अक्षय उर्जा में वृद्धि का असर डिस्कॉम्स की वित्तीय हालत पर होगा। यदि ठीक तरह से प्रबंधन न किया गया, तो छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को कष्ट उठाना पड़ सकता है। लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों पर तीन लेखों में से अंतिम है
बीसवीं शताब्दी में नियोजन का प्रमुख मकसद था भविष्य में बिजली की मांग का अनुमान लगाना, अधिक से अधिक पारंपरिक बिजली उत्पादन क्षमता स्थापित करना और इसे ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से लोड केंद्रों से जोड़ना।
उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति किसी एकाधिकार प्राप्त संस्था द्वारा की जाती थी जिसमें आपूर्ति शृंखला के सभी स्तरों का एक ही मालिक होता था। मूल्य निर्धारण क्रॉस सब्सिडी के सिद्धांत पर आधारित होता था, जिसमें बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ता ऊंचे शुल्क का भुगतान करते थे ताकि कृषि और घरों के लिए सस्ता शुल्क सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है, मुख्यत: राष्ट्रीय नीतिगत पहल और वैश्विक तकनीकी-आर्थिक परिवर्तनों के कारण।
एक तरफ अक्षय उर्जा सस्ती हो रही है तथा बैटरी भंडारण की लागत भी कम हो रही हैं तथा दूसरी ओर कोयला आधारित बिजली की लागत बढ़ रही है। इनका मिला-जुला परिणाम होगा कि बिजली आपूर्ति में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ेगी। लंबे समय में, इससे परिवहन, खाना पकाने और उद्योगों जैसे कई अन्य क्षेत्रों में विद्युतीकरण बढ़ने की संभावना है। इससे स्थानीय वायु प्रदूषण, ऊर्जा सुरक्षा और बढ़ते ऊर्जा आयात बिल जैसी समस्याओं को आंशिक रूप से संबोधित किया जा सकता है। ये रुझान ऊर्जा क्षेत्र में आमूल बदलाव ला सकते हैं।
सबके लिए बिजली की सस्ती और भरोसेमंद पहुंच के साथ–साथ खाना पकाने के आधुनिक और स्वच्छ र्इंधन के के प्रति सभी दलों ने व्यापक प्रतिबद्धता दिखाई है जो स्वागत योग्य है। अलबत्ता, इसे टिकाऊ वास्तविकता में बदलने के लिए बहुत काम करना होगा।
वर्तमान में, सरकार के भीतर ज़रूरतों के आकलन और प्राथमिकताएं तय करने, तथा परिवर्तन और जोखिमों का अंदाज़ा लगाकर उनके लिए तैयारी करने को लेकर एक सीमित गंभीरता है। इसके चलते संसाधनों के फंस जाने और पुराने रास्ते पर निर्भरता की समस्या हो सकती है क्योंकि निवेश लंबे समय के लिए होते हैं और पूंजी पर निर्भर होते हैं।
इस तरह की दिक्कत से बचने के लिए दो कदम महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले, महत्वपूर्ण डैटा की सार्वजनिक उपलब्धता की खामियों और विसंगतियों को संबोधित किया जाना चाहिए। दूसरा, सरकार के भीतर विश्लेषणात्मक क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।
ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय
नीति और निर्णय में सरकार की मदद करने के लिए, एक विश्लेषणात्मक एजेंसी की स्थापना करने की आवश्यकता है जिसे डैटा एकत्र करने और तालमेल बैठाने, रुझानों का विश्लेषण करने, रिपोर्ट प्रकाशित करने और नीतिगत हस्तक्षेपों का सुझाव देने का अधिकार हो। यह एजेंसी मौजूदा तकनीकी एजेंसियों जैसे केंद्रीय विद्युत अभिकरण (सीईए), पेट्रोलियम नियोजन व विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) और सीसीओ से अधिक से अधिक लाभ उठाएगी।
इस एजेंसी को ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय (ईएओ) कह सकते हैं। इसमें कई मंत्रालयों को शामिल किया जाना चाहिए। ऐसे कार्यालय के प्रभावी होने के लिए दो प्रमुख शर्तें हैं: नीतिगत प्रासंगिकता और राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्रता।
यह संतुलन बनाने के लिए ईएओ को कार्यपालिका के प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सकता है किंतु इसके बजट की स्वीकृति तथा कार्य की समीक्षा संसद द्वारा की जाए। ईएओ को ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों के प्रति दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखना चाहिए और कार्यपालिका को नीति सम्बंधी इनपुट प्रदान करना चाहिए। जन भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
छोटे पर ध्यान
ऊर्जा के क्षेत्र में, अक्षय ऊर्जा और उसके भंडारण में विकास के चलते बड़े उपभोक्ताओं के लिए वैकल्पिक व सस्ते स्रोत खोजने के कई अवसर पैदा हो रहे हैं। लेकिन, यही उपभोक्ता ऊंचा भुगतान करते हैं। येहाथ से निकल जाने पर राजस्व की जो हानि होगी, वह बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के वर्तमान व्यापार मॉडल के अंत का संकेत है।
डिस्कॉम के भविष्य को लेकर दो गंभीर निहितार्थ हैं। आपूर्ति की लागत में से 70 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा तो बिजली खरीद का होता है। जब मांग अनिश्चित हो जाएगी तो बिजली की खरीद अधिक जटिल और जोखिम भरा काम हो जाएगा। इसके साथ ही, क्रॉस सब्सिडी देने वाले उपभोगताओं के कम होने से या तो छोटे, ग्रामीण और कृषि उपभोगताओं से वसूला जाने वाला शुल्क बढ़ेगा या राज्य द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में तेज़ी से वृद्धि ज़रूरी हो जाएगी।
यदि ठीक तरह से प्रबंधन नहीं किया गया, तो इन परिवर्तनों के कारण डिस्कॉम के लिए गंभीर वित्तीय संकट पैदा हो जाएगा, छोटे उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति की गुणवत्ता में कमी आएगी, परिसंपत्तियां बेकार पड़ी रहेंगी और कंपनियों को वित्तीय संकट से निकालने के लिए बेल-आउट की व्यवस्था करनी होगी जिसका असर बेंकिंग क्षेत्र पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा।
इस तरह की समस्याओं से बचने के लिए ज़रूरी है कि डिस्कॉम्स के नियोजन और संचालन के तरीकों में मूलभूत परिवर्तन लाए जाएं। बाज़ार और प्रतिस्पर्धा बढ़ते क्रम में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। बड़े उपभोक्ताओं को अपने लिए आपूर्तिकर्ता चुनने की अनुमति देने से उन्हें लागत कम करने में मदद मिलती है, और इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि को भी युक्तिसंगत बनाया जा सकता है। डिस्कॉम्स को गहन मांग-आपूर्ति विश्लेषण के बिना नई बेसलोड क्षमता जोड़ने से बचना होगा।
कृषि फीडर को सौर-संयंत्रों से जोड़ने से सब्सिडी को कम करने में मदद मिलेगी और किसानों को दिन के वक्त भरोसेमंद आपूर्ति दी जा सकेगी। इन उपायों से डिस्कॉम्स को छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को आपूर्ति और सेवा में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की गुंजाइश मिलेगी। ऊर्जा परिवर्तन एक अवसर प्रदान करता है जिसमें संसाधनों को अकार्यक्षम ढंग से उलझने से बचाया जा सकेगा और साथ में काफी पर्यावरणीय व आर्थिक लाभ भी मिलेगे। लेकिन यदि इस परिवर्तन का प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया तो अफरा-तफरी मच जाएगी जिसका खामियाज़ा शायद छोटे व ग्रामीण व छोटे उपभोक्ता भरेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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