पृथ्वी के समुद्रों का स्तर तापमान के अनुसार हमेशा घटता-बढ़ता रहा है लेकिन इसकी सतह पर पानी की कुल मात्रा हमेशा से ही स्थिर मानी जाती रही है। लेकिन हालिया साक्ष्यों से पता चला है कि लगभग 3 से 4 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी के समुद्रों में आज की तुलना में दोगुना पानी था। यानी पृथ्वी पर इतना पानी था कि सारे महाद्वीप माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई तक जलमग्न हो जाएं। इस व्यापक बाढ़ ने टेक्टोनिक प्लेट्स की गतिविधि को बढ़ा दिया होगा जिससे ज़मीन पर जीवन की शुरुआत अधिक मुश्किल हो गई होगी।
ऐसा माना जाता है कि भूपर्पटी के नीचे मेंटल की चट्टानों में एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें काफी मात्रा में पानी है। यह पानी तरल रूप में नहीं है बल्कि खनिजों में पाया जाता है। लेकिन पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में रेडियोधर्मिता के कारण मेंटल आज की तुलना में चार गुना अधिक गर्म था। हाइड्रोलिक प्रेस की मदद से किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि इतने अधिक तापमान और दबाव पर कई खनिज इतनी मात्रा में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को जमा रखने में सक्षम नहीं रहे होंगे। एजीयू एडवांसेज़ में प्रकाशित हारवर्ड युनिवर्सिटी के मिनरल फिज़िक्स के छात्र जुंजी डोंग के शोध पत्र के अनुसार काफी संभावना है कि यह पानी सतह पर रहा होगा।
मेंटल की गहराई में पाए जाने वाले दो खनिजों, वाडस्लेआइट और रिंगवुडाइट, में काफी मात्रा में पानी भंडारित पाया गया है। इन खनिजों से बनी चट्टानें ग्रह के कुल द्रव्यमान का 7 प्रतिशत हैं। हालांकि इनमें पानी का वज़न केवल 2 प्रतिशत है, लेकिन नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के प्रायोगिक खनिज विज्ञानी स्टीवन जैकबसेन के अनुसार बूंद-बूंद से घट भरे की तर्ज़ पर यह 2 प्रतिशत भी काफी है।
जैकबसेन और उनके साथियों ने चट्टानों के चूरे पर उच्च दबाव और तापमान आरोपित करके इन खनिजों का निर्माण किया। डोंग की टीम ने विभिन्न प्रयोगों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर बताया कि वाडस्लेआइट और रिंगवुडाइट उच्च तापमान पर काफी कम मात्रा में पानी सहेज पाते हैं। जैसे-जैसे मेंटल ठंडा होता गया, ये खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाने लगे जिससे पृथ्वी की आयु बढ़ने के साथ-साथ उनकी पानी सोखने की क्षमता भी बढ़ती रही।
इसके अलावा कुछ अन्य साक्ष्य भी हैं जो पृथ्वी के जल-प्लावित होने के संकेत देते हैं। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के 4 अरब वर्ष पुराने ज़िरकॉन क्रिस्टल में टाइटेनियम सांद्रता से पता चलता है कि ये पानी में निर्मित हुए हैं। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया और ग्रीनलैंड में पाई गई पृथ्वी की सबसे पुरानी (3 अरब वर्ष पुरानी) बैसाल्ट, बलबस चट्टानें तभी बनती हैं जब मैग्मा पानी के संपर्क में आकर ठंडा होता है।
युनिवर्सिटी ऑफ कोलेरेडो के जिओबायोलॉजिस्ट जॉनसन और बोसवेल विंग ने इस विषय में अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। ऑस्ट्रेलिया से पाए गए 3.2 अरब साल पुरानी महासागरीय पर्पटी के नमूनों में भारी ऑक्सीजन आइसोटोप की मात्रा वर्तमान महासागरों की तुलना में काफी अधिक पाई गई। जब बारिश का पानी महाद्वीपीय पर्पटी के साथ प्रतिक्रिया करके कीचड़ में परिवर्तित होता है तब भारी ऑक्सीजन मुक्त होती है। प्राचीन महासागरों में इसकी प्रचुरता से पता चलता है कि तब शायद ही महाद्वीप उभरे होंगे। इन परिणामों से यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि महासागर विशाल थे लेकिन बड़े सागरों में जलमग्न महाद्वीप होना आसान है।
हालांकि विशाल महासागरों से महाद्वीपों का उभर पाना मुश्किल रहा होगा लेकिन इससे इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों महाद्वीप काफी पहले से चलायमान हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार विशाल महासागरों के कारण दरारों में जल के घुसने से पर्पटी कमज़ोर पड़ गई और टेक्टोनिक प्लेट्स गतिशील होने लगीं। इस प्रक्रिया से धसान क्षेत्रों का निर्माण हुआ जिसमें एक चट्टानी परत दूसरे के नीचे फिसलती गई होगी। जब एक बार चट्टान धंसना शुरू हुई तो मज़बूत मेंटल ने चट्टान को झुकाए रखा होगा, जिससे चट्टान का धंसना जारी रहा।
विशाल महासागरों के साक्ष्य इस बात को चुनौती देते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इसकी शुरुआत महासागरों में मौजूद पोषक तत्वों से समृद्ध हाइड्रोथर्मल वेंट के अंदर हुई जबकि कुछ मानते हैं कि शुरुआत शुष्क भूमि पर उथले तालाबों में हुई जहां रसायनों की सांद्रता बढ़ जाती थी। जलमग्न पृथ्वी का विचार इन दोनों परिकल्पनाओं पर सवाल खड़े कर देता है और कुछ वैज्ञानिक एक तीसरे विकल्प पर विचार कर रहे हैं।
यह प्राचीन पानी इस बात की भी याद दिलाता है कि पृथ्वी का विकास कितना परिस्थितियों के अधीन है। जन्म के समय पृथ्वी सूखी थी जब तक कि पानी से लबालब क्षुद्रग्रह इससे टकराए नहीं। यदि इन क्षुद्रग्रहों ने आज की तुलना में दोगुना पानी जमा कर दिया होता या फिर मेंटल में कम पानी सोखने की क्षमता होती तो ग्रह के जीवन और जलवायु के लिए आवश्यक महाद्वीप कभी उभरे ही नहीं होते। बहुत अधिक जल या बहुत कम जल, दोनों ही से काम बन पाना संभव नहीं था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://earthsky.org/upl/2021/03/ancient-earth-water-world-e1615904017511.jpg