यह तो लगभग सब जान गए हैं कि एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य महत्वपूर्ण चीज़ है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि इसका निर्धारण कैसे किया जाता है। इसके पीछे तर्क क्या हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य, उसके निर्धारण, उसके महत्व और सीमाओं को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकना होगा।
एमएसपी का इतिहास
एमएसपी की व्यवस्था 1966-67 में गेहूं के लिए शुरू की गई थी। मकसद यह था कि सरकार द्वारा संचालित रियायती सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की खरीद की जा सके। आगे चलकर इस व्यवस्था को अन्य ज़रूरी फसलों पर भी लागू किया गया। वर्तमान में कृषि लागत व मूल्य आयोग की अनुशंसा के आधार पर एमएसपी 23 फसलों पर लागू है। इनमें सात अनाज (चावल, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, जौं और रागी), पांच दालें (चना, तुअर, मूंग, उड़द और मसूर), आठ तिलहन (सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, तोरिया, तिल, केसर बीज, सूरजमुखी और रामतिल) शामिल हैं। इनके अलावा 4 व्यावसायिक फसलें भी शामिल की गई हैं: खोपरा, गन्ना, कपास और पटसन।
एमएसपी का तर्क
अब यह देखते हैं कि एमएसपी क्या है और इसके पीछे तर्क क्या है। सरल शब्दों में कहें तो एमएसपी सरकार द्वारा किसानों को प्रदान की गई सुरक्षा है। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि किसानों को कीमतों की गारंटी रहे और बाज़ार का आश्वासन रहे। एमएसपी-आधारित खरीद प्रणाली का मकसद फसलों को कीमतों के उतार-चढ़ाव से महफूज़ रखना है। कीमतों में यह उतार-चढ़ाव कई अनपेक्षित कारणों से होता रहता है, जैसे मॉनसून, बाज़ार में एकीकरण का अभाव, जानकारी में असंतुलन वगैरह।
कृषि उत्पादों की कीमतें कई कारणों से प्रभावित होती हैं। जैसे यदि किसी फसल का उत्पादन अच्छा हो, तो उसकी कीमतों में भारी गिरावट आ सकती है। इसका परिणाम होगा कि किसान अगले वर्ष उस फसल को बोने से कतराएंगे, जिसका असर आपूर्ति पर पड़ेगा। इससे बचाव के लिए सरकार एमएसपी निर्धारित करती है ताकि निवेश और फसल उत्पादन बढ़े। इससे यह सुनिश्चित होता है कि यदि बाज़ार में किसी फसल उत्पाद की कीमतें गिरने लगें, तो भी सरकार किसानों से इसे निर्धारित समर्थन मूल्य पर खरीद लेगी। इस तरह से उन्हें नुकसान से बचाया जाता है।
एमएसपी कैसे तय होता है?
एमएसपी का निर्धारण साल में दो बार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर किया जाता है। यह आयोग एक संवैधानिक निकाय है और खरीफ व रबी मौसम की अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग मूल्य नीति रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
रिपोर्ट पर विचार करके अंतिम निर्णय केंद्र सरकार लेती है। इससे पहले वह राज्य सरकारों से सलाह-मशवरा करती है और देश में मांग-आपूर्ति की समग्र स्थिति पर भी विचार करती है। एमएसपी की गणना जिस सूत्र के आधार पर की जाती है, उसे ‘A2+FL’ सूत्र कहते हैं और इसमें C2 लागत का भी ध्यान रखा जाता है। A2 लागत में किसान द्वारा उठाए गए सारे खर्चों को शामिल किया जाता है – जैसे बीज, उर्वरक, रसायन, नियुक्त मज़दूर, र्इंधन, सिंचाई वगैरह। ‘A2+FL’ में ये सारी नगद लागतें और अवैतनिक पारिवारिक श्रम की अनुमानित लागत (FL) जोड़ी जाती हैं। C2 लागत में A2+FL के अलावा किसान की अपनी भूमि तथा अचल सम्पत्ति का किराया और फसल लगाने की वजह से ब्याज का जो नुकसान हुआ है वह भी जोड़ा जाता है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग लाभ की गणना के लिए मात्र A2+FL को ध्यान में लेता है। बहरहाल, C2 लागतों का उपयोग एक संदर्भ के रूप में किया जाता है ताकि यह फैसला हो सके कि आयोग द्वारा अनुशंसित एमएसपी कुछ प्रमुख राज्यों में इन लागतों को शामिल कर रहा है। एमएसपी की गणना में कई बातों का ध्यान रखा जाता है:
1. उत्पादन की लागत
2. मांग
3. आपूर्ति
4. कीमतों में उतार-चढ़ाव
5. बाज़ार में कीमतों के रुझान
6. विभिन्न लागतें
7. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें
8. कृषि मज़दूरी की दरें
यदि हम A2, FL और C2 में शामिल किए गए मदों को देखें तो लगता है कि उक्त सूत्र में सब कुछ शामिल हो गया है। लेकिन यह बात सच से कोसों दूर है। निर्धारित कीमतों में कुछ निहित समस्याएं होती हैं, जिनका समाधान नहीं किया जा सकता, चाहे जितनी समग्र सूची बना ली जाए।
दूसरी समस्या क्रियांवयन की है। चाहे एमएसपी मौजूद है, लेकिन मैदानी हकीकत यह है कि अधिकांश किसानों को अपनी उपज मजबूरन एमएसपी से कम दामों पर बेचनी पड़ती है। आइए एमएसपी व्यवस्था की दिक्कतों पर एक नज़र डालते हैं – खरीद की एक प्रणाली के रूप में भी और समर्थन की एक व्यवस्था के रूप में भी।
एमएसपी की सीमाएं
एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण की 2012-13 की रिपोर्ट के मुताबिक 10 प्रतिशत से भी कम किसान अपनी उपज सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर बेचते हैं। दी हिंदू में प्रकाशित एक विश्लेषण बताता है कि सितंबर 2020 में 68 प्रतिशत मामलों में फसलें एमएसपी से कम कीमतों पर बेची गई थीं।
एमएसपी की प्रमुख समस्या है सरकार के पास गेहूं और चावल के अलावा शेष सारी फसलों को खरीदने की व्यवस्था का अभाव। गेहूं और चावल की खरीद भारतीय खाद्य निगम द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत की जाती है। एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या एमएसपी बढ़ाने से किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे।
हालांकि यह नीति किसानों की भलाई के लिए लागू की गई है, लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि क्या उन्हें वास्तव में लाभ मिला है। जब भी सरकार एमएसपी बढ़ाती है, तो दावा किया जाता है कि इससे देश के किसानों को बहुत लाभ मिलेगा। लेकिन ये दावे सच्चाई से बहुत दूर हैं। जब भी एमएसपी बढ़ाया जाता है, किसान उससे कम दामों पर ही बेच पाते हैं, जिसकी वजह से असंतोष बढ़ता है।
यदि हम एमएसपी को एक फिक्स्ड मूल्य व्यवस्था के रूप में देखें तो कई समस्याएं नज़र आने लगती हैं।
केंद्र सरकार द्वारा घोषित मूल्य (एमएसपी) पूरे देश के लिए एक समान होता है जबकि उत्पादन की लागतें राज्यों के बीच बहुत अलग-अलग होती हैं। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की बात करें, तो 2016-17 में कर्नाटक के किसानों का एक हैक्टर मक्का उत्पादन का खर्च लगभग 28,220 रुपए था। दूसरी ओर, बिहार के किसान का खर्च 32,662 रुपए था और झारखंड के किसान को एक हैक्टर मक्का उगाने में 24,716 रुपए तथा महाराष्ट्र के किसानों को 51,408 रुपए खर्च करने पड़े थे।
दूसरी बात यह है कि राज्यों के बीच उपज में बहुत अंतर होता है। उदाहरण के लिए 2017-18 में देश में मक्का
विभिन्न राज्यों में मज़दूरी की दरें | |
राज्य | मजदूरी (रुपए प्रतिदिन) |
आंध्र प्रदेश | 312 |
आसाम | 277 |
बिहार | 264 |
गुजरात | 236 |
हरियाणा | 367 |
कर्नाटक | 321 |
हिमाचल प्रदेश | 439 |
केरल | 691 |
मध्य प्रदेश | 298 |
ओड़िसा | 226 |
पंजाब | 349 |
राजस्थान | 267 |
तमिलनाड़ु | 424 |
उत्तर प्रदेश | 275 |
की औसत उपज 33 क्विंटल प्रति हैक्टर थी। तुलना के लिए देखें कि तमिलनाड़ु में मक्का की प्रति हैक्टर औसत उपज 65.5 क्विंटल और बिहार में मात्र 36.4 क्विंटल रही थी।
एक समस्या यह भी है कि सभी राज्यों में मज़दूरी की दरें बहुत अलग-अलग हैं। तालिका में जनवरी 2018 में विभिन्न राज्यों में मज़दूरी दरें दी गई हैं। गौरतलब है कि इसी साल पूरे देश में औसत मज़दूरी 283 रुपए प्रतिदिन थी।
2020 में 68 प्रतिशत बिक्रियां मंडी में एमएसपी से कम दामों पर हुई थीं और इसका प्रमुख कारण था कि सरकार पर एमएसपी पर फसल खरीदने की कानूनी बाध्यता नहीं है।
एमएसपी की दिक्कतों को समझने के लिए, आइए कुछ आंकड़ों और अध्ययनों पर नज़र डालें। इनसे पता चलता है कि एमएसपी व्यवस्था सही तरीके से काम नहीं कर रही है।
पुराने-नए आंकड़े
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्पाद मूल्य निर्धारण की कोई उचित व्यवस्था न होने की वजह से किसानों ने 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाया।
भारतीय खाद्य निगम की पुनर्रचना के सुझाव देने हेतु 2015 में गठित शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मात्र 6 प्रतिशत किसानों ने ही एमएसपी का लाभ उठाया। अर्थात देश के 94 प्रतिशत किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे थे। भारत सरकार के अनुसार देश में 14.5 करोड़ किसान हैं। यानी एमएसपी से लाभांवित किसान मात्र 87 लाख हैं।
2016 में नीति आयोग की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट से पता चला था कि 81 प्रतिशत किसान जानते थे कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी लेकिन इनमें से मात्र 10 प्रतिशत किसानों को ही बोवनी से पहले सही कीमत की जानकारी थी। तो सवाल यह उठता है कि यदि किसान सबसे बड़ी उचित मूल्य की प्रणाली से इतनी दूर हैं तो उन्हें उचित दाम कैसे मिल पाएंगे।
अब वर्ष 2019-20 के कुछ ताज़ा आंकड़े देखते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि क्या एमएसपी ने कोई वास्तविक लाभ दिया है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हालांकि धान और गेहूं की सर्वाधिक खरीद पंजाब और हरियाणा में होती है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ पाने वाले सबसे ज़्यादा किसान तेलंगाना और मध्य प्रदेश के हैं। इसकी एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि पंजाब व हरियाणा में जोत के आकार बड़े हैं (जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस में 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था) और जोत के आकार के हिसाब से उनकी रैंक दूसरी और तीसरी है, लेकिन यह भी हो सकता है कि इन राज्यों में ज़्यादा किसानों को हड़बड़ी में फसल बेचना पड़ती है और इसके चलते वे शोषण के शिकार हो जाते हैं।
उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट से पता चला था कि खरीफ के मौसम में सरकार द्वारा तेलंगाना के 198 लाख किसानों से धान खरीद की गई थी। दूसरे नंबर पर हरियाणा था जहां के 189 लाख किसानों ने धान बेची जबकि पंजाब पांचवे स्थान पर था जहां के मात्र 116 लाख किसानों को धान के लिए एमएसपी दिया गया था (ये आंकड़े भारतीय खाद्य निगम की एमएसपी रिपोर्ट से हैं)।
इन पांच उदाहरणों में आंकड़ों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एमएसपी व्यवस्था भलीभांति काम नहीं कर रही है। इसके द्वारा किसानों की वास्तविक तकलीफ में खास कमी नहीं आ रही है क्योंकि बहुत ही थोड़े किसानों को इस व्यवस्था का लाभ मिल पा रहा है।
आगे हम देखेंगे कि एमएसपी व्यवस्था को लेकर विशेषज्ञों की राय क्या है। हम खास तौर से एम.एस. स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट पर ध्यान देंगे।
स्वामिनाथन रिपोर्ट
एम.एस. स्वामिनाथन आयोग का गठन 2004 में किया गया था। इसने पांच रिपोर्ट प्रस्तुत की थीं जिनमें किसानों के कष्टों को कम करने तथा एक निर्वहनीय व लाभदायक कृषि प्रणाली के लिए एक खाका प्रस्तुत किया गया था।
पांचवी व अंतिम रिपोर्ट में कई मुद्दों पर चर्चा की गई थी। इनमें भूमि सुधार, सिंचाई सुधार, उत्पादन वृद्धि, खाद्य सुरक्षा, ऋण एवं बीमा सुविधाएं तथा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने जैसे मुद्दे शामिल थे। लगभग 300 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में एमएसपी तथा किसानों की वित्तीय तरक्की सम्बंधी प्रमुख सिफारिशों की चर्चा यहां की गई है।
स्वामिनाथन आयोग ने व्यापारियों के बीच कार्टल गठन की समस्या को पहचाना था। कार्टल का मतलब होता है कि व्यापारी लोग भावों को बढ़ने से रोकने के लिए गठबंधन कर लेते हैं। ऐसे गठबंधन किसी विशेष कृषि उत्पाद या मवेशियों के बारे में किए जाते हैं। इससे निपटने के लिए आयोग ने ‘एक देश एक बाज़ार’ की सिफारिश की थी। आयोग ने माल के परिवहन को आसान बनाने के लिए रोड टैक्स और स्थानीय करों को समाप्त करने की सिफारिश की थी। इसकी बजाय आयोग ने एक राष्ट्रीय परमिट का सुझाव दिया था जिसके आधार पर वाहन देश में कहीं भी जा सकें। आयोग का विचार था कि ऐसा करने पर परिवहन की लागत कम होगी और खेती में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
स्वामिनाथन आयोग ने अनुबंध कृषि की सिफारिश की थी ताकि किसानों को सीधे उपभोक्ता से जोड़ा जा सके और सुझाव दिया था कि मूल्य-वर्धन तथा विपणन के लिए संस्थागत समर्थन मिले। लेकिन चूंकि कोई कानून नहीं है, इसलिए किसानों को यह शंका होना स्वाभाविक है कि इन उपायों से खेती का कार्पोरेटीकरण हो जाएगा क्योंकि कृषि-व्यापार कंपनियां बाज़ार के रुझानों को निर्देशित करेंगी और कीमतों को भी। इसके अलावा, यह डर भी है कि कंपनियां ही अनुबंध की शर्तें तय करेंगी क्योंकि स्थानीय व छोटे-गरीब किसानों के पास सौदेबाज़ी की ताकत नहीं है।
हालांकि आयोग ने अनुबंध कृषि का समर्थन किया था किंतु साथ ही यह टिप्पणी भी की थी कि एक समग्र आदर्श अनुबंध का प्रारूप बनाया जाना चाहिए जिसका उपयोग किसानों के खिलाफ न किया जा सके।
स्वामिनाथन आयोग ने एमएसपी की सिफारिश एक सुरक्षा चक्र के रूप में की थी ताकि कृषि में उत्साह पैदा किया जा सके। आयोग की सिफारिश थी कि यह सुरक्षा चक्र उन फसलों, लोगों और क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है जिनके वैश्वीकरण की प्रक्रिया में प्रतिकूल प्रभावित होने की संभावना है।
एम. एस. स्वामिनाथन आयोग ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु उठाए थे जो कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, गतिशीलता और वृद्धि को बढ़ावा देंगे और साथ ही खेती को किसानों के लिए लाभदायक बनाएंगे और टिकाऊ भी। तो सवाल यह है कि सरकारें स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल क्यों नहीं कर रही हैं।
जवाब बहुत आसान है। ये सिफारिशें सरकार को दीर्घावधि में किसानों को उचित मूल्य देने को बाध्य कर देंगी और सरकार यथासंभव इससे बचना चाहती हैं। तथ्य यह है कि चाहे आज एमएसपी मौजूद है किंतु सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह निर्धारित एमएसपी पर किसान की उपज खरीदे। सरकार के नज़रिए से देखें तो एमएसपी का सख्ती से पालन किया जाए और आयोग की सिफारिशों को मान्य किया जाए तथा साथ ही सार्वजनिक वितरण के लिए खाद्यान्न में रियायत दी जाए और इन खाद्य वस्तुओं की अंतिम कीमतों पर नियंत्रण भी रखा जाए तो यह काफी महंगा मामला साबित होगा। ज़ाहिर है, सरकार यथासंभव इससे बचने की कोशिश करेगी।
क्या करने की ज़रूरत है?
अलबत्ता, किसानों की तकलीफों को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाना ज़रूरी है। दिक्कत यह है कि ये सुझाव ऐसे हैं जिन पर अमल करने से अर्थ व्यवस्था पर अन्य असर होंगे और राज्य पर दबाव बढ़ेगा। यह सही है कि नागरिकों की खुशहाली राज्य का दायित्व है, लेकिन राज्य को राजस्व के प्रवाह की अन्य जटिलताओं का भी ध्यान रखना होता है। बहरहाल कुछ ऐसे उपायों पर चर्चा करते हैं जो किसानों की आमदनी बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं।
लागत और मूल्य की नीति (जैसे एमएसपी जिसमें कीमतें तय करने के लिए किसानों द्वारा वहन की गई लागत को ध्यान में रखा जाता है) से हटकर आमदनी नीति की ओर बढ़ना ज़रूरी है क्योंकि वैसे भी अधिकांश किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे हैं। यदि एमएसपी बना रहता है तो यह राज्य का वैधानिक दायित्व होना चाहिए। तभी किसान वास्तव में इससे लाभांवित हो पाएंगे।
संसद एमएसपी को लेकर कानून बना सकती है ताकि कोई भी व्यापारी किसान की उपज को एक निर्धारित मूल्य से कम पर न खरीद सके। ऐसा करने पर दंड का प्रावधान हो।
जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए ताकि किसानों को एमएसपी की जानकारी बोवनी से पहले मिल सके।
इन समाधानों के साथ समस्या यह है कि एमएसपी निर्धारण का अधिकार केंद्र सरकार के पास है क्योंकि यह सरकार पर है कि वह कितना स्टॉक रखना चाहती है और कितना बाज़ार के लिए छोड़ना चाहती है। ये सारे निर्णय केंद्र द्वारा किए जाने होते हैं। फिर भी इन्हें राज्यों के अनुसार क्रियांवित किया जाना असंभव नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि गेहूं की लागत 2500 रुपए प्रति Ïक्वटल आती है। तब भारतीय खाद्य निगम किसानों को 2500 रुपए का भुगतान करेगा और यदि यही लागत बिहार के लिए 1500 रुपए निकलती है तो बिहार सरकार 1500 रुपए प्रति Ïक्वटल का भुगतान करेगी। इससे विभिन्न राज्यों के बीच एमएसपी से मिलने वाले लाभ में समता आएगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि किसानों में इसे लेकर जागरूकता नहीं है। पूरी नीति में परिवर्तन की ज़रूरत है लेकिन सरकार इसकी अनुमति नहीं देती क्योंकि अर्थ शास्त्री मानते हैं कि खाद्य वस्तुएं सस्ती होनी चाहिए। यह मुद्रा स्फीती पर काबू रखने के लिए किया जाता है ताकि उद्योगों को कच्चा माल और हमारे जैसे अंतिम उपभोक्ताओं को सस्ते दामों पर वस्तुएं मिल सके। सबसिडी जैसी कृत्रिम व्यवस्थाओं के ज़रिए मुद्रास्फीती पर नियंत्रण रखा जाता है। सरकार को लगता है कि सबसिडी तथा अन्य ऐसी व्यवस्थाएं एक बोझ हैं – अनिवार्य हैं लेकिन बोझ तो हैं ही।
कई बार जब किसानों की आमदनी बढ़ाने की मांग होती है तो उसे यह कहकर दबा दिया जाता है कि किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो कीमतें बढ़ेंगी। इससे बचने का एक तरीका यह है कि सरकार एमएसपी से कम बाज़ार भाव पर खरीदी करे और बाज़ार भाव और एमएसपी के बीच के अंतर की राशि को सीधे प्रधान मंत्री जनधन खातों में जमा कर दे। इससे सरकार उपभोक्ताओं के लिए कीमतों पर नियंत्रण रख सकती है और किसानों के हितों की भी रक्षा कर सकती है। इससे बिचौलियों को दूर रखने में मदद मिलेगी।
स्पष्ट है कि एमएसपी की दिक्कतों से निपटने के तरीके हैं और उन स्थितियों से बचने के भी तरीके हैं जहां किसान नाखुश होते हैं। लेकिन इसके लिए दोनों ओर से प्रयास की ज़रूरत होगी। अन्यथा सारे समाधान नाकाम रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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