पिछला एक वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा दौर रहा है। एक ओर तो महामारी का दंश तथा दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण मानसिक तनाव। साथ ही समस्त शिक्षण का ऑनलाइन हो जाना। इस एक वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य प्रभावित हुए हैं। पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि स्कूल कैसा दिखता है।
लेकिन इस वर्ष मार्च में अमेरिका के कई क्षेत्रों में स्कूल दोबारा से शुरू करने के विचार पर गरमागरम बहस छिड़ गई है। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने वायरस संचरण को रोकने के सुरक्षात्मक प्रयासों के साथ स्कूल दोबारा से खोलने का सुझाव दिया लेकिन इस घोषणा से अभिभावक, स्कूल कर्मचारी और यहां तक कि वैज्ञानिक भी असंतुष्ट नज़र आए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की संक्रामक रोग शोधकर्ता मोनिका गांधी ने स्कूल खोलने का पक्ष लिया तो उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन पर बच्चों की जान से खिलवाड़ करने जैसे आरोप लगे।
जैसे-जैसे यह शैक्षिक सत्र समाप्त हो रहा है, कई देशों में स्कूल प्रबंधन अपने पुराने अनुभव के आधार पर नए सत्र की तैयारी कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य महकमा उनका मार्गदर्शन करे। यूके में बच्चों ने मार्च-अप्रैल में स्कूल जाना शुरू कर दिया। फ्रांस में तीसरी लहर के कारण कुछ समय के लिए तो स्कूल बंद रहे लेकिन मई में दोबारा शुरू कर दिए गए। अमेरिका में भी जून के अंत तक लगभग आधे से अधिक शाला संकुल खोल दिए गए थे और सभी स्कूलों में प्रत्यक्ष शिक्षण शुरू कर दिया गया।
लेकिन सच तो यह है कि विश्व भर में 77 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अभी तक भी पूर्णकालिक रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा 19 देशों के 15 करोड़ बच्चों के पास प्रत्यक्ष शिक्षण तक भी पहुंच नहीं है। ऐसे बच्चे या तो वर्चुअल ढंग से पढ़ रहे हैं या फिर पढ़ाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसी संभावना भी है कि यदि स्कूल खुल भी जाते हैं तो कई बच्चे वापस स्कूल नहीं जा पाएंगे।
युनेस्को ने पिछले वर्ष अनुमान व्यक्त किया था कि महामारी के कारण लगभग 2.4 करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। न्यूयॉर्क में युनिसेफ के शिक्षा प्रमुख रॉबर्ट जेनकिंस का मत है कि स्कूल शिक्षण के अलावा भी बहुत सारी सेवाएं प्रदान करते हैं। अत: स्कूल सबसे आखरी में बंद और सबसे पहले खुलना चाहिए। अजीब बात है कि कई देशों में माता-पिता परिवार के साथ बाहर खाना खाने तो जा सकते हैं लेकिन उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं।
हालांकि, इस सम्बंध में काफी प्रमाण मौजूद हैं कि स्कूलों को सुरक्षित रूप से खोला जा सकता है लेकिन यह बहस अभी भी जारी है कि स्कूल खोले जाएं या नहीं और वायरस संचरण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जाएं। संभावना है कि कई देशों में सितंबर में नए सत्र में स्कूल शुरू होने पर यह बहस एक बार फिर शुरू हो जाएगी।
जहां अमेरिका और अन्य सम्पन्न देशों में किशोरों और बच्चों को भी टीका लग चुका है वहीं कम और मध्यम आय वाले देशों में टीकों तक पहुंच अभी भी सीमित ही है। टीकाकरण के लिए इन देशों में बच्चों को अभी काफी इंतज़ार करना है। और वायरस के नए-नए संस्करण चिंता का विषय बने रहेंगे।
पिछले वर्ष सार्स-कोव-2 के बारे में हमारी पास बहुत कम जानकारी थी और ऐसा माना गया कि बीमारी का सबसे अधिक जोखिम बच्चों पर होगा इसलिए मार्च में सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया। लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों ने बताया कि बच्चों में गंभीर बीमारी विकसित होने की संभावना कम है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या बच्चे भी संक्रमित हो सकते हैं और क्या वे अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मानना था कि बच्चों को स्कूल भेजने से महामारी और अधिक फैल सकती है। लेकिन जल्दी ही यह बहस वैज्ञानिक न रहकर राजनीतिक हो गई।
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जुलाई 2020 में सितंबर से स्कूल शुरू करने की बात कही। वैज्ञानिक समुदाय स्कूल खोलने के पक्ष में था। ट्रम्प के प्रति अविश्वास के चलते स्कूल दोबारा से शुरू करने की बात का समर्थन करना मुश्किल हो गया। अन्य देशों में भी इस तरह की तकरार देखने को मिली। अप्रैल 2020 में डेनमार्क में प्राथमिक स्कूल शुरू करने पर अभिभावकों के विरोध का सामना करना पड़ा। फ्रांस में अधिकांश स्कूल खुले रहे लेकिन नवंबर माह में विद्यार्थियों ने विरोध किया कि कक्षाओं के अंदर कोविड-19 से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। कुछ ज़िलों में सामुदायिक प्रसार के कारण शिक्षक भी स्कूल से गैर-हाज़िर रहे। इसी तरह बर्लिन में इस वर्ष जनवरी में आंशिक रूप से स्कूल खोलने की योजना को अभिभावकों, शिक्षकों और सरकारी अधिकारियों के विरोध के बाद रद्द कर दिया गया।
इस बीच टीकाकारण में प्राथमिकता का भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा। मार्च-अप्रैल में स्कूल खुलने के बाद भी अधिकांश शिक्षकों का टीकाकारण नहीं हुआ था। इस कारण स्कूल शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों पर बीमार होने का जोखिम बना रहा और इसके चलते कक्षा में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी रही।
इसके अलावा, शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दूरस्थ शिक्षा से कई देशों के श्वेत और अश्वेत विद्यार्थियों के बीच असमानताओं में वृद्धि होगी। सिर्फ यही नहीं इससे विकलांग और भिन्न सक्षम बच्चों के पिछड़ने की भी आशंका है। महामारी से पहले भी यूएस की शिक्षा प्रणाली अश्वेत लोगों को साथ लेकर चलने में विफल रही है।
अब महामारी को एक वर्ष से अधिक हो चुका है और शोधकर्ताओं के पास कोविड-19 और उसके संचरण के बारे में काफी जानकारी है। हालांकि, कुछ बच्चे और शिक्षक कोविड-19 से पीड़ित अवश्य हुए लेकिन स्कूलों का वातावरण ऐसा नहीं है जहां व्यापक स्तर पर कोविड-19 के फैलने की संभावना हो। देखा गया है कि स्कूल में संक्रमण की दर समुदाय में संक्रमण की तुलना में काफी कम हैं।
अमेरिका के स्कूलों में कोविड-19 पर कई व्यापक अध्ययन किए गए हैं। इनमें से शरद ऋतु में उत्तरी कैरोलिना में 90,000 से अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों का अध्ययन शामिल है। इस अध्ययन की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सामुदायिक संक्रमण दर के आधार पर स्कूलों में लगभग 900 मामलों का अनुमान लगाया था लेकिन विश्लेषण करने पर स्कूल-संचारित 32 मामले ही सामने आए। इन परिणामों के बाद भी अधिकांश स्कूल बंद रहे। एक अन्य अध्ययन में विस्कॉन्सिन के ग्रामीण क्षेत्र के 17 स्कूलों का अध्ययन किया गया। शरद ऋतु के 13 सप्ताह के दौरान जब संक्रमण काफी तेज़ी से फैल रहा था तब स्कूल कर्मचारियों और विद्यार्थियों में कुल 191 मामलों का पता चला जिनमें से केवल सात मामले स्कूल से उत्पन्न हुए थे। इसके अलावा नेब्राास्का में किए गए एक अप्रकाशित अध्ययन में पता चला था कि साल भर संचालित 20,000 से अधिक छात्रों और कर्मचारियों वाले स्कूल में पूरी अवधि के दौरान संचरण के केवल दो मामले ही सामने आए।
हालांकि, आलोचकों का कहना है कि इस अध्ययन में बिना लक्षण वाले बच्चों की पहचान नहीं की गई थी, इसलिए वास्तविक संख्या अधिक हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन आंकड़ों को यदि दुगना या तिगुना भी कर दिया जाए तब भी स्कूल की संक्रमण दर सामुदायिक संक्रमण दर से काफी कम रहेगी। नॉर्वे के एक स्कूल में 5 से 13 वर्ष की आयु के 13 संपुष्ट मामलों की पहचान के बाद उन बच्चों के 300 निकटतम संपर्कों का भी परीक्षण किया गया। संपर्क में आए केवल 0.9 प्रतिशत बच्चों में और 1.7 प्रतिशत वयस्कों में वायरस संक्रमण के मामले पाए गए।
साल्ट लेक सिटी में शोधकर्ताओं ने ऐसे 700 से अधिक विद्यार्थियों और स्कूल कर्मचारियों का कोविड-19 परीक्षण किया जो 51 कोविड पॉज़िटिव विद्यार्थियों में से किसी भी एक के संपर्क में आए थे। इनमें से केवल 12 मामले पॉज़िटिव पाए गए जिनमें से केवल पांच मामले स्कूल से सम्बंधित थे। इससे पता चलता है कि वायरस से संक्रमित विद्यार्थियों के माध्यम से स्कूल में संक्रमण नहीं फैला है। न्यूयॉर्क में किए गए इसी तरह के अध्ययन में भी ऐसे परिणाम मिले।
हालांकि, सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में संचरण दर काफी अधिक हो सकती है। जैसे इरुााइल में मई 2020 में स्कूल खोलने पर मात्र दो सप्ताह में ही एक माध्यमिक शाला में बड़ा प्रकोप उभरा। यहां विद्यार्थियों में 13.2 प्रतिशत और स्कूल कर्मचारियों एवं शिक्षकों में 16.6 प्रतिशत की संक्रमण दर दर्ज की गई। जून के मध्य तक इन लोगों के निकटतम संपर्कों में 90 मामले देखने को मिले।
कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि स्कूल के बच्चे वायरस संक्रमण नहीं फैला रहे हैं। फिर भी यह कहना तो उचित नहीं है कि बच्चों में किसी प्रकार का कोई जोखिम नहीं है। इस रोग से कुछ बच्चों की मृत्यु भी हुई है। मार्च 2020 से फरवरी 2021 के बीच सात देशों में कोविड-19 से सम्बंधित मौतों में 231 बच्चे शामिल थे। अमेरिका में जून तक यह संख्या 471 थी। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि संक्रमित बच्चों में काफी लंबे समय तक लक्षण बने रहे। लिहाज़ा कुछ विशेषज्ञ बच्चों को इस वायरस के प्रकोप से दूर रखने का ही सुझाव देते हैं।
लेकिन बच्चों का स्कूल से दूर रहना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। बच्चों का सामाजिक अलगाव और ऑनलाइन शिक्षण काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। कुछ हालिया अध्ययनों से पता चला है कि दूरस्थ शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे अकादमिक रूप से पिछड़ रहे हैं। स्कूल शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ प्रदान करता है। यह बच्चों को सुरक्षा प्रदान करता है, मुफ्त खाना और अपना दिन गुज़ारने के लिए एक सुरक्षित स्थान देता है। स्कूल में आने वाले बच्चों पर घरेलू हिंसा या यौन शोषण के लक्षण भी शिक्षक और स्कूल काउंसलर समझ जाते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप भी कर पाते हैं। कामकाजी अविभावकों के लिए स्कूल बंद होना किसी आपदा से कम नहीं है। ऐसे में उनको अपनी ज़िम्मेदारियां निभाना काफी मुश्किल हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भी स्कूल का खुलना काफी ज़रूरी हो गया है।
गौरतलब है कि जिन देशों में टीकाकारण कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं वहां कुछ प्रतिबंधों और सुरक्षात्मक उपायों के साथ स्कूल खुलने की संभावना है। हालांकि, वायरस के नए संस्करणों से काफी अनिश्चितता बनी हुई है। डेल्टा संस्करण अल्फा संस्करण की तुलना में 40 से 60 प्रतिशत अधिक संक्रामक बताया जा रहा है। यूके में इस संस्करण के मामले काफी तेज़ी से बढ़े हैं। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पांच से 12 वर्ष के बच्चों में इसका प्रभाव अधिक पाया गया है।
स्कूलों में वायरस के अधिक संक्रामक संस्करणों के प्रसार को रोकने के लिए मास्क पहनने और बेहतर वेंटिलेशन जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं। अलबत्ता, इन सुरक्षात्मक उपायों को लेकर असमंजस की स्थिति है। जैसे, पहले सीडीसी ने स्कूलों में छह फुट की दूरी रखने की सलाह दी थी लेकिन मार्च में कुछ अध्ययनों के आधार पर इसे आधा कर दिया गया। यूके में केवल यथासंभव दूरी बनाए रखने के दिशानिर्देश जारी किए गए। देखा जाए तो वसंत ऋतु में विस्कॉन्सिन के स्कूलों में कक्षा में तीन फुट से भी कम दूरी पर बच्चों को बैठाया गया। इसके बाद भी परीक्षण में केवल दो ही मामले सामने आए।
बंद जगहों में मास्क के उपयोग को लेकर भी दुविधा है। मार्च में इंग्लैंड में स्कूल खुलने पर सिर्फ माध्यमिक शाला के विद्यार्थियों को मास्क पहनना आवश्यक था लेकिन यूके डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने 17 मई को बच्चों तथा शिक्षकों और स्कूल कर्मचारियों को मास्क न लगाने का सुझाव दिया। फिर जिन स्कूलों में मामले बढ़ने लगे वहां एक बार फिर मास्क का उपयोग करने की घोषणा की गई। इसी तरह अमेरिका के अलग-अलग ज़िलों तथा राज्यों में भी मास्क के उपयोग को लेकर विभिन्न निर्णय लिए गए। मई में सीडीसी ने मास्क के उपयोग में बदलाव करते हुए बताया कि टीकाकृत लोगों को मास्क का उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है।
फिर भी कुछ विशेषज्ञों का मत है कि एहतियात के तौर पर मास्क का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि अमेरिका में बिना टीकाकृत लोगों में अभी भी संक्रमण का जोखिम काफी अधिक है और बच्चों का अभी तक टीकाकरण नहीं हो पाया है। इसलिए अभी भी सावधानी बरतना आवश्यक है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि स्कूलों का बंद होना स्कूल प्रणाली की पुन: रचना करने का मौका देगा। इस महामारी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की व्यापक खामियों को उजागर किया है।
युनिसेफ के जेनकिंस के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को रचनात्मक तरीके सीखने व अपनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार से वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए वर्चुअल शिक्षण प्रदान कर सकते हैं, सवाल छुड़ाने जैसे महत्वपूर्ण कौशल को कैसे पढ़ाएंगे, शिक्षण के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक-भावनात्मक विकास को कैसे सम्बोधित करेंगे। देखा जाए तो हमें कुछ बदलाव लाने का मौका मिला है। इस अवसर से फायदा न उठा पाना हमारे लिए काफी शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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