हीमोफीलिया का नया उपचार

हीमोफिलिया एक ऐसा विकार है जिससे पीड़ित व्यक्ति में रक्त का थक्का नहीं बन पाता। ऐसे में थोड़ी भी चोट लगने पर खून बहना जल्द बंद नहीं होता। अब तक हीमोफीलिया से गंभीर रूप से पीड़ित व्यक्ति को हफ्ते में तीन से चार बार तक रक्त का थक्का जमाने वाले फैक्टर लेना पड़ता था क्योंकि एक बार लेने के बाद यह शरीर में थोड़े समय तक ही टिकता है। लेकिन हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस फैक्टर में एक छोटा प्रोटीन जोड़ने पर पाया कि यह फैक्टर तुलनात्मक रूप से लंबे समय तक शरीर में टिका रह सकता है। पीड़ित को हफ्ते में 3-4 बार की बजाय सिर्फ एक बार इसे लेना होगा।

सामान्यत: हीमोफीलिया दो तरह का होता है: टाइप ए और टाइप बी। टाइप ए हीमोफीलिया शरीर में थक्का जमाने वाले फैक्टर VIII की कमी से होता है और टाइप बी हीमोफीलिया थक्का जमाने वाले फैक्टर IX की कमी से। यह विकार पुरुषों में अधिक देखा गया है। इसमें भी अधिकतर पुरुष टाइप ए हीमोफीलिया से पीड़ित होते हैं। इससे पीड़ित लोगो को क्लॉटिंग डिसऑर्डर, जोड़ों की समस्या और जानलेवा रक्त स्राव (कभी-कभी साल में 30 से भी अधिक बार तक) होता है। इसके उपचार के लिए फैक्टर VIII या अन्य थक्का जमाने वाले प्रोटीन लिए जाते हैं।

सामान्यत: फैक्टर VIII शरीर के एक अन्य प्रोटीन वॉन विलब्रांड फैक्टर (VWF) से जुड़ जाता है जो फैक्टर VIII को शरीर में टिकाऊ बनाता है और इसे विघटित होने से बचाता है। लेकिन VWF भी फैक्टर VIII की हाफ-लाइफ शरीर में 15 घंटे से अधिक नहीं कर पाता है। इसलिए फैक्टर VIII की खुराक एक हफ्ते में तीन से चार बार तक लेनी पड़ती है।

ब्लडवर्क्स नॉर्थवेस्ट की हीमेटोलॉजिस्ट बारबरा कोंकल और उनकी टीम कृत्रिम फैक्टर लेने के इस बार-बार के झंझट से निजात दिलवाना चाहती थीं। इसलिए उनकी टीम ने एक प्रोटीन में VWF का सिर्फ वह हिस्सा जोड़कर BIVV001 नामक एक नया प्रोटीन विकसित किया जो फैक्टर VIII को स्थायित्व देता है। शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि यह नया प्रोटीन-संकुल थक्का बनाने वाले फैक्टर को शरीर में रोककर रखेगा और शरीर के VWF से नहीं जुड़ेगा।

इसकी पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने हीमोफिलिया ए से पीड़ित और इसका उपचार लेने वाले सोलह पुरुषों पर अध्ययन किया। उन्होंने प्रतिभागियों को दो समूह में बांटा। पहले तो दोनों समूह के प्रतिभगियों को सिर्फ फैक्टर VIII की खुराक दी, लेकिन एक समूह को कम खुराक और दूसरे समूह को अधिक खुराक दी। चूंकि फैक्टर VIII तीन दिन में शरीर से खत्म हो जाता है इसलिए इसे देने के तीन दिन बाद उन्होंने प्रत्येक प्रतिभागी को नए संलयित प्रोटीन, BIVV001, का इंजेक्शन दिया। और प्रतिभागियों पर 28 दिन तक नज़र रखी।

उन्होंने पाया कि BIVV001 इंजेक्शन देने के पहले तक कम खुराक वाले लोगों में फैक्टर VIII की हाफ लाइफ 9.1 घंटे थी, और अधिक खुराक वाले लोगों में फैक्टर VIII की हाफ लाइफ 13.2 घंटे थी। लेकिन BIVV001 का इंजेक्शन देने के बाद कम खुराक वाले समूह में हाफ लाइफ औसतन 37.6 घंटे हो गई और अधिक खुराक वाले समूह में 42.5 घंटे हो गई। शोधकर्ताओं ने दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में बताया है कि उपचार के दौरान किसी भी मरीज़ ने फैक्टर VIII के लिए प्रतिरोध विकसित नहीं किया, और ना ही उनमें इसके प्रति किसी तरह की संवेदनशीलता या एलर्जी दिखी।

फिलहाल इसके तीसरे चरण का परीक्षण चल रहा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटनाशक के उपयोग से पहले ही मच्छरों में प्रतिरोध

न दिनों अफ्रीकी घरों में मलेरिया वाहक मच्छरों से निपटने के लिए एक विशेष कीटनाशक के उपयोग की योजना बनाई जा रही है। लगभग 2 वर्ष पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने क्लॉथियानिडीन के छिड़काव को घरों के भीतर मच्छर नियंत्रण का एक मुख्य हथियार माना था। वैसे तो क्लॉथियानिडीन का उपयोग लंबे समय से फसलों से कीटों का सफाया करने के लिए किया जा रहा था लेकिन कीटों में प्रतिरोध विकसित होने से इसकी प्रभावशीलता खत्म हो रही है। घरों में इसके उपयोग की योजना बनाते हुए इसके प्रति मच्छरों में पहले से मौजूद प्रतिरोध के सबूतों की तलाश की जा रही है।   

सेंटर फॉर रिसर्च इन इंफेक्शियस डिसीज़ेस, कैमरून के वैज्ञानिकों ने इसके प्रमाण खोज निकाले हैं। उन्होंने हाल ही में कैमरून की राजधानी याउंडे के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों से कुछ मच्छरों पर अध्ययन किया जिनमें दो प्रमुख मलेरिया वाहक भी शामिल थे। bioRxivप्रीप्रिंट के माध्यम से वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक अतिसंवेदनशील परीक्षण में एनॉफिलीस कोलुज़ी (Anopheles coluzzii) प्रजाति के मच्छरों को एक घंटे तक क्लॉथियानिडीन के संपर्क में रखने पर सभी मच्छरों का सफाया हो गया जबकि एनॉफिलीस गेम्बिए(Anopheles coluzzii) प्रजाति की 55 प्रतिशत आबादी पर इस कीटनाशक का कोई असर नहीं हुआ।

यह मलेरिया वाहक मच्छरों में क्लॉथियानिडीन के प्रतिरोध की पहली रिपोर्ट है। अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता कॉलिन्स कामडेम के अनुसार यदि इस प्रकार का डैटा पहले मौजूद होता तो WHO इस कीटनाशक को कभी स्वीकृति न देता। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि एक कीटनाशक को उपयोग में लाने से पहले प्रतिरोध के लिए मलेरिया वाहक परीक्षण कितना महत्वपूर्ण है। पिछले 2 दशक में कीटनाशक लेपित मच्छरदानी और घरों में छिड़काव से मलेरिया मृत्यु दर और रुग्णता में कमी आई है। इन कार्यक्रमों में 4 वर्गों के कीटनाशकों का उपयोग किया गया लेकिन सबसे अधिक निर्भरता प्राकृतिक रूप से निर्मित पायरेथ्रोइड्स पर रही। ये सस्ते हैं और मनुष्यों सहित अन्य स्तनधारियों के लिए हानिकारक भी नहीं हैं।

वास्तव में मच्छरों में पायरेथ्रोइड्स प्रतिरोध विकसित होने से WHO द्वारा क्लॉथियानिडीन को मंज़ूरी दी गई। इसके पूर्व कृषि कीटनाशकों के रूप में निकोटीन आधारित नियोनिकोटिनोइड्स के उपयोग की भी काफी आलोचना हुई है। क्लॉथियानिडीन भी इसी वर्ग का कीटनाशक है। परागणकर्ताओं पर इसके दुष्प्रभाव के चलते युरोप में कृषि उपयोग के लिए इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। जबकि कैमरून और अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों में कीटनाशक के रूप में इनका काफी अधिक उपयोग किया जा रहा है। कामडेम के अनुसार कृषि क्षेत्रों में नियोनिकोटिनॉइड कीटनाशक-अवशेषों से ही मच्छरों में इनके विरुद्ध प्रतिरोध विकसित हुआ है।  

हालांकि कई बड़ी कंपनियां घरों में छिड़काव के लिए मिश्रित कीटनाशक तैयार कर रही हैं लेकिन कामडेम इन सभी का परीक्षण मच्छरों पर करने की सलाह देते हैं। अब तक WHO द्वारा इस अध्ययन की समीक्षा नहीं की गई है लेकिन संभवत: क्लॉथियानिडीन प्रतिरोध अन्य कीटनाशकों की तुलना में कम व्यापक लगता है और इसलिए यह अभी तो एक उपयोगी विकल्प है लेकिन ऐसा कब तक रहेगा, कहना मुश्किल है।(स्रोत फीचर्स)

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क्यों कम जानलेवा हो रहा है कोविड-19?

कोरोना महामारी के शुरुआती दौर की तुलना में कोविड-19 से होने वाली मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है। यह परिवर्तन विशेष रूप से युरोप में देखा गया है लेकिन इसके पीछे के कारणों पर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के जैसन ओक और उनके सहयोगियों ने बताया है कि इंग्लैंड में जून से अगस्त माह के दौरान विभिन्न डैटा सेट के अनुसार संक्रमण से मृत्यु दर (आईएफआर) में 55 से 80 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है। 17 अगस्त से शुरू होने वाले सप्ताह में ब्रिटेन में 7000 से अधिक संक्रमितों में से 95 लोगों की मृत्यु हुई (आईएफआर 1.4) जबकि अप्रैल के पहले हफ्ते में 40,000 पॉज़िटिव मामलों में से 7164 लोगों की मृत्यु हुई थी (आईएफआर 17.9)।  

आईएफआर का पता पॉज़िटिव मामलों को मृत्यु की संख्या से विभाजित कर लगाया जाता है लेकिन ओक इन आकड़ों को सही आईएफआर नहीं मानते क्योंकि एक तो संक्रमण और उससे होने वाली मौतों के बीच कुछ सप्ताह का फर्क रहता है और समय के साथ परीक्षण में भी बदलाव होता है। फिर भी इन आंकड़ों से मोटा-मोटा अंदाज़ तो मिलता ही है। ओक और उनके सहयोगियों ने आईएफआर में बदलाव का अनुमान लगाने के लिए अधिक परिष्कृत विधि का उपयोग किया है। उन्होंने पाया कि पूरे युरोप में पैटर्न यही रहा है। लेकिन इसका कारण स्पष्ट नहीं है।

आंकड़ों के आधार पर एक कारण यह हो सकता है कि अप्रैल माह के दौरान संक्रमितों में युवा लोगों का अनुपात कम था और 10-16 अगस्त के बीच संक्रमितों में 15-44 वर्ष के लोगों का का अनुपात अधिक था। मान्यता यह है कि युवाओं में मौत का जोखिम कम रहता है। लेकिन ओक इसे पर्याप्त व्याख्या नहीं मानते हैं। अभी भी पाए जाने वाले पॉज़िटिव मामलों में वृद्ध लोगों की संख्या काफी अधिक है।

कुछ शोधकर्ता अस्पतालों में बेहतर उपचार व्यवस्था को भी घटती मृत्यु दर का कारण मानते हैं।   

इसी संदर्भ में नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के पॉल टमब्या का दावा है कि कोरोनावायरस का उत्परिवर्तित संस्करण (D614G) इस बीमारी की जानलेवा प्रकृति को कम कर रहा है। इस नए संस्करण से संक्रमण दर में तो वृद्धि हुई है लेकिन जान का जोखिम कम हो गया है। अन्य शोधकर्ता सहमत नहीं हैं।

जैसे, इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एरिक वोल्ज़ के नेतृत्व में ब्रिटेन के 19,000 रोगियों से लिए गए वायरस के नमूनों के जीनोम पर अध्ययन किया गया। इस अध्ययन की अभी समकक्ष समीक्षा तो नहीं हुई है लेकिन वोल्ज़ के अनुसार वायरस के D614G संस्करण के कम जानलेवा होने के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)

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गर्भाशय मुख शुक्राणुओं में भेद करता है

संतानोत्पत्ति में बाधा कई कारणों से आ सकती है। कभी-कभी तो डॉक्टर भी इसे समझ नहीं पाते। और अब, प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित में एक अध्ययन में शोधकर्ता बताते हैं कि जिन स्त्री-पुरुष जोड़ियों के ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन (HLA) के जीन्स आपस में कम समानताएं रखते हैं उनमें महिलाओं के गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस (या श्लेष्मा) में शुक्राणु अधिक जीवित रह पाते हैं। और जिन जोड़ियों के जीनोटाइप में अधिक समानता होती है उनमें गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस में शुक्राणु जीवित बचने संभावना कम होती है। (बता दें कि HLA एक तरह का प्रोटीन है जिसकी मदद से प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी चीज़ों की पहचान करती है। और, म्यूकस गर्भाशय ग्रीवा में मौजूद ग्रंथियों द्वारा स्रावित द्रव है।)

पूर्व में हुए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि संभवत: शुक्राणु की सतह पर HLA मौजूद होते हैं और यही HLA महिलाओं के गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस में भी पाए गए थे, जो इस बात की संभावना बढ़ाते हैं कि अंडाणु और शुक्राणु की समानता संतानोत्पत्ति में एक कारक हो सकती है।

कई जीवों में युग्मक (यानी अंडाणु और शुक्राण) स्तर पर, सभी नर-मादा जोड़ियां समान रूप से एक-दूसरे के सुसंगत नहीं होतीं। संतानोत्पत्ति में बाधा का कारण जानने के लिए आम तौर पर डॉक्टर या तो पुरुष के शुक्राणुओं की गुणवत्ता की जांच करते हैं या महिला में समस्या की जांच करते हैं। लेकिन चिकित्सा में युग्मक स्तर पर अनुकूलता पता करने के लिए कोई नियमित परीक्षण नहीं है। और युग्मक अनुकूलता के बारे में हमारा ज्ञान भी सीमित है।

इसे विस्तार से समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ ईस्टर्न फिनलैंड के जीव विज्ञानी केकैलाइनन और उनके सहयोगियों ने नौ महिलाओं के ग्रीवा म्यूकस के और आठ पुरुषों के शुक्राणु के नमूने लिए। फिर हरेक नमूने के HLA का क्षार-अनुक्रम पता किया। और फिर ग्रीवा म्यूकस के नमूनों और शुक्राणु के नमूनों की सारी संभव जोड़ियां बनाईं और इसमें शुक्राणु की दशा का अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि जिन पुरुष-महिला में आनुवंशिक समानता कम थी उन जोड़ियों में शुक्राणु के जीवित रहने की संभावना अधिक थी। इससे लगता है कि प्रतिरक्षा अनुकूलता प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल इस बारे में व्यापक स्तर पर अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है कि क्या HLA की आनुवंशिक संरचना निषेचन को प्रभावित करती है। इसमें शुक्राणु के उन लक्षणों की भी पड़ताल की जा सकती है जिससे निषेचन की सफलता प्रभावित होती है। फिलहाल शोधकर्ता पता कर रहे हैं कि शुक्राणु की जीवन क्षमता HLA की आनुवंशिक संरचना से किस प्रकार प्रभावित होती है।(स्रोत फीचर्स)

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स्तनपान माताओं को सुरक्षा प्रदान करता है

पूर्व अध्ययनों से पता है कि महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान वज़न बढ़ने और इंसुलीन प्रतिरोध बढ़ने के कारण आजीवन टाइप-2 मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन अब अध्ययनों से पता चला है कि स्तनपान कराने से यह जोखिम कम होता है और धीरे-धीरे खत्म हो जाता है।

इसके कारण तो स्पष्ट नहीं थे लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी माइकल जर्मन का विचार था कि इसके पीछे पैंक्रियाज़ की बीटा कोशिकाओं की भूमिका हो सकती है क्योंकि लंबे समय तक सुरक्षा के लिए ज़रूरी होता है कि रक्त शर्करा को नियंत्रित करने वाले तंत्र के कुछ हिस्सों में परिवर्तन हो जाएं। बीटा कोशिका में परिवर्तन सबसे कारगर होता है क्योंकि यही इंसुलीन का निर्माण करती हैं। इंसुलीन ग्लूकोज़ को रक्त से शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। लेकिन टाइप-2 मधुमेह में कोशिकाएं इंसुलीन प्रतिरोधी हो जाती हैं और उनमें पर्याप्त ग्लूकोज़ को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है। इसके चलते पैंक्रियाज़ अधिक इंसुलीन बनाने लगते हैं। अंतत: जब इसके बावजूद भी पर्याप्त अतिरिक्त इंसुलीन नहीं बन पाता तो रक्त शर्करा का स्तर बढ़ता रहता है। 

हालिया अध्ययन में जर्मन और कोरिया एडवांस्ड इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के हेल किम ने अन्य समूहों के सहयोग से कुछ गर्भवती महलाओं का चयन किया। ये महिलाएं गर्भावस्था सम्बंधित मधुमेह की समस्या से पीड़ित थीं। अध्ययन में आधी महिलाओं ने स्तनपान कराया जबकि शेष ने नहीं। प्रसव के दो माह बाद ग्लूकोज़ सहनशीलता परीक्षण में दोनों समूह की महिलाओं में रक्त शर्करा के स्तर में अधिक फर्क नहीं पाया गया (स्तनपान करने वाली महिलाओं में फास्टिंग ग्लूकोज़ में कमी पाई गई)। लेकिन प्रसव के साढ़े तीन साल बाद, स्तनपान कराने वाली महिलाओं में रक्त शर्करा तो काफी कम थी ही, बीटा कोशिकाओं का काम भी बेहतर था।  

जर्मन और किम पहले दर्शा चुके थे कि बीटा कोशिकाएं सेरोटोनिन का निर्माण कर सकती हैं। अब एक नई तकनीक से पता चला है कि बीटा कोशिका में सेरोटोनिन की सांद्रता स्तनपान कराने वाले चूहों में 200 गुना अधिक होती है। जंतुओं पर किए गए कई प्रयोगों के बाद टीम ने अनुमान लगाया कि स्तनपान कराने वाले मनुष्य या चूहे एक विशेष हार्मोन का निर्माण करते हैं जो बीटा कोशिकाओं को सेरोटोनिन निर्माण का निर्देश देता है। इसके परिणामस्वरूप बीटा कोशिकाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि होती है और इंसुलीन का निर्माण होता है। इसके अलावा, स्तनपान करने वाले चूहों में सेरोटोनिन एंटीऑक्सीडेंट का काम करता है जो बीटा कोशिकाओं को स्वस्थ रखने में मदद करता है।      

अन्य शोधकर्ता इस अध्ययन को काफी दिलचस्प मानते हैं क्योंकि इसके माध्यम से कुछ नए डैटा प्राप्त हुए हैं जो पहले उपलब्ध नहीं थे। साथ ही, इस अध्ययन के आंकड़ों से जुड़े कई सवाल भी उठ रहे हैं। एक टिप्पणी यह है कि इस अध्ययन में गर्भकालीन मधुमेह की दर, स्तनपान एवं स्तनपान न कराने वाले समूहों के उपचार के बीच अंतर तथा स्तनपान की अवधि और गहनता की कोई जानकारी नहीं दी गई है। इन सभी का टाइप-2 मधुमेह में महत्वपूर्ण योगदान रहता है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस का प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला

कोविड-19 पर अनिश्चितताओं के बीच एक सवाल उभर कर आ रहा है कि क्या इस बीमारी से ठीक होने वाले लोग कोरोनावायरस के प्रति टिकाऊ दूरगामी प्रतिरक्षा विकसित कर पाएंगे? इस सम्बंध में रैगन इंस्टिट्यूट ऑफ एमजीएच, एमआईटी के इम्यूनोलॉजिस्ट शिव पिल्लई और हार्वर्ड के एक शोध समूह ने कोविड-19 से मरने वाले लोगों के शव-परीक्षण में देखा कि उनके शरीरों में कथित जर्मिनल केंद्र अनुपस्थित थे।

जर्मिनल केंद्र एक तरह से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पाठशालाएं हैं। ये केंद्र तिल्ली और लसिका ग्रंथियों में पाए जाते हैं। यहां प्रतिरक्षा कोशिकाएं किसी रोगजनक के विरुद्ध लंबे समय तक चलने वाली एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देना सीखती हैं। हालांकि यह निष्कर्ष हल्के लक्षण या लक्षण-रहित लोगों पर लागू नहीं होते लेकिन इनसे सबसे गंभीर मामलों में कोविड-19 प्रगति की व्याख्या करने और टीका विकसित करने में मदद मिल सकती है। इससे यह भी पता चलता है कि कुछ लोगों में एंटीबॉडी-प्रतिक्रिया अल्प अवधि के लिए भी हो सकती है और व्यक्ति को यह संक्रमण दोबारा भी हो सकता है।

इसके लिए पिल्लई और उनके सहकर्मियों ने कोविड-19 से मरने वाले 11 लोगों की तिल्ली और वक्ष की लसिका ग्रंथियों का विश्लेषण किया जहां फेफड़ों की प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचती हैं। इन की तुलना समान आयु वर्ग के 6 अन्य लोगों से की गई जिनकी मृत्यु किसी अन्य कारण से हुई थी। सामान्य हालात में तिल्ली और लसिका ग्रंथियां एंटीबॉडी बनाने वाली बी-कोशिकाओं को नव-निर्मित जर्मिनल केंद्रों में एकत्रित करती हैं। इन विशिष्ट सूक्ष्म संरचनाओं में कोशिकाएं परिपक्व होती हैं और वायरस के प्रति एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को परिष्कृत करती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार कोविड-19 से मरने वाले लोगों के शव-परीक्षण में ये जर्मिनल केंद्र नहीं पाए गए। एक पूर्व परीक्षण में भी यही पाया गया था ।            

देखा गया है कुछ कोविड-19 संक्रमणों में साइटोकाइन्स नामक जैव-रसायनों का तूफान आ जाता है। यह शोथ व गंभीर रोग का कारण बन जाता है। वैसे साइटोकाइन्स संक्रमणों की प्रतिक्रिया में बी-कोशिकाओं और प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य किरदारों को संदेश भेजते हैं। पिल्लई की टीम ने कोविड-19 मृतकों की लसिका ग्रंथियों में एक प्रकार के साइटोकाइन (TNF-α) की मात्रा में वृद्धि पाई। शोधकर्ताओं ने टाइप-टी कोशिका की भी कमी पाई जो जर्मिनल केंद्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संभवत: TNF-α ही टी-कोशिकाएं बनने से रोकता है।

अन्य इम्यूनोलॉजिस्ट की तरह पिल्लई का भी ऐसा मानना है कि सार्स-कोव-2 के विरुद्ध ठीक तरह से तैयार किया गया टीका टिकाऊ एंटीबॉडी प्रक्रिया दे सकता है। लेकिन उनका मानना है कि टीका विकसित करने वाले समूहों के लिए इस अध्ययन के निष्कर्ष काफी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। पिल्लई के अनुसार यदि लसिका ग्रंथियों में अत्यधिक TNF- α का निर्माण हुआ तो शायद टीकाकरण लंबे समय तक सुरक्षा नहीं दे पाएगा।(स्रोत फीचर्स)

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जंगल कटाई और महामारी की संभावना

काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, जीवित रहने वाली प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे, में ऐसे घातक रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता, भूमि उपयोग और उभरते हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।

इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, वायरस विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं। 

जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।     

इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर भी कैंसर का शिकार होते थे

डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़ वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर आजकल एक डायनासौर पार्क है।

पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है। इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।    

इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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99.9 प्रतिशत मार दिए, चिंता तो 0.1 प्रतिशत की है – डॉ. सुशील जोशी

जकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स, कपड़े धोने के डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स, फर्श साफ करने, बर्तन साफ करने, सब्ज़ियां धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जम्र्स को मारते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सारे उत्पाद जादुई ढंग से 99.9 प्रतिशत जम्र्स को ही मारते हैं। और तो और, ये विज्ञापन आपको यह भी सूचित करते हैं कि ये कोरोनावायरस को भी मार देते हैं।

मेरा ख्याल है कि काफी लोग बहुत खुश होंगे कि चलो, अब जम्र्स से छुटकारा मिलेगा और खुशी-खुशी इनमें से कोई उत्पाद खरीद लेंगे। विज्ञापनों का मकसद इसी के साथ पूरा हो जाता है। दरअसल, ऐसे विज्ञापनों के दो मकसद होते हैं – पहला प्रत्यक्ष मकसद होता है उस उत्पाद विशेष की बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा मकसद भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है – उस श्रेणी के उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे, गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो जर्म-नाशी उत्पादों के विज्ञापन जर्म-नाश के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

इन जर्म-नाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के दावों पर संदेह नहीं करेंगे, हालांकि वह अपने आप में एक मुद्दा है। मेरी चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जम्र्स की है जिन्हें ये उत्पाद इकबालिया रूप से नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1 प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे। इन 0.1 प्रतिशत का हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में लौटना होगा।

एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन नामक एंटीबायोटिक औषधि की खोज 1928 में की थी और 1941 में इसका उपयोग एक दवा के रूप में शुरू हुआ। 1942 में पहला पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया खबरों में आ चुका था। डीडीटी से तो काफी लोग परिचित हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मलेरिया मच्छर के काटने से फैलता है। मलेरिया पर नियंत्रण की एक प्रमुख रणनीति यह थी कि मच्छरों का सफाया कर दिया जाए। डीडीटी के छिड़काव से मच्छर तेज़ी से मरते थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में स्पष्ट हो गया कि डीडीटी मच्छरों को मारने में असमर्थ हो गया है। मच्छरों में डीडीटी के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो गया था।

प्रतिरोधी जीवों का यह मसला आज एक महत्वपूर्ण समस्या है। चाहे जम्र्स हों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट हों, रोगवाहक मच्छर हों, हर तरफ प्रतिरोधी जीव नज़र आ रहे हैं। सवाल है कि प्रतिरोध पैदा कैसे होता है।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। और जब इस तरह की बैक्टीरिया कॉलोनी को एंटीबायोटिक दवा से उपचारित किया जाता है तो कॉलोनी का सफाया (99.9 प्रतिशत!) हो जाता है। लेकिन कॉलोनी में कभी-कभी संयोगवश म्यूटेशन उत्पन्न हो जाता है या उनमें एकाध बैक्टीरिया ऐसा होता है (0.1 प्रतिशत) जो उस एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहता है। 99.9 प्रतिशत तो मर गए लेकिन वे 0.1 प्रतिशत संख्या वृद्धि करते रहते हैं, बल्कि प्रतिस्पर्धा के अभाव में और तेज़ी से संख्या वृद्धि करते हैं। इसकी वजह से ऐसी संतति पैदा होती है जो एंटीबायोटिक की प्रतिरोधी होती है। धीरे-धीरे दवा-प्रतिरोधी गुण वाले बैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करके कॉलोनी पर हावी हो जाते हैं। यह एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी किस्म है। उसी एंटीबायोटिक से इन्हें मारने की कोशिश में सफलता कम या नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया के चलते हमारे द्वारा खोजे गए कई एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो चुके हैं। एंटीबायोटिक-प्रतिरोध की समस्या को स्वास्थ्य जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या माना गया है।

यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 की दीर्घकालीन समस्याएं

ए कोरोनावायरस लक्षणों की सूची अनुमान से अधिक विविध होती जा रही है। थकान, दिल का तेज़ धड़कना, सांस लेने में तकलीफ, जोड़ों में दर्द, सोच-विचार करने में परेशानी, गंध संवेदना में कमी जैसी कुछ समस्याओं के अलावा हाल ही में दिल, फेफड़े, गुर्दे और मस्तिष्क की क्षति जैसी दिक्कतें भी शामिल हो गई हैं। 

इस तरह का एक मामला युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (युसीएल) की न्यूरोसाइंस प्रयोगशाला की एथेना अकरमी के साथ हुआ। नए कोरोनावायरस के शुरुआती लक्षणों (बुखार और खांसी) के बाद अकरमी को सांस लेने में तकलीफ, सीने में दर्द और अत्यधिक थकान की शिकायत होने लगी। इसके अलावा उनको सोच-विचार करने में परेशानी के अलावा जोड़ों और मांसपेशियों में भी तकलीफ होने लगी। चार सप्ताह तक घर में आराम करने पर भी ये समस्याएं समय के साथ बढ़ती-घटती रहीं लेकिन खत्म नहीं हुर्इं। ऐसे में मार्च से लेकर अब तक उनका तापमान सिर्फ 3 सप्ताह ही सामान्य रहा है।

आम तौर पर कोविड-19 रोगी या तो हल्के लक्षणों के साथ जल्दी ठीक हो जाते हैं या फिर अधिक बीमार होकर आईसीयू तक पहुंचते हैं। लेकिन अकरमी का मामला कुछ अलग ही था। आम तौर पर कोविड-19 रोगियों में दीर्घावधि लक्षणों के विकसित होने की संभावना का आकलन करना मुश्किल होता है। इस सम्बंध में विभिन्न अध्ययनों से अलग-अलग परिणाम सामने आए हैं क्योंकि इनमें मरीज़ों के किसी समूह की निगरानी अलग-अलग समय तक की गई है।

इटली के एक समूह द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि कोविड-19 के अत्यधिक गंभीर रोगियों में से 87 प्रतिशत लोग बीमार होने के 2 माह बाद तक ऐसे लक्षणों से जूझते रहे। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और स्वीडन में किए गए अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि 10-15 प्रतिशत रोगियों को ठीक होने में काफी समय लगा जिनमें हल्के लक्षणों वाले लोग भी शामिल हैं। इसी तरह जर्मनी के रेडियोलॉजिस्ट मार्टिन रिक्टर ऐसे मामलों के बारे में भी बताते हैं जिनमें कोविड-19 से वृद्ध एवं गंभीर स्थिति में पहुंच चुके रोगी स्वस्थ हुए जबकि मामूली निमोनिया वाले अधेड़ लोग 3 महीने से भी अधिक समय तक अधिक नींद आने की समस्याओं से जूझते रहे।  

यह रोग नया-नया है, इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि ऐसे जीर्ण लक्षण कब तक परेशान करेंगे।

शोधकर्ता इस रहस्यपूर्ण बीमारी को समझने के प्रयास कर रहे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ लायसेस्टर की फेफड़ा वैज्ञानिक रेचल एवांस ने रोग से ठीक हो चुके 10,000 लोगों पर 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक के अध्ययन की शुरुआत की है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस अध्ययन से ना सिर्फ रोग को गहराई से समझा जा सकेगा बल्कि यह भी आकलन किया जा सकेगा कि किन रोगियों में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा होने का खतरा है और क्या शुरुआती इलाज से ऐसी स्थिति से निपटा जा सकता है।           

यह तो महामारी की शुरुआत में ही चिकित्सकों को पता चल गया था कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिकाओं की सतह पर ACE2 रिसेप्टर्स से जुड़कर ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देता है। ऐसे में फेफड़े, दिल, आंत, गुर्दे, रक्त वाहिकाएं और तंत्रिका तंत्र भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। वैसे सार्स-कोव-2 के दीर्घकालिक प्रभाव उसी तरह के हैं जैसे फ्लू जैसे अन्य वायरस संक्रमणों में देखे जाते हैं। इनसे निपटने के लिए चिकित्सक आम तौर पर दवाइयों का उपयोग करते हैं। ऐसे पूर्व अनुभवों की मदद से चिकित्सक कोविड-19 के दीर्र्घकालिक प्रभावों को कम करने में मदद कर सकते हैं।

सार्स-कोव-2 के परिणामों में कुछ भिन्नता भी देखने को मिलती है। पूर्व के कोरोनावायरस, जैसे सार्स और मर्स, के अनुभवों से चिकित्सकों का मानना था कि नया वायरस भी फेफड़ों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। 2003 में सार्स से संक्रमित एक व्यक्ति के फेफड़ों में जो घाव पाया गया था वह 15 वर्ष बाद भी मौजूद था। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में एशिया में कोविड-19 रोगियों के फेफड़ों के स्कैन में पता चला कि कोविड-19 सार्स की तुलना में फेफड़ों को कम गति और आक्रामकता से क्षति पहुंचाता है।

लेकिन कोविड-19 से होने वाली जटिलताएं भी काफी तीव्र हैं। अप्रैल के अंत में अकरमी ने कोविड-19 से उबर चुके 600 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जिनमें 2 सप्ताह से भी अधिक समय तक कोविड-19 के लक्षण उपस्थित रहे। उन्होंने 62 से अधिक लक्षण दर्ज किए हैं। फिलहाल यह तो स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार लोगों को पूरी तरह स्वस्थ होने में काफी अधिक समय लग रहा है।

अध्ययन के दौरान कोविड-19 रोगियों में ह्रदय से जुड़ी काफी समस्याएं सामने आर्इं। यह वायरस ह्रदय को कई तरह से प्रभावित करता है। यह ह्रदय की कोशिकाओं के ACE2 रिसेप्टर पर हमला करता है। ACE2 रिसेप्टर ह्रदय की कोशिकाओं की रक्षा करने के अलावा रक्तचाप बढ़ाने वाले हॉर्मोन एंजियोटेंसिन-II को नष्ट करता है। वायरस से लड़ने के लिए शरीर में एड्रीनेलीन और एपिनेफ्रिन के स्राव से भी ह्रदय को क्षति पहुंचती है। कोविड-19 के कारण जिन लोगों में ह्रदय की समस्या पैदा हुई उनमें से अधिकांश लोगों में पहले से ही मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्याएं उपस्थित थीं। विशेषज्ञों को आशंका है कि कोविड-19 ने ह्रदय समस्याओं को और तीव्र कर दिया।

इस दौरान तंत्रिका तंत्र से जुड़े लक्षण भी सामने आए हैं। ब्रेन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 43 लोगों में गंभीर तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं देखने को मिलीं। इसके अलावा चिकित्सकों को कई रोगियों में सोच-विचार करने में परेशानी की शिकायतें भी मिलीं।                 

कई स्थानों पर कोविड-19 से उबर चुके लोगों पर अध्ययन किया जा रहा है। कहीं ह्रदय से जुड़े रोगों पर अध्ययन किया जा रहा है, तो कहीं आने वाले दो वर्षों तक फेफड़ों के आकलन की योजना बनाई जा रही है।

हालांकि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वे दीर्घकालिक लक्षणों को टाल पाएंगे जिससे ऐसी समस्याओं से जूझ रहे रोगियों की मदद की जा सकेगी। अलबत्ता, इस वायरस की क्षमता को कम आंकना उचित नहीं होगा। यह रोग एक बार स्थापित हो गया तो वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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