वन महज़ कार्बन सिंक नहीं हैं

सीमा मुंडोली

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) के अनुसार हमारा ग्रह (पृथ्वी) तिहरे संकट से घिरा है – जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता का ह्रास और प्रदूषण। अब ज़रूरत है कि इन परस्पर जुड़ी चुनौतियों को संबोधित किया जाए ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां इस जीवनक्षम ग्रह पर जी सकें। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा संकट है जिस पर विश्व स्तर पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। इस संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में 195 सदस्य देशों द्वारा एक वैश्विक बाध्यकारी संधि (पेरिस संधि) अपनाई गई है। इसका लक्ष्य है औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना।

जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में वनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। जंगल वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर कार्बन सिंक के रूप में कार्य कर सकते हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने में मदद करते हैं जिससे जलवायु परिवर्तन की दर धीमी पड़ती है। पेरिस समझौते के अनुच्छेद-5 में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण रोकने का महत्व स्पष्ट किया गया है; वन नहीं रहेंगे तो उनमें संचित कार्बन मुक्त हो जाएगा और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में योगदान देगा।

वर्तमान में, विश्व की कुल भूमि का 31 प्रतिशत हिस्सा वनों से आच्छादित है। इन वनों में थलीय-वनस्पतियों और थलचर जीव-जंतुओं, दोनों की समृद्ध जैव विविधता है। ये वन 80 प्रतिशत उभयचर, 75 प्रतिशत पक्षी और 68 प्रतिशत स्तनधारी प्रजातियों का घर हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं कि ये 5,00,000 थलीय-वनस्पति प्रजातियों के घर भी हैं। वन मनुष्यों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं – वन 8.6 करोड़ हरित रोज़गार प्रदान करके आजीविका के साधन बढ़ाते हैं। वन 88 करोड़ लोगों, अधिकांश महिलाओं, के लिए जलाऊ लकड़ी के साथ-साथ कई अन्य गैर-काष्ठ वन उपज भी मुहैया कराते हैं। दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग भोजन के लिए वन-स्रोतों पर निर्भर हैं।

प्राचीन काल से ही वनों ने मानव जीवन, आजीविका और खुशहाली को बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन उनके बेतहाशा उपयोग और दोहन से निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण दोनों हुए हैं। पिछले 10,000 वर्षों में हम पृथ्वी के एक तिहाई वन गंवा चुके हैं। इसमें से आधे वन तो सिर्फ पिछली शताब्दी में ही उजाड़े गए हैं। आज भी वनों का सफाया करने का प्रमुख कारण खेती के लिए ज़मीन बनाना है; हाल ही में तेल के लिए ताड़ और सोयाबीन जैसी वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए वनों को काटा गया है। पशु पालन और शहरीकरण के कारण भूमि आवरण में आए बदलाव भी वनों की कटाई के कारण हैं। 1980 के दशक में वनों की कटाई अपने चरम पर थी। लेकिन गनीमत है कि वैश्विक प्रयासों के चलते वनों की कटाई की गति मंद पड़ी है – हालांकि यह पूरी तरह रुकी नहीं है और आज भी कम से कम 1 करोड़ हैक्टर वन हर साल कट रहे हैं।

इनमें अधिकांश  उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों के समृद्ध जैव-विविधता वाले वन हैं। लेकिन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में वनों की भूमिका को पहचानने के बाद तो वनों की कटाई को रोकना तत्काल रूप से आवश्यक हो गया है।

वन वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन ने मई 2024 में ‘अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन: रुझान, खामियों और नवीन तरीकों की एक समीक्षा’ (International forest governance: A critical review of trends, drawbacks and new approaches) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन के अंतर्गत कानून, नीतियां और संस्थागत ढांचे (बाध्यकारी और स्वैच्छिक दोनों) शामिल हैं जो वैश्विक वनों का प्रशासन मुख्यत: संरक्षण और टिकाऊ प्रबंधन के उद्देश्य से करते हैं। उपरोक्त आकलन रिपोर्ट में 2010 के बाद के दशक में जिन रुझानों पर प्रकाश डाला गया है उनमें से एक है वन प्रशासन विमर्श का ‘जलवायुकरण’। रिपोर्ट के अनुसार इसने वन संरक्षण के लिए बाज़ार-चालित और तकनीकी प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके कारण वनों के आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक महत्व पर कम ध्यान या महत्व दिया जा रहा है।

वनों की कटाई से निपटने के लिए बाज़ार-आधारित विधियों में से एक का उदाहरण लेते हैं: Reducing Emissions from Deforestation and Forest Degradation in Developing Countries (REDD+) अर्थात विकासशील देशों में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण के कारण होने वाला उत्सर्जन कम करना। इसका विशिष्ट उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को थामना है। जो विकासशील देश निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को थामने के साथ-साथ वनों के सतत प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें REDD+ के तहत इसके बदले भुगतान किया जाएगा। वन संरक्षित हो जाएंगे, और संरक्षण करने वाले देशों को विकास सम्बंधी गतिविधियों के लिए धन मिलेगा – यानी सबकी जीत (या आम के आम, गुठलियों के दाम)। खासकर पेरिस समझौते के बाद से, REDD+ को जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती से लड़ने में एक महत्वपूर्ण किरदार के रूप में देखा जा रहा है।

REDD+ पहली बार 2007 में प्रस्तावित किया गया था। तब से REDD+ के फायदे और इसके प्रतिकूल प्रभावों पर विभिन्न मत रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि REDD+ निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकने में अप्रभावी है। दूसरी ओर, कुछ लोगों का तर्क है कि REDD+ की सफलता सीमित इसलिए दिखती है क्योंकि इसे संपूर्ण राष्ट्र स्तर पर नहीं, बल्कि परियोजना-आधारित तरीके से लागू किया जा रहा है। चूंकि REDD+ एक वित्तीय प्रोत्साहन/प्रलोभन है, इसलिए इसकी आलोचना में एक तर्क यह दिया जाता है कि इससे मिलने वाला वित्तीय प्रोत्साहन वनों के अन्य अधिक मुनाफादायक इस्तेमाल का मुकाबला नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में तेल के लिए ताड़ बागानों और इमारती लकड़ी के बागानों के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होती है। इन बागानों से इतना मुनाफा मिलता है कि REDD+ जैसी प्रणाली यहां काम नहीं करेगी।

बाज़ार-आधारित व्यवस्था के रूप में REDD+ पर विवाद का एक प्रमुख कारण देशज समुदायों पर इसका प्रभाव रहा है – विशेष रूप से सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में। एक तरफ तो REDD+ को इस तरह देखा जाता है कि यह देशज समुदायों को वित्तीय लाभ देगा जिससे वे अपनी विकास सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेंगे। दुनिया भर के देशज समुदायों ने एक खुले पत्र में REDD+ के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया था। देशज लोगों और संगठनों के वक्तव्यों में कहा गया है कि इससे मिली वित्तीय मदद ने उन्हें टिकाऊ वन प्रबंधन और संरक्षण करने में मदद के अलावा स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल जैसी सुविधाएं स्थापित करने में भी मदद की है। लेकिन साथ ही, देशज समुदायों को जंगलों तक पहुंच और उन पर अपने अधिकार गंवाने का भी डर है। और तो और, उन्हें वहां से विस्थापित कर दिए जाने का डर भी है। उनकी आजीविका और निर्वाह काष्ठ और गैर-काष्ठ दोनों तरह के वन उत्पाद के निष्कर्षण पर निर्भर है। लेकिन REDD+ द्वारा लागू नियम इन समुदायों (की आजीविका) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। यह आशंका व्यक्त की गई है कि देशों के अंदर भी REDD+ से होने वाले लाभ, विशेषकर वित्तीय लाभ, अंततः कुछ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चले जाएंगे।

REDD+ जैसी बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था से असमान सत्ता संतुलन के बारे में भी चिंताएं उठती हैं। ग्लोबल नॉर्थ के विकसित देश, जो कार्बन के मुख्य उत्सर्जक और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख योगदानकर्ता भी हैं, अपने अधिक धन के बल पर वन उपयोग की ऐसी शर्तें लागू कर सकते हैं जो विकासशील ग्लोबल साउथ के देशों और समुदायों के लिए हानिकारक होंगी। ग्लोबल साउथ के देशों के विभिन्न समूहों के लिए सत्ता का असमान वितरण व इसके प्रभाव भी चिंता का विषय हैं – अधिक राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक सामर्थ्य वाले देश ऐसी बाज़ार-केंद्रित व्यवस्था का फायदा उठा सकते हैं।

भारत उन शीर्ष दस देशों में से एक है जहां सबसे अधिक वन क्षेत्र है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट (State of Forest Report) 2021 के अनुसार, देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। इन वनों में अत्यंत समृद्ध जैव विविधता पनपती है, जिसमें कई ऐसी प्रजातियां हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती हैं यानी ये एंडेमिक हैं। भारत के वन 7.2 अरब टन कार्बन को भंडारित किए हुए हैं, और सरकार जलवायु परिवर्तन को कम करने में इन वनों के महत्व को स्वीकार करती है। भारत ने REDD से जुड़ी वार्ताओं में भाग लिया है और UNFCCC को राष्ट्रीय REDD+ रणनीति सौंपी भी है।

भारत के जंगल आदिवासियों के घर हैं, जो वनों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इसके अलावा वनों की सीमाओं पर बसे कई गांव और ग्रामीण आबादी भी पूरी तरह या आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हैं। इनकी संख्या कोई मामूली नहीं है – 30 करोड़ की आबादी वाले ऐसे 1,73,000 गांव अपनी ज़रूरतों के लिए वनों पर निर्भर हैं। यहां बसे समुदाय देश के सबसे गरीब समुदायों में से हैं और अक्सर उनकी आय का एकमात्र स्रोत वन उपज होती है। वन और वन उपज पर यह सामुदायिक निर्भरता REDD+ के उद्देश्य के आड़े आती है, जो निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकना चाहता है। इसलिए, जब वनों के ह्रास को रोकने के लिए REDD+ जैसी बाज़ार-आधारित व्यवस्था की बात होती है तो भारत की चिंताएं बाकी दुनिया की चिंताओं से भिन्न नहीं हैं – न्याय, समता और ऐसे उपायों की प्रभावशीलता की चिंताएं।

बेशक, जलवायु परिवर्तन से निपटने में वन महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वनों की रक्षा करने या वनों की कटाई को रोकने का एकमात्र कारण यही नहीं बन सकता। वनों से मिलने वाली अमूल्य पारिस्थितिक सेवाएं, वनों में पाई जाने वाली समृद्ध जैव विविधता, वनों पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका और निर्वहन भी वनों की रक्षा करने के लिए उतना ही महत्वपूर्ण कारण है। वन प्रशासन के जलवायुकरण और बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था का एक ही लक्ष्य है (वनों का संरक्षण), लेकिन यह एकल-लक्ष्य-उन्मुखी वन प्रशासन भारत या दुनिया भर के वनों और उस पर निर्भर समुदायों दोनों के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन को इस पहलू से अवगत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.ctfassets.net/mrbo2ykgx5lt/31154/07ed036c21fae9c8608765ed0397389f/forests-and-global-change-proforestation.jpg

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