटीबॉडीज़ की मदद से यह पता किया कि क्या जीएलपी-1 जंतुओं में दिखाई देता है। इसके बाद उन्होंने पेप्टाइड्स को अलग-अलग करके यह स्थापित किया कि लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] ही प्रमुख अंश है। यही आंतों में पाया जाता है।

मोजसोव और हेबनर द्वारा चूहों पर किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि लघु संस्करण GLP-1 (7-37) ही कार्यिकीय रूप से प्रासंगिक पेप्टाइड है।

तब हेबनर और मोजसोव ने मनुष्यों पर अध्ययन शुरू किए। पाया गया कि GLP-1 (7-37) इंसुलिन स्राव को उकसाता है और रक्त शर्करा का स्तर कम करता है। इसके डायबिटीज़ में उपयोग का रास्ता खुल गया।

वसा अम्ल (fatty acid), मोटापे में संभावनाएं

डायबिटीज़ के अलावा मोटापे से निपटने में जीएलपी-1 की भूमिका को लेकर नडसन पहले से सोच रहे थे। 1996 में एक शोध पत्र में बताया गया था कि चूहों के मस्तिष्क में जीएलपी-1 का इंजेक्शन लगाने पर उनका भोजन लेना एकदम से कम हो गया। शोध पत्र का निष्कर्ष था कि यह पेप्टाइड तृप्ति का संदेश देता है।

दिक्कत यह थी कि इंसानों में रक्त संचार में प्रवेश करने के मिनटों के अंदर जीएलपी-1 गायब हो जाता है। एक एंज़ाइम डीपीपी-4 इसे नष्ट कर देता है। बाकी बचे जीएलपी-1 को गुर्दे बाहर निकाल देते हैं। एक औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इसे इन प्रक्रियाओं से बचाना होगा। 

अंतत: रणनीति यह बनी कि जीएलपी-1 के साथ वसा अम्ल जोड़ दिए जाएं। ये वसा अम्ल रक्त संचार में काफी मात्रा में उपस्थित एलब्यूमिन नामक प्रोटीन से कुदरती रूप से जुड़ जाते हैं। एलब्यूमिन पदार्थों को पूरे शरीर में पहुंचाता है। नडसन का विचार था कि एलब्यूमिन जीएलपी-1 को रक्त संचार में ढोएगा और उसे डीपीपी-4 द्वारा विनाश से तथा गुर्दों द्वारा निष्कासन से भी बचाकर रखेगा।

नडसन की टीम ने कई सारे अलग-अलग जीएलपी-1 समरूप बनाए। अंतत: वे लिराग्लुटाइड नामक एक पदार्थ तक पहुंचे। इसका अर्ध जीवन काल 1.2 घंटे से बढ़ाकर 13 घंटे किया जा सका और 2010 में 1300 डायबिटीज़ टाइप-2 मरीज़ों के एक क्लीनिकल परीक्षण में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा और साइड प्रभाव न्यूनतम रहे। 2009 में युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और 2010 में यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने लिराग्लूटाइड को अनुमति दे दी।

इसी दौरान इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे थे कि जीएलपी-1 भूख कम करता है और वज़न घटाता है। एक महत्वपूर्ण अध्ययन में देखा गया कि डायबिटीज़-मुक्त लेकिन मोटे व अधिक वज़न वाले लोगों में लिराग्लूटाइड देने पर एक वर्ष में साढ़े पांच किलोग्राम तक वज़न कम हुआ। अंतत: इसे भी मंज़ूरी मिल गई। कोशिश यह चल रही थी कि दवा शरीर में ज़्यादा देर तक बनी रहे ताकि प्रतिदिन एक गोली की बजाय कम बार लेनी पड़े।

काफी मशक्कत के बाद एक ऐसा अणु मिल गया जो शरीर में पूरे 165 घंटे तक बना रहता था। इसे नाम मिला सेमाग्लूटाइड। इसे 2017 में डायबिटीज़ के उपचार के लिए तथा 2021 में मोटापे के इलाज के लिए अनुमति मिली। लिराग्लूटाइड के मुकाबले सेमाग्लूटाइड का असर लगभग दुगना होता है। परीक्षण के दौरान 16 महीने में प्रतिभागियों के वज़न में 12 किलोग्राम की कमी देखी गई और साइड प्रभाव न के बराबर देखे गए। लिराग्लूटाइड और सेमाग्लूटाइड ने नई दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया है।

मज़ेदार बात यह है कि जीएलपी-1 का डायबिटीज़ सम्बंधी असर तो पैंक्रियास पर होता है लेकिन भूख कम करने के असर को मस्तिष्क में देखा जा सकता है। इस असर की क्रियाविधि को समझने के प्रयास जारी हैं। यह भी बताया जा रहा है कि शायद यह औषधि कई अन्य बीमारियों में भी कारगर हो सकती है। जैसे जीर्ण गुर्दा रोग, फैटी लीवर रोग, अल्ज़ाइमर व पार्किंसन रोग तथा व्यसन सम्बंधी दिक्कतें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानवीकृत चूहे महामारी से बचाएंगे

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क्या कोविड-19 जैसी महामारी फिर से आ सकती है? इस बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि महामारी का उभरना संयोगवश होने वाली एक घटना है, और यह कहीं भी और कभी भी घट सकती है। महामारी की संभावनाएं विशेषकर वहां ज्यादा होती है जहां लोग पालतू या जंगली जानवरों के निकट संपर्क में रहते हैं। लिहाज़ा, आगामी महामारी से बचाव के लिए ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी (La Jolla Institute for Immunology) के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) से सबक सीखकर एक नया औज़ार विकसित किया है। उन्होंने मानवीकृत (humanized) चूहों की छह प्रजातियां विकसित की हैं, जो कोविड-19 के मामलों के अध्ययन (COVID-19 research) के लिए मूल्यवान मॉडल के रूप में काम कर सकती हैं।

क्या हैं मानवकृत चूहे?

मानवीकृत चूहा (humanized mouse) एक ऐसा चूहा है जिसमें किसी मनुष्य का डीएनए, कोई ऊतक, ट्यूमर, या माइक्रोबायोम (microbiome) प्रत्यारोपित किया गया हो। ऐसे मानवकृत चूहों में पूर्ण विकसित कार्यकारी मानव प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) विकसित हो जाती है। इनमें लसिका ग्रंथियां, थायमस और मानव ‘टी’ और ‘बी’ प्रतिरक्षी कोशिकाएं सम्मिलित हैं। मानवीकृत चूहों का उपयोग मनुष्यों को होने वाले रोगों जैसे कैंसर (cancer), संक्रामक रोगों (infectious diseases) और एलर्जी (allergies) आदि का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। मानवीकृत चूहे मानव शरीर के अधिक उपयुक्त अनुसंधान मॉडल हो सकते हैं। वे शोधकर्ताओं को मानव विकास और बीमारी को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं, और अंतत: हम सामान्य चिकित्सा के बजाय पिन-पॉइंटेड व्यक्तिगत चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं। 

उदाहरण के लिए एक प्रचलित मानवीकृत चूहा है PDX (Patient Derived Xenograft)। यह ऐसा चूहा है जिसमें मानव ट्यूमर (human tumor) प्रत्यारोपित किया जाता है। इस प्रकार के चूहे कैंसर के फैलाव (cancer spread) और नई कैंसर दवाओं के प्रारंभिक परीक्षण (cancer drug trials) करने के लिए प्रयुक्त होते हैं।

इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक किसी मरीज़ से ट्यूमर निकाल कर उसे टुकड़ों में काट सकते हैं और प्रत्येक टुकड़े को कई भिन्न-भिन्न चूहों में डाल सकते हैं। प्रत्येक टुकड़ा एक-एक नया ट्यूमर बनता है और फिर उसे विभाजित करके अनेक चूहों में डाला जा सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा, दर्जनों मानवीकृत (humanized) चूहे बनाए जाते हैं, जिनका ट्यूमर (tumor) मूल मानव रोगी के ट्यूमर के लगभग समान होता है। वैज्ञानिक ऐसे PDX चूहों (PDX mice) के विभिन्न समूहों का वैकल्पिक दवाओं, दवा के विभिन्न संयोजनों और अनुक्रमों के साथ इलाज कर सकते हैं। इससे उन्हें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि किसी विशेष ट्यूमर को खत्म करने के लिए कौन सी दवा (drug) या उसका संयोजन सबसे अच्छा काम करता है।

महामारी अनुसंधान में महत्ता 

मानवीकृत चूहों के नए मॉडल इस बात पर प्रकाश डालने में मदद कर सकते हैं कि SARS-CoV-2 शरीर में कैसे फैलता है और अलग-अलग लोगों को कोविड-19 (COVID-19) के भिन्न-भिन्न लक्षण क्यों होते हैं। 

ईबायोमेडिसिन पत्रिका (eBioMedicine journal) में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये चूहा मॉडल कोविड-19 अनुसंधान (COVID-19 research) में इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी कोशिकाओं को इस तरह इंजीनियर किया गया था कि उनमें ऐसे दो महत्वपूर्ण अणु (molecules) बनते थे जो मानव कोशिकाओं में SARS-CoV-2 संक्रमण (SARS-CoV-2 infection) में भूमिका निभाते हैं। इन मानवीकृत चूहों को प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) की दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के तहत तैयार किया गया था। 

इन चूहा मॉडल्स की मदद से हम महामारी की दृष्टि से प्रासंगिक SARS-CoV-2 संक्रमण और टीकाकरण (vaccination) के परिदृश्य को मॉडल कर सकते हैं, और हम संक्रमण और टीकाकरण के बाद विभिन्न समयों पर मात्र रक्त नहीं बल्कि विभिन्न प्रासंगिक ऊतकों का अध्ययन कर सकते हैं। 

इन मॉडल्स की मदद से वैज्ञानिक यह जांच पहले ही कर चुके हैं कि SARS-CoV-2 का संक्रमण मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। आगे वैज्ञानिक यह जांच कर सकते हैं कि उपरोक्त में से प्रत्येक अणु किस तरह से अलग-अलग SARS-CoV-2 संस्करणों (SARS-CoV-2 variants) को संक्रमण में मदद करता है। वे यह अध्ययन भी कर सकते हैं कि मेज़बान की आनुवंशिक पृष्ठभूमि (genetic background) किस तरह से विभिन्न संस्करणों के संक्रमण के बाद रोग की प्रगति और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित कर सकती है। 

शोधकर्ताओं ने बारीकी से इस बात का अवलोकन किया है कि ये जंतु-मॉडल वास्तविक SARS-CoV-2 संक्रमण पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वैज्ञानिकों ने SARS-CoV-2 के संपर्क में आए विभिन्न चूहा स्ट्रेन (mouse strains) से ऊतक के नमूने लिए। फिर उन्होंने ऊतक के नमूनों की जांच की और उनकी तुलना कोविड-19 से पीड़ित मनुष्यों के पैथोलॉजिकल निष्कर्षों से की। वैज्ञानिको के विश्लेषण से फेफड़ों (lungs) में SARS-CoV-2 संक्रमण के लक्षण दिखाई दिए, जो मनुष्यों में SARS-CoV-2 संक्रमण के लिए सबसे कमज़ोर ऊतक भी है। अनुसंधान समूह ने माउस की प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को संक्रमण के प्रति लगभग उसी तरह से प्रतिक्रिया करते हुए भी देखा जो मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी दर्शाती थी। 

नए चूहा मॉडल में इन प्रतिक्रियाओं को पहचानकर, शोधकर्ताओं ने SARS-CoV-2-प्रेरित रोग की प्रतिरक्षा विविधता (immune diversity) या प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं की विस्तृत शृंखला को समझने के लिए एक आधार स्थापित किया है। नए चूहा मॉडल्स उभरते SARS-CoV-2 संस्करण (emerging SARS-CoV-2 variants) और महामारी पैदा करने की क्षमता वाले भावी कोरोनावायरस (coronavirus) की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए मूल्यवान साबित हो सकते हैं। 

इन नए चूहा मॉडल्स ने वैज्ञानिकों को यह स्पष्ट तस्वीर खींचने में मदद की है कि SARS-CoV-2 मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। ये माउस मॉडल कोविड-19 अनुसंधान समुदाय (COVID-19 research community) के सभी शोधकर्ताओं के लिए भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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