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प्लास्टिक: एक और मौका हाथ से गया – गुरुस्वामी कुमारस्वामी

स वर्ष गुड़ी पड़वा (18 मार्च 2018, पारंपरिक नव वर्ष) पर महाराष्ट्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की जिसके ज़रिए प्लास्टिक और थर्मोकोल उत्पादों के उपयोग पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया गया। अधिसूचना में, इस प्रतिबंध को उचित सिद्ध करते हुए गैर-जैव-विघटनशील प्लास्टिक, खास तौर पर कम समय के लिए उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक, से होने वाली समस्याओं का ज़िक्र किया गया है। मुख्य समस्याओं में प्लास्टिक की वजह से नालियों के अवरुद्ध होने, समुद्री जीवन और उसकी विविधता पर खतरा, पर्यावरण में ऐसे प्लास्टिक का बढ़ते जाना और स्वास्थ्य पर प्रभाव शामिल बताए गए हैं। इस प्रतिबंध में दवाइयों के लिए प्लास्टिक पैकेजिंग की अनुमति दी गई है। दूध के पाउच पर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया है – हालांकि, इस तरह के प्रत्येक बैग पर वापस खरीद का मूल्य मुद्रित होगा। और जून 2018 तक सरकार द्वारा इनके संग्रह का एक तंत्र स्थापित करने की बात कही गई है। यहां, मैं इस प्रतिबंध, या इसके कार्यान्वयन की खूबियों-खामियों में नहीं जाऊंगा। दरअसल यह आलेख, रविवार की सुबह सुपरमार्केट में मैंने जो कुछ भी देखा उसी से प्रेरित है।

प्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री के प्रचलन को देखते हुए, मैं यह सोच रहा था कि समाज और स्थानीय व्यवसाय इस प्रतिबंध के प्रभावों का सामना कैसे करेंगे। एक समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख में अखिल भारतीय प्लास्टिक निर्माता संघ के हवाले से बताया गया है कि इस प्रतिबंध के कारण लगभग 4 लाख लोगों की नौकरियां छिन जाने का अनुमान है। राज्य सरकार ने प्रतिबंध को लागू करने का काम स्थानीय सरकार, नगर पालिकाओं, आदि को सौंपा है। इस कार्य के चुनौतीपूर्ण होने की संभावना है क्योंकि ज़्यादातर स्थानीय निकाय पहले ही संसाधनों के अभाव से त्रस्त हैं। ऐसे में हो सकता है कि वे बार-बार नियमों का उल्लंघन करने वालों पर नज़र रखने और पहचानने में सक्षम न हो सकें (जैसा कि नए कानून में प्रावधान है)। होगा यह कि कम से कम कुछ समय तक, मोहल्ले की किराना दुकान जैसे छोटे व्यवसायी पॉलीबैग त्यागने को राज़ी नहीं होंगे और प्रबंधन के उपाय तलाश करने की कोशिश करेंगे (जैसे सम्बंधित लागतों को उपभोक्ताओं से वसूल कर)। राज्य सरकार जब तक इस प्रतिबंध की कानूनी चुनौतियों से निपटे, तब तक वे शायद थोड़ी प्रतीक्षा करने की रणनीति अपनाएंगे। यह आलेख इस पहलू को भी तलाशने का इरादा नहीं रखता है।

आज सुबह खरीदारी करते वक्त मैं यह सोच रहा था कि इतने बड़े-बड़े सुपरमार्केट जो प्लास्टिक पैकेजिंग पर उतने ही निर्भर हैं (लेकिन छोटे किराना स्टोर्स जैसी रणनीतियों का उपयोग नहीं कर सकते) वे इस परेशानी से कैसे निपटेंगे। इस मुद्दे में मेरी दिलचस्पी संभवतः दूसरों के मुकाबले ज़्यादा है, क्योंकि मैं प्लास्टिक पर काम करता हूं और अपशिष्ट निपटान से सम्बंधित मुद्दों पर नगर पालिका को सलाह भी देता हूं। मैं प्लास्टिक पैकेजिंग के कारण उत्पन्न समस्याओं के बारे में सचेत हूं। और, मैं पॉलीथीन (एलएलडीपीई) की कम लागत को लेकर भी जागरूक हूं और यह भी जानता हूं कि उसकी खूबियों की बराबरी करना मुश्किल है। तो, मुझे स्पष्ट है कि परिवर्तन लाने में नियमन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। लेकिन मैं भटक रहा हूं। जब मैं सुपरमार्केट गया तो देखा कि उन्होंने एक गैर-पॉलीथीन, जैव-विघटनशील बैग अपनाया हुआ था।

ये बैग एक गुजरात स्थित कंपनी बायोलाइस नामक सामग्री से बनाकर सप्लाई करती है। बायोलाइस जैविक पदार्थ से बनाया जाता है और यह एक जैव-विघटनशील झिल्ली बना सकता है। इसे फ्रांस में लीमाग्रेन द्वारा विकसित किया गया है। इसके मार्केटिंग वीडियो में दावा किया गया है कि इसे गैर-खाद्य स्रोतों से तैयार किया गया है (हालांकि इसके अपने साहित्य का यह भी कहा गया है कि इसमें मक्का के आटे का उपयोग हुआ है)। लीमाग्रेन की वेबसाइट कहती है कि वह एक सहकारी समूह है जिसकी स्थापना व संचालन किसानों (संभवत: फ्रांसीसी) द्वारा किया जाता है। लगभग 90 पेटेंट से यह स्पष्ट है कि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के लिए व्यापक अनुसंधान किया गया है। पॉलीथीन पैकेजिंग झिल्लियों में फटने का विरोध करने की सामथ्र्य से मेल खाने वाले विकल्प बहुत कम हैं, लेकिन आज सुबह जो बैग मैंने देखे उससे मैं काफी प्रभावित था। कुल मिलाकर यह एक अद्भुत तकनीकी नवाचार है जो चीनी प्रयोगशाला से उत्पादन के चरण में पहुंचकर अब सुपरमार्केट में उपयोग किया जा रहा है।

तो इस अनुभव ने मुझे व्याकुल क्यों किया? मुख्य रूप से इसलिए कि यहां मैंने देखा कि हमने एक अवसर गंवा दिया है – अवसर था उद्योग में व्यवधान को कम से कम रखते हुए पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव डालने के साथ-साथ स्थानीय नवाचार नेटवर्क को मज़बूत करने का। एक वैकल्पिक परिदृश्य की कल्पना कीजिए। एक बड़े राज्य की सरकार प्लास्टिक पैकेजिंग पर प्रतिबंध लागू करने का निर्णय लेती है, मगर यह जानती है कि पॉलीथीन के कोई व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। तो वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से संपर्क करती है और उसे इस स्पष्ट लक्ष्य के साथ धन देती है कि एक निर्धारित समय सीमा के अंदर कोई विकल्प विकसित किया जाए। डीएसटी तब राज्य नवाचार परिषद, विज्ञान व इंजीनियरिंग अकादमियों और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) जैसे उद्योग संगठनों के साथ मिलकर इसके लिए प्रस्ताव आमंत्रित करता है। डीएसटी विशेषज्ञता वाले संस्थानों से सीधे अनुरोध भी कर सकता है। पॉलीथीन-जैसे गुणों के साथ एक विकल्प विकसित करने के लिए ज़रूरी अनुसंधान और बुनियादी नवाचार एक वर्ष में नहीं हो सकता है (ध्यान दें कि लीमाग्रेन के पेटेंट का प्रथम आवेदन 2000 या उससे पहले दिया गया था)। अलबत्ता, ज़रूरत अर्जेंट हो (जैसे, प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया जा चुका हो) और उत्पाद को विकसित करने के लिए वित्त पोषण दिया जाए एवं उद्योग इसे करने को तैयार हो (जैसा मैनहटन परियोजना में हुआ था) तो क्या एक सार्थक विकल्प उभर सकता है? शायद, बगासे जैसे स्थानीय कच्चे माल (जिसे वर्तमान में विद्युत सह-उत्पादन संयंत्रों में जला दिया जाता है) के आधार पर? ऐसा कुछ करने के संदर्भ कौन-से तत्व नदारद हैं? मिलिंद सोहनी का मत है कि भारतीय अकादमिक जगत को स्थानीय चुनौतियों को उठाना चाहिए तथा स्थानीय नीति निर्माताओं के साथ बेहतर समन्वय/सहयोग करना चाहिए। अतुल भाटिया के मुताबिक यह समय अकादमिक जगत और उद्योग के बीच सहयोग स्थापित करने के लिए सही समय है।

मेरा ख्याल है कि एक महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या के संदर्भ में, यह सब करने के लिए हमारे पास एक बेहतरीन अवसर था। यदि इस परिवर्तन की योजना और व्यवस्था सावधानीपूर्वक बनाई जाती तो इस प्रतिबंध के कारण होने वाली समस्याओं को कम किया जा सकता था। और साथ ही साथ, सरकार, अकादमिक जगत और उद्योग के बीच साझेदारी निर्मित होती जो नवाचारों की श्रृंखला को और मज़बूत करती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Indiamart

 

 

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