कॉलेज स्तरीय विज्ञान शिक्षा का एक निर्विवाद उद्देश्य शिक्षार्थियों को आलोचनात्मक चिंतकों के रूप में तैयार करना है। विज्ञान शिक्षण का यह दायित्व है कि शिक्षार्थियों में तर्कसंगत सोच विकसित करके उन्हें सशक्त बनाए। लेकिन भारतीय कॉलेज और विश्वविद्यालयीन विज्ञान शिक्षा इस मुहावरे पर टिकी है कि विज्ञान को रटकर सीखा जा सकता है जिसमें दुर्भाग्य से तर्कसंगत सोच का तत्व नदारद होता है।
इस समस्या पर मीडिया और सरकारी रिपोर्टों में और उच्च शिक्षा से सम्बंधित कई पुस्तकों और जर्नलों में भी इसका ज़िक्र किया गया है। इन सभी अध्ययनों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि भारत के कॉलेज और विश्वविद्यालय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के उद्देश्यों से हटकर ऐसे परिसरों में बदल गए हैं जो वर्ष के अंत में होने वाली अप्रासंगिक परीक्षाओं के लिए शिक्षार्थियों की कोचिंग करते हैं (सिखाते नहीं हैं)। यहां यह याद रखना भी लाज़मी है कि experiment (प्रयोग) और experience (अनुभव) शब्द लैटिन शब्द experīrī से आए हैं, जिसका अर्थ है ‘किसी चीज़ को पूरी तरह और गहनता से करने का प्रयास करना।’ प्रयोग करना और अनुभव करना सत्य की खोज, वैज्ञानिक सत्य की खोज से जुड़ा है। वैज्ञानिक सत्य को दिमाग से ग्रहण करना होता है और दिमाग के करीब रखना होता है। यह बात एरिस्टोकल्स प्लेटो (लगभग 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के समय से ऐसी ही रही है।
सोच-विचार मनुष्यों की एक अनोखी क्षमता है। चूंकि विज्ञान ज्ञान-प्राप्ति का एक प्रयास है, इसलिए इसमें सोच-विचार की आवश्यकता होती है। इसका अभ्यास एथेंस के सुकरात (लगभग 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा किया गया था जिसे सुकराती पद्धति कहा जाता है। जब शिक्षकों और विद्यार्थियों द्वारा तर्कसंगत चुनौतियों और प्रति-चुनौतियों के आधार पर विज्ञान सीखा-सिखाया जाता है तब यह पद्धति सुगमता और त्वरित स्पष्टता प्रदान करती है। यह पद्धति सिर्फ प्राचीन यूनान के लिए विशेष नहीं थी, बल्कि प्राचीन भारत में भी यह एक प्रचलित पद्धति थी जिसका प्रमाण प्रश्नोपनिषद (पहली शताब्दी ईसा पूर्व) में मिलता है। लेकिन हमने ज्ञान की खोज और उसके निर्माण में प्रश्नोत्तर (द्वंद्वात्मक, संवादात्मक) पद्धति को अनदेखा कर दिया है।
शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच सार्थक चुनौतियां और तर्कपूर्ण प्रति-चुनौतियां दोनों की धारणाओं को उजागर करती हैं। यह पद्धति किसी समस्या या मुद्दे को पहचानने व वैध ठहराने में वस्तुनिष्ठता का समर्थन करती है और वस्तुनिष्ठता समझ को संभव बनाती है। संक्षेप में कहें तो तर्कसंगत सोच ‘मनन’ करने की क्षमता है जिसमें व्यक्ति किसी मुद्दे पर तार्किक, स्पष्ट और व्यवस्थित तरीके से सावधानीपूर्वक और गहराई से सोच-विचार करता है। आलोचनात्मक विचारक स्वयं अपने एहसासों पर विचार करते हैं, अपनी धारणाओं को चुनौती देते हैं, और उत्तर तथा समाधान तलाशते हैं। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अनुमान लगाते हैं कि भविष्य में उनके उत्तर और समाधान दूसरों के लिए अर्थपूर्ण होंगे या नहीं। एक आलोचनात्मक विचारक ज्ञात को विभेदित करता है और इसी के माध्यम से वह अज्ञात को जानने का प्रयास करता है। यह क्षमता शिक्षार्थियों को नए प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय कॉलेजी विज्ञान शिक्षार्थियों में आलोचनात्मक सोच की क्षमता पैदा करने और विश्लेषणात्मक कौशल विकसित करने के लिए अपर्याप्त है। इस अपर्याप्तता का एक आम कारण है कि व्याख्याता ‘तथ्यों’ (सूचनाओं) पर ज़ोर देते हैं और स्मृति-आधारित परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं; वे विज्ञान के तार्किक विकास को समझाने तथा यह समझाने का प्रयास नहीं करते कि कैसे तथ्यों और अवधारणाओं का विकास तर्क और तर्कसंगत वितर्कों के माध्यम से होता है। मौखिक और लिखित दोनों रूपों में संवाद विधा के साथ दैनिक जीवन से जुड़े उदाहरणों को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करने से सक्रिय सीखने में मदद मिलती है, और इसे भारतीय कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण में शामिल करने की आवश्यकता है।
आलोचनात्मक सोच में प्रशिक्षण के लिए ऐसे विज्ञान कार्यक्रमों की महती ज़रूरत है जो विचारों के तार्किक विकास को तथा क्रमिक रूप से स्थापित प्रमाणों को सामने रखें। आज तार्किक सोच वाले नागरिकों को तैयार करने के लिए चल रहे समन्वित प्रयास और कक्षाओं में उपयोग की जाने वाली शिक्षण विधियों के बीच एक बड़ी खाई है।
इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं कि जीव विज्ञान की स्नातक कक्षा में प्रकाश संश्लेषण का आकर्षक विषय कैसे पढ़ाया जाता है। बहुत थोड़े से शिक्षक अपने विद्यार्थियों को प्रेरित करते होंगे कि वे पिछले 200 वर्षों में प्रकाश संश्लेषण की विकसित होती समझ को चरण-दर-चरण पढ़ें, चर्चा करें और लिखें। क्या कभी 1779 में प्रकाशित यान इंगेनहौज़ (1730-1799) के क्लासिक प्रकाशन की बात की जाती है जिसमें प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में प्रकाश की भूमिका पर ज़ोर दिया गया था? कितने शिक्षक हैं जो जीव विज्ञान के नए विद्यार्थियों को इंगेनहौज़ के मोनोग्राफ पर हॉवर्ड स्प्रैग रीड (1876‒1950) की टिप्पणी को पढ़ने, उस पर चर्चा करने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कहते हैं? हममें से कितने शिक्षक इंगेनहौज़ के मोनोग्राफ (1779) में विकसित दलीलों के तार्किक क्रम को स्पष्ट करते हैं जो यान बैप्टिस्टा फान हेलमॉन्ट (1580-1644) और जोसेफ प्रिस्टले (1733-1904) के कामों पर विकसित हुआ था।
कहना न होगा कि कैसे इंगेनहौज़ द्वारा दी गई प्रकाश संश्लेषण की व्याख्या ने निकोलस-थियोडोर सोश्योर (1767-1845), जूलियस रॉबर्ट फॉन मेयर (1814-1878), जूलियस फॉन सैक्स (1832-1897) और कॉर्नेलिस फान नील (1897-1985) को प्रेरित किया था और इन वैज्ञानिकों ने समझ को आगे बढ़ाया था। आज हम बड़ी उदारता से 6CO2 + 6H2O + प्रकाश ऊर्जा → C6H12O6 + 6O2 समीकरण का उपयोग करते हैं, और कॉर्नेलिस फान नील (1897-1985) का ज़िक्र तक नहीं करते। जबकि नील ने ही सबसे पहले इस समीकरण को CO2 + 2H2A + प्रकाश ऊर्जा → [CH2O] + 2A + H2O के रूप में प्रतिपादित किया था।
यह समीकरण 1931 में आर्काइव्स ऑफ माइक्रोबायोलॉजी एंड रिक्यूइल डेस ट्रैवॉक्स बोटेनिक्स नेरलैंडेस में प्रकाशित हुआ था। पिछले कुछ दशकों में प्रकाश-निर्भर और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रियाओं तथा प्रकाश संश्लेषण के केल्विन चक्र के आणविक चरणों को स्पष्ट करने के लिए बहुत कुछ जोड़ा गया है। यहां इस बात पर ज़ोर देना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये सभी मील के पत्थर हैं जो तर्क और तार्किक चिंतन के तत्वों को उजागर करते हैं और वैज्ञानिक समझ के हर सूक्ष्म चरण से जुड़े हैं। प्रकाश संश्लेषण के विषय में ज्ञान की प्रगति इसका एक उदाहरण है। अब सवाल यह है कि क्या हम विज्ञान की उस भावना, उत्साह और आनंद को अपने शिक्षार्थियों तक उत्साहपूर्वक पहुंचा रहे हैं।
प्रकाश संश्लेषण के उदाहरण से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण के संदर्भ में विज्ञान के इतिहास और दर्शन का ज्ञान तथा उसकी समझ अनिवार्य है। प्रकाश संश्लेषण का उदाहरण दशकों तक चले विज्ञान के क्रमिक और तार्किक विकास का संक्षिप्त प्रस्तुतिकरण है। जब इसे विश्वसनीय ढंग से शिक्षार्थियों को समझाया जाता है, तो यह उन्हें बताता है और समर्थ बनाता है कि हम साथ मिलकर एक बौद्धिक कवायद में शामिल हैं जो हमें प्रकृति, विधियों और सूचनाओं के सोपानों में गहराई से गोता लगाने को प्रेरित करती है। सही तरीके से संप्रेषित करने पर यह विधि शिक्षार्थियों के मन में सवाल पैदा करती है और जब इन सवालों को सही तरह से सम्बोधित किया जाता है तो सत्य के नए-नए आयाम खुलते जाते हैं। इस तरह से एक विचारशील शिक्षार्थी के विकास को बढ़ावा मिलता है। रचनात्मक रूप से शिक्षार्थियों को अग्रणी नवाचारों (जैसे टीके, ‘गति-दूरी-समय’ के बीच सम्बंध, गुरुत्वाकर्षण तरंगें, आवर्त सारणी), संसाधनों की खोज (उदाहरण के लिए नैनोकण), और नवीन डिज़ाइनों के विकास (उदाहरण के लिए कैल्कुलस आधारित संरचनात्मक इंजीनियरिंग) में प्रयासों को पुन: जीने का मौका देकर एक प्रवीण शिक्षक बेहतरीन परिणाम प्राप्त कर सकता है। इसके साथ-साथ कोई रचनात्मक शिक्षक मध्यवर्ती कदमों को भी स्पष्ट करता चलेगा जो आगमनात्मक या निगमनात्मक सोच और आनुभविक या तर्कवादी सोच से आगे बढ़ते हैं। कोई भी प्रतिबद्ध शिक्षक कक्षा में चल रहे संवाद में मिथ्याकरण यानी फाल्सीफिकेशन के सिद्धांत की व्याख्या करेगा – इस लिहाज़ से कि यह उपलब्ध सिद्धांतों व अवधारणाओं की सत्यपरकता का आकलन करने का एक चरण होता है। वह यह भी बात करेगा कि कैसे पैराडाइम परिवर्तनों ने हमारी समझ को प्रभावित किया है जबकि उस समझ को कभी सही और सत्य माना जा रहा था। एक अच्छे अकादमिक व्यक्ति का अपने शिक्षार्थियों के लिए एक संक्षिप्त संदेश यही होगा कि वैज्ञानिक ज्ञान क्रांतिकारी परिवर्तनों के माध्यम से नई व्याख्याओं के साथ आगे बढ़ता है जो पूर्ववर्ती व्याख्याओं का स्थान ले लेती हैं।
प्रासंगिक कहानियों और उदाहरणों के साथ पढ़ाया जाने वाला विज्ञान का इतिहास और दर्शन छात्रों को एक व्यापक समझ देगा। यह उनकी बनी-बनाई समझ को हटाकर नए विचारों के बीज बोएगा। दार्शनिक बुनियादों – जैसे फ्रांसिस बेकन के प्रत्यक्षवाद से लेकर रेने देकार्ते के तार्किक अंतर्ज्ञान तक, कार्ल पॉपर के मिथ्याकरण से लेकर थॉमस कुन के पैराडाइम परिवर्तन तक – को जब कारगर ढंग से तथ्यों और सिद्धांतों से जोड़ा जाएगा और कलात्मक ढंग से पेश किया जाएगा तो वे विज्ञान के विद्यार्थियों में अवलोकनों, तर्क और स्पष्टता के बीच गतिशील सम्बंध उजागर करेंगे। शिक्षकों के ऐसे प्रयास निश्चित रूप से विद्यार्थियों को आगे और दूर तक सोचने की ओर ले जाएंगे। इन कारणों से कॉलेज और विश्वविद्यालयों के विज्ञान शिक्षण में विज्ञान के इतिहास व दर्शन को कल्पनाशील ढंग से और तथ्यामक विज्ञान के ताने-बाने में पिरोकर शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सांस्कृतिक जानकारी या विशिष्ट मानव हितों की बात की जा सकती है। इस प्रकार गठित जानकारी को एक ऐसे संदर्भ में रखा जा सकता है जो शिक्षार्थियों को अपने निजी दायरे से प्रतिक्रिया देने और अपने दृष्टिकोण को लागू करने के अवसर पैदा करे।
मुख्यधारा विज्ञान शिक्षण में विज्ञान के दर्शन व इतिहास को शामिल करने का प्रमुख मकसद यह होगा कि विद्यार्थी प्रमाणों की वैकल्पिक व्याख्याओं पर विचार करने, उनकी तुलना व उनके बीच अंतर देखने की क्षमता विकसित कर सकें, तराश सकें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक जब विज्ञान के इतिहास और दर्शन पर चर्चा करें, तब वे शिक्षार्थियों को ऐसे सवाल पूछने को प्रोत्साहित करें – ‘हमें यह कैसे पता चला?’ और ‘ऐसा कहने के पीछे प्रमाण क्या है?’ ये सवाल वे स्वयं से या सार्वजनिक रूप से पूछ सकते हैं। ये सवाल प्रभावी रूप से ज्ञानमीमांसा से जुड़े हैं। यह शिक्षार्थियों को अपने पिछले ज्ञान को पहचानने और महत्व देने में सक्षम बनाने के अवसर प्रदान करता है जो निर्मितिवाद यानी कंस्ट्रक्टिविज़्म की ओर एक कदम है। निर्मितिवाद इस बात पर ज़ोर देता है कि शिक्षार्थियों को इस तरह से सशक्त बनाया जाए कि वे जो कुछ भी करते हैं, उसका अर्थ निकाल सकें ताकि सीखना सर्वोत्तम हो।
मेरी निम्नलिखित टिप्पणी पर अलिप्त भाव से विचार करने की आवश्यकता है। क्या हम पूरे विश्वास और संतुष्टि से कह सकते हैं कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली विज्ञान शिक्षा हमारे शिक्षार्थियों में रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करने की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा करती है? हालांकि इसमें अपवाद अवश्य हो सकते हैं और इस टिप्पणी को सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी सत्य है कि जैव-भौतिक दुनिया से सम्बंधित कुछ प्रयोगों को सीखना और उन्हें परीक्षा हॉल में पूरी ईमानदारी से दोहरा देने के कौशल का निर्माण निश्चित रूप से न तो विज्ञान सीखना है और न ही विज्ञान शिक्षण है। विज्ञान को सीखने-सिखाने के लिए व्यावहारिक तथा अनुभवात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो कक्षा से परे कौशल, योग्यता और क्षमता के विकास को बढ़ावा देता है। यह दृष्टिकोण शिक्षार्थियों को ज्ञानमीमांसीय खुलेपन के आधार पर ज्ञान का निर्माण करने में सक्षम बनाता है, जिससे उन्हें न केवल विज्ञान के बारे में जानने का मौका मिलता है बल्कि वे इसे सही मायनों में समझ भी पाते हैं। क्या हम शिक्षार्थियों को सशक्त बनाने और वैज्ञानिक ज्ञान को सबसे प्रभावी ढंग से प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करने के लिए अपनी रचनात्मक बुद्धि का लाभ उठा रहे हैं? यदि इसका उत्तर ‘हां’ है, तो मुझे खुशी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.famousscientists.org/images1/jan-ingenhousz.jpg