सरकार ने हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में बदलाव करने के लिए एक अधिसूचना जारी की है जिस पर जनता की राय और सार्वजनिक टिप्पणियां मांगी गई हैं। यदि यह अधिसूचना लागू हो जाती है तो 2006 के बाद की सभी परियोजनाओं के लिए पूर्व में लागू पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 निरस्त हो जाएगी।
भोपाल गैस त्रासदी के बाद 1986 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू किया गया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जीवन की इतनी बड़ी हानि फिर कभी ना हो। पर्यावरण प्रभाव आकलन दरअसल पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की एक प्रक्रिया है; सभी प्रस्तावित परियोजनाओं को निर्माण शुरू करने से पहले इस प्रक्रिया से गुज़रना होता है और उसके बाद ही उन्हें हरी झंडी मिलती है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं की उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तावित रूप में परियोजना शुरू की जा सकती है या नहीं। परियोजनाओं का आकलन विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (EAC) करती है। यह समिति वैज्ञानिकों और परियोजना प्रबंधन विशेषज्ञों से मिलकर बनी होती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा परियोजना की जांच करके प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार की जाती है। समिति इस जांच के दायरे को भी निर्धारित करती है।
इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, परियोजना पर सार्वजनिक विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसमें परियोजना से प्रभावित लोगों सहित अन्य लोगों से आपत्तियां आमंत्रित की जाती हैं। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति परियोजना का अंतिम आकलन करती है और रिपोर्ट पर्यावरण और वन मंत्रालय को सौंप देती है। सामान्यत: नियामक प्राधिकरण समिति द्वारा दिए गए निर्णय को स्वीकार करने के लिए बाध्य होता है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन के वैश्विक पर्यावरण कानून का मकसद ऐहतियात बरतना है; ऐहतियात इसलिए क्योंकि पर्यावरणीय नुकसान अक्सर अपरिवर्तनीय होते हैं। जैसे वनों की कटाई के कारण हुए भू-क्षरण को ठीक नहीं किया जा सकता या वापस पलटा नहीं जा सकता। आर्थिक और वित्तीय दृष्टि से देखें, तो भी क्षति ना होने देना, उसे ठीक करने की तुलना में बेहतर है। यही कारण है कि हम सुरक्षात्मक नीतियों की अंतर्राष्ट्रीय संधियों और शर्तों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं।
चूंकि सभी पर्यावरणीय नियम पर्यावरण की क्षति और सतत विकास के बीच संतुलन रखने के लिए हैं, इसलिए निष्पक्ष आकलन अनिवार्य है। यह उन नौकरियों और इंफ्रास्ट्रक्चर के नुकसान से भी बचाएगा जो तब होगा जब किसी परियोजना को निर्वहनीय साबित करने से पहले शुरू कर दिया जाएगा। अलबत्ता, व्यवसाय और उद्योग हमेशा से पर्यावरण प्रभाव आकलन को नई परियोजना शुरू करने की राह में एक रोड़ा मानते रहे हैं।
ऐसा कहा जा रहा है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन की नई अधिसूचना पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया को सुगम बनाती है और इसे हाल के फैसलों के अनुरूप करती है। यह भी दावा किया जा रहा है कि इन नए परिवर्तनों से कारोबार करने में आसानी होगी। जबकि वास्तविकता इससे काफी अलग है। पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया को सुगम बनाने की आड़ में तैयार नया मसौदा इसे कमज़ोर कर रहा है, इसके दायरे को कम कर रहा है और इसकी शक्तियां छीन रहा है। अधिसूचना में कई बदलाव प्रस्तावित हैं, यहां हम उनमें से कुछ मुख्य संशोधनों पर एक नज़र डालेंगे।
पर्यावरण प्रभाव आकलन के संशोधन में सबसे विनाशकारी संशोधन एक्स-पोस्ट-फेक्टो क्लीयरेंस (यानी कार्य पूर्ण हो जाने के बाद मंज़ूरी) का विकल्प देना है। यानी इस संशोधन से उन परियोजनाओं को भी मंज़ूरी प्राप्त करने का मौका मिलेगा जो पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करती हैं। ऐसी स्थिति में यदि परियोजनाओं द्वारा शुरुआत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की मंजूरी नहीं मांगी गई और परियोजना शुरु कर दी गई तो भी परियोजना अधिकारी बाद में आकलन प्रक्रिया करवा सकते हैं। इस उल्लंघन के लिए कुछ हर्जाना भरकर, परियोजना के लिए मंज़ूरी ली जा सकती है।
पहले भी परियोजनाओं को इस तरह एक्स-पोस्ट-फेक्टो मंज़ूरियां दी जा रही थीं लेकिन अवैध होने के कारण अदालतों ने उन पर शिकंजा कस दिया था। अब नई अधिसूचना में प्रस्तावित संशोधन अदालत के इन फैसलों को दरकिनार करता है, हालांकि यह देखना बाकी है कि दरकिनार करने का हथकंडा वैध है या नहीं।
यह संशोधन नई परियोजना शुरु करने वालों को यह विकल्प देता है कि वे या तो परियोजना शुरू करने के पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया से गुज़रें या पहले परियोजना शुरू कर लें और फिर बाद में जुर्माना अदा कर अपनी परियोजना को मान्यता दिलवा लें। वे कौन-सा विकल्प चुनते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों में से कौन-सा विकल्प व्यवसाय या परियोजना के लिए वित्तीय रूप से बेहतर है। यानी यदि विकल्पों का यह नियम बन जाता है, पर्यावरण प्रभाव आकलन का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा।
परियोजना की निगरानी की व्यवस्था में भी कुछ ढील दी गई है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के नवीन मसौदे में वार्षिक रिपोर्ट देने की बजाए द्विवार्षिक रिपोर्ट देने की छूट दी गई है। और खनन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए एक बार मिली मंज़ूरी की वैधता की अवधि को बढ़ा दिया गया है। ये कदम ना केवल पर्यावरण को होने वाले नुकसान को बढ़ाएंगे, बल्कि ऐसे मामलों में पर्यावरण प्रभाव आकलन की पहुंच को भी बाधित करने का काम करेंगे।
पर्यावरण प्रभाव आकलन के अन्य महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक संशोधन श्रेणी-बी की परियोजनाओं के सम्बंध में किया गया है। चूंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन की अनिवार्यता की सीमा को बी-2 श्रेणी की परियोजनाओं के नीचे ले आया गया है, इसलिए ये परियोजनाएं अब पूरी तरह से पर्यावरण प्रभाव आकलन और सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया से मुक्त होंगी। इसका मतलब है कि 25 मेगावॉट से कम की सभी पनबिजली परियोजनाओं और 2,000-10,000 हैक्टर के बीच सिंचित क्षेत्र वाली सभी सिंचाई परियोजनाओं को मंज़ूरी के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाने या सार्वजनिक विमर्श की आवश्यकता नहीं रहेगी।
पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 और वर्तमान में प्रस्तावित मसौदे में एक अन्य महत्वपूर्ण अंतर है। 2006 की अधिसूचना में यदि श्रेणी-बी की किसी परियोजना का कुछ हिस्सा या पूरी परियोजना संरक्षित क्षेत्र की सीमा, या गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र, या पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र या अंतर-राज्य और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित होती थी तो ऐसी श्रेणी-बी की परियोजना को श्रेणी-ए की परियोजना की तरह देखा जाता था। नए मसौदे में संशोधन किया गया है कि उपरोक्त शर्तों को पूरा करने वाली सभी बी-1 श्रेणी की परियोजनाओं का विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा आकलन तो किया जाएगा लेकिन अब उन्हें श्रेणी-ए की परियोजनाओं के रूप में नहीं देखा जाएगा। नए मसौदे के इस स्पष्टीकरण से लगता है कि इन परियोजनाओं की आकलन प्रक्रिया उतनी गहन नहीं रहेगी।
यह मसौदा परियोजना पर जनता की टिप्पणी या प्रतिक्रिया देने की समयावधि को भी कम करता है। परियोजना प्रभावित अधिकतर लोग या तो जंगलों में रहते हैं या टेक्नॉलॉजी या जानकारी तक उनकी पहुंच मुश्किल होती है। यह संशोधन उनके प्रतिनिधित्व को कम करता है।
पर्यावरण प्रभाव आकलन के दायरे में कमी की वजह से वह अपने उद्देश्य से इतना भटक गया है कि शायद अप्रासंगिक ही हो जाए। वे उद्योग जो पहले संपूर्ण आकलन की आवश्यकता वाली श्रेणी में आते थे, अब उस श्रेणी में नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा लाभ निर्माण उद्योग को होगा जहां केवल बहुत बड़ी परियोजनाओं की ही पूरी जांच की जाएगी। रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की परियाजनाओं को तो हमेशा ही पर्यावरण प्रभाव आकलन से छूट रही है लेकिन अब परियोजनाओं की एक नई श्रेणी प्रकट हुई है: ‘जिनमें अन्य रणनीतिक आधार शामिल हों’। यह भी पर्यावरण प्रभाव आकलन से मुक्त होगी। तो सवाल यह उठता है कि क्या परमाणु संयंत्र या पनबिजली परियोजनाएं ऐसी परियोजनाओं के अंतर्गत आएंगे?
कुछ लोग पर्यावरण प्रभाव आकलन के निशक्तीकरण को लोकतंत्र-विरोधी भी मान रहे हैं क्योंकि इससे प्रभावित कुछ समुदायों के स्थानीय पर्यावरण में विनाशकारी बदलाव उनकी आजीविका को नुकसान पहुंचा सकते हैं। सार्वजनिक विचार अस्तित्व-सम्बंधी खतरों पर एक जनमत संग्रह है। सार्वजनिक विमर्श प्रक्रिया को कम या सीमित करना उसी तरह है जिस तरह उन लोगों की आवाज़ को शांत करना जिनके पास बोलने के मौके पहले ही कम हैं।
सरकार यह तर्क दे सकती है कि कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है और यह अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में एक आवश्यक कदम है। लेकिन उसके कार्यों से तो लगता है कि वह पर्यावरण नियमों को कारोबार करने की सुगमता में बाधा मानती है। लॉकडाउन के दौरान, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने तेज़ी से परियोजनाओं को हरी झंडी देने का काम किया है। जब पर्यावरण व वन मंत्री और भारी उद्योग मंत्री एक ही व्यक्ति हो तो हितों का टकराव होना तय है। दो मंत्रालय जो सामान्यत: दूसरे के विरोध में काम करते हैं, वे एक ही व्यक्ति के पास हैं।
इस ढिलाई के साथ और उदार तरीके से परियोजनाओं को मंज़ूरी देने का एक उदाहरण हाल ही में देखने को मिला है। ऑयल इंडिया लिमिटेड के तेल के कुएं संरक्षित जंगलों से केवल कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर स्थित थे। पिछले दिनों जब इन तेल के कुओं से आग की लपटें उठीं, तो नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी की बजाय बहानेबाज़ी और फेरबदल की नई प्रक्रियाएं शुरू कर दी गर्इं।
मंज़ूरी ना लेने का एक अन्य उदाहरण विशाखापट्टनम स्थित एलजी पॉलीमर संयंत्र से घातक गैस रिसाव के रूप में सामने आया, जिसमें बारह लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोगों को नुकसान पहुंचा। इस त्रासदी के बाद पता चला कि यह संयंत्र एक दशक से भी अधिक समय से बिना पर्यावरणीय मंज़ूरी के काम कर रहा था।
यह स्पष्ट है कि पर्यावरणीय विनियमन एक संतुलन अधिनियम है जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को कम करते हुए टिकाऊ वृद्धि और विकास की अनुमति देना है। लेकिन क्या लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के इरादे ने सरकार में औद्योगिक विकास का पक्ष लेने की आतुरता पैदा की, वह भी कारोबार को आसान बनाने के ढोंग और विदेशी निवेश आकर्षित करने के दावों के आधार पर? एक अन्य सवाल जो परेशान करता है कि जब तक पर्यावरण क्षति के परिणाम नज़र आने शुरू होंगे, तब तक क्या पर्यावरणीय क्षति को कम करने के हमारे प्रयासों में बहुत देरी नहीं हो जाएगी और क्या वे बहुत नाकाफी साबित नहीं होंगे?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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