बच्चे ही नहीं हर उम्र के लोग चॉकलेट के शौकीन होते हैं। लेकिन शायद ही इसके शौकीनों को यह मालूम होता है कि चॉकलेट में यह स्वाद किण्वन के कारण आता है, जिसे सूक्ष्मजीव अंजाम देते हैं।
पेरू से लेकर बेल्जियम तक दुनिया भर की तमाम चॉकलेट प्रयोगशालाओं के स्व-घोषित चॉकलेट विज्ञानी यह समझने की कोशिश में हैं कि किण्वन चॉकलेट के स्वाद को कैसे बदलता है। इसके लिए कभी वे प्रयोगशाला में कृत्रिम किण्वन करते हैं, तो कभी प्रकृति में किण्वित ककाओ बीन के नमूनों का अध्ययन करते हैं। और प्रयोगशाला में चॉकलेट के कई नमूने तैयार कर वालंटियर्स से उनका स्वाद पूछते हैं।
इस तरह कई दशकों के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने ककाओ के किण्वन के बारे में बारीकी से जानकारी हासिल की है, और इस किण्वन में शामिल और चॉकलेट का स्वाद और गुणवत्ता बढ़ाने वाले सूक्ष्मजीवों के बारे में पता लगाया है।
चॉकलेट जिन बीजों से बनकर तैयार होती है उसके रग्बी फुटबॉल नुमा फल थियोब्राोमा ककाओ (Theobroma cacao) नामक पेड़ के तने पर लगते हैं। पेड़ों से तोड़कर इन चमकीले रंग के फलों को खोलकर अंदर से उनका गूदा और बीज निकाल कर अलग कर लिए जाते हैं। बीजों को बीन्स कहते हैं। इसके बाद उपचार के चरण में बीन्स को तीन से 10 दिन तक किण्वन के लिए छोड़ा जाता है। किण्वन होने के बाद इन्हें धूप में सुखाया जाता है और सूखे हुए बीन्स को भुना जाता है। इन्हें चीनी और कभी-कभी सूखे दूध के साथ इतना महीन होने तक पीसा जाता है कि मुंह में रखने पर दोनों के कण अलग-अलग महसूस न हों। इस रूप में आने के बाद यह मिश्रण चॉकलेट बार, चॉकलेट चिप्स या अन्य किसी भी रूप में चॉकलेट के उत्पाद बनाने के लिए तैयार होता है।
उपचार के चरण में बीन्स में कुदरती रूप से किण्वन होता है। वास्तव में चॉकलेट के स्वाद के लिए सैकड़ों तरह के यौगिक ज़िम्मेदार होते हैं, इनमें से कई यौगिक किण्वन की प्रक्रिया के दौरान ही बनते हैं और बेस्वाद बीन्स को चॉकलेटी स्वाद देते हैं।
ककाओ का किण्वन कई चरणों में होता है। किण्वन के लिए खमीर का उपयोग किया जाता है, इसमें कई बार बीयर और वाइन के किण्वन के लिए उपयोग किए जाने वाले खमीर का भी उपयोग किया जाता है। ककाओ के किण्वन के दौरान खमीर बीन्स से चिपके शर्करा पल्प को पचाकर एल्कोहल का निर्माण करते हैं। नतीजतन स्वाद प्रदान करने वाले एस्टर और फूल की खुशबू वाले एल्कोहल बनते हैं, जो ककाओ बीन्स द्वारा सोख लिए जाते हैं और अंत तक चॉकलेट में मौजूद रहते हैं।
जब बीन्स से चिपका गूदा विघटित होने लगता है तो उसमें ऑक्सीजन प्रवेश करती है। ऑक्सीजन के प्रवेश करने पर वहां ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया की संख्या बढ़ने लगती है और खमीर की आबादी में कमी आने लगती है। इन ऑक्सीजन-प्रेमी बैक्टीरिया को एसिटिक एसिड बैक्टीरिया के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये खमीर द्वारा बनाए गए एल्कोहल को एसिटिक एसिड में परिवर्तित करते हैं।
बैक्टीरिया द्वारा बनाया गया यह एसिड भी बीन्स द्वारा सोख लिया जाता है, जो बीजों में जैव-रासायनिक परिवर्तन लाता है। इसकी वजह से वसा एकत्रित होने लगती है। कुछ एंज़ाइम प्रोटीन को छोटे-छोटे पेप्टाइड्स में तोड़ देते हैं, जो भुनने के दौरान ‘चॉकलेटी’ महक देते हैं। कुछ अन्य एंज़ाइम ऑक्सीकरण-रोधी पोलीफेनॉल, जिसके लिए चॉकलेट प्रसिद्ध है, को तोड़ देते हैं। नतीजतन, इसकी खासियत के विपरीत, अधिकांश चॉकलेट में बहुत कम पोलीफेनॉल्स होते हैं, किसी-किसी चॉकलेट में तो पोलीफेनॉल्स होते ही नहीं।
एसिटिक एसिड बैक्टीरिया द्वारा रोक दी गई प्रक्रियाओं के कारण चॉकलेट के स्वाद पर बड़ा असर पड़ता है। इन एसिड के कारण ही अत्यंत कड़वे, गहरे बैंगनी रंग के पोलीफेनॉल अणु मद्धम स्वाद वाले, भूरे रंग के ओ-क्विनोन रसायन में बदलते हैं। और इसी जगह आकर ककाओ बीन्स कड़वे स्वाद से एक समृद्ध और चॉकलेटी स्वाद में आ जाते हैं। स्वाद के साथ-साथ रंग में भी परिवर्तन आता है और लाल-बैंगनी रंग के बीन्स भूरे रंग के हो जाते हैं, यानी चॉकलेट यहां अपना रंग पाती है। अंत में, एसिड धीरे-धीरे वाष्पित हो जाते हैं और शर्करा उपयोग हो जाती है। फिर अन्य सूक्ष्मजीव जैसे कवक और बेसिलस बैक्टीरिया अपना काम शुरू करते हैं।
चॉकलेट बनने में सूक्ष्मजीव जितने अहम होते हैं, कभी-कभी वे चॉकलेट का उतना ही नाश भी कर डालते हैं। बेसिलस बैक्टीरिया की संख्या में अत्यधिक वृद्धि चॉकलेट को बासा और बेकार स्वाद देती है।
ककाओ के किण्वन के लिए किसान प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों पर निर्भर होते हैं ताकि चॉकलेट को अपना अनूठा और स्थानीय स्वाद मिले। इसे ‘टेरोइर’ कहा जाता है: यानी किसी स्थान के कारण आने वाली विशेषता या स्वाद। ठीक अंगूर के किण्वन की तरह, ककाओ के मामले में भी स्थानीय सूक्ष्मजीव किसान के अपने अनूठे तरीके के साथ मिलकर चॉकलेट को स्थानीय विशेषता और भिन्न स्वाद प्रदान करते हैं।
यदि आप चॉकलेट के इतने अलग-अलग स्वादों से महरूम हैं तो कभी इनका भी आंनद लीजिए और सूक्ष्मजीवों की इस मेहनत को भी दाद दीजिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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