टिकाऊ भविष्य के लिए ऊर्जा

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोयला बिजली संयंत्रों (coal power plants) से बहुत अधिक वायु प्रदूषण (air pollution) होता है, जो मनुष्यों और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य (human health) को प्रभावित करता है। हाल ही में, स्टैनफोर्ड डोएर स्कूल ऑफ सस्टेनेबिलिटी के डॉ. कीरत सिंह और उनके साथियों ने बताया है कि भारत में कोयला बिजली संयंत्रों से होने वाले नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (Nitrogen Dioxide (NO2)) और ओज़ोन उत्सर्जन (ozone emissions) के कारण गेहूं और धान जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार (crop yield) में कमी आती है। नाप-जोख कर उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारत के कुछ हिस्सों में पैदावार का वार्षिक नुकसान (crop loss) 10 प्रतिशत से अधिक है। यह नुकसान पिछले छह वर्षों में उपज में हुई औसत वृद्धि के लगभग बराबर है। उन्नत किस्मों, बेहतर सिंचाई (irrigation) और मशीनीकरण (mechanization) के कारण हमारी फसलों की उत्पादकता बढ़ी है, और प्रदूषण (pollution) के कारण उपज में आ रही यह कमी चिंता का विषय है। 

गेहूं मुख्यत: भारत के मध्यवर्ती और उत्तरी राज्यों में उगाया जाता है, जबकि धान मुख्यत: दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में। 

कोयला मंत्रालय (Ministry of Coal) का अनुमान है कि इन क्षेत्रों की खदानों में बचा हुआ कोयला अगले 120 सालों तक चलेगा। भारत में कोयले से बिजली आपूर्ति (coal-based electricity) की शुरुआत 1920 में निज़ाम शासन के दौरान हैदराबाद के हुसैन सागर में हुई थी, जिसे बनाने के लिए ब्रिटिश उपकरणों का इस्तेमाल किया गया था। तब से लेकर अब तक भारत में कोयले से बिजली बनाई जा रही है, हालांकि पिछले कुछ सालों में इसके तरीकों में थोड़ा सुधार हुआ है। लेकिन ज़रूरत है कि हम बिजली बनाने के अन्य तरीकों के बारे में सोचें। 

स्वच्छ ऊर्जा विकल्प (Clean Energy Alternatives) 

1. पवन ऊर्जा (Wind Energy) 

बिजली बनाने का एक विकल्प है पवन ऊर्जा। इसमें पवन चक्कियां लगाकर पवन ऊर्जा से बिजली (wind power generation) पैदा की जाती है। भारत के नौ पवन समृद्ध राज्य 50 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक (wind energy producer) है। कई निजी कंपनियों ने पवन चक्कियां लगाई हैं जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बिजली बनाती हैं। 

2. सौर ऊर्जा (Solar Energy) 

दूसरी विधि है सौर ऊर्जा, जिसमें बिजली बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें घरों और इमारतों पर, या बड़े पैमाने पर सौर खेतों (solar farms) में सौर पैनल (solar panels) लगाए जाते हैं। ये पैनल सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं और इसे बिजली में बदल देते हैं। ये सौर छतें पहले से ही काफी प्रचलित हैं, और केंद्र और राज्य सरकारें सौर पैनल लगाने वालों को सब्सिडी देती हैं। 

3. जलविद्युत (Hydropower) 

तीसरी विधि है नदी बांधकर बिजली बनाना। इसमें नदी के एक हिस्से को रोककर बिजली बनाई जाती है। साथ ही नदी के बहाव वाले इलाकों में नहरों के ज़रिए खेती के लिए पानी दिया जाता है। जब नदी के पानी को बांध (dam) बनाकर रोका जाता है और फिर छोड़ा जाता है, तो इस ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली पैदा करने (hydroelectricity generation) में किया जाता है। भारत में मौजूद शीर्ष पांच बांध मिलकर 50 गीगावाट तक पनबिजली (hydropower electricity) पैदा करते हैं। 

4. परासरण दाब से बिजली (Osmotic Power) 

बिजली बनाने का चौथा तरीका हो सकता है जब नदी समुद्र में मिलती है। नैनो रिसर्च एनर्जी में प्रकाशित एक पेपर बताता है कि जब नदी का पानी समुद्र के खारे पानी (saline water) में मिलता है, तब उससे बिजली (osmotic energy) कैसे पैदा की जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय के स्वच्छ इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी केंद्र में डॉ. जावेद सेफई ने बिजली बनाने के लिए परासरण दाब (osmotic pressure) में इस अंतर का इस्तेमाल किया है। परासरण दाब पानी (या विलायक) में विभिन्न सांद्रता पर घुले अणुओं, खासकर लवण, के कारण लगने वाला दाब होता है।

इसी तरह, पेन स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के इंजीनियरों ने परासरण दाब में अंतर से बिजली पैदा की है। भारत की तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, जहां पश्चिम, दक्षिण और पूर्व से नदियां आकर समुद्र में मिलती हैं। भारत में यह तकनीक प्रभावी रूप से बिजली पैदा कर सकती है। भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों (scientists and technologists) के लिए यह चुनौती स्वीकार करने का अवसर है। 

5. परमाणु ऊर्जा (Nuclear Energy) 

और पांचवा तरीका है परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उपयोग करना। परमाणु ऊर्जा संयंत्र (nuclear power plants) में बिजली बनाने के लिए परमाणु विखंडन (nuclear fission) से उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग पानी को गर्म करके भाप बनाने और उससे टर्बाइनों को घुमाने के लिए किया जाता है। भारत में आठ परमाणु ऊर्जा संयंत्र मिलकर 3.5 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। 

समय की ज़रूरत है कि हम प्रदूषणकारी कोयले (polluting coal) को त्याग बिजली उत्पादन (electricity generation) के स्वच्छ विकल्प अपनाएं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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WHO से सम्बंध विच्छेद: ट्रंप के दुस्साहसी फैसले का अर्थ

डॉ. अनंत फड़के

त्ता संभालने के मात्र आठ घंटे के अंदर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने घोषणा कर दी कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से नाता तोड़ लेगा। उनका यह कदम तथाकथित ‘देशभक्तिपूर्ण’ (Patriotic), ‘अमेरिका फर्स्ट’ (America First), ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ जैसे अतिवादी, बड़बोले और गैर-ज़िम्मेदाराना राजनैतिक अजेंडा (Political Agenda) का हिस्सा था। ट्रंप ने इस फैसले के तीन कारण बताए:

  1. कोविड-19 (COVID-19) महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ का प्रदर्शन घटिया था।” हो सकता है कि महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ ने ज़रूरी अर्जेंसी के साथ काम न किया हो लेकिन संगठन से बाहर निकल जाना कोई उपयुक्त प्रतिक्रिया नहीं है। स्वयं ट्रंप प्रशासन द्वारा जिस ढंग से महामारी का प्रबंधन (Crisis Management) किया गया, वह भी साफ तौर पर अनर्थकारी था – वे बचाव के बुनियादी उपाय (जैसे मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग) भी लागू करने में असफल रहे थे। ट्रंप के दफ्तर छोड़ने तक चार लाख अमरीकी कोविड-19 के कारण जान गंवा चुके थे। लैंसेट (Lancet Report) के मुताबिक, इनमें से 40 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता था। सत्ता संभालने के बाद जो बाइडेन ने इस विनाशकारी नीति को बदला, लेकिन जो नुकसान होना था वह तो हो चुका था। यूएस की जनसंख्या दुनिया की जनसंख्या का मात्र 4 प्रतिशत है, लेकिन वहां कोविड-19 से दुनिया में सबसे अधिक मौतें हुईं – पूरी 12 लाख!
  2. चीन (China) की आबादी कहीं अधिक है और वह एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था (Growing Economy) है, लेकिन वह डब्ल्यूएचओ में बहुत कम योगदान देता है।” हालांकि यह सही है, लेकिन इसका समाधान संगठन को छोड़ने में नहीं है बल्कि चीन पर योगदान बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाने में है।
  3. डब्ल्यूएचओ ने महामारी के संदर्भ में चीन के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं की।” यह दावा बेबुनियाद है। हमेशा की तरह चीन सरकार (Chinese Government) अपने कामकाज में अपारदर्शी (Opaque Governance) है। लेकिन चीन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई (Sanctions) का कोई निश्चयात्मक कारण नहीं था। इसके अलावा, तथ्य यह है कि डब्ल्यूएचओ के पास सिर्फ परामर्श के अधिकार हैं – वह सदस्य देशों पर कोई निर्णय थोप नहीं सकता और न ही कोई कार्रवाई करने को बाध्य कर सकता है।

परस्पर निर्भर वैश्विक स्वास्थ्य (Global Health Interdependence)

कोविड-19 (Coronavirus Pandemic) ने, पहले से कहीं अधिक स्पष्टता से दिखा दिया है कि बात स्वास्थ्य की हो तो राष्ट्र एक-दूसरे पर बुरी तरह से निर्भर हैं। अतीत की महामारियों – इबोला (Ebola), स्वाइन फ्लू (Swine Flu), सार्स (SARS), ज़ीका (Zika Virus), बर्ड फ्लू (Bird Flu) – ने भी इस बात को रेखांकित किया है। ऐसे खतरों की निगरानी, रोकथाम व प्रबंधन के लिए एक समन्वित और कार्यकुशल वैश्विक स्वास्थ्य तंत्र अनिवार्य है। ट्रंप का फैसला तो खुद अमरीकी लोगों के भी सर्वोत्तम हित में नहीं है।

डब्ल्यूएचओ स्वास्थ्य सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान का संकलन और प्रसारण करता है, जिसमें नए रोगजनकों, बीमारियों के उभार, तथा वैक्सीन के विकास सम्बंधी जानकारी होती है। डब्ल्यूएचओ से निकल जाने के बाद यूएस के लिए एक बड़ी समस्या यह होगी कि उसे इस महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुंच स्वत: हासिल नहीं होगी। इसके अलावा, कई अमेरिकी स्वास्थ्य संस्थाएं डब्ल्यूएचओ के साथ निकटता से जुड़ी हैं और ट्रंप का फैसला कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न करेगा। लेकिन यह सब दबंग ट्रंप महाशय को कौन समझाए?

निजी स्वार्थों का बढ़ता प्रभाव (Rise of Private Interests)

2024 में यूएस सरकार ने डब्ल्यूएचओ के बजट (WHO Budget) में सबसे अधिक योगदान (14.5 प्रतिशत) दिया था। ट्रंप का फैसला अगले साल से डब्ल्यूएचओ के लिए वित्तीय संकट खड़ा कर देगा। संगठन को लागत कटौती (Cost Cutting) के कई उपाय लागू करने होंगे, लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। भारत जैसे विकासशील देश ज़्यादा प्रभावित होंगे, जबकि अल्पविकसित अफ्रीकी देशों को तो गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा।

इसके साथ ही, डब्ल्यूएचओ की निजी संस्थाओं (Private Institutions) पर निर्भरता बढ़ेगी। पिछले 40 वर्षों में डब्ल्यूएचओ के वित्तीय स्रोतों (Funding Sources) में उल्लेखनीय बदलाव आया है। शुरुआत में, डब्ल्यूएचओ की अधिकांश फंडिंग मूलत: सदस्य देशों से मिलने वाले निश्चित वार्षिक योगदान से आती थी। इस योगदान की मात्रा सम्बंधित देश की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के पैमाने के आधार पर निर्धारित होती थी। अलबत्ता, आगे चलकर फोर्ड फाउंडेशन (Ford Foundation), बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (Bill & Melinda Gates Foundation – BMGF) और दवा कंपनियों (Pharmaceutical Companies) से जुड़े प्रतिष्ठान प्रमुख दानदाता हो गए।

1970 के दशक में निजी योगदान डब्ल्यूएचओ के बजट का मात्र 25 प्रतिशत थे। 1990 के दशक तक यह आंकड़ा बढ़कर 50 प्रतिशत हो चुका था। आज निजी दान डब्ल्यूएचओ के बजट का 75 प्रतिशत हैं।

2024 में अकेले बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने डब्ल्यूएचओ के बजट में 13.7 प्रतिशत योगदान दिया था – यह कई देशों के योगदान से अधिक था! इसी प्रकार से, गावी अलाएंस (जो टीकाकरण पर केंद्रित है) का योगदान 10.5 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने 4 प्रतिशत का योगदान दिया था। निजी फंडिंग पर यह अतिशय निर्भरता समस्यामूलक है, क्योंकि इनमें से कई अनुदानों के साथ शर्तें जुड़ी होती हैं – ये अक्सर किसी विशेष प्रोजेक्ट के लिए होते हैं, स्वास्थ्य सेवा में सामान्य सुधार के लिए नहीं होते।

हालांकि ये निजी प्रतिष्ठान तकनीकी रूप से ‘गैर-मुनाफा’ हैं लेकिन ये वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों पर काफी असर डालते हैं और प्राय: जन स्वास्थ्य उपायों की बजाय बाज़ार-चालित समाधानों की हिमायत करते हैं। उदाहरण के लिए, विकसित देशों में ऐतिहासिक रूप से पोलियो जैसी बीमारियों के उन्मूलन में स्वच्छता और साफ पेयजल की व्यापक उपलब्धता ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन ऐसे दीर्घावधि अधोसंरचना सुधार में निवेश करने की बजाय, निजी दानदाताओं के दबाव में डब्ल्यूएचओ ने टीकाकरण कार्यक्रमों को इन बीमारियों के लिए प्राथमिक समाधान के रूप में बढ़ावा दिया है जो टीका उत्पादकों को लाभ पहुंचाते हैं।

एक गौरतलब उदाहरण: 2011 के स्वाइन फ्लू प्रकोप के दौरान, अनुसंधान ने दर्शाया था कि अकेला टीकाकरण महामारी को कारगर ढंग से थाम नहीं पाएगा। इसके बावजूद, युरोपीय सरकारों ने वैक्सीन की लाखों खुराकों का भंडारण कर लिया, जिन्हें बाद में फेंकना पड़ा था क्योंकि इस बात के काफी प्रमाण इकट्ठे हो गए कि टीकाकरण स्वाइन फ्लू महामारी से लड़ाई में कारगर नहीं है। टीकाकरण का यह निर्णय निजी दवा कंपनियों और निहित स्वार्थों वाले प्रतिष्ठानों के प्रभाव में लिया गया था।

व्यापक तस्वीर (Bigger Picture)

चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति (Economic Power) के मद्देनज़र, वहां की सरकार को डब्ल्यूएचओ में ज़्यादा योगदान देने पर विचार करना चाहिए। लेकिन इसमें एक बड़ी अड़चन 1980 में यूएस के दबाव में लिया गया एक निर्णय (1980 US Policy Influence) है – एक संधि जिसने डब्ल्यूएचओ में सरकारों के योगदान को फ्रीज़ (Funding Freeze) कर दिया था, यहां तक कि महंगाई के हिसाब से कमी-बेशी भी असंभव बना दी! परिणाम यह है कि चीन के योगदान में कोई भी वृद्धि सीधे सरकारी योगदान से नहीं बल्कि निजी चीनी प्रतिष्ठानों (जैसे जैक मा प्रतिष्ठान) से होगी।

द्वितीय विश्व युद्ध तक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों पर ब्रिटेन का वर्चस्व था। अलबत्ता, 1948 में डब्ल्यूएचओ की स्थापना के बाद, निर्णय प्रक्रिया ज़्यादा प्रजातांत्रिक हो गई और इसमें यूएस, युरोप, रूस, चीन तथा कुछ नव-स्वतंत्र देशों को आवाज़ मिली। हालांकि यूएस का काफी प्रभाव रहा लेकिन युद्धोपरांत कीन्स प्रभावित (कीनेशियन) युग में कल्याण-उन्मुखी नीतियों पर ज़ोर दिया गया, और यह स्वीकार किया गया कि निजी सेक्टर की समृद्धि सामान्य आर्थिक विकास और लोगों की खुशहाली से बंधी है। इसके परिणामस्वरूप सरकार-चालित स्वास्थ्य पहलों की शुरुआत हुई।

अलबत्ता, विश्व भर में इस राज्य पूंजीवाद के मार्फत कॉर्पोरेट ताकत बढ़ने के साथ, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों में उनका प्रभाव भी बढ़ा। 1980 के दशक से, बाज़ार-चालित, कॉर्पोरेट-स्नेही नीतियों ने वैश्विक स्वास्थ्य रणनीतियों को आकार दिया है। डब्ल्यूएचओ से निकलने का ट्रंप का दुस्साहसिक फैसला (Trump’s WHO Exit) इस व्यापक रुझान का सीधा परिणाम है।

निरंकुश बेपरवाही (Authoritarian Carelessness) प्राय: गुप्त निहित स्वार्थों (Hidden Interests) की चाकरी करती है। युरोप में स्वाइन फ्लू टीके (Swine Flu Vaccine) की नाकामी दर्शाती है कि कैसे निजी कॉर्पोरेशन (Private Corporations) जन स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रंप के फैसले के चलते, डब्ल्यूएचओ अब कॉर्पोरेट प्रभावों के प्रति और भी दुर्बल हो गया है, जो निजी मुनाफे के रूबरू जन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की उसकी सामर्थ्य को और कमज़ोर करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक चिम्पैंज़ी के साथ-साथ एक ‘बोली’ की विलुप्ति

हाल में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2004 में आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के ताई नेशनल पार्क (Tai National Park) में शिकारियों ने जब चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) के एक समूह के अंतिम दो वयस्क नरों में से एक को गोली मार दी थी तो उसके साथ-साथ चिम्पैंज़ियों के उस समूह की ‘बोली’ का एक इशारा (भाव-भंगिमा) भी खत्म हो गया। 

वैसे तो कई अध्ययनों से हमें चिम्पैंज़ियों के व्यवहार (chimpanzee behavior)/औज़ारों के इस्तेमाल वगैरह में विविधता के बारे में काफी कुछ पता चला है। हम यह भी जानते हैं चिम्पैंज़ी समुदाय (chimpanzee community) किस तरह से औज़ारों/साधनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यह अध्ययन पहली बार इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करता है कि चिम्पैंज़ियों के अलग-अलग समूह एक ही चाहत या संवाद के लिए अलग-अलग हाव-भाव (gestures) का इस्तेमाल करते हैं और मनुष्यों के हस्तक्षेप या गतिविधियों के कारण उनके समूह के ये विशिष्ट व्यवहार विलुप्त हो रहे हैं। 

दरअसल नर चिम्पैंज़ी जब मादा के लिए अन्य नरों के साथ होने वाले टकराव और लड़ाई को टालना चाहते हैं तो वे गुपचुप संभोग (mating) के लिए मादा को चुपके से इशारा करते हैं। ये इशारे आम तौर पर संभोग आमंत्रण (mating invitation) के लिए दिए जाने वाले इशारों से अलग होते हैं। ये इशारे इतने चुपके से किए जाते हैं कि बस पास मौजूद मादा का ही इन पर ध्यान जाए, अन्य नरों का नहीं। 

स्विस सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च (Swiss Center for Scientific Research) के संरक्षण जीवविज्ञानी (conservation biologist) चिम्पैंज़ियों के इन्हीं इशारों और उनके मायनों में विविधता का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ताई जंगल (Tai forest) में रहने वाले चार चिम्पैंज़ी समुदायों के 495 इशारों का अध्ययन किया और पाया कि एक ही बात के लिए प्रत्येक समूह के इशारों में अंतर होता है, हालांकि कुछ इशारे एक समान भी होते हैं। जैसे संभोग के लिए आग्रह करने के लिए चारों समुदायों के नर किसी एक डाली को आगे-पीछे हिलाते हैं या अपनी एड़ी को ज़मीन पर पटकते हैं। लेकिन सिर्फ दक्षिणी और पूर्वी समुदाय के चिम्पैंज़ी चुपके से संभोग के इशारे के लिए पत्तियों को चीरते हैं, और केवल पूर्वोत्तर समुदाय के चिम्पैंज़ी उंगलियों के जोड़ से पेड़ या किसी सख्त सतह को ठोंकते हैं जैसे हम दरवाज़े को खटखटाते हैं। इस इशारे को नकल नॉक (knuckle knock) कहते हैं। 

वहीं हज़ारों किलोमीटर दूर युगांडा (Uganda) के चिम्पैंज़ी इनमें से किसी इशारे का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि वे अपने दोनों हाथों से किसी वस्तु पर तबला जैसे बजाते हैं, और यह इशारा आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के चिम्पैंज़ियों में नहीं देखा गया था। 

जब शोधकर्ता इन इशारों का अध्ययन कर रहे थे तब दल की फील्ड असिस्टेंट होनोरा नेने कपाज़ी का ध्यान चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर समूह द्वारा किए जाने वाले एक इशारे की ओर गया। उनके ध्यान में यह बात पिछले 30 से अधिक वर्षों से चिम्पैंज़ियों के साथ किए गए उनके काम के अनुभव के चलते आई। कपाज़ी ने पाया कि चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर क्षेत्र के समूह द्वारा किए गए इस नकल नॉक (knuckle knock) इशारे का उपयोग उत्तरी क्षेत्र के समुदायों में भी काफी आम हुआ करता था, लेकिन यह इशारा अब वहां से नदारद है। 

दरअसल, उत्तरी क्षेत्र के चिम्पैंज़ियों की संख्या में 1990 के दशक की शुरुआत में इबोला (Ebola) के कारण कमी आनी शुरू हुई थी। फिर 1999 में मनुष्यों से चिम्पैंज़ियों में एक श्वसन रोग (respiratory disease) फैला, जिसके कारण वहां उस समूह में मात्र दो वयस्क नर सदस्य बचे। फिर 2004 में शिकारियों ने उन दो नरों में से एक नर, मारियस, को गोली मार दी। बचा मात्र एक नर चिम्पैंज़ी। और जब समूह में एक ही नर बचा तो मादा के लिए टकराव या लड़ाई की गुंजाइश ही नहीं रही, और जब मादा के लिए कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं तो संभोग के लिए चुपके से इशारा कर बुलाने की कोई ज़रूरत ही नहीं रही। नतीजतन, मारियस की मृत्यु के साथ ही नकल नॉक (knuckle knock) का इशारा भी खत्म हो गया। 

वास्तव में, चिम्पैंज़ियों में कई तरह के जन्मजात इशारे (innate gestures) होते हैं, जो सभी समुदाय के नर चिम्पैंज़ी कर सकते हैं – लेकिन अलग-अलग समुदायों के इन इशारों के अर्थ अलग-अलग होते हैं। और यह अध्ययन संरक्षण प्रयासों (conservation efforts) में इसी विविधता के महत्व पर ध्यान दिलाता है। 

हम जानते हैं कि शिकारी जंगलों से चिम्पैंज़ियों समेत तमाम जीव-जंतुओं का सफाया कर रहे हैं। इसके चलते चिम्पैंज़ियों की जेनेटिक विविधता (genetic diversity) खतरे में है। जेनेटिक विविधता पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) के साथ अनुकूलन को संभव बनाती है। सांस्कृतिक विविधता (cultural diversity) भी उतनी ही महत्वपूर्ण है; इसका विनाश चिम्पैंज़ियों में बदलते पर्यावरण के प्रति अनुकूलन की क्षमता प्रभावित करेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zmq0xon/full/_20250210_on_chimp_culture-1739221552710.jpg