चीनी टीके के शानदार परिणाम, जानकारी नदारद

यू.एस. व भारत के बाद कोविड-19 के सबसे अधिक मामलों वाले ब्राज़ील में जल्द ही पहला टीका अधिकृत होने जा रहा है। ब्राज़ीली शोधकर्ताओं के अनुसार 12,000 स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर किए गए अध्ययन में चीनी कंपनी सायनोवैक द्वारा निर्मित टीका, कोरोनावैक, सुरक्षित तथा कोविड-19 के हल्के मामलों की रोकथाम में 78 प्रतिशत प्रभावकारी पाया गया। यह मध्यम और गंभीर बीमारी को पूरी तरह से रोकने के सक्षम पाया गया। 

इस परीक्षण के प्रायोजक, सरकारी टीका निर्माता बुटानन इंस्टीट्यूट ने सभी दस्तावेज़ जमा कर दिए हैं और जल्द ही स्वीकृति की उम्मीद करते हैं। गौरतलब है कि ब्राज़ील में एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा निर्मित कोविड-19 टीके के प्रभाविता परीक्षण भी चल रहे हैं और जल्द ही स्वीकृति मिलने की संभावना है।

लेकिन कोरोनावैक टीके की अच्छी खबरों के बीच सम्बंधित डैटा की कमी ने ब्राज़ील के सहयोगियों को असमंजस में डाल दिया है। इससे पहले भी ब्राज़ील के शोधकर्ताओं ने टीके की सफलता की घोषणा तो की थी लेकिन तब भी उन्हें सटीक प्रभाविता डैटा प्रदान करने की अनुमति नहीं थी।

गौरतलब है कि कई देशों में अधिकृत अधिकांश टीके उन्नत तकनीक (जैसे mRNA या हानिरहित वायरल वेक्टर) पर आधारित हैं। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा भी ऐसी ही तकनीक का उपयोग किया गया है जबकि सायनोवैक ने अधिक स्थापित तकनीक का उपयोग किया है। सायनोवैक द्वारा निर्मित टीका समूचे मगर दुर्बलीकृत कोरोनावायरस पर निर्भर है ताकि यह बीमारी का कारण न बने। दो mRNA आधारित टीकों ने हल्के रोग के विरुद्ध 95 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की है। लेकिन एक मत यह है कि टीके का मुख्य काम लोगों को गंभीर रोग से बचाने का होना चाहिए। मध्य पूर्वी देशों में किए गए परीक्षणों में सायनोफार्म के टीके ने भी लगभग ऐसे ही परिणाम दर्शाए हैं।

लेकिन सायनोवैक और सायनोफार्म ने अपने साझेदारों को बहुत कम जानकारी सार्वजनिक करने की अनुमति दी है। ब्राज़ीली शोधकर्ता केवल यह बता पाए कि कोरोनावैक की प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक है, जो किसी भी टीके की स्वीकृति का अंतर्राष्ट्रीय मानक है। इसके अलावा संख्याओं के बारे में कोई जानकारी प्रदान नहीं की गई। पत्रकारों द्वारा सवाल करने पर मात्र यह बताया गया कि हल्की बीमारी के 218 मामले हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि इनमें से कितने प्लेसिबो समूह के हैं और कितने टीका-प्राप्त समूह के। यह कहा गया कि टीका सभी आयु समूहों में प्रभावी है।

डैटा की कमी से काफी संदेह उत्पन्न होता है। अन्य कोविड-19 टीका निर्माताओं द्वारा भी प्रारंभिक प्रभाविता परीक्षण सम्बंधी घोषणाओं में कम ही जानकारी प्रदान की गई। परीक्षण आयोजित करने वाले शोधकर्ता एस्पर कैलस के अनुसार जांचकर्ताओं के पास भी पूरा डैटा उपलब्ध नहीं था।       कैलस के अनुसार ब्राज़ील की टीम और टीका निर्माता के बीच विवाद का कारण यह है कि क्या किसी मामले के पुष्ट मानने के लिए पीसीआर परीक्षण के अलावा कोविड-19 के एक-दो लक्षण भी दिखना चाहिए। तुर्की में कोरोनावैक का परीक्षण करने वाले शोधकर्ताओं को इस तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। क्योंकि डैटा जारी करने के बारे में सायनोवैक से कोई अनुबंध नहीं था। उनके डैटा में प्लेसिबो प्राप्त 570 प्रतिभागियों में से 26 और टीका प्राप्त 752 में से 3 कोविड-19 के मामले सामने आए (प्रभाविता 91.25 प्रतिशत)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नोवावैक्स के टीके का परीक्षण अंतिम चरण में

नोवावैक्स कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ बनाए अपने टीके की प्रभाविता जांचने के लिए लंबे समय से प्रतीक्षित तृतीय चरण के मानव परीक्षण को यू.एस में जल्द ही शुरू करने की घोषणा की है। इसका तृतीय चरण का मानव परीक्षण युनाइटेड किंगडम में भी किया जाना है, जिसके लिए 15,000 से अधिक प्रतिभागियों ने नामांकन भी कर दिया है। यूके के परीक्षण परिणामों के आधार पर नोवावैक्स युरोपीय नियामक से अनुमोदन का आवेदन करेगी। अध्ययन के परिणाम अभी प्रतीक्षित हैं।

पर्याप्त मात्रा में टीका ना बना पाने के कारण कंपनी ने अमेरिका में बड़े स्तर पर प्रस्तावित अपना तृतीय चरण का मानव परीक्षण कई बार स्थगित किया था, लेकिन अब इसे शुरू करने की तैयारी में हैं। गौरतलब है कि नोवावैक्स कंपनी एक समय काफी संकट में थी, और नोवावैक्स को टीका तैयार करने के लिए अमरीकी सरकार और कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन ने दो अरब डॉलर की राहत राशि दी है। द्वितीय चरण के परीक्षण में इस टीके के परिणाम आशाजनक थे। लेकिन कंपनी के टीका बनाने के इतिहास को देखें तो पिछले 30 सालों में कंपनी को किसी भी टीके के लिए अनुमोदन नहीं मिला है। तो क्या इस महामारी के टीके के लिए कंपनी अनुमोदन ले पाएगी?

नोवावैक्स द्वारा तैयार टीका प्रोटीन आधारित उन दो टीकों में से एक है जिस पर अमेरिकी सरकार ने अरबों डॉलर खर्च किए हैं, और जो प्रभाविता परीक्षण के चरण में पहुंचा है। इस टीके में सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियों के साथ सूक्ष्म लिपिड कण हैं। कोविड-19 के अन्य टीकों की तरह इस टीके के लिपिड में पॉलीमर पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल नहीं है, जो एलर्जी की होने की संभावना को हटाता है। इसकी बजाय इसमें प्रतिरक्षा बढ़ाने वाला यौगिक सैपोनिन है।

नोवावैक्स का यह प्लेसिबो-नियंत्रित परीक्षण अमेरिका के 108 स्थानों और मैक्सिको के सात स्थानों पर करने की योजना है जिसमें 30,000 प्रतिभागियों में से दो तिहाई प्रतिभागियों को वास्तविक टीके दिए जाएंगे।

कंपनी यह मानती है कि जब फाइज़र और बायोएनटेक द्वारा तैयार दो ऐसे टीके उपलब्ध हैं जिनकी प्रभाविता 90 प्रतिशत से अधिक पाई गई है और जिन्हें खाद्य और औषधि प्रशासन द्वारा आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी भी प्राप्त है, तो संभव है कि लोग इस परीक्षण में नामांकन करने में हिचकें। कारण है कि लोग प्लेसिबो नियंत्रित परीक्षण में प्लेसिबो मिलने की संभावना का या नोवावैक्स के कम सुरक्षित होने की संभावना का जोखिम क्यों लेंगे।

वैसे नोवावैक्स की तैयारी है कि यदि किसी जगह पर प्रतिभागी ना मिलें तो वे परीक्षण दूसरे स्थान पर शुरू कर लें। हालांकि वे स्वीकारते हैं कि 30,000 प्रतिभागियों का नामांकन हासिल करना मुश्किल है। लेकिन कई परोपकारी लोग हैं जो बेहतर टीका तैयार करने में योगदान देना चाहते हैं। तो वे लोग तो इस परीक्षण में शामिल होंगे ही। ऐसे कई लोग नामांकन कर भी चुके हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता जाएगा लोगों को शामिल करना और मुश्किल होता जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीमोथेरपी – कैंसर का उपचार या सज़ा – ऋषि राज राय

साल 2020 में, लगभग आठ लाख भारतीयों समेत दुनिया भर में एक करोड़ सत्तर लाख से भी अधिक लोगों की मौत का कारण कैंसर होगा। भारत में, हर सत्रह महिलाओं में से एक महिला और हर पंद्रह पुरुषों में से एक पुरुष को कैंसर होने की संभावना है। भारत में लगभग हर दसवीं मौत और दुनिया भर में हर पांचवीं मौत कैंसर के कारण होती है।

कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसमें व्यक्ति की कोशिकाएं अनियंत्रित रूप से लगातार विभाजन कर वृद्धि करने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है, यह समझने के लिए हमें दो प्रकार के जीन्स के बारे में जानना ज़रूरी है। पहला ओन्कोजीन और दूसरा ट्यूमर सप्रेसर जीन। ये दोनों किसी भी सामान्य मानव शरीर की हर कोशिका में मौजूद होते हैं। ओन्कोजीन हमारे शरीर की वृद्धि और मरम्मत में मदद करते हैं और ट्यूमर सप्रेसर जीन अन्य कार्य करने के साथ ही यह सुनिश्चित करते हैं कि ओन्कोजीन द्वारा होने वाली वृद्धि नियंत्रण में रहे।

अगर किसी उत्परिवर्तन के कारण ओन्कोजीन शरीर को ज़रूरत से ज़्यादा कोशिका वृद्धि करने का आदेश देने लगे या फिर ट्यूमर सप्रेसर जीन इसे नियंत्रित न कर सके तो कोशिकाओं की यही अनियंत्रित वृद्धि कैंसर का रूप ले लेती है। मज़े की बात तो यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र भी इन कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने में असमर्थ रहता है।

अब ऐसी निराली पर भयंकर बीमारी का क्या उपचार हो सकता है? कैंसर का पता चलने पर चिकित्सक कीमोथेरपी की सलाह देते हैं। कीमोथेरपी में कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है। कीमोथेरपी का उद्देश्य कैंसर कोशिकाओं के प्रसार को नियंत्रित करना और किसी भी मौजूदा ट्यूमर को नष्ट करना है। यह अक्सर सर्जरी या विकिरण के साथ उपयोग किया जाता है। आम तौर पर सूई की मदद से नसों में रसायन डाला जाता है, लेकिन परिस्थिति अनुसार गोली के रूप में भी दिया जा सकता है।

कैंसर रोगी को प्राप्त होने वाले उपचारों का एक निर्धारित क्रम होता है। यह पूरी तरह से कैंसर के प्रकार और रोगी के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। कीमोथेरपी व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर दैनिक, साप्ताहिक या मासिक अंतराल पर दी जा सकती है। कई कैंसर ऐसे हैं जो कीमोथेरपी की बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरण के लिए हॉजकिन लिम्फोमा और लिम्फोसाइटिक ल्यूकेमिया। ये बचपन में होने वाले कैंसर हैं।

कैंसर जितना ज़्यादा फैला होता है अक्सर उसका इलाज उतना ही अधिक कठिन होता है। कीमोथेरपी से कैंसर से ठीक होने की कोई गारंटी नहीं है। अलबत्ता, कई लोगों का जीवनकाल कीमोथेरपी और अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के कारण बढ़ा है और कुछ तो कैंसर मुक्त भी हुए हैं। चिकित्सक अपने रोगियों के लिए व्यक्तिश: कीमो उपचार भी बनाते हैं जिससे प्रभावशीलता ज़्यादा से ज़्यादा हो सके।

कीमोथेरपी न केवल तेज़ी से बढ़ती कैंसर कोशिकाओं को मारती है, बल्कि तेज़ी से बढ़ने व विभाजित होने वाली स्वस्थ कोशिकाओं (जैसे आपके मुंह और आंतों के ऊपरी सतह की कोशिकाएं) के विकास को भी धीमा कर देती है और कई बार तो इन स्वस्थ कोशिकाओं की मौत भी हो जाती है। स्वस्थ कोशिकाओं के नुकसान के कारण मुंह के घाव, उल्टी होना और बाल झड़ने जैसे लक्षण पैदा होते हैं। नाक, मुंह और जीभ की ऊपरी सतह पर मौजूद तंत्रिकाओं पर भी कीमोथेरपी का बुरा असर पड़ता है और कई शोधों ने यह भी दिखाया है कि कीमो से होने वाले इस नुकसान के कारण व्यक्ति की सूंघने और स्वाद लेने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। आपने देखा ही होगा कि सर्दी-ज़ुकाम के कारण आपके सूंघने और स्वाद लेने की क्षमता खत्म या कम हो जाती है। ऐसा लंबे समय तक रहे और कुछ भी खाने का मन ना करे और ये सब भी तब जब शरीर कैंसर जैसी भयंकर बीमारी से लड़ रहा हो,तो कितना मुश्किल होता होगा उस इंसान का कैंसर से लड़ना। कीमोथेरपी में हुए शोध में यह भी देखा गया है कि कीमो की कुछ खुराकों के बाद रोगी की संज्ञान क्षमताओं (जैसे याददाश्त, एकाग्रता, पढ़ने-लिखने की क्षमता) पर भी बड़ा कुप्रभाव पड़ा। महिलाओं में मासिक धर्म के जल्दी बंद होने जैसे लक्षण भी देखे गए हैं।

अब आते हैं कीमोथेरपी के आर्थिक पक्ष पर। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा जुलाई 2017-जून 2018 के दौरान किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कैंसर की देखभाल से जुड़ी तस्वीर चिंताजनक है। सर्वेक्षण में कैंसर के विभिन्न चरणों में 1200 रोगियों को या तो ज्ञात या फिर संदिग्ध लक्षणों के आधार पर शामिल किया गया। राष्ट्र स्तर पर एक कैंसर रोगी की देखभाल का औसत कुल खर्च 1,16,218 रुपए के आसपास था (निजी अस्पतालों में 1,41,774 रुपए जबकि सार्वजनिक अस्पतालों में 72,092 रुपए)। राज्यवार देखें तो भारत में कैंसर रोगी की देखभाल की कुल लागत ओडिशा में 74,699 रुपए से लेकर झारखंड में 2,39,974 रुपए तक है। ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और हरियाणा में इलाज का कुल खर्च एक लाख रुपए से कम था। कैंसर के मरीज़ों को पंजाब, कर्नाटक, गुजरात,केरल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इलाज पर एक से डेढ़ लाख रुपए के बीच खर्च करना पड़ा। जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, हिमाचल प्रदेश और झारखंड में कैंसर के इलाज में डेढ़ लाख से अधिक खर्चा दिखा।

ध्यान देने की बात यह है कि इस खर्च का ज़्यादातर हिस्सा रोगी या उसके परिवार को ही उठाना पड़ता है। इस खर्च का बड़ा हिस्सा दवा कंपनियों को जाता है। यानी यदि किसी को कैंसर हुआ तो वह किसी न किसी तरीके से कम से कम लाख रुपए तो दवा कंपनियों को दे ही देता है। लेकिन इतना दुख सहने और खर्चा करने के बाद कैंसर रोगी के ठीक होने की कितनी संभावना है? कुछ प्रचलित कैंसरों में कीमोथेरपी की सफलता दर तालिका में दी गई है।

आप देख सकते है कि यदि कैंसर का पहले चरण में पता चल जाए तब तो इतना कष्ट झेलकर और पैसे खर्च करके शायद जान बचाई जा सकती है, लेकिन कैंसर जितनी देर से पता चलता है, कीमोथेरपी उतनी ही बेअसर होने लगती है और रोगी की जान बचने की संभावना काफी कम हो जाती है और दुख-दर्द उतना ही बढ़ता है। लेकिन इसके अलावा कैंसर का और कोई ठोस उपचार भी नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 टीका: उम्मीद और असमंजस

कोविड-19 का टीका आने से कोरोना महामारी के परिदृश्य में काफी परिवर्तन आया है। टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू होने से जहां एक उम्मीद जागी है वहीं असमंजस की स्थिति भी बनी हुई है।

सबसे पहले, चाइना नेशनल बायोटेक ग्रुप (सीएनबीजी) के प्रभाग बीजिंग बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स इंस्टीट्यूट ने अपने टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में 79.34 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया और इसे पूरी तरह सुरक्षित बताया। कंपनी ने चीन की नियामक एजेंसियों से अनुमोदन की मांग की है। लेकिन इस दावे पर वैज्ञानिकों ने गंभीर आपत्ति जताई है। इसमें न तो प्रतिभागियों की संख्या के बारे में बताया गया है और न ही टीकाकृत एवं प्लेसिबो समूहों में कोविड-19 के प्रकोप के बारे में कोई जानकारी है। इसके अलावा परीक्षणों के स्थान के बारे में भी कोई चर्चा नहीं की गई है। तीन सप्ताह बाद संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में हुए परीक्षण के बाद 86 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया गया है।

इसके बाद, यूके ने एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के आपात उपयोग को मंज़ूरी दी। इस पर असमंजस ज़ाहिर किया गया क्योंकि शोधकर्ताओं ने विभिन्न जनसंख्या समूहों, टीकों की अलग-अलग खुराक और मुख्य एवं बूस्टर टीके के बीच अलग-अलग अंतराल के आंकड़े मिला दिए थे। आश्चर्य की बात थी कि यूके मेडिसिन एंड प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमएचआरए) ने कहा कि मुख्य खुराक के बाद बूस्टर 12 सप्ताह बाद भी दिया जा सकता है। कहा गया कि टीके की एक पूर्ण खुराक 73 प्रतिशत प्रभावी है। जबकि पूर्व में दी लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन में दो खुराकों की प्रभाविता मात्र 62 प्रतिशत बताई गई थी। वैज्ञानिकों ने यह सवाल भी उठाया है कि एक खुराक से वास्तव में कितनी सुरक्षा मिलती है। इस संदर्भ में एमएचआरए के फैसले पर भी सवाल उठे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की डीन और जैव सांख्यिकीविद के अनुसार एमएचआरए द्वार यह फैसला जल्दबाज़ी में बिना किसी स्पष्टीकरण के लिया गया है। फिर भी टीकों की दो खुराक के बीच में अंतराल अधिक रहा तो अधिक लोगों को मुख्य खुराक तो मिल ही जाएगी। इससे गंभीर स्थिति और मृत्यु दर को कम किया जा सकेगा। सायनोफार्म तथा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड दोनों टीकों के मामले में आंकड़ों का अभाव पारदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।       

कोविड-19 टीकों की कमी तो है ही और संभावना है कि सायनोफार्म और एमएचआरए दोनों टीकाकरण की प्रक्रिया को गति देने का प्रयास करेंगे। गौरतलब है कि एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड के सहयोग से इस वर्ष एक अरब टीकों की खुराक विकसित होने की उम्मीद है। इसके अलावा सायनोफार्म के पास वर्तमान में 10 करोड़ खुराक उपलब्ध हैं और इस वर्ष एक अरब खुराकों के उत्पादन की संभावना भी है।

कई देशों में टीके की केवल एक खुराक देने पर चर्चा हो रही है जबकि टीकों का परीक्षण दो खुराकों के लिए किया गया है। एक ही खुराक देने के पीछे तर्क यह है कि काफी सारे लोगों में कुछ प्रतिरक्षा तो उत्पन्न हो जाए। ऑपरेशन वार्प स्पीड के प्रमुख वैज्ञानिक मोनसेफ सलोई बताते हैं कि एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके की पहली खुराक प्राप्त करने वालों ने मज़बूत प्रतिरक्षा विकसित नहीं की है। ऐसे में एक खुराक का फैसला जोखिम भरा हो सकता है।  

अमेरिका में भी फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना द्वारा निर्मित और स्वीकृत थ्र्ङग़्ॠ आधारित दो टीकों के संदर्भ में भी मुख्य व बूस्टर खुराक के बीच के अंतराल बढ़ाकर ज़्यादा लोगों को टीका देने की चर्चा हो रही है। वार्प स्पीड के तहत mRNA टीकों का आधा स्टॉक ही वितरित किया जा रहा है ताकि बूस्टर खुराक के लिए पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध रहें। वैज्ञानिकों ने अमेरिकी अधिकारियों को एकल खुराक को जल्द से जल्द शुरू करने का सुझाव दिया है। इसमें प्राथमिकता के आधार पर अतिसंवेदनशील लोगों को तय कार्यक्रम के तहत दो खुराक दिए जाने का प्रस्ताव है लेकिन सामान्य लोगों के टीकाकरण मानकों में ढील दी जा सकती है। वैज्ञानिक समुदाय की ओर से इस प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का आग्रह किया गया है।

कुछ वैज्ञानिक दो खुराकों के बीच के अंतराल को इच्छाधीन मानते हैं। महामारी के दबाव के कारण mRNA टीकों की खुराकों के अंतराल को अधिक सख्ती से लागू किया जा रहा था। सलोई के अनुसार एक तरीका यह है कि लोगों को आधी मात्रा ही दी जाए। मॉडर्ना टीके के डैटा से लगता है कि 55 वर्ष से कम उम्र के लोगों में आधी खुराक देने से ही मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। उम्मीद है कि इस आयु वर्ग के लोगों के लिए टीके की आधी खुराक निर्धारित करके समय और टीकों दोनों की बचत की जा सकती है।

फिलहाल सीएनबीजी ने टीके का मूल्य निर्धारण नहीं किया है लेकिन चीनी अधिकारियों ने उचित मूल्य पर टीका उपलब्ध कराने का वादा किया है। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड ने एक गैर-लाभकारी संस्था के ज़रिए प्रति खुराक तीन डॉलर (लगभग 220 रुपए) में बेचने की योजना बनाई है। हाल ही में स्वीकृत फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना टीकों की लागत लगभग 10 गुना से भी अधिक है और ये कंपनियां इस वर्ष के अंत तक दो अरब खुराकों का उत्पादन करेंगी।  

दोनों टीके mRNA आधारित टीके हैं जिनको शून्य से भी कम तापमान पर रखना और परिवहन करना अनिवार्य है। इसके विपरीत एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीका हानिरहित एडेनोवायरस आधारित है, जबकि सायनोफार्म टीके में वायरस का निष्क्रिय संस्करण है इसलिए इनको सामान्य रेफ्रीजरेटर में भी रखा जा सकता है। वर्तमान में हज़ारों चीनी फ्रंट लाइन जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, शिक्षकों और सार्वजनिक परिवहन कर्मचारियों को आपात उपयोग के तहत सायनोफार्म टीके की खुराक मिल चुकी है। इसको यूएई और बाहरीन ने भी आपात उपयोग की अनुमति दी है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोना की चुनौतियों से जूझता विज्ञान जगत – चक्रेश जैन

विदा हो चुके वर्ष 2020 में कोविड-19 की विप्लवकारी चुनौतियों से वैज्ञानिक बिरादरी में चिंता व्याप्त रही। साल के पूर्वार्द्ध में दुनिया भर की सरकारों ने वैक्सीन के अभाव में ज़ोरदार जागरूकता अभियान चलाए, जिनके परिणामस्वरूप लाखों जाने बचीं। उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों को वैक्सीन बनाने में मिली सफलता से लोगों ने राहत की सांस ली।

कोविड-19 महामारी का असर आर्थिक,सामाजिक,वैज्ञानिक,शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ा और अधिकांश आयोजन रियल से वर्चुअल प्लेटफार्म पर शिफ्ट हो गए। विज्ञान प्रयोगशालाओं में शोध कार्यों और परियोजनाओं में रुकावट आ गई। विज्ञान सम्मेलनों, बैठकों और संगोष्ठियों की जगह वेबिनारों का दौर शुरू हो गया।

वर्ष 2020 विज्ञान जगत के इतिहास में कोरोनावायरस परिवार के सातवें सदस्य सार्स-कोव-2 की विनाशकारी सक्रियता के लिए याद रहेगा। अभी तक कोरोना वायरस परिवार में छह सदस्य (229 ई, एनएल 63, ओसी 43, एचकेयू1, सार्स-कोव और मर्स-कोव) थे।

साल अंत होते-होते ब्रिटेन में इसी वायरस का एक नया रूप (स्ट्रेन) सामने आ गया। बीते वर्ष कोविड-19 पर रिसर्च पेपर्स की बाढ़ आ गई और इसकी चुनौतियों से जूझने के लिए नवाचारों का विस्तार भी हुआ।

विज्ञान की प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस द्वारा वर्ष 2020 की टॉप टेन रिसर्च स्टोरीज़ में प्रथम स्थान कोरोनावायरस के विरुद्ध वैक्सीन की खोज और अनुसंधान कार्यों को मिला है। कोरोना परिवार का नया वायरस सार्स-कोव-2 अपने रिश्तेदारों की तुलना में कहीं अधिक संक्रामक साबित हुआ। यह वायरस चीन के वुहान प्रांत में संक्रमित लोगों के ज़रिए कई देशों में फैल गया। न्यूज़ीलैंड ने अपने देश में वायरस को नियंत्रित करके विश्व के सभी देशों को चकित कर दिया। न्यूज़ीलैंड की प्रधान मंत्री को इसके लिए नेचर ने 2020 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है। प्रथम स्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडहानोम गेब्रेयेसस को मिला है, जिन्होंने तत्परतापूर्वक इसे महामारी घोषित कर सरकारों को सचेत कर दिया।

मार्च में सबसे पहले लॉकडाउन का प्रस्ताव चीन की महामारी रोग विशेषज्ञ ली लंजुआन ने रखा था, जिसे चीन सहित कई देशों ने अपनाया। नेचर ने इस साल के दस विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में ली लंजुआन को भी सम्मिलित किया है। इस सूची में नेचर ने चीनी वैज्ञानिक झांग योंग ज़ेन को भी स्थान दिया है जिनकी टीम ने सबसे पहले सार्स-कोव-2 का आरएनए अनुक्रम ऑनलाइन उपलब्ध कराया था।

गुज़रे साल कई देश सार्स-कोव-2 की वैक्सीन बनाने की स्पर्धा में शामिल रहे। आम तौर पर वैक्सीन विकसित करने में वर्षों लगते हैं और परीक्षण के तीन या चार चरणों से गुज़रना पड़ता है, लेकिन 11 अगस्त को ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पहली वैक्सीन तैयार करने की घोषणा की और पहला टीका उनकी पुत्री को लगाया गया।

इस वर्ष नीदरलैंड के कैंसर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने मनुष्य के गले के ऊपरी हिस्से में नई लार ग्रंथियां खोजीं जिन्हें नासा-ग्रसनी (ट्यूबेरियल) लार ग्रंथियां नाम दिया गया है। इस नए अंग का पता प्रोस्टेट ग्रंथि के कैंसर पर रिसर्च के दौरान चला। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह खोज कैंसर की चिकित्सा में मददगार होगी।

इसी वर्ष इस्राइल की तेल अवीव युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हेनेगुआ सालमिनिकोला परजीवी का पता लगाया, जिसमें माइटोकॉण्ड्रियल जीनोम नहीं मिला। यह पहला बहुकोशिकीय जीव है, जो पूरे जीवन ऑक्सीजन पर निर्भरता से मुक्त रहता है। इसे सांस लेने की आवश्यकता नहीं होती। अध्ययनों में यह भी पता चला कि इसका विकास माइटोकॉण्ड्रिया वाले जीवों की तरह हुआ था, लेकिन इसने धीरे-धीरे माइटोकॉण्ड्रिया गंवा दिया।

वैज्ञानिकों ने फास्ट रेडियो बर्स्ट (एफआरबी) का पता लगा कर बड़ी उपलब्धि हासिल की। दरअसल ये संकेत हमारी निहारिका (आकाशगंगा) के एक मैग्नेटर से आए थे। पहली बार 2007 में इन संकेतों को पकड़ा गया था, जो केवल कुछ मिलीसेकेंड तक ही दिखाई दिए थे। नेचर ने इसे टॉप टेन की सूची में सम्मिलित किया है।

वर्ष 2020 में नासा के सोफिया ने चंद्रमा की सतह पर मौजूद क्रेटर क्लेवियस में पानी के अणु की खोज की। क्लेवियस पृथ्वी से देखा जा सकने वाला गड्ढा है। यह चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्द्ध पर स्थित है। यह खोज दर्शाती है कि पानी चन्द्रमा के सिर्फ छायादार स्थानों पर ही नहीं, कई स्थानों पर हो सकता है। अभी तक मान्यता थी कि चंद्रमा पर जल का तरल रूप नहीं है।

इस वर्ष जनवरी में विश्व के सबसे बड़े और शक्तिशाली सोलर टेलीस्कोप डेनियल के. इनोय की सहायता से असाधारण तस्वीर ली गई, जिसमें सूर्य की सतह मानव कोशिकाओं की संरचना की भांति दिख रही है। अनुसंधानकर्ताओं का दावा है कि इस तस्वीर की सहायता से आगे चलकर सूर्य की सतह के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। गैलीलियो टेलीस्कोप के बाद पृथ्वी से सूर्य के अध्ययन की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।

इसी महीने पार्कर सोलर प्रोब यान सूर्य के सबसे समीप पहुंचने वाला अंतरिक्ष यान बन गया। इसे नासा ने अगस्त 2018 में प्रक्षेपित किया था। यह सूर्य से मात्र एक करोड 87 लाख किलोमीटर की दूरी पर था। सूर्य से पृथ्वी की दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है। सोलर प्रोब सूर्य की सबसे बाहरी सतह कोरोना के बारे में नई सूचनाएं भेजेगा।

इस वर्ष 15 नवम्बर को दुनिया का पहला निजी अंतरिक्ष यान स्पेस एक्स अमेरिका के कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र से चार अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर रवाना हुआ और 27 घंटे के सफर के बाद अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पहुंचा। अंतरिक्ष यात्रियों में तीन अमेरिका और एक जापान का है। यह स्पेस एक्स की दूसरी मानव सहित उड़ान है। यह नासा का पहला मिशन है, जिसमें अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने के लिए किसी निजी अंतरिक्ष यान की सहायता ली गई है।

इसी साल 6 फरवरी को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच अंतरिक्ष में सबसे लंबे समय तक रहने वाली महिला का रिकॉर्ड अपने नाम कर सुरक्षित पृथ्वी पर लौट आईं। क्रिस्टीना कोच ने 328 दिन अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर गुज़ारे। उन्होंने छह बार अंतरिक्ष में चहलकदमी भी की। उन्होंने बिना किसी पुरुष सहयोगी के अंतरिक्ष में चहलकदमी करके एक नया अध्याय रचा।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अंतरिक्ष यान ओसीरिस एक्स ने 20 अक्टूबर को चार वर्षों की लंबी यात्रा के बाद क्षुद्र ग्रह बेनू का स्पर्श किया। यान के रोबोटिक हाथ ने क्षुद्र ग्रह के नमूने एकत्रित किए। माना जाता है कि बेनू का निर्माण सौर मंडल के उद्भव के दौरान हुआ था। इससे वैज्ञानिकों को सौर मंडल की आरंभिक अवस्था को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही उन तत्वों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी, जिनसे पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष यान ओसीरिस रेक्स को सितंबर 2016 में रवाना हुआ था।

गुज़रे साल के अंत में जापान का अंतरिक्ष यान हयाबुसा-2 पहली बार किसी क्षुद्र ग्रह पर उतर कर वहां से नमूने लेकर पृथ्वी पर लौटा। हयाबुसा-2 का प्रक्षेपण 2014 में किया गया था।

दिसंबर में चीन का चंद्रयान चांग ई-5 चंद्रमा की सतह से नमूने लेकर सफलतापूर्वक पृथ्वी पर लौट आया। इस अभियान की शुरुआत 2004 में हुई थी। पिछले चार दशकों में चीन दुनिया का पहला देश है, जिसने चंद्रमा के नमूने पृथ्वी पर लाने के प्रयास किए थे। इसी महीने चीन के लांग मार्च-8 रॉकेट ने पांच उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक विदाई दी।

वैज्ञानिकों ने मनुष्य में बुढ़ापे के जीन और उसे रोकने की प्रक्रिया के अनुसंधान में सफलता प्राप्त की। पत्रिका स्टेम सेल में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के डॉ. वॉन जू ली के अनुसार बुढ़ापा मेसेन्काइमल स्टेम कोशिकाओं (एमएससी) की गतिविधियों में कमी आने से होता है। नए शोध के अनुसार इसे दवाइयों और अन्य उपचारों के ज़रिए दूर किया जा सकेगा। इसके लिए कोशिकाओं की रिप्रोग्रामिंग की जाएगी।

इसी वर्ष सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सिंथेटिक त्वचा बना ली। इसकी विशेषता यह है कि यह अपने-आप रफू हो जाती है। इसे ई-स्किन नाम दिया गया है। सिंथेटिक त्वचा का उपयोग कृत्रिम अंगों के लिए भी किया जा सकता है।

माइकल फैराडे द्वारा बेंज़ीन की खोज के लगभग 200 वर्षों बाद रसायन विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं को इसकी जटिल इलेक्ट्रॉनिक संरचना को स्पष्ट करने में सफलता मिली। टिमथी श्मिट के नेतृत्व में वैज्ञानिक दल ने इसे सुलझाने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग किया था। 1930 के दशक से ही रसायन शास्त्र के अध्येताओं के बीच बेंज़ीन की आधारभूत इलेक्ट्रॉनिक संरचना को लेकर बहस होती रही है। हाल के वर्षों में बहस का महत्व और बढ़ गया था, क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा और दूरसंचार तकनीक में इसकी अहम भूमिका सामने आई है।

21 दिसंबर को शनि और बृहस्पति ग्रहों का दुर्लभ मिलन हुआ। इसे खगोल विज्ञान की बड़ी और ऐतिहासिक घटनाओं में शामिल किया गया। लगभग आठ सौ वर्ष बाद दोनों ग्रह एक-दूसरे के बहुत करीब दिखे थे। दो खगोलीय पिंडों के नज़दीक दिखने को ‘कंजंक्शन’ और शनि तथा बृहस्पति के इस तरह के मिलन को ‘ग्रेट कंजंक्शन’ कहते हैं। सन् 1623 में भी शनि और बृहस्पति एक-दूसरे के पास नज़र आए थे। बृहस्पति 12 वर्ष और शनि 29 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। अब दोनों ग्रह साठ वर्ष बाद मार्च 2080 में पुन: इतने समीप दिखेंगे।

विदा हो चुके वर्ष में चीन के वैज्ञानिकों ने प्रकाश पर आधारित विश्व का पहला क्वांटम कंप्यूटर बनाने का दावा किया। यह पारंपरिक सुपर कंप्यूटर की तुलना में कई गुना तेज़ है। क्वांटम कंप्यूटर की मदद से कृत्रिम बुद्धि, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्रों में नई उपलब्धियां हासिल की जा सकेंगी।

वर्ष 2020 को राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया था, जिसका उद्देश्य पादप जगत एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना था।

विदा हो चुके साल में रोबोट का जन्मशती वर्ष मनाया गया। विज्ञान कथाओं में रोबोट शब्द और विचार 1920 में सामने आया था। पिछले दशकों में बुद्धिमान रोबोट बनाने की दिशा में जमकर अनुसंधान हुआ है। बुद्धिमान रोबोट बनाने में कृत्रिम बुद्धि की अहम भूमिका है। बुद्धिमान रोबोट के आगमन ने मनुष्य के सामने अवसरों और अस्तित्व की नई चुनौती खड़ी कर दी है।

वर्ष 2020 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों में अमेरिका का वर्चस्व रहा। रसायन विज्ञान के इतिहास में पहली बार यह सम्मान महिला वैज्ञानिकों के खाते में पहुंचा। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए वैज्ञानिक हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा माइकल हाटन को प्रदान किया गया। फिज़िक्स का नोबेल ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या के लिए रॉजर पेनरोज़, राइनहार्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज़ को दिया गया। रसायन शास्त्र का नोबेल इमैनुएल शार्पेची और जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। इन्होंने जीन संपादन तकनीक क्रिस्पर कास-9 विधि की खोज में विशेष योगदान किया है।

वर्ष 2020 में अमेरिकी विज्ञान कथा लेखक और जैव रसायनविद आइज़ैक एसीमोव की जन्मशती मनाई गई। उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान की अनेक किताबें लिखी हैं तथा आई रोबोट सहित कई फिल्में भी बनाई हैं।

इसी वर्ष फरवरी में कंप्यूटर में जाने-माने ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ कमांड के आविष्कारक लैरी टेस्लर का 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कंप्यूटर के यूज़र इंटरफेज़ के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। दिसंबर में संचार के क्षेत्र में वायरलेस कंप्यूटर नेटवर्क के जनक नार्मन अब्राामसन का निधन हो गया। उन्हें प्रारंभिक वायरलेस नेटवर्क एएलओएच नेट बनाने का श्रेय जाता है।

विलक्षण गणितज्ञ और नासा की महिला वैज्ञानिक कैथरीन कोलमैन गोबल जॉनसन का 24 फरवरी को 101 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष यात्राओं पर ले जाने और सुरक्षित वापसी के लिए अपनी बेजोड़ विशेषज्ञता का परिचय दिया था। उन्हें नासा लूनर आर्बिटर और 1997 में वर्ष का गणितज्ञ सम्मान मिला था।

अलविदा हो चुके वर्ष में ईरान के न्यूक्लियर साइंटिस्ट मोहसिन फखरीजादेह की उपग्रह द्वारा नियंत्रित हथियारों से हत्या कर दी गई। फखरीजादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सबसे बडी शक्ति माना जाता था।

विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और विश्लेषणकर्ताओं के अनुसार विदा हो चुके वर्ष 2020 में मूल विज्ञान की कोख से निकली प्रौद्योगिकी अथवा प्रयुक्त विज्ञान का समाज में वर्चस्व और विस्तार दिखाई दिया और मूलभूत विज्ञान हाशिए पर रहा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बदले हुए वायरस से खलबली

ठ दिसंबर को दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड स्थित केंट में अचानक कोविड-19 के मामलों में उछाल ने जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया। इनमें आधे से अधिक मामले ऐसे रोगियों के थे जिनमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट संस्करण पाया गया था। युनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंगहैम के सूक्ष्मजीव-जीन विज्ञानी निक लोमन के अनुसार यह नया संस्करण उपलब्ध डैटा से काफी अलग था, जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था।

दो हफ्ते से भी कम समय में नए संस्करण ने ब्रिटेन और युरोप के अन्य स्थानों पर खलबली मचा दी। इस कारण सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन (B.1.1.7) को फैलने से रोकने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सख्त लॉकडाउन की घोषणा तक कर दी। इस घोषणा के बाद से नीदरलैंड, बेल्जियम, इटली के अलावा भारत ने भी फिलहाल यूके से यात्री उड़ानों को रोक दिया है।

वैज्ञानिक मनुष्यों में B.1.1.7 की संक्रामकता का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस नए स्ट्रेन में इतनी जल्दी 17 उत्परिवर्तन हो चुके हैं। इन उत्परिवर्तनों की प्रकृति की खोजबीन जारी है। 

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 पर काफी अधिक अध्ययन किया है। निष्कर्ष यह है कि इस वायरस की उत्परिवर्तन दर एक या दो उत्परिवर्तन प्रति माह है। यानी जनवरी में चीन में प्राप्त शुरुआती जीनोम से आज के जीनोम में 20 विभिन्न बिंदुओं पर परिवर्तन हुए हैं। लेकिन कम परिवर्तनों वाले कई संस्करण भी उपस्थित हैं। वैज्ञानिकों ने किसी वायरस में एक बार में एक दर्जन से अधिक उत्परिवर्तन पहली बार देखे हैं। उनका मानना है कि यह किसी व्यक्ति में लंबे समय तक बने रहे संक्रमण के कारण हुआ होगा जिससे वायरस को तेज़ी से विकसित होने की गुंजाइश मिली होगी।

वायरस में हुए 17 उत्परिवर्तनों में से 8 तो उस जीन में हुए हैं जो वायरस के स्पाइक प्रोटीन का कोड है। इनमें से दो उत्परिवर्तन विशेष रूप से चिंताजनक हैं। एक है N501Y जो मानव कोशिकाओं के ACE2 प्रोटीन ग्राही से ज़्यादा मज़बूती से जुड़ जाता है और दूसरा 69-70del है जिसमें स्पाइक प्रोटीन में दो अमीनो अम्लों का लोप हुआ है। यह उन वायरस में पाया गया है जो दुर्बल प्रतिरक्षा वाले रोगियों की प्रतिरक्षा प्रक्रिया से बचकर निकल गए।

शुरुआती जानकारी से यह पता चला है कि यूके में वायरस के अन्य संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 काफी तेज़ी से फैलता है। गौरतलब है कि एक आरटी-पीसीआर परीक्षण (Taqpath) सामान्य रूप से तीन जीनों का पता लगाता है। लेकिन पीसीआर परीक्षण 69-70del संस्करण वाले वायरसों को नहीं भांपता और यह केवल दो जीन को ही खोज पाता है। इस लिहाज़ से इस परीक्षण से B.1.1.7 को ट्रैक करने में मदद मिल सकती है।

यूके के मुख्य विज्ञान सलाहकार पैट्रिक वालेंस के अनुसार नवंबर में सामने आए कुल मामलों में से 26 प्रतिशत B.1.1.7 की वजह से हुए थे लेकिन 9 दिसंबर तक 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में नया संस्करण पाया गया। अनुमान है कि इस उत्परिवर्तन के कारण वायरस की संक्रामकता में 70 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि उपलब्ध जानकारी के आधार पर B.1.1.7 की संक्रामकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। गौर करने वाली बात है कि इस नए संस्करण में एक अन्य वायरल जीन (ORF8) में भी परिवर्तन हुआ है जो वायरस के फैलने की क्षमता को कम करता है।

चिंता की बात यह भी है कि दक्षिण अफ्रीका के तीन प्रांतों में वायरस के स्पाइक जीन में N501Y उत्परिवर्तन पाया गया है। युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ुलु-नैटल के वायरस विज्ञानी तूलियो डी ओलिवेरा के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में पाया गया यह संस्करण काफी तेज़ी से फैल रहा है।

यह भी कहा जा रहा है कि B.1.1.7 के कारण गंभीर रूप से बीमार होने की संभावना है। अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार दक्षिण अफ्रीकी संस्करण युवाओं को अधिक प्रभावित कर रहा है। लेकिन स्पष्ट निष्कर्ष के लिए और डैटा की आवश्यकता है। 

इस विषय में निश्चित उत्तर मिलने में काफी समय लग सकता है। फिलहाल एक रोगी में 69-70del उत्परिवर्तन के साथ एक अन्य उत्परिवर्तन D796H भी पाया गया है जो उस व्यक्ति में कई महीनों से मौजूद था और जिसके इलाज के लिए प्लाज़्मा दिया जा रहा था। हालांकि उस रोगी की मृत्यु हो गई लेकिन पाया गया कि दो उत्परिवर्तन वाला यह वायरस प्लाज़्मा उपचार के प्रति असंवेदनशील है। इस उत्परिवर्तन के कारण यह वायरस दुगना संक्रामक हो जाता है। इस मामले में और अध्ययन किए जा रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि B.1.1.7 पहले ही काफी बड़े पैमाने पर फैल चुका है। नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने दिसंबर माह की शुरुआत में ही एक रोगी में वायरस का यह संस्करण पाया था। कई वैज्ञानिक अन्य देशों में भी इस संस्करण के पैदा होने की संभावना व्यक्त करते हैं। हो सकता है कि यूके में यह पहले इसलिए पता चला क्योंकि वहां सार्स-कोव-2 जीनोम की निगरानी करने के परिष्कृत उपकरण मौजूद हैं। ऐसी भी संभावना है कि B.1.1.7 की विकास प्रक्रिया की शुरुआत कहीं और हुई हो।

अब टीके बाज़ार में आने लगे हैं। तो वायरस के विभिन्न संस्करणों पर टीकों का दबाव बनेगा। ऐसी स्थिति में संभावना है कि वे संस्करण ज़्यादा बचे रहेंगे और संख्यावृद्धि करेंगे जो टीके को झेल जाते हैं। यानी वायरस के टीका-रोधी संस्करणों का प्रसार बढ़ सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान नीति और कोरोना टीका बनाने की ओर बढ़ा भारत – चक्रेश जैन

विदा हो चुका वर्ष 2020 भारतीय विज्ञान जगत के लिए नई चुनौतियों और अपेक्षाओं का रहा। अदृश्य कोरोनावायरस से फैली कोविड-19 महामारी का विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव दिखाई दिया। साल के पूर्वार्ध में वैज्ञानिकों ने नए कोरोनावायरस (सार्स-कोव-2) का जीनोम अनुक्रम पता करने में सफलता प्राप्त की। इसी के साथ देश में ही टीका बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। दरअसल किसी भी रोग से जंग के लिए टीकों का विकास बेहद जटिल और परीक्षणों के कई चरणों से गुज़रने वाली लंबी अनुसंधान प्रक्रिया है। लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में रात-दिन एक कर वर्ष के अंत तक कोविड-19 का टीका बनाकर अपनी कुशलता का परिचय दिया।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के झंडे तले कार्यरत तीन प्रयोगशालाओं – हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर बायोलॉजी, नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी और चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 का जीनोम अनुक्रम तैयार किया, जिसका उद्देश्य वायरस की उत्पत्ति और उसके बदलते स्वरूपों का पता लगाकर टीका निर्माण की राह बनाना था।

गुज़रे साल में देश की पांचवी विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति-2020 (एसटीआईपी) का प्रारूप तैयार किया गया। देश में शोध और विकास को मूर्त रूप देने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद पहली विज्ञान नीति का निर्माण 1958 में किया गया था। वर्ष 2020 में बनाई जा रही नई विज्ञान नीति में आत्मनिर्भर भारत के विचार को केंद्र में रखकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी, महिलाओं और पंचायतों के सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। विज्ञान मंत्रालय ने पहली बार नई विज्ञान नीति निर्माण में राज्यों की विज्ञान परिषदों सहित लगभग 15,000 लोगों की राय ली। नई विज्ञान नीति में स्थानीय से वैश्विक नवाचारों, आवश्यकता आधारित प्रौद्योगिकी तैयार करने और सतत विकास को बढ़ावा देने की कोशिश की गई है।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर बायोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं को ततैया का जीनोम अनुक्रमण करने में सफलता मिली। ततैया का वैज्ञानिक नाम लेप्टोफिलिन बोलार्डी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ततैया का जीनोम अनुक्रमण ड्रॉसोफिला और ततैया के बीच होने वाले जैविक संघर्ष से सम्बंधित कारणों को समझने में सहायक होगा।

जनवरी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन का 107वां सालाना जलसा बैंगलुरू में संपन्न हुआ, जिसमें देश-विदेश के वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने ग्रामीण विकास में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका पर मंथन किया। वैज्ञानिकों का कहना था कि ग्रामीण विकास में प्रौद्योगिकी को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। वर्ष 2006 में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान समेकित ग्रामीण विकास के विभिन्न मुद्दों पर विमर्श हुआ था।

17 जनवरी को फ्रेंच गुआना प्रक्षेपण केंद्र से जी-सैट संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में विदा किया गया। 7 नवंबर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी-डीएल से दस उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया। दस उपग्रहों में से नौ विदेशी हैं, जबकि राडार इमेजिंग उपग्रह अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटैलाइट-1 स्वदेशी उपग्रह है। यह सामरिक निगरानी के साथ कृषि विज्ञान, वानिकी, भू-विज्ञान, तटीय निगरानी और बाढ़ जैसी आपदाओं के दौरान उपयोगी सिद्ध होगा। अंतरिक्ष विज्ञान की गतिविधियों और कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।

कोरोना महामारी का असर भारत के प्रथम मानव मिशन गगनयान पर भी पड़ा। गगनयान मिशन का प्रक्षेपण अब अगले वर्ष तक होने की उम्मीद है। गगनयान परियोजना में तीन भारतीय वैज्ञानिक भेजे जाएंगे, जो सात दिन अंतरिक्ष में बिताएंगे।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों की टीम ने अगस्त में मेघालय में मशरूम की रात में चमकने वाली एक नई प्रजाति रोरीडोमाइसेज़ फायलोस्टेकायडीस खोजी। अंधेरे में यह हरे रंग की रोशनी से जगमगाता है। इसी कारण इसे ल्यूमिनिसेंट मशरूम कहते हैं। मेघालय में मशरूम की अलग-अलग प्रजातियों का पता लगाने के लिए एक प्रोजेक्ट चल रहा है।

इसी वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 50 वें वर्ष में प्रवेश किया और स्वर्ण जयंती वर्ष आयोजनों की शुरुआत हुई। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना 3 मई 1971 को की गई थी। इस विभाग की स्थापना का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक गतिविधियों और परियोजनाओं को बढ़ावा देने में नोडल एजेंसी की भूमिका निभाना है।

विज्ञान समागम प्रदर्शनी का समापन 20 मार्च को दिल्ली में हुआ। यह अपने ढंग की अनोखी प्रदर्शनी थी, जिसमें आम लोगों को विज्ञान की प्रगत विधाओं से परिचित होने का मौका मिला। प्रदर्शनी मुम्बई, कोलकाता और बैंगलुरु के बाद दिल्ली पहुंची थी।

साल के उत्तरार्द्ध में भारत हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी प्राप्त करने वाला चौथा देश बन गया। इस तकनीक की सहायता से ध्वनि से छह गुना अधिक रफ्तार वाली मिसाइलें तैयार होंगी।

वर्ष के अंत में पहली बार वर्चुअल माध्यम से इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल आयोजित किया गया, जिसमें इस बार 41 गतिविधियां शामिल की गर्इं। पहली बार महोत्सव में कृषि वैज्ञानिक सम्मेलन हुआ, जिसमें खेती-किसानी से सम्बंधित कार्यों के लिए कृत्रिम बुद्धि के उपयोग पर ज़ोर दिया गया। विज्ञान को उत्सव से जोड़ते इस कार्यक्रम की शुरुआत 2015 में नई दिल्ली से हुई थी।

गुज़रे वर्ष भारतीय वैज्ञानिक नेशनल सुपर कंप्यूटिंग मिशन के अंतर्गत देश में ही सुपरकंप्यूटरों की शृंखला तैयार करने में जुटे रहे। अंतरिक्ष, उद्योग और मौसम सम्बंधी पूर्वानुमानों में सुपरकंप्यूटरों की अहम भूमिका है।

10 जुलाई को रीवा अल्ट्रा मेगा सौर परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। यह विश्व की बड़ी परियोजनाओं में से एक है। यह पहली सौर योजना है, जिसे विश्व बैंक और क्लीन टेक्नोलॉजी फंड से धनराशि मिली है। इस सौर परियोजना से हर साल 15.7 लाख टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकेगा।

बीते साल ‘अम्फन’ और ‘निसर्ग’ जैसे विनाशकारी तूफान आए, लेकिन उपग्रहों से प्राप्त सटीक पूर्वानुमानों के आधार पर लाखों लोगों का जीवन बचा लिया गया।

विज्ञान के विभिन्न विषयों में मौलिक और उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए 14 वैज्ञानिकों को शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनमें दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल हैं। अभी तक 560 वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया जा चुका है। इनमें 542 पुरुष और 18 महिला वैज्ञानिक हैं।

इसी वर्ष सितंबर में विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन का जन्मशती वर्ष मनाया गया। इसरो ने विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए और अंतरिक्ष में उनके असाधारण योगदान का स्मरण किया। प्रोफेसर धवन का जन्म 25 सितंबर 1920 को हुआ था। प्रोफेसर धवन 1972 में इसरो के अध्यक्ष बने थे।

इसी वर्ष सर पैट्रिक गेडेस द्वारा भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु पर लिखी किताब के सौ साल पूरे हुए।

विदा हो चुके वर्ष में कोरोनावायरस पर बनाए गए विज्ञान कॉर्टूनों पर केंद्रित किताब बाय बाय कोरोना प्रकाशित हुई। पुस्तक के लेखक जाने-माने वैज्ञानिक और सांइटूनिस्ट डॉ. प्रदीप कुमार श्रीवास्तव हैं। यह विश्व की विज्ञान कॉर्टूनों पर प्रकाशित अपनी तरह की पहली किताब है।

दिसंबर में भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया, जहां चालकरहित मेट्रो ट्रेनों का संचालन हो रहा है। देश में इसकी शुरुआत दिल्ली से हुई। चालकरहित मेट्रो की यात्रा कम्युनिकेशन बेस्ड ट्रेन कंट्रोल सिग्नलिंग सिस्टम पर आधारित है। बीते साल देश में ही तैयार ज़मीन से हवा में प्रहार करने वाली आकाश मिसाइल के निर्यात का मार्ग प्रशस्त हो गया। आकाश मिसाइल लड़ाकू विमानों, क्रूज़ मिसाइलों और ड्रोन पर सटीक निशाना लगा सकती है।

26 जनवरी 2020 को रोटावायरस वैक्सीन के खोजकर्ता और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के पूर्व सचिव डॉ. एम.के. भान का निधन हो गया। 13 फरवरी को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र कुमार पचौरी नहीं रहे। उनके नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने जलवायु परिवर्तन पर 2007 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री पचौरी आईपीसीसी के अध्यक्ष और टेरी के महानिदेशक रहे। उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े संस्थानों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। 2001 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

18 अप्रैल 2020 को जाने-माने कृषि विज्ञानी और आनुवंशिकीविद प्रो. वी. एल. चोपड़ा का 83 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने भारत में गेहूं की पैदावार बढ़ाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान किया। उन्हें कृषि के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित बोरलाग अवॉर्ड और 1985 में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था। वे योजना आयोग के सदस्य रहे। उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक पद को सुशोभित किया। 

इस वर्ष 15 मई को प्रसिद्ध भौतिकीविद डॉ. एस. के. जोशी का निधन हो गया। उन्हें भौतिकी में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला था।

22 जून 2020 को कोलकाता में अमलेंदु बंद्योपाध्याय का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने खगोल विज्ञान को आम लोगों में लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दिया था। उन्होंने आठ किताबें और लगभग 2500 लेख लिखे। उन्हें विज्ञान संचार में विशेष योगदान के लिए राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।

विख्यात गणितज्ञ सी. एस. शेषाद्रि का 17 जुलाई को 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें ‘शेषाद्रि कांस्टेंट’ के लिए अत्यधिक ख्याति मिली। उन्हें पद्मभूषण और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी साल हमने प्रसिद्ध रेडियो खगोलविद प्रो. गोविन्द स्वरूप को खो दिया। सितंबर में विख्यात परमाणु वैज्ञानिक और परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व निदेशक डॉ. शेखर बसु का निधन हो गया।

इसी वर्ष 7 सितंबर को जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. नरेन्द्र सहगल का निधन हो गया। उन्हें विज्ञान संचार के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने भारत में विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार में अहम भूमिका निभाई थी। डॉ. सहगल राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद और विज्ञान प्रसार के संस्थापक निदेशक थे।

इसी वर्ष 14 दिसंबर को प्रसिद्ध एयरोस्पेस वैज्ञानिक आर. नरसिंहा का देहांत हो गया। उन्होंने लाइट कॉम्बैट एयरक्रॉफ्ट (एलसीए) और तेजस की डिज़ाइन एवं विकास में अहम भूमिका निभाई थी। प्रो. नरसिंहा को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मंडल ने इस बार बीते साल को यादगार बनाने वाले व्यक्तियों और अनुसंधान कथाओं का चयन कर एक सूची बनाई है, जिसमें कोविड-19 के टीकों के अनुसंधान और विकास को शामिल किया गया है। हमारे देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल में अपने संबोधन के दौरान विदा हो चुके साल 2020 को ‘विज्ञान वर्ष’ की संज्ञा दी है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 की गंभीरता बढ़ाता पुरातन जीन

विभिन्न कारकों के चलते कोविड-19 संक्रमण गंभीर रूप ले सकता है। अब बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन संभावना जताता है कि शरीर में एक निएंडरथल जीन के संस्करण की मौजूदगी कोविड-19 की गंभीरता चार गुना तक बढ़ा सकती है। गौरतलब है कि निएंडरथल एक प्राचीन मानव प्रजाति थी जो करीब सवा लाख से 35 हज़ार वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में थी और आधुनिक मनुष्यों का उनके साथ प्रजनन संपर्क भी होता था। इसी का परिणाम है आधुनिक मनुष्यों में 2.6 प्रतिशत तक निएंडरथल जीन्स पाए जाते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि डाइपेप्टीडाइल पेप्टीडेज़-4 (DPP4) नामक प्रोटीन मिडिल ईस्ट रेस्पेरेटरी सिंड्रोम (MERS) संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार एक अन्य कोरोनावायरस को मानव कोशिका से बंधने और उसमें प्रवेश करने में मदद करता है। अब, कोविड-19 के मरीज़ों में DPP4 जीन के एक परिवर्तित संस्करण का विश्लेषण बताता है कि यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 को ACE2 ग्राहियों के अलावा कोशिका में प्रवेश करने का एक और मार्ग उपलब्ध करा देता है।

दरअसल पूर्व में हुए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बताया था कि DPP4 सार्स-कोव-2 वायरस को मानव कोशिका से जुड़ने में मददगार हो सकता है। अलबत्ता, एक अन्य अध्ययन ने इस संभावना को खारिज करते हुए बताया था कि यह वायरस DPP4 के माध्यम से कोशिका से नहीं जुड़ता।

एक बार फिर मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के वैकासिक आनुवंशिकीविद स्वान्ते पैबो और उनके साथियों ने DPP4 जीन की भूमिका की संभावना जताई है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में जांचा कि क्या DPP4 जीन का निएंडरथल संस्करण असंक्रमित लोगों की तुलना में कोविड-19 के गंभीर मामलों वाले लोगों में अधिक दिखता है। इसके लिए उन्होंने कोविड-19 होस्ट जेनेटिक्स इनिशिएटिव द्वारा जारी किए गए नवीनतम डैटा का अध्ययन किया, जिसमें कई लोगों के जीनोम और कोविड-19 की स्थिति के बारे में जानकारी थी। उन्होंने पाया कि कोविड-19 से गंभीर रूप से संक्रमित 7885 लोगों के जीनोम में DPP4 का निएंडरथल संस्करण नियंत्रण समूह की तुलना में अधिक था। यदि किसी व्यक्ति में निएंडरथल संस्करण की एकल प्रति है तो उसमें गंभीर संक्रमण का जोखिम दो गुना है और अगर दोनों प्रतियां निएंडरथल संस्करण की हैं तो गंभीर संक्रमण का जोखिम चार गुना है।

DPP4 जीन कोशिका में ग्लूकोज़ या शर्करा को तोड़ने में भूमिका निभाता है। इसलिए मधुमेह की कुछ दवाएं DPP4 जीन को लक्षित करती हैं। अध्ययन सुझाता है कि मधुमेह की दवाएं कोविड-19 के इलाज में मदद कर सकती है। वैसे तो DPP4 जीन का निएंडरथल संस्करण एंज़ाइम के आकार और कार्य को प्रभावित नहीं करता क्योंकि यह परिवर्तन जीन के प्रमोटर में है। इसका प्रभाव इस बात पर होता है कि यह जीन शरीर में कहां और कितना सक्रिय होगा। अध्ययन पर कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि कोविड-19 में निएंडरथल जीन से कितना जोखिम है इसे समझने के लिए इसकी तुलना गरीबों और स्वास्थ्य सुविधा की पहुंच से दूर वाले लोगों में कोविड-19 के गंभीर संक्रमण के जोखिम से करके देखना चाहिए। कोविड-19 का संक्रमण गंभीर स्थिति में पहुंचाने में आनुवंशिक कारक से अधिक भूमिका सामाजिक-आर्थिक कारकों की होगी। नतीजे अभी इस जीन की भूमिका की संभावना ही व्यक्त करते हैं, पुष्टि होना अभी बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज़ेब्राफिश और रेटिना का इलाज – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

छिपकलियों की पूंछ टूटती है और कुछ ही दिनों में बिना हड्डी वाली नई पूंछ बन जाती है। कुछ विकसित रीढ़धारियों में क्षतिग्रस्त अंगों में पुन:निर्माण (रीजनरेशन) की क्षमता होती है। अकशेरुकी प्राणियों में तो कई ऐसे उदाहरण हैं जो अपने शरीर के अंग या पूरे शरीर को भी फिर से बना सकते हैं। स्पंज और प्लेनेरिया नामक जीव के छोटे-छोटे टुकड़ों से पूरे जीव का निर्माण हो जाता है। स्टारफिश की भुजा कटकर अलग हो जाने पर फिर से नई भुजा आ जाती है। इस प्रक्रिया को यदि मानव में प्रयुक्त किया जा सके तो दुर्घटनाओं या अन्य कारणों से नष्ट हुए अंगों को पुन: उत्पन्न किया जा सकता है।

ज़ेब्राफिश में पुन:निर्माण

मानव के लिए उपयोगी चिकित्सा सम्बंधी 95 प्रतिशत शोध पारंपरिक रूप से चूहों या माउस पर किए जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस प्रवृत्ति में बदलाव आया है और ज़ेब्राफिश शोधकर्ताओं की पहली पसंद बन गई है। करीब 6 से.मी. लंबी ज़ेब्राफिश दक्षिण-पूर्व एशिया (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और बर्मा) में पाई जाती है। मनुष्य की बीमारियों पर शोध के लिए बर्मिंगहैम के अलबामा विश्वविद्यालय में ही 20 शोध परियोजनाओं में इनका उपयोग किया जा रहा है। कैंसर, हृदय रोग, मोटापा, मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी और नेफ्रोलेप्सी जैसी बीमारियों में इन पर किए गए शोध के परिणाम मूल्यवान हैं।

ज़ेब्राफिश का उपयोग तेजी से बढ़ने का कारण कम लागत, तेज़-वृद्धि तथा भ्रूण का पारदर्शी होना है। ज़ेब्राफिश प्रति सप्ताह 100-500 अंडे देती है जिनमें 45 मिनट में भ्रूणीय विकास दिखने लगता है। सबसे महत्वपूर्ण खोज तो यह है कि वयस्क ज़ेब्राफिश हृदय और मस्तिष्क के चोटग्रस्त भाग का भी पुन:निर्माण कर लेती है। मनुष्यों में तो केवल त्वचा और कुछ ही अन्य अंगों को पुन: बनाने की क्षमता होती है।

हमारे मस्तिष्क तथा मेरु-रज्जू बनाने वाली तंत्रिका तंत्र की कुछ कोशिकाएं तो एक समय बाद कोशिका विभाजन के लिए आवश्यक सामग्री फेंक देती हैं। इससे उन कोशिकाओं के विभाजन से नई कोशिकाओं के निर्माण की संभावनाएं लगभग समाप्त ही हो जाती हैं।

आंखों के भीतर तंत्रिका कोशिकाओं से बना दृष्टिपटल (रेटिना) भी बीमारी या चोट के कारण यदि क्षतिग्रस्त हो जाए तो वह आजीवन अंधा बना देता है क्योंकि रेटिना में हुए नुकसान की पूर्ति नहीं होती। आंखों के लेंस तथा कॉर्निया की क्षति के कारण उत्पन्न अंधत्व को तो प्रत्यारोपण से ठीक किया जा सकता है परंतु रेटिना की क्षति का कोई इलाज अभी तक उपलब्ध नहीं है।

ज़ेब्राफिश का रेटिना

मनुष्य और मछलियों में आंख की संरचना और कोशिकाएं एक जैसी होती हैं परंतु दिलचस्प बात यह है कि चोट लगने पर मछलियां दो सप्ताह में ही क्षतिग्रस्त रेटिना का पुन:निर्माण कर लेती है। मनुष्यों में रेटिना के नष्ट होने से अंधे हुए लोगों के लिए यह जानकारी संभावनाओं के द्वार खोल सकती है।

ज़ेब्राफिश के रेटिना में 6 प्रकार के न्यूरॉन्स होते हैं और एक तरह की ग्लिया कोशिकाएं (गैर न्यूरॉन, सहारा देने वाली कोशिकाएं) होती हैं। ये ही विभिन्न कार्यों को अंजाम देती हैं। चोट से उत्पन्न अंधेपन को दूर करने के लिए ग्लिया कोशिकाएं अपना रूप बदलकर स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो अपने आपको किसी भी अंग की कोशिकाओं में बदलने में सक्षम होती है। चोट वाली जगह पर स्टेम कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होकर नई तंत्रिका कोशिकाओं में बदल जाती हैं।

ज़ेब्राफिश के विपरीत, मानव का तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क या उससे सम्बंधित अंग चोटग्रस्त होने पर उसकी कोशिकाओं को विभाजित नहीं होने देता। इसलिए घाव भरना संभव नहीं होता और स्थायी क्षति होती है। शायद ऐसा अत्यधिक विशिष्ट विकसित तथा एक साथ अनेक कार्य कर सकने की क्षमता वाले मस्तिष्क के कारण हुआ है। रेटिना भी तंत्रिका तंत्र का भाग है, और वह भी घाव भर सकने में सक्षम नहीं है।

वैज्ञानिकों ने पाया है कि ज़ेब्राफिश में जब रेटिना की कोशिकाएं चोटग्रस्त होकर मरने लगती हैं तब वे GABA नामक न्यूरोट्रान्समीटर (तंत्रिका संदेशवाहक रसायन) का उत्पादन बंद कर देती हैं। इससे ग्लिया कोशिकाएं स्टेम कोशिकाओं जैसी स्थिति में आने लगती हैं और नई कोशिकाएं बनाकर चोट की मरम्मत करने लगती हैं। चूहों पर पूर्व में किए गए शोध ने मस्तिष्क और पेंक्रियाज़ में भी ऐसे ही परिणाम दर्शाए हैं।

ज़ेब्राफिश में रेटिना पुन:निर्माण के तरीके को मानव में प्रयुक्त करने में कुछ समय लग सकता है पर वैज्ञानिकों के निरंतर अथक प्रयासों से ऐसा लगता है कि सफलता दूर नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोनोवायरस अपने चिंह छोड़ जाता है

ई मामलों में देखा गया है कि कोविड-19 से उबरने के बाद भी लोग इसकी जांच में सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए गए। इससे यह लगता था कि या तो उनमें कोरोनावायरस का पुन: संक्रमण हुआ है या उनमें छुपा संक्रमण शेष था। लेकिन हाल ही में हुआ अध्ययन इसकी एक अलग व्याख्या करता है। अध्ययन के अनुसार, एचआईवी वायरस और अन्य रेट्रोवायरस की तरह कोरोनावायरस भी मनुष्य के गुणसूत्रों में अपना जेनेटिक कोड जोड़ जाता है, लेकिन पूरा जेनेटिक कोड नहीं बल्कि इसका सिर्फ कुछ हिस्सा। यदि मामला वास्तव में ऐसा है तो यह ठीक हो चुके व्यक्तियों में भी संक्रमण होने के झूठे संकेत देता रहेगा, और इससे कोविड-19 के उपचार के लिए किए जा रहे अध्ययनों के भ्रामक परिणाम मिलने की संभावनाएं भी हैं।

फिलहाल तो ये नतीजे पेट्रीडिश में अध्ययन से प्राप्त हुए हैं, लेकिन सार्स-कोव-2 से संक्रमित लोगों के जेनेटिक अनुक्रम का डैटा भी कुछ ऐसा ही दर्शाता है। हालांकि शोधकर्ता बताते हैं कि इसका कतई यह मतलब नहीं है कि सार्स-कोव-2 अपनी पूरी जेनेटिक सामग्री स्थायी रूप से मनुष्यों में छोड़ देता है जो लगातार वायरस की प्रतियां बनाती रहे, जैसा कि एड्स वायरस करता है। वास्तव में सभी वायरस यह करते हैं कि जिन कोशिकाओं को वे संक्रमित करते हैं उनमें अपनी जेनेटिक सामग्री भी डाल देते हैं। अलबत्ता, आम तौर पर यह सामग्री मेज़बान कोशिका के डीएनए से अलग ही रहती है।

एमआईटी के आणविक जीवविज्ञानी रुडोल्फ जैनिश की टीम ने देखा कि ठीक होने के बाद भी कई लोग सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए जा रहे थे। उन्हें लगा कि शायद पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (PCR) टेस्ट वायरस के छिन्न-भिन्न अवशेषों को वायरस की तरह पहचान रहा हो। PCR टेस्ट नाक में रूई के फाहे पर लिए गए नमूनों में वायरस के अनुक्रम की पहचान करता है।

यह संभावना जांचने के लिए कि क्या सार्स-कोव-2 का आरएनए-जीनोम हमारे गुणसूत्र के डीएनए से जुड़ सकता सकता है, शोधकर्ताओं ने मानव कोशिकाओं में ऐसा जीन (रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़, RT) जोड़ा जो आरएनए को डीएनए में परिवर्तित कर देता है। फिर इन कोशिकाओं को सार्स-कोव-2 वायरस के साथ संवर्धित किया। एक प्रयोग में उन्होंने एचआईवी के RT जीन का उपयोग किया। अन्य प्रयोग में उन्होंने मानव डीएनए अनुक्रमों (LINE-1) का उपयोग करके रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन किया। बायोआर्काइव्स में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि दोनों ही प्रयोगों में कोशिकाओं में सार्स-कोव-2 आरएनए का कुछ हिस्सा डीएनए में परिवर्तित हो गया था और मानव गुणसूत्र में जुड़ गया था।

तो यदि किसी में LINE-1 स्वाभाविक रूप से कोशिकाओं में सक्रिय है तो कोविड-19 से संक्रमित लोगों में सार्स-कोव-2 का आरएनए जुड़ सकता है। ऐसा उन लोगों में भी हो सकता है जो सार्स-कोव-2 और एचआइवी, दोनों से एक साथ संक्रमित हैं। दोनों ही स्थितियां यह संभावना जताती हैं कि कोविड-19 से उबर चुके लोगों में PCR टेस्ट कोरोनोवायरस की जेनेटिक सामग्री के यही अवशेष पहचान रहा होगा।

चूंकि सार्स-कोव-2 के जीनोम का सिर्फ कुछ हिस्सा ही जुड़ता है इसलिए इससे संक्रमण होने या फैलने जैसा कोई खतरा नहीं है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि लोगों में जिन कोशिकाएं में यह प्रक्रिया होती है, वे कोशिकाएं लंबे समय तक जीवित रहती हैं या मर जाती हैं? अध्ययन पर कई प्रश्न हैं। जैसे रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन प्रयोगशाला की अनुकूल परिस्थितियों में तो हो सकता है लेकिन क्या वास्तविक परिस्थिति में भी ऐसा हो सकता है। जैनिश इन सवालों पर अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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