वैज्ञानिक मानते आए हैं कि चंद्रमा का निर्माण एक प्रोटोप्लेनेट थिया के पृथ्वी से टकराने से हुआ था। यह टक्कर की पृथ्वी की प्रारंभिक अवस्था में (लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व) हुई थी। अब वैज्ञानिकों के एक समूह को पृथ्वी के मेंटल में दफन दो महाद्वीपों के आकार की चट्टानें मिली हैं जो संभवत: उक्त प्रोटोप्लेनेट थिया के अवशेष हैं।
कई दशकों से भूकंप विज्ञानी पश्चिमी अफ्रीका और प्रशांत महासागर के नीचे हैडफोन नुमा 2 पिंडों की उपस्थिति से काफी हैरान रहे हैं। एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी (एएसयू) के पीएचडी छात्र कियान युआन के अनुसार 1000 किलोमीटर ऊंची और इससे कई गुना चौड़ी ये चट्टानें मेंटल में पाई जाने वाली सबसे विशाल वस्तुएं हैं। यहां तक कि भूकंप के दौरान इन परतों से गुज़रने वाली भूकंपीय तरंगें भी अचानक धीमी पड़ जाती हैं। इससे लगता है कि ये काफी घनी और आसपास की चट्टानों से रासायनिक रूप से अलग हैं।
भूकंप विज्ञानी इन्हें अपरूपण भूकंप तरंगों के अल्प वेग वाले क्षेत्र (एलएलएसवीपी) कहते हैं। ये या तो पृथ्वी के आदिम विशाल मैग्मा समुद्रों में से क्रिस्टलीकरण के चलते निर्मित हुए हैं या फिर प्राचीन मेंटल चट्टानों के घने पोखर हैं जो विशाल टक्कर के दौरान आघात से बच गए होंगे। नए समस्थानिक साक्ष्य और मॉडलिंग के आधार पर युआन ने लूनर एंड प्लेनेटरी साइंस कांफ्रेंस में इन क्षेत्रों को थिया का एक हिस्सा बताया है। वैसे यह परिकल्पना काफी समय से चर्चा का विषय रही है लेकिन पहली बार किसी ने इसके समर्थन में कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।
जैसे आइसलैंड और समोआ से प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि ये एलएलएसवीपी चंद्रमा के निर्माण वाली टक्कर के समय से ही अस्तित्व में हैं। अध्ययनों से पता चला है कि इन द्वीपों पर मौजूद लावा में रेडियोधर्मी तत्वों के ऐसे समस्थानिकों का रिकॉर्ड है जो पृथ्वी के इतिहास के शुरुआती 10 करोड़ वर्ष के दौरान ही निर्मित हुए थे।
चंद्रमा को बनाने वाली टक्कर के नए मॉडल से पता चलता है कि इसने घनी चट्टानों को पृथ्वी की गहराइयों में भी पहुंचाया था। देखा जाए तो 1970 के दशक में इम्पैक्ट थ्योरी का विकास इस बात की व्याख्या के लिए किया गया था कि क्यों चंद्रमा शुष्क है और वहां लौह युक्त केंद्रीय कोर का अभाव है। इस सिद्धांत के अनुसार इस भयानक टक्कर से पानी जैसे वाष्पशील पदार्थ तो भाप बनकर उड़ गए और टकराव की वजह से उछली कम घनी चट्टानें अंतत: चंद्रमा में संघनित हो गर्इं। इस सिद्धांत में थिया का आकार मंगल ग्रह या उससे छोटा बताया गया था जबकि युआन के अनुसार इसका आकार पृथ्वी के बराबर रहा होगा।
युआन के सह-लेखक और खगोल-भौतिकविद स्टीवन डेश की टीम ने अपोलो से प्राप्त चंद्रमा की चट्टानों में हाइड्रोजन और ड्यूटेरियम का अनुपात मापा। ये दोनों हाइड्रोजन के ही समस्थानिक हैं और ड्यूटेरियम भारी होता है। पृथ्वी की चट्टानों की तुलना में चंद्रमा से प्राप्त नमूनों में हाइड्रोजन की मात्रा काफी अधिक मिली। तो हल्के वाले समस्थानिक को अपनी गिरफ्त में रखने के लिए थिया आकार में काफी बड़ा रहा होगा। इससे यह भी पता चलता है कि थिया काफी शुष्क रहा होगा। पानी के उपस्थित होने से ड्यूटेरियम स्तर भी काफी अधिक होता क्योंकि अंतरिक्ष में शुरुआती पानी में ड्यूटेरियम ज़्यादा था। इस तरह का शुष्क और विशाल प्रोटोप्लेनेट अपर्याप्त लोहे से बने कोर और लोहे से समृद्ध मेंटल की अलग-अलग परतों में बना होगा जो वर्तमान पृथ्वी से 2 से 3.5 प्रतिशत तक अधिक घना होगा।
हालांकि डेश के अनुमानों के पहले ही युआन ने थिया का मॉडल तैयार किया है। युआन का अनुमान है कि टकराव के बाद थिया की कोर तुरंत ही पृथ्वी के साथ विलीन हो गई होगी। उन्होंने मॉडल में थिया के आकार और घनत्व को भी कम-ज़्यादा करके देखा कि किन हालात में सामग्री मेंटल में घुल-मिल जाने की बजाय साबुत बनी रहकर तली में बैठ गई होगी। इस मॉडल के आधार पर पता चलता है कि इसका घनत्व वर्तमान पृथ्वी से 1.5-3.5 प्रतिशत अधिक होने पर ही यह पदार्थ कोर के नज़दीक जमा होता गया। यह परिणाम डेश द्वारा दिए गए ड्यूटेरियम साक्ष्य से मेल खाते हैं।
हालांकि इस परिकल्पना में काफी अगर-मगर भी हैं। जैसे एलएलएसवीपी की रचना को लेकर अस्पष्टता है क्योंकि इनका आकार भूकंपीय तरंगों के अध्ययन से तैयार किया गया है जिसमें काफी घट-बढ़ की गुंजाइश है। हो सकता है इसकी ऊंचाई 1000 किलोमीटर के बजाय केवल कुछ 100 किलोमीटर ही हो। घनत्व को लेकर भी मतभेद हैं। छोटे आकार के एलएलएसवीपी थिया के आकार के विचार पर काफी सवाल खड़े कर सकते हैं। ऐसे में डेश की टीम द्वीपों पर मिले लावा और चंद्रमा के मेंटल की चट्टानों के बीच भू-रासायनिक समानताओं का अध्ययन करने पर विचार कर रही है। हालांकि एक विचार यह भी है कि मेंटल में थिया के अवशेषों के अलावा कई अन्य टक्करों के अवशेष भी हो सकते हैं। भूकंप वैज्ञानिकों को मेंटल की गहराइयों में कुछ अत्यंत घने क्षेत्रों के प्रमाण मिले हैं। ये विशेष रूप से एलएलएसवीपी के किनारों के पास पाए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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