कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)
मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।
शुरुआत कैसे हुई
पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।
जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।
चूहे भी मददगार
लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।
कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।
भारत में क्यों नहीं?
भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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