कार्बन डाईऑक्साइड से र्इंधन बनाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ दशकों में कच्चे तेल और कोयले जैसे जीवाश्म र्इंधनों के अत्यधिक उपयोग के चलते वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बहुत बढ़ गया है। जिसके परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं।

इस स्थिति में, क्यों न वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्रित कर ऐसा स्थिर रूप दे दिया जाए कि वह हवा में घुलमिल न सके? जैसे उसे ठोस कार्बोनेट में परिवर्तित कर दिया जाए? स्विटज़रलैंड स्थित एक कम्पनी, क्लाइमवक्र्स, यही काम कर रही है। वह र्इंधनों के जलने के परिणामस्वरूप बनी गैस को जैवमंडल से लेती है और इसे चट्टानों या खनिज जैसे मृदामंडलीय पदार्थों में परिवर्तित करती है। इस तरह वातावरण की हवा से सीधे गैस को कैद करने की प्रक्रिया को डाइरेक्टएयरकैप्चर (डीएसी) कहते हैं। क्लाइमवक्र्स कम्पनी का यह संयंत्र आइसलैंड में स्थित है। इस संयंत्र में कार्बन डाईऑक्साइड को ठोस कैल्सियम कार्बोनेट की चट्टानों में स्थिर कर दिया जाता है, ठीक बैसाल्ट की तरह। वे कार्बन डाईऑक्साइड को सॉफ्ट ड्रिंक्स निर्माताओं और ग्रीनहाउस संचालकों को बेचते भी हैं।

इससे भी बेहतर होगा यदि कार्बन डाईऑक्साइड को एक उल्टी प्रक्रिया के ज़रिए पुन: हाइड्रोकार्बन र्इंधन में परिवर्तित कर दिया जाए। यह प्रक्रिया एयरटूफ्यूल (एटूएफ, हवा से र्इंधन) कहलाती है। हारवर्ड के डॉ. डेविड कीथ और उनके समूह ने कार्बन इंजीनियरिंग नामक कम्पनी बनाई है जहां वे सीधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उसे र्इंधन में परिवर्तित करेंगे (यानि डीएसी को एटूएफ में तबदील कर देंगे)। उन्होंने अपना शोध कार्य जूल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैद करने की प्रक्रिया। यहां यह बताया जा सकता है कि इस पत्रिका का नाम इस शोध के प्रकाशन के लिए उपयुक्त है क्योंकि उर्जा की मानक इकाई भी जूल है। (इस पर्चे को यहां देखा जा सकता है: DOI: 10.1016/j.joule.2018.05.006)

टीम इस समस्या पर पिछले कुछ सालों से काम कर रही है। इस प्रक्रिया में अवांछित पदार्थ कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से एकत्रित करके एक रिएक्टर से गुज़ारते हैं। फिर इसकी क्रिया हाइड्रोजन से करवाई जाती है, जिसमें हाइड्रोकार्बन र्इंधन बनता है। क्रिया के लिए ज़रूरी हाइड्रोजन पानी के विद्युतविच्छेदन से प्राप्त की जाती है। शोधकर्ताओं ने इस पूरी प्रक्रिया को कार्बनउदासीनर्इंधनउत्पादन का नाम दिया है।

वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करने का विचार नया नहीं है। लेखकों के अनुसार 1950 के दशक में वायु को शुद्ध करने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल की कोशिश हुई थी। और 1960 के दशक में, मोबाइल परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हाइड्रोकार्बन र्इंधन के उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग फीडस्टॉक के रूप में करने का प्रयास किया गया था।

कार्बन इंजीनियरिंग कम्पनी का योगदान यह है कि उन्होंने इसकी तकनीकी बारीकियों, अभियांत्रिकी और लागतलाभ विश्लेषण का वर्णन किया है। उनका दावा है कि डीएसी के माध्यम से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करना व्यावहारिक रूप से संभव है। इस प्रक्रिया से प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड एकत्रित करने का खर्चा 50-100 डॉलर आता है।

ट्रेसी स्टेटर ने जून 2018 के अपने इनसाइंस कॉलम में इस प्रक्रिया का सारांश प्रस्तुत किया है: वातावरण से हवा खींची जाती है, जिसे प्लास्टिक की पतली सतह के ऊपर से गुज़ारा जाता है। प्लास्टिक की सतह पर पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड का घोल होता है। इस प्रक्रिया में पोटेशियम कार्बोनेट बनता है। इस प्रक्रिया में बने पोटेशियम कार्बोनेट को कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड युक्त रिएक्टर में भेजा जाता है जहां कैल्शियम कार्बोनेट और पोटेशियम हाइड्राक्साइड बनते हैं। इस पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड को पुन: उपयोग के लिए भेज दिया जाता है और कैल्शियम कार्बोनेट को गर्म किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त हो जाती है। इसे स्थिर करके उपयोग किया जा सकता है (जैसा कि क्लाइमवक्र्स कम्पनी करती है) या पानी के विद्युतविच्छेदन से बनी हाइड्रोजन के साथ क्रिया करवाकर हाइड्रोकार्बन र्इंधन प्राप्त किया जा सकता है। इस तकनीक से वाहनों के लिए र्इंधन बनाना संभव होना चाहिए।

डॉ. डेविड रॉबर्ट्स ने अपनी वेबसाइट vox.com पर एटूएफ तकनीक के विश्लेषण में दावा किया है कि आने वाले सालों में कार्बन इंजीनियरिंग की यह तकनीक व्यावहारिक हो जाएगी। डॉ. जेफ टॉलेफसन नेचर पत्रिका के 7 जून 2018 के अंक में लिखते हैं कि डीएसी तकनीक वैज्ञानिकों के अनुमान से भी सस्ती है। ऐसा माना जाता था कि इसमें प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर की लागत 50-1000 डॉलर के बीच होगी, लेकिन यह 94-234 डॉलर के बीच है। दस लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड को 3 करोड़ गैलन जेट र्इंधन, डीज़ल या गैस में परिवर्तित किया जा सकता है।

पूरी प्रक्रिया में खास बात यह है कि यह ना सिर्फ कार्बनउदासीन है बल्कि अकार्बनिकरसायनउदासीन भी है: पहले चरण में भेजी गई कार्बन डाईऑक्साइड तीसरे चरण में मुक्त होती है, जिसे अन्य रिएक्टर में भेजा जाता है जहां यह हाइड्रोजन के साथ क्रिया करके र्इंधन बनाती है। दूसरे चरण में प्राप्त उत्पाद (पानी) को चौथे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग किया जाता है। और चौथे चरण में प्राप्त उत्पाद कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड को दूसरे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग कर लिया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन में जैव विकास के सिद्धांत और नोबेल – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला है। इन्होंने अणुओं के संश्लेषण के लिए जैव विकास के सिद्धांतों का उपयोग किया है और आश्चर्यजनक परिणाम हासिल किए हैं। इस तरह से निर्मित अणुओं के कई व्यावहारिक उपयोग भी सामने आए हैं।

पुरस्कार की आधी राशि कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की फ्रांसेस अरनॉल्ड को दी जाएगी जबकि शेष आधी राशि मिसौरी विश्वविद्यालय के जॉर्ज स्मिथ और एम.आर.सी. लैबोरेटरी ऑफ मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के ग्रेगरी विंटर के बीच बंटेगी।

अरनॉल्ड एक प्रोटीन इंजीनियर हैं। प्रोटीन वे अणु हैं जो जीवन की हर क्रिया के लिए उत्तरदायी होते हैं। एंज़ाइम भी प्रोटीन ही होते हैं और शरीर की विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। अरनॉल्ड नएनए एंज़ाइम बनाना चाहती थीं जो नए किस्म की रासायनिक क्रियाओं को अंजाम दे सकें। इसके लिए पहले तो उन्होंने रासायनिक तर्क पर आधारित क्रमबद्ध तरीका अपनाया।

एंज़ाइम विशाल अणु होते हैं जो अमीनो अम्लों की शृंखला से बने होते हैं। तार्किक रूप से एंज़ाइम में एकएक अमीनो अम्ल को बदलकर देखा जा सकता है कि इसका एंज़ाइम की क्रिया पर क्या असर होता है। किंतु यह पता करना मुश्किल होता है कि किसी एक अमीनो अम्ल को बदलने से या पूरे अणु के तह होने के बिंदु को एक जगह हटाकर दूसरी जगह कर देने का उसके कार्य पर क्या असर होगा। गौरतलब है कि एंज़ाइम की क्रिया काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अणु सही जगहों पर मुड़कर तह बना ले। कुल मिलाकर एंज़ाइम बनाने की यह तार्किक प्रक्रिया काफी लंबी और श्रमसाध्य होगी।

तो अरनॉल्ड ने जीव विज्ञान का रुख किया। सजीवों में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं और नएनए अणु बनते रहते हैं। जैव विकास की प्रक्रिया में यह साधारण बात है। और अणु बनाने की प्रक्रिया डीएनए के निर्देशन में चलती है। यदि डीएनए के कोड में कोई परिवर्तन हो जाए तो वह परिवर्तन उससे बनाए जाने वाले अणु में नज़र आता है। तो अरनॉल्ड जिस एंज़ाइम का अध्ययन करना चाहती थीं उसके जीन को उन्होंने एक बैक्टीरिया में रोप दिया। यह तो सर्वविदित है कि बैक्टीरिया काफी तेज़ी से विभाजन करते हैं। जब बैक्टीरिया का विभाजन होता है तो डीएनए की प्रतिलिपि बनाई जाती है और दोनों नई कोशिकाओं को एकएक प्रतिलिपि मिल जाती है। प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में डीएनए में फेरबदल (उत्परिवर्तन) भी होते हैं। इस तरह से यदि आप किसी एंज़ाइम का जीन बैक्टीरिया के डीएनए में फिट कर दें तो वह उसकी प्रतिलिपि बनाएगा, और काफी संभावना है कि प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में जीन में परिवर्तन होंगे और फिर उसी के अनुरूप एंज़ाइम की रचना में भी परिवर्तन हो जाएंगे।

वास्तविक प्रयोग में अरनॉल्ड इस प्रक्रिया से बैक्टीरिया की तीसरी पीढ़ी में ऐसा एंज़ाइम प्राप्त कर पार्इं जो मूल एंज़ाइम से 200 गुना अधिक असरदार था। कई लोगों का ख्याल था कि यह विज्ञान नहीं बल्कि ताश के पत्ते फेंटने जैसी बाज़ीगरी है।

बहरहाल, इसी क्रम में अगला नवाचार विलियम स्टेमर की प्रयोगशाला में हुआ। स्टेमर ने डीएनए फेंटने नामक तकनीक का ही सहारा लिया। उन्होंने एक ही जीन के विभिन्न रूप लिए और उनके टुकड़ों को मिलाकर एक नया परिवर्तित रूप तैयार कर लिया। स्टेमर भी इस साल के नोबेल में शरीक होते किंतु यह पुरस्कार सिर्फ जीवित व्यक्तियों को दिया जाता है। स्टेमर का निधन 2013 में हो गया था।

अरनॉल्ड और स्टेमर की इन तकनीकों के इस्तेमाल से डिटरजेंट्स में दागधब्बे हटाने वाला एंज़ाइम जोड़ा गया है और जैवर्इंधन के उत्पादन में भी इनके उपयोग की उम्मीद है।

पुरस्कार का शेष आधा हिस्सा स्मिथ और विंटर को दिया गया है। उनका काम भी जैविक पदार्थों के संश्लेषण से जुड़ा है। 1980 के दशक में बैक्टीरियाभक्षी वायरसों के उपयोग से किसी जीन का क्लोनिंग करना संभव हो गया था। जीन क्लोनिंग का मतलब है कि आप कोई जीन किसी बैक्टीरियाभक्षी के जीनोम में जोड़ दें और फिर उस वायरस को किसी बैक्टीरिया को संक्रमित करने दें। वायरस उस बैक्टीरिय़ा की पूरी मशीनरी पर कब्ज़ा कर लेगा और अपनी प्रतिलिपियां बनाएगा और साथसाथ आपके द्वारा जोड़े गए जीन की भी प्रतिलिपियां बन जाएंगी। वायरस दरअसल एक डीएनए होता है जो एक प्रोटीन आवरण में लिपटा होता है।

स्मिथ का विचार था कि इस तरीके का उपयोग करते हुए हम किसी ज्ञात प्रोटीन के अज्ञात जीन का पता लगा सकते हैं। उस समय तक जीन्स के कई संग्रह उपलब्ध हो चुके थे जिनमें कई जीन्स के खंड रखे जाते थे। स्मिथ ने सोचा कि यदि आप इनमें से कुछ खंडों को जोड़कर एक जीन बना लें और फिर उसे वायरस के उस जीन के साथ जोड़ दें जो उसके आवरण का हिस्सा है तो उस अज्ञात जीन द्वारा बनाया जाने वाला प्रोटीन या प्रोटीनखंड (पेप्टाइड) उस वायरस की प्रतिलिपियों के बाह्र आवरण पर प्रकट हो जाएगा।

इस तरह से करने पर वायरस की जो अगली पीढ़ी बनेगी उनकी सतह पर तमाम प्रोटीन नज़र आएंगे। स्मिथ का विचार था कि इनमें से ज्ञात प्रोटीन या पेप्टाइड वाले वायरस को अलग करने में एंटीबॉडी की मदद ली जा सकेगी।

एंटीबॉडी प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं जो किसी विशिष्ट अणु से जुड़ जाते हैं। स्मिथ को लगा कि यदि आवरण पर विभिन्न प्रोटीन का प्रदर्शन करने वाले वायरसों को ज्ञात एंटीबॉडी के संपर्क में लाया जाएगा तो उससे सम्बंधित अणु प्रदर्शित करने वाला वायरस उससे जुड़ जाएगा। इस तरह से हमें पता चल जाएगा कि जो जीनखंड जोड़ा गया था वह किस प्रोटीन का कोड था।

लेकिन स्मिथ सिर्फ विचार करके नहीं रुके। उन्होंने अपने विचार का प्रायोगिक प्रदर्शन भी करके दिखाया। उन्होंने एक बैक्टीरियाभक्षी में एक ज्ञात प्रोटीन का जीन जोड़कर उसे बैक्टीरिया को संक्रमित करने दिया। जब वायरस की नई पीढ़ी तैयार हुए तो एंटीबॉडी की मदद से वे मनचाहे वायरस को अलग करने में सफल रहे। चूंकि जोड़े गए जीन का प्रोटीन वायरस के आवरण पर प्रकट (डिस्प्ले) होता है, इसलिए इस तकनीक को फेजडिस्प्ले तकनीक कहा जाता है।

मगर स्मिथ के शोध को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का काम विंटर ने किया। स्मिथ के द्वारा विकसित तकनीक का उपयोग करने के तरीके विंटर ने विकसित किए। विंटर ने इस तकनीक का उपयोग करके ऐसी एंटीबॉडीज़ तैयार करने में सफलता प्राप्त की जिनका उपयोग मल्टीपल स्क्लेरोसिस तथा कैंसर जैसी बीमारियों में किया जा सकता है। पारंपरिक दवाइयां में तो कोशिकाओं के अंदर चल रही प्रक्रियाओं को बदलने के लिए छोटेछोटे अणुओं का उपयोग किया जाता है। औषधि के रूप में एंटीबॉडी का उपयोग अधिकांश दवा निर्माताओं के सोच में नहीं था।

विंटर ने किया यह कि किसी एंटीबॉडी को बनाने वाला जीन बैक्टीरियाभक्षी वायरस के जीनोम में जोड़ दिया। जैसा कि हम देख ही चुके हैं, एंटीबॉडी भी प्रोटीन या पेप्टाइड ही होती हैं। इसके बाद बैक्टीरिया को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। बैक्टीरिया ने उसे संक्रमित करने वाले वायरस की प्रतिलिपियां बनार्इं जिनकी सतह पर एंटीबॉडी डिस्प्ले हुई। इनमें से मनचाही एंटीबॉडी को अलग करने के लिए अन्य अणुओं की मदद ली गई जो किसी एंटीबॉडी विशेष से जुड़ते हों।

एक बार यह विधि प्रायोगिक रूप से सफल हो गई तो विंटर ने इसमें जैव विकास का आयाम जोड़ दिया। उन्होंने कई सारे बैक्टीरियाभक्षी वायरस तैयार किए जिनकी सतह पर अलगअलग एंटीबॉडी उपस्थित थी। अब इनमें से उन वायरसों को अलग किया गया जो सही लक्ष्य से सबसे मज़बूती से जुड़ते थे। इसके बाद इन वायरसों को बैक्टीरिया को संक्रमित करके संख्यावृद्धि करने दिया गया और हर बार उनमें से सबसे सशक्त ढंग से लक्ष्य से जुड़ने वाले वायरसों को पृथक किया गया।

इस विधि से जो पहली एंटीबॉडी औषधि बनाई गई उसका नाम था एडेलिम्यूनैब। इसका उपयोग गठिया, सोरिएसिस और आंतों की शोथ के लिए किया जाता है। कुछ एंटीबॉडीज़ का इस्तेमाल कैंसर कोशिकाओं को मारने, ल्यूपस नामक आत्मप्रतिरक्षा रोग की प्रगति को थामने तथा एंथ्रेक्स में किया जा रहा है। कई अन्य एंडीबॉडीज़ परीक्षण के चरण में हैं।

एक मायने में इन तीनों शोधकर्ताओं ने जैविक संश्लेषण की विधि में वैकासिक आयाम जोड़कर एक नया धरातल तैयार किया है। और नोबेल पुरस्कार उनके कार्य में अवधारणात्मक नवीनता तथा सादगी के परिणामस्वरूप दिया गया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

आप कितने चेहरे याद रख सकते हैं?

अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहपाठियों, सहकर्मियो की शक्लें हमें याद रहती हैं। इसके अलावा कुछ प्रसिद्ध हस्तियों, अजनबियों (जो रोज़ाना या कभीकभी दिखते हैं) की भी शक्ल हमें याद रहती हैं। पर यदि आपको इनकी सूची बनाने को कहा जाए तो आप कितनी लंबी फेहरिस्त बना पाएंगे? एक अध्ययन के मुताबिक एक सामान्य व्यक्ति लगभग 5000 चेहरे याद रख सकता है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एक सामान्य व्यक्ति कितने चेहरे याद रख सकता है। इसके लिए उन्होंने 25 प्रतिभागियों को उन लोगों की सूची बनाने को कहा जिनके चेहरे उन्हें याद है। प्रतिभागियों को पहले एक घंटे में अपने व्यक्तिगत जीवन से जुड़े चेहरों की सूची बनानी थी और अन्य एक घंटे में प्रसिद्ध हस्तियों जैसे नेता, अभिनेता, गायक, संगीतकार वगैरह की।

अध्ययन में प्रतिभागियों को यह भी छूट थी कि यदि उन्हें किसी व्यक्ति का नाम याद नहीं है लेकिन उसका चेहरा याद है या वे उसके चेहरे की कल्पना कर सकते हैं, तो वे उसका विवरण लिखें, जैसे हाईस्कूल का चौकीदार या फलां फिल्म की अभिनेत्री वगैरह।

अध्ययन में देखा गया कि प्रतिभागियों को शुरुआती एक मिनट में कई लोगों के चेहरे याद आए लेकिन एक घंटे का वक्त बीतने के साथसाथ यह संख्या कम होती गई।

अगले अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा कि ऐसे कितने चेहरे हैं जो उक्त सूची में नहीं हैं लेकिन याद दिलाने पर याद आ जाते हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों को बराक ओबामा और टॉम क्रूज़ सहित 3441 प्रसिद्ध हस्तियों की तस्वीरें दिखाई। प्रतिभागी किसी व्यक्ति को पहचानते हैं यह तभी माना गया जब वे एक ही व्यक्ति की दो अलगअलग तस्वीरों को पहचान पाए।

इन दोनों अध्ययन के आंकड़ों के विश्लेषण से शोधकर्ताओं ने पाया कि एक सामान्य या औसत व्यक्ति 5000 चेहरे याद रख सकता है। विभिन्न प्रतिभागियों को 1000 से लेकर 10000 की संख्या में चेहरे याद थे। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अध्ययन में याद से जुड़ी कई बातें मानी गई थीं और प्रतिभागियों द्वारा दी गई जानकारी पर विश्वास किया गया था, लेकिन उम्मीद है कि यह अध्ययन चेहरों की पहचान से जुड़े और अन्य अध्ययनों में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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केंद्रक में स्थिति डीएनए के काम को प्रभावित करती है

यह तो अब जानीमानी बात है कि डीएनए नामक अणु में क्षारों के क्रम से तय होता है कि वह कौनसे प्रोटीन बनाने का निर्देश देगा। डीएनए हमारी कोशिका के केंद्रक में पाया जाता है। मानव कोशिका में लगभग 3 मीटर डीएनए होता है। यह कोशिका के केंद्रक में काफी व्यवस्थित रूप से गूंथा होता है। और अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस डीएनए अणु का कौनसा हिस्सा केंद्रक के किस हिस्से में स्थित है, इस बात का असर उस हिस्से के काम पर पड़ता है।

केंद्रक के अंदर काफी गहमागहमी रहती है। हर चीज़ यानी गुणसूत्र, केंद्रिका वगैरह यहांवहां भटकते रहते हैं। लगता है कि सारी गतियां बेतरतीब ढंग से हो रही हैं किंतु पिछले दशक में किए गए अनुसंधान से पता चला था कि गुणसूत्र और उसमें उपस्थित डीएनए विशिष्ट स्थितियों में जम सकते हैं और इसका असर जीन्स की क्रिया पर पड़ सकता है। मगर यह बात अटकल के स्तर पर ही थी। अब इसके प्रमाण मिले हैं।

वैज्ञानिकों ने हाल ही में विकसित जीनसंपादन की तकनीक क्रिस्पर को थोड़ा परिवर्तित रूप में इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से वे केंद्रक के अंदर डीएनए के विशिष्ट हिस्सों को एक जगह से दूसरी जगह सरका सकते हैं। सेल नामक शोध पत्रिका में उन्होंने बताया है कि सबसे पहले उन्होंने डीएनए को एक प्रोटीन से जोड़ दिया। पादप हारमोन एब्सिसिक एसिड की उपस्थिति में वह प्रोटीन एक अन्य प्रोटीन से जुड़ जाता है। यह दूसरा प्रोटीन केंद्रक के मात्र उस हिस्से में पाया जाता है जहां डीएनए को सरकाकर पहुंचाना है। दूसरा प्रोटीन डीएनए को कसकर पकड़ लेता है और उसे वांछित हिस्से में जमाए रखता है। एब्सिसिक एसिड हटाने पर यह कड़ी टूट जाती है और डीएनए कहीं भी जाने को मुक्त हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस तकनीक की मदद से वे कई जीन्स को केंद्रक के मध्य भाग से उसके किनारों पर ले जाने में सफल हुए हैं। उन्होंने यही प्रयोग टेलोमेयर के साथ भी किया। टेलोमेयर गुणसूत्रों के सिरों पर स्थित होते हैं और इनका सम्बंध कोशिका की विभाजन क्षमता तथा बुढ़ाने से देखा गया है। जब शोधकर्ताओं ने टेलोमेयर्स को केंद्रक की अंदरूनी सतह के पास सरका दिया तो कोशिका की वृद्धि लगभग रुक गई। किंतु जब इन्हीं टेलोमेयर्स को कैजाल बॉडीज़ के पास सरका दिया गया तो कोशिका तेज़ी से वृद्धि करने लगी और विभाजन भी जल्दीजल्दी हुआ। कैजाल बॉडी प्रोटीन और जेनेटिक सामग्री से बने संकुल होते हैं जो आरएनए का प्रोसेसिंग करते हैं।

यदि टेलोमेयर्स की केंद्रक में स्थिति और कोशिका के विभाजन के सम्बंध की यह समझ सही साबित होती है, तो हम यह समझ पाएंगे कि कोशिका को स्वस्थ कैसे रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)

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एक ही लिंग के चूहों के बच्चे

संतानोत्पत्ति के लिए नर और मादा लिंगों की ज़रूरत से तो सब वाकिफ हैं। लेकिन यह बात सिर्फ स्तनधारियों के लिए सही है। पक्षियों, मछलियों और छिपकलियों की कुछ प्रजातियों में एक ही लिंग के दो जंतु मिलकर संतान पैदा कर लेते हैं। मगर अब वैज्ञानिकों ने दो मादा चूहों (जो स्तनधारी होते हैं) के डीएनए से संतानें पैदा करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। और तो और, इन संतानों की संतानें भी पैदा हो चुकी हैं। वैसे वैज्ञानिकों ने दो नर चूहों कीजेनेटिक सामग्री लेकर भी संतानोत्पत्ति के प्रयास किए मगर इनसे उत्पन्न संतानें ज़्यादा नहीं जी पार्इं।

आखिर क्या कारण है कि एक ही लिंग के जीव आम तौर पर संतान पैदा नहीं कर पाते? वैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा जेनेटिक छाप या इम्प्रिंट के कारण होता है। जेनेटिक इम्प्रिंट छोटेछोटे रासायनिक बिल्ले होते हैं जो डीएनए से जुड़ जाते हैं और किसी जीन को निष्क्रिय कर देते हैं। वैज्ञानिक अब तक ऐसे 100 Ïम्प्रट खोज पाए हैं। इनमें से कुछ ऐसे जीन्स पर पाए जाते हैं जो भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। कई जीन्स एक लिंग में चिंहित किए जाते हैं मगर दूसरे लिंग में अचिंहित रहते हैं। यदि दोनों के जीन्स चिंहित हों (जैसा कि एक ही लिंग के पालकों में होगा) तो भ्रूण जीवित नहीं रह पाता है।

बेजिंग के चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के की ज़ाऊ इसी समस्या से निपटना चाहते थे। उनकी टीम ने शुक्राणु या अंडाणु की स्टेम कोशिकाएं लीं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की जोड़ियां नहीं बल्कि एक ही सेट होता है। अन्य कोशिकाओं के समान इनमें भी ऐसे जेनेटिक हिस्से होते हैं जो इÏम्प्रट पैदा कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन जेनेटिक हिस्सों को एकएक करके हटाया। वे यह देखना चाहते थे कि कौनसे हिस्सों को हटाने से भ्रूण का विकास बाधित नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने एक मादा चूहे की स्टेम कोशिका को दूसरे मादा चूहे के अंडे में प्रविष्ट कराया ताकि बच्चे पैदा हो सकें। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने शुक्राण स्टेम कोशिकाओं पर भी किया। एक अंडे में से उसका केंद्रक (यानी जेनेटिक सामग्री) हटा दी। इस केंद्रकविहीन अंडे में उन्होंने एक नर का शुक्राणु और दूसरे नर की शुक्राणु स्टेम कोशिका डाल दी।

तीन जेनेटिक हिस्से हटा देने के बाद शोधकर्ता दो मादाओं से 20 जीवित संतानें पैदा कर पाए। दूसरी ओर, दो नरों से 12 संतान पैदा करवाने के लिए उन्हें सात जेनेटिक हिस्से हटाने पड़े थे। मगर दो नरों से पैदा ये संतानें मात्र दो दिन जीवित रहीं।

यह शोध कार्य चौंकाने वाला ज़रूर है किंतु इससे मुख्य बात यह पता चली है कि वे कौनसे जेनेटिक हिस्से हैं जो स्तनधारियों में संतानोत्पत्ति के लिए ज़रूरी हैं और जिनकी वजह से प्रजनन क्रिया में उन्हें दो लिगों की ज़रूरत पड़ती है। वैसे अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब दो स्त्रियां मिलकर बच्चे पैदा करने लगेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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माइक्रोस्कोप खुद हुआ माइक्रो – डॉ. दीपक कोहली

चौंकिए नहीं! अब आप माइक्रोस्कोप को जेब में रखकर कहीं भी घूम सकते हैं, वह भी उसे मोड़कर। डॉ. मनु प्रकाश ने एक ऐसा माइक्रोस्कोप विकसित किया है जिसे जेब में मोड़कर रखा जा सकता है। इस माइक्रोस्कोप से आने वाले समय में चिकित्सकीय जांच में व्यापक सुधार देखने को मिलेगा।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), कानपुर में कंप्यूटर साइंस से बीटेक के छात्र रहे डॉ. मनु प्रकाश को भौतिकी जीव विज्ञान के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने के लिए मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप से नवाज़ा गया है। उनके द्वारा विकसित किया गया शक्तिशाली माइक्रोस्कोप रक्त की एक बूंद से मलेरिया की जांच करने में सक्षम है। इस माइक्रोस्कोप से मलेरिया परजीवी का पता लगाने का खर्च महज 33.33 रुपए आता है। फिलहाल इस माइक्रोस्कोप का प्रयोग मलेरिया की जांच में सफल हुआ है, आगे इसे और समृद्ध किया जाएगा। अपने शोध कार्य को जारी रखने के लिए डॉ. मनु प्रकाश को मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप प्रदान की गयी है। वर्तमान में वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के जैव अभियांत्रिकी विभाग में कार्यरत हैं। वह स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी व विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सा नोबेल पुरस्कार – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से दिया गया है। इन दोनों ने ही कैंसर के उपचार में शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी अनुसंधान किया है। अलबत्ता, कैंसर के उपचार में प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका को समझने के प्रयासों का इतिहास काफी पुराना है।

आम तौर पर कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, विकिरण और सर्जरी का सहारा लिया जाता है। इन सबकी अपनीअपनी समस्याएं है। उनमें न जाते हुए हम बात करेंगे कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र किस तरह से कैंसर का मुकाबला कर सकता है और जब कर सकता है, तो करता क्यों नहीं है। और नए अनुसंधान ने इसे कैसे संभव बनाया है।

यह बात काफी समय से पता रही है कि प्रतिरक्षा तंत्र कैंसर के नियंत्रण में कुछ भूमिका तो निभाता है। जैसे अट्ठारवीं सदी में ही यह समझ में आ गया था कि एकाध लाख मरीज़ों में से एक में कैंसर स्वत: समाप्त हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो जर्मन वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से देखा कि कुछ मरीज़ों में एरिसिपेला बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद उनका ट्यूमर सिकुड़ गया। इनमें से एक वैज्ञानिक ने 1868 में एक कैंसर मरीज़ को जानबूझकर एरिसिपेला से संक्रमित किया और पाया कि उसका ट्यूमर सिकुड़ने लगा। यह भी देखा गया कि कभीकभी तेज़ बुखार के बाद भी ट्यूमर दब जाता है। 1891 में विलियम कोली नाम के एक सर्जन ने लंबे समय के प्रयोगों के बाद बताया कि 1000 से ज़्यादा मरीज़ों में एरिसिपेला संक्रमण के बाद ट्यूमर सिकुड़ता है। इन सारे अवलोकनों के चलते मामला ज़ोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संक्रमण के कारण जब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य से ज़्यादा सक्रिय होता है तो वह कैंसर कोशिकाओं को भी निशाना बनाता है।

मगर इस बीच कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरपी और विकिरण चिकित्सा का विकास हुआ और प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका की बात आईगई हो गई। मगर आगे चलकर विलियम कोली की बात सही साबित हुई। 1976 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने मूत्राशय के कैंसर के मरीज़ों को बीसीजी की खुराक सीधे मूत्राशय में दी और उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए। इससे पहले चूहों में बीसीजी टीके का कैंसररोधी असर दर्शाया जा चुका था। बीसीजी का पूरा नाम बैसिलस काल्मेटगुएरिन है और इसे टीबी के बैक्टीरिया को दुर्बल करके बनाया जाता है। आज यह मूत्राशय कैंसर के उपचार की जानीमानी पद्धति है।

यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रतिरक्षा तंत्र (कम से कम) कुछ कैंसर गठानों का सफाया कर सकता है। लेकिन आम तौर पर कैंसर इस तंत्र से बच निकलता है और अनियंत्रित वृद्धि करता रहता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है।

प्रतिरक्षा तंत्र कई घटकों से मिलकर बना होता है। इसमें से एक हिस्सा जन्मजात होता है और उसे बाहरी चीज़ों से लड़ने के लिए किसी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती। दूसरा हिस्सा वह होता है जो किसी बाहरी चीज़ के संपर्क में आने पर उसे पहचानना और नष्ट करना सीखता है और इसे याद रखता है। आम तौर पर बाहर से आए किसी जीवाणु वगैरह पर कुछ पहचान चिंह (एंटीजन) होते हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र को यह समझने में मददगार होते हैं कि वह अपना नहीं बल्कि पराया है।

अब कैंसर कोशिकाओं को देखें। यह तो सही है कि कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में कई उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशंस के कारण उनकी पहचान थोड़ी अलग हो जाती है, उनकी सतह पर विशेष पहचान चिंह होते हैं और प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें पहचान सकती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं एक बात का फायदा उठाती हैं।

हमारी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को कोई शत्रु नज़र आए तो वे उसे मारने के साथसाथ स्वयं की संख्या बढ़ाने लगती हैं। समस्या यह आती है कि यदि यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाए तो हमारे शरीर की शामत आ जाती है क्योंकि ये कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं पर भी हल्ला बोल सकती हैं। ऐसा होने पर कई बीमारियां पनपती हैं जिन्हें स्वप्रतिरक्षा रोग या ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। इसलिए प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर कुछ स्विच होते हैं। हमारी सामान्य कोशिकाएं इन स्विच की मदद से इन्हें काम करने से रोकती हैं। कैंसर कोशिकाएं इन्हीं स्विच का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं को काम करने से रोक देती हैं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि कैंसर कोशिकाएं तो बेलगाम ढंग से संख्यावृद्धि करती रहती हैं किंतु प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या नहीं बढ़ती।

जिस खोज के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है उसका सम्बंध इन्हीं स्विच से है जो एक तरह से ब्रोक का काम करते हैं। टेक्सास विश्वविद्यालय के ह्रूस्टन स्थित एम.डी. एंडरसन कैंसर सेंटर के जेम्स एलिसन और क्योटो विश्वविद्यालय के तसाकु होन्जो ने अलगअलग काम करते हुए दो ऐसे स्विच खोज निकाले हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र पर ब्रोक का काम करते हैं। एक स्विच का नाम है सायटोटॉक्सिक टीलिम्फोसाइट एंटीजन-4 (सीटीएलए-4) तथा दूसरे का नाम है प्रोग्राम्ड सेल डेथ 1 (पीडी-1)। शोधकर्ताओं ने इन ब्रोक को नाकाम करके प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को सक्रिय करने में सफलता प्राप्त की है और दोनों के ही आधार पर औषधियां बनाई जा चुकी हैं। हालांकि अभी प्रतिरक्षा तंत्र के ब्रोक्स को हटाकर कैंसर से लड़ाई में सफलता कुछ ही किस्म के कैंसर में मिली है किंतु पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक कारगर विधि साबित होगी।

लेकिन कैंसर कोशिकाओं के पास बचाव के और भी तरीके हैं। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर आधारित कैंसर उपचार की चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। जैसे कैंसर कोशिकाएं एक और हथकंडा अपनाती हैं। वे अपने आसपास सामान्य कोशिकाओं का एक सूक्ष्म पर्यावरण बना लेती हैं। दूसरे शब्दों में कैंसर कोशिका सामान्य कोशिकाओं के बीच में छिपी बैठी रहती है और प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं वहां तक पहुंच नहीं पाती। शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि इन कोशिकाओं को उजागर करें ताकि प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें नष्ट कर पाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया का सबसे ऊष्मा प्रतिरोधी पदार्थ – डॉ. दीपक कोहली

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़ हाइपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल सकती है। ब्रिटेन के इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफिनयम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है।

टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रैक्ट्री सिरेमिक्स हैं। इसका अर्थ यह है कि ये असाधारण रूप से ऊष्मा के प्रतिरोधी हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ यह है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म वातावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है।

इन दोनों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे परीक्षण से यह देखा जा सकता है कि यह कितने अधिक गर्म वातावरण में काम कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तीक्ष्ण गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है।

उन्होंने पाया कि यदि इन दोनों यौगिकों को मिश्रित कर दिया जाए तो उनका गलनांक 3905 डिग्री सेल्सियस था, लेकिन दोनों यौगिकों को अलग-अलग गर्म किए जाने पर उनके गलनांक अब तक ज्ञात पदार्थों के गलनांक से ज़्यादा पाए गए। टैंटेलम कार्बाइड 3768 डिग्री सेल्सियस पर पिघल गया जबकि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक 3958 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया। यह निष्कर्ष नई पीढ़ी के हाइपरसोनिक वाहनों, यानी अब तक के सबसे तेज़ रफ्तार अंतरिक्ष यानों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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रहस्यमयी मस्तिष्क कोशिका खोजी गई

हाल ही में शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क कोशिका परिवार में एक नया सदस्य पहचाना है। ये रहस्यमयी कोशिकाएं नए प्रकार के न्यूरॉन बंडल के रूप में कॉर्टेक्स की ऊपरी परत में पाई जाती हैं। इन्हें इंसानों में देखा गया है किंतु चूहों में ये अनुपस्थित हैं। इन्हें ‘रोज़हिप न्यूरॉन्स’ नाम दिया गया है। कॉर्टेक्स में कई ऐसे न्यूरॉन्स पाए जाते हैं जो अन्य न्यूरॉन्स की गतिविधि को रोकते हैं।

वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क संरचना के सूक्ष्म अध्ययन और अलग-अलग कोशिकाओं के आनुवंशिक विश्लेषण के के मिले-जुले उपयोग से मानव मस्तिष्क ऊतक की स्लाइसों में इन न्यूरॉन्स को देखा। ये कोशिकाएं घने, झाड़ीदार आकार के साथ छोटी और सुघटित रूप में थी। इन कोशिकाओं के विस्तारों पर, जहां से वे अन्य कोशिकाओं को संकेत भेजने का काम करती हैं, वहां असामान्य रूप से बड़ी और बल्ब जैसी रचनाएं थीं।

इन कोशिकाओं के सटीक वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिकों ने जीन संरचना का विश्लेषण किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि अवरोधक रोज़हिप न्यूरॉन्स में मानव जीन का सेट पूर्व में चूहों में पाई गई किसी भी कोशिका से मेल नहीं खाता है जबकि चूहों को मनुष्य के अध्ययन के लिए मॉडल जंतु के रूप में उपयोग किया जाता है। नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ये मॉडल के रूप में उपयुक्त नहीं हैं। एक सवाल यह है कि क्या मस्तिष्क कार्यों के लिए महत्वपूर्ण यही वो न्यूरॉन है जो हमें चूहों से अलग करते हैं।

लेकिन इन नए न्यूरॉन्स का सटीक कार्य अभी भी एक रहस्य है। रोज़हिप न्यूरॉन्स कॉर्टेक्स की पहली परत में केवल 10-15 प्रतिशत अवरोधक न्यूरॉन्स के रूप में मौजूद हैं और इनके कहीं और पाए जाने की संभावना थोड़ी कम ही है। अन्य न्यूरॉन्स के संपर्क के स्थान से पता चलता है कि वे उत्तेजक संकेतों पर रोक लगाने के लिए एक उम्दा स्थिति में हैं। शोधकर्ता अब बड़े तंत्रिका सर्किटों में रोज़हिप न्यूरॉन्स की जमावट और तंत्रिका सम्बंधी रोगों में इनकी भूमिका का अध्ययन भी करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आपकी चमड़ी बोलेगी और सुनेगी

पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से तरक्की हो रही है। अब वैज्ञानिकों ने ऐसे उपकरण विकसित किए हैं जो आपकी त्वचा को स्पीकर या माइक्रोफोन में बदल देंगे। इन्हें कान में या गले पर लगाने पर सुनने और बोलने की दिक्कत से पीड़ित व्यक्ति को सुनने-बोलने में मदद मिलेगी।

दरअसल शोधकर्ता ऐसे स्पीकर और माइक्रोफोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो टेटू से भी पतले हों और आवाज़ को बढ़ा सकें। स्पीकर और माइक्रोफोन तो जानी-मानी टेक्नॉलॉजी है मगर उन्हें एकदम पतला बनाना एक तकनीकी चुनौती है। सबसे पहले तो आपके पास ऐसा इलेक्ट्रॉनिक सर्किट होना चाहिए जो अत्यंत पतला हो और इतना लचीला हो कि चमड़ी के साथ-साथ खिंच सके, मुड़ सके, सिकुड़ सके। विभिन्न पदार्थों को आज़माने के बाद शोधकर्ताओं ने इसके लिए चांदी के महीन तारों को चुना। इन तारों को पोलीमर की परतों से ढंका गया। इस तरह जो सर्किट बना वह लचीला था, पारदर्शी था तथा विद्युत संकेतों के प्रेषण में सक्षम था।

जब इस सर्किट को कोई ध्वनि (श्रव्य) संकेत मिलता है तो इसमें लगा नन्हा-सा लाउडस्पीकर पूरे सर्किट को गर्म कर देता है। अब यह सर्किट हवा में हो रहे दबाव के बदलावों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें कान ध्वनि के रूप में महसूस करता है। इसके विपरीत माइक्रोफोन ध्वनि संकेतों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिन्हें रिकॉर्ड किया जा सकता है या सुना जा सकता है।

साइंस एडवांसेस नाम शोध पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि यह उपकरण मुंह से निकलने वाली ध्वनियों को तो पहचान ही सकता है अपितु यह आपके गले में उपस्थित स्वर यंत्र (वोकल कॉर्ड) में हो रहे कंपनों को पढ़कर भी ध्वनि पैदा कर सकता है। अभी इस उपकरण का परीक्षण चल रहा है। कोशिश है कि ध्वनि की गुणवत्ता और वॉल्यूम में सुधार किया जाए ताकि यह सुनने-बोलने में दिक्कत महसूस करने वाले लोगों के लिए एक उपयोगी यंत्र बन जाए। तो जल्दी ही हम चमड़ी पर पहने जा सकने वाले स्पीकरों और माइक्रोफोन्स का उपयोग कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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