WHO से सम्बंध विच्छेद: ट्रंप के दुस्साहसी फैसले का अर्थ

डॉ. अनंत फड़के

त्ता संभालने के मात्र आठ घंटे के अंदर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने घोषणा कर दी कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से नाता तोड़ लेगा। उनका यह कदम तथाकथित ‘देशभक्तिपूर्ण’ (Patriotic), ‘अमेरिका फर्स्ट’ (America First), ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ जैसे अतिवादी, बड़बोले और गैर-ज़िम्मेदाराना राजनैतिक अजेंडा (Political Agenda) का हिस्सा था। ट्रंप ने इस फैसले के तीन कारण बताए:

  1. कोविड-19 (COVID-19) महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ का प्रदर्शन घटिया था।” हो सकता है कि महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ ने ज़रूरी अर्जेंसी के साथ काम न किया हो लेकिन संगठन से बाहर निकल जाना कोई उपयुक्त प्रतिक्रिया नहीं है। स्वयं ट्रंप प्रशासन द्वारा जिस ढंग से महामारी का प्रबंधन (Crisis Management) किया गया, वह भी साफ तौर पर अनर्थकारी था – वे बचाव के बुनियादी उपाय (जैसे मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग) भी लागू करने में असफल रहे थे। ट्रंप के दफ्तर छोड़ने तक चार लाख अमरीकी कोविड-19 के कारण जान गंवा चुके थे। लैंसेट (Lancet Report) के मुताबिक, इनमें से 40 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता था। सत्ता संभालने के बाद जो बाइडेन ने इस विनाशकारी नीति को बदला, लेकिन जो नुकसान होना था वह तो हो चुका था। यूएस की जनसंख्या दुनिया की जनसंख्या का मात्र 4 प्रतिशत है, लेकिन वहां कोविड-19 से दुनिया में सबसे अधिक मौतें हुईं – पूरी 12 लाख!
  2. चीन (China) की आबादी कहीं अधिक है और वह एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था (Growing Economy) है, लेकिन वह डब्ल्यूएचओ में बहुत कम योगदान देता है।” हालांकि यह सही है, लेकिन इसका समाधान संगठन को छोड़ने में नहीं है बल्कि चीन पर योगदान बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाने में है।
  3. डब्ल्यूएचओ ने महामारी के संदर्भ में चीन के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं की।” यह दावा बेबुनियाद है। हमेशा की तरह चीन सरकार (Chinese Government) अपने कामकाज में अपारदर्शी (Opaque Governance) है। लेकिन चीन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई (Sanctions) का कोई निश्चयात्मक कारण नहीं था। इसके अलावा, तथ्य यह है कि डब्ल्यूएचओ के पास सिर्फ परामर्श के अधिकार हैं – वह सदस्य देशों पर कोई निर्णय थोप नहीं सकता और न ही कोई कार्रवाई करने को बाध्य कर सकता है।

परस्पर निर्भर वैश्विक स्वास्थ्य (Global Health Interdependence)

कोविड-19 (Coronavirus Pandemic) ने, पहले से कहीं अधिक स्पष्टता से दिखा दिया है कि बात स्वास्थ्य की हो तो राष्ट्र एक-दूसरे पर बुरी तरह से निर्भर हैं। अतीत की महामारियों – इबोला (Ebola), स्वाइन फ्लू (Swine Flu), सार्स (SARS), ज़ीका (Zika Virus), बर्ड फ्लू (Bird Flu) – ने भी इस बात को रेखांकित किया है। ऐसे खतरों की निगरानी, रोकथाम व प्रबंधन के लिए एक समन्वित और कार्यकुशल वैश्विक स्वास्थ्य तंत्र अनिवार्य है। ट्रंप का फैसला तो खुद अमरीकी लोगों के भी सर्वोत्तम हित में नहीं है।

डब्ल्यूएचओ स्वास्थ्य सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान का संकलन और प्रसारण करता है, जिसमें नए रोगजनकों, बीमारियों के उभार, तथा वैक्सीन के विकास सम्बंधी जानकारी होती है। डब्ल्यूएचओ से निकल जाने के बाद यूएस के लिए एक बड़ी समस्या यह होगी कि उसे इस महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुंच स्वत: हासिल नहीं होगी। इसके अलावा, कई अमेरिकी स्वास्थ्य संस्थाएं डब्ल्यूएचओ के साथ निकटता से जुड़ी हैं और ट्रंप का फैसला कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न करेगा। लेकिन यह सब दबंग ट्रंप महाशय को कौन समझाए?

निजी स्वार्थों का बढ़ता प्रभाव (Rise of Private Interests)

2024 में यूएस सरकार ने डब्ल्यूएचओ के बजट (WHO Budget) में सबसे अधिक योगदान (14.5 प्रतिशत) दिया था। ट्रंप का फैसला अगले साल से डब्ल्यूएचओ के लिए वित्तीय संकट खड़ा कर देगा। संगठन को लागत कटौती (Cost Cutting) के कई उपाय लागू करने होंगे, लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। भारत जैसे विकासशील देश ज़्यादा प्रभावित होंगे, जबकि अल्पविकसित अफ्रीकी देशों को तो गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा।

इसके साथ ही, डब्ल्यूएचओ की निजी संस्थाओं (Private Institutions) पर निर्भरता बढ़ेगी। पिछले 40 वर्षों में डब्ल्यूएचओ के वित्तीय स्रोतों (Funding Sources) में उल्लेखनीय बदलाव आया है। शुरुआत में, डब्ल्यूएचओ की अधिकांश फंडिंग मूलत: सदस्य देशों से मिलने वाले निश्चित वार्षिक योगदान से आती थी। इस योगदान की मात्रा सम्बंधित देश की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के पैमाने के आधार पर निर्धारित होती थी। अलबत्ता, आगे चलकर फोर्ड फाउंडेशन (Ford Foundation), बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (Bill & Melinda Gates Foundation – BMGF) और दवा कंपनियों (Pharmaceutical Companies) से जुड़े प्रतिष्ठान प्रमुख दानदाता हो गए।

1970 के दशक में निजी योगदान डब्ल्यूएचओ के बजट का मात्र 25 प्रतिशत थे। 1990 के दशक तक यह आंकड़ा बढ़कर 50 प्रतिशत हो चुका था। आज निजी दान डब्ल्यूएचओ के बजट का 75 प्रतिशत हैं।

2024 में अकेले बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने डब्ल्यूएचओ के बजट में 13.7 प्रतिशत योगदान दिया था – यह कई देशों के योगदान से अधिक था! इसी प्रकार से, गावी अलाएंस (जो टीकाकरण पर केंद्रित है) का योगदान 10.5 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने 4 प्रतिशत का योगदान दिया था। निजी फंडिंग पर यह अतिशय निर्भरता समस्यामूलक है, क्योंकि इनमें से कई अनुदानों के साथ शर्तें जुड़ी होती हैं – ये अक्सर किसी विशेष प्रोजेक्ट के लिए होते हैं, स्वास्थ्य सेवा में सामान्य सुधार के लिए नहीं होते।

हालांकि ये निजी प्रतिष्ठान तकनीकी रूप से ‘गैर-मुनाफा’ हैं लेकिन ये वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों पर काफी असर डालते हैं और प्राय: जन स्वास्थ्य उपायों की बजाय बाज़ार-चालित समाधानों की हिमायत करते हैं। उदाहरण के लिए, विकसित देशों में ऐतिहासिक रूप से पोलियो जैसी बीमारियों के उन्मूलन में स्वच्छता और साफ पेयजल की व्यापक उपलब्धता ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन ऐसे दीर्घावधि अधोसंरचना सुधार में निवेश करने की बजाय, निजी दानदाताओं के दबाव में डब्ल्यूएचओ ने टीकाकरण कार्यक्रमों को इन बीमारियों के लिए प्राथमिक समाधान के रूप में बढ़ावा दिया है जो टीका उत्पादकों को लाभ पहुंचाते हैं।

एक गौरतलब उदाहरण: 2011 के स्वाइन फ्लू प्रकोप के दौरान, अनुसंधान ने दर्शाया था कि अकेला टीकाकरण महामारी को कारगर ढंग से थाम नहीं पाएगा। इसके बावजूद, युरोपीय सरकारों ने वैक्सीन की लाखों खुराकों का भंडारण कर लिया, जिन्हें बाद में फेंकना पड़ा था क्योंकि इस बात के काफी प्रमाण इकट्ठे हो गए कि टीकाकरण स्वाइन फ्लू महामारी से लड़ाई में कारगर नहीं है। टीकाकरण का यह निर्णय निजी दवा कंपनियों और निहित स्वार्थों वाले प्रतिष्ठानों के प्रभाव में लिया गया था।

व्यापक तस्वीर (Bigger Picture)

चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति (Economic Power) के मद्देनज़र, वहां की सरकार को डब्ल्यूएचओ में ज़्यादा योगदान देने पर विचार करना चाहिए। लेकिन इसमें एक बड़ी अड़चन 1980 में यूएस के दबाव में लिया गया एक निर्णय (1980 US Policy Influence) है – एक संधि जिसने डब्ल्यूएचओ में सरकारों के योगदान को फ्रीज़ (Funding Freeze) कर दिया था, यहां तक कि महंगाई के हिसाब से कमी-बेशी भी असंभव बना दी! परिणाम यह है कि चीन के योगदान में कोई भी वृद्धि सीधे सरकारी योगदान से नहीं बल्कि निजी चीनी प्रतिष्ठानों (जैसे जैक मा प्रतिष्ठान) से होगी।

द्वितीय विश्व युद्ध तक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों पर ब्रिटेन का वर्चस्व था। अलबत्ता, 1948 में डब्ल्यूएचओ की स्थापना के बाद, निर्णय प्रक्रिया ज़्यादा प्रजातांत्रिक हो गई और इसमें यूएस, युरोप, रूस, चीन तथा कुछ नव-स्वतंत्र देशों को आवाज़ मिली। हालांकि यूएस का काफी प्रभाव रहा लेकिन युद्धोपरांत कीन्स प्रभावित (कीनेशियन) युग में कल्याण-उन्मुखी नीतियों पर ज़ोर दिया गया, और यह स्वीकार किया गया कि निजी सेक्टर की समृद्धि सामान्य आर्थिक विकास और लोगों की खुशहाली से बंधी है। इसके परिणामस्वरूप सरकार-चालित स्वास्थ्य पहलों की शुरुआत हुई।

अलबत्ता, विश्व भर में इस राज्य पूंजीवाद के मार्फत कॉर्पोरेट ताकत बढ़ने के साथ, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों में उनका प्रभाव भी बढ़ा। 1980 के दशक से, बाज़ार-चालित, कॉर्पोरेट-स्नेही नीतियों ने वैश्विक स्वास्थ्य रणनीतियों को आकार दिया है। डब्ल्यूएचओ से निकलने का ट्रंप का दुस्साहसिक फैसला (Trump’s WHO Exit) इस व्यापक रुझान का सीधा परिणाम है।

निरंकुश बेपरवाही (Authoritarian Carelessness) प्राय: गुप्त निहित स्वार्थों (Hidden Interests) की चाकरी करती है। युरोप में स्वाइन फ्लू टीके (Swine Flu Vaccine) की नाकामी दर्शाती है कि कैसे निजी कॉर्पोरेशन (Private Corporations) जन स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रंप के फैसले के चलते, डब्ल्यूएचओ अब कॉर्पोरेट प्रभावों के प्रति और भी दुर्बल हो गया है, जो निजी मुनाफे के रूबरू जन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की उसकी सामर्थ्य को और कमज़ोर करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.bu.edu/files/2020/07/Resize-WHO.jpg

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