हमारा शरीर है सूक्ष्मजीवों का बगीचा – कालू राम शर्मा

ब हम स्वच्छता की बात करते हैं तो यही कहा जाता है कि हाथों की उंगलियों, नाखूनों व हाथों की लकीरों में सूक्ष्मजीव होते हैं। स्वच्छता का पैमाना मात्र इन सूक्ष्मजीवों से छुटकारा पाने का होता है। लोगों को लगता है कि सभी सूक्ष्मजीव रोग फैलाते हैं। लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। हमारे आसपास और हमारे शरीर के अंदर व त्वचा पर कईं सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जो हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहा जाए कि हमारी अच्छी सेहत के लिए इनका साथ होना ज़रूरी है, तो गलत न होगा।

हमारे शरीर में बड़ी तादाद में सूक्ष्मजीव बसते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सूक्ष्मजीवों की संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से सवा गुना अधिक है। यह दिलचस्प है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाओं में से आधी से ज़्यादा बैक्टीरिया कोशिकाएं हैं।

यह देखा गया है कि 500 से अधिक प्रजातियों के बैक्टीरिया हमारी आंत में पाए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि विविधता केवल बाहरी वातावरण में ही नहीं, हमारी आहार नाल में भी है। विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीव जो हमारी आंत में पाए जाते हैं उनके समूह को माइक्रोबायोम कहा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि हम जिस भोजन का सेवन करते हैं वह भी हमारी आहार नाल के माइक्रोबायोम को प्रभावित करता है।

विकास के दौरान सूक्ष्मजीवों ने सहभोजी रिश्ता कायम किया। बिना सूक्ष्मजीवों के मानव का अस्तित्व संकट में हो सकता है। इस कहानी में जीवाणुओं ने भी अहम भूमिका अदा की। बायफिडोबैक्टीरिया इनमें से एक है।

जन्म के बाद शिशु जब मां का दूध पीता है तो उसे पचाने वाले बायफिडोबैक्टीरिया आहार नाल में पनपने लगते हैं। ये शर्कराओं को पचाने का लाभदायक काम करते हैं जो शरीर की वृद्धि में सहायक होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, कुछ बैक्टीरिया भोजन में वनस्पति रेशों को पचाने में भूमिका अदा करते हैं जो हमारी आंत के लिए अहम होते हैं। रेशे हमें अधिक वज़नी होने से बचाते हैं। साथ ही मधुमेह, दिल की बीमारी व कैंसर के खतरों से भी बचाते हैं।

आहार नाल का माइक्रोबायोम रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है। इतना ही नहीं, नए अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि आहार नाल का माइक्रोबायोम केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को भी नियंत्रित करता है।

जन्म के पूर्व शिशु की आहार नाल सूक्ष्मजीवों से रहित होती है। सामान्य प्रसव के दौरान शिशु योनि मार्ग से गुज़रते हुए सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आता है और मुंह के रास्ते ये उसकी आंत में प्रवेश कर जाते हैं। हालिया शोध बताते हैं कि सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं की आहार नाल में सूक्ष्मजीव विविधता सामान्य जन्म लेने वाले शिशुओं से कम होती है। जो बच्चे सामान्य प्रसव (योनि मार्ग से प्रसव) से जन्म लेते हैं उन शिशुओं की आंत में लैक्टोबेसिलस, प्रेवोटेला, बायफिडोबैक्टीरियम, बैक्टेरॉइड्स और एटोपोबियम पाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में नहीं पाए जाते। सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में मुख्य रूप से क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल, .कोलीस्ट्रोप्टोकोकाई जैसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होने लगता है उसकी आहार नाल के माइक्रोबायोम की विविधता बढ़ती जाती है। यह देखा गया है कि जिनकी आहार नाल में माइक्रोबायोम की विविधता अधिक होती है, वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।

बायफिडोबैक्टीरियम अचल किस्म के ग्राम-पाज़िटिव बैक्टीरिया हैं, जिनमें अनॉक्सी श्वसन होता है। सन 1900 के दौरान हेनरी टिसियर ने नजवात शिशु के मल में बायफिडोबैक्टीरिया देखा था। इसके ठीक बाद टिसियर के साथी मेचनीकोव का ध्यान टिसियर द्वारा खोजे गए बैक्टीरिया की ओर गया। मेचनीकोव तब किण्वित दूध पर काम कर रहे थे। मेचनीकोव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि दही, छांछ जैसी चीज़ें हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। मेचनीकोव ने किण्वित दूध को प्रोबायोटिक कहा। इसका अर्थ है ऐसे खाद्य पदार्थ जिसमें कुछ सूक्ष्मजीव होते हैं जो हमारे शरीर को भोजन पचाने में मदद करते हैं, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करते हैं और हमें तंदुरुस्त व दीर्घायु बनाते हैं। इसी शोध के लिए मेचनीकोव को 1908 में नोबल पुरस्कार मिला था।

स्तनपान करने वाले शिशुओं में बायफिडोबैक्टीरिया की किण्वक व अम्लीय प्रकृति और मानव पोषण और पेट के स्वास्थ्य के बीच लाभदायक सम्बंध को काफी पहले पहचान लिया गया था और यह प्रचारित भी खूब हो रहा था। प्रोबायाटिक आहार का जितना महत्व आज है उतना ही तब भी हुआ करता था। हालांकि बायफिडोबैक्टीरिया के साथ ही अन्य स्ट्रेप्टोकोकस, एंटरोकोकस, यीस्ट और अन्य सूक्ष्मजीवों ने भी प्रोबायोटिक के इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचा। इसके बाद इस पर व्यापक अध्ययन हुए। न केवल मनुष्यों में बल्कि इसके बेहतर प्रभावों को पालतू पशुओं में भी पहचाना गया और प्रोबायोटिक संस्कृति को अपनाया जाने लगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 2007 में ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट (एचएमपी) की स्थापना मानव कल्याण के लिए माइक्रोबायोम के प्रभाव का अध्ययन करने और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के मकसद से की गई थी ताकि विशिष्ट बीमारियों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सके। परियोजना के पहले चरण में सूक्ष्मजीवों के प्रकार (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) के संदर्भ में डैटाबेस तैयार किया गया जो शरीर के पांच विशिष्ट हिस्सों पर केंद्रित था – त्वचा, मुखगुहा, श्वसन मार्ग, आहार नाल व मूत्र-जनन मार्ग। परियोजना का लक्ष्य यह समझना था कि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्मजीवों की जेनेटिक संरचना में बदलाव करके इन्हें कैसे लाभदायक सूक्ष्मजीवों में बदला जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि इस परियोजना को भारत में भी प्रारंभ किया जा चुका है। भारतीय लोगों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे त्वचा, लार, रक्त व मल में सूक्ष्मजीवों के वास का अध्ययन किया जा रहा है। यह देशव्यापी अध्ययन है जिसमें केंद्र सरकार ने 150 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस अध्ययन में भारत की 32 जनजातियों को भी शामिल किया गया है। 

इस परियोजना में सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण करने के लिए मानव जीनोम परियोजना द्वारा विकसित डीएनए सिक्वेंसिंग का इस्तेमाल किया गया है।

दरअसल, मानव एक जीव ही नहीं है बल्कि वह एक पारिस्थितिकी तंत्र भी है। इसमें इन सारे सूक्ष्मजीवों के जीनोम मौजूद हैं जिसे माइक्रोबायोम कहते हैं। ऐसे अनेक काम हैं जो हमारे जीनोम में अंकित नहीं है। इन कार्यों को हम माइक्रोबायोम की मदद से करते हैं। हर सूक्ष्मजीव अपना-अपना काम करता है और पूरे इकोसिस्टम में योगदान देता है। वैसे यह दिलचस्प है कि जो सूक्ष्मजीव हमारी आहार नाल में बसते हैं वे हमारे जीनोम से कुछ जीनों का इस्तेमाल अपनी कार्यप्रणाली के लिए करते हैं। दरअसल, सूक्ष्मजीवों व मानव के बीच का यह रिश्ता साझेदारी व सहयोग का है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। जैसे हमारे द्वारा जिस कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं हो पाता है उन्हें ये सूक्ष्मजीव पचाते हैं या विटामीन बी का संश्लेषण हमारी आंत के बैक्टीरिया ही करते हैं। और आंत में जिस भोजन का पाचन होता है उसका फायदा ये सूक्ष्मजीव भी उठाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भविष्य में महामारियों की रोकथाम का एक प्रयास

न दिनों हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रतिरक्षा विज्ञानी और महामारी विज्ञान विशेषज्ञ माइकल मीना रक्त के लाखों नमूने जमा कर रहे हैं। उनका उद्देश्य ग्लोबल इम्यूनोलॉजी ऑब्ज़र्वेटरी (जीआईओ) के माध्यम से आबादी में फैलने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीवों के संकेतों की निगरानी करना है। यह एक ऐसी तकनीक पर आधारित है जो रक्त की माइक्रोलीटर मात्रा में भी विभिन्न एंटीबॉडी को माप सकेगी। यदि जीआईओ तकनीकी बाधाओं को दूर करके निरंतर वित्तीय सहायता प्राप्त कर पाता है तो हमारे पास महामारियों की निगरानी करने और निपटने का एक प्रभावी साधन होगा।

फिलहाल, अमेरिका में रोगों से जुड़ी असामान्य घटनाओं की रिपोर्ट राज्य के स्वास्थ्य विभागों के माध्यम से सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) को भेजी जाती है। लेकिन कोविड-19 के प्रसार को देखते हुए मीना एक त्वरित और व्यापक निगरानी प्रक्रिया के पक्ष में हैं। मीना नियमित रूप से एंटीबॉडी के माध्यम से महामारियों का पता लगाना चाहते हैं। इसके लिए वे रक्त बैंकों से लेकर प्लाज़्मा केंद्रों जैसे हर संभव स्रोत से निरंतर रक्त के नमूने जमा कर रहे हैं। आनुवंशिक रोगों की पहचान के लिए अधिकांश राज्यों में लगभग सभी नवजात शिशुओं के रक्त के नमूने जमा किए जाते हैं। इनको भी इस कार्य में शामिल कर लिया जाएगा। इन नमूनों की पहचान केवल भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर की जाएगी। फिलहाल कुछ कंपनियों द्वारा पहले से ही चिप-आधारित तकनीक से हज़ारों एंटीबॉडीज़ की पहचान करने के उपकरण बनाए जा रहे हैं। इन कंपनियों की मदद से यह काम और व्यापक स्तर पर किया जा सकता है।

फिलहाल विचार यह है कि प्रतिदिन 10,000 और आगे चलकर एक लाख नमूनों का विश्लेषण किया जाएगा। वर्तमान निगरानी प्रणाली की तुलना में इस ऑब्ज़र्वेटरी की मदद से इससे भी कम संख्या में महामारी के प्रकोप का जल्द पता लग सकता है। जीआईओ की मदद से मौसमी इन्फ्लुएंज़ा की निगरानी को भी तेज़ किया जा सकता है ताकि अस्पतालों को तैयारी करने का पर्याप्त समय मिल सके और टीके वितरित किए जा सकें।

जीआईओ कोविड-19 जैसे नए संक्रामक रोगों के प्रसार को ट्रैक कर सकता है। इसके लिए एंटीबॉडी का पता लगाने वाली चिप्स को नए रोगजनक के लिए अपडेट करना ज़रूरी नहीं होगा। इसकी सहायता से शोधकर्ता उन एंटीबॉडी की बढ़ोतरी का पता लगा सकते हैं जो ज्ञात रोगजनकों को अविशिष्ट रूप से लक्षित करती हैं। संक्रमण शुरू होने के 1 से 2 सप्ताह बाद दिखाई देने वाली एंटीबॉडी न केवल वर्तमान संक्रमित लोगों की जानकारी देंगी बल्कि उन लोगों के बारे में भी बताएंगी जो इस रोग से ठीक हो चुके हैं। क्योंकि हर एंटीबॉडी की एक अलग पहचान होती है, जीआईओ में बैक्टीरिया या वायरस संक्रमित लोगों के विशेष स्ट्रेंस की पहचान भी हो सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

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एफडीए ने ट्रम्प की पसंदीदा दवा को नामंज़ूर किया

मेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) ने कोविड-19 के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन सल्फेट और क्लोरोक्विन फॉस्फेट के आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी को निरस्त कर दिया है। गौरतलब है कि इन दोनों ही दवाओं को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प और अन्य लोगों ने कोविड-19 के विरुद्ध निर्णायक (गेमचेंजर) माना था। हाल ही में कोविड-19 संक्रमित लोगों में किए गए रैंडम क्लीनिकल परीक्षण में दोनों दवाएं बीमारी के उपचार में नाकाम रही हैं। इस विषय में एफडीए के कुछ पूर्व अधिकारियों का मानना है कि इस दवा को आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी वैज्ञानिक प्रमाण पर नहीं बल्कि राजनीतिक दबाव पर आधारित थी।

एफडीए की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक लुसियाना बोरियो एफडीए के इस फैसले की सराहना करती हैं और इसे वैज्ञानिक एवं सार्वजनिक हित पर आधारित निर्णय मानती हैं। इस फैसले की महत्वपूर्ण बात यह रही कि एफडीए की यह कार्रवाई बिना किसी राजनैतिक दबाव के पूरी तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित रही।

हालिया वैज्ञानिक समीक्षा के हवाले से एफडीए ने कोविड-19 उपचार के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और क्लोरोक्विन के आपातकालीन उपयोग को अप्रभावी बताया है। इसके अलावा, यह भी स्पष्ट किया है कि ह्रदय की गंभीर समस्याओं और अन्य दुष्प्रभावों के चलते इन दोनों दवाइयों का उपयोग काफी जोखिम भरा हो सकता है।

गौरतलब है कि आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी के तहत इस दवा का औपचारिक अनुमोदन नहीं किया गया था बल्कि इसे मुख्य रूप से केवल कोविड-19 रोगियों के लिए अस्पतालों में वितरण के लिए अनुमति दी गई थी। हालांकि, मंज़ूरी निरस्त करने के बाद भी इन दोनों दवाओं पर क्लीनिकलपरीक्षण जारी रखा जा सकता है। चिकित्सक चाहें तो अभी भी इस दवा का ‘ऑफ लेबल’ उपयोग कर सकते हैं। यानी इनका उपयोग एफडीए द्वारा निर्धारित लक्षणों के अलावा भी किया जा सकता है। फिर भी एफडीए द्वारा बताए गए दुष्प्रभावों के बाद शायद ही चिकित्सक इसका उपयोग करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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भविष्य का सूक्ष्मजीव-द्वैषी, अस्वस्थ समाज – डॉ. सुशील जोशी

कोरोनाकाल में लोगों में सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा की चिंता बढ़ी है, जो शायद उचित भी है। मास्क लगाना, एक-दूसरे से दूर-दूर रहना, बार-बार साबुन या सैनिटाइज़र से हाथ धोना वगैरह लोगों की आदतों में शुमार होता जा रहा है। प्रचार-प्रसार भी खूब हो रहा है। सारे साबुनों के विज्ञापनों में अचानक वायरस और खास तौर से कोरोनावायरस को मारने की क्षमता का बखान जुड़ गया है। एक खबर यह भी है कि अब ऐसे कपड़े भी बनेंगे जो कीटाणुओं का मुकाबला करेंगे। कपड़ों की धुलाई में विसंक्रमण की बात जुड़ गई है। यह भी कहा जा रहा है कि पंखों के कुछ ब्रांड सूक्ष्मजीवों को टिकने नहीं देते। कुछ रियल एस्टेट ठेकेदारों ने कोरोना-मुक्त मकान का भी वादा कर दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि जिन सतहों को बार-बार स्पर्श किया जाता है, जैसे मेज़, दरवाज़ों के हैंडल, लिफ्ट के बटन वगैरह, उन्हें दिन में पता नहीं कितनी बार विसंक्रमित (डिस-इंफेक्ट) करना चाहिए।

उपरोक्त में से कई तो शायद वर्तमान आपात काल में ज़रूरी कदम कहे जा सकते हैं। लेकिन क्या होगा यदि यह सनक समाज पर हमेशा के लिए हावी हो जाए? इस सवाल का जवाब कई मायनों में महत्वपूर्ण है और जवाब के लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना होगा।

दरअसल, बीमारियों का आधुनिक कीटाणु सिद्धांत (जर्म थियरी) बहुत पुराना नहीं है। सबसे पहले यह धारणा उन्नीसवीं सदी में प्रस्तुत की गई थी कि कुछ बीमारियां कीटाणुओं के संक्रमण के कारण पैदा होती हैं। कीटाणुओं में बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस, प्रोटोज़ोआ वगैरह शामिल हैं। वैसे यह रोचक बात है कि कीटाणुओं को रोग का वाहक या कारक मानने को लेकर समझ भारत तथा मध्य पूर्व में दसवीं सदी से ही प्रचलित थी। लेकिन वास्तविक रोगजनक सूक्ष्मजीवों को पहचानने व उनके उपचार का काम बहुत बाद में शुरू हुआ। इसमें पाश्चर, फ्रांसेस्को रेडी, जॉन स्नो, रॉबर्ट कोच वगैरह का योगदान महत्वपूर्ण रहा था।

कीटाणु सिद्धांत के मुताबिक कुछ रोग ऐसे हैं जो शरीर में रोगजनक कीटाणुओं के प्रवेश के कारण पैदा होते हैं। इनके इलाज के लिए सम्बंधित कीटाणु पर नियंत्रण करने की ज़रूरत होती है। टीका भी इसी सिद्धांत की देन है। इस सिद्धांत ने स्वच्छता और रोग का परस्पर सम्बंध भी दर्शाया। चूंकि ये कीटाणु हवा और पानी के माध्यम से व्यक्तियों के बीच फैल सकते हैं, इसलिए बीमार व्यक्ति को अलग-थलग रखना, हवा-पानी की शुद्धता वगैरह बातें सामने आती हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी पहचाने गए जो दो व्यक्तियों के बीच स्पर्श के ज़रिए सीधे भी फैल सकते हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी हैं जिनके प्रसार के लिए किसी तीसरे जंतु की ज़रूरत होती है। बरसों के अनुसंधान के आधार पर आज हम कई कीटाणुओं, उनके प्रसार के तरीकों, मध्यस्थ जीवों वगैरह की पहचान से लैस हैं। इस समझ ने हमें इन रोगों के उपचार के अलावा रोकथाम में भी सक्षम बनाया है।

इन रोगों में शामिल हैं चेचक, टीबी, टायफाइड, मलेरिया, रेबीज़, कुष्ठ, एड्स, फ्लू, हैज़ा, प्लेग, और अब कोविड-19। इनमें से अधिकांश रोगों के लिए हमारे पास दवाइयां उपलब्ध हैं, और कई की रोकथाम के लिए टीके भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा, खास तौर से जल-वाहित तथा जंतु-वाहित रोगों के लिए रोकथाम के अन्य उपाय (जैसे मच्छरदानी, मच्छरनाशी रसायनों का छिड़काव, पानी का उपचार वगैरह) भी उपलब्ध हैं। इस प्रगति का एक परिणाम यह हुआ कि इन रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत कम हो गई।

लेकिन इस तरीके (खास तौर से कीटाणुओं को मारने वाली दवाइयों यानी एंटीबायोटिक के उपयोग) को लेकर चिकित्सा जगत व साधारण लोगों के बीच भी एक जुनून पैदा हुआ। इनका उपयोग इस कदर बढ़ा कि ये लगभग ‘ओवर दी काउंटर’ दवाइयां हो गर्इं। हर छोटे-मोटे बुखार के लिए, सर्दी-ज़ुकाम,दस्त वगैरह के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां देना आम बात हो गई। डॉक्टर तो लिखते ही थे, आम लोगों ने मेडिकल स्टोर्स से खरीदकर इनका उपयोग शुरू कर दिया। यह भी हुआ कि खुराक पूरी होने से पहले ठीक लगने लगा तो दवा बंद कर दी।

इस तरह के बेतहाशा, अंधाधुंध उपयोग का एक परिणाम यह हुआ कि सम्बंधित कीटाणु उस दवा के खिलाफ प्रतिरोधी हो गया। आज हमारे पास बहुत कम एंटीबायोटिक बचे हैं जो असरकारक हैं। और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित कई संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि यही हाल रहा तो शीघ्र ही हम उस ज़माने में पहुंच जाएंगे जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।

तो आज की स्थिति इस किस्से का क्या लेना-देना है? बहुत कुछ। यह तो हमने देखा ही कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अतिरेक ने कैसे हमें 200 साल पीछे घसीट दिया है। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ने हमें कई नई समस्याओं में उलझा दिया है। सूक्ष्मजीव विज्ञान ने सूक्ष्मजीवों के बारे में और उनसे हमारे सम्बंधों के बारे में एकदम चौंकाने वाली नई समझ प्रदान की है। पिछले कई वर्षों के अनुसंधान के दम पर हम यह समझ पाए हैं कि सूक्ष्मजीव और रोग पर्यायवाची नहीं हैं। लाखों-करोड़ों सूक्ष्मजीव प्रजातियों में से बहुत ही थोड़े से हैं जो रोगजनक हैं। शेष या तो उदासीन हैं या लाभदायक हैं। जी हां, बैक्टीरिया, वायरस वगैरह लाभदायक सम्बंध में हमारे साथ रहते हैं।

मनुष्य के शरीर के ऊपर (त्वचा पर) तथा पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र तथा अन्य स्थानों पर रहने वाले सूक्ष्मजीव-संसार के अध्ययन ने दर्शाया है कि ये हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। ये पाचन में मददगार होते हैं, शरीर की जैव-रासायानिक क्रियाओं के सुचारु संचालन में सहायता करते हैं और (चौंकिएगा मत) हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करते हैं। और हाल में यह भी देखा गया है कि हमारी नाक का सूक्ष्मजीव-संसार हमें कई तरह के संक्रमणों व एलर्जी से बचाता है। यदि इस सूक्ष्मजीव-संसार में थोड़ी भी गड़बड़ी हो जाए तो समस्याएं शुरू हो जाती हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन आइसन ने बताया है कि हैंड सैनिटाइज़र का उपयोग हमारी त्वचा के सूक्ष्मजीव-संसार को अस्त-व्यस्त कर सकता है, जिसके चलते रोगजनक सूक्ष्मजीवों को वहां पनपने का मौका मिल सकता है। आइसन के मुताबिक हैंड सैनिटाइज़र्स एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ाने में भी योगदान दे सकते हैं।

वायरसों की बात करते हैं, क्योंकि वे ही आजकल सेलेब्रिटी हैं। यह समझना ज़रूरी है कि कई वायरस लाभदायक असर भी दिखाते हैं। इनमें वे वायरस शामिल हैं जिन्हें बैक्टीरियोफेज यानी बैक्टीरिया-भक्षी कहते हैं। चिकित्सा में इनके उपयोग की वकालत की जा रही है और इसमें कुछ सफलता भी मिली है। कुछ वायरस ऐसे भी हैं जो गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। जैसे हर्पीज़ का वायरस। लेकिन ऐसा कम लोगों में होता है कि यह वायरस गंभीर रोग का कारण बन जाए। जब यह सुप्तावस्था में होता है तो यह हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को लिस्टेरिया से होने वाले फूड-पॉइज़निंग से और ब्यूबोनिक प्लेग से लड़ने को तैयार करता है।

2016 में पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया था कि जो बच्चे 1 वर्ष से कम उम्र में झूलाघर में रहते हैं, उनमें आगे के बचपन में आमाशय फ्लू का प्रकोप कम होता है। इसी प्रकार से, कुछ अध्ययनों ने दर्शाया है कि बचपन में रोगजनक सूक्ष्मजीवों (खासकर वायरसों) से संपर्क बच्चों को कई तकलीफों से बचाता है।

हैंड सैनिटाइज़र्स ही नहीं, कई घरों में इस्तेमाल की जाने वाली डिशवॉशिंग मशीन को लेकर किए गए अध्ययनों में पता चला है कि इनका सम्बंध बच्चों में दमा तथा एलर्जी के बढ़े हुए खतरे से है। संभवत: ऐसी तकनीकों के कारण बच्चों का लाभदायक बैक्टीरिया से संपर्क कम हो जाता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि घरेलू डिसइंफेक्टेंट क्लीनर्स उपयोग करने का असर बच्चों के वज़न पर पड़ता है क्योंकि ऐसे क्लीनिंग एजेंट्स का उपयोग उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को प्रभावित करता है।

तो यदि हमने अपने परिवेश से वायरसों व अन्य सूक्ष्मजीवों का पूरा सफाया करने की ठान ली, तो हम ऐसे निशुल्क लाभों से हाथ धो बैठेंगे।

ट्रिक्लोसैन नामक एक रसायन का उपयोग साबुनों में तो होता ही है, इसे विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे कपड़ों, पकाने के बर्तनों, खिलौनों वगैरह में जोड़ दिया जाता है। यूएस में साबुन में इसके उपयोग पर प्रतिबंध है। पाया गया है कि यह रसायन हारमोन के संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और दमा व एलर्जी का कारण भी बनता है। आजकल साबुन में चांदी के नैनो कण जोड़कर उन्हें ज़्यादा शक्तिशाली बनाने के विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं। यह भी सूक्ष्मजीव संसार पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

तो ये थे कीटाणु-दैष के कुछ प्रत्यक्ष परिणाम। लेकिन इसके कुछ परोक्ष परिणाम भी हैं, जिन पर गौर करना ज़रूरी है। इसकी सबसे पहली बानगी हमें यूए के एक प्रमुख राजनेता की टिप्पणी में सुनाई पड़ी थी। एक रिपब्लिकन सांसद स्टीव हफमैन ने ओहायो सीनेट की स्वास्थ्य समिति की बैठक में कहा, “क्या अश्वेत लोग इसलिए कोरोनावायरस से ज़्यादा संक्रमित हो रहे हैं क्योंकि वे अपने हाथ ठीक से धोते नहीं हैं?” उनकी यह टिप्पणी स्वास्थ्य को व्यक्तिगत आचरण का मामला बना देती है और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ओझल कर देती है।

हमारे शहर की हवा प्रदूषित होगी, तो बात मास्क की होगी, प्रदूषण कम करने की नहीं। गंदा, संदूषित पानी सप्लाय होगा तो हम ‘सबसे शुद्ध पानी’ वाले आर.ओ. और बोतलबंद पानी की बात करेंगे, सबको साफ पेयजल की उपलब्धता की नहीं। व्यक्ति बीमार होगा तो वह निजी स्वास्थ्य सेवा की लूट-खसोट के लिए आसान शिकार हो जाएगा, लेकिन हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ व सुगम बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। बीमार व्यक्ति की परिस्थितियों का ख्याल किए बगैर यही सवाल पूछा जाएगा कि उसने हाथ धोए या नहीं, मास्क लगाया या नहीं। यानी कीटाणुओं के प्रसार को रोकने की ज़िम्मेदारी निजी हो जाएगी।

और बात शायद यहीं न रुके। यूएस में अश्वेत लोगों को उनकी अपनी तकलीफों के लिए जवाबदेह ठहराने की कोशिश का अगला कदम होगा कि उन्हें शेष लोगों के लिए एक खतरा घोषित कर दिया जाएगा। यूएस की बात जाने दें, हमारे अपने देश में भी कई समूह या समुदाय ऐसे होंगे जिन्हें पूरे समाज के लिए खतरा घोषित कर दिया जाएगा। एक नए किस्म का विभाजन व अलगाव पैदा होगा। और इसकी शुरुआत सोशल मीडिया (जिसे एंटी-सोशल मीडिया कहना बेहतर है) पर हो भी चुकी है।

इतिहास में देखें तो पता चलता है कि कीटाणु या संदूषण का डर हमेशा से ‘गैर’ के डर से जुड़ा रहा है। इसी का एक विस्तार सामाजिक स्तर पर भी होता है – इसे व्यवहरागत प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं। इसका मतलब यह होता है कि ‘नफरत’ की यह प्रतिक्रिया संक्रमण के विचार मात्र से सक्रिय हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हम उन सब लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह पालने लगते हैं जो हम से भिन्न या ‘असामान्य’ हैं। कुछ समुदायों या आप्रवासियों को बदनाम करना इसी का हिस्सा होता है। ‘गैर से द्वैष’ वैसे तो कई सामाजिक परिस्थितियों में देखा जा सकता है, लेकिन कीटाणु-द्वैष इसके लिए एक नया मंच प्रदान कर रहा है।

वर्तमान महामारी के दौर में शायद कुछ सख्त उपाय ज़रूरी हों, लेकिन यदि हमें स्वास्थ्य की सामान्य समस्या या अगली महामारी से निपटना है तो अपनी स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ व समतामूलक बनाना होगा ताकि वह सबकी पहुंच में हो। इसके अलावा प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए काढ़ा-वाढ़ा पीने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन पर्याप्त पौष्टिक भोजन के महत्व को अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा।(स्रोत फीचर्स)

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जॉर्ज फ्लॉयड की शव परीक्षा की राजनीति

25 मई मिनीपोलिस पुलिस ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत अमरीकी को धर दबोचा और एक पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन ने जॉर्ज की गरदन पर लगभग 9 मिनट तक अपना घुटना बलपूर्वक रखे रखा, जिससे जॉर्ज की मौत हो गई। पुलिस द्वारा की गई इस हत्या को लोगों ने खुद अपनी आंखों से देखा और इसका वीडियो वायरल हुआ।

लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड की प्रारंभिक शव परीक्षा रिपोर्ट के बारे में पूरी दुनिया के लोगों को इस तरह जानकारी दी गई कि उन्हें लगे कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और उनमें खुद पर संशय पैदा हो जाए।

इस तरह किसी व्यक्ति की बातों, अनुभवों, और फैसलों को झुठलाकर, अपने आप पर संशय पैदा करके आत्मविश्वास या समझ में कमी लाने या उसका मनौविज्ञान बदल देने को गैसलाइटिंग कहते हैं। गैसलाइटिंग एक तरह का भावनात्मक खिलवाड़ है। गैसलाइटिंग शब्द 1938 के नाटक, और उसके बाद आई एक फिल्म से आया है, जिसमें एक वहशी पति अपनी पत्नी को पागलखाने भेजने के लिए एक साज़िश रचता है। वह अपने घर में गैसलाइट की रोशनी कम कर देता है, और जब उसकी पत्नी रोशनी कम होने की बात कहती है तो वह जानबूझकर उसकी बात से इन्कार कर देता है, फिर इसे उसके पागलपन के सबूत के तौर पर उपयोग करता है।

अमेरिका में व्याप्त अश्वेत-विरोधी हिंसा को सुनियोजित गैसलाइटिंग की तरह देखा जा रहा है। जब आवासीय योजनाओं का ऋण ना चुकाने पर किसी अश्वेत के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है तो उनकी साख को ढाल बनाकर सफाई पेश की जाती है; जब अश्वेत युवाओं को अकारण रोककर खानातलाशी की जाती है तो कहा जाता है कि पूरी प्रक्रिया रैंडम है और कहा जाता है कि यह उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है।

और, जब पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की हत्या की जाती है तो उनके चरित्र, और यहां तक कि उनकी शारीरिक बनावट को ज़िम्मेदार ठहराकर, हत्यारों को रिहा कर दिया जाता है। राज्य-स्तरीय मृत्यु प्रमाण पत्र के राष्ट्रीय डैटाबेस के एक विश्लेषण में पाया गया था कि कानून के अनुपालन में की गई हत्याओं में से आधी से भी कम हत्याएं दर्ज की जाती हैं। इसके अलावा, पुलिस द्वारा की गई बर्बरता से हुई मौत के वास्तविक कारण की बजाय कहा जाता है कि मृत्यु ‘दुर्घटनावश’ या ‘अज्ञात’ कारण से हुई। जबकि मौत का वास्तविक कारण नस्लवाद होता है।

जॉर्ज के मामले में भी 29 मई को लोगों से कहा गया कि जॉर्ज की शव परीक्षा में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है जो यह बताती हो कि मृत्यु दम घुटने की वजह से हुई, और कहा गया कि मृत्यु नशे और पहले से मौजूद दिल की बीमारी से हुई है। यहां स्पष्ट कर दें कि ये कारण ऑटोप्सी करने वाले चिकित्सक ने नहीं दिए थे बल्कि चिकित्सकीय जानकारी की राजनैतिक व्याख्या करने वाले आरोप पत्र के हैं।

मानक चिकित्सीय जांच के तहत फ्लॉयड के स्वास्थ्य और शरीर में विष की उपस्थिति की जांच भी की गई थी। ये सामान्य परीक्षण हैं जो मृत्यु के कारण के बारे में नहीं बताते लेकिन फिर भी सुर्खियों में बने हुए हैं। आरोप पत्र में फ्लॉयड की मृत्यु के लिए उसे रही ह्रदय-धमनी रोग की दिक्कत और उच्च रक्तचाप की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, जो वास्तव में लंबी अवधि में स्ट्रोक और दिल का दौरा पड़ने के जोखिम को बढ़ाती है ना कि कुछ मिनटों में। अन्य चिकित्सक बताते हैं कि एस्फिक्सिया – यानी घुटन – में हमेशा शरीर परसंकेत दिखाई पड़ें, ऐसा ज़रूरी नहीं है।

इस तरह लोगों के सामने मृत्यु के वास्तविक कारणों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और उन्हें इसे आंखों देखी हत्या के साथ सामंजस्य बैठाने छोड़ दिया गया। रिपोर्ट में जॉर्ज की पुरानी बीमारियों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया, नशीले पदार्थों के बारे में अनावश्यक ज़िक्र किया गया लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा गया कि यदि उस दिन पुलिस वाला जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबाकर न रखता तो जॉर्ज जीवित होता।

अलबत्ता, राजनैतिक दबाव के चलते, 1 जून को लोगों के सामने जॉर्ज की शव परीक्षा की दो रिपोर्ट आर्इं। एक उस शव परीक्षा की रिपोर्ट थी जो जॉर्ज के परिवार ने एक निजी चिकित्सक से करवाई थी। दूसरी रिपोर्ट सरकारी थी। दोनों में ही इसे हत्या बताया गया था।

स्पष्ट है कि आरोप पत्र में मृत्यु के कारणों के बारे में भ्रम पैदा किया गया और लोगों को अपनी आंखों देखी वास्तविकता पर संदेह करने को उकसाया गया। उसमें अश्वेत लोगों के प्रति व्याप्त धारणाओं को पुष्ट करने की कोशिश की गई।

चिकित्सा विज्ञान लंबे समय से पीड़ितों की बजाय सत्ताधारी उत्पीड़कों के पक्ष में उपयोग किया जाता रहा है। अश्वेत मांओं की प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है, और कोविड-19 की वजह से मरने वालों में अश्वेत अमरीकियों की अधिक संख्या के लिए उनके हार्मोन रिसेप्टर्स या थक्का जमाने वाले कारक में अंतर को दोष दिया जा रहा है।

चिकित्सकों को ध्यान रखना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान कभी वस्तुनिष्ठ नहीं रहा है। इस पर हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी प्रभाव रहा है और रहेगा। आपराधिक न्यायिक मामलों को चिकित्सकीय जांच नियंत्रित करती है; ज़हर के बारे में पड़ताल रोगी की आजीविका पर प्रभाव डालती है; दूसरी ओर, ठीक तरह से किए जाएं तो वैज्ञानिक परीक्षण लिंगभेदी और नस्लवादी रूढ़ियों को खत्म कर सकते हैं।

चिकित्सा का क्षेत्र गैसलाइटिंग के लिए एक योग्य जगह है। सफेद कोट और स्टेथोस्कोप की कथित ताकत और वैधता की आड़ में निदान और निष्कर्ष में वास्तविकता को छुपाने की ताकत है। यह बात जॉर्ज के मामले में स्पष्ट नज़र आई है।

ज़रूरत है कि चिकित्सक इस पर आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य क्षेत्र की व्यापक चुनौतियां – भारत डोगरा

हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और उसमें कोई कमी न आए। उनके इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की बढ़ती समस्याओं के समाचार प्राप्त हो रहे हैं।

इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था तो खसरा, मलेरिया, एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों की उपेक्षा हुई तो यह बहुत महंगा पड़ सकता है।

यदि हम आंकड़े देखें तो, जब से भारत में कोविड-19 की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में कोविड-19 मौतें मात्र 0.2 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी है।

आज विश्व स्तर पर जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।

आजीविका अस्त-व्यस्त होने की समस्याओं के बीच कई मरीज़ों के पास सामान्य समय की तुलना में नकदी की अत्यधिक कमी है। सामान्य समय में दोस्त व रिश्तेदार प्राय: सहायता के लिए आपातकाल में एकत्र हो जाते थे पर अब लॉकडाउन के समय ऐसा संभव नहीं है।

आपातकालीन स्थिति में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत कठिनाई होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब अगर जैसे-तैसे गैर-कोविड मरीज़ अस्पताल पहुंच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि कोविड-19 की प्राथमिकताओं के बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएं आधी-अधूरी हैं या चालू ही नहीं हैं। यहां तक कि कुछ गंभीर मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोड़ने को कहा जाता है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है। निर्धनता, बेरोज़गारी, भूख एवं कुपोषण ने बीमार पड़ने की संभावना को वैसे ही और बढ़ा दिया है।

नौकरी खोने, अनिश्चित भविष्य, बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं और इसके कारण अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।

कुछ स्थानों पर आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला टूट जाती है। यहां तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर पर, विशेषकर दूर-दराज गांवों में मरीज़ों को दवाएं और चिकित्सा साज-सामान नहीं मिलते हैं।

कुछ अस्पतालों में बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के कारण हो जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर तक पैदल जाने की मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने की संभावना अधिक है।

इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए अनुकूल संसाधन और सुविधाएं बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक कठिनाइयां आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी और गणित – दीपक थानवी

कोरोना वायरस महामारी से पूरा विश्व प्रभावित हो चुका है। इस अभूतपूर्व आपदा से निपटने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान दे रहा है। स्वास्थ्यकर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों से लेकर घर में बंद सामान्य व्यक्ति तक। गैर-सरकारी संस्थाएं और समाजसेवी भी अपने स्तर पर नागरिकों की सेवा कर रहे हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी संस्थाएं इस महामारी को समझने की कोशिश कर रही हैं। वे परीक्षण करने की मानक विधि को लगातार विकसित कर रही हैं और मरीज़ों के उपचार के लिए दवा-टीके की खोज भी कर रही हैं।

अभी एक महत्त्वपूर्ण काम महामारी से प्रभावित होने वाले भविष्य का विश्लेषण करना है। और यह संभव हो पाता है गणित की मदद से। इतिहास गवाह है कि आपदाओं से निपटने में गणित ने एक साधन की भूमिका निभाई है। गणितीय सिद्धान्तों को कंप्यूटर मॉडल में उपयोग किया जाता है। फिर कंप्यूटर मॉडल इन सिद्धान्तों की सहायता से डैटा पर कार्य करता है और परिणाम देता है। इन मॉडल्स को गणितीय मॉडल्स भी कहा जाता है।

वैज्ञानिक अलग-अलग समस्याओं के लिए अलग-अलग गणितीय मॉडल्स का उपयोग करते हैं। इन गणितीय मॉडल्स का उपयोग महामारी से सम्बंधित जानकारी पता करने के लिए होता है। जैसे – किसी देश, क्षेत्र या शहर में महामारी से संक्रमित होने वाले मरीज़ों की संख्या कितनी हो सकती है? बदतर स्थिति में कितने आईसीयू बिस्तर और वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ सकती है? और कब हमारा स्वास्थ्य-तंत्र नाकाम होने लगेगा?

कोरोना वायरस महामारी से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बहुत ही तेज़ी से बढ़ रही है। सभी देश संक्रमण की वृद्धि दर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस महामारी से लड़ने के लिए सभी देश अलग-अलग गणितीय मॉडल्स की सहायता ले रहे हैं। एक ही महामारी से लड़ने के लिए इतने सारे मॉडल्स होने के कई कारण हैं। मॉडल डैटा के आधार पर काम करता है। जनसंख्या, संक्रमित मरीज़ों की संख्या, ठीक हो चुके मरीज़ों की संख्या, संक्रमण दर आदि सभी कारक हर देश के लिए समान नहीं हो सकते हैं। अत: हर देश का अपना डैटा व मॉडल होता है।

इन सारे मॉडल्स का आधार एसआईआर (SIR) मॉडल है। इस मॉडल को करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने स्थापित किया था। 1920 के दशक में, दोनों ने देखा कि किसी संक्रमण के संपर्क में जो आबादी है, उसे तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है – संवेदनशील, संक्रमित, और संक्रमण-मुक्त। संवेदनशील लोग वे हैं जिन्हें अभी तक बीमारी नहीं हुई है। संक्रमित लोग वे हैं जो वर्तमान में संक्रमित हैं। संक्रमण-मुक्त लोग वे हैं जो पहले बीमार थे और अब स्वस्थ हो गए हैं।

करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने इनमें से प्रत्येक समूह में गणितीय रूप से संख्याओं को प्रदर्शित करने का एक तरीका खोजा। उन्होंने अपने इस विचार को अवकल समीकरणों के रूप में लिखा। इससे यह पता लगाया जा सकता था कि जनसंख्या का कौन-सा अंश, भविष्य में किसी एक समूह से दूसरे समूह में प्रवेश करेगा।

निश्चित रूप से एसआईआर मॉडल महामारी के फैलने की जानकारी देता है। मॉडल को पहले से ही कुछ मान्यताएं बता दी जाती हैं। फिर उसके अनुसार वह डैटा को समूहों में विभाजित करके भविष्य में होने वाले संक्रमण के अनुमान को चित्रों और आंकड़ों में दर्शाता है। एक बुनियादी मान्यता यह भी होती है कि संक्रमित समूह वाला व्यक्ति संवेदनशील समूह वाले व्यक्ति के साथ बातचीत करके, उसे संक्रमित करके संक्रमित समूह में भी परिवर्तित कर सकता है। जब संक्रमित समूह बढ़ता है तब संवेदनशील समूह घटता है। संक्रमित व्यक्ति ठीक भी हो सकता है। इस स्थिति में मॉडल संक्रमित व्यक्ति के डैटा को संक्रमित समूह से हटाकर संक्रमण-मुक्त समूह में डाल देता है।

संक्रमण का संवेदनशील समूह से संक्रमित समूह की ओर जाने के कई कारण हो सकते हैं। संक्रमण का फैलाव संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से हो सकता है। संक्रमण पानी, हवा या किसी वस्तु की सतह के माध्यम से भी हो सकता है। इसके अलावा, रोग की गतिशीलता का अध्ययन विभिन्न पैमानों पर किया जा सकता है: एकल व्यक्ति, लोगों के छोटे समूह और संपूर्ण आबादी के रूप में। उपलब्ध आंकड़ों की जटिलता के आधार पर विभिन्न मॉडल्स को चुना जाता है।

कभी-कभी बुनियादी मॉडल के लिए अतिरिक्त समूह भी बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, कोई संक्रमित व्यक्ति जो कोई लक्षण प्रदर्शित नहीं कर रहा है वह एक नया समूह बन सकता है। कभी-कभी उम्र जैसे अतिरिक्त कारकों को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

रोग से सम्बंधित जानकारी और इसके फैलाव की विधि के आधार पर बने डैटा पर एसआईआर मॉडल को निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन जब कोई बीमारी नई होती है – मौजूदा महामारी के मामले में ‘नए कोरोनावायरस’ के ‘नया’ होने के कारण विश्वसनीय डैटा मिलना मुश्किल हो जाता है। और यह पारंपरिक एसआईआर मॉडल सामाजिक दूरी और घर में बंद रहने के आदेशों जैसे व्यवहार और नीतिगत बदलावों को ध्यान में नहीं रखता है।

इसलिए मौजूदा स्थितियों का आकलन करते हुए गणितज्ञ और वैज्ञानिक मिलकर नए गणितीय मॉडल्स का उपयोग कर रहे हैं और सुविधानुसार मॉडल्स विकसित भी कर रहे हैं। इन मॉडल्स की सहायता से सरकार को नीतियां बनाने में मदद मिल रही है। गणित और कंप्यूटर की यह शक्तिशाली जोड़ी हमारे स्वास्थ्य तंत्र को इस अभूतपूर्व महामारी से लड़ने में बहुत मदद कर रही है। और सरकारों को संकेत भी कर रही है कि कोरी राजनीति करने की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य के विकास पर ज़ोर देना आवश्यक है। आज की तारीख में कई देशों में स्थिति नियंत्रण में आ गई है। उम्मीद है कि जल्द ही पूरे विश्व के गलियारों और बगीचों में, स्कूलों और मैदानों में, सड़कों और सांस्कृतिक स्थलों पर फिर से चहल-पहल शुरू हो जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

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छरहरे बदन का जीन

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिसका उत्परिवर्तित रूप तो कैंसर का कारण बनता है लेकिन उसका सामान्य रूप व्यक्ति को अपने शरीर की ज़्यादा चर्बी को जलाकर छरहरा बने रहने में मदद करता है।

यह देखा गया है कि कुछ लोग खूब खाएं, जो मर्ज़ी खाएं, तो भी मोटे नहीं होते। आम तौर पर जब मोटापे की बात होती है तो ध्यान इस बात पर होता है कि व्यक्ति क्या व कितना खाता है। लेकिन सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित नया शोध बताया है कि मोटापे और छरहरेपन का नियंत्रण जेनेटिक स्तर पर भी होता है।

ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी जोसेफ पेनिंजर और उनके साथियों ने मोटापे के जेनेटिक आधार खोजने के प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने एस्टोनिया के जीनोम सेंटर में उन लोगों की जीनोम सम्बंधी जानकारी को खंगाला जो सबसे दुबले-पतले बताए गए थे। इसमें से उन्होंने उन लोगों को छांटकर अलग कर दिया जिनके बारे में कहा गया था कि उनमें भूख न लगने (एनोरेक्सिया) या ऐसी किसी अन्य दिक्कत थी जिसकी वजह से वे दुबले रह जाते हैं।

शेष छरहरे लोगों में उन्होंने जेनेटिक समानता के चिंह खोजना शुरू किया। इस संदर्भ में एक खास जीन ने उनका ध्यान आकर्षित किया – एक एंज़ाइम एनाप्लास्टिक लिम्फोमा काइनेज़ यानी ALK का जीन। यह तो पहले से पता था कि डीएनए के इस खंड का उत्परिवर्तित रूप कैंसर से सम्बंधित है। लेकिन मज़ेदार बात यह थी कि किसी ने नहीं सोचा था कि इसका सामान्य रूप क्या काम करता है।

तो पेनिंजर और उनके साथियों ने उत्परिवर्तित फल मक्खी और उत्परिवर्तित चूहों का निर्माण किया। वे यह दर्शाना चाहते थे कि जो जीन मनुष्यों को छरहरा रखता है वह मक्खियों और चूहों में भी वैसा ही असर दिखाता है। देखा गया कि ALK जीन की उपस्थिति की वजह से ये उत्परिवर्तित मक्खियां और चूहे दुबले बने रहते हैं, हालांकि वे कम तो बिलकुल नहीं खाते।

शोधकर्ताओं का मत है कि ALKजीन मस्तिष्क पर क्रिया करता है जिसके असर से मस्तिष्क वसा कोशिकाओं को ज़्यादा वसा जलाने का निर्देश देता है। चूंकि यह जीन मक्खियों, चूहों और मनुष्यों, सबमें कारगर होता है, इसलिए ऐसा लगता है कि यह जैव विकास के इतिहास में बहुत समय से मौजूद रहा है। यह दुबलेपन के अनुसंधान में नया अध्याय जोड़ सकता है।

वर्तमान में भी ऐसी दवाइयां उपलब्ध हैं, जो कैंसरकारी ALK की क्रिया को बाधित करती हैं। यानी ALK को औषधियों के लिए एक उपयुक्त लक्ष्य माना जाता है। तो हो सकता है कि इसके आधार पर हमें छरहरे बने रहने के लिए गोली मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 प्लाज़्मा थेरेपी

13मार्च को जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग विशेषज्ञ आर्टूरो कसाडेवल और एक अन्य साथी द्वारा दी जर्नल ऑफ क्लीनिकल इंवेस्टीगेशन में प्रकाशित शोध पत्र में कोविड-19 के प्रभावी उपचार के लिए इस रोग से उबर चुके लोगों के रक्त प्लाज़्मा के उपयोग पर चर्चा की गई थी। इनके प्लाज़्मा में विकसित एंटीबॉडी से नए रोगियों का इलाज किया जा सकता है।

हाल ही में अमेरिका के कई अस्पतालों में 16,000 रोगियों पर प्रायोगिक तौर पर इस उपचार का उपयोग किया गया। इसके अलावा चीन और इटली में किए गए कुछ छोटे अध्ययनों से भी काफी आशाजनक नतीजे मिले। पूर्व में इसका उपयोग अन्य रोगों के लिए किया जा चुका है। चीन, इटली तथा अन्य देशों में किए गए प्रयोगों के परिणाम भी आशाजनक रहे हैं।

अलबत्ता, कुछ परिणाम निराशाजनक भी हैं। 2015 में युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर हैम्बर्ग द्वारा गिनी में 84 एबोला रोगियों पर किए गए अध्ययन में प्लाज़्मा उपचार के कोई लाभ नज़र नहीं आए थे। इसके अलावा प्लाज़्मा प्रत्यारोपण में रक्त-जनित संक्रमण का जोखिम भी रहता है। कुछ मामलों में तो फेफड़ों को गंभीर नुकसान भी हो सकता है। कई बार रोगी का शरीर रक्त की अतिरिक्त मात्रा के अनुकूल नहीं हो पाता जिससे मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। फिलहाल शोधकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए डैटा से ऐसे गंभीर मामलों की संख्या काफी कम पाई गई है। यूएस में शुरुआती 5000 लोगों का प्लाज़्मा उपचार करने पर केवल 36 मामले गंभीर पाए गए हैं।

बोस्टन युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग चिकित्सक नाहिद भादेलिया के अनुसार यदि यह उपचार कारगर साबित हो जाता है तो बड़े स्तर पर उपचार के लिए प्लाज़्मा की आवश्यकता को पूरा करना एक चुनौती बन सकता है। एक बार में एक व्यक्ति से लगभग 690-880 मिलीलीटर प्लाज़्मा मिलता है जो मात्र एक-दो रोगियों के लिए ही पर्याप्त होगा। वैसे ठीक होने के बाद एक व्यक्ति कई बार प्लाज़्मा दान कर सकता है और इसकी उपलब्धता को लेकर कोई समस्या होने की संभावना कम है।

एक समस्या यह हो सकती है कि विभिन्न दाताओं की एंटीबॉडी के घटकों और सांद्रता में काफी भिन्नता होती है यही वजह है कि प्लाज़्मा उपचार के संदर्भ में प्रमाण काफी कमज़ोर हैं। इसके लिए जापानी औषधि कंपनी टेकेडा कई अन्य सहयोगियों के साथ हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन नामक एक उत्पाद पर काम कर रही है। इसमें सैकड़ों ठीक हुए रोगियों के रक्त को मिलाकर एंटीबॉडी का सांद्रण किया जाएगा। हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन को प्लाज़्मा की तुलना में अधिक समय तक रखा जा सकता है। चूंकि कुल आयतन बहुत कम होता है, इसलिए साइड प्रभावों का जोखिम भी कम रहता है।  

आखिरी बार टेकेडा ने हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन का उत्पादन 2009 में एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा के लिए किया था। कंपनी ने 16,000 लीटर प्लाज़्मा की मदद से एंटीबॉडी का संकेंद्रण किया था जिससे हज़ारों रोगियों का उपचार संभव हो सकता था। लेकिन फ्लू स्ट्रेन उम्मीद से काफी कमज़ोर निकला और इस उपचार का उपयोग कभी करना ही नहीं पड़ा। उम्मीद है कि इस बार स्वस्थ हो चुके मरीज़ों की एंटीबॉडी ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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खराब प्रतिरक्षा कोशिकाएं हमें बूढ़ा बना सकती हैं

हाल ही में चूहों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि शरीर में उपस्थित टी-कोशिकाएं हमें रोगाणुओं से बचाने के अलावा उम्र बढ़ने की गति को भी तेज़ कर सकती हैं।

देखा जाए तो आयु में वृद्धि के साथ टी-कोशिकाओं की रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। इसके कारण वृद्धजन संक्रमण के प्रति अधिक और टीकों के प्रति कम संवेदनशील हो जाते हैं। टी-कोशिकाओं के कमज़ोर होने का एक कारण उनके माइटोकांड्रिया की सक्रियता में कमी है, जो कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करने का काम करते हैं। लेकिन टी-कोशिकाओं के आधार पर न सिर्फ बुढ़ापे का अनुमान लगाया जा सकता है बल्कि ये बुढ़ापे को तेज़ करने में मदद भी करती हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि टी-कोशिकाएं शोथ-उत्तेजक अणु छोड़ती हैं जिससे बुढ़ाने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।    

इन परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए युनिवर्सिटी हॉस्पिटल 12 की प्रतिरक्षा विज्ञानी मारिया मिटलब्रान और उनके सहयोगियों ने कुछ चूहों में आनुवंशिक रूप से ऐसा बदलाव किया कि उनके माइटोकांड्रिया में एक प्रोटीन समाप्त हो गया। इसकी वजह से ये कोशिकाएं माइटोकांड्रिया-आधारित कुशल ऊर्जा तंत्र की बजाय मजबूरन एक कम कार्यकुशल प्रणाली का उपयोग करने लगती हैं। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन के बाद चूहों में 7 माह की आयु, जो उनकी युवावस्था होती है, में ही बुढ़ापे के लक्षण नज़र आने लगे। वे सुस्त हो गए थे, मांसपेशियां कमज़ोर हो गई थीं और संक्रमण के प्रति प्रतिरोध भी कम हो गया था।

वैज्ञानिकों ने देखा कि परिवर्तित चूहों की टी-कोशिकाएं ऐसे अणु छोड़ रही थीं जो शोथ पैदा करते हैं। इससे लगता है कि इन चूहों के शारीरिक क्षय में टी-कोशिकाओं की भी भूमिका है।

तो वैज्ञानिकों ने उम्र बढ़ने की गति को धीमा करने के लिए इससे उल्टे प्रयोग भी करके देखे। सबसे पहले उन्होंने ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर अल्फा (टीएनएफ-अल्फा) को ब्लॉक करने वाली दवा दी। टीएनएफ-अल्फा वास्तव में टी-कोशिकाओं द्वारा छोड़ा जाने वाला शोथ-उत्प्रेरक अणु है। टीएनएक-अल्फा को ब्लॉक करने से चूहों की पकड़ मज़बूत हुई, भूलभुलैया में रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन बेहतर हुआ और ह्मदय की क्षमता में भी वृद्धि हुई।

इसके अलावा मिटलब्रन ने चूहों को एक ऐसा पदार्थ भी दिया जो एनएडी नामक अणु के स्तर को बढ़ाता है। यह अणु कोशिकाओं को भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के सक्षम बनता है और उम्र के साथ इसके स्तर में कमी आती है। लेकिन चूहों में इसका स्तर बढ़ाने से वे अधिक सक्रिय बन गए और उनके ह्मदय भी मज़बूत हो गए।

वर्तमान में रुमेटाइड आथ्र्राइटिस और क्रोहन रोग जैसी बीमारियों के लिए टीएनएफ-अल्फा का उपयोग किया जा रहा है और कई कम्पनियां एनएडी का स्तर बढ़ाने वाली औषधियां बेचती हैं। इसलिए मिटलब्रान का सुझाव है कि इनके क्लीनिकल परीक्षण करना चाहिए कि क्या ये बुढ़ाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं। वैसे कई शोधकर्ताओं को इन परिणामों की प्रासंगिकता पर संदेह है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

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