कोविड महामारी के स्रोत का पता लगाने के प्रयास लगातार जारी
हैं। हाल ही में सीएनएन द्वारा प्रसारित साक्षात्कार में एक प्रमुख वैज्ञानिक
सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के पूर्व निदेशक और वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट रेडफील्ड ने बिना
किसी प्रमाण के दावा किया कि सार्स-कोव-2 वुहान की प्रयोगशाला से निकला है। साथ ही
उन्होंने कहा कि यह मात्र एक निजी राय है। इसके दो दिन बाद कुछ अन्य लोगों (डबल्यूएचओ
और चीन सरकार की टीम) ने वायरस के वन्यजीवों से फैलने की बात कही जिसकी शुरुआत
चमगादड़ों से हुई है। इसमें भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं दिया गया।
गौरतलब है कि वुहान की प्रयोगशाला में किसी को भी ऐसा कोरोनावायरस नहीं मिला
है जिसे बदलकर ज़्यादा फैलने वाला बनाया गया हो और फिर उसने बदलते-बदलते
सार्स-कोव-2 जैसा रूप लेकर वहां किसी कर्मचारी को संक्रमित कर दिया हो। इसी तरह
किसी को जंगली जीवों में कोरोनावायरस के प्रमाण भी नहीं मिले हैं जो एक से दूसरे
जंतु में आगे बढ़ते-बढ़ते उत्परिवर्तित होकर सार्स-कोव-2 के समान हो गया हो और फिर
मनुष्यों में प्रवेश कर गया हो।
अभी तक ये दोनों ही विचार प्रमाण-विहीन हैं और दोनों ही संभव हैं।
फिर भी इन दोनों विचारों के सही होने की संभावना बराबर नहीं है। देखा जाए तो
प्रयोगशाला से वायरस के निकलने की कोई एक या शायद कुछ मुट्ठी भर घटनाएं हो सकती
हैं जबकि वन्यजीवों से वायरस के फैलने के अनेकों अवसर होंगे।
रेडफील्ड की अटकल है कि किसी भी वायरस के लिए इतने कम समय में जीवों से
मनुष्यों में प्रवेश करने की कुशलता हासिल करना बिना प्रयोगशाला के संभव नहीं है।
लेकिन एक बार में इतनी बड़ी छलांग बहुत बड़ी बात होगी। स्वयं रेडफील्ड ने कहा है कि
यह वायरस हमारी जानकारी में आने के कई महीनों पहले से प्रसारित हो रहा था। यानी
मनुष्यों तक पहुंचने से पहले एक लंबी अवधि रही होगी जो इस वायरस के वन्यजीवों से
फैलने का संकेत देती है।
वन्यजीवों से वायरस के फैलने का विचार इस बात पर टिका है कि चीन में करोड़ों
चमगादड़ हैं और उनका मनुष्यों समेत अन्य जीवों से खूब संपर्क होता है। अत:, वायरस के मनुष्यों में प्रवेश करने के कई मौके हो सकते हैं। मूल रूप में तो यह
वायरस मनुष्यों में खुद की प्रतिलिपि तैयार करने में अक्षम होता है। लेकिन मनुष्यों
को संक्रमित करने के पहले इसे विकसित होने के लाखों मौके मिले होंगे। गौरतलब है कि
चमगादड़ अक्सर कई जीवों जैसे पैंगोलिन, बैजर, सूअर,
एवं अन्य के संपर्क में आते हैं जिससे ये मौकापरस्त वायरस
इन प्रजातियों को आसानी से संक्रमित कर देते हैं। चमगादड़ कॉलोनियों में रहते हैं
इसलिए विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस के मिश्रण की संभावना होती है और उन्हें अपने
जींस को पुनर्मिश्रित करने का पूरा मौका मिलता है। यहां तक कि एक अकेले चमगादड़ में
भी विभिन्न कोरोनावायरस देखे गए हैं।
इन वायरसों को मेज़बानों के बीच छलांग लगाने के लिए कई महीनों का समय मिलता है।
इसी दौरान वे उत्परिवर्तित भी होते रहते हैं। एक बार मनुष्यों में प्रवेश करने पर
उन वायरस संस्करणों को वरीयता मिलती है जो मानव कोशिकाओं को संक्रमित करके अपनी
प्रतिलिपियां बनाने की क्षमता रखते हैं। जल्द ही वे कोशिकाओं को इस स्तर तक
संक्रमित कर देते हैं कि लोग बीमार होने लगते हैं। तब जाकर एक नई बीमारी प्रकट
होती है। यह वही अवधि होती है जिसे रेडफील्ड ने माना है कि वायरस प्रसारित होता
रहा है।
वास्तव में हम कोरोनावायरस के विकास में यह घटनाक्रम देख भी रहे हैं। इसमें
काफी तेज़ी से उत्परिवर्तन हो रहे हैं (E484K और 501Y जैसे) जो वायरस को और अधिक संक्रामक बनाते हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वायरोलॉजिस्ट एडम लौरिंग के अनुसार ये परिवर्तन
प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं। जिसका कारण यह है कि वायरस को लाखों संक्रमित
व्यक्तियों में उत्परिवर्तन के लाखों अवसर मिल रहे हैं।
तो किसे सही माना जाए? रेडफील्ड की प्रयोगशाला से
रिसाव की परिकल्पना को जो मात्र एक संयोग पर निर्भर है? या फिर
वन्यजीवों से प्रसारित होने की परिकल्पना को जिसे लाखों अवसर मिल रहे हैं? हालांकि दोनों ही संभव हैं लेकिन एक की संभावना अधिक मालूम होती है। इसीलिए, अधिकांश वैज्ञानिकों को वन्यजीवों के माध्यम से इस वायरस के फैलने के आशंका
अधिक विश्वसनीय लगती है।
वायरस की उत्पत्ति का सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी महामारी के शुरू होने की जानकारी मिल सकती है ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों को रोका जा सके। आज भी कई रोग पैदा करने वाले वायरस हमारे बीच मौजूद हैं जो महामारी का रूप ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/78CEB3D4-DB49-4A8C-825A560639BFC60E_source.jpg
कई बार हम स्वयं से बातें करते हैं – या तो मन-ही-मन में या
बोलकर। कुछ लोग ऐसा नियमित रूप से करते हैं तो कई अन्य ऐसा करके काफी अच्छा महसूस
करते हैं। लेकिन क्या खुद से बात करना सामान्य है?
स्वयं से बात करने का काफी अध्ययन हुआ है। कई लोग इसे एक मानसिक स्वास्थ्य
समस्या के रूप में देखते हैं लेकिन ऐसे सेल्फ-टॉक या सेल्फ-डायरेक्टेड टॉक (स्वगत
संभाषण) को मनोवैज्ञानिक सामान्य और कुछ परिस्थितियों में फायदेमंद भी मानते हैं।
इस व्यवहार के व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत 1880 के दशक में हुई थी।
वैज्ञानिकों की विशेष दिलचस्पी यह जानने की थी कि लोग स्वयं से क्या बात करते हैं, क्यों और किस उद्देश्य से करते हैं। शोधकर्ताओं ने सेल्फ-टॉक को आंतरिक मतों
या धारणाओं की मौखिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है।
बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं, और यह उनके भाषा के विकास, किसी कार्य में सक्रियता और प्रदर्शन को सुधारने का एक तरीका है। यह माता-पिता
के लिए चिंता का कारण नहीं होना चाहिए। और तो और, वयस्क
अवस्था में भी यह व्यवहार कोई समस्या नहीं है। यह फायदेमंद भी हो सकता है बशर्ते
कि कोई व्यक्ति मतिभ्रम जैसी मानसिक समस्या का अनुभव न करने लगे।
किसी कार्य के दौरान सेल्फ-टॉक से उस काम में नियंत्रण, एकाग्रता और प्रदर्शन में सुधार होता है और साथ ही समस्या-समाधान के कौशल में
भी बढ़ोतरी होती है। वर्ष 2012 में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि कैसे
सेल्फ-टॉक किसी वस्तु की तलाश के कार्य को प्रभावित करता है। इस अध्ययन में पता
चला कि जब हम किसी गुम वस्तु या सुपर मार्केट में किसी विशेष उत्पाद की तलाश करते
हैं तब सेल्फ-टॉक मददगार होता है। खेलकूद में भी सेल्फ-टॉक काफी फायदेमंद साबित
होता है। सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है सेल्फ-टॉक किस प्रकार का है:
1. सकारात्मक: इससे व्यक्ति को सकारात्मक सोच के लिए प्रोत्साहन और शक्ति
मिलती है। इससे चिंता में कमी और एकाग्रता एवं ध्यान में सुधार हो सकता है।
2. नकारात्मक: आलोचनात्मक और हतोत्साहित करने वाला संवाद होता है।
3. तटस्थ: यह न तो सकारात्मक होता है, न
नकारात्मक। यह निर्देशात्मक होता है, न कि किसी विशेष विश्वास
या भावना को प्रोत्साहित करने के लिए।
लेकिन मुख्य सवाल है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को क्या फायदा होता है। शोधकर्ताओं
का निष्कर्ष है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को भावनाओं को नियमित और संसाधित करने में
मदद मिलती है। जैसे, क्रोध और घबराहट की स्थिति में सेल्फ-टॉक
से भावनाओं को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा 2014 में किए गए
अध्ययन से पता चला है कि दुश्चिंता से ग्रस्त लोगों के लिए सेल्फ-टॉक काफी
फायदेमंद होता है। तनावपूर्ण घटनाओं के बाद सेल्फ-टॉक से चिंता में भी कमी होती
है।
यदि सेल्फ-टॉक जीवन में खलल डालने लगे तो उसे कम करने के उपाय भी हैं। जैसे व्यक्ति सेल्फ-टॉक को एक डायरी में लिखने की आदत डाल ले तो इस आदत को नियंत्रित किया जा सकता है। वैसे स्वयं की आलोचना और नकारात्मक सेल्फ-टॉक से मानसिक स्वास्थ्य के प्रभावित होने की आशंका भी होती है। कभी कभी सेल्फ-टॉक के साथ मतिभ्रम होना शीज़ोफ्रेनिया का द्योतक होता है। ऐसी परिस्थितियों में मनोचिकित्सक से परामर्श करना बेहतर होगा। कुल मिलाकर, स्वयं से बात करना एक सामान्य व्यवहार है जो किसी मानसिक समस्या का लक्षण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://swaddle-wkwcb6s.stackpathdns.com/wp-content/uploads/2020/02/Is-this-normal-i-talk-to-myself-out-loud.jpeg
युनीक्योर (uniQure) कंपनी ने स्पष्ट किया है कि हीमोफीलिया की जीन थेरेपी के
एक क्लीनिकल ट्रायल के दौरान एक मरीज़ में देखा गया लीवर कैंसर एडीनो-एसोसिएटेड
वायरस (एएवी) की वजह से नहीं हुआ है। गौरतलब है कि जीन थेरेपी में किसी जीन को
शरीर में पहुंचाने के लिए एएवी को वाहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
युनीक्योर कंपनी हीमोफीलिया के उपचार में जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण कर
रही थी। इस परीक्षण के दौरान दिसंबर 2020 में एक मामला सामने आया जिसमें देखा गया
कि मरीज़ के लीवर में कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि सक्रिय हो गई। ऐसा माना गया कि यह
जीन थेरेपी में इस्तेमाल किए गए एएवी की वजह से हुआ है। लेकिन युनीक्योर द्वारा
मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं का परीक्षण करने पर पाया गया गया कि एएवी के जीनोम के अंश
मरीज़ की मात्र 0.027 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में बेतरतीब ढंग से मौजूद थे। यदि
एएवी ने कैंसर कोशिकाओं को उकसाया होता तो वायरल डीएनए कई सारी ट्यूमर कोशिकाओं
में दिखना चाहिए था, जैसा कि नहीं हुआ।
इसके अलावा अध्ययन में मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं में कई ज्ञात कैंसर
उत्परिवर्तन भी दिखे। साथ ही मरीज़ लंबे समय से हेपेटाइटिस बी और हेपेटाइटिस सी के
संक्रमण से ग्रसित भी था जो लीवर कैंसर के जोखिम को बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।
चिल्ड्रंस हॉस्पिटल ऑफ फिलाडेल्फिया के डेनिस सबेतीनो बताते हैं कि हीमोफीलिया
के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला एएवी लीवर ट्यूमर के लिए
ज़िम्मेदार नहीं पाया जाना इस क्षेत्र में आगे के कार्यों के लिए सकारात्मक साबित
होगा।
युनीक्योर के साथ ही ब्लूबर्ड कंपनी ने भी अपने एक क्लीनिकल परीक्षण के दौरान सामने आए मामले को स्पष्ट किया है – सिकल सेल रोग के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला वायरस, लेंटीवायरल वेक्टर, मरीज़ में ल्यूकेमिया का जोखिम नहीं बढ़ाता। गौरतलब है कि उपरोक्त मामलों के मद्देनज़र सिकल सेल और हीमोफीलिया, दोनों के उपचार में जीन थेरेपी के क्लीनिकल परीक्षण पर रोक लगा दी गई थी। इन नतीजों से अब दोनों कंपनियों को उम्मीद है कि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन इन परीक्षणों पर लगी रोक को हटा लेगा। (स्रोत फीचर्स)
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कोरोनावायरस के उभरते संस्करणों को लेकर शंका जताई जा रही है
कि ये मूल वायरस से अधिक संक्रामक हो सकते हैं। लेकिन मानव-वायरस के इस खेल में
वैज्ञानिकों ने कुछ आशाजनक परिणाम देखे हैं।
कोविड से स्वस्थ हुए लोगों और टीकाकृत लोगों के खून की जांच से पता चला है कि
हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं – जो पूर्व में हुए संक्रमण को याद रखती
हैं – में बदलते वायरस के अनुसार बदलकर उनका मुकाबला करने की क्षमता विकसित हो
सकती है। इसका मतलब हुआ कि प्रतिरक्षा तंत्र नए संस्करणों से निपटने की दिशा में
विकसित हुआ है।
रॉकफेलर युनिवर्सिटी के प्रतिरक्षा विज्ञानी मिशेल नूसेनज़्वाइग के अनुसार
हमारा प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: वायरस से आगे रहने का प्रयास कर रहा है। नूसेनज़्वाइग
का विचार है कि हमारा शरीर मूल प्रतिरक्षी कोशिकाओं के अलावा एंटीबॉडी बनाने वाली
कोशिकाओं की आरक्षित सेना भी तैयार रखता है। समय के साथ कुछ आरक्षित कोशिकाएं
उत्परिवर्तित होती हैं और ऐसी एंटीबॉडीज़ का उत्पादन करती हैं जो नए वायरल
संस्करणों की बखूबी पहचान कर लेती हैं। अभी यह देखना बाकी है कि क्या उत्परिवर्तित
सार्स-कोव-2 से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त आरक्षित कोशिकाएं और
एंटीबॉडीज़ उपलब्ध हैं या नहीं।
पिछले वर्ष अप्रैल माह के दौरान नूसेनज़्वाइग और उनके सहयोगियों को कोविड से
ठीक हुए लोगों के रक्त में पुन: संक्रमण और घटती हुई एंटीबॉडीज़ के संकेत मिले थे
जो चिंताजनक था। तो वे देखना चाहते थे वायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा
जवाब देने की क्षमता कितने समय तक बनी रहती है।
इसलिए उन्होंने सार्स-कोव-2 की चपेट में आए लोगों के ठीक होने के एक महीने और
छह महीने बाद रक्त के नमूने एकत्रित किए। इस बार काफी सकारात्मक परिणाम मिले। बाद
की तारीखों में एकत्रित नमूनों में कम एंटीबॉडी पाई गई लेकिन यह अपेक्षित था
क्योंकि अब संक्रमण साफ हो चुका था। इसके अलावा कुछ लोगों में एंटीबॉडी उत्पन्न
करने वाली कोशिकाएं (स्मृति बी कोशिकाएं) समय के साथ स्थिर रही थीं या फिर बढ़ी हुई
थीं। संक्रमण के बाद ये कोशिकाएं लसिका ग्रंथियों में सुस्त पड़ी रहती हैं और इनमें
वायरस को पहचानने की क्षमता बनी रहती है। यदि कोई व्यक्ति दूसरी बार संक्रमित होता
है तो स्मृति बी कोशिकाएं सक्रिय होकर जल्द से जल्द एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करती हैं जो
संक्रमण को रोक देती हैं।
आगे के परीक्षणों में वैज्ञानिकों ने आरक्षित बी कोशिकाओं के क्लोन तैयार किए
और उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। इस परीक्षण में सार्स-कोव-2 को नए संस्करण की
तरह तैयार किया गया था लेकिन इसमें संख्या-वृद्धि की क्षमता नहीं थी। इस वायरस के
स्पाइक प्रोटीन में कुछ उत्परिवर्तन भी किए गए थे। जब शोधकर्ताओं ने इस
उत्परिवर्तित वायरस के विरुद्ध आरक्षित कोशिकाओं का परीक्षण किया तो कुछ कोशिकाओं
द्वारा बनाई गई एंटीबॉडीज़ उत्परिवर्तित स्पाइक प्रोटीन से जाकर चिपक गर्इं। नेचर
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंटीबॉडीज़ समय के साथ परिवर्तित हुर्इं।
हाल ही में नूसेनज़्वाइग और उनकी टीम ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित विभिन्न
वायरसों का 6 महीने पुरानी बी कोशिकाओं के साथ परीक्षण किया। प्रारंभिक अध्ययन से
पता चला है कि इन एंटीबॉडीज़ ने परिवर्तित संस्करणों को पहचानने और प्रतिक्रिया
देने की क्षमता दिखाई है। यानी प्रतिरक्षा कोशिकाएं विकसित होती रहती हैं।
यह बात काफी दिलचस्प है कि जो कोशिकाएं थोड़ी अलग किस्म की एंटीबॉडी बनाती हैं
वे रोगजनकों पर हमला तो नहीं करतीं लेकिन फिर भी शरीर में बनी रहती हैं।
लेकिन क्या ये आरक्षित एंटीबॉडी पर्याप्त मात्रा में हैं और क्या वे नए वायरल
संस्करणों को बेअसर करके हमारी रक्षा करने में सक्षम हैं? फिलहाल
इस सवाल का जवाब दे पाना मुश्किल है। वैसे वाल्थम स्थित एडैजियो थेराप्यूटिक्स की
प्रतिरक्षा विज्ञानी लौरा वॉकर के साइंस इम्यूनोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन
के अनुसार करीब पांच महीने बाद एंटीबॉडी की वायरस को उदासीन करने की क्षमता में 10
गुना कमी देखी गई। लेकिन नूसेनज़्वाइग की टीम के समान वॉकर और उनकी टीम ने भी
स्मृति बी कोशिका की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी।
वॉकर की टीम ने कई प्रकार की स्मृति बी कोशिकाओं के क्लोन बनाकर विभिन्न वायरस
संस्करणों के विरुद्ध उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। वॉकर के अनुसार कुछ नए
संस्करण एंटीबॉडीज़ से बच निकलने में सक्षम रहे जबकि 30 प्रतिशत एंटीबॉडीज़ नए वायरस
कणों से चिपकी रहीं। यानी बी कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी उत्पादन बढ़ने से पहले ही
नया संक्रमण फैलना शुरू हो सकता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी बी कोशिका इस
वायरस को कुछ हद तक रोक सकती है और गंभीर रोग से सुरक्षा प्रदान कर सकती है। लेकिन
इन एंटीबॉडी की पर्याप्तता पर अभी भी सवाल बना हुआ है। वॉकर का मानना है कि
एंटीबॉडी की कम मात्रा के बाद भी अस्पताल में दाखिले या मृत्यु जैसी संभावनाओं को
रोका जा सकता है।
वैसे गंभीर कोविड से बचाव के लिए सुरक्षा की एक और पंक्ति सहायक होती है जिसे
हम टी-कोशिका कहते हैं। ये कोशिकाएं रोगजनकों पर सीधे हमला नहीं करती हैं बल्कि एक
किस्म की टी-कोशिकाएं संक्रमित कोशिकाओं की तलाश करके उन्हें नष्ट कर देती हैं।
प्रतिरक्षा विज्ञानियों के अनुसार टी कोशिकाएं रोगजनकों की पहचान करने में सामान्य
तरीके को अपनाती हैं। ये बी कोशिकाओं की तरह स्पाइक-विशिष्ट आक्रमण के विपरीत, वायरस के कई अंशों पर हमला करती हैं जिससे अलग-अलग संस्करण के वायरस उन्हें
चकमा नहीं दे पाते हैं।
हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में प्रतिरक्षा विज्ञानियों ने सार्स-कोव-2 से
ग्रसित लोगों की टी-कोशिकाओं का परीक्षण किया। वायरस के विभिन्न संस्करणों के
खिलाफ टी-कोशिकाओं की प्रतिक्रिया कम नहीं हुई थी। शोधकर्ताओं के अनुसार एक कमज़ोर
बी कोशिका प्रतिक्रिया के चलते वायरस को फैलने में मदद मिल सकती है लेकिन
टी-कोशिका वायरस को गंभीर रूप से फैलने से रोकने में सक्षम होती हैं।
आने वाले महीनों में, शोधकर्ता नव विकसित जीन अनुक्रमण उपकरणों और क्लोनिंग तकनीकों का उपयोग करके इन कोशिकाओं पर नज़र रखेंगे ताकि वायरस के विभिन्न संस्करणों और नए टीकों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया का पता लग सके। इन तकनीकों की मदद से प्रतिरक्षा विज्ञानियों को बड़ी जनसंख्या में व्यापक संक्रमण का अध्ययन और निगरानी करने की नई क्षमताएं मिलती रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.google.com/search?q=Your+Immune+System+Evolves+to+Fight+Coronavirus+Variants&source=lnms&tbm=isch&sa=X&ved=2ahUKEwj886-kwv_vAhUPeisKHTklAbQQ_AUoAXoECAEQAw&biw=1366&bih=625#imgrc=cjm9Wm6AR17nvM
भारत में लगभग सितंबर 2020 से कोविड मामलों में निरंतर गिरावट
से ऐसा माना जा रहा था कि अब महामारी का प्रभाव कम हो रहा है। लेकिन फरवरी माह के
मध्य में देशव्यापी मामलों की संख्या 11000 प्रतिदिन से बढ़कर मार्च के अंतिम
सप्ताह में 50,000 प्रतिदिन हो गई। इन बढ़ते मामलों से निपटने के लिए नए प्रतिबंधों
के साथ टीकाकरण अभियान भी चलाया जा रहा है लेकिन इसकी गति धीमी है।
एंटीबॉडी सर्वेक्षण का निष्कर्ष था कि दिल्ली और मुंबई जैसे घनी आबादी वाले
क्षेत्रों में लगभग झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त कर ली गई है। महामारी के जल्द अंत की
उम्मीद की जाने लगी थी लेकिन 700 ज़िलों में किए गए सर्वेक्षण में केवल 22 प्रतिशत
भारतीय ही वायरस के प्रभाव में आए हैं। इस दौरान कई नियंत्रण उपायों में काफी ढील
दी गई।
इस महामारी के दोबारा पनपने का कारण वायरस में उत्परिवर्तन बताया जा रहा है।
10,000 से अधिक नमूनों के जीनोम अनुक्रमण पर 736 में अधिक संक्रामक बी.1.1.7
संस्करण पाया गया है। यह संस्करण सबसे पहले यूके में पाया गया था। वर्तमान में
वैज्ञानिक अत्यधिक मामलों वाले ज़िलों में पाए गए दो उत्परिवर्तित संस्करणों का
अध्ययन कर रहे हैं – E484Q और L452L। ये दोनों उत्परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली से बच निकलने, एंटीबॉडी को चकमा देकर संक्रमण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार माने जा रहे हैं
लेकिन अभी स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि नए मामलों में वृद्धि इन संस्करणों के कारण
हुई है।
जलवायु की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार
जिस तरह युरोप और अमेरिका में लोग ठंड के मौसम में अधिकांश समय घरों में बिताते
हैं उसी तरह भारत के लोग गर्मियों में घरों के अंदर रहना पसंद करते हैं। बंद
परिवेश में वायरस अधिक तेज़ी से फैलता है।
टीकाकरण के मामले में 5 प्रतिशत से कम भारतीयों को कम से कम टीके की पहली
खुराक मिल पाई है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन दोनों ही टीकों की दो खुराक आवश्यक है।
वर्तमान में प्रतिदिन 20 से 30 लाख टीके दिए जा रहे हैं जिसे बढ़ाने के निरंतर
प्रयास जारी हैं। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के महामारी विज्ञानी गिरिधर
बाबू के अनुसार सरकार को प्रतिदिन एक करोड़ टीके का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए
ताकि 30 करोड़ लोगों को जल्द से जल्द कवर किया जा सके।
हालांकि अधिकारियों के अनुसार टीकों की आपूर्ति कोई समस्या नहीं है लेकिन
रॉयटर के अनुसार भारत ने घरेलू मांग को पूरा करने के लिए एस्ट्राज़ेनेका टीके के
निर्यात पर रोक लगा दी है। भारत ने जनवरी से लेकर अब तक ‘टीका कूटनीति’ के तहत 80
देशों को 6 करोड़ खुराकों का निर्यात किया है। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने
चेतावनी दी है कि अमेरिका द्वारा निर्यात पर अस्थायी रोक से टीके के लिए आवश्यक
कच्चे माल की कमी से टीका आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।
देखा जाए तो टीका लगवाने वालों में मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों की संख्या
अधिक है और निम्न वर्ग के लोगों की संख्या काफी कम है। इसका मुख्य कारण जागरूकता
में कमी और श्रमिकों द्वारा दिन भर के काम से समय न निकाल पाना हो सकता है।
हालांकि मुंबई की झुग्गी बस्तियों में टीकाकरण शिविर लगाए जा रहे हैं लेकिन
टीकाकरण के भय को दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर समुदाय-आधारित कार्यक्रम चलाने की
ज़रूरत है। टीकाकरण के प्रति शंका का एक कारण कोवैक्सीन को जल्दबाज़ी में दी गई
मंज़ूरी भी है।
इसके अलावा परीक्षणों के दौरान सहमति के उल्लंघन के समाचार और अपर्याप्त
पारदर्शिता ने भी लोगों के आत्मविश्वास को डिगाया है। मार्च में 29 डॉक्टरों और
शोधकर्ताओं के एक समूह ने जनवरी में शुरू हुए टीकाकरण अभियान के बाद से 80 लोगों
के मरने की सूचना दी है। यह मान भी लिया जाए कि मौतें टीके के कारण नहीं हुई हैं
तो भी याचिकाकर्ताओं के अनुसार सरकार को इसकी जांच करके निष्कर्षों का खुलासा करना
चाहिए। भारत ने अभी तक कोविशील्ड के उपयोग को रोका नहीं है जबकि क्लॉटिंग के गंभीर
मामलों के चलते 20 युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को रोक दिया है।
फिलहाल दूसरी लहर को रोकने के लिए कई राज्यों और शहरों में सामाजिक समारोहों
पर रोक और अस्थायी तालाबंदी लगाई गई है। इसके साथ ही परीक्षण और ट्रेसिंग की
प्रक्रिया को भी अपनाया जा रहा है। हरिद्वार में महाकुम्भ आयोजन में कई प्रतिबंध
लगाए गए हैं। देखना यह कि पालन कितना हो पाता है। यहां 30 लाख से ज़्यादा लोगों के
शामिल होने का अनुमान है।
एक बात तय है कि यह वायरस अभी भी मौजूद है और समय-समय पर नए संस्करणों के साथ हमें आश्चर्यचकित करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/mumbai_1280p.jpg?itok=sPh5mCRF
सदियों से आर्सेनिक (संखिया) का इस्तेमाल विष की तरह किया
जाता रहा है। खानपान में मिला देने पर इसके गंध-स्वाद पता नहीं चलते। पहचान की नई
विधियां आने से अब हत्याओं में इसका उपयोग तो कम हो गया है लेकिन प्राकृतिक रूप
में मौजूद आर्सेनिक अब भी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है। आर्सेनिक से
लंबे समय तक संपर्क कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसी
बीमारियों का खतरा बढ़ाता है।
लोगों के शरीर में विषाक्त अकार्बनिक आर्सेनिक पहुंचने का प्रमुख स्रोत है
दूषित पेयजल। इसे नियंत्रित करने के काफी प्रयास किए जा रहे हैं और इस पर काफी शोध
भी चल रहे हैं। वैसे चावल व कुछ अन्य खाद्य पदार्थों में भी थोड़ी मात्रा में
आर्सेनिक पाया जाता है लेकिन मात्रा इतनी कम होती है कि इससे लोगों के स्वास्थ्य
को खतरा बहुत कम होता है। इसके अलावा सीफूड में भी अन्य रूप में आर्सेनिक पाया
जाता है जो मानव स्वास्थ्य के लिए इतना घातक नहीं होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में आर्सेनिक का अधिकतम सुरक्षित स्तर 10 पार्ट्स
प्रति बिलियन (पीपीबी) माना है। और वर्तमान में दुनिया के लगभग 14 करोड़ लोग नियमित
रूप से इससे अधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं।
वर्ष 2006 में, शोधकर्ताओं ने बताया था कि भ्रूण और नवजात
शिशुओं के शरीर में आर्सेनिक संदूषित पानी पहुंचने से आगे जाकर उनकी फेफड़ों के
कैंसर से मरने की संभावना छह गुना अधिक थी। इसे समझने के लिए जीव विज्ञानी रेबेका
फ्राय ने दक्षिणी बैंकाक के एक पूर्व खनन क्षेत्र में गर्भवती महिलाओं और उनके
बच्चों पर अध्ययन कर मानव कोशिकाओं और जीन्स पर होने वाले आर्सेनिक के प्रभावों की
गहराई से पड़ताल की। इसके बाद 2008 में उनकी टीम ने भ्रूण विकास में आर्सेनिक के
प्रभाव को समझा।
वे बताती हैं कि आर्सेनिक प्रभावित लोगों की सबसे अधिक संख्या भारत के पश्चिम
बंगाल के इलाकों और बांग्लादेश में है। बांग्लादेश के लगभग 40 प्रतिशत पानी के
नमूनों में 50 पीपीबी से अधिक और 5 प्रतिशत नमूनों में 500 पीपीबी से अधिक
आर्सेनिक पाया गया है। इसी तरह यूएस में उत्तरी कैरोलिना से प्राप्त कुल नमूनों
में से 1400 में आर्सेनिक का स्तर 800 पीपीबी था। संभावना यह है कि वैज्ञानिक 100
पीपीबी से अधिक स्तर वाले अधिकांश स्थानों के बारे में तो जानते हैं क्योंकि यहां
प्रभावित लोगों में त्वचा के घाव दिखते हैं, लेकिन
इससे कम स्तर वाले आर्सेनिक दूषित कई स्थान अज्ञात हैं।
दरअसल अपरदन के माध्यम से चट्टानों में मौजूद खनिज मिट्टी में आर्सेनिक छोड़ते
रहते हैं। फिर मिट्टी से यह भूजल में चला जाता है। इस तरह की भूगर्भीय प्रक्रियाएं
भारत,
बांग्लादेश और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अधिकांश देशों
में आर्सेनिक दूषित पेयजल का मुख्य कारण हैं। मानव गतिविधियां, जैसे खनन और भूतापीय ऊष्मा उत्पादन, आर्सेनिक के पेयजल में
मिलने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसका एक उदाहरण है कोयला जलने के बाद उसकी बची हुई
राख,
जिसमें आर्सेनिक व अन्य विषाक्त पदार्थ होते हैं।
शरीर में आर्सेनिक को अन्य यौगिकों में बदलने का काम मुख्यत: एक एंज़ाइम
आर्सेनाइट मिथाइलट्रांसफरेस द्वारा अधिकांशत: लिवर में किया जाता है। इसके
परिणामस्वरूप मोनोमिथाइलेटेड (MMA) और डाइमिथाइलेटेड (DMA) आर्सेनिक बनता है। अपरिवर्तित आर्सेनिक, MMA और DMA मूत्र के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन आर्सेनिक के इन तीनों रूपों
का स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। अधिकतर लोगों के मूत्र में MMA की तुलना में DMA की मात्रा अधिक होती है।
आर्सेनिक के इन दोनों रूपों का अनुपात कई बातों पर निर्भर होता है। आर्सेनिक से
हाल में हुए संपर्क की पड़ताल पेशाब के नमूनों के ज़रिए हो जाती है। नाखूनों में
इनकी उपस्थिति अत्यधिक आर्सेनिक संदूषण दर्शाती है। और अंदेशा है कि मां के मूत्र
और गर्भनाल के ज़रिए भी भ्रूण का आर्सेनिक से प्रसव-पूर्व संपर्क हो सकता है।
शरीर में MMA और DMA के अनुपात पर निर्भर होता है कि आर्सेनिक मानव स्वास्थ्य
को किस तरह प्रभावित करेगा। यदि मूत्र में MMA का स्तर अधिक है तो यह विभिन्न तरह के कैंसर का खतरा बढ़ाता
है। इसमें फेफड़े,
मूत्राशय और त्वचा के कैंसर होने का खतरा सबसे अधिक होता
है। वहीं यदि मूत्र में DMA का स्तर अधिक है तो यह मधुमेह की आशंका को बढ़ाता है। इन जोखिमों की तीव्रता
क्षेत्र के पेयजल में आर्सेनिक के स्तर और व्यक्ति के शरीर में आर्सेनिक को
संसाधित करने के तरीके पर निर्भर होती है। अलग-अलग असर को देखते हुए एक बात तो तय
है कि हमें अभी इस बारे में काफी कुछ जानना है कि आर्सेनिक और उससे बने पदार्थ
विभिन्न कोशिकाओं और ऊतकों को किस तरह प्रभावित करते हैं।
चूंकि आर्सेनिक गर्भनाल को पार कर जाता है, इसलिए
भ्रूण का स्वास्थ्य भी चिंता का विषय है। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि
प्रसव-पूर्व और शैशव अवस्था में आर्सेनिक का संपर्क मस्तिष्क विकास को प्रभावित
करता है। मेक्सिको में किए गए अध्ययन में पाया गया कि जन्म के पूर्व आर्सेनिक से
संपर्क के चलते शिशु का वज़न कम रहता है। अन्य अध्ययनों से पता है कि जन्म के समय
कम वज़न आगे जाकर उच्च रक्तचाप, गुर्दों की बीमारी और मधुमेह
का खतरा बढ़ाता है।
वास्तव में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को आर्सेनिक से कितना खतरा है यह
आर्सेनिक की मात्रा और व्यक्ति की आनुवंशिकी, दोनों
पर निर्भर करता है। आर्सेनिक को परिवर्तित करने वाले एंज़ाइम का प्रमुख जीन AS3MT है। इस जीन के कई संस्करण पाए
जाते हैं,
जिनसे उत्पन्न एंज़ाइम की कुशलता अलग-अलग होती है। आर्सेनिक
का तेज़ी से रूपांतरण हो, तो मूत्र में MMA की कम और DMA की अधिक मात्रा आती है।
आर्सेनिक का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारे जीन किस तरह व्यवहार
करते हैं। हमारे शरीर में 2000 से अधिक प्रकार के माइक्रोआरएनए (miRNA) होते हैं। miRNA डीएनए अनुक्रमों द्वारा बने
छोटे अणु हैं जो प्रोटीन के कोड नहीं होते हैं। प्रत्येक miRNA सैकड़ों संदेशवाहक आरएनए (mRNA) अणुओं से जुड़कर प्रोटीन निर्माण को बाधित कर सकता है। और mRNA के ज़रिए जीन की अभिव्यक्ति
होती है। आर्सेनिक miRNA की
गतिविधि को संशोधित कर, जीन अभिव्यक्ति को बदल सकता है।
यह दिलचस्प है कि अतीत में हुए आर्सेनिक संपर्क का असर AS3MT जीन पर नज़र आता है। जैसे, अर्जेंटीना के एंडीज़ क्षेत्र के एक छोटे से इलाके के निवासी हज़ारों वर्षों से
अत्यधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं। सामान्यत: उनमें कैंसर और असमय मृत्यु का
प्रकोप अधिक होना चाहिए। लेकिन प्राकृतिक चयन के माध्यम से ये लोग उच्च-आर्सेनिक
के साथ जीने के लिए अनुकूलित हो गए हैं।
आर्सेनिक के असर की क्रियाविधि काफी जटिल है, और यह
कोशिका के प्रकार पर निर्भर करता है। अलबत्ता, मुख्य
बात हमारे शरीर में जीन के अभिव्यक्त होने या न होने की है।
यदि यह हमारे डीएनए की मरम्मत करने वाले जीन को बंद कर देगा या ट्यूमर
कोशिकाओं की वृद्धि होने देगा तो परिणाम कैंसर के रूप में सामने आएगा। यदि यह उन
जीन्स को बाधित कर देगा जो अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करवाते हैं या अन्य
कोशिकाओं को इंसुलिन के प्रति प्रतिक्रिया देने में मदद करते हैं तो परिणाम मधुमेह
के रूप में दिखेगा। इस तरह डीएनए अनुक्रम को बदले बिना जीन अभिव्यक्ति को बदलने की
क्रिया को एपिजेनेटिक्स कहते हैं।
एक एपिजेनेटिक तंत्र में miRNA की भूमिका होती है। अध्ययनों में देखा गया है कि आर्सेनिक miRNA की गतिविधि को प्रभावित कर
सकता है।
एक और एपिजेनेटिक विधि है डीएनए मिथाइलेशन। किसी विशिष्ट डीएनए अनुक्रम में
मिथाइल समूह के जुड़ने पर आर्सेनिक की भूमिका हो सकती है। जिससे जीन अभिव्यक्ति कम
हो सकती है या बाधित हो सकती है।
KCNQ1 जीन
एक दिलचस्प उदाहरण है। आम तौर पर हमारे माता-पिता दोनों से मिली जीन प्रतियां
हमारी कोशिकाओं में व्यक्त हो सकती हैं। लेकिन KCNQ1 उन चुनिंदा जीन्स में से है
जिनकी अभिव्यक्ति इस बात से तय होती है कि वह मां से आया है या पिता से। दूसरी
प्रति गर्भावस्था में ही मिथाइलेशन द्वारा बंद कर दी जाती है।
मेक्सिको में हुए अध्ययन में देखा गया कि प्रसव-पूर्व आर्सेनिक-संपर्क अधिक KCNQ1
मिथाइलेशन और निम्न जीन अभिव्यक्ति से जुड़ा है। KCNQ1 भ्रूण के विकास में
महत्वपूर्ण है। यही जीन अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करने के लिए भी ज़िम्मेदार
है। यानी इस जीन की अभिव्यक्ति में कमी रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ा सकती है।
आर्सेनिक के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने की दिशा में जल उपचार, पोषण और आनुवंशिक हस्तक्षेप सम्बंधी अध्ययन किए जा रहे हैं।
उत्तरी कैरोलिना के अध्ययनों में देखा गया कि नलों में कम लागत का फिल्टर
लगाकर पानी में आर्सेनिक का स्तर कम किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि यह
धीमी गति से फिल्टर करता है। अन्य शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि
कितनी गहराई के नलकूपों में आर्सेनिक की मात्रा कम होती है। इससे नलकूप खनन के लिए
नए दिशानिर्देश बनाने में मदद मिलेगी।
पोषण सम्बंधी कारकों पर भी ध्यान दिया जा रहा है। जैसे, 2006 में बांग्लादेश में किए गए एक परीक्षण में पता चला था कि फोलिक एसिड की
खुराक वयस्कों में आर्सेनिक विषाक्तता के असर को कम करती है। आंत का सूक्ष्मजीव
संसार भी इस विषाक्तता को कम करने में मदद कर सकता है। देखा गया है कि चूहों की
आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव लगभग संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में बदल देते हैं। अधिक DMA यानी कैंसर के जोखिम में कमी। यह अध्ययन भी जारी है कि
क्या पोषण की मदद से मानव आंत के सूक्ष्मजीव आर्सेनिक विषाक्तता को कम कर सकते
हैं।
जहां तक जेनेटिक हस्तक्षेप का सवाल है, तो यह
तो पता था कि चूहे बड़ी कुशलता से संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में परिवर्तित कर लेते हैं, लेकिन
यह स्पष्ट नहीं था कि ये परिणाम मनुष्यों के संदर्भ में कितने कारगर होंगे। इस
संदर्भ में शोधकर्ताओं के एक दल ने एक नया माउस स्ट्रेन विकसित किया जिसमें AS3MT जीन का मानव संस्करण मौजूद
था। ऐसा करने पर उन्हें चूहों के मूत्र में भी मनुष्यों की तरह DMA और MMA का स्तर मिला। एक अन्य दल miRNA के प्रभावों का अध्ययन कर रहा है।
उम्मीद है कि विभिन्न रणनीतियों को अपना कर दुनिया भर में आर्सेनिक की विषाक्तता को कम करने के उपाय ढूंढने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/assets/Image/2021/G-dna-methylation-alt.png
चीन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चला है कि कोरोनावायरस
फ्रोज़न सतहों से फैल सकता है। लेकिन डबल्यूएचओ की टीम ने कहा है कि महामारी की
शुरुआत इस रास्ते से नहीं हुई है।
फरवरी में एक प्रेसवार्ता में टीम ने कोरोनावायरस के चमगादड़ों से एक मध्यवर्ती
जीव के मार्फत मनुष्यों में प्रवेश की बात की। टीम का मत है कि चीनी फार्मस में जंगली जीवों का फ्रोज़न मांस वायरस के शुरुआती मामलों का कारण हो सकता है।
अलबत्ता टीम के एक सदस्य डोमिनिक डायर के मुताबिक यह जानना ज़रूरी है कि फ्रोज़न
वन्यजीव संक्रमित कैसे हुए।
लगता तो यह है कि डबल्यूएचओ द्वारा फ्रोज़न मांस की जांच के सुझाव का गलत अर्थ
निकाला गया है। वायरस के फ्रोज़न सतह से फैलने के विचार के आधार पर कहा गया कि यह
वायरस विदेशों से आयात किए गए फ्रोज़न वन्यजीवों के साथ वुहान में आया है। इसी तरह
बाद के मामलों के पीछे भी आयातित फ्रोज़न फूड को दोषी ठहराया गया। चीन के
वैज्ञानिकों ने भी फ्रोज़न मांस से वायरस फैलने के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।
दूसरी ओर,
चीन के बाहर के कई वैज्ञानिकों ने इस ‘कोल्ड चेन’ सिद्धांत
को खारिज कर दिया है और इसे आलोचनाओं से बचने का एक प्रयास बताया है। उनके अनुसार
संक्रमित सतहों से सार्स-कोव-2 का फैलना बहुत कम संभव है।
बहरहाल,
कुछ अध्ययन सतह से संक्रमण की संभावना को दर्शाते हैं।
अगस्त में सिंगापुर के शोधकर्ताओं द्वारा बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक
रिपोर्ट में बताया गया कि सार्स-कोव-2 वायरस फ्रोज़न या फ्रिज में रखे मांस पर तीन
सप्ताह से अधिक समय तक संक्रामक रह सकता है। वैसे इस पेपर की समकक्ष समीक्षा नहीं
की गई है। इसके दो माह बाद चीनी शोधकर्ताओं ने ज़िनफादी बाज़ार में जून में फैले
प्रकोप को भी फ्रोज़न मांस से जोड़कर देखा। इसमें पहला मामला बिना किसी सामुदायिक
प्रसार के 56 दिन के बाद सामने आया जिसमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट स्ट्रेन पाया
गया। जांचकर्ताओं ने यही स्ट्रेन कोल्ड स्टोरेज में रखी साल्मन मछली पर भी पाया
था।
इसी तरह नवंबर में प्रकाशित तीसरे अध्ययन में चीनी वैज्ञानिकों के एक अन्य
समूह ने शैनडांग के पूर्वी प्रांत किंगडाओ बंदरगाह के कर्मचारियों में संक्रामक
वायरस का पता लगाया जो फ्रोज़न कॉड मछली की पैकेजिंग का काम करते थे। वैज्ञानिक के
अनुसार इस संक्रमण का कारण फ्रोज़न कॉड हो सकता है। इन रिपोर्ट्स के आधार पर चीनी
अधिकारियों ने नवंबर में सभी फ्रोज़न सामग्रियों के अनिवार्य विसंक्रमण के निर्देश
दिए थे।
डबल्यूएचओ की टीम महामारी के शुरुआती मामलों के पीछे खाद्य सामग्री या
पैकेजिंग से संक्रमण के विचार से सहमत नहीं है। जांचकर्ता ये ज़रूर मानते हैं कि
वायरस से संक्रमित कोई जीव हुनान सीफूड बाज़ार में शुरुआती प्रकोप का कारण हो सकता
है। डायर के अनुसार ऐसी भी संभावना है कि बाज़ार में किसी संक्रमित व्यक्ति या
उत्पाद के आने से यह प्रकोप फैल गया हो।
देखा जाए तो जनवरी 2020 में हुनान बाज़ार के बंद होने से पहले तक वहां की 653
में से 10 दुकानों पर फार्म से लाए गए जीवित या फ्रोज़न वन्यजीव बेचे जाते थे। डायर
के अनुसार रैकून और बिज्जू कोरोनावायरस के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। लेकिन
बाज़ार बंद होने के बाद जब मांस, जीव और यहां तक कि उनके फ्रोज़न
मृत शरीर के नमूनों का अध्ययन किया गया तो किसी में भी सार्स-कोव-2 नहीं मिला, हालांकि नमूनों की कम संख्या को देखते हुए इस संभावना को खारिज नहीं किया जा
सकता।
युनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के एंड्रयू ब्रीड के अनुसार वायरस से संक्रमित
फ्रोज़न शवों के हैंडलिंग के दौरान संक्रमण का खतरा हो सकता है। यह विशेष रूप से
मध्यवर्ती जीवों के लिए सही हो सकता है जिनका प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमण से निपटने
के लिए अनुकूलित नहीं होता और वे काफी मात्रा में वायरस बिखेरते हैं। अफ्रीका में
एबोला प्रकोप के दौरान ऐसा मामला देखा गया था। लेकिन पूरी जानकारी के अभाव में कुछ
भी स्पष्ट कह पाना संभव नहीं है।
इसी बीच जीवित जानवरों से सार्स-कोव-2 के फैलने की संभावना भी जताई जा रही है। चीन में अधिकतर जीवित जानवरों का व्यापार किया जाता है जिससे जीवों से मनुष्यों में वायरस फैलने की अधिक संभावना रहती है। इनमें से कई जीव चीन के दूरदराज़ फार्म से बाज़ार में लाए जाते हैं। ऐसे में विभिन्न प्रजातियों के जीवों के एक स्थान पर आने से नए वायरस उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। डायर के अनुसार वुहान बाज़ार में उत्पादों को पहुंचाने वाले वन्यजीव कर्मचारियों में सार्स-कोव-2 की एंटीबॉडी तलाशना इसमें काफी निर्णायक हो सकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00495-0/d41586-021-00495-0_18896774.jpg
मानव इतिहास में दर्ज सबसे जानलेवा बीमारियों के बारे में
सोचें तो ब्लैक डेथ, प्लेग, स्पैनिश
फ्लू और कोविड-19 की ओर ध्यान जाता है। इन जानलेवा महामारियों में लाखों लोग मारे
गए। लेकिन आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि इन महामारियों की तुलना में टीबी से
होने वाली मौतों की संख्या अधिक है। पिछले 2000 सालों में टीबी के कारण एक अरब से
अधिक लोग मारे गए हैं, और वर्तमान में हर साल दुनिया भर में लगभग
15 लाख लोग टीबी की वजह से मारे जाते हैं। लेकिन यह रहस्य लंबे समय से बना हुआ है
कि टीबी कब और कैसे इतनी घातक हो गई।
हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि किस तरह टीबी ने लौह युगीन युरोप
में रहने वाले लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली में बदलाव किया था। दरअसल दो साल पूर्व
युनिवर्सिटी ऑफ पेरिस के शोधकर्ता गैसपर्ड कर्नर ने पाया था कि जिन लोगों में TKY2 नामक प्रतिरक्षा जीन के P1104A नामक दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां होती हैं उन लोगों के
टीबी से गंभीर रूप से संक्रमित होने की संभावना अधिक होती है। इसके बाद पॉश्चर
इंस्टीट्यूट के साथ उन्होंने क्वीन्टाना-मर्सी के नेतृत्व में पिछले 10,000 साल के
1013 युरोपीय लोगों के जीनोम का विश्लेषण कर यह पता लगाया था कि यह दुर्लभ जीन
संस्करण कब-कब और कितने अधिक लोगों में उभरा। इस दौरान शोधकर्ताओं को विचार आया कि
इसकी मदद से यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रतिरक्षा जीन टीबी के साथ-साथ किस
तरह सह-विकसित हुआ है।
टीबी का सबसे पहला प्रमाण कृषि के आविष्कार के तुरंत बाद, लगभग 9000 साल पहले के मध्य-पूर्व क्षेत्र में दफन कंकालों में मिलता है।
लेकिन टीबी बैक्टीरिया का मौजूदा संस्करण – माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस
– जो लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है, वह
लगभग 2000 साल पहले उभरा था, जब लोग पालतू जानवरों के साथ
घनी बस्तियों में रहा करते थे। ये बस्तियां अक्सर टीबी बैक्टीरिया के भंडार की तरह
काम करती थीं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिरक्षा जीन का P1104A उत्परिवर्तन प्राचीन है। यह संस्करण लगभग 8500 साल पूर्व एनाटोलिया (आजकल का
तुर्की) में रहने वाले एक किसान के डीएनए में पाया गया है और उनकी गणना के मुताबिक
यह उत्परिवर्तन कम से कम 30,000 साल पुराना है। जब एनाटोलिया के किसानों और यमनाया
चरवाहों ने मध्य युरोप का रुख किया तो उन्होंने जीन के इस संस्करण को फैलाया।
अध्ययन में पाया गया कि लगभग 5000 साल पहले तक यह संस्करण लगभग तीन प्रतिशत
युरोपीय आबादी में था। फिर कांस्य युग के मध्य, लगभग
3000 साल पहले तक, यह युरोप के लगभग 10 प्रतिशत लोगों में फैल
चुका था। लेकिन इसके बाद फिर इसके प्रसार में कमी आई और तब से अब तक यह लगभग 2.9
प्रतिशत युरोपीय आबादी में दिखाई देता है।
प्राचीन डीएनए अध्ययनों के अनुसार, यह कमी उस दौरान आई जब
टीबी का मौजूदा घातक संस्करण उभर रहा था। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद
से यह भी पता किया कि कैसे आबादी के आकार और लोगों के प्रवास ने जीन के प्रसार की
आवृत्ति को प्रभावित किया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों में प्रतिरक्षा जीन के
दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां थीं उनमें से लगभग 20 प्रतिशत लोगों की जान टीबी के
कारण गई थी या वे इससे गंभीर रूप से बीमार हुए थे। इनमें से कुछ ही लोगों की
संतानें कांस्य युग के बाद तक जीवित रह सकी थीं। दी अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन
जेनेटिक्स में शोधकर्ता बताते हैं कि नतीजतन, इस
घातक जीन को कम करने के लिए प्राकृतिक चयन ने तेज़ी और दृढ़ता से काम किया और इस संस्करण
में कमी आई। यदि मनुष्य में इस जीन संस्करण की दो प्रतियां होंगी और साथ ही वहां
टीबी फैला होगा तो यह आबादी के लिए जोखिमपूर्ण होगा।
यह अध्ययन तो यह समझने के लिए मात्र शुरुआत है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली विशिष्ट रोगजनकों के साथ किस तरह विकसित होती है। बहरहाल कुछ शोधकर्ता चिंता जताते हैं कि यह जानने की तत्काल आवश्यकता है कि P1104A संस्करण दुनिया में कितना फैला है। टीबी वाले देशों जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन और अफ्रीका के कुछ हिस्सों की आबादी में तो यह संस्करण दुर्लभ है, लेकिन यूके बायोबैंक डैटाबेस के अध्ययन में देखा गया है कि प्रत्येक 600 में से एक ब्रिटिश व्यक्ति में इस संस्करण की दो प्रतियां उपस्थित हैं। यदि वहां टीबी का प्रकोप होगा तो वे गंभीर संक्रमण या मृत्यु के अत्यधिक जोखिम में होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/TBGB_1280p.jpg?itok=lYNmjqW1
इन दिनों अमेरिकी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके को यूएस के
खाद्य व औषधि प्रशासन ने आपात उपयोग की स्वीकृति दे दी है। स्वीकृति के निर्णय के
पीछे कंपनी द्वारा टीके की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े महत्वपूर्ण रहे। समय-समय पर
विभिन्न टीकों की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े प्रकाशित होते रहे हैं।
देखा जाए तो टीके के परीक्षणों में प्रभाविता का पता लगाना महत्वपूर्ण है
लेकिन पेचीदा भी है। यदि किसी टीके की प्रभाविता 95 प्रतिशत है तो इसका मतलब यह
नहीं कि टीका प्राप्त पांच प्रतिशत लोग कोविड-19 से बीमार हो जाएंगे। यह भी ज़रूरी
नहीं कि परीक्षण के दौरान किसी टीके की अधिक प्रभाविता के कारण उसे अन्य टीकों की
तुलना में बेहतर माना जाए।
वास्तव में प्रभाविता यह दर्शाती है कि एक टीका किस हद तक बीमार पड़ने के जोखिम
को कम कर सकता है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी ने सबसे
पहले यह देखा कि कितने लोग कोविड-19 टीका लगने के बावजूद बीमार हुए हैं। इसके बाद
उन्होंने प्लेसिबो प्राप्त कोविड-19 से ग्रसित लोगों से इसकी तुलना की। इसके बाद
जोखिम के अंतर की गणना प्रतिशत में की गई। यदि यह अंतर शून्य प्रतिशत हो तो इसका
मतलब है टीकाकृत लोग उतने ही जोखिम में हैं जितना प्लेसिबो प्राप्त लोग। दूसरी ओर, यदि अंतर 100 प्रतिशत हो तो इसका मतलब होगा कि टीके द्वारा जोखिम को पूरी तरह
से समाप्त कर दिया गया है। अमेरिका के परीक्षण स्थल पर जॉनसन एंड जॉनसन ने 72
प्रतिशत प्रभाविता पाई है।
गौरतलब है कि प्रभाविता परीक्षण पर परीक्षण के स्थान जैसे कई कारकों का असर
पड़ता है। जॉनसन एंड जॉनसन ने अमेरिका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण
अफ्रीका में परीक्षण किया है। इसमें तीनों स्थानों की समग्र प्रभाविता अमेरिका में
अनुमानित प्रभाविता से कम पाई गई। इसका संभावित कारण यह हो सकता है दक्षिण अफ्रीका
परीक्षण में नए (बी.1.351) संस्करण के आने के बाद किया गया था। इस संस्करण में कुछ
ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए हैं जो टीकाकरण से प्राप्त एंटीबॉडी से बच निकलने में
सक्षम थे। हालांकि इससे टीका पूरी तरह असरहीन नहीं हुआ और दक्षिण अफ्रीका में भी
प्रभाविता 64 प्रतिशत दर्ज की गई।
इसके अलावा,
प्रभाविता का आंकड़ा इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस
परिणाम में अंतर को देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए, जॉनसन
एंड जॉनसन के टीके ने कोविड-19 के गंभीर मामलों के खिलाफ 85 प्रतिशत प्रभविता
दर्शाई। यानी इस टीके से अस्पताल में भर्ती लोगों की संख्या और मौतों को कम किया
जा सकता है।
पिछले वर्ष एफडीए ने कोरोनावायरस टीके के परीक्षण के लिए मापदंड निर्धारित किए
थे। इसमें प्रत्येक टीका निर्माता को 50 प्रतिशत प्रभाविता और 30 प्रतिशत विश्वसनीयता
प्रदर्शित करना अनिवार्य था। 30 प्रतिशत विश्वसनीयता या कॉन्फिडेन्स इंटरवल से पता
चलता है कि वास्तविक मान किन आंकड़ों के बीच रहने की संभावना 30 प्रतिशत है। अभी तक
फाइज़र एवं बायोएनटेक, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित
तीन टीके एफडीए के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर पाए हैं। इसके अलावा, एस्ट्राज़ेनेका और नोवावैक्स तथा स्पुतनिक वी ने अन्य देशों में किए गए
प्रभाविता अध्ययन के परिणाम प्रकाशित किए हैं।
कई कारणों से इन सभी टीकों के बीच सटीक तुलना करना संभव नहीं है। ऐसा संभव है
कि एक टीके का पॉइंट एस्टीमेट दूसरे टीके की तुलना में अधिक हो लेकिन उनके विश्वसनीयता
के परास एक समान हो सकते हैं। ऐसे में उनके परिणामों की तुलना नहीं की जा सकती।
इसके अलावा टीकों का परीक्षण महामारी के विभिन्न चरणों में विभिन्न लोगों पर किया
गया है। प्रभाविता को भी अलग-अलग तरीकों से मापा गया है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड
जॉनसन ने टीके की पहली खुराक के 28 दिन बाद प्रभाविता का मापन किया जबकि मॉडर्ना
ने दूसरी खुराक के 14 दिन बाद मापा था। अलबत्ता, ये
तीनों टीके कोविड-19 के जोखिम को काफी हद तक कम करते हैं।
सभी टीकों ने अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत और मृत्यु की रोकथाम में उच्च
प्रभाविता दर्शाई है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन का टीका पाने वाले एक भी
व्यक्ति को टीका लगने के 28 दिनों और उससे अधिक समय बाद भी कोविड-19 संक्रमण के
कारण अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा था दूसरी ओर, प्लेसिबो
प्राप्त 16 लोगों को भर्ती होना पड़ा था। यानी प्रभाविता 100 प्रतिशत है जिसमें
74.3 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक का कॉन्फिडेन्स इंटरवल पाया गया।
गौरतलब है कि नैदानिक परीक्षण वास्तव में टीकों पर शोध की शुरुआत भर है। इनके व्यापक उपयोग के बाद प्रभाविता की बजाय प्रभावशीलता को मापा जाता है। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि वास्तविक परिस्थिति में कोई टीका किस हद तक बीमारी के जोखिम से बचा सकता है। हालांकि शुरुआती अध्ययन से कोरोनावायरस टीकों द्वारा मज़बूत सुरक्षा मिलने की पुष्टि हुई है, लेकिन आने वाले समय में शोधकर्ताओं की नज़र टीके की प्रभावशीलता पर रहेगी। कुछ भी बदलाव होने पर नए टीकों का निर्माण किया जाएगा और टीका निर्माता प्रभाविता के नए आंकड़े प्रस्तुत करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nytimes.com/interactive/2021/03/03/science/vaccine-efficacy-coronavirus.html
विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की
जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने
प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर
दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया
है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में
चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह
वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने
पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।
अलबत्ता,
रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही
है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के
अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है।
हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं।
कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर
सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक
विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।
लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं
करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की
ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो
परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से
शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे
सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल
वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों
में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में
प्रस्तुत की जाएगी।
डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है।
इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन
एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019
के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार
बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई
साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की
है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से
प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से
प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच
टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।
गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती
दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित
करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और
हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी
बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां
खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से
निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2
वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के
विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में
शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।
फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं
कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित
डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़
पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए
शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि
समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।
इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन
संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया
था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण
की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं
की संभावना बनी रहेगी।
टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए।
इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि
महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से
पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी
परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता
लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता
लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।
हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की
टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर
कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं
में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस
का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित
अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में
इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://image.thanhnien.vn/768/uploaded/minhhung/2021_02_09/000_92k3xe_gpdo.jpg