हिमालय के बारे में एक बड़ी वैज्ञानिक सच्चाई यह है कि ये पर्वत बाहरी तौर पर कितने ही भव्य व विशाल हों, पर भू-विज्ञान के स्तर पर इनकी आयु अपेक्षाकृत कम है, इनकी प्राकृतिक निर्माण प्रक्रियाएं अभी चल रही हैं व इस कारण इनमें अस्थिरता व हलचल है। इस वजह से इनसे अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए, और जहां ऐसा करना निहायत ज़रूरी है वहां बहुत सावधानी के साथ करना चाहिए।
अत: यहां के विभिन्न निर्माणों के सम्बंध में भू-वैज्ञानिक प्राय: हमें याद दिलाते रहते हैं कि विभिन्न ज़रूरी सावधानियों को अपनाओ – आगे बढ़ने से पहले भूमि की ठीक से जांच करो, उतना ही निर्माण करो जितना ज़रूरी है, उसे अनावश्यक रूप से बड़ा न करो व अनावश्यक विस्तार से बचो। विशेष तौर पर भू-वैज्ञानिक व पर्यावरणविद कहते रहे हैं कि निर्माण में विस्फोटकों के उपयोग से बचें या इसे न्यूनतम रखें, वृक्ष-कटाई को न्यूनतम रखा जाए, प्राकृतिक वनों की भरपूर रक्षा की जाए। प्राकृतिक वनों की भरपाई नए वृक्षारोपण से नहीं हो सकती है। किसी बड़े निर्माण से पहले मलबे की सही व्यवस्था का नियोजन पहले करना होगा, उचित निपटान करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण सावधानी यह रखनी होगी कि मलबा नदियों में न फेंके व हर तरह से सुनिश्चित करें कि नदियां सुरक्षित बनी रहें।
दुर्भाग्यवश हिमालय में निर्माण कार्यों सम्बंधी इन सावधानियों को वैज्ञानिक पत्रों में चाहे जितना महत्व मिला हो, लेकिन ज़मीनी स्तर पर हाल में इनकी बड़े स्तर पर और बार-बार अवहेलना हुई है। इस स्थिति में अनेक वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने यह मांग की है कि विभिन्न निर्माण परियोजनाओं के पर्यावरणीय आकलन को मज़बूत किया जाए ताकि सावधानियों व चेतावनियों का पालन हो सके।
उत्तराखंड हिमालय में करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनेे अनेक तीर्थ स्थान हैं, जिनमें चार तीर्थस्थान या चार धाम (गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ) विशेषकर विख्यात हैं। इन चार धामों तक पहुंचने वाले, इन्हें जोड़ने वाले हाईवे को चौड़ा करने और हर मौसम में इनकी यात्रा सुनिश्चित करवाने वाली परियोजना बनाई गई। इसमें हाईवे को अत्यधिक चौड़ा करने व इसमें अनेक सुरंगें बनाने का प्रावधान था। इससे बहुत वृक्षों को काटना होता व हिमालय में अत्यधिक छेड़छाड़ होने पर पर्यावरण रक्षा के आधार पर विरोध हो सकता था। अत: इन निर्माणों को तेज़ी से आगे बढ़ाने वालों ने प्राय: यह प्रयास किया कि इस चारधाम हाईवे विस्तार को कई छोटे-छोटे भागों में बांटकर इसे पर्यावरणीय आकलन के दायरे से काफी हद तक बाहर कर लिया। ऊंचे हिमालय पहाड़ों में जो क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं, अब उनकी रक्षा के लिए चल रहे प्रयास, वहां के वृक्षों की रक्षा के प्रयास भी अधिक कठिन हो गए। तिस पर अदालती स्तर पर हरी झंडी मिलने के बाद चारधाम हाईवे व सुरंगों के निर्माण कार्य और भी तेज़ी से आगे बढ़ने लगे।
यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो हाईवे को उतना ही चौड़ा किया जाता जितना कि बहुत ज़रूरी था, और इस तरह बहुत से पेड़ों को कटने से बचा लिया जाता और बहुत सी आजीविकाओं व खेतों की भी रक्षा हो जाती। यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो विस्फोटकों का उपयोग न्यूनतम होता, मलबे की मात्रा को न्यूनतम किया जाता व उसको सुरक्षित तौर पर ठिकाने लगाने की पूरी तैयारी की जाती। तब मलबा डालने से या अन्य कारणों से नदियों की कोई क्षति न होती, सुरंगों का निर्माण वहीं होता जहां बहुत ज़रूरी था तथा वह भी सारी सावधानियों के साथ। पर इन सब सावधानियों का उल्लंघन होता रहा व परिणाम यह हुआ कि यहां बड़ी संख्या में वृक्ष कटने लगे व भू-स्खलन व बाढ का खतरा बढ़ने लगा, नदियां अधिक संकटग्रस्त होने लगीं व अनेक प्राकृतिक जल-स्रोत नष्ट होने लगे व हाईवे के आसपास के गांवों में बहुत सी ऐसी क्षति होने लगी जिनसे बचा जा सकता था। सड़क पर होने वाले भूस्खलन तो बाहरी लोगों को नज़र भी आते थे, पर गांवों में होने वाली क्षति तो प्राय: सामने भी नहीं आ पाई।
इसी सिलसिले में सिल्कयारा की दुर्घटना हुई व एक बड़े व सराहनीय बचाव प्रयास के बाद ही इस सुरंग में फंसे 41 मज़दूरों को बचाया जा सका। इस बचाव प्रयास में तथाकथित ‘रैट माईनर्स’ यानी बहुत निर्धनता की स्थिति में रहने वाले खनिकों का विशेष योगदान रहा। इस हादसे के दौरान ही यह तथ्य सामने आया कि इस सुरंग निर्माण के दौर में पहले भी अनेक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद समुचित सावधानियां नहीं अपनाई गई थीं। दुर्घटना के बाद अन्य सुरंग-निर्माणों में सुरक्षा आकलन के निर्देश भी जारी किए गए। उम्मीद है कि इसका असर पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी होगा जहां हाल ही में उच्च स्तर पर अधिक सुरंग निर्माण पर जोर दिया गया था।
हिमालय क्षेत्र में अधिक तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों का स्वागत करना अच्छा लगता है, पर इसके लिए ऐसे तौर-तरीके नहीं अपनाने चाहिए जिनसे तीर्थ स्थान व उनके प्रवेश मार्ग ही संकटग्रस्त हो जाएं तथा पर्यावरण की बहुत क्षति हो जाए।
पर्यटक हिमालय के किसी सुंदर स्थान पर जाना चाहते हैं पर यदि विकास के नाम पर अत्यधिक निर्माण से उस स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य ही नष्ट कर दिया जाए तो फिर यह विकास है या विनाश?
तीर्थ यात्रा तो वैसे भी आध्यात्मिकता से जुड़ी है, तो फिर तीर्थ स्थानों पर वाहनों का प्रदूषण, हेलीकॉप्टरों का शोर व वृक्षों का विनाश कैसे उचित ठहराया जा सकता है?
तीर्थ स्थानों व पर्यटन के संतुलित विकास से, विनाशमुक्त विकास से, स्थानीय लोगों की टिकाऊ आजीविकाएं जुड़ सकती हैं; वे पर्यटकों व तीर्थ यात्रियों के लिए हिमालय के तरह-तरह के स्वास्थ्य लाभ देने वाले खाद्य व औषधियां जुटा सकते हैं।
सामरिक दृष्टि से भी हिमालय क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और सड़कें व मार्ग सुरक्षित रहें, भूस्खलन व बाढ़ का खतरा न्यूनतम रहे यह सैनिकों के सुरक्षित आवागमन के लिए भी आवश्यक है।
और मुद्दा केवल चारधाम हाईवे का नहीं है बल्कि हिमालय का अधिक व्यापक मुद्दा है। यहां एक ओर सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां सड़क या मार्ग के अभाव में गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति या प्रसव-पीड़ा से गुज़र रही महिला को चारपाई पर या पीठ पर लाद कर मीलों चलना पड़ता है, जबकि अनावश्यक तौर पर चौड़ी सड़कों, अनगिनत सुरंगों के निर्माण व वृक्षों की कटाई से पर्यावरण की अत्यधिक क्षति होती है व जनजीवन संकटग्रस्त होता है, आपदाएं बढ़ती हैं।
अत: ज़रूरी है कि सड़क व हाईवे निर्माण में विशेषकर संतुलित, सुलझी हुई नीति अपनाई जाए जिससे लोगों की सुरक्षा बढ़े व पर्यावरण की रक्षा हो।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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