हर वर्ष मलेरिया से लगभग चार लाख लोगों की मौत होती है।
दवाइयों तथा कीटनाशक युक्त मच्छरदानी वगैरह से मलेरिया पर नियंत्रण में मदद मिली
है लेकिन टीका मलेरिया नियंत्रण में मील का पत्थर साबित हो सकता है। मलेरिया के एक
प्रायोगिक टीके के शुरुआती चरण में आशाजनक परिणाम मिले हैं।
नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस टीके में जीवित मलेरिया
परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम) का उपयोग किया गया है। टीके के साथ ऐसी
दवाइयां भी दी गई थीं जो लीवर या रक्तप्रवाह में पहुंचने वाले परजीवियों को खत्म
करती हैं। टीकाकरण के तीन माह बाद प्रतिभागियों को मलेरिया से संक्रमित किया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि टीके में प्रयुक्त संस्करण से लगभग 87.5 प्रतिशत लोगों को
सुरक्षा प्राप्त हुई जबकि अन्य संस्करणों से 77.5 प्रतिशत लोगों को सुरक्षा मिली।
जीवित परजीवी पर आधारित टीकों में इसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है।
वर्तमान में कई मलेरिया टीके विकसित किए जा रहे हैं। इनमें से सबसे विकसित RTS,S टीका है जिसकी प्रभाविता और
सुरक्षा का पता लगाने के लिए तीन अफ्रीकी देशों में पायलट कार्यक्रम के तहत 6.5
लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया जा चुका है। इसके अलावा R21 नामक एक अन्य टीके का हाल ही में 450 छोटे बच्चों पर
परीक्षण किया गया जिसमें 77 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की गई। एक व्यापक अध्ययन जारी
है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को ट्रिगर करने के लिए इन दोनों ही टीको
में एक ही मलेरिया प्रोटीन, सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन, का उपयोग किया गया है। यह प्रोटीन परजीवी की स्पोरोज़ॉइट अवस्था के बाह्य आवरण
पर पाया जाता है। मच्छरों से मानव शरीर में यही अवस्था प्रवेश करती है।
पिछले कई दशकों से टीका निर्माण के लिए संपूर्ण स्पोरोज़ॉइट्स का उपयोग करने के
तरीकों की खोज चल रही है। संपूर्ण परजीवी के उपयोग से प्रतिरक्षा प्रणाली को कई
लक्ष्य मिल जाते हैं। वायरसों के मामले में यह रणनीति कारगर रही है लेकिन मलेरिया
के संदर्भ में सफलता सीमित रही है। एक अध्ययन में देखा गया कि दुर्बलीकृत
स्पोरोज़ॉइट्स टीके के बाद व्यक्ति को परजीवी के अलग संस्करण से संक्रमित करने पर
मात्र 20 प्रतिशत सुरक्षा मिली।
कई वैज्ञानिकों का तर्क था कि जीवित परजीवी शरीर में खुद की प्रतिलिपियां
बनाएगा और इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक प्रोटीन पैदा करेगा, इसलिए प्रतिरक्षा भी अधिक उत्पन्न होनी चाहिए। इस संदर्भ में प्रयास जारी
हैं।
नए टीके में शोधकर्ताओं ने 42 लोगों में जीवित स्पोरोज़ॉइट्स इंजेक्ट किए। साथ
ही उन्हें दवाइयां भी दी गर्इं ताकि परजीवी को लीवर या रक्त में बीमारी पैदा करने
से रोका जा सके। यह तरीका काफी प्रभावी पाया गया और परजीवी के दक्षिण अमेरिका में
पाए जाने वाले एक अन्य संस्करण के विरुद्ध भी प्रभावी साबित हुआ। फिलहाल माली में
वयस्कों पर परीक्षण किया जा रहा है।
आशाजनक परिणाम के बावजूद बड़े पैमाने पर स्पोरोज़ॉइट टीकों का उत्पादन सबसे बड़ी
चुनौती है। स्पोरोज़ॉइट्स को मच्छरों की लार ग्रंथियों से प्राप्त करना और उनको
अत्यधिक कम तापमान पर रखना आवश्यक है जो वितरण में एक बड़ी बाधा है। पूर्व में इतने
बड़े स्तर पर मच्छरों का उपयोग करके कोई भी टीका नहीं बनाया गया है।
लेकिन मैरीलैंड स्थित एक जैव प्रौद्योगिकी कंपनी सनारिया स्पोरोज़ॉइट्स का उत्पादन मच्छरों के बिना करने के प्रयास कर रही है। कंपनी का प्रयास है कि जीन संपादन तकनीकों की मदद से मलेरिया परजीवी को जेनेटिक स्तर पर कमज़ोर किया जा सके ताकि टीके के साथ दवाइयां न देनी पड़ें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01806-1/d41586-021-01806-1_19314502.jp
कोरोनावायरस का डेल्टा संस्करण
सबसे पहले दिसंबर 2020 में महाराष्ट्र में
देखे जाने के बाद कुछ ही महीनों में दिल्ली में इसके विनाशकारी परिणाम देखने को मिले
और अप्रैल के अंत तक इसके प्रतिदिन लगभग 30,000 मामले दर्ज हुए। इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी के प्रमुख अनुराग अग्रवाल के अनुसार यह संस्करण काफी प्रभावी रहा जिसने अल्फा
संस्करण को बाहर कर दिया है।
वैसे दिल्ली में अधिकांश लोगों
के पहले से संक्रमित होने या टीकाकरण हो जाने के चलते बड़े प्रकोप की संभावना नहीं थी
लेकिन डेल्टा संस्करण की अधिक संक्रामकता और प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता के
कारण ये सुरक्षा अप्रभावी प्रतीत हुई। यह संस्करण दिल्ली से निकलकर अन्य देशों में
भी काफी तेज़ी से फैल गया और एक नई लहर के जोखिम को बढ़ा दिया।
यूके में 90 प्रतिशत मामलों में डेल्टा संस्करण पाया गया है।
इस कारण एक बार फिर कोविड-19 के मामलों में वृद्धि
हुई है जिसके चलते विभिन्न देशों में सुरक्षा के उपाय बढ़ा दिए गए। यह चेतावनी दी गई
है कि अगस्त के अंत तक युरोपीय यूनियन के कुल मामलों में 90 प्रतिशत डेल्टा संस्करण के होंगे। इसे ‘चिंताजनक संस्करण’ की
श्रेणी में रखा गया है।
संभावना है कि गर्मियों के
मौसम में यह अत्यधिक फैलेगा और विशेष रूप से उन युवाओं को लक्षित करेगा जिनका टीकाकरण
नहीं हुआ है। ऐसे हालात में गैर-टीकाकृत लोगों के लिए यह जानलेवा भी हो सकता है। ऐसे
में इसके प्रभाव, उत्परिवर्तन के पैटर्न
जैसे पहलुओं को समझना आवश्यक है।
इसमें सबसे पहले बात आती है
टीकों की। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड से प्राप्त डैटा से संकेत मिलते हैं कि फाइज़र-बायोएनटेक
और एस्ट्राज़ेनेका टीके अल्फा संस्करण की तुलना में इस नए संस्करण के प्रति थोड़ी कम
सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन कोविड-19 के बारे में बहुत कम जानकारी के कारण वि·ा भर में उपयोग किए जाने वाले अन्य टीकों द्वारा
सुरक्षा प्रदान करने के संदर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है।
डेल्टा संस्करण के संदर्भ
में दो बातों, अधिक संक्रामकता और
प्रतिरक्षा को चकमा देने, को महत्वपूर्ण माना
जा रहा है। माना जा रहा है कि डेल्टा संस्करण मूल संस्करण के मुकाबले दुगनी रफ्तार
से फैल सकता है।
इसके साथ ही, अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण से बिना
टीकाकृत लोगों के अस्पताल में पहुंचने की संभावना ज़्यादा है। अस्पताल में भर्ती होने
का जोखिम दुगना तक हो सकता है।
वैज्ञानिक डेल्टा संस्करण
की घातकता को समझने का प्रयास कर रहे हैं। वे वायरस की सतह के स्पाइक प्रोटीन (जो वायरस
को मानव कोशिका से जुड़ने में मदद करता है) के जीन में नौ उत्परिवर्तनों के सेट पर अध्ययन
कर रहे हैं। ऐसा एक उत्परिवर्तन P681R है जो ऐसे स्थान पर एमिनो एसिड में बदलाव करता
है जो वायरस के कोशिका-प्रवेश की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण है। अल्फा संस्करण
के उत्परिवर्तन ने इसे अधिक कुशल बनाया था जबकि डेल्टा संस्करण में यह और सुगम हो गया
है। यानी ये परिवर्तन वायरस को अधिक संक्रामक बनाते हैं।
वैसे जापानी शोधकर्ताओं द्वारा
प्रयोगशाला में बनाए गए कूट-वायरस में किए गए ऐसे ही उत्परिवर्तनों से संक्रामकता में
कोई वृद्धि नहीं हुई। भारत में भी समान उत्परिवर्तनों वाले अन्य कोरोनावायरस डेल्टा
जैसे सफल साबित नहीं हुए। लगता है कि इसके जीनोम में कुछ अन्य परिवर्तन भी हो रहे हैं।
कुछ वैज्ञानिक यह समझने की
कोशिश कर रहे हैं कि डेल्टा संस्करण प्रतिरक्षा को चकमा कैसे देता है। सेल में प्रकाशित
एक पेपर में एक स्पॉट को ‘सुपरसाइट’ के रूप में पहचाना गया है। बीमारी से स्वस्थ हो
चुके लोगों में अति-प्रबल एंटीबॉडी इसी सुपरसाइट को लक्षित करती हैं। डेल्टा के विशिष्ट
उत्परिवर्तनों के चलते एंटीबॉडी को वायरस से जुड़ने के लिए सीधा रास्ता समाप्त हो जाता
है। कई एक अन्य उत्परिवर्तन भी एंटीबॉडीज़ को
चकमा देने में मदद करते हैं। इसे समझने के लिए डेल्टा संस्करण के स्पाइक प्रोटीन में
परिवर्तनों की और गहराई से जांच करना होगी।
वैज्ञानिकों का मत है कि नए
संस्करण को तेज़ी से फैलने से रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम ज़रूरी हैं। टीकाकरण के
प्रयासों में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से ऐसे क्षेत्रों में जहां डेल्टा संस्करण के मामलों में तेज़ी से वृद्धि
हो रही है। इसके साथ ही कोविड-19 से बचने के लिए आवश्यक
सावधानियां जारी रखना भी ज़रूरी है।
ऐसे प्रयासों से जानें तो बचेंगी ही बल्कि वायरस को और अधिक विकसित होने से भी रोका जा सकेगा। उत्परिवर्तन के माध्यम से वायरस ज़्यादा संक्रामक और घातक हो सकता है, इसलिए यदि इसे फैलने का मौका मिला तो भविष्य में और ज़्यादा खतरनाक वायरस सामने आ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.dnaindia.com/sites/default/files/styles/full/public/2021/06/17/980048-covid-protocol-ians.jpg
यह गहरी चिंता का विषय है कि भारत में मुंह का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। वैश्विक कैंसर वेधशाला (ग्लोबो-कैन) के अनुसार वर्ष 2012-18 के बीच ही इसके मामलों में 114 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत व उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान व बांग्लादेश अब विश्व स्तर पर मुंह के कैंसर के सबसे बड़े केंद्र माने जाते हैं। भारत में पुरुषों को होने वाले कैंसर में 11 प्रतिशत मामले मुंह के कैंसर के हैं जबकि महिलाओं को होने वाले कैंसर में मुंह के कैंसर 4 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं। एक अध्ययन के अनुसार बांग्लादेश में प्रति वर्ष कैंसर के कुल नए मामलों में से 20 प्रतिशत मुंह के कैंसर के होते हैं। पाकिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि दक्षिण एशिया में यह कैंसर इतना क्यों बढ़ गया है, और बढ़ रहा है।
टाटा मेमोरियल सेंटर के हाल
के अध्ययन के अनुसार मुंह के कैंसर के इलाज पर वर्ष 2020 में भारत में 2386 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इससे पता चलता है कि यह इलाज कितना महंगा पड़ रहा है। इसके
ठीक होने की अधिक संभावना आरंभ में ही होती है, पर प्राय: दक्षिण एशिया में इसका निदान व इलाज बाद के चरणों
में होता है। इसका कारण यह है कि अपेक्षाकृत निर्धन लोग इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
स्पष्ट है कि बचाव पर ही अधिक
ध्यान देना बेहतर है क्योंकि बचाव के उपायों को भलीभांति अपना कर मुंह के कैंसर के
खतरे को काफी कम किया जा सकता है। इस रोग के बढ़ने के मुख्य कारणों की पहचान करके कमी
लाने का प्रयास करना चाहिए।
इस रोग का सबसे बड़ा कारण विभिन्न
रूपों में तंबाकू का उपयोग है, जैसे सिगरेट,
बीड़ी, गुटखा, आदि। मुंह के कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों में तंबाकू की कुछ न कुछ भूमिका
होती है, हालांकि बहुत से मामलों में
साथ में अन्य कारक भी होते हैं। भारत में तंबाकू का उपयोग (या दुरुपयोग) करने वाले
60 प्रतिशत लोग धूम्र रहित तंबाकू
(पावडर या किसी सूखे रूप में) का उपयोग करते हैं। गुटखे का उपयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा
है तथा दक्षिण एशिया में मुंह के कैंसर में गुटखे की मुख्य भूमिका है।
गुटखे में तंबाकू के अलावा
कई अन्य पदार्थ होते हैं। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों पर एक अदालत द्वारा केंद्रीय
समिति से जांच करवाई गई थी। समिति ने इसके स्वास्थ्य गंभीर संकटों के मद्दे नज़र इस
पर प्रतिबंध की संस्तुति की। कुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिबंध लगाए,
पर यह करोड़ों का व्यवसाय बन चुका है। अत: इसमें
कठिनाई आई व बिक्री जारी रखने के रास्ते निकाल लिए गए। एक रास्ता यह था कि तंबाकू व
अन्य पदार्थों को अलग-अलग पाउचों में बेचा जाए।
गुटखे में तंबाकू,
प्रोसेस्ड चूना, कत्था, सुपारी, मिठास-ताज़गी-सुगंध के पदार्थ होते हैं। तीखापन बढ़ाने
के लिए अनेक हानिकारक पदार्थों के होने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिदिन करोड़ों की संख्या
में इसके पाउच इधर-उधर फेंके जाने, इसे थूकने से गंदगी
व स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं। गुटखे को देर तक मुंह में रखने, चूसते रहने की आदत कई लोगों पर इतनी हावी हो जाती
है कि वे दिन की शुरुआत तक इससे करते हैं।
मुंह के कैंसर के अतिरिक्त
गुटखे से अनेक दर्दनाक स्थितियां व स्वास्थ्य समस्याएं भी जुड़ी हैं। जैसे ओरल सबम्यूकस
फायब्राोेसिस। इस स्थिति में मुंह खोलने की क्षमता निरंतर कम होती जाती है व अंत में
ऐसी स्थिति आ सकती है कि कुछ पीने के लिए मात्र एक नली ही कठिनाई से मुंह में डाली
जा सकती है।
तंबाकू के अतिरिक्त मुंह के
कैंसर की एक बड़ी वजह शराब का सेवन है। बहुत लंबे समय तक धूप में रहना भी होंठ के कैंसर
का कारण बन सकता है। मुख की स्वच्छता की कमी भी कैंसर का कारण बन सकती है, विशेषकर उन वृद्धों में जो लगभग 15 वर्ष से बत्तीसी उपयोग कर रहे हैं। पांचवा कारण
एच.पी.वी.-16 (एक यौन संचारित वायरस)
है। अंतिम कारण है सब्ज़ी व फल कम खाना तथा जंक फूड अधिक मात्रा में खाना।
इन सभी कारकों को कम करने के प्रयासों से मुख कैंसर में कमी आएगी। अलबत्ता, सबसे अधिक भूमिका तंबाकू, गुटखे व शराब को कम करने की है। यह ऐसी राह है जिससे अनेक अन्य समस्याएं भी कम होंगी। अत: इस बचाव की राह को जन अभियान का रूप देते हुए मुख कैंसर में कमी लाने की ओर बढ़ना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व आबादी के बुढ़ाने की दर में तेज़ी से बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप
वर्ष 2019 में विश्व की लगभग 9.1 प्रतिशत आबादी (70.3 करोड़ लोग) 65 वर्ष या उससे
अधिक उम्र की थी। और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर डेढ़ अरब (आबादी का
15.3 प्रतिशत) हो जाएगी। जैसे-जैसे आबादी की औसत उम्र बढ़ रही है, दृष्टि सम्बंधी विकारों का दबाव भी बढ़ रहा है। इन विकारों को टाला जा सकता है
यदि अंधेपन या मध्यम से लेकर गंभीर दृष्टि दोष के कुछ आम कारण – जैसे मोतियाबिंद, निकट या दूर दृष्टि दोष, ग्लूकोमा (कांचबिंदु) और
मधुमेहजनित रेटिनोपैथी – को प्रारंभिक अवस्था में पहचानने और उपचार करने का तंत्र
मौजूद हो। नेत्र रोगों से बचाव और उन्हें बहाल करने के लिए उपचार मुहैया कराना
बहुत ही नेक कार्य होगा। वास्तव में, विश्व के कई देश इस दिशा
में जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वे बड़ी मुस्तैदी के साथ दृष्टि
को बहाल करने में जुटे हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना बड़ा कार्य है।
फरवरी 2021 में लैंसेट में नेत्र रोग के वैश्विक बोझ पर प्रकाशित एक
बड़े अध्ययन में पिछले 30 सालों के आंकड़े बताते हैं कि भले ही इस दौरान अंधेपन की
समस्या को कम करने के प्रयासों में काफी प्रगति हुई है, लेकिन
अब भी इस दिशा में काफी काम करने की ज़रूरत है। लक्ष्य अभी दूर है, और अलग-अलग देशों की स्थिति में काफी भिन्नता है।
वर्तमान में पूरे विश्व में 50 वर्ष से अधिक उम्र के 1.5 करोड़ से अधिक लोग
मोतियाबिंद से ग्रसित हैं। इसके अलावा लगभग साढ़े आठ करोड़ लोग लेंस सम्बंधी विकारों
से पीड़ित हैं,
जिनका उपचार उचित चश्मा पहनाकर किया जा सकता है। यह आवश्यक
है कि अधिक से अधिक देश अपने क्षेत्र में इन समस्याओं को दूर करने के प्रयास करें
ताकि अनावश्यक ही अंधेपन का शिकार हो रहे लोगों की संख्या में कमी आए और अधिक से
अधिक लोग 20-20 दृष्टि का आनंद ले सकें।
प्रायद्वीपीय भारत (जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र का पूर्वी
हिस्सा,
तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी,
आंध्र प्रदेश और ओडिशा आते हैं) की आबादी लगभग 36 करोड़ है।
इनमें से लगभग 13 लाख लोग नेत्रहीन हैं, और 76 लाख लोग
इलाज-योग्य नेत्र समस्याओं, जैसे मोतियाबिंद और कमज़ोर नज़र, से पीड़ित हैं। यदि हम विभिन्न तरीकों से (या स्तरों पर) उपचार मुहैया करवाकर
अनावश्यक अंधापन कम करने के लिए एक कारगर प्रणाली स्थापित कर पाएं तो यह अंधेपन के
भार को कम करने की दिशा में बड़ी प्रगति होगी।
दरअसल,
प्रायद्वीपीय भारत में तीन उल्लेखनीय केंद्र हैं – मदुरै
स्थित अरविंद आई केयर सिस्टम, चेन्नई (और बैंगलुरु) स्थित
शंकर नेत्रालय और हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान। पहले दो केंद्र
शहर और उसके उपनगरों में नेत्रहीन लोगों का उपचार (देखभाल) करते हैं, और अरविंद आई केयर सिस्टम तमिलनाडु के कई ज़िलों में चलित सुविधाओं के माध्यम से
देखभाल और ज़रूरतमंदों के लिए मुफ्त इलाज मुहैया कराता है। इसी तरह शंकर नेत्रालय
भी चेन्नई व उसके उपनगरों में और बैंगलुरू व उसके उपनगरों में चलित सुविधा के
माध्यम से उपचार और ज़रूरतमंद गरीबों को मुफ्त उपचार देता हैं। एल. वी. प्रसाद
नेत्र संस्थान ने समूचे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों
(और महाराष्ट्र के नांदेड़) के लिए ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड प्रणाली
(स्तरित प्रणाली) स्थापित की है। इस पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर 208 से अधिक
ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण ‘दृष्टि केंद्र’ स्थापित किए गए हैं। इनमें से
प्रत्येक केंद्र लगभग 500-500 स्थानीय लोगों की मुफ्त नेत्र देखभाल कर रहे हैं।
जैसे चश्मा उपलब्ध करवाकर, मोतियाबिंद उपचार के लिए
नज़दीकी रोग विशेषज्ञ से उपचार कराने की सलाह देकर वगैरह। समुदायों से संपर्क की
महत्वपूर्ण कड़ी ‘दृष्टि रक्षकों’ की एक बड़ी फौज है। इन्हें अपने क्षेत्रों में
लोगों के साथ जुड़ने और उनके साथ नेत्र स्वास्थ्य और देखभाल पर बात करने के लिए
प्रशिक्षित किया गया है।
पिरामिड के दूसरे स्तर पर, 21 ग्रामीण नेत्र देखभाल
चिकित्सालय खोले गए हैं जो ज़िला स्तर पर लोगों की देखभाल या उपचार करते हैं। तीसरे
स्तर पर तीन केंद्र स्थापित किए गए हैं (हरेक की अपनी शाखाएं हैं)। ये केंद्र इलाज
के नियमित कार्यों के अलावा नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान भी करते हैं।
और पिरामिड के शीर्ष पर हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान है जो
विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे कार्यों पर लगातार (चौबीसों घंटे) निगरानी रखता है, और ज़रूरत पड़ने पर उनमें सुधार करता है।
सबसे अधिक सराहनीय यह है स्थानीय व्यापारी और अन्य सभी स्तरों पर मौजूद
सेवाभावी लोग ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड के कार्यों में मदद के लिए तत्पर
हैं – ग्रामीण स्तर (पिरामिड के सबसे निचले स्तर) पर लगभग 1000 लोग और ज़िला स्तर
के द्वितीयक केंद्रों पर लगभग दर्जन भर लोग कार्य कर रहे हैं। ये स्थानीय स्तर के
गेट्स या टाटा फाउंडेशन हैं, हम उनके इस परोपकार के तहेदिल
से आभारी हैं।
भारत के अन्य नेत्र विज्ञान केंद्रों की क्या स्थिति है? मुंबई स्थित आदित्य ज्योत केंद्र मुंबई, खास कर धारावी (जहां दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक लाख लोग रहते हैं) में सेवा देता है। प्रोजेक्ट प्रकाश दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अहमदाबाद, हरियाणा और अन्य जगहों पर कार्य कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे पिरामिड मॉडल का विश्लेषण कर रहे हैं, उसे बेहतर बना रहे हैं। और स्थानीय भौगोलिक व जनांकिक स्थितियों के आधार पर इसमें बदलाव कर इसे लागू करेंगे। हम उनका स्वागत करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं। दरअसल, हमें समूचे भारत में अधिकाधिक पिरामिडों की ज़रूरत है ताकि देश में कोई भी अनावश्यक ही अंधा न हो; पूरा भारत 20-20 दृष्टि का आनंद ले! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/qgokvr/article34993346.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/27TH-SCIEYE-CAREjpg
कोविड-19 संक्रमण से उबरने के बाद कई लोग लंबे समय तक तमाम
लक्षणों से जूझ रहे हैं। इसे दीर्घ कोविड कहा जाने लगा है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन
की तंत्रिका वैज्ञानिक एथेना अक्रामी ने 3,500 से अधिक लोगों पर किए अध्ययन में
दीर्घ कोविड के 205 लक्षण पाए हैं। इनमें थकान, सूखी
खांसी,
सांस में तकलीफ, सिरदर्द और मांसपेशीय
दर्द वगैरह शामिल हैं। थकान, काम के बाद अस्वस्थता और
संज्ञानात्मक विकार जैसे लक्षण छह महीने तक बने रहे। वैसे लक्षणों की तीव्रता
लगातार एक जैसी नहीं रहती, लोग बीच-बीच में थोड़ा बेहतर
महसूस करते हैं।
महामारी की शुरुआत में गंभीर मामलों से निपटने की प्राथमिकता में दीर्घ कोविड
की अनदेखी हुई। लेकिन मई 2020 में, पीड़ितों का एक फेसबुक ग्रुप
बना जिसमें वर्तमान में 40,000 से अधिक लोग जुड़े हैं।
अब दीर्घ कोविड सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचाना जा चुका है।
जनवरी में WHO ने कोविड-19 उपचार के
दिशानिर्देशों में जोड़ा है कि दीर्घ कोविड के मद्देनज़र कोविड-19 के रोगियों की
संक्रमण उपरांत देखभाल तक पहुंच होनी चाहिए।
कई फंडिंग एजेंसियां भी दीर्घ कोविड के विभिन्न अध्ययनों को वित्तीय समर्थन
देने के लिए आगे आई हैं। यूके बायोबैंक ने स्व-परीक्षण किट उपलब्ध कराने की योजना
बनाई है ताकि कोविड-19 से संक्रमितों की पहचान की जा सके और उन्हें अध्ययनों में
शामिल किया जा सके।
दीर्घ कोविड से सम्बंधित चार बड़े सवालों पर नेचर पत्रिका ने प्रकाश
डालने की कोशिश की है।
दीर्घ कोविड कितने लोगों में होता है, कौन अधिक जोखिम में है?
फिलहाल पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ ही लोगों को क्यों होता है
और अधिक जोखिम किसे है। अधिकांश शुरुआती अध्ययन उन लोगों पर ही हुए थे जो गंभीर
कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती हुए थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल
सेंटर की कार्डियोलॉजिस्ट अनी नलबंडियन और उनके साथियों ने नौ अध्ययनों के आधार पर
पाया कि कोविड-19 से उबरने के बाद 32.6 से 87.4 प्रतिशत रोगियों में कम से कम एक
लक्षण कई महीनों तक बना रहता है।
लेकिन वास्तव में कोविड-19 से संक्रमित अधिकांश लोग इतने बीमार नहीं पड़ते कि
उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। ऐसे लोग अध्ययनों से छूट जाते हैं। इसलिए यूके
के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (ONS) ने अप्रैल 2020 के बाद से कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए 20,000 से अधिक लोगों पर
नज़र रखी। ONS ने पाया कि उबरने के 12 हफ्ते
बाद भी 13.7 प्रतिशत लोगों ने कम से कम एक लक्षण अनुभव किया। आम तौर पर संक्रमण
मुक्त होने के बाद 4 हफ्ते से अधिक समय तक लक्षण बने रहते हैं तो इसे दीर्घ कोविड
कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह स्थिति अधिक दिखती है – 23
प्रतिशत महिलाओं और 19 प्रतिशत पुरुषों में संक्रमण के पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
मौजूद थे।
इसके अलावा अधेड़ लोगों में भी इसका जोखिम अधिक है। ONS के अनुसार, 35 से 49 वर्ष की आयु के 25.6
प्रतिशत लोगों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण बरकरार थे। युवाओं व वृद्ध लोगों में
ये कम दिखे। हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि बुज़ुर्गों में दीर्घ कोविड कम
दिखने की एक वजह यह हो सकती है कि अधिकतर संक्रमित बुज़ुर्गों की मृत्यु हो जाती
है। 2-11 वर्ष के लगभग 10 प्रतिशत संक्रमित बच्चों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
दिखे हैं।
अभी तक की समझ के आधार पर, अधिक जोखिम में कौन है इसका
पूर्वानुमान करने में उम्र, लिंग और संक्रमण के पहले
सप्ताह में लक्षणों की गंभीरता महत्वपूर्ण लगते हैं।
लेकिन कई अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि दीर्घ कोविड
से महज 10 प्रतिशत लोग ही क्यों प्रभावित होते हैं? लेकिन
यदि मात्र 10 प्रतिशत लोग भी प्रभावित होते हैं, तो भी
यह आंकड़ा लाखों में होगा।
दीर्घ कोविड क्यों होता है?
वैसे तो दीर्घ कोविड के विविध लक्षणों पर विस्तृत अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन यह होता क्यों है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चला है। देखा गया है कि
दीर्घ कोविड कई अंगों को प्रभावित करता है, इससे
लगता है कि यह बहु-तंत्रीय विकार है।
अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ हफ्तों बाद यह वायरस शरीर से लगभग खत्म हो
जाता है इसलिए यह संभावना तो कम है कि संक्रमण ही इतना लंबा चल रहा है। लेकिन
वायरस के अवशेष (जैसे प्रोटीन अणु) ज़रूर महीनों तक शरीर में बने रह सकते हैं। भले
ही ये अवशेष कोशिकाओं को संक्रमित न करें, लेकिन
हो सकता है कि वे शरीर के कामकाज में कुछ बाधा डालते हों।
इसके अलावा एक संभावना यह है कि दीर्घ कोविड प्रतिरक्षा प्रणाली के अति सक्रिय
होने और शरीर के बाकी हिस्सों पर हमला करने की वजह से होता है। यानी दीर्घ कोविड
एक ऑटोइम्यून बीमारी हो सकती है। अलबत्ता, यह
कहना जल्दबाज़ी होगी कि इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है। यह भी हो सकता है कि
अलग-अलग लोगों के लिए कारण अलग-अलग हों।
इसके कारण को बेहतर समझने के लिए पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन कोविड-19 स्टडी (PHOSP-COVID) के तहत यूके के 1000 से अधिक
रोगियों के रक्त के नमूनों में शोथ, हृदय सम्बंधी समस्याओं और अन्य
परिवर्तनों का पता लगाया जा रहा है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं
के एक दल ने कोविड-19 से पीड़ित 300 लोगों के हर चार महीने के अंतराल पर रक्त और
लार के नमूने लेकर उनमें शोथ, रक्त का थक्का बनाने वाली
प्रणाली में बदलाव और वायरस की मौजूदगी के प्रमाण तलाशे। अध्ययन में उन्होंने रक्त
में साइटोकाइन्स (जो प्रतिरक्षा का नियमन करते हैं) का स्तर परिवर्तित पाया। इससे
लगता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली असंतुलित थी। इसके अलावा ऐसे प्रोटीन संकेतक भी
मिले जो तंत्रिका तंत्र सम्बंधी विकार की ओर इशारा करते हैं। शोधकर्ता इस काम में
मशीन लर्निंग की भी मदद ले रहे हैं।
इसी कड़ी में PHOSP-COVID अध्ययन में शामिल रेचेल इवांस
और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके 1077 लोगों में
शारीरिक दुर्बलता, दुÏश्चता जैसी मानसिक-स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों और संज्ञानात्मक क्षति को जांचा।
उन्होंने इसमें उम्र और लिंग जैसी बुनियादी जानकारी शामिल की और जैव रासायनिक डैटा
(जैसे सी-रिएक्टिव प्रोटीन) का स्तर भी रिकॉर्ड किया। गणितीय विश्लेषण की मदद से
देखा गया कि क्या एक जैसे लक्षण वाले रोगियों के समूह दिखाई देते हैं? कोविड-19 की गंभीरता, या अंगों की क्षति के स्तर और
दीर्घ कोविड की गंभीरता के बीच बहुत कम सम्बंध पाया गया।
विश्लेषण में दीर्घ कोविड के भिन्न-भिन्न लक्षणों वाले चार समूहों की पहचान
हुई। तीन समूहों में अलग-अलग स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलता थी, जबकि संज्ञानात्मक समस्या नहीं या बहुत कम थी। चौथे समूह के लोगों में मध्यम
स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएं थी, लेकिन
संज्ञानात्मक समस्याएं अत्यधिक थीं।
क्या यह संक्रमण-उपरांत लक्षण है?
कुछ वैज्ञानिक के लिए दीर्घ कोविड की स्थिति कोई हैरत की बात नहीं थी। संक्रमण
ठीक होने के बाद लंबे समय तक लक्षण बने रहना कई मामलों में देखा गया है। दरअसल
मायेल्जिक एन्सेफलाइटिस या क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (ME/CFS) वायरस संक्रमणों के बाद उपजी एक स्थिति है जिसमें लोग
सिरदर्द,
थोड़े से काम के बाद काफी थकान जैसे लक्षणों का अनुभव करते
हैं।
वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके 253 लोगों पर हुए एक अध्ययन में देखा
गया था कि लगभग 12 प्रतिशत लोगों में 6 महीने बाद भी थकान, मांसपेशीय-कंकालीय
दर्द,
तंत्रिका सम्बंधी समस्या और मनोदशा में गड़बड़ी जैसे लक्षण
मौजूद थे। यानी दीर्घ कोविड संक्रमण-उपरांत लक्षण हो सकता है।
लेकिन दीर्घ कोविड के लक्षण ME/CFS से काफी अलग हैं। उदाहरण के लिए दीर्घ कोविड वाले लोगों में सांस की तकलीफ ME/CFS वाले लोगों की तुलना में अधिक
दिखती है।
क्या किया जा सकता है?
चूंकि इस विकार को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है इसलिए उपचार/मदद सम्बंधी
विकल्प काफी सीमित हैं। जर्मनी, इंगलैंड वगैरह कुछ देशों में
दीर्घ कोविड से पीड़ित लोगों के लिए क्लीनिक खोले जा रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन इस विकार से निपटने के लिए कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ज़रूरत है
क्योंकि दीर्घ कोविड शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित करता है। दीर्घ कोविड से
पीड़ित हर व्यक्ति में औसतन 16-17 लक्षण दिखाई देते हैं, लेकिन
अक्सर क्लीनिकों में सभी के उपचार की व्यवस्था नहीं होती।
इसकी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है। दीर्घ कोविड से जूझ रहे लोगों
को आराम की ज़रूरत है, अक्सर कई महीनों तक वे बहुत काम नहीं कर
सकते और ऐसे में उन्हें सहयोग की आवश्यकता है। खास तौर से श्रमिक वर्ग के लिए यह
एक बड़ी चुनौती हो सकती है। एक सुझाव है कि उनकी स्थिति को विकलांगता के रूप में
पहचाना जाना चाहिए।
कुछ लोग इसकी दवा खोजने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। यूके के HEAL-COVID नामक अध्ययन का उद्देश्य
दीर्घ कोविड की स्थिति बनने से रोकना है। इसमें कोविड-19 के अस्पताल में भर्ती
रोगियों को ठीक होने के बाद विशिष्ट दवाइयां दी जाएंगी।
और अंत में यह सवाल कि कोविड-19 के टीके इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं? बेशक ये टीके कोविड-19 के खिलाफ कारगर हैं लेकिन क्या वे दीर्घ कोविड से भी
बचाव करते हैं?
हालिया अध्ययन में दीर्घ कोविड से पीड़ित 800 लोगों पर टीके के प्रभाव जांचे
गए। इनमें से 57 प्रतिशत लोगों के लक्षणों में सुधार दिखा, 24
प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं दिखे और 19 प्रतिशत लोगों की हालत टीके की पहली
खुराक के बाद और बिगड़ गई। अनुमान है कि यदि संक्रमण पश्चात वायरस के कुछ अवशेष
शरीर में छूट भी गए हैं तो टीका उनका खात्मा कर सकता है या प्रतिरक्षा प्रणाली में
आए असंतुलन को ठीक कर सकता है।
कुल मिलाकर दुनिया भर के शोधकर्ता दीर्घ कोविड को समझने और लोगों को उससे उबारने की जद्दोजहद में हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/articles/d41586-021-01511-z
कोविड-19 टीकों की कमी का सामना करते हुए कुछ देशों ने एक
अप्रमाणित रणनीति अपनाई और टीके की खुराक के लिए अलग-अलग टीकों का उपयोग किया। आम
तौर पर अधिकांश टीकों की दो खुराक दी जाती है। लेकिन कनाडा और कई युरोपीय देश कुछ
रोगियों में दो खुराकों के लिए अलग-अलग टीकों के उपयोग की सिफारिश कर रहे हैं। और, शुरुआती आंकड़े बता रहे हैं कि मजबूरी की यह रणनीति वास्तव में लाभदायक हो सकती
है।
तीन अध्ययनों में रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला है कि एस्ट्राज़ेनेका
टीके की एक खुराक के बाद दूसरी खुराक के लिए फाइज़र-बायोएनटेक टीके का उपयोग करने
से मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित होती है। इनमें से दो अध्ययनों से यह भी
पता चला है कि मिश्रित टीकों से फाइज़र-बायोएनटेक की दो खुराकों के बराबर सुरक्षा
मिलेगी जो सबसे प्रभावी कोविड-19 टीकों में से एक है।
यदि टीकों का मिला-जुला उपयोग सुरक्षित और प्रभावी होता साबित है तो अरबों
लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। क्लीनिकल रिसर्च स्पेशलिस्ट क्रिस्टोबल
बेल्डा-इनिएस्ता के अनुसार तब दूसरी खुराक के लिए उसी टीके की उपलब्धता की चिंता
नहीं रहेगी। उनके नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 448 लोगों में एस्ट्राज़ेनेका
और बायोएनटेक टीकों के मिले-जुले उपयोग में दूसरी खुराक के दो सप्ताह बाद मामूली
साइड इफेक्ट और मज़बूत एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देखी गई।
इसी तरह बर्लिन स्थित चैरिटी युनिवर्सिटी हॉस्पिटल में 61 स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं को 10 से 12 सप्ताह के अंतराल से दो खुराकें दी गर्इं। इन सभी
कार्यकर्ताओं में स्पाइक एंटीबॉडी पाई गई जो तीन सप्ताह के अंतराल में
फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दोनों खुराकें प्राप्त होने के बाद पाई गई थीं और कोई
साइड इफेक्ट भी नहीं हुआ। इसके अलावा, एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को
बढ़ावा देने वाली और शरीर को संक्रमित कोशिकाओं से छुटकारा दिलाने वाली टी-कोशिकाओं
की प्रतिक्रया भी पूरी तरह फाइज़र-बायोएनटेक से टीकाकृत लोगों से अधिक पाई गर्इं।
जर्मनी की टीम ने एक छोटे अध्ययन में लगभग समान परिणाम सामने पाए हैं।
इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों का मत है कि दो अलग-अलग टीकों की खुराकें
अधिक शक्तिशाली साबित हो सकती हैं। गौरतलब है कि दो टीकों को मिलाकर उपयोग करने से
प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगजनकों को पहचानने के कई तरीके मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों
के अनुसार mRNA आधारित टीके एंटीबॉडी
प्रतिक्रिया को तेज़ करते हैं और वेक्टर-आधारित टीके टी-कोशिका प्रतिक्रियाओं को शुरू
करते हैं। इसलिए दो प्रकार के टीकों का उपयोग करने पर बेहतर परिणाम मिलते हैं।
अलबत्ता,
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है और
लंबे समय के अध्ययनों की ज़रूरत है। फिलहाल वैज्ञानिक लगभग 100 लोगों में आठ
विभिन्न प्रकार के टीकों को अदल-बदल कर लगाने का प्रयास कर रहे
हैं और साथ ही दो खुराकों के बीच के अंतराल में भी परिवर्तन करके अध्ययन किया
जाएगा।
फिर भी, ये निष्कर्ष नीति परिवर्तन के लिए सहायक सिद्ध हुए हैं। स्पेन ने 60 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए मिश्रित टीकों के उपयोग करने की अनुमति दी है। कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे और डेनमार्क जैसे देश जिन्होंने एस्ट्राज़ेनेका टीकों पर आयु सीमा निर्धारित की थी उन्होंने भी इस तरह के सुझाव दिए हैं। आगे चलकर और अधिक टीके शामिल किए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vials_1280p_0.jpg?itok=iEYFoEVj
स्कूल के दिनों की सुखद यादों में हमें अक्सर परख नलियों, बुन्सन बर्नर की मदद से किए गए रसायन विज्ञान के प्रयोग भी याद आते हैं। रसायन
विज्ञान अणुओं के गुणों का अध्ययन है। हर सजीव या निर्जीव चीज़ अणुओं से बनी होती
है। लेकिन स्कूल में पढ़ाए गए साधारण रसायन, जैसे
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (जिसमें दो परमाणु होते हैं – एक हाइड्रोजन; एक क्लोरीन),
जैविक रसायन विज्ञान की जटिलताओं के सामने बौने पड़ जाते
हैं। किसी प्रोटीन अणु में हज़ारों परमाणु हो सकते हैं।
अणुओं का अनुरूपण
रासायनिक सिद्धांतों के बढ़ते ज्ञान के कारण ‘परख नली’ से आगे बढ़कर अणुओं का
सैद्धांतिक अध्ययन, उनकी संरचना और अन्य अणुओं से उनकी परस्पर
क्रिया का अध्ययन संभव हो गया है। उदाहरण के लिए जिस तरह अनुरूपण (सिमुलेशन) गेम
में कंप्यूटर के पर्दे पर विमान के उड़ने-उतरने का अनुरूपण किया जाता है, उसी तरह जटिल जैविक अणुओं की परस्पर क्रिया का भी पर्याप्त सटीकता के साथ
अनुरूपण किया जा सकता है। अनुरूपण चाहे विमान की उड़ान का हो या अणुओं का, अनुरूपण की गणितीय विधियों को भौतिकी के मूलभूत नियमों से जोड़ा जाता है।
देखा जाए तो कोई भी प्रोटीन एक-दूसरे से जुड़े अमीनो एसिड (20 अमीनो एसिड, जिनमें से प्रत्येक अमिनो एसिड 10 से 27 परमाणुओं से बना होता है) की एक सीधी शृंखला
ही तो है,
जो बड़े करीने से एक अद्वितीय आकार में तह की गई होती है।
प्रत्येक अमीनो एसिड पर आवेश (धनात्मक, ऋणात्मक, उदासीन) या उसके जुड़ने (या चिपकने) की क्षमता भिन्न होती है। अमीनो एसिड की इस
शृंखला के कुछ हिस्से अणु की गहराई में दबे होते हैं। और बाकी हिस्से सतह पर होते
हैं। सतह पर मौजूद अमीनो एसिड ही अन्य प्रोटीन्स से लेन-देन करते हैं – ये कोई
संरचना बनाने,
ग्राही तथा एंटीबॉडी आदि से जुड़ने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अब हम वास्तविक दुनिया का रुख करते हैं। हममें से कई लोगों
ने कोविड-19 महामारी की प्रगति पर लगातार नज़र रखी है, और
इसके थमने या धीमा होने के संकेतों पर नज़र रखी है। हमने नई शब्दावली सीखी है, और कंटीले स्पाइक वाले गेंदनुमा वायरस की डरावनी छवि के आदी भी हो गए हैं।
वर्तमान में हम इस वायरस के नवीन और अधिक चिंताजनक संस्करणों का सामना कर रहे
हैं। प्रत्येक संस्करण को या तो उसके भौगोलिक उत्पत्ति, या
डब्ल्यूएचओ नामकरण पद्धति (अल्फा, बीटा, आदि)
से मिले नाम,
या ज़्यादा सटीक E484K, D614G जैसे नामों से पुकारा जाता है। E484K, D614G जैसी ये संख्याएं हमें प्रोटीन में अमीनो एसिड की रैखीय शृंखला का ध्यान
दिलाती हैं। इस मामले में यह वायरस की सतह पर मौजूद स्पाइक प्रोटीन है।
स्पाइक प्रोटीन संक्रमण शुरू करता है – यह हमारे फेफड़ों और अन्य ऊतकों की
कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ग्राहियों से जुड़ जाता है। यह प्रोटीन अणु 1273 अमीनो
एसिड की एक शृंखला है, और तीन अलग-अलग अणु मिलकर वायरस का
‘स्पाइक’ बनाते हैं। वायरस संस्करण E484K में संख्या 484 अमीनो एसिड की इस शृंखला
के 484वें स्थान की द्योतक है। E इस स्थान पर पहले संस्करण में मौजूद ऋणात्मक आवेश वाले अमीनो एसिड ग्लूटामेट
का संकेत है जो मेज़बान ग्राही से जाकर जुड़ता है। पूरा नाम दर्शाता है कि इस
संस्करण में ऋणावेशित E
(ग्लूटामेट) का स्थान अब धनावेशित अमीनो एसिड K (लाइसीन) ने ले लिया है। यह वाला उत्परिवर्तन बीटा और गामा
संस्करणों में पाया गया है।
उत्परिवर्तन का प्रभाव
गौरतलब है कि उत्परिवर्तन में ऋणात्मक आवेश वाले ग्लूटामेट का स्थान धनात्मक
आवेश वाले लाइसीन ने ले लिया है। क्या यह हम मनुष्यों के लिए अच्छी खबर है? उपलब्ध मैदानी आंकड़ों से पता चलता है कि वायरस का यह संस्करण अधिक संक्रामक
है। और तो और,
वायरस का यह संस्करण वायरस के खिलाफ बनी एंटीबॉडी से बच
निकलने में भी सक्षम है।
सुर्खियों में छाए डेल्टा संस्करण में E484Q उत्परिवर्तन
हुआ है। इसमें Q का
मतलब ग्लूटामाइन है, जो ग्लूटामेट (E) से बहुत अलग नहीं है लेकिन Q उदासीन और ध्रुवीय है।
एक अन्य उत्परिवर्तन है L452 R। यह उत्परिवर्तन भी स्पाइक के ग्राही से बंधने वाले स्थान पर हुआ है। इसमें L का मतलब है ल्यूसीन जो कि अनावेशित और
‘चिपचिपा’ अमीनो एसिड है, और R धनावेशित आर्जिनीन है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि वायरस के कई चिंताजनक संस्करणों के स्पाइक
प्रोटीन के ग्राही से जुड़ने वाले हिस्से में सिर्फ एक या दो अमीनो एसिड में
परिवर्तन नहीं हुए हैं। यूके में पहली बार देखे गए अल्फा संस्करण में कुल 23
उत्परिवर्तन हैं। इनमें से नौ उत्परिवर्तन स्पाइक प्रोटीन के किसी अन्य भाग में
हुए हैं और कुछ अन्य उत्परिवर्तन वायरस के अन्य भागों में हुए हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझा नहीं जा सका है।
यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के परिवर्तन – विशाल अणु में एक या दो प्रतिस्थापन – का काफी कुशल और काफी विश्वसनीय कंप्यूटर मॉडल तैयार किया जा सकता है। जब भी वायरस प्रोटीन का नया संस्करण सामने आता है तो इस तरह की मॉडलिंग करके हम उसके बारे में त्वरित अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा, मॉडलिंग हमें वायरस के प्रोटीन से मज़बूती से जुड़ने वाली औषधियों के अणुओं को डिज़ाइन करने और उन्हें परिष्कृत करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के लिए, कोरोनावायरस में एक एंज़ाइम होता है (प्रोटीएज़ वर्ग का एंज़ाइम), जो नए वायरस कण बनने से पहले स्पाइक प्रोटीन में कांट-छांट करके उसे सही आकार देता है। यदि औषधि अणु इस एंज़ाइम से कसकर बंध जाए, तो वह इस कांट-छांट को रोक कर वायरस की वृद्धि बाधित करेगा। आणविक मॉडलिंग से हज़ारों संभावित औषधियों में कुछ सर्वाधिक कारगर अणुओं को पहचानने में मदद मिलती है, जिनकी कारगरता फिर प्रयोगशाला में जांची जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/5c31ej/article34799223.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/Figure-1-new
महामारी की शुरुआत से वैज्ञानिक कोविड-19 के उपचार के लिए
एंटीबॉडी विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल कई एंटीबॉडी क्लीनिकल परीक्षण
के अंतिम दौर में हैं और कइयों को अमेरिका और अन्य देशों की नियामक एजेंसियों
द्वारा आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है।
अलबत्ता,
डॉक्टरों के बीच एंटीबॉडी उपचार अधिक लोकप्रिय नहीं है।
गौरतलब है कि फिलहाल एंटीबॉडी इंट्रावीनस मार्ग (रक्त शिराओं) से दी जाती हैं न कि
सीधे सांस मार्ग जबकि वायरस मुख्य रूप से वहीं पाया जाता है। इस वजह से काफी अधिक
मात्रा में एंटीबॉडी का उपयोग करना होता है। एक अन्य चुनौती यह है कि सार्स-कोव-2
वायरस के कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जो एंटीबॉडीज़ को चकमा देने में सक्षम हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के हेल्थ साइंस सेंटर के
एंटीबॉडी इंजीनियर ज़ीचियांग एन और उनकी टीम ने ऐसी एंटीबॉडी विकसित कीं जिन्हें
सीधे श्वसन मार्ग में पहुंचाया जा सके जहां उनकी ज़रूरत है। इसके लिए टीम ने स्वस्थ
हो चुके लोगों की हज़ारों एंटीबॉडीज़ की जांच की और अंतत: ऐसी एंटीबॉडीज़ पर ध्यान
केंद्रित किया जो सार्स-कोव-2 के उस घटक की पहचान कर पाएं जो वायरस को कोशिकाओं
में प्रवेश करने में मदद करता है। इनमें से सबसे प्रभावी IgG एंटीबॉडीज़ पाई गर्इं जो संक्रमण के बाद अपेक्षाकृत देर से
प्रकट होती हैं लेकिन विशिष्ट रूप से किसी रोगजनक के खिलाफ कारगर होती हैं।
इसके बाद टीम ने सार्स-कोव-2 को लक्षित करने वाले IgG अंशों को IgM नामक एक अन्य अणु से जोड़ा। IgM संक्रमण के प्रति काफी शुरुआती दौर में प्रतिक्रिया देता है। इस तरह से तैयार
किए गए IgM ने सार्स-कोव-2 के 20
संस्करणों के विरुद्ध मात्र IgG की तुलना में अधिक शक्तिशाली प्रभाव दर्शाया। नेचर में प्रकाशित
रिपोर्ट के अनुसार जब विकसित किए गए IgM को चूहों के श्वसन मार्ग में संक्रमण के 6 घंटे पहले या 6 घंटे बाद डाला गया
तो दो दिनों के भीतर चूहों में वायरस का संक्रमण कम हो गया।
लेकिन फिलहाल ये प्रयोग चूहों पर किए गए हैं और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या
ये एंटीबॉडी मनुष्यों में उसी तरह से काम करेंगी।
एन का मत है कि यह एंटीबॉडी एक तरह का रासायनिक मास्क है जिसका उपयोग सार्स-कोव-2
के संपर्क में आए व्यक्ति कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए रक्षा का एक और कवच हो
सकता है जो टीका लगने के बाद पूरी तरह सुरक्षित नहीं हुए हैं।
IgM अणु अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैं, इसलिए इनको नेज़ल स्प्रे के रूप में आपातकालीन उपयोग के लिए रखा जा सकता है। फिलहाल कैलिफोर्निया आधारित IgM बायोसाइंस नामक एक बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी द्वारा एन के साथ मिलकर इस एंटीबॉडी के क्लीनिकल परीक्षण की योजना है। (स्रोत फीचर्स)
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आजकल अखबारों में, नेट पर,
सोशल मीडिया पर ऐसे
पौधों की सूचियों की भरमार है जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वे रात
में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया (https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/home-garden/5-plants-that-release-oxygen-at-night/photostory/59969056.cms) में छपी यह खबर ‘फाइव प्लांट्स रिलीज़
ऑक्सीजन एट नाइट’। ये पांच पौधे हैं एलो वेरा,
स्नेक प्लांट, ऑर्किड, नीम
और पीपल। इनमें पहले तीन पौधे तो ‘कैम’ प्रकार के हैं परंतु बाकी दो सामान्य प्रकार
के हैं। अर्थात अन्य सभी पौधों जैसा प्रकाश संश्लेषण करने वाले हैं। कैम के बारे
में आगे बात करते हैं। एक और साइट है फर्न एंड पेटल्स जिसमें आलेख है ‘9 प्लांट
रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। नाम हैं एलो वेरा,
पीपल, स्नेक
प्लांट, अरेका पाम, नीम,
ऑर्किड, जरबेरा, क्रिसमस
कैक्टस, तुलसी, मनी प्लांट।
इन सब में कहीं ना कहीं नासा का ज़िक्र है।
परंतु नासा की मूल रिपोर्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ये पौधे रात में
ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस रिपोर्ट में यह ज़रूर कहा गया है कि ये तरह-तरह के वाष्पशील
पदार्थों को सोखकर घर के अंदर की हवा को साफ करते हैं। ये हवा से रात में भी
कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर कैम पौधे हैं।
हद तो तब हो गई जब प्राणी विज्ञान के मेरे
एक परिचित प्राध्यापक ने रोज़ मेरे मोबाइल पर चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ने वाले
पौधों की लिस्ट भेजना शुरू कर दिया। मैंने उन्हें बताया कि ऐसा नहीं हो सकता परंतु
वे मानते ही नहीं, पौधों की सूची रोज़ डाल देते हैं।
1989 में प्रकाशित नासा की उक्त रिपोर्ट
में 15 पौधों की सूची है। इनमें इंग्लिश आईवी,
स्पाइडर प्लांट, पीस
लिली, चाइनीस एवरग्रीन, बैम्बू पाम,
हार्टलीफ
फिलोडेंड्रॉन, एलीफैंट फिलोडेंड्रॉन,
गोल्डन पोथास, ड्रेसीना
की विभिन्न किस्में, फाइकस बेंजामिना आदि के नाम हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये हवा
को साफ करते हैं, हमारे आसपास की हवा से प्रदूषक पदार्थों को हटाते हैं। ये
मुख्य रूप से बेंज़ीन, फॉर्मेल्डिहाइड, ट्राइक्लोरोएथेन,
ज़ायलीन, अमोनिया
जैसे वाष्पशील पदार्थों को सोखते हैं। साथ ही कार्बन डाईऑक्साइड भी सोखते हैं।
इनमें से कुछ पौधे कैम प्रकार के भी हैं। रात में स्टोमैटा खुले होने के कारण ये
इन प्रदूषकों को सोखते रहते हैं। रिपोर्ट में रात में ऑक्सीजन छोड़ने का ज़िक्र कहीं
नहीं है।
तो भ्रम का कारण क्या है?
मुझे लगता है कि यह भ्रम आधी-अधूरी जानकारी
से उत्पन्न हुआ है। हमने यह तो पढ़ लिया कि कैम पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण करते
हैं पर यह ध्यान नहीं दिया कि इस क्रिया का कौन-सा चरण रात में और कौन-सा चरण दिन
में चलता है। इस क्रिया के कितने चरण हैं?
और कौन, कब
और कैसे कार्य करता है?
पौधों में भोजन निर्माण अर्थात प्रकाश
संश्लेषण एक बहुत ही जटिल जैव रासायनिक क्रिया है। इसमें चार चीज़ों की ज़रूरत होती
है। पहला, प्रकाश; सामान्यत: इसका स्रोत सूर्य का प्रकाश ही
है। वैसे कृत्रिम प्रकाश यानी फिलामेंट बल्ब,
सीएफएल या एलईडी की
तेज़ रोशनी में भी यह क्रिया हो सकती है। दूसरा,
पानी (जो जड़ों से
सोखा जाता है); तीसरा, कार्बन डाईऑक्साइड (गैस जो हवा से मिलती
है)। और चौथा है क्लोरोफिल यानी पत्तियों में उपस्थित हरा पदार्थ। पौधों में भोजन
निर्माण की क्रिया को एकदम सरल रूप में हम यू लिख सकते हैं
यह जटिल जैव रासायनिक क्रिया पौधों में 2
चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी होता है। अत: इसे
प्रकाश-निर्भर क्रिया कहते हैं। इसमें पानी भाग लेता है,
कुछ इस तरह – क्लोरोफिल की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश
की ऊर्जा पानी के अणु को तोड़ती है जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन बनती है और साथ में
एटीपी और एनएडीपीएच जैसे अणुओं के रूप में रासायनिक ऊर्जा संचित कर ली जाती है। इसके
लिए प्रकाश ज़रूरी है।
अर्थात भोजन निर्माण (प्रकाश संश्लेषण) के
प्रथम चरण में हरे पौधे प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। इसे
प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया कहते हैं और ऑक्सीजन इसी के दौरान निकलती है। यह ऑक्सीजन
स्टोमैटा के रास्ते हवा में विसरित हो जाती है। अन्य सभी जीवों के लिए ऑक्सीजन का
यही स्रोत है।
प्रकाश संश्लेषण के दूसरे चरण को डार्क
रिएक्शन (प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया) कहते हैं। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी नहीं होता
परंतु यह प्रकाश की उपस्थिति में भी चलती रह सकती है और चलती है। अर्थात सामान्य
पौधों में प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया दिन में साथ-साथ
लगातार चलती रहती हैं। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के दौरान उस रासायनिक ऊर्जा का
उपयोग होता है जो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के दौरान रासायनिक रूप संचित हुई थी।
प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया को हम कुछ इस प्रकार लिख सकते हैं
कार्बन डाईऑक्साइड + एटीपी + एनडीपीएच = कार्बोहाइड्रेट +
पानी +
एडीपी + एनएडीपी
अधिकांश पौधों में यही चरण होते हैं। इन
सामान्य पौधों के अलावा कुछ ऐसे भी पौधे हैं जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में उगते
हैं। यहां पानी की कमी होती है और गर्मी अधिक होती है। लिहाज़ा, पानी
बचाने के लिए इन पौधों के स्टोमैटा दिन में बंद रहते हैं और रात में खुलते हैं।
इन्हें क्रेसुलेसियन एसिड मेटाबोलिज़्म (कैम) पौधे कहा जाता है। इस प्रक्रिया को
सबसे पहले क्रेसुलेसी कुल के पौधों में खोजा गया था।
स्टोमैटा बंद होने के कारण कैम पौधों में
दिन के समय गैसों का आदान-प्रदान बहुत कम होता है। रात में स्टोमैटा खुले रहते हैं
और हवा की आवाजाही रहती है। अत: रात के समय ये पौधे कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण
करते हैं। इस कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में परिवर्तित करके
पत्तियों की कोशिकाओं में जमा कर लिया जाता है।
दिन में जब इन कोशिकाओं पर सूर्य की रोशनी गिरती है तब स्टोमैटा तो बंद रहते हैं परंतु रात में बने कार्बनिक अम्लों के टूटने से कार्बन डाईऑक्साइड बनने लगती है जो प्रकाश संश्लेषण की सामान्य क्रिया में भाग लेती है। यह पहले चरण (प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया) में बनी ऑक्सीजन एवं रासायनिक ऊर्जा अर्थात एटीपी और एनएडीपीएच द्वारा प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के रास्ते कार्बोहायड्रेट में बदल जाती है।
कैम-प्रेमियों के लिए वैसे तो यह स्पष्ट ही है कि पौधा चाहे सामान्य प्रकाश संश्लेषण करने वाला हो या कैम चक्र की मदद लेता हो, ऑक्सीजन का उत्पादन तो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के चरण में ही होता है और ज़ाहिर है यह अभिक्रिया दिन में होती है। लेकिन फिर भी यदि किसी कैम प्रेमी को पीपल के नीचे रात बिताकर ऑक्सीजन प्राप्त करने की धुन सवार है, तो एक सूचना काफी लाभदायक हो सकती है। पता यह चला है कि पीपल का पेड़ या पौधा उसी स्थिति में कैम चक्र का उपयोग करता है जव वह किसी अन्य पेड़ के ऊपर उगा हो। मिट्टी में लगा पीपल का पेड़ सामान्य प्रकाश संश्लेषण ही करता है। ज़ाहिर है किसी अन्य पेड़ के ऊपर पीपल के नन्हे पौधे ही उगते हैं, पेड़ तो ज़मीन पर ही होते हैं। तो कैम-सुख के लिए (यदि रात में ऑक्सीजन देने में मददगार हो तो भी) आपको किसी पेड़ के ऊपर उगे पीपल के पेड़ ढूंढने होंगे।
कैम पौधे इस मायने में विशिष्ट हैं उनमें
रात में कैम चक्र चलता है। लेकिन दिन में उसी कोशिका में प्रकाश-निर्भर क्रिया और
प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया (केल्विन चक्र) दोनों चलते रहते हैं। अत: स्पष्ट है कि
रात में ये ऑक्सीजन नहीं छोड़ते क्योंकि रात में उनमें प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया
नहीं होती। रात में तो केवल कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण ही होता है। यानी
सामान्य पौधों एवं कैम पौधों में अंतर सिर्फ इतना है कि कैम पौधों में कार्बन
डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में जमा करके रखा जाता है और बाद में मुक्त
कर दिया जाता है। शेष प्रक्रिया तो वही है।
सवाल यह है कि क्या कुछ पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण का प्रथम चरण यानी प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। इसका जवाब है कि यह संभव नहीं है क्योंकि प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया में पानी को तोड़कर उससे ऑक्सीजन मुक्त करने की क्रिया के लिए प्रकाश की जितनी मात्रा चाहिए रात में नहीं मिलती। यहां तक कि चांदनी रात में भी नहीं, क्योंकि पूर्णिमा की रात को भी चंद्रमा से दिन के सूर्य के प्रकाश की तुलना में 32 हज़ार गुना कम प्रकाश मिलता है। अत: यह कहना गलत है कि कैम पौधे (जैसे एलो वेरा, स्नेक प्लांट आदि) रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हां, ये आसपास की हवा को साफ ज़रूर करते हैं। अत: कैम पौधे एयर प्यूरीफायर हो सकते हैं परंतु रात में ऑक्सीजन प्रदाता कदापि नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/photo/59969755.cms
वर्ष 1918 में उस समय के नए इन्फ्लुएंज़ा स्ट्रेन से मारे गए
दो जर्मन सैनिकों के फेफड़ों से बीसवीं सदी की सबसे विनाशकारी महामारी की आणविक झलक
देखने को मिली है। इन दोनों सैनिकों के फेफड़े लगभग सौ वर्षों से बर्लिन म्यूज़ियम
ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में फॉर्मेलिन में संरक्षित रखे हुए हैं। हाल ही में
शोधकर्ताओं ने इन फेफड़ों में से वायरस के जीनोम के बड़े हिस्से को सफलतापूर्वक
अनुक्रमित किया है। इन आंशिक जीनोम्स में इस बात के सुराग मिले हैं कि शायद इस
फ्लू महामारी की दो लहरों के बीच यह वायरस मनुष्यों के साथ अनुकूलित हुआ होगा।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने 1918 में कभी जान गंवाने वाली म्यूनिश की एक महिला से
प्राप्त रोगजनक के पूरे जीनोम को भी अनुक्रमित किया है। यह रोगजनक वायरस का तीसरा
ऐसा जीनोम है और उत्तरी अमेरिका के बाहर का पहला। संग्रहालय में संरक्षित सामग्री
से आरएनए वायरस को पुनर्जीवित करने के ऐसे काम की पूर्व में सिर्फ कल्पना की जा
सकती थी।
गौरतलब है कि वर्तमान में जीनोम अनुक्रमण
एक नियमित कार्य हो गया है। कोरोनावायरस महामारी के दौरान शोधकर्ताओं द्वारा
सार्स-कोव-2 के 10 लाख से अधिक जीनोम का डैटाबेस एकत्रित किया गया है जिससे नए
संस्करणों निगरानी की जा सकी है। लेकिन 1918-19 में महामारी के लिए ज़िम्मेदार
एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा वायरस के बहुत कम अनुक्रमण उपलब्ध हैं।
इससे पहले 2000 के दशक में अमेरिका के कुछ
वैज्ञानिकों ने अलास्का की बर्फ में दफन एक महिला के शरीर से प्राप्त नमूनों से एक
पूरा जीनोम तैयार किया था। इसी तरह 2013 में आर्म्ड
फोर्सेस इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में
संरक्षित नमूनों से अमेरिका के घातक फ्लू का दूसरा जीनोम पुनर्निर्मित किया गया। दोनों
ही प्रयास काफी श्रमसाध्य और महंगे थे।
इसी तरह के एक प्रयास में रॉबर्ट कोच
इंस्टीट्यूट के जीव वैज्ञानिक सेबेस्टियन कैल्विनैक और उनके सहयोगियों ने 1900 से
1931 के बीच बर्लिन के चिकित्सा संग्रहालय में संरक्षित फेफड़ों के ऊतकों के 13
नमूनों की जांच की। उनमें से तीन नमूनों में फ्लू वायरस के आरएनए मिले जो डेटिंग
करने पर 1918 के समय के पाए गए। गौरतलब है कि सार्स-कोव-2 की तरह इन्फ्लुएंज़ा
वायरस का जीनोम भी आरएनए आधारित था। आरएनए कई टुकड़ों में था लेकिन यह वायरस के
पूरे जीनोम को तैयार करने के लिए काफी था। यह एक 17 वर्ष की महिला का था और दोनों
सैनिकों में पाए गए जीनोम को 90 प्रतिशत और 60 प्रतिशत तक तैयार किया जा सका।
दो सैनिकों से प्राप्त आंशिक जीनोम महामारी
की पहली और हल्की लहर के समय के हैं जिसके बाद 1918 के अंत में इसने काफी गंभीर
रूप ले लिया था। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह वायरस पक्षियों से उत्पन्न हुआ था
और पहली और दूसरी लहर के बीच मनुष्यों में बेहतर ढंग से अनुकूलित हो गया। इसका एक
कारण वायरस की सतह पर उपस्थित एक महत्वपूर्ण प्रोटीन हीमग्लूटिनिन के लिए
ज़िम्मेदार जीन हो सकता है। इसमें अमीनो अम्ल की अदला-बदली वाला उत्परिवर्तन हुआ
जिसमें पक्षियों के फ्लू वायरस में पाए जाने वाले एक अमीनो अम्ल ग्लायसिन की जगह
एस्पार्टिक अम्ल ने ले ली। यह एस्पार्टिक अम्ल मनुष्यों के वायरस की विशेषता होती
है। हालांकि, दोनों जर्मन अनुक्रमों में एस्पार्टिक अम्ल ऐसी स्थिति में
था जिससे यह बात संभव नहीं लगती।
फिर भी शोधकर्ताओं को वायरस के
न्यूक्लियोप्रोटीन के जीन में विकास के संकेत मिले हैं। वास्तव में
न्यूक्लियोप्रोटीन एक ऐसा प्रोटीन है जो यह निर्धारित करने में मदद करता है कि
वायरस किस प्रजाति को संक्रमित कर सकता है। 1918 की महामारी के अंत में पाए गए
दोनों फ्लू स्ट्रेन के जीन में दो ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए जो इन्फ्लुएंज़ा को मानव
शरीर की प्राकृतिक एंटीवायरल सुरक्षा से बचने में मदद करते हैं। जर्मन सैनिकों से
प्राप्त अनुक्रम पक्षियों से मेल खाते हैं। कैल्विनैक के अनुसार महामारी के शुरुआती
महीनों में मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से खुद को बेहतर तरीके से बचाने के लिए
वायरस विकसित हुआ। इसी तरह महिला के फ्लू स्ट्रेन में भी पक्षियों के समान
न्यूक्लियोप्रोटीन पाए गए जबकि उसकी मृत्यु की अनिश्चित तारीख को देखते हुए
स्ट्रेन के विकास के बारे में कोई अधिक निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते।
महिला के पूर्ण जीनोम से अन्य सुराग मिले
हैं। शोधकर्ताओं ने इन जीन्स का उपयोग करते हुए वायरस के पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स को
पुनर्जीवित किया है। कोशिका कल्चर प्रयोगों में उन्होंने पाया कि म्यूनिश स्ट्रेन
का पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स अलास्का स्ट्रेन में पाए गए पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स से लगभग
आधा सक्रिय है।
इस अध्ययन में पूरा वायरस नहीं बनाया गया था इसलिए इसमें कोई भी सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं नहीं हैं। फिर भी ये अध्ययन पैथोलॉजी के इन खज़ानों की महत्ता को दर्शाते हैं जो आने वाले समय में 1918 की महामारी के बारे में अधिक जानकारी दे सकते हैं। इसकी मदद से भविष्य की महामारियों को नियंत्रित करने में भी मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/1918flu_1280p2_0.jpg?itok=HO07cnNs