भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में शोध – डॉ. नटराजन पंचापकेसन

र्ष 2017, गुरुत्वाकर्षण और खगोल भौतिकी के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए काफी रोमांचक रहा। अगस्त में लीगो समूह ने घोषणाएं कीं। लीगो समूह में हैनफोर्ड और लिविंगस्टन (यूएसए) के अलावा पीसा (इटली) स्थित समूह भी शामिल हैं। लीगो का पहला अवलोकन एक ब्लैक होल के विलय का था। दूसरा अवलोकन दो न्यूट्रॉन तारों के विलय का था। दूसरे अवलोकन की सूचनाएं ऐसे उपकरणों को प्रेषित की गई थीं जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों के विभिन्न हिस्सों (रेडियो तरंगों, गामा तरगों, और प्रकाशीय तरंगों) के विभिन्न क्षेत्रों के प्रति संवेदनशील थे। आश्चर्यजनक रूप से, ये उपकरण भी घटना को देखने में सक्षम थे। इस तरह मिलेजुले डैटा की मदद से न्यूट्रॉन तारों के विलय का बेहतर विवरण प्राप्त हुआ। जैसा कि स्टीफन हॉकिंग ने बीबीसी को दिए गए अपने अंतिम साक्षात्कार में कहा था: हम अपनी आंखों या सही मायनों में अपने कानों को अभी मसल ही रहे हैं, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण तरंगों की आवाज़ ने हमें अभी जगाया है।

यह लगभग ऐसा था जैसे प्रकृति ने खुद इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों की हिचकिचाती सोच की पुष्टि कर दी हो। यह एहसास कुछ हद तक वैसा ही था जैसा तब हुआ था जब 1965 में पेन्ज़ियास और विल्सन ने ब्राहृांडीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण (सीएमबीआर) की खोज की थी। इस खोज के साथ गैमोव, एल्फर और हरमन के वे परिणाम अचानक सही साबित हो गए थे जिन्हें अटकलबाज़ी माना जा रहा था।

न्यूट्रॉन तारों की खोज 1967 में बर्नेल और हेविश ने की थी। चूंकि ये तारे नियमित समयअंतराल पर ऊर्जापुंज (पल्स) उत्सर्जित कर रहे थे इसलिए उन्हें पल्सरनाम दिया गया। हम अभी भी विस्तार से पल्स उत्सर्जन की क्रियाविधि नहीं समझ पाए हैं। हालांकि, 50 साल बाद हम यह समझ गए हैं कि उनका आपस में विलय कैसे होता है।

2015 में, ब्लैक होल विलय ने विश्वेश्वरा के ब्लैक होल के क्वासीनॉर्मल मोड्स की गणना को सही साबित कर दिया था। जिस समय उन्होंने ये गणनाएं की थीं उससमय तक कोई भी ब्लैक होल के अस्तित्व में विश्वास तक नहीं करता था।

वास्तव में गुरुत्वाकर्षण तरंग के विस्थापन प्रोटॉन के आकार की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। इसलिए जो कुछ हम देख पा रहे हैं, उसे लेकर हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न हो रही है। वैसे, रेडियो, प्रकाशीय और उच्च ऊर्जा संकेतों का एक साथ अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि न्यूट्रॉन तारों के विलय के दौरान गुरुत्व तरंगें निर्मित होती हैं और वास्तव में, अब हमारे पास ब्राहृांड को देखने के लिए एक नया झरोखा है।

2015 के परिणाम (जिसके परिणामस्वरूप नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था) केवल लीगो समूह के थे, किंतु 2017 के परिणाम लीगो और वर्गो समूह के संयुक्त परिणाम थे। इसने अंतरिक्ष में उक्त घटना स्थल को अधिक सटीकता से परिसीमित करने में मदद की।

आने वाले कुछ वर्षों में भारत भी उम्मीद करेगा कि उसके पास स्वयं का लिगो (इंडिगो) हो और वह भी इस संयुक्त उपक्रम का हिस्सा बने। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज स्पष्ट रूप से अधिकांश लोगों के लिए अवलोकन का एक नया झरोखा है।

एक समानांतर विकास में, पुणे स्थित इंटर युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (आईयूसीएए) और बैंगलुरू में रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) तथा अन्य कुछ अन्य स्थानों के भारतीय वैज्ञानिक, दुनिया भर के हज़ारों शोधकर्ताओं के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण तरंगों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आईयूसीएए में, नार्लीकर ने शुरुआत से ही गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। धुरंधर और उनके सहयोगियों ने सिग्नल के लिए कुछ टेम्पलेट्स के उपयोग का विचार दिया, जिनकी मदद से तमाम शोर को अलग किया जा सकता था। ऑस्ट्रेलिया और यूएसए के संस्थानों के साथ भी सहयोग था। आरआरआई में, बाला अय्यर और उनके समूह ने गुरुत्वाकर्षण समीकरणों के समाधान के अध्ययन के लिए न्यूटनउपरांत विधियों का उपयोग करके तारों के विलय के परिणामों की गणना की। अय्यर को फ्रांस में डामौर और उनके समूह के साथ काम करने का मौका मिला। मैं उनके कुछ छात्रों का थीसिस परीक्षक था। मैं मासूमियत से सोचता (चिंता करता) था कि इन छात्रों को नौकरियां कहां मिलेंगी? परंतु ये वैज्ञानिक तो अब भारत में चल रहे प्रयासों के केंद्र में हैं। दी इंटरनेशनल सेंटर फॉर थिएरेटिकल साइंस अब इस क्षेत्र में एक प्रमुख केंद्र बन गया है। तरुण सौरादीप ने आईयूसीएए, पुणे समूह के साथसाथ पूरे भारत के लिए गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अनुसंधान और इंडिगो की स्थापना का ज़िम्मा उठाया है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में खगोल भौतिकी और सामान्य सापेक्षता में कुछ सक्रिय कार्यकर्ता हैं जिनमें से कई आईयूसीएए का दौरा कर चुके हैं। अतीत में वैज्ञानिक अनुसंधान में विश्वविद्यालयों ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद उनका महत्व तेज़ी से कम हो रहा है। पश्चिम में, खासकर ब्रिाटेन और यूएसए में, विश्वविद्यालय शिक्षण और अनुसंधान दोनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं है?

इसका एक कारण देश में अनुसंधान का निम्न स्तर हो सकता है। हालांकि, विश्वविद्यालय औसत से भी कम प्रतीत होते हैं। इसके दो व्यापक कारण हैं: एक प्रशासनिक और दूसरा शैक्षणिक। बहुत कम विश्वविद्यालयों में दूरगामी योजनाएं बनाने के लिए कोई समूह है। अक्सर कुलपति विश्वविद्यालय के बाहर से आता है और थोड़ीबहुत जानकारी के साथ ही विश्वविद्यालय के संकाय में से अपनी टीम चुनता है। लंबे समय के लिए योजनाएं बनाने में मदद करने के लिए बहुत कम संकायों के पास आवश्यक दृष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप निरंतरता नहीं बन पाती और एक कुलपति का पांच वर्ष का कार्यकाल मानकों को सुधारने या बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि समय पर हों और निष्पक्ष रूप से हों, तो भी नियुक्तियां लॉटरी की तरह होती हैं, जिनमें चयन उस समय उपलब्ध उम्मीदवारों में से करना होता है। दूसरा कारण शिक्षण पद्धति है, जो छात्र को उस स्तर पर जानकारी देने पर ज़ोर देती है जो उसकी उपलब्धियों से बहुत दूर है। इसके साथ, ट्यूटोरिअल वगैरह के लिए अपर्याप्त समय का नतीजा यह होता है कि अधिकांश छात्र लगभग रटने को मजबूर हो जाते हैं। छात्रों को कभी भी संतुष्टि और खुशी का अनुभव नहीं होता, जो कुछ नया समझने और इसे अपने वैश्विक दृष्टिकोण में जोड़ने से आता है। यहां तक कि आंतरिक रूप से आयोजित की जाने वाली परीक्षाएं भी वर्णनात्मक प्रश्नों पर आधारित होती हैं जिनके उत्तर देने के लिए याददाश्त से उत्तर तेज़ी से निकालने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप हमें ऐसे छात्र मिलते हैं, जो अक्सर अंत में जाकर शिक्षक (स्कूलों से लेकर कॉलेजों के सभी स्तरों पर) बनते हैं और अपने शिक्षकों की तरह ही काम करते हैं।

इसे कैसे बदलें? मेरे विचार में हम आईआईटी जैसे संस्थानों से सबक ले सकते हैं। प्रत्येक संकाय के लिए एक गवर्निंग बॉडी हो ताकि नीतियों को निरंतरता और दिशा मिल सके। आदर्श रूप से विभागों या संकाय के डीन या प्रमुख को यह नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। हालांकि, अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रमुख की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता का मापदंड होता है जिसके चलते उनमें नेतृत्व करने के गुण सीमित होते हैं। इस मामले में आईयूसीएए आदर्श होगा जहां बढ़िया गवर्निंग बॉडी के साथ अच्छा कार्यकारी प्रमुख होता है। निदेशक को पश्चिमी विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय समिति का सहयोग प्राप्त था। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर (आईयूएसी) में संयुक्त राज्य अमेरिका के सक्रिय एनआरआई थे जो सलाह देने के साथ उनकी मदद भी कर रहे थे। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? यूजीसी, विश्वविद्यालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार या विज्ञान अकादमियां?

वास्तव में, यूजीसी ने उपरोक्त मुद्दों पर पहले से ही कुछ अच्छा काम किया है। वास्तविकता तो यह है कि यूजीसी द्वारा इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर (आईयूसीएए) की स्थापना की बदौलत ही विश्वविद्यालयों के मेरे जैसे लोग भी ब्राहृांड विज्ञान, गुरुत्वाकर्षण तरंगों, अष्टेकर वेरिएबल्स और क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र में शामिल हो पाए थे। 1980 के दशक के अंत में पुणे में स्थापित आईयूसीएए की अध्यक्षता नार्लीकर ने की थी, जिसने केंद्र के भवन को डिज़ाइन करने के लिए प्रसिद्ध वास्तुकार चाल्र्स कोरिया को राज़ी किया था। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ उदार कलाओं का संयोजन था। यूजीसी के एक अन्य केंद्र आईयूएसी के साथ भी मैंने काम किया है। इसका नेतृत्व आईआईटी कानपुर के एक परमाणु भौतिक विज्ञानी गिरिजेश मेहता कर रहे थे। इन केंद्रों की स्थापना के लिए, यूजीसी के तत्कालीन उपाध्यक्ष रईस अहमद को संसद में यूजीसी अधिनियम संशोधन करवाना पड़ा था। यूजीसी के अध्यक्ष बनने पर यश पाल ने भी वास्तव में कई चीज़ों को आगे बढ़ाया। इन दो और इंदौर में तीसरे केंद्र के कारण ही आज विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक विशेषज्ञों से चर्चा कर सकते हैं और नवीनतम प्रगति जान सकते हैं। उनके प्रवास पूरा खर्च यूजीसी केंद्र वहन करता है।

जो छात्र हाल ही में पीएचडी प्राप्त करके अपने संस्थानों में वापस गए थे (जैसे नेपाल का मेरा छात्र), उन्होंने इन केंद्रों का दौरा किया और वहां वरिष्ठ संकाय द्वारा उन्हें सलाह भी दी गई। वहां कुछ ने टेलीस्कोप डैटा के साथ काम करना भी सीख लिया। टीआईएफआर के नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोफिज़िक्स के पुणे में होने से मदद मिलती है। गोविंद स्वरूप हमेशा विश्वविद्यालयों को याद दिलाते रहते हैं कि छात्रों और शिक्षकों को विषय और डैटा विश्लेषण के बारे में सीखने के लिए भेजें। दिल्ली विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों को इस तरह की मदद से काफी फायदा हुआ। आईयूएसी में, प्रत्येक परियोजना में विश्वविद्यालयोंकॉलेजों के शिक्षकों को शामिल करना होता था। आईयूएसी अनुप्रयोगों के लिए परमाणु वैज्ञानिकों को परिचित कर रहा है पहले संघनित पदार्थ भौतिकी में और अब जीव विज्ञान में। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के बीच इन अंतरविश्वविद्यालयीन केंद्रों के प्रभाव को और मज़बूत करने की आवश्यकता है।

हमें कचरा निपटान, नदी की सफाई, नरवाई जलाने जैसी खराब कृषि प्रथाओं, आदि के लिए अंतर्विषयक परियोजनाओं के लिए उपकेंद्र स्थापित करना चाहिए। हम इन क्षेत्रों में भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईटी आदि में विशेषज्ञता विकसित कर रहे हैं। अपने कैरियर के दौरान कई शिक्षक अपनी पीएचडीसमस्याओं में रुचि खो देते हैं, जिनका महत्व अब खत्म हो गया है। कुछ ही सामाजिक हितों की समस्याओं पर ध्यान देते हैं।

अंत में, अकादमियों और समितियों की भूमिका जुड़ाव और संबद्धता की समझ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण है। दी एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया और दी इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेशन ने एक समावेशी तरीके से मेरी रुचि के क्षेत्रों में उपयोगी भूमिका निभाई है। विश्वविद्यालय और कॉलेज में पी. सी. वैद्य और ए. के. रायचौधरी जैसे सक्षम शिक्षकों की उपस्थिति काफी प्रेरणादायक थी। उच्च ऊर्जा और परमाणु भौतिकी समूहों की वार्षिक या द्विवार्षिक बैठकें भी बेहद उपयोगी और कामकाजी थीं। ए. एस. दिवातिया, बी. एम. उदगांवकर और अन्य द्वारा स्थापित भारतीय भौतिकी संघ काफी महत्वाकांक्षी था, लेकिन वह अपने अमेरिकी समकक्ष की तरह विकसित नहीं हो पाया। मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से अनुदान की भूमिका का भी ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसमें प्रयोगात्मक काम के अलावा दिल्ली में एस्ट्रोपार्टिकल भौतिकी में सैद्धांतिक कार्य के लिए भी एक बड़ा अनुदान (सौजन्य एन. मुकुंदा) दिया गया। राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी (एनआईआरएफ) की हालिया रिपोर्ट में कई विश्वविद्यालयों के बारे में सकारात्मक बातें कही गई हैं। हालांकि, अभी रास्ता काफी लंबा है। प्रतिभा को तलाशने और पोषित करने की बेहतर क्षमता के अलावा, सभी अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बीच और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कंप्यूटर और संस्कृत भाषा – प्रतिका गुप्ता

ह बात आम बातचीत में अक्सर उभरती है कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है और इसे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। इस बात का काफी समर्थन किया जा रहा है। यहां तक कि कुछ प्रदेशों की सरकारों ने बच्चों के लिए संस्कृत भाषा अनिवार्य विषय कर दिया है।

कंप्यूटर एक मशीन है जो निर्देशों पर काम करती है। इसके लिए निर्देश लिखने में किसी भाषा का उपयोग किया जाता है। कंप्यूटर उस भाषा में लिखे निर्देशों को पढ़ता है और उन्हीं निर्देशानुसार काम करता है। इसलिए इन निर्देशों को सटीकता से लिखा जाना ज़रूरी है।

कंप्यूटर उपयुक्त भाषा

कंप्यूटर की भाषा संदर्भमुक्त होनी चाहिए। संदर्भमुक्त भाषा यानी किसी निर्देश, वाक्य या शब्द का अर्थ संदर्भ पर आधारित ना हो। हम जो भाषा बोलते उसमें कई बार किसी वाक्य या शब्द का अर्थ इससे निकालते हैं कि वे किस बारे में कहा जा रहा है (जैसे सोना, हवा में उड़ना, उसको चमका देना वगैरह)। मशीन के लिए संदर्भ समझकर उस हिसाब से निर्देश लागू करना मुश्किल है और इसमें गड़बड़ियों की संभावना ज़्यादा है। इसलिए भाषा ऐसी हो जिसका अर्थ समझने के लिए किसी संदर्भ का उपयोग ना करना पड़े। सिर्फ वाक्य ही अपने आप में पूरा और एकमेव अर्थ व्यक्त करे। अर्थात एक वाक्य का एक ही अर्थ होना चाहिए।

कंप्यूटर जब निर्देशों को पढ़ता है तो पूरा वाक्य एक साथ पढ़कर मतलब समझने की बजाय उसे तोड़ता है। उसके वाक्य विन्यास को पढ़ता है और अर्थ निकालता है। भाषा ऐसी होना चाहिए कि उसके वाक्यों को तोड़ने पर उसका अर्थ ना बदले। कंप्यूटर इसे आसानी से पढ़कर निर्देशित कार्य कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की मदद से सामान्य भाषा की बातों को इस रूप में बदला जाएगा जिसे कंप्यूटर समझ सके। यह काम इंसानों को करना होगा। अत: कंप्यूटर की भाषा सीखने में आसान होनी चाहिए ताकि कोई भी इसे सीख सके और काम कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की एक विशेषता यह भी होगी उस भाषा के अक्षर मेमोरी में कम जगह घेरते हों। ज़्यादा जगह मतलब ज़्यादा कीमत। और ज़्यादा जगह घेरने वाली भाषा कार्य को पूरा करने का समय भी बढ़ा सकती है।

दुनिया में बोली जाने वाली समस्त भाषाएं (प्राकृतिक भाषाएं) संदर्भ आधारित हैं। यानी वाक्यों या शब्दों का अर्थ संदर्भ से निकलता है। इसलिए भाषा सम्बंधी गड़बड़ियों से बचने के लिए, कुछ वैज्ञानिकों का मत बना कि कंप्यूटर के लिए कृत्रिम भाषा बनाई जाए।

संस्कृत भाषा

संस्कृत भी एक प्राकृतिक भाषा है। ये ऐसी पहली भाषा मानी जाती है जिसके व्याकरण को सुव्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध किया गया था। इसके भाषा के नियमों को व्यवस्थित करने का काम  पाणिनी ने किया था। व्याकरण को लिखने में पाणिनी ने सहायक प्रतीकोंका उपयोग किया था। जिसमें शब्दों या वाक्यों के अर्थ में दोहरापन कम से कम करने के लिए शब्दों में नए प्रत्यय लगाए।

संस्कृत भाषा वाक्य के लगभग हर हिस्से में विभक्तियों का उपयोग करती है। यहां तक की किसी व्यक्ति, जगह के नाम के अंत में भी विभक्ति का सम्बंधित रूप का होता है। जिससे पता चलता है कि वह वाक्य में कर्ता है या कर्म। इसलिए संस्कृत में शब्द का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी वाक्य में तीन शब्द हैं तो उन्हें लिखने के 6 संभावित क्रम होंगे (जैसे बुद्धम् शरणम् गच्छामि, इसे बुद्धम् गच्छामि शरणम् या शऱणम् गच्छामि बुद्धम् लिखा जा सकता है)। इसी तरह किसी वाक्य में 4 शब्द हैं तो उसको 24 संभावित क्रमों में लिखा जा सकता है। और इनमें से किसी भी तरीके से लिखने पर उस वाक्य का अर्थ नहीं बदलता। विभक्ति के उपयोग से सीमित शब्दों में वाक्य पूरा हो जाता है। पर सिर्फ संस्कृत ही ऐसी अकेली भाषा नहीं है ऐसी और भी भाषाएं हैं। जैसे लैटिन की यही स्थिति है।

संस्कृत और कंप्यूटर

फिलहाल संस्कृत देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसमें स्वर या व्यंजन मेमोरी में स्टोर होने के लिए 2 बाइट की जगह लेते हैं। स्वर या व्यंजनों से मिलकर बने अक्षर 4 से 8 बाइट तक की जगह घेरते हैं। जबकि लैटिन में एक अक्षर एक बाइट की जगह लेता है। उदाहरण के तौर पर लैटिन में लिखे Sanskritमें 8 अक्षर हैं इसे स्टोर करने में 8 बाइट लगेंगे। वहीं देवनागरी में संस्कृतलिखने में 18 बाइट लगेंगे। यानि संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा बनाने से मेमोरी में स्टोरेज बढ़ेगा जो शायद कंप्यूटर के निर्देश पूरे करने में लगने वाले समय को बढ़ा दे और कंप्यूटर की लागत को भी।

कंप्यूटर की भाषा सीखनेसमझने में सरल होनी चाहिए। किंतु दुनिया में बहुत ही कम लोग हैं जो संस्कृत भाषा का उपयोग करते हैं, बोलचाल में तो शायद उतने भी नहीं करते।

संस्कृत में वाक्यों या शब्दों के संदर्भ आधारित होने की संभावना कम है पर एक प्राकृतिक भाषा होने के नाते संस्कृत पूरी तरह से संदर्भ मुक्त भाषा नहीं है। इन बातों को देखते हुए तो संस्कृत कंप्यूटर के लिए इतनी उपयुक्त भाषा नहीं लगती।

कैसे उठी संस्कृत की बात

80 के दशक में वैज्ञानिक कंप्यूटर के लिए बेहतर कृत्रिम भाषा बनाने जुटे हुए थे। जिसमें बोलचाल की भाषा की अस्पष्टताएं ना हो। कंप्यूटर के लिए कुछ कृत्रिम भाषाएं जैसे कोबोल, लिस्प, सी पहले ही बन चुकीं थी। इस संदर्भ में अमरीकी कंप्यूटर वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में एक पेपर प्रकाशित किया। इस पेपर में उन्होंने प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर उपयोग करने के बारे में लिखा। इसमें उन्होंने संस्कृत को केस स्टडी के रूप में लिया। उन्होंने बताया कि कैसे संस्कृत का ढांचा बेहतर है और संस्कृत भाषा नियमबद्ध है और ये नियम स्पष्ट हैं। ये नियम कृत्रिम भाषा के नियमों के काफी करीब हैं। चूंकि संस्कृत में शब्दों के स्थान बदलने से उसके अर्थ पर फर्क नहीं पड़ता इसलिए कंप्यूटर में वाक्यों को तोड़ने और उसे क्रम में जमाने की समस्या कम आएगी। उन्होंने प्राचीन व्याकरण लिखने वालों के तरीकों का अध्ययन किया और ये सुझाव दिया कि प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के लिए उपयोग किया जा सकता है। किंतु इस पेपर की सिर्फ कुछ बातों को लिया गया और यह मान लिया गया कि संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है।

यदि इस शोरगुल के चलते संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया भी जाए तो क्या यह इतना आसान होगा? वर्तमान में एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने के लिए ही बेहतर सॉफ्टवेयर नहीं हैं तो पूरे मौजूदा तंत्र को संस्कृत भाषा के तंत्र में बदलना क्या आसान होगा? संस्कृत भाषा को जानने वाले लोग कम बहुत कम हैं। क्या इतने बड़े पैमाने पर नए लोगों को भाषा सिखाने, प्रोग्राम, सॉफ्टवेयर बनाने के लिए पर्याप्त समूह जुटा पाएंगे?(स्रोत फीचर्स)

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जेनेटिक्स और स्कूल में बिताए वर्ष

हाल ही में सम्पन्न एक अध्ययन में यह देखने की कोशिश की गई है कि किसी व्यक्ति के जीन्स और स्कूली शिक्षा के बीच क्या सम्बंध है। इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता सदर्न कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डेनियल बेंजामिन ने कहा है कि इसके परिणामों को बहुत सावधानीपूर्वक समझने की ज़रूरत है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने शोध पत्र के साथ इस विषय पर कुछ आम सवालों के जवाब भी दिए हैं।

पिछले पांच वर्षों में बेंजामिन और उनकी टीम ने यह समझने की कोशिश की है कि मानव जीनपुंज में कौनसी भिन्नताओं का सम्बंध इस बात से है कि आप कितने वर्षों की स्कूली शिक्षा हासिल करेंगे। 2013 में उनकी टीम ने युरोपीय मूल के 1 लाख से ज़्यादा लोगों के आनुवंशिक पदार्थ (डीएनए) का विश्लेषण करके पाया था कि मात्र तीन जेनेटिक भिन्नताएं स्कूली शिक्षा के वर्षों को प्रभावित करती हैं। इसके बाद 2016 में उन्होंने अपने अध्ययन का साइज़ तिगुना किया और 71 और भिन्नताएं पहचानीं।

इस टीम ने ऐसा ही अध्ययन अब युरोपीय मूल के 11 लाख लोगों पर किया है और इस बार उन्हें 1271 शिक्षासम्बंधी भिन्नताएं मिली हैं। टीम ने गणित में दक्षता और दिमागी क्षमता के परीक्षणों से जुड़े जीन्स भी देखे हैं। टीम का कहना है कि उन्होंने शिक्षा के जीन्सकी खोज नहीं की है बल्कि उपरोक्त में से कई जीन्स गर्भस्थ व नवजात शिशु में सक्रिय होते हैं और उनमें तंत्रिकाओं व मस्तिष्क की अन्य कोशिकाओं के निर्माण को और उनके द्वारा बनाए जाने वाले रसायनों तथा नई सूचनाओं के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को प्रभावित करते हैं।

टीम ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने ऐसा कोई जीन नहीं खोजा है जो स्कूल में बने रहने के वर्षों का निर्धारण करता है। और तो और, टीम के मुताबिक ये सारे जीन्स मिलकर भी लोगों के शैक्षिक भाग्य का निर्धारण नहीं करते। जब उन्होंने उपरोक्त 1271 जीन भिन्नताओं के आधार पर एक बहुजीन स्कोर बनाया तो उसके आधार पर स्कूली शिक्षा के वर्षों की मात्र 11 प्रतिशत व्याख्या हो पाई।

शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके इन परिणामों की व्याख्या सामाजिकआर्थिक संदर्भों में तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली के संदर्भों में की जानी चाहिए। उनका अध्ययन बच्चों को छांटने का नहीं बल्कि शिक्षा प्रणाली में सुधार का आधार बनना चाहिए। उदाहरण के लिए उनका कहना है कि आज से कुछ दशक पहले यदि ऐसा अध्ययन किया जाता तो पता चलता कि एक्स और वाय गुणसूत्र की उपस्थिति स्कूली शिक्षा का निर्धारण करती है। गौरतलब है कि दो एक्स गुणसूत्र हों तो लड़की और एक एक्स व एक वाय गुणसूत्र होने पर लड़का बनता है। इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि लड़के स्कूली शिक्षा में लड़कियों की तुलना में ज़्यादा अनुकूल हैं। इसके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि पूर्व में समाज का गठन इस प्रकार हुआ था कि लड़कियों की शिक्षा को बहुत कम महत्व दिया जाता था। इसी तरह आज कुछ जीन्स शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण नज़र आ रहे हैं, तो इसलिए कि शिक्षा व्यवस्था उन जीन्स को ज़्यादा महत्व देती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मल-जल के विश्लेषण से नशीली दवाइयों की निगरानी

चीन में वैज्ञानिक और पुलिस मिलकर नशीली दवाइयों के उपयोग व उनकी रोकथाम की निगरानी करने के लिए मल-जल (सीवेज) के नमूनों की जांच का सहारा ले रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तरीका काफी कारगर हो सकता है और अन्य देशों में भी अपनाया जा सकता है। इस तरीके में किया यह जाता है कि मल-जल के नमूनों में नशीली दवाइयों और उनके विघटन से बने रसायनों की जांच की जाती है।

उदाहरण के लिए, चीन के दक्षिणी शहर ज़ोंगशान में नशीली दवाओं के सेवन को कम करने के लिए चलाए जा रहे एक कार्यक्रम की सफलता को जांचने के लिए इस तरीके का उपयोग किया गया है। इस विधि को मल-जल आधारित तकनीक कहा जा रहा है। ज़ोंगशान पुलिस द्वारा इसकी मदद से नशीली दवाइयों के एक निर्माता को गिरफ्तार भी किया गया है।

वैसे बेल्जियम, नेदरलैंड, स्पेन और जर्मनी जैसे कई अन्य देशों में भी इस तकनीक के अध्ययन चल रहे हैं। किंतु इन देशों में इस तकनीक का उपयोग मात्र आंकड़े इकट्ठे करने के लिए किया जा रहा है जबकि चीन में इन आंकड़ों के आधार पर नीतिगत निर्णय किए जा रहे हैं और कार्रवाई की जा रही है। इस सम्बंध में चीन के राष्ट्रपति ज़ी जिनपिंग का कहना है कि नशीली दवाइयों के खिलाफ युद्ध उनके देश के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है।

इस तकनीक के विभिन्न अध्ययनों में मल-जल में किसी नशीली दवा या उसके विघटन से बने पदार्थों के विश्लेषण से उभरी तस्वीर और अन्य विधियों से दवाइयों के उपयोग की तस्वीर काफी मिलती-जुलतीरही हैं। मसलन, 2016 में युरोप के आठ शहरों में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि मल-जल में उपस्थित कोकेन और दवाइयों की जब्ती से प्राप्त आंकड़ों के बीच समानता थी। अलबत्ता, ऐसा लगता है कि कुछ दवाइयों के संदर्भ में दिक्कत है। जैसे मेट-एम्फीटेमिन्स के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़े मेल नहीं खाते। बहरहाल वैज्ञानिक सहमत हैं कि मल-जल परीक्षण नशीली दवाइयों के उपयोग का ज़्यादा वस्तुनिष्ठ तरीका है।

इस संदर्भ में यह बात भी सामने आई है कि इस तकनीक का उपयोग ड्रग्स-विरोधी अभियानों के मूल्यांकन हेतु भी किया जा सकता है। जैसे, पेकिंग विश्वविद्यालय के पर्यावरण रसायनज्ञ ली ज़ीक्विंग और उनके दल ने चीन के विभिन्न स्थानों के मल-जल में दो नशीली दवाइयों – मेथ-एम्फीटेमिन और किटेमीन – का मापन किया था। यह मापन इन दवाइयों के खिलाफ चलाए गए अभियान के दो वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर किया गया। पता चला कि मेथ-एम्फीटेमीन का उपयोग 42 प्रतिशत तथा किटेमीन का उपयोग 67 प्रतिशत कम हुआ था। (स्रोत फीचर्स)

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गोताखोरों के अध्ययन में नैतिक नियमों का उल्लंघन

प्रैल माह में इंडोनेशिया के बजाऊ समुदाय पर हुए अध्ययन ने मानव के चलते हुए विकास का एक आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत करके दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा। इस समुदाय के पुरुष मछली और जलीय जीवों का शिकार करने के लिए अपना अधिकतर समय पानी के अंदर व्यतीत करते हैं। 2015 में इलार्डो ने 59 बजाऊ व्यक्तियों के अध्ययन के आधार पर पाया कि अन्य लोगों की तुलना में बजाऊ समुदाय के लोगों के स्पलीन बड़े होते हैं। ये बड़े स्प्लीन लंबे गोतों के दौरान अतिरिक्त रक्त कोशिकाएं मुक्त करके हाइपॉक्सिया (ऑक्सीजन की कमी) को संभालने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने इसके लिए ज़िम्मेदार एक जीन की पहचान भी की है।

लेकिन सेल में प्रकाशित इस अध्ययन ने इंडोनेशिया में अलग तरह की हलचल पैदा की है। यहां के कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि यह “हवाई शोध”का एक उदाहरण है जिसमें समृद्ध देशों के वैज्ञानिक स्थानीय नियमों और ज़रूरतों की परवाह नहीं करते।

इंडोनेशियाई अधिकारियों के अनुसार शोध दल ने स्थानीय समीक्षा बोर्ड से नैतिक अनुमोदन प्राप्त नहीं किया और बिना अनुमति डीएनए नमूने देश से बाहर ले गया। एक शिकायत यह भी है कि अध्ययन में शामिल एकमात्र स्थानीय शोधकर्ता के पास विकास या आनुवंशिकी में कोई विशेषज्ञता नहीं थी।

लेकिन टीम के प्रमुख, कोपेनहेगन विश्वविद्यालय सेंटर फॉर जियोजेनेटिक्स के निदेशक एस्के विलरस्लेव के अनुसार टीम के पास इंडोनेशिया के सम्बंधित मंत्रालय से अध्ययन करने की अनुमति थी और डेनमार्क नैतिकता समिति से भी नैतिक मंज़ूरी मिली थी। उन्हें यह बताया गया था कि मंत्रालय से मिली अनुमति में सभी स्थानीय अनुमतियां भी शामिल हैं। लेकिन वास्तव में टीम को इंडोनेशिया के एक नैतिक पैनल से भी अनुमोदन लेना चाहिए था; चिकित्सा विज्ञान शोध सम्बंधी अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देश भी स्थानीय अनुमोदन की मांग करते हैं।

इस अध्ययन में शामिल रही इलार्डो ने मंत्रालय के साथ एक सामग्री स्थानांतरण समझौता भी संलग्न किया था। लेकिन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट, जकार्ता के अध्यक्ष सिस्वान्टो ने बताया कि टीम को मानव डीएनए के हस्तांतरण के लिए इस संस्था से मंज़ूरी लेनी चाहिए थी। इलार्डो का कहना है कि यह बात पहले ही बता देना चाहिए था।

इंडोनेशिया के संस्थानों ने उचित सहयोग की कमी, स्थानीय लोगों को शोध में न रखना, छोटे प्राइवेट संस्थानों के शोधकर्ता को शामिल करने जैसी समस्याओं का भी उल्लेख किया है। इन सब समस्याओं से विदेशी अनुसंधान को लेकर चिताएं झलकती हैं। भारत में भी कई विदेशी संस्थान शोध कार्य करते हैं। और कई बार ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं। लिहाज़ा कोई प्रोटोकॉल बनाया जाना ज़रूरी लगता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जापान: युग की समाप्ति और कंप्यूटर की दशा

ताया जा रहा है कि जापान में कंप्यूटर प्रणाली पर एक बड़ा संकट आने वाला है। दिक्कत कंप्यूटर की तारीखों के साथ है और लगभग वैसी ही है जैसी वर्ष 2000 में दुनिया भर के कंप्यूटरों के साथ पेश आई थी। उसे वाय-टू-के (Y2K) समस्या कहा गया था।

जापान में नए सम्राट के राज्याभिषेक के साथ नया युग शुरू होता है। वर्तमान सम्राट अकिहितो ने 1989 में गद्दी संभाली थी। उस समय जो युग जापान में शुरु हुआ था उसका नाम है हाईसाई (यानी सर्वत्र शांति)। यही वह समय था जब कंप्यूटरों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था।

अब स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों के चलते सम्राट अकिहितो सिंहासन छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने यह ऐलान किया है कि वे 30 अप्रैल 2019 के दिन सिंहासन छोड़ देंगे और उनके उत्तराधिकारी पुत्र 57-वर्षीय नारुहितो की ताज़पोशी हो जाएगी। अकिहितो के सिंहासन छोड़ने के निर्णय के अनुरूप जापान की केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि वहां 24 फरवरी 2019 के दिन सम्राट के 30 साल के राज का जश्न मनाया जाएगा।

चूंकि अकिहितो का शासन और कंप्यूटर क्रांति लगभग साथ-साथ शुरू हुए थे इसलिए कंप्यूटर की तारीखों में कोई समस्या नहीं आई थी। लेकिन अब जापान में नए युग की शुरुआत होगी और तब कंप्यूटरों की तारीख और नए युग की तारीख के बीच अंतर के चलते समस्याओं की आशंका है। और सरकार नए युग की शुरुआत की घोषणा जल्दी नहीं करना चाहती क्योंकि उससे गलत संदेश जाने का डर है।

जापान के घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के स्वतंत्र विश्लेषक एन-लिओनोर डार्डेने का कहना है कि खास तौर से डाक विभाग, बैंक और स्थानीय सरकारों द्वारा रखे जाने वाले आवासीय पतों के रजिस्टर के रख-रखाव का काम प्रभावित होगा क्योंकि इनके कंप्यूटर अपने कामकाज के लिए जापानी युग की तारीखों पर निर्भर हैं। लिहाज़ा कंप्यूटर तकनीशियनों को ओव्हरटाइम काम करके समस्या का हल निकालना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल

लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्य़ूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉलॉजी के ज़रिए हुआ था। आज वह 40 वर्ष की है और उसके अपने बच्चे हैं। एक मोटेमोटे अनुमान के मुताबिक इन 40 वर्षों में दुनिया भर में 60 लाख से अधिक टेस्ट ट¬ूब बच्चेपैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की 3.5 प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी। इनकी कुल संख्या 40 करोड़ के आसपास होगी।

वैसे इस तकनीक का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किंतु इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता। किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरुष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्चे का विकास मां की कोख में ही होता है।

इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधकर्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो ने मां की कोख में बच्चे की देखभाल की थी। लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने 282 स्त्रियों से 457 बार अंडे प्राप्त किए, इनसे निर्मित 112 भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से 5 गर्भधारण के चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।

बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल 40 साल पहले भी थे और आज भी हैं। इन 40 सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नज़दीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी?(स्रोत फीचर्स)

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घाव की निगरानी और ज़रूरी होने पर दवा देती पट्टी

जीर्ण (पुराने) घावों को भरने में बहुत वक्त लगता है। घाव भरने के दौरान इनकी नियमित देखभाल करनी पड़ती है वरना संक्रमण की आशंका होती है। कभी-कभी तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि व्यक्ति का वह अंग ही काटना पड़ जाता है। डायबिटीज़ और मोटापे की समस्या से ग्रस्त लोगों में जीर्ण घाव होने की संभावना और भी बढ़ जाती है।

इस समस्या से राहत पाने के लिए टफ्ट्स विश्वविद्यालय के समीर सोनकुसाले और उनकी टीम ने ऐसा बैंडेज विकसित किया है जो घावों की देखभाल करेगा और ज़रूरत के हिसाब से घाव पर दवा भी लगा देगा।

इस बैंडेज में लगे सेंसर घाव से रिसने वाले जैविक अणुओं का जायज़ा लेते रहते हैं और इनके आधार पर घाव की हालत भांपते हैं। उदाहरण के लिए, सेंसर देखते हैं कि घाव को ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मिल रही है या नहीं; घाव का ph (यानी अम्लीयता) का स्तर ठीक है या नहीं; घाव असामान्य स्थिति में तो नहीं है; घाव के आसपास का तापमान क्या है; कोई सूजन तो नहीं है। इस जानकारी को एक माइक्रोप्रोसेसर में पढ़ा जाता है। फिर घाव की स्थिति एक मोबाइल डिवाइस को भेजी जाती है। यदि दवा देने की ज़रूरत लगती है तो वह डिवाइस बैंडेज को दवा, एंटीबायोटिक देने के निर्देश देती है।

पिछले कुछ सालों में वैज्ञानिकों ने ऐसे आधुनिक बैंडेज विकसित किए हैं जो घाव में संक्रमण का पता कर सकते हैं और यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कितनी तेज़ी से ठीक हो रहा है। किंतु घाव की स्थिति भांपकर उपचार करने वाला यह पहला बैंडेज है हालांकि यह बैंडेज अभी बाज़ारों में उपलब्ध नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है अलग-अलग तरह के जीर्ण घावों की देखभाल और उपचार के लिए अभी इस पर और काम किया जाना बाकी है। उम्मीद है कि यह बैंडेज बेड सोर, जलने के घाव और सर्जरी के घावों को भरने में मददगार होगा। इस तरह का बैंडेज संक्रमण को कम करेगा। शायद अंग को काटे जाने की नौबत ना आए।(स्रोत फीचर्स)

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स्मार्टफोन के क्लिक से रंग बदलते कपड़े – डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका मिलेडीज़ बुडवारके लिए  “what the well dressed man is wearing” (बनेठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने फैशन फॉरवर्ड आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगानामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।

मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस स्मार्टकपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

रंग बदलते कपड़े

साठसत्तर साल पहले ब्लीडिंग मद्रासकहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?

दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाईफाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।

गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटेछोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाईटेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलतेबुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।

तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है चलनेफिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टीशर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!

डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।

मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।

हल्केफुल्के सेल फोन

कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलगअलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)

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यान के उतरने पर चांद को कितना नुकसान

हमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने गणना की है कि जब कोई यान चांद पर उतरता है तो चांद की सतह पर कितने गहरे गड्ढे बनते हैं और कितनी धूल उड़ती है। इस गणना का मकसद चांद को कवियों और शायरों के लिए सुरक्षित रखना नहीं बल्कि अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाना है।

एस. के. मिश्रा व उनके साथियों ने अपने शोध के परिणाम प्लेनेट स्पेस साइन्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। जब कोई यान चंद्रमा पर (या किसी भी ग्रह पर) उतरता है तो वह खूब धूल उड़ाता है। इसके चलते गड्ढे वगैरह तो बनते ही हैं, सारी धूल जाकर यान के सौर पैनल पर जमा हो जाती है। यान के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत यही सौर पैनल होते हैं जिनकी मदद से सौर ऊर्जा का दोहन होता है। जब इन पर धूल जमा हो जाती है तो ये पैनल ठीक से काम नहीं कर पाते।

मिश्रा व उनके साथियों ने इस क्षति की गणना करने के लिए यह देखा कि उतरने से पूर्व यान कितनी देर तक सतह के ऊपर मंडराता है और कितनी ऊंचाई पर मंडराता है। इन दोनों बातों का असर यान के द्वारा उड़ाई गई धूल की मात्रा पर और धूल के कणों की साइज़ पर पड़ता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: यान के सतह से ऊपर मंडराने के समय का असर धूल की मात्रा पर पड़ता है। उनकी गणना बताती है कि यदि मंडराने की अवधि को 25 सेकंड से बढ़ाकर 45 सेकंड कर दिया जाए तो धूल की मात्रा तीन गुनी हो जाती है।

इन परिणामों के मद्देनज़र शोधकर्ताओं का सुझाव है कि चांद की सतह पर क्षति को न्यूनतम रखने के लिए बेहतर होगा कि यान के मंडराने का समय कम से कम रखा जाए। इसके अलावा, उनका यह भी मत है कि अवतरण के समय यान पर ब्रेक लगाने का काम काफी ऊंचाई से ही शुरू कर देना चाहिए और जब यान सतह से 10 मीटर की ऊंचाई पर हो तो ब्रेक लगाना बंद कर देना चाहिए या कम से कम ब्रेक लगाने चाहिए। शोधकर्ताओं के मुताबिक उनके निष्कर्ष चांद पर अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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