स्कूलों में स्वच्छता अभियान अपने आप में तो बहुत ज़रूरी है ही, साथ ही इससे शिक्षा व स्वास्थ्य में व्यापक स्तर पर सुधार की बहुत संभावनाएं हैं। अनेक किशोरियों के स्कूल छोड़ने व अध्यापिकाओं के ग्रामीण स्कूलों में न जाने का एक कारण शौचालयों का अभाव रहा है। अब शौचालय का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है, पर निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। चारदीवारी न होने से शौचालय के रख-रखाव में कठिनाई होती है। छात्राओं व अध्यापिकाओं के लिए अलग शौचालयों का निर्माण कई जगह नहीं हुआ है।
एक बहुत बड़ी कमी यह है कि हमारे मिडिल स्तर तक के अधिकांश स्कूलों में, विशेषकर दूर-दूर के गांवों में एक भी सफाईकर्मी की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से सफाई का बहुत-सा भार छोटी उम्र के बच्चों पर आ जाता है। सफाई रखने की आदत डालना, स्वच्छता अभियान में कुछ हद तक भागीदारी करना तो बच्चों के लिए अच्छा है, पर सफाई का अधिकांश बोझ उन पर डालना उचित नहीं है। अत: शीघ्र से शीघ्र यह निर्देश निकलने चाहिए कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम एक सफाईकर्मी अवश्य हो। जो स्कूल छोटे से हैं, वहां सफाईकर्मी को सुबह के 2 या 3 घंटे के लिए नियुक्त करने से भी काम चलेगा।
मध्यान्ह भोजन पकाने की रसोई को साफ व सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है। रसोई में स्वच्छता के उच्च मानदंड तय होने चाहिए व इसके लिए ज़रूरी व्यवस्थाएं होनी चाहिए। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाओं का वेतन बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इस समय तो उनका वेतन बहुत कम है जबकि ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।
मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम की वजह से स्कूल में स्वच्छ पानी की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। ठीक से हाथ धोने की आदत वैसे तो सदा ज़रूरी रही है, पर अब और ज़रूरी हो गई है। ऐसी व्यवस्था स्कूल में होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से खाना खाने से पहले व बाद में तथा शौचालय उपयोग करने के बाद भलीभांति हाथ धो सकें।
इनमें से कई कमियों को दूर कर स्कूल में स्वच्छता का एक मॉडल मैयार करने का प्रयास आगा खां विकास नेटवर्क से जुड़े संस्थानों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के सैकड़ों स्कूलों में किया है। बिहार में ऐसे कुछ स्कूल देखने पर पता चला कि छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग अच्छी गुणवत्ता के शौचालय बनवाए गए हैं। उनमें भीतर पानी की व्यवस्था है व बाहर वाटर स्टेशन है। पानी के नलों व बेसिन की एक लाइन है जिससे विद्यार्थी बहुत सुविधा से हाथ धो सकते हैं। स्कूलों में साबुन उपलब्ध रहे इसके लिए सोप बैंक बनाया गया है। बच्चे अपने जन्मदिन पर इस सोप बैंक को एक साबुन का उपहार देते हैं।
किशोरियों को मीना मंच के माध्यम से माहवारी सम्बंधी स्वच्छता की जानकारी दी जाती है। स्कूल में एक ‘स्वच्छता कोना’ बनाकर वहां स्वच्छता सम्बंधी जानकारी या उपकरण रखवाए जाते हैं। बाल संसद व मीना मंच में स्वच्छता की चर्चा बराबर होती है। छात्र समय-समय पर गांव में स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता की रोचक शिक्षा के लिए विशेष पुस्तक व खेल तैयार किए गए हैं। सप्ताह में एक विशेष क्लास इस विषय पर होती है। स्वच्छता के खेल को सांप-सीढ़ी खेल के मॉडल पर तैयार कर रोचक बनाया गया है।
इन प्रयासों में छात्रों व अध्यापकों दोनों की बहुत अच्छी भागीदारी रही है, जिससे भविष्य के लिए उम्मीद मिलती है कि ऐसे प्रयास अधिक व्यापक स्तर पर भी सफल हो सकते हैं। अभिभावकों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूक होते हैं तो इसका असर घर-परिवार व पड़ौस तक भी ले आते हैं। जिन स्कूलों में सफल स्वच्छता अभियान चले हैं व स्वच्छता में सुधार हुआ है, वहां शिक्षा के बेहतर परिणाम प्राप्त करने में भी मदद मिली है तथा बच्चों में बीमार पड़ने की प्रवृत्ति कम हुई है।
अलबत्ता, एक बड़ी कमी यह रह गई है कि बहुत से स्कूलों के लिए बजट में सफाईकर्मी का प्रावधान ही नहीं है और किसी स्कूल में एक भी सफाईकर्मी न हो तो उस स्कूल की सफाई व्यवस्था पिछड़ जाती है। इस कमी को सरकार को शीघ्र दूर करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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