ठंड के साथ ही मालवा में गराड़ू (Dioscoreaalata) मिलने लगते हैं। गराड़ू बहुत स्वादिष्ट होता है। इसका छिलका निकालकर तेल में तलकर, बस थोड़ा-सा नींबू निचोड़ो और नमक व मसाला बुरबुराओ। तैयार हो गई डिश! लेकिन गराड़ू को तलने के पहले छीलना व काटना एक झंझट भरा काम होता है। गराड़ू काटते हैं तो हाथों में खुजली होती है। लगता है मानो कुछ चुभन सी हो रही हो। मामला हाथों तक ही सीमित नहीं! अगर तलने में कच्चा रह जाए तो गराड़ू गले में भी खुजली मचाता है। कच्चा खाने का तो सवाल ही नहीं उठता।
सिर्फ गराड़ू ही नहीं अरबी के पत्ते व इसके कंद की सब्जी भी अगर कच्ची रह जाए तो गले में चुभती है। तो आखिर इनमें वह क्या चीज़ है जो चुभन व खुजली पैदा करती है।
इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमने अरबी के पत्ते के एक टुकड़े को अच्छे से मसलकर उसके रस को स्लाइड पर फैलाकर सूक्ष्मदर्शी में देखा। स्लाइड में सुई जैसी रचनाएं स्पष्ट दिखाई दीं। ये महीन सुइयां कोशिकाओं में गट्ठर के रूप में जमी होती हैं। चुभन का एहसास इन्हीं की वजह से होता है।
जब हम गराड़ू काटते हैं या उसका छिलका उतारते हैं तो ये सूक्ष्म सुइयां हमें चुभ जाती है और खुजली मचाती है। वैसे गराड़ू को काटने के पहले कई लोग हाथों में तेल लगा लेते हैं। ऐसा ही कुछ अरबी के मामले में भी होता है।
मालवा के लोग इस बात से परिचित हैं कि गराड़ू और नींबू का चोली दामन का साथ है। नींबू जहां अपने खट्टेपन से स्वाद को बढ़ाता है वहीं चुभन व जलन से भी निजात दिलाता है। तो फिर से सवाल उठता है कि क्या नींबू मिलाने से वे सुइयां गायब हो जाती हैं? इस सवाल पर हम आगे बात करेंगे। लेकिन पहले हम यह समझ लेते हैं कि आखिर ये सुइयां क्या है?
ये सुइयां कैल्शियम ऑक्ज़लेट की बनी होती हैं। ये सुइयां जिन कोशिकाओं के अंदर होती है उन्हें इडियोब्लास्ट कोशिकाएं कहा जाता है। यह तो हम जानते हैं कि कोशिकाओं में कोशिकांग होते हैं। कोशिकाएं अपने सामान्य कामकाज के दौरान कई पदार्थों का निर्माण करती हैं। ये पदार्थ कोशिकाओं में एक खास आकृति में जमा हो जाते हैं। इन पदार्थों को कोशिका समावेशन (सेल इंक्लूज़न) कहा जाता है। यानी कोशिका में निर्जीव पदार्थों का समावेशन। जैसे आलू में स्टार्च के कण, नागफनी और अकाव में सितारे के आकार के कैल्शियम ऑक्ज़लेट के कण इत्यादि।
यह बताना प्रासंगिक होगा कि पौधों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के क्रिस्टल कई आकृतियों में पाए जाते हैं। जैसे, सुई के आकार में (रैफाइड), घनाकार (स्टायलॉइड्स), प्रिज़्म के आकार में, गदा के आकार में।
रैफाइड कैल्शियम ऑक्ज़लेट के सुई के आकार के क्रिस्टल होते हैं जो कुछ वनस्पति प्रजातियों के पत्तों, जड़ों, अंकुरों, फलों के ऊतकों में मौजूद होते हैं। ये किवी फ्रूट, अनानास, यैम या जिमीकंद और अंगूर सहित कई प्रजातियों के पौधों में पाए जाते हैं। यह देखा गया है कि रैफाइड आम तौर पर एकबीजपत्री वनस्पति कुलों में पाए जाते हैं और कुछेक द्विबीजपत्री कुलों में देखे गए हैं।
रैफाइड के व्यापक वितरण व विशिष्ट मौजूदगी के बावजूद इनकी प्राथमिक भूमिका को लंबे वक्त तक नहीं समझा गया था। कैल्शियम के नियमन, पौधों की शाकाहारियों से सुरक्षा जैसी बातें कही गई हैं। शाकाहारी जंतुओं से सुरक्षा के मामले में एक पुराना अवलोकन है। पहली बार एक जर्मन वैज्ञानिक अर्न्स्ट स्टॉल ने देखा था कि घोंघे उन पौधों को अपना आहार नहीं बनाते जिनमें रैफाइड होते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि अगर उन पौधों की पत्तियों को मसलकर उसमें थोड़ा अम्ल डाल दिया जाए तो फिर घोंघे उसे अच्छे से खाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अम्ल की कैल्शियम ऑक्ज़लेट से रासायनिक क्रिया से सुइयां गल जाती है। अब स्पष्ट हो गया होगा कि नींबू क्या करता है।
दरअसल, रैफाइड शाकाहारी जीव के खिलाफ पौधों की रक्षात्मक रणनीति है। पौधे अपने को बचाने के लिए कई तरीके अपनाते हैं। कहीं कांटे तो कहीं द्वितीयक उपापचय पदार्थ होते हैं। रैफाइड ऊतकों और कोशिका झिल्लियों में छेद करने का काम करते हैं। इसे सुई प्रभाव (निडिल इफेक्ट) कहा जाता है। यह देखा गया है कि जिन पौधों में रैफाइड मिलते हैं उनमें प्रोटीएज़ एंज़ाइम पाए जाते हैं। इन प्रोटीएज़ व रैफाइड की जुगलबंदी का ही कमाल है कि इनको काटने व खाने के दौरान चुभन व जलन होती है।
एक शोध में रैफाइड व प्रोटीएज़ के प्रभाव को देखने की कोशिश की गई। वैज्ञानिकों ने रैफाइड वाले किवी फ्रूट (एक्टिनिडिया डेलिसिओसा) से रैफाइड प्राप्त किए। सबसे पहले केवल रैफाइड का लेपन अरंडी की पत्ती पर किया और उस पर लार्वा को छोड़ा। इस स्थिति में लार्वा पर कोई प्रभाव नहीं दिखा और सभी लार्वा ज़िंदा रहे। जब रैफाइड सुइयों को अरंडी की पत्ती पर अधिक सांद्रता के साथ लेपन किया गया तो भी लार्वा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया। इसका अर्थ यह है कि केवल रैफाइड सुई की कोई भूमिका नहीं है।
फिर जब अरंडी की पत्ती पर केवल सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया तब भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन जब अरंडी की पत्ती पर रैफाइड और सिस्टाइन प्रोटीएज़ दोनों का लेपन किया तो 69 फीसदी लार्वा का शरीर काला पड़ गया व लगभग दो घंटे में मर गए। नतीजों में यह भी पाया गया कि जब बहुत थोड़े रैफाइड के साथ सिस्टाइन प्रोटीएज़ की मात्रा को बढ़ाया गया तो विषाक्तता 16-32 गुना बढ़ गई।
बेशक, रैफाइड सुई का काम कोशिकाओं को पंचर करने का होता है। जब कैल्शियम ऑक्ज़लेट की सुइयों की बजाय अक्रिस्टलीय कैल्शियम ऑक्ज़लेट व साथ में सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया, तो भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। इससे साबित होता है कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट से बनी सुई की भूमिका अहम है, न कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट की। यह भी देखा गया है कि काइटिन पचाने वाले प्रोटीएज़ एंज़ाइम के साथ भी रैफाइड इसी प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं।
एक अनुभव और। घर के आंगन में डफनबेकिया का एक सजावटी पौधा गमले में लगा था। गमले में गुलाब, चांदनी जैसे और भी पौधे थे। अगर घर का गेट खुला रह जाता तो गमले के पौधों को बकरियां चट कर जाती। लेकिन वे डफनबेकिया के पौधे को नहीं खाती थीं। खोजबीन करने पर पता चला कि डफनबेकिया के पौधे की पत्तियों में भी रैफाइड सुइयां होती हैं।
कुल मिलाकर रैफाइड और प्रोटीएज़ की जुगलबंदी कुछ पौधों की रक्षा प्रणाली है। इसकी प्रबल संभावनाएं हैं कि रैफाइड और रक्षात्मक प्रोटीएज़ के बीच तालमेल से फसलों की कीट-प्रतिरोधी किस्मों के विकास में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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