सदियों से आर्सेनिक (संखिया) का इस्तेमाल विष की तरह किया जाता रहा है। खानपान में मिला देने पर इसके गंध-स्वाद पता नहीं चलते। पहचान की नई विधियां आने से अब हत्याओं में इसका उपयोग तो कम हो गया है लेकिन प्राकृतिक रूप में मौजूद आर्सेनिक अब भी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है। आर्सेनिक से लंबे समय तक संपर्क कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ाता है।
लोगों के शरीर में विषाक्त अकार्बनिक आर्सेनिक पहुंचने का प्रमुख स्रोत है दूषित पेयजल। इसे नियंत्रित करने के काफी प्रयास किए जा रहे हैं और इस पर काफी शोध भी चल रहे हैं। वैसे चावल व कुछ अन्य खाद्य पदार्थों में भी थोड़ी मात्रा में आर्सेनिक पाया जाता है लेकिन मात्रा इतनी कम होती है कि इससे लोगों के स्वास्थ्य को खतरा बहुत कम होता है। इसके अलावा सीफूड में भी अन्य रूप में आर्सेनिक पाया जाता है जो मानव स्वास्थ्य के लिए इतना घातक नहीं होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में आर्सेनिक का अधिकतम सुरक्षित स्तर 10 पार्ट्स प्रति बिलियन (पीपीबी) माना है। और वर्तमान में दुनिया के लगभग 14 करोड़ लोग नियमित रूप से इससे अधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं।
वर्ष 2006 में, शोधकर्ताओं ने बताया था कि भ्रूण और नवजात शिशुओं के शरीर में आर्सेनिक संदूषित पानी पहुंचने से आगे जाकर उनकी फेफड़ों के कैंसर से मरने की संभावना छह गुना अधिक थी। इसे समझने के लिए जीव विज्ञानी रेबेका फ्राय ने दक्षिणी बैंकाक के एक पूर्व खनन क्षेत्र में गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों पर अध्ययन कर मानव कोशिकाओं और जीन्स पर होने वाले आर्सेनिक के प्रभावों की गहराई से पड़ताल की। इसके बाद 2008 में उनकी टीम ने भ्रूण विकास में आर्सेनिक के प्रभाव को समझा।
वे बताती हैं कि आर्सेनिक प्रभावित लोगों की सबसे अधिक संख्या भारत के पश्चिम बंगाल के इलाकों और बांग्लादेश में है। बांग्लादेश के लगभग 40 प्रतिशत पानी के नमूनों में 50 पीपीबी से अधिक और 5 प्रतिशत नमूनों में 500 पीपीबी से अधिक आर्सेनिक पाया गया है। इसी तरह यूएस में उत्तरी कैरोलिना से प्राप्त कुल नमूनों में से 1400 में आर्सेनिक का स्तर 800 पीपीबी था। संभावना यह है कि वैज्ञानिक 100 पीपीबी से अधिक स्तर वाले अधिकांश स्थानों के बारे में तो जानते हैं क्योंकि यहां प्रभावित लोगों में त्वचा के घाव दिखते हैं, लेकिन इससे कम स्तर वाले आर्सेनिक दूषित कई स्थान अज्ञात हैं।
दरअसल अपरदन के माध्यम से चट्टानों में मौजूद खनिज मिट्टी में आर्सेनिक छोड़ते रहते हैं। फिर मिट्टी से यह भूजल में चला जाता है। इस तरह की भूगर्भीय प्रक्रियाएं भारत, बांग्लादेश और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अधिकांश देशों में आर्सेनिक दूषित पेयजल का मुख्य कारण हैं। मानव गतिविधियां, जैसे खनन और भूतापीय ऊष्मा उत्पादन, आर्सेनिक के पेयजल में मिलने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसका एक उदाहरण है कोयला जलने के बाद उसकी बची हुई राख, जिसमें आर्सेनिक व अन्य विषाक्त पदार्थ होते हैं।
शरीर में आर्सेनिक को अन्य यौगिकों में बदलने का काम मुख्यत: एक एंज़ाइम आर्सेनाइट मिथाइलट्रांसफरेस द्वारा अधिकांशत: लिवर में किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप मोनोमिथाइलेटेड (MMA) और डाइमिथाइलेटेड (DMA) आर्सेनिक बनता है। अपरिवर्तित आर्सेनिक, MMA और DMA मूत्र के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन आर्सेनिक के इन तीनों रूपों का स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। अधिकतर लोगों के मूत्र में MMA की तुलना में DMA की मात्रा अधिक होती है। आर्सेनिक के इन दोनों रूपों का अनुपात कई बातों पर निर्भर होता है। आर्सेनिक से हाल में हुए संपर्क की पड़ताल पेशाब के नमूनों के ज़रिए हो जाती है। नाखूनों में इनकी उपस्थिति अत्यधिक आर्सेनिक संदूषण दर्शाती है। और अंदेशा है कि मां के मूत्र और गर्भनाल के ज़रिए भी भ्रूण का आर्सेनिक से प्रसव-पूर्व संपर्क हो सकता है।
शरीर में MMA और DMA के अनुपात पर निर्भर होता है कि आर्सेनिक मानव स्वास्थ्य को किस तरह प्रभावित करेगा। यदि मूत्र में MMA का स्तर अधिक है तो यह विभिन्न तरह के कैंसर का खतरा बढ़ाता है। इसमें फेफड़े, मूत्राशय और त्वचा के कैंसर होने का खतरा सबसे अधिक होता है। वहीं यदि मूत्र में DMA का स्तर अधिक है तो यह मधुमेह की आशंका को बढ़ाता है। इन जोखिमों की तीव्रता क्षेत्र के पेयजल में आर्सेनिक के स्तर और व्यक्ति के शरीर में आर्सेनिक को संसाधित करने के तरीके पर निर्भर होती है। अलग-अलग असर को देखते हुए एक बात तो तय है कि हमें अभी इस बारे में काफी कुछ जानना है कि आर्सेनिक और उससे बने पदार्थ विभिन्न कोशिकाओं और ऊतकों को किस तरह प्रभावित करते हैं।
चूंकि आर्सेनिक गर्भनाल को पार कर जाता है, इसलिए भ्रूण का स्वास्थ्य भी चिंता का विषय है। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि प्रसव-पूर्व और शैशव अवस्था में आर्सेनिक का संपर्क मस्तिष्क विकास को प्रभावित करता है। मेक्सिको में किए गए अध्ययन में पाया गया कि जन्म के पूर्व आर्सेनिक से संपर्क के चलते शिशु का वज़न कम रहता है। अन्य अध्ययनों से पता है कि जन्म के समय कम वज़न आगे जाकर उच्च रक्तचाप, गुर्दों की बीमारी और मधुमेह का खतरा बढ़ाता है।
वास्तव में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को आर्सेनिक से कितना खतरा है यह आर्सेनिक की मात्रा और व्यक्ति की आनुवंशिकी, दोनों पर निर्भर करता है। आर्सेनिक को परिवर्तित करने वाले एंज़ाइम का प्रमुख जीन AS3MT है। इस जीन के कई संस्करण पाए जाते हैं, जिनसे उत्पन्न एंज़ाइम की कुशलता अलग-अलग होती है। आर्सेनिक का तेज़ी से रूपांतरण हो, तो मूत्र में MMA की कम और DMA की अधिक मात्रा आती है।
आर्सेनिक का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारे जीन किस तरह व्यवहार करते हैं। हमारे शरीर में 2000 से अधिक प्रकार के माइक्रोआरएनए (miRNA) होते हैं। miRNA डीएनए अनुक्रमों द्वारा बने छोटे अणु हैं जो प्रोटीन के कोड नहीं होते हैं। प्रत्येक miRNA सैकड़ों संदेशवाहक आरएनए (mRNA) अणुओं से जुड़कर प्रोटीन निर्माण को बाधित कर सकता है। और mRNA के ज़रिए जीन की अभिव्यक्ति होती है। आर्सेनिक miRNA की गतिविधि को संशोधित कर, जीन अभिव्यक्ति को बदल सकता है।
यह दिलचस्प है कि अतीत में हुए आर्सेनिक संपर्क का असर AS3MT जीन पर नज़र आता है। जैसे, अर्जेंटीना के एंडीज़ क्षेत्र के एक छोटे से इलाके के निवासी हज़ारों वर्षों से अत्यधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं। सामान्यत: उनमें कैंसर और असमय मृत्यु का प्रकोप अधिक होना चाहिए। लेकिन प्राकृतिक चयन के माध्यम से ये लोग उच्च-आर्सेनिक के साथ जीने के लिए अनुकूलित हो गए हैं।
आर्सेनिक के असर की क्रियाविधि काफी जटिल है, और यह कोशिका के प्रकार पर निर्भर करता है। अलबत्ता, मुख्य बात हमारे शरीर में जीन के अभिव्यक्त होने या न होने की है।
यदि यह हमारे डीएनए की मरम्मत करने वाले जीन को बंद कर देगा या ट्यूमर कोशिकाओं की वृद्धि होने देगा तो परिणाम कैंसर के रूप में सामने आएगा। यदि यह उन जीन्स को बाधित कर देगा जो अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करवाते हैं या अन्य कोशिकाओं को इंसुलिन के प्रति प्रतिक्रिया देने में मदद करते हैं तो परिणाम मधुमेह के रूप में दिखेगा। इस तरह डीएनए अनुक्रम को बदले बिना जीन अभिव्यक्ति को बदलने की क्रिया को एपिजेनेटिक्स कहते हैं।
एक एपिजेनेटिक तंत्र में miRNA की भूमिका होती है। अध्ययनों में देखा गया है कि आर्सेनिक miRNA की गतिविधि को प्रभावित कर सकता है।
एक और एपिजेनेटिक विधि है डीएनए मिथाइलेशन। किसी विशिष्ट डीएनए अनुक्रम में मिथाइल समूह के जुड़ने पर आर्सेनिक की भूमिका हो सकती है। जिससे जीन अभिव्यक्ति कम हो सकती है या बाधित हो सकती है।
KCNQ1 जीन एक दिलचस्प उदाहरण है। आम तौर पर हमारे माता-पिता दोनों से मिली जीन प्रतियां हमारी कोशिकाओं में व्यक्त हो सकती हैं। लेकिन KCNQ1 उन चुनिंदा जीन्स में से है जिनकी अभिव्यक्ति इस बात से तय होती है कि वह मां से आया है या पिता से। दूसरी प्रति गर्भावस्था में ही मिथाइलेशन द्वारा बंद कर दी जाती है।
मेक्सिको में हुए अध्ययन में देखा गया कि प्रसव-पूर्व आर्सेनिक-संपर्क अधिक KCNQ1 मिथाइलेशन और निम्न जीन अभिव्यक्ति से जुड़ा है। KCNQ1 भ्रूण के विकास में महत्वपूर्ण है। यही जीन अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करने के लिए भी ज़िम्मेदार है। यानी इस जीन की अभिव्यक्ति में कमी रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ा सकती है।
आर्सेनिक के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने की दिशा में जल उपचार, पोषण और आनुवंशिक हस्तक्षेप सम्बंधी अध्ययन किए जा रहे हैं।
उत्तरी कैरोलिना के अध्ययनों में देखा गया कि नलों में कम लागत का फिल्टर लगाकर पानी में आर्सेनिक का स्तर कम किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि यह धीमी गति से फिल्टर करता है। अन्य शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि कितनी गहराई के नलकूपों में आर्सेनिक की मात्रा कम होती है। इससे नलकूप खनन के लिए नए दिशानिर्देश बनाने में मदद मिलेगी।
पोषण सम्बंधी कारकों पर भी ध्यान दिया जा रहा है। जैसे, 2006 में बांग्लादेश में किए गए एक परीक्षण में पता चला था कि फोलिक एसिड की खुराक वयस्कों में आर्सेनिक विषाक्तता के असर को कम करती है। आंत का सूक्ष्मजीव संसार भी इस विषाक्तता को कम करने में मदद कर सकता है। देखा गया है कि चूहों की आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव लगभग संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में बदल देते हैं। अधिक DMA यानी कैंसर के जोखिम में कमी। यह अध्ययन भी जारी है कि क्या पोषण की मदद से मानव आंत के सूक्ष्मजीव आर्सेनिक विषाक्तता को कम कर सकते हैं।
जहां तक जेनेटिक हस्तक्षेप का सवाल है, तो यह तो पता था कि चूहे बड़ी कुशलता से संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में परिवर्तित कर लेते हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि ये परिणाम मनुष्यों के संदर्भ में कितने कारगर होंगे। इस संदर्भ में शोधकर्ताओं के एक दल ने एक नया माउस स्ट्रेन विकसित किया जिसमें AS3MT जीन का मानव संस्करण मौजूद था। ऐसा करने पर उन्हें चूहों के मूत्र में भी मनुष्यों की तरह DMA और MMA का स्तर मिला। एक अन्य दल miRNA के प्रभावों का अध्ययन कर रहा है।
उम्मीद है कि विभिन्न रणनीतियों को अपना कर दुनिया भर में आर्सेनिक की विषाक्तता को कम करने के उपाय ढूंढने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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