सभी की इच्छा होती है कि एक बच्चे जैसी (भरपूर) नींद सोएं। लेकिन वास्तव में, वयस्कों में नींद के कुल घंटे कम होते जाते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता भी कम होने लगती है। खासकर वृद्ध लोगों में हल्की और उचटती नींद होने की प्रवृत्ति दिखती है। वर्ष 2017 में न्यूरॉन पत्रिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ब्रायस मैंडर और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि नींद की गुणवत्ता और नींद के घंटों में लगातार कमी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, और जीवनकाल छोटा हो सकता है।
अनुसंधान ने इस बात के कई सुराग दिए हैं कि मनुष्यों में कौन-से कारक नींद को प्रेरित करते हैं। रात में पीनियल ग्रंथि मेलेटोनिन हार्मोन का स्राव करती है, जो सोने-जागने के चक्र के नियंत्रण में भूमिका निभाता है। इसलिए मेलेटोनिन अनिद्रा पर काबू पाने की एक प्रचलित दवा बन गया है, हालांकि लंबे समय तक उपयोग में इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल हैं।
वैसे, हमारी ‘जागृत’ अवस्था कहीं अधिक पेचीदा है क्योंकि इसमें लगभग पूरा मस्तिष्क शामिल होता है। शायद यही कारण है कि बुज़ुर्गों की अक्सर लगती-टूटती नींद हमें चक्कर में डाल देती है।
हमें पता है कि नींद की समस्या से पीड़ित वृद्ध लोगों में मस्तिष्क के उन केंद्रों में तंत्रिका कोशिकाओं में विकार देखा गया है, जो स्वैच्छिक हरकत के समन्वय में भूमिका निभाते हैं। हाल ही में साइंस पत्रिका में एस. बी. ली और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। यह अध्ययन हायपोथैलेमस ग्रंथि के बारे में बताता है। बादाम के आकार की हाइपोथैलेमस ग्रंथि हमारे मस्तिष्क के केंद्र में होती है। मस्तिष्क के इस हिस्से का एक क्षेत्र, पार्श्व हायपोथैलेमस, जागने, खाने के व्यवहार, सीखने और सोने में अहम भूमिका निभाता है। यहां से तंत्रिका कोशिकाओं का एक झुंड निकलता है और इनके सिरे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की जागृत स्थिति से जुड़े सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं से रासायनिक संदेश छोटे-छोटे प्रोटीन्स (न्यूरोपेप्टाइड्स) के रूप में जारी होते हैं जिन्हें हाइपोक्रेटिन (Hcrt) या ऑरेक्सिन (OX) कहा जाता है।
सभी तंत्रिकाओं की तरह, Hcrt/OX तंत्रिकाओं के भी अंतिम सिरे होते हैं जिन्हे सायनेप्स कहा जाता है। ये सायनेप्स किसी अन्य तंत्रिका के सायनेप्स के नज़दीक हो सकते हैं या किसी मांसपेशीय कोशिका के निकट। विद्युत संकेत पूरी तंत्रिका से होते हुए सायनेप्स तक आते हैं, जहां ये तत्काल रासायनिक संकेत में बदल जाते हैं, और सिरे से निकल कर बाजू वाली तंत्रिका में चले जाते हैं और वहां प्रतिक्रिया शुरू करते हैं। तंत्रिका विज्ञान की भाषा में, एक उद्दीपन संकेत बाजू वाली तंत्रिका में पहुंचकर उसे संकेत भेजने को प्रेरित करता है – जो उस तंत्रिका के दूसरे सिरे पर स्थित सायनेप्स तक विद्युत संकेत के रूप में पहुंचता है। अवरोधी संकेत तंत्रिका की इस सक्रियता को रोक सकते हैं। हाइपोक्रेटिन उद्दीपक की तरह काम करता है, और जिस तंत्रिका में पहुंचता है उसे सक्रिय कर देता है।
हाइपोक्रेटिन जागृत रहने को उकसाता है, और साथ ही यह कुछ खाने या साथी की तलाश के लिए भी उकसाता है। इसके अलावा यह ठंड, मितली या दर्द के प्रति प्रतिक्रिया भी देता है। मानव मस्तिष्क में मौजूद 86 अरब तंत्रिकाओं में से 20,000 से भी कम तंत्रिकाएं हाइपोक्रेटिन बनाती हैं, लेकिन इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाइपोक्रेटिन लंबे समय तक जागने के लिए ज़रूरी है। हाइपोक्रेटिन को सीधे मस्तिष्क-मेरु द्रव में प्रवेश कराने से (ताकि यह तुरंत मस्तिष्क में पहुंच जाए) यह आपको कई घंटों तक जगाए रखता है। जब आप सो रहे होते हैं तो हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाएं सक्रिय नहीं रहती हैं।
प्रयोगों में देखा गया है कि भोजन से वंचित चूहे भोजन की तलाश में बहुत लंबे समय तक जागते हैं और भोजन तलाशने में व्यस्त रहते थे। और हाइपोक्रेटिन की कमी वाले चूहे, जिनमें हाइपोक्रेटिन जीन को ठप कर दिया गया था, अपनी तलाश में कम उत्सुकता दिखाते थे।
नींद उचटना
सवाल है कि बुज़ुर्गों की नींद को क्या हो जाता है? ली और उनके साथियों ने दर्शाया है कि उम्र के साथ हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाओं में परिवर्तन हो जाते हैं। और ज़रा से उकसावे से ही वे अति-उत्तेजित हो जाती हैं, संकेत प्रेषित करने लगती हैं और बहुत कम उकसावे पर ही न्यूरोपेप्टाइड्स स्रावित करती हैं। अन्यथा निष्क्रिय हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स की अवांछित सक्रियता नींद तोड़ने का काम करती है। उम्र बढ़ने के साथ तंत्रिकाओं में हुए परिवर्तन उनकी सक्रियता को रोकना और मुश्किल कर देते हैं।
Hcrt/OX तंत्रिका की क्षति के कारण या उनकी अनुपस्थिति के कारण एक बिरला तंत्रिका तंत्र विकार पैदा होता है – नार्कोलेप्सी। नार्कोलेप्सी के लक्षण विचित्र हैं – इसमें दिन में सोने की तीव्र इच्छा होती है जबकि नींद के कुल घंटे नहीं बदलते; सोने-जागने की अवस्था में स्पष्ट अंतर न होने के कारण मतिभ्रम की स्थिति रहती है; मांसपेशियों का तनाव कम हो जाता है, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं (कैटाप्लेक्सी)।
वर्ष 2018 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में अनिमेश रे द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में इसके कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकतर मामले तीस वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों में मिले हैं। इस स्थिति वाले मरीज़ों के मस्तिष्क-मेरु द्रव में न के बराबर हाइपोक्रेटिन होता है।
अंत में, क्या टूटी-फूटी नींद लेने वाले लोग बेहतर और एकमुश्त नींद देने वाले उपायों का सपना देख सकते हैं? वृद्ध चूहों में देखा गया है कि फ्लुपरटीन नामक दर्दनिवारक उस स्तर को बहाल कर देता है जहां हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स उत्तेजित होते हैं और इस प्रकार यह नींद के टाइम टेबल को बहाल करता है हालांकि यह दर्दनिवारक स्वयं विषाक्तता की दिक्कतों से पीड़ित है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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