कुष्ठ रोग लंबे समय से मानवता के लिए एक अभिशाप रहा है। यह रोग तंत्रिका को नुकसान पहुंचाता है, शरीर में घाव पैदा करता है तथा गंध व दृष्टि संवेदना को प्रभावित करता है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने कुष्ठ रोग के फैलने में मनुष्यों और गिलहरियों के बीच एक आश्चर्यजनक सम्बंध का पता लगाया है, और बताया है कि मध्य युग में गिलहरियां भी इस बीमारी की चपेट में थी।
गौरतलब है कि माइकोबैक्टीरियम लेप्रे और माइकोबैक्टीरियम लेप्रोमैटोसिस नामक बैक्टीरिया से होने वाला कुष्ठ रोग आज भी सालाना 2 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करता है। इसके अधिकांश मामले एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं। अब तक इस बीमारी को केवल मनुष्यों से जुड़ा माना जाता था लेकिन मध्ययुगीन गिलहरियों के अस्थि अवशेषों में कुष्ठ रोग के बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम लेप्री) की खोज इसके व्यापक पारिस्थितिक प्रभाव को रेखांकित करती है। आजकल आर्मेडिलो में यह बैक्टीरिया पाया जाता है और कभी-कभार आर्मेडिलो इस बैक्टीरिया को मनुष्यों व प्राइमेट्स में पहुंचाता है।
दरअसल मध्यकालीन इंगलैंड में गिलहरियां पालतू जीव की तरह और फर के लिए पाली जाती थीं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विंचेस्टर शहर की मध्ययुगीन गिलहरियों के अवशेषों की जांच करके कुष्ठ रोग के संचरण को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास किया है। विंचेस्टर खास तौर से गिलहरियां पालने और उनके फर का उपयोग करने के कारोबार के लिए मशहूर था। यहां एक कुष्ठ रोग अस्पताल भी था।
गिलहरी की हड्डियों पर काम करते हुए एक अनुसंधान टीम ने प्राचीन कुष्ठ रोग बैक्टीरिया के जीनोम का पुनर्निर्माण किया तो देखा कि यह मध्ययुगीन मनुष्यों में पाए जाने वाले संस्करण से काफी मिलता-जुलता है। यह प्रजातियों के बीच बीमारी के आदान-प्रदान का संकेत देता है।
हालांकि, आजकल कुष्ठ रोग के प्रसार में गिलहरियों की कोई भूमिका नहीं हैं, लेकिन भावी जोखिमों को समझने के लिए अतीत की घटनाओं को समझना ज़रूरी है। पशु रोगविज्ञानी एलिजाबेथ उहल रोग के एक प्रजाति से दूसरी में पहुंचने को समझने के लिए बहुविषयी दृष्टिकोण पर ज़ोर देती हैं। उनका मत है कि गैर-मानव रोगवाहकों की भूमिका की उपेक्षा करने से बीमारी का प्रकोप जारी रह सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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