मेरा जन्म सलीम अली की शानदार सचित्र पुस्तक बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स के प्रकाशित होने के एक साल बाद 1942 में हुआ था। मेरे पिता, डी. आर. गाडगिल, सलीम अली के मित्र और उत्साही पक्षी-निरीक्षक थे। अपनी पढ़ाई पूरी करने से पहले ही मैंने सलीम अली की किताब के चित्रों से अपने चारों ओर के पक्षियों की समृद्ध विविधता को पहचानना सीख लिया था। 14 साल की उम्र में मैं सलीम अली से मिला और उनके ज्ञान, विनोदबुद्धि और व्यक्तित्व से मोहित होकर उन्हें अपने गुरु के रूप में अपनाया और एक फील्ड इकॉलॉजिस्ट बन गया। वे मुझसे 46 साल बड़े थे, और हम अगले 30 वर्षों तक लगातार संपर्क में रहे। मैंने उनके कई अध्ययनों, अनुसंधानों में भाग लिया और मुझे उनके साथ पक्षियों के रैनबसेरों पर संयुक्त रूप से एक शोध निबंध लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई बार वनकर्मी मुझ पर गुस्सा हो जाते थे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि मैं उनके वनों के कुप्रबंधन और स्थानीय लोगों के उत्पीड़न को देखूं। ऐसे मौकों पर सलीम अली जी ने ही मेरी मदद की।
लेकिन किसी वजह से वे भारत के आम लोगों से पूरी तरह से कट गए थे और यह मानने लगे थे कि प्रकृति के सभी तरह के विनाश के लिए यही अज्ञानी, अविवेकी जनता ज़िम्मेदार है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये लोग कभी सुशिक्षित बनेंगे और अपने आसपास के प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करने आगे आएंगे ताकि इसके अच्छे प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी हो। मैं हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि मेरे गुरु ने इस तरह के पूर्वाग्रहों को पनाह दी।
पिताजी का जीवन भर का जुनून सहकारिता आंदोलन था और उन्होंने सहकारी बैंकिंग और सहकारी चीनी कारखानों को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इसलिए मैं लोगों को सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो गया और भारत के जैव विविधता अधिनियम, 2002 के एक प्रमुख प्रावधान के रूप में जैव विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना के प्रस्ताव का बीड़ा उठाया और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 को पारित करने के अभियान में भाग लिया। एफआरए के महत्वपूर्ण सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्रावधान के तहत ग्राम सभाओं को गैर-काष्ठ वन संसाधनों के स्वामित्व और प्रबंधन अधिकार सौंपे गए हैं। और 2009 में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले की मेंढा (लेखा) और मारडा सीएफआर सौंपे जाने वाली देश की पहली ग्राम सभाएं बन गईं।
प्रबंधन अधिकारों के तहत एक प्रबंधन योजना तैयार करना महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है जिसे मात्रात्मक बनाने की आवश्यकता होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली की शर्मनाक स्थिति से बाधित स्थानीय लोग अपने दम पर यह काम संभाल नहीं सकते हैं। इसलिए, मेरे कंप्यूटर वैज्ञानिक मित्र विजय एदलाबदकर और मैंने स्वेच्छा से मेंढा में स्थानीय बेयरफुट पारिस्थितिकीविदों के एक कैडर के साथ एक प्रबंधन योजना तैयार करने में मदद की।
ज़मीनी स्तर पर ऐसी क्षमता का निर्माण करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने गांधी जयंती (2018) से सामुदायिक वन अधिकार-धारक ग्राम सभाओं के नामांकित व्यक्तियों के लिए 5 महीने के प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन शुरू किया। विजय और मैं मेंढा के क्षेत्र में आयोजित इस कार्यक्रम से जुड़े थे। इसमें प्रशिक्षु प्रकृति के अपने अनुभव के खजाने के साथ उपस्थित थे और उन्होंने उत्साहपूर्वक मैदानी कार्य किया। वे स्मार्टफोन को संभालने और जीपीएस सुविधा का उपयोग करके गांव की सीमा जैसी भौगोलिक जानकारी अभिलिखित करने में माहिर हो गए। हमने उनकी ग्राम सभाओं के लिए सीएफआर योजनाओं और जैव विविधता रजिस्टरों को अंतिम रूप देने के लिए उनके साथ काम करना जारी रखा है।
उन सभी प्रशिक्षित युवाओं के पास स्मार्टफोन थे और उन्होंने एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया था। लघु वनोपज देने वाली प्रजातियों के वैज्ञानिक नाम सीएफआर योजनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है| प्रशिक्षण के दौरान वे व्यापक संचार के लिए वैज्ञानिक नामों के महत्व को लेकर जागरूक हो गए थे। वे गूगल सर्च के आदी हो गए थे, बाज़ारों की जानकारी के लिए इंटरनेट की खोज करने लगे थे, और विकिपीडिया लेखों का अध्ययन कर रहे थे।
वे लगातार व्हाट्सएप ग्रुप पर स्थानीय पौधों और जानवरों की तस्वीरें डाल रहे थे। हालांकि अधिकांश से परिचित हूं, लेकिन मैं टैक्सॉनॉमी का विशेषज्ञ तो हूं नहीं और जब विशेषज्ञों ने मदद करने से इन्कार कर दिया तो चौंकने की बारी मेरी थी।
फिर एक दिन समूह के एक सदस्य सदुरम मडावी ने कई तस्वीरों के वैज्ञानिक नाम पोस्ट करना शुरू कर दिया। जांच करने पर मैंने पाया कि वह हमेशा सही नाम बता रहा था। उसने हमें बताया कि उसने दो बहुत ही महत्वपूर्ण ऐप्स खोजे हैं: गूगल इमेज और गूगल लेंस। ऐप्स का उपयोग करने पर ये अपलोड की गई तस्वीरों को गूगल के जीवित वास्तविक प्राणियों की एक अरब से अधिक छवियों के विशाल डैटाबेस से जांचते हैं, और तुरंत एक या अधिक संभावित अंग्रेज़ी और वैज्ञानिक नाम बताते हैं। इस तरह, आदिवासी युवा अनायास विशेष ज्ञान पर एकाधिकार प्राप्त विशेषज्ञों के चंगुल से मुक्त हो जाते हैं और सक्षम रूप से अपनी सीएफआर प्रबंधन योजना और जैव विविधता रजिस्टर तैयार कर सकते हैं।
सदुराम बहुत बुद्धिमान है लेकिन खराब शालेय शिक्षा के कारण 10वीं कक्षा की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया है। आधुनिक ज्ञान के युग में ये बाधाएं तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। उन्होंने अपने गांव में एक दुर्लभ ऑर्किड की खोज की, जो उसकी ज्ञात सीमा से काफी बाहर है। उन्होंने इसे जिओडोरम लैक्सीफ्लोरम के रूप में पहचाना और गढ़चिरोली में कुछ वनस्पति शास्त्रियों के साथ मिलकर वैज्ञानिक पत्रिका जर्नल ऑफ थ्रेटन्ड टैक्सा में एक शोध निबंध प्रकाशित किया। इससे सदुराम एक वैज्ञानिक समुदाय का सदस्य बन गया। मेरे गुरु सलीम अली एक अमीर, प्रतिष्ठित परिवार से थे लेकिन गणित से चिढ़ के कारण उपाधि प्राप्त करने में असफल रहे थे। फिर भी उन्हें भारत के अग्रणी पक्षी विज्ञानी के रूप में पहचाना जाता है। अत्यधिक वंचित पृष्ठभूमि से आने वाला सदुराम भी प्रथम श्रेणी के वनस्पति शास्त्री के रूप में विकसित होने का माद्दा रखता है। तो, मेरे शिष्य मेरे गुरु के पूर्वाग्रहों का मुकाबला कर रहे हैं! इस बात की पूरी उम्मीद है कि उभरते हुए ज्ञान युग में हम एक ऐसे समतामूलक समाज की ओर तेज़ी से आगे बढ़ेंगे, जिसमें सभी लोगों की पहुंच भाषा की बाधाओं से मुक्त होकर समस्त मानवीय ज्ञान तक होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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