एक ही लिंग के चूहों के बच्चे

संतानोत्पत्ति के लिए नर और मादा लिंगों की ज़रूरत से तो सब वाकिफ हैं। लेकिन यह बात सिर्फ स्तनधारियों के लिए सही है। पक्षियों, मछलियों और छिपकलियों की कुछ प्रजातियों में एक ही लिंग के दो जंतु मिलकर संतान पैदा कर लेते हैं। मगर अब वैज्ञानिकों ने दो मादा चूहों (जो स्तनधारी होते हैं) के डीएनए से संतानें पैदा करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। और तो और, इन संतानों की संतानें भी पैदा हो चुकी हैं। वैसे वैज्ञानिकों ने दो नर चूहों कीजेनेटिक सामग्री लेकर भी संतानोत्पत्ति के प्रयास किए मगर इनसे उत्पन्न संतानें ज़्यादा नहीं जी पार्इं।

आखिर क्या कारण है कि एक ही लिंग के जीव आम तौर पर संतान पैदा नहीं कर पाते? वैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा जेनेटिक छाप या इम्प्रिंट के कारण होता है। जेनेटिक इम्प्रिंट छोटेछोटे रासायनिक बिल्ले होते हैं जो डीएनए से जुड़ जाते हैं और किसी जीन को निष्क्रिय कर देते हैं। वैज्ञानिक अब तक ऐसे 100 Ïम्प्रट खोज पाए हैं। इनमें से कुछ ऐसे जीन्स पर पाए जाते हैं जो भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। कई जीन्स एक लिंग में चिंहित किए जाते हैं मगर दूसरे लिंग में अचिंहित रहते हैं। यदि दोनों के जीन्स चिंहित हों (जैसा कि एक ही लिंग के पालकों में होगा) तो भ्रूण जीवित नहीं रह पाता है।

बेजिंग के चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के की ज़ाऊ इसी समस्या से निपटना चाहते थे। उनकी टीम ने शुक्राणु या अंडाणु की स्टेम कोशिकाएं लीं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की जोड़ियां नहीं बल्कि एक ही सेट होता है। अन्य कोशिकाओं के समान इनमें भी ऐसे जेनेटिक हिस्से होते हैं जो इÏम्प्रट पैदा कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन जेनेटिक हिस्सों को एकएक करके हटाया। वे यह देखना चाहते थे कि कौनसे हिस्सों को हटाने से भ्रूण का विकास बाधित नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने एक मादा चूहे की स्टेम कोशिका को दूसरे मादा चूहे के अंडे में प्रविष्ट कराया ताकि बच्चे पैदा हो सकें। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने शुक्राण स्टेम कोशिकाओं पर भी किया। एक अंडे में से उसका केंद्रक (यानी जेनेटिक सामग्री) हटा दी। इस केंद्रकविहीन अंडे में उन्होंने एक नर का शुक्राणु और दूसरे नर की शुक्राणु स्टेम कोशिका डाल दी।

तीन जेनेटिक हिस्से हटा देने के बाद शोधकर्ता दो मादाओं से 20 जीवित संतानें पैदा कर पाए। दूसरी ओर, दो नरों से 12 संतान पैदा करवाने के लिए उन्हें सात जेनेटिक हिस्से हटाने पड़े थे। मगर दो नरों से पैदा ये संतानें मात्र दो दिन जीवित रहीं।

यह शोध कार्य चौंकाने वाला ज़रूर है किंतु इससे मुख्य बात यह पता चली है कि वे कौनसे जेनेटिक हिस्से हैं जो स्तनधारियों में संतानोत्पत्ति के लिए ज़रूरी हैं और जिनकी वजह से प्रजनन क्रिया में उन्हें दो लिगों की ज़रूरत पड़ती है। वैसे अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब दो स्त्रियां मिलकर बच्चे पैदा करने लगेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माइक्रोस्कोप खुद हुआ माइक्रो – डॉ. दीपक कोहली

चौंकिए नहीं! अब आप माइक्रोस्कोप को जेब में रखकर कहीं भी घूम सकते हैं, वह भी उसे मोड़कर। डॉ. मनु प्रकाश ने एक ऐसा माइक्रोस्कोप विकसित किया है जिसे जेब में मोड़कर रखा जा सकता है। इस माइक्रोस्कोप से आने वाले समय में चिकित्सकीय जांच में व्यापक सुधार देखने को मिलेगा।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), कानपुर में कंप्यूटर साइंस से बीटेक के छात्र रहे डॉ. मनु प्रकाश को भौतिकी जीव विज्ञान के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने के लिए मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप से नवाज़ा गया है। उनके द्वारा विकसित किया गया शक्तिशाली माइक्रोस्कोप रक्त की एक बूंद से मलेरिया की जांच करने में सक्षम है। इस माइक्रोस्कोप से मलेरिया परजीवी का पता लगाने का खर्च महज 33.33 रुपए आता है। फिलहाल इस माइक्रोस्कोप का प्रयोग मलेरिया की जांच में सफल हुआ है, आगे इसे और समृद्ध किया जाएगा। अपने शोध कार्य को जारी रखने के लिए डॉ. मनु प्रकाश को मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप प्रदान की गयी है। वर्तमान में वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के जैव अभियांत्रिकी विभाग में कार्यरत हैं। वह स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी व विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सा नोबेल पुरस्कार – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से दिया गया है। इन दोनों ने ही कैंसर के उपचार में शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी अनुसंधान किया है। अलबत्ता, कैंसर के उपचार में प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका को समझने के प्रयासों का इतिहास काफी पुराना है।

आम तौर पर कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, विकिरण और सर्जरी का सहारा लिया जाता है। इन सबकी अपनीअपनी समस्याएं है। उनमें न जाते हुए हम बात करेंगे कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र किस तरह से कैंसर का मुकाबला कर सकता है और जब कर सकता है, तो करता क्यों नहीं है। और नए अनुसंधान ने इसे कैसे संभव बनाया है।

यह बात काफी समय से पता रही है कि प्रतिरक्षा तंत्र कैंसर के नियंत्रण में कुछ भूमिका तो निभाता है। जैसे अट्ठारवीं सदी में ही यह समझ में आ गया था कि एकाध लाख मरीज़ों में से एक में कैंसर स्वत: समाप्त हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो जर्मन वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से देखा कि कुछ मरीज़ों में एरिसिपेला बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद उनका ट्यूमर सिकुड़ गया। इनमें से एक वैज्ञानिक ने 1868 में एक कैंसर मरीज़ को जानबूझकर एरिसिपेला से संक्रमित किया और पाया कि उसका ट्यूमर सिकुड़ने लगा। यह भी देखा गया कि कभीकभी तेज़ बुखार के बाद भी ट्यूमर दब जाता है। 1891 में विलियम कोली नाम के एक सर्जन ने लंबे समय के प्रयोगों के बाद बताया कि 1000 से ज़्यादा मरीज़ों में एरिसिपेला संक्रमण के बाद ट्यूमर सिकुड़ता है। इन सारे अवलोकनों के चलते मामला ज़ोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संक्रमण के कारण जब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य से ज़्यादा सक्रिय होता है तो वह कैंसर कोशिकाओं को भी निशाना बनाता है।

मगर इस बीच कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरपी और विकिरण चिकित्सा का विकास हुआ और प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका की बात आईगई हो गई। मगर आगे चलकर विलियम कोली की बात सही साबित हुई। 1976 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने मूत्राशय के कैंसर के मरीज़ों को बीसीजी की खुराक सीधे मूत्राशय में दी और उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए। इससे पहले चूहों में बीसीजी टीके का कैंसररोधी असर दर्शाया जा चुका था। बीसीजी का पूरा नाम बैसिलस काल्मेटगुएरिन है और इसे टीबी के बैक्टीरिया को दुर्बल करके बनाया जाता है। आज यह मूत्राशय कैंसर के उपचार की जानीमानी पद्धति है।

यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रतिरक्षा तंत्र (कम से कम) कुछ कैंसर गठानों का सफाया कर सकता है। लेकिन आम तौर पर कैंसर इस तंत्र से बच निकलता है और अनियंत्रित वृद्धि करता रहता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है।

प्रतिरक्षा तंत्र कई घटकों से मिलकर बना होता है। इसमें से एक हिस्सा जन्मजात होता है और उसे बाहरी चीज़ों से लड़ने के लिए किसी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती। दूसरा हिस्सा वह होता है जो किसी बाहरी चीज़ के संपर्क में आने पर उसे पहचानना और नष्ट करना सीखता है और इसे याद रखता है। आम तौर पर बाहर से आए किसी जीवाणु वगैरह पर कुछ पहचान चिंह (एंटीजन) होते हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र को यह समझने में मददगार होते हैं कि वह अपना नहीं बल्कि पराया है।

अब कैंसर कोशिकाओं को देखें। यह तो सही है कि कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में कई उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशंस के कारण उनकी पहचान थोड़ी अलग हो जाती है, उनकी सतह पर विशेष पहचान चिंह होते हैं और प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें पहचान सकती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं एक बात का फायदा उठाती हैं।

हमारी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को कोई शत्रु नज़र आए तो वे उसे मारने के साथसाथ स्वयं की संख्या बढ़ाने लगती हैं। समस्या यह आती है कि यदि यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाए तो हमारे शरीर की शामत आ जाती है क्योंकि ये कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं पर भी हल्ला बोल सकती हैं। ऐसा होने पर कई बीमारियां पनपती हैं जिन्हें स्वप्रतिरक्षा रोग या ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। इसलिए प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर कुछ स्विच होते हैं। हमारी सामान्य कोशिकाएं इन स्विच की मदद से इन्हें काम करने से रोकती हैं। कैंसर कोशिकाएं इन्हीं स्विच का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं को काम करने से रोक देती हैं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि कैंसर कोशिकाएं तो बेलगाम ढंग से संख्यावृद्धि करती रहती हैं किंतु प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या नहीं बढ़ती।

जिस खोज के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है उसका सम्बंध इन्हीं स्विच से है जो एक तरह से ब्रोक का काम करते हैं। टेक्सास विश्वविद्यालय के ह्रूस्टन स्थित एम.डी. एंडरसन कैंसर सेंटर के जेम्स एलिसन और क्योटो विश्वविद्यालय के तसाकु होन्जो ने अलगअलग काम करते हुए दो ऐसे स्विच खोज निकाले हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र पर ब्रोक का काम करते हैं। एक स्विच का नाम है सायटोटॉक्सिक टीलिम्फोसाइट एंटीजन-4 (सीटीएलए-4) तथा दूसरे का नाम है प्रोग्राम्ड सेल डेथ 1 (पीडी-1)। शोधकर्ताओं ने इन ब्रोक को नाकाम करके प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को सक्रिय करने में सफलता प्राप्त की है और दोनों के ही आधार पर औषधियां बनाई जा चुकी हैं। हालांकि अभी प्रतिरक्षा तंत्र के ब्रोक्स को हटाकर कैंसर से लड़ाई में सफलता कुछ ही किस्म के कैंसर में मिली है किंतु पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक कारगर विधि साबित होगी।

लेकिन कैंसर कोशिकाओं के पास बचाव के और भी तरीके हैं। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर आधारित कैंसर उपचार की चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। जैसे कैंसर कोशिकाएं एक और हथकंडा अपनाती हैं। वे अपने आसपास सामान्य कोशिकाओं का एक सूक्ष्म पर्यावरण बना लेती हैं। दूसरे शब्दों में कैंसर कोशिका सामान्य कोशिकाओं के बीच में छिपी बैठी रहती है और प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं वहां तक पहुंच नहीं पाती। शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि इन कोशिकाओं को उजागर करें ताकि प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें नष्ट कर पाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया का सबसे ऊष्मा प्रतिरोधी पदार्थ – डॉ. दीपक कोहली

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़ हाइपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल सकती है। ब्रिटेन के इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफिनयम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है।

टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रैक्ट्री सिरेमिक्स हैं। इसका अर्थ यह है कि ये असाधारण रूप से ऊष्मा के प्रतिरोधी हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ यह है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म वातावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है।

इन दोनों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे परीक्षण से यह देखा जा सकता है कि यह कितने अधिक गर्म वातावरण में काम कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तीक्ष्ण गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है।

उन्होंने पाया कि यदि इन दोनों यौगिकों को मिश्रित कर दिया जाए तो उनका गलनांक 3905 डिग्री सेल्सियस था, लेकिन दोनों यौगिकों को अलग-अलग गर्म किए जाने पर उनके गलनांक अब तक ज्ञात पदार्थों के गलनांक से ज़्यादा पाए गए। टैंटेलम कार्बाइड 3768 डिग्री सेल्सियस पर पिघल गया जबकि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक 3958 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया। यह निष्कर्ष नई पीढ़ी के हाइपरसोनिक वाहनों, यानी अब तक के सबसे तेज़ रफ्तार अंतरिक्ष यानों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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रहस्यमयी मस्तिष्क कोशिका खोजी गई

हाल ही में शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क कोशिका परिवार में एक नया सदस्य पहचाना है। ये रहस्यमयी कोशिकाएं नए प्रकार के न्यूरॉन बंडल के रूप में कॉर्टेक्स की ऊपरी परत में पाई जाती हैं। इन्हें इंसानों में देखा गया है किंतु चूहों में ये अनुपस्थित हैं। इन्हें ‘रोज़हिप न्यूरॉन्स’ नाम दिया गया है। कॉर्टेक्स में कई ऐसे न्यूरॉन्स पाए जाते हैं जो अन्य न्यूरॉन्स की गतिविधि को रोकते हैं।

वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क संरचना के सूक्ष्म अध्ययन और अलग-अलग कोशिकाओं के आनुवंशिक विश्लेषण के के मिले-जुले उपयोग से मानव मस्तिष्क ऊतक की स्लाइसों में इन न्यूरॉन्स को देखा। ये कोशिकाएं घने, झाड़ीदार आकार के साथ छोटी और सुघटित रूप में थी। इन कोशिकाओं के विस्तारों पर, जहां से वे अन्य कोशिकाओं को संकेत भेजने का काम करती हैं, वहां असामान्य रूप से बड़ी और बल्ब जैसी रचनाएं थीं।

इन कोशिकाओं के सटीक वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिकों ने जीन संरचना का विश्लेषण किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि अवरोधक रोज़हिप न्यूरॉन्स में मानव जीन का सेट पूर्व में चूहों में पाई गई किसी भी कोशिका से मेल नहीं खाता है जबकि चूहों को मनुष्य के अध्ययन के लिए मॉडल जंतु के रूप में उपयोग किया जाता है। नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ये मॉडल के रूप में उपयुक्त नहीं हैं। एक सवाल यह है कि क्या मस्तिष्क कार्यों के लिए महत्वपूर्ण यही वो न्यूरॉन है जो हमें चूहों से अलग करते हैं।

लेकिन इन नए न्यूरॉन्स का सटीक कार्य अभी भी एक रहस्य है। रोज़हिप न्यूरॉन्स कॉर्टेक्स की पहली परत में केवल 10-15 प्रतिशत अवरोधक न्यूरॉन्स के रूप में मौजूद हैं और इनके कहीं और पाए जाने की संभावना थोड़ी कम ही है। अन्य न्यूरॉन्स के संपर्क के स्थान से पता चलता है कि वे उत्तेजक संकेतों पर रोक लगाने के लिए एक उम्दा स्थिति में हैं। शोधकर्ता अब बड़े तंत्रिका सर्किटों में रोज़हिप न्यूरॉन्स की जमावट और तंत्रिका सम्बंधी रोगों में इनकी भूमिका का अध्ययन भी करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आपकी चमड़ी बोलेगी और सुनेगी

पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से तरक्की हो रही है। अब वैज्ञानिकों ने ऐसे उपकरण विकसित किए हैं जो आपकी त्वचा को स्पीकर या माइक्रोफोन में बदल देंगे। इन्हें कान में या गले पर लगाने पर सुनने और बोलने की दिक्कत से पीड़ित व्यक्ति को सुनने-बोलने में मदद मिलेगी।

दरअसल शोधकर्ता ऐसे स्पीकर और माइक्रोफोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो टेटू से भी पतले हों और आवाज़ को बढ़ा सकें। स्पीकर और माइक्रोफोन तो जानी-मानी टेक्नॉलॉजी है मगर उन्हें एकदम पतला बनाना एक तकनीकी चुनौती है। सबसे पहले तो आपके पास ऐसा इलेक्ट्रॉनिक सर्किट होना चाहिए जो अत्यंत पतला हो और इतना लचीला हो कि चमड़ी के साथ-साथ खिंच सके, मुड़ सके, सिकुड़ सके। विभिन्न पदार्थों को आज़माने के बाद शोधकर्ताओं ने इसके लिए चांदी के महीन तारों को चुना। इन तारों को पोलीमर की परतों से ढंका गया। इस तरह जो सर्किट बना वह लचीला था, पारदर्शी था तथा विद्युत संकेतों के प्रेषण में सक्षम था।

जब इस सर्किट को कोई ध्वनि (श्रव्य) संकेत मिलता है तो इसमें लगा नन्हा-सा लाउडस्पीकर पूरे सर्किट को गर्म कर देता है। अब यह सर्किट हवा में हो रहे दबाव के बदलावों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें कान ध्वनि के रूप में महसूस करता है। इसके विपरीत माइक्रोफोन ध्वनि संकेतों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें रिकॉर्ड किया जा सकता है या सुना जा सकता है।

साइंस एडवांसेस नाम शोध पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि यह उपकरण मुंह से निकलने वाली ध्वनियों को तो पहचान ही सकता है अपितु यह आपके गले में उपस्थित स्वर यंत्र (वोकल कॉर्ड) में हो रहे कंपनों को पढ़कर भी ध्वनि पैदा कर सकता है। अभी इस उपकरण का परीक्षण चल रहा है। कोशिश है कि ध्वनि की गुणवत्ता और वॉल्यूम में सुधार किया जाए ताकि यह सुनने-बोलने में दिक्कत महसूस करने वाले लोगों के लिए एक उपयोगी यंत्र बन जाए। तो जल्दी ही हम चमड़ी पर पहने जा सकने वाले स्पीकरों और माइक्रोफोन्स का उपयोग कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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एक उल्टी चलनी

म तौर पर चलनियां ऐसी होती हैं कि उनमें से छोटे कण तो निकल जाते हैं जबकि बड़े कण रुक जाते हैं। गेहूं, चावल की चलनी के अलावा चाय छननी भी तो यही करती है। मगर साइन्स एडवांसेज़ जर्नल में शोधकर्ताओं ने एक ऐसी चलनी का विचार पेश किया है जो इससे ठीक उल्टा काम करती है। वह बड़े-बड़े कणों को निकल जाने देती है और छोटे-छोटे कणों को रोक लेती है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के द्वारा बनाई गई यह चलनी कणों की छंटाई उनकी साइज़ के आधार पर नहीं करती बल्कि उनमें उपस्थित गतिज ऊर्जा के आधार पर करती है। जिन कणों की गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है वे इस चलनी को पार कर जाते हैं।

यह चलनी एक ऐसी झिल्ली है जो तरल पदार्थ से बनी है और यह तरल पदार्थ पृष्ठ तनाव नामक बल से अपनी जगह टिका रहता है। जैसे साबुन के पानी की झिल्ली बनती है। शोधकर्ताओं ने इस झिल्ली का निर्माण सोडियम डोडेसिल सल्फेट को पानी में घोलकर किया है। जब कोई अधिक गतिज ऊर्जा वाला कण इस झिल्ली से टकराता है तो वह झिल्ली को चीरकर पार निकल जाता है। पृष्ठ तनाव की वजह से कण के निकल जाने के बाद झिल्ली वापिस जुड़कर साबुत हो जाती है।

शोधकर्ताओं ने ऐसी कई झिल्लियां बनार्इं जिनके पृष्ठ तनाव अलग-अलग थे। इसके बाद इस झिल्ली पर अलग-अलग ऊंचाइयों से कांच या प्लास्टिक के मोती टपकाए गए। यह देखा गया कि अधिक ऊंचाई से गिरने वाले मोती या अधिक वज़न वाले मोती झिल्ली के पार निकल जाते हैं जबकि कम ऊंचाई से गिरने वाले या कम वज़न वाले मोती ऊपर ही अटक जाते हैं।

गौरतलब है कि किसी भी वस्तु की गतिज ऊर्जा दो बातों पर निर्भर करती हैं। पहली है उसका द्रव्यमान और दूसरी है उसकी गति। इसलिए भारी कणों को ज़्यादा ऊंचाई से गिराया जाए तो उनमें गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है और वे झिल्ली पर इतना बल लगा पाती हैं कि उसे चीर दें।

शोधकर्ताओं ने तरह-तरह से प्रयोग करके ऐसी झिल्ली के लिए गणितीय समीकरण भी विकसित किए हैं। उनका कहना है कि इस झिल्ली का उपयोग मच्छरों, जीवाणुओं, धूल के कणों और यहां तक कि गंध के अणुओं को रोकने में किया जा सकेगा। ऐसी झिल्ली चिकित्सा की दृष्टि से काफी उपयोगी साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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होंठों को पढ़ेगी कृत्रिम बुद्धि

जो लोग सुन नहीं सकते वे अक्सर होंठों की हरकत को देखकर अंदाज़ लगाते हैं कि सामने वाला क्या बोल रहा है। इसे लिप रीडिंग कहते हैं। मगर यह आसान नहीं होता और बहुत गलतियां होती हैं। अब शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धि पर आधारित लिप रीडिंग का एक प्रोग्राम बनाया है जो कहीं बेहतर परिणाम दे सकता है। उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक सरल से उपकरण के रूप में बधिरों की सहायता कर सकेगा। मगर इसे बनाना आसान नहीं रहा है।

पहले तो कंप्यूटर को लाखों घंटे के वीडियो दिखाए गए। इनमें लोग बोल रहे थे और साथ में लिखा था कि वे क्या बोल रहे हैं। इसके आधार पर कंप्यूटर को स्वयं सीखना था कि कौनसी ध्वनि के लिए होंठ कैसे हिलते हैं।

अब शोधकर्ताओं ने यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो में से 1 लाख 40 हज़ार घंटे का फुटेज लिया। इनमें लोग विभिन्न परिस्थितियों में बातें करते दिखाई देते हैं। इसके बाद उन्होंने इनमें से छोटेछोटे टुकड़े या क्लिप्स बनाए। प्रत्येक क्लिप में किसी एक शब्द की ध्वनि थी और उससे जुड़ी होंठों की हरकत थी। क्लिप्स मात्र अंग्रेज़ी भाषियों की ही बनाई गई थीं, और ध्वनि स्पष्ट थी तथा चित्र सामने से लिए गए थे। इन क्लिप्स में से शोधकर्ताओं ने वीडियो को इस तरह काटा कि सिर्फ मुंह दिखाई दे और शब्द सुनाई दे। इस तरह से उन्होंने 4000 घंटे का फुटेज तैयार किया जिसमें सवा लाख अंग्रेज़ी शब्द बोले गए थे। प्रत्येक क्लिप पर वह शब्द भी लिखा गया था जो उस क्लिप के होंठ बोल रहे हैं।

अब इन वीडियो क्लिप्स को एक अन्य प्रोग्राम के सामने चलाया गया। इस दूसरे प्रोग्राम को करना यह था कि होंठों की किसी भी हरकत के लिए वह संभावित शब्दों की सूची बनाए। और अंत में इन संभावित शब्दों को लेकर एक अन्य प्रोग्राम ने वाक्य बना दिए।

शोधकर्ताओं ने इस प्रोग्राम को 37 मिनट का वीडियो दिखाया और उसके द्वारा पहचाने गए शब्दों को रिकॉर्ड किया। पता चला कि कृत्रिम बुद्धि ने मात्र 41 प्रतिशत शब्दों को गलत पहचाना। aiXiv नामक वेबसाइट पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में टीम ने कहा है कि 59 प्रतिशत गलतियां बहुत ज़्यादा लगती हैं किंतु इन्हें पहले हासिल की गई उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। मसलन पूर्व में विकसित एक कंप्यूटर प्रोग्राम 77 प्रतिशत बार गलत होता था।

यदि यह कृत्रिम बुद्धि आधारित होंठ पढ़ने वाला प्रोग्राम सफल रहता है तो बधिरों के लिए काफी सुविधाजनक होगा।(स्रोत फीचर्स)

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भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में शोध – डॉ. नटराजन पंचापकेसन

र्ष 2017, गुरुत्वाकर्षण और खगोल भौतिकी के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए काफी रोमांचक रहा। अगस्त में लीगो समूह ने घोषणाएं कीं। लीगो समूह में हैनफोर्ड और लिविंगस्टन (यूएसए) के अलावा पीसा (इटली) स्थित समूह भी शामिल हैं। लीगो का पहला अवलोकन एक ब्लैक होल के विलय का था। दूसरा अवलोकन दो न्यूट्रॉन तारों के विलय का था। दूसरे अवलोकन की सूचनाएं ऐसे उपकरणों को प्रेषित की गई थीं जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों के विभिन्न हिस्सों (रेडियो तरंगों, गामा तरगों, और प्रकाशीय तरंगों) के विभिन्न क्षेत्रों के प्रति संवेदनशील थे। आश्चर्यजनक रूप से, ये उपकरण भी घटना को देखने में सक्षम थे। इस तरह मिलेजुले डैटा की मदद से न्यूट्रॉन तारों के विलय का बेहतर विवरण प्राप्त हुआ। जैसा कि स्टीफन हॉकिंग ने बीबीसी को दिए गए अपने अंतिम साक्षात्कार में कहा था: हम अपनी आंखों या सही मायनों में अपने कानों को अभी मसल ही रहे हैं, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण तरंगों की आवाज़ ने हमें अभी जगाया है।

यह लगभग ऐसा था जैसे प्रकृति ने खुद इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों की हिचकिचाती सोच की पुष्टि कर दी हो। यह एहसास कुछ हद तक वैसा ही था जैसा तब हुआ था जब 1965 में पेन्ज़ियास और विल्सन ने ब्राहृांडीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण (सीएमबीआर) की खोज की थी। इस खोज के साथ गैमोव, एल्फर और हरमन के वे परिणाम अचानक सही साबित हो गए थे जिन्हें अटकलबाज़ी माना जा रहा था।

न्यूट्रॉन तारों की खोज 1967 में बर्नेल और हेविश ने की थी। चूंकि ये तारे नियमित समयअंतराल पर ऊर्जापुंज (पल्स) उत्सर्जित कर रहे थे इसलिए उन्हें पल्सरनाम दिया गया। हम अभी भी विस्तार से पल्स उत्सर्जन की क्रियाविधि नहीं समझ पाए हैं। हालांकि, 50 साल बाद हम यह समझ गए हैं कि उनका आपस में विलय कैसे होता है।

2015 में, ब्लैक होल विलय ने विश्वेश्वरा के ब्लैक होल के क्वासीनॉर्मल मोड्स की गणना को सही साबित कर दिया था। जिस समय उन्होंने ये गणनाएं की थीं उससमय तक कोई भी ब्लैक होल के अस्तित्व में विश्वास तक नहीं करता था।

वास्तव में गुरुत्वाकर्षण तरंग के विस्थापन प्रोटॉन के आकार की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। इसलिए जो कुछ हम देख पा रहे हैं, उसे लेकर हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न हो रही है। वैसे, रेडियो, प्रकाशीय और उच्च ऊर्जा संकेतों का एक साथ अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि न्यूट्रॉन तारों के विलय के दौरान गुरुत्व तरंगें निर्मित होती हैं और वास्तव में, अब हमारे पास ब्राहृांड को देखने के लिए एक नया झरोखा है।

2015 के परिणाम (जिसके परिणामस्वरूप नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था) केवल लीगो समूह के थे, किंतु 2017 के परिणाम लीगो और वर्गो समूह के संयुक्त परिणाम थे। इसने अंतरिक्ष में उक्त घटना स्थल को अधिक सटीकता से परिसीमित करने में मदद की।

आने वाले कुछ वर्षों में भारत भी उम्मीद करेगा कि उसके पास स्वयं का लिगो (इंडिगो) हो और वह भी इस संयुक्त उपक्रम का हिस्सा बने। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज स्पष्ट रूप से अधिकांश लोगों के लिए अवलोकन का एक नया झरोखा है।

एक समानांतर विकास में, पुणे स्थित इंटर युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (आईयूसीएए) और बैंगलुरू में रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) तथा अन्य कुछ अन्य स्थानों के भारतीय वैज्ञानिक, दुनिया भर के हज़ारों शोधकर्ताओं के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण तरंगों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आईयूसीएए में, नार्लीकर ने शुरुआत से ही गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। धुरंधर और उनके सहयोगियों ने सिग्नल के लिए कुछ टेम्पलेट्स के उपयोग का विचार दिया, जिनकी मदद से तमाम शोर को अलग किया जा सकता था। ऑस्ट्रेलिया और यूएसए के संस्थानों के साथ भी सहयोग था। आरआरआई में, बाला अय्यर और उनके समूह ने गुरुत्वाकर्षण समीकरणों के समाधान के अध्ययन के लिए न्यूटनउपरांत विधियों का उपयोग करके तारों के विलय के परिणामों की गणना की। अय्यर को फ्रांस में डामौर और उनके समूह के साथ काम करने का मौका मिला। मैं उनके कुछ छात्रों का थीसिस परीक्षक था। मैं मासूमियत से सोचता (चिंता करता) था कि इन छात्रों को नौकरियां कहां मिलेंगी? परंतु ये वैज्ञानिक तो अब भारत में चल रहे प्रयासों के केंद्र में हैं। दी इंटरनेशनल सेंटर फॉर थिएरेटिकल साइंस अब इस क्षेत्र में एक प्रमुख केंद्र बन गया है। तरुण सौरादीप ने आईयूसीएए, पुणे समूह के साथसाथ पूरे भारत के लिए गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अनुसंधान और इंडिगो की स्थापना का ज़िम्मा उठाया है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में खगोल भौतिकी और सामान्य सापेक्षता में कुछ सक्रिय कार्यकर्ता हैं जिनमें से कई आईयूसीएए का दौरा कर चुके हैं। अतीत में वैज्ञानिक अनुसंधान में विश्वविद्यालयों ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद उनका महत्व तेज़ी से कम हो रहा है। पश्चिम में, खासकर ब्रिाटेन और यूएसए में, विश्वविद्यालय शिक्षण और अनुसंधान दोनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं है?

इसका एक कारण देश में अनुसंधान का निम्न स्तर हो सकता है। हालांकि, विश्वविद्यालय औसत से भी कम प्रतीत होते हैं। इसके दो व्यापक कारण हैं: एक प्रशासनिक और दूसरा शैक्षणिक। बहुत कम विश्वविद्यालयों में दूरगामी योजनाएं बनाने के लिए कोई समूह है। अक्सर कुलपति विश्वविद्यालय के बाहर से आता है और थोड़ीबहुत जानकारी के साथ ही विश्वविद्यालय के संकाय में से अपनी टीम चुनता है। लंबे समय के लिए योजनाएं बनाने में मदद करने के लिए बहुत कम संकायों के पास आवश्यक दृष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप निरंतरता नहीं बन पाती और एक कुलपति का पांच वर्ष का कार्यकाल मानकों को सुधारने या बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि समय पर हों और निष्पक्ष रूप से हों, तो भी नियुक्तियां लॉटरी की तरह होती हैं, जिनमें चयन उस समय उपलब्ध उम्मीदवारों में से करना होता है। दूसरा कारण शिक्षण पद्धति है, जो छात्र को उस स्तर पर जानकारी देने पर ज़ोर देती है जो उसकी उपलब्धियों से बहुत दूर है। इसके साथ, ट्यूटोरिअल वगैरह के लिए अपर्याप्त समय का नतीजा यह होता है कि अधिकांश छात्र लगभग रटने को मजबूर हो जाते हैं। छात्रों को कभी भी संतुष्टि और खुशी का अनुभव नहीं होता, जो कुछ नया समझने और इसे अपने वैश्विक दृष्टिकोण में जोड़ने से आता है। यहां तक कि आंतरिक रूप से आयोजित की जाने वाली परीक्षाएं भी वर्णनात्मक प्रश्नों पर आधारित होती हैं जिनके उत्तर देने के लिए याददाश्त से उत्तर तेज़ी से निकालने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप हमें ऐसे छात्र मिलते हैं, जो अक्सर अंत में जाकर शिक्षक (स्कूलों से लेकर कॉलेजों के सभी स्तरों पर) बनते हैं और अपने शिक्षकों की तरह ही काम करते हैं।

इसे कैसे बदलें? मेरे विचार में हम आईआईटी जैसे संस्थानों से सबक ले सकते हैं। प्रत्येक संकाय के लिए एक गवर्निंग बॉडी हो ताकि नीतियों को निरंतरता और दिशा मिल सके। आदर्श रूप से विभागों या संकाय के डीन या प्रमुख को यह नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। हालांकि, अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रमुख की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता का मापदंड होता है जिसके चलते उनमें नेतृत्व करने के गुण सीमित होते हैं। इस मामले में आईयूसीएए आदर्श होगा जहां बढ़िया गवर्निंग बॉडी के साथ अच्छा कार्यकारी प्रमुख होता है। निदेशक को पश्चिमी विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय समिति का सहयोग प्राप्त था। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर (आईयूएसी) में संयुक्त राज्य अमेरिका के सक्रिय एनआरआई थे जो सलाह देने के साथ उनकी मदद भी कर रहे थे। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? यूजीसी, विश्वविद्यालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार या विज्ञान अकादमियां?

वास्तव में, यूजीसी ने उपरोक्त मुद्दों पर पहले से ही कुछ अच्छा काम किया है। वास्तविकता तो यह है कि यूजीसी द्वारा इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर (आईयूसीएए) की स्थापना की बदौलत ही विश्वविद्यालयों के मेरे जैसे लोग भी ब्राहृांड विज्ञान, गुरुत्वाकर्षण तरंगों, अष्टेकर वेरिएबल्स और क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र में शामिल हो पाए थे। 1980 के दशक के अंत में पुणे में स्थापित आईयूसीएए की अध्यक्षता नार्लीकर ने की थी, जिसने केंद्र के भवन को डिज़ाइन करने के लिए प्रसिद्ध वास्तुकार चाल्र्स कोरिया को राज़ी किया था। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ उदार कलाओं का संयोजन था। यूजीसी के एक अन्य केंद्र आईयूएसी के साथ भी मैंने काम किया है। इसका नेतृत्व आईआईटी कानपुर के एक परमाणु भौतिक विज्ञानी गिरिजेश मेहता कर रहे थे। इन केंद्रों की स्थापना के लिए, यूजीसी के तत्कालीन उपाध्यक्ष रईस अहमद को संसद में यूजीसी अधिनियम संशोधन करवाना पड़ा था। यूजीसी के अध्यक्ष बनने पर यश पाल ने भी वास्तव में कई चीज़ों को आगे बढ़ाया। इन दो और इंदौर में तीसरे केंद्र के कारण ही आज विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक विशेषज्ञों से चर्चा कर सकते हैं और नवीनतम प्रगति जान सकते हैं। उनके प्रवास पूरा खर्च यूजीसी केंद्र वहन करता है।

जो छात्र हाल ही में पीएचडी प्राप्त करके अपने संस्थानों में वापस गए थे (जैसे नेपाल का मेरा छात्र), उन्होंने इन केंद्रों का दौरा किया और वहां वरिष्ठ संकाय द्वारा उन्हें सलाह भी दी गई। वहां कुछ ने टेलीस्कोप डैटा के साथ काम करना भी सीख लिया। टीआईएफआर के नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोफिज़िक्स के पुणे में होने से मदद मिलती है। गोविंद स्वरूप हमेशा विश्वविद्यालयों को याद दिलाते रहते हैं कि छात्रों और शिक्षकों को विषय और डैटा विश्लेषण के बारे में सीखने के लिए भेजें। दिल्ली विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों को इस तरह की मदद से काफी फायदा हुआ। आईयूएसी में, प्रत्येक परियोजना में विश्वविद्यालयोंकॉलेजों के शिक्षकों को शामिल करना होता था। आईयूएसी अनुप्रयोगों के लिए परमाणु वैज्ञानिकों को परिचित कर रहा है पहले संघनित पदार्थ भौतिकी में और अब जीव विज्ञान में। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के बीच इन अंतरविश्वविद्यालयीन केंद्रों के प्रभाव को और मज़बूत करने की आवश्यकता है।

हमें कचरा निपटान, नदी की सफाई, नरवाई जलाने जैसी खराब कृषि प्रथाओं, आदि के लिए अंतर्विषयक परियोजनाओं के लिए उपकेंद्र स्थापित करना चाहिए। हम इन क्षेत्रों में भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईटी आदि में विशेषज्ञता विकसित कर रहे हैं। अपने कैरियर के दौरान कई शिक्षक अपनी पीएचडीसमस्याओं में रुचि खो देते हैं, जिनका महत्व अब खत्म हो गया है। कुछ ही सामाजिक हितों की समस्याओं पर ध्यान देते हैं।

अंत में, अकादमियों और समितियों की भूमिका जुड़ाव और संबद्धता की समझ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण है। दी एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया और दी इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेशन ने एक समावेशी तरीके से मेरी रुचि के क्षेत्रों में उपयोगी भूमिका निभाई है। विश्वविद्यालय और कॉलेज में पी. सी. वैद्य और ए. के. रायचौधरी जैसे सक्षम शिक्षकों की उपस्थिति काफी प्रेरणादायक थी। उच्च ऊर्जा और परमाणु भौतिकी समूहों की वार्षिक या द्विवार्षिक बैठकें भी बेहद उपयोगी और कामकाजी थीं। ए. एस. दिवातिया, बी. एम. उदगांवकर और अन्य द्वारा स्थापित भारतीय भौतिकी संघ काफी महत्वाकांक्षी था, लेकिन वह अपने अमेरिकी समकक्ष की तरह विकसित नहीं हो पाया। मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से अनुदान की भूमिका का भी ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसमें प्रयोगात्मक काम के अलावा दिल्ली में एस्ट्रोपार्टिकल भौतिकी में सैद्धांतिक कार्य के लिए भी एक बड़ा अनुदान (सौजन्य एन. मुकुंदा) दिया गया। राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी (एनआईआरएफ) की हालिया रिपोर्ट में कई विश्वविद्यालयों के बारे में सकारात्मक बातें कही गई हैं। हालांकि, अभी रास्ता काफी लंबा है। प्रतिभा को तलाशने और पोषित करने की बेहतर क्षमता के अलावा, सभी अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बीच और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कंप्यूटर और संस्कृत भाषा – प्रतिका गुप्ता

ह बात आम बातचीत में अक्सर उभरती है कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है और इसे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। इस बात का काफी समर्थन किया जा रहा है। यहां तक कि कुछ प्रदेशों की सरकारों ने बच्चों के लिए संस्कृत भाषा अनिवार्य विषय कर दिया है।

कंप्यूटर एक मशीन है जो निर्देशों पर काम करती है। इसके लिए निर्देश लिखने में किसी भाषा का उपयोग किया जाता है। कंप्यूटर उस भाषा में लिखे निर्देशों को पढ़ता है और उन्हीं निर्देशानुसार काम करता है। इसलिए इन निर्देशों को सटीकता से लिखा जाना ज़रूरी है।

कंप्यूटर उपयुक्त भाषा

कंप्यूटर की भाषा संदर्भमुक्त होनी चाहिए। संदर्भमुक्त भाषा यानी किसी निर्देश, वाक्य या शब्द का अर्थ संदर्भ पर आधारित ना हो। हम जो भाषा बोलते उसमें कई बार किसी वाक्य या शब्द का अर्थ इससे निकालते हैं कि वे किस बारे में कहा जा रहा है (जैसे सोना, हवा में उड़ना, उसको चमका देना वगैरह)। मशीन के लिए संदर्भ समझकर उस हिसाब से निर्देश लागू करना मुश्किल है और इसमें गड़बड़ियों की संभावना ज़्यादा है। इसलिए भाषा ऐसी हो जिसका अर्थ समझने के लिए किसी संदर्भ का उपयोग ना करना पड़े। सिर्फ वाक्य ही अपने आप में पूरा और एकमेव अर्थ व्यक्त करे। अर्थात एक वाक्य का एक ही अर्थ होना चाहिए।

कंप्यूटर जब निर्देशों को पढ़ता है तो पूरा वाक्य एक साथ पढ़कर मतलब समझने की बजाय उसे तोड़ता है। उसके वाक्य विन्यास को पढ़ता है और अर्थ निकालता है। भाषा ऐसी होना चाहिए कि उसके वाक्यों को तोड़ने पर उसका अर्थ ना बदले। कंप्यूटर इसे आसानी से पढ़कर निर्देशित कार्य कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की मदद से सामान्य भाषा की बातों को इस रूप में बदला जाएगा जिसे कंप्यूटर समझ सके। यह काम इंसानों को करना होगा। अत: कंप्यूटर की भाषा सीखने में आसान होनी चाहिए ताकि कोई भी इसे सीख सके और काम कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की एक विशेषता यह भी होगी उस भाषा के अक्षर मेमोरी में कम जगह घेरते हों। ज़्यादा जगह मतलब ज़्यादा कीमत। और ज़्यादा जगह घेरने वाली भाषा कार्य को पूरा करने का समय भी बढ़ा सकती है।

दुनिया में बोली जाने वाली समस्त भाषाएं (प्राकृतिक भाषाएं) संदर्भ आधारित हैं। यानी वाक्यों या शब्दों का अर्थ संदर्भ से निकलता है। इसलिए भाषा सम्बंधी गड़बड़ियों से बचने के लिए, कुछ वैज्ञानिकों का मत बना कि कंप्यूटर के लिए कृत्रिम भाषा बनाई जाए।

संस्कृत भाषा

संस्कृत भी एक प्राकृतिक भाषा है। ये ऐसी पहली भाषा मानी जाती है जिसके व्याकरण को सुव्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध किया गया था। इसके भाषा के नियमों को व्यवस्थित करने का काम  पाणिनी ने किया था। व्याकरण को लिखने में पाणिनी ने सहायक प्रतीकोंका उपयोग किया था। जिसमें शब्दों या वाक्यों के अर्थ में दोहरापन कम से कम करने के लिए शब्दों में नए प्रत्यय लगाए।

संस्कृत भाषा वाक्य के लगभग हर हिस्से में विभक्तियों का उपयोग करती है। यहां तक की किसी व्यक्ति, जगह के नाम के अंत में भी विभक्ति का सम्बंधित रूप का होता है। जिससे पता चलता है कि वह वाक्य में कर्ता है या कर्म। इसलिए संस्कृत में शब्द का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी वाक्य में तीन शब्द हैं तो उन्हें लिखने के 6 संभावित क्रम होंगे (जैसे बुद्धम् शरणम् गच्छामि, इसे बुद्धम् गच्छामि शरणम् या शऱणम् गच्छामि बुद्धम् लिखा जा सकता है)। इसी तरह किसी वाक्य में 4 शब्द हैं तो उसको 24 संभावित क्रमों में लिखा जा सकता है। और इनमें से किसी भी तरीके से लिखने पर उस वाक्य का अर्थ नहीं बदलता। विभक्ति के उपयोग से सीमित शब्दों में वाक्य पूरा हो जाता है। पर सिर्फ संस्कृत ही ऐसी अकेली भाषा नहीं है ऐसी और भी भाषाएं हैं। जैसे लैटिन की यही स्थिति है।

संस्कृत और कंप्यूटर

फिलहाल संस्कृत देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसमें स्वर या व्यंजन मेमोरी में स्टोर होने के लिए 2 बाइट की जगह लेते हैं। स्वर या व्यंजनों से मिलकर बने अक्षर 4 से 8 बाइट तक की जगह घेरते हैं। जबकि लैटिन में एक अक्षर एक बाइट की जगह लेता है। उदाहरण के तौर पर लैटिन में लिखे Sanskritमें 8 अक्षर हैं इसे स्टोर करने में 8 बाइट लगेंगे। वहीं देवनागरी में संस्कृतलिखने में 18 बाइट लगेंगे। यानि संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा बनाने से मेमोरी में स्टोरेज बढ़ेगा जो शायद कंप्यूटर के निर्देश पूरे करने में लगने वाले समय को बढ़ा दे और कंप्यूटर की लागत को भी।

कंप्यूटर की भाषा सीखनेसमझने में सरल होनी चाहिए। किंतु दुनिया में बहुत ही कम लोग हैं जो संस्कृत भाषा का उपयोग करते हैं, बोलचाल में तो शायद उतने भी नहीं करते।

संस्कृत में वाक्यों या शब्दों के संदर्भ आधारित होने की संभावना कम है पर एक प्राकृतिक भाषा होने के नाते संस्कृत पूरी तरह से संदर्भ मुक्त भाषा नहीं है। इन बातों को देखते हुए तो संस्कृत कंप्यूटर के लिए इतनी उपयुक्त भाषा नहीं लगती।

कैसे उठी संस्कृत की बात

80 के दशक में वैज्ञानिक कंप्यूटर के लिए बेहतर कृत्रिम भाषा बनाने जुटे हुए थे। जिसमें बोलचाल की भाषा की अस्पष्टताएं ना हो। कंप्यूटर के लिए कुछ कृत्रिम भाषाएं जैसे कोबोल, लिस्प, सी पहले ही बन चुकीं थी। इस संदर्भ में अमरीकी कंप्यूटर वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में एक पेपर प्रकाशित किया। इस पेपर में उन्होंने प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर उपयोग करने के बारे में लिखा। इसमें उन्होंने संस्कृत को केस स्टडी के रूप में लिया। उन्होंने बताया कि कैसे संस्कृत का ढांचा बेहतर है और संस्कृत भाषा नियमबद्ध है और ये नियम स्पष्ट हैं। ये नियम कृत्रिम भाषा के नियमों के काफी करीब हैं। चूंकि संस्कृत में शब्दों के स्थान बदलने से उसके अर्थ पर फर्क नहीं पड़ता इसलिए कंप्यूटर में वाक्यों को तोड़ने और उसे क्रम में जमाने की समस्या कम आएगी। उन्होंने प्राचीन व्याकरण लिखने वालों के तरीकों का अध्ययन किया और ये सुझाव दिया कि प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के लिए उपयोग किया जा सकता है। किंतु इस पेपर की सिर्फ कुछ बातों को लिया गया और यह मान लिया गया कि संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है।

यदि इस शोरगुल के चलते संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया भी जाए तो क्या यह इतना आसान होगा? वर्तमान में एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने के लिए ही बेहतर सॉफ्टवेयर नहीं हैं तो पूरे मौजूदा तंत्र को संस्कृत भाषा के तंत्र में बदलना क्या आसान होगा? संस्कृत भाषा को जानने वाले लोग कम बहुत कम हैं। क्या इतने बड़े पैमाने पर नए लोगों को भाषा सिखाने, प्रोग्राम, सॉफ्टवेयर बनाने के लिए पर्याप्त समूह जुटा पाएंगे?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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