विगत 3 मार्च को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (ministry of environment, forest and climate change) ने भारतीय नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन (ganges river dolphin) की जनगणना सम्बंधी अध्ययन के निष्कर्ष जारी किए; डॉल्फिन की संख्या 6327 पाई गई है। टारपीडो जैसे शरीर वाले ये चंचल जीव जब भी दिखते हैं, दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। उन्हें देखने लोग उमड़ पड़ते हैं। शहरी किशोर उन्हें ‘प्यारा’ (cute) कहते हैं।
नदी डॉल्फिन (River Dolphin) दो तरह की होती हैं। एक, ऐच्छिक (फैकल्टेटिव) नदी डॉल्फिन, जो खारे पानी और मीठे पानी दोनों में रहती हैं। भारत में, इरावदी (Irrawaddy Dolphin) (या इरावती) डॉल्फिन चिल्का झील (Chilika Lake) के आसपास पाई जाती हैं। यहां लगभग 155 की संख्या में मौजूद ये डॉल्फिन पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण हैं, और सुंदरबन (Sundarbans) के पास मौजूद डॉल्फिन भी।
दूसरी, बाध्य (ऑब्लिगेट) नदी डॉल्फिन, जो केवल मीठी जल राशियों में पाई जाती हैं। माना जाता है कि चीन की यांग्त्ज़ी नदी डॉल्फिन (Yangtze River Dolphin) विलुप्त हो गई है, इसे आखिरी बार वर्ष 2007 में देखा गया था। अनोखे गुलाबी रंग वाली अमेज़ॉन नदी की डॉल्फिन (Amazon River Dolphin) 2.5 मीटर से भी अधिक लंबी होती है। लगभग इतनी ही बड़ी गंगा नदी में रहने वाली डॉल्फिन होती है, जो गंगा (Ganga River) और ब्रह्मपुत्र (Brahmaputra River) की मुख्य नदियों और कुछ सहायक नदियों में पाई जाती है।
गंगा डॉल्फिन (Gangetic Dolphin) की निकट सम्बंधी, सिंधु नदी डॉल्फिन (Indus River Dolphin), पंजाब का राजकीय जलीय जीव है। यहां ये डॉल्फिन तरनतारन ज़िले में ब्यास नदी (Beas River) और हरिके आर्द्रभूमि (Harike Wetland) में पाई जाती है। पर्यावरण मंत्रालय के अध्ययन में सिर्फ तीन सिंधु डॉल्फिन मिली हैं, जो इनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे (Endangered Species) को दर्शाता है। पाकिस्तान में बहती सिंधु नदी में ये डॉल्फिन सिर्फ 1800 ही जीवित बची हैं।
मटमैलेपानीकेअनुकूल
डॉल्फिन और दांतों वाली व्हेल (Toothed Whales) के माथे पर एक विशिष्ट मांसल उभार होता है जिसे मेलन (Melon) कहा जाता है। यह एक लेंस की तरह काम करता है जो (प्रकाश को नहीं) ध्वनि को संकेंद्रित करता है, और इकोलोकेशन (Echolocation) में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारे यहां पाई जाने वाली नदी डॉल्फिन मटमैले और कम लवण वाले पानी में रहना पसंद करती हैं। गंगा और सिंधु नदी की डॉल्फिन की एक असामान्य विशेषता उनकी कमज़ोर नज़र (blind river dolphin) है। वे इकोलोकेशन द्वारा मार्ग निर्धारण करती हैं और भोजन ढूंढती हैं; इसमें वे अपनी स्वर-रज्जु से खास क्लिक रूपी अल्ट्रासाउंड तरंगें (ultrasound waves) निकालती हैं, और ललाट पर बने मेलन की मदद से आसपास की वस्तुओं से टकराकर लौटने वाली तरंगों की प्रतिध्वनि को महसूस करती हैं। ये डॉल्फिन करवट पर तैरने की प्रवृत्ति भी दिखाती हैं, भोजन की तलाश में नदी के पेंदे को खंगलाने के लिए वे फिन (dorsal fin) का उपयोग करती हैं।
हमारी नदी डॉल्फिन प्रजातियों की आंख बमुश्किल एक सेंटीमीटर चौड़ी है; इसमें एक मोटा कॉर्निया होता है और कोई लेंस नहीं होता है। प्रकाश को दर्ज़ करने के लिए रेटिना में बहुत कम कोशिकाएं होती हैं। और दृश्य संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाने वाली प्रकाश तंत्रिका बहुत क्षीण होती है, यह बमुश्किल एक तंतु जितनी पतली होती है। ऐसा लगता है कि उनमें दृश्य बोध सिर्फ प्रकाश और प्रकाश की दिशा पता लगाने तक ही सीमित होता है। हमारी नदी डॉल्फिन और समुद्री बॉटलनोज़ डॉल्फिन (bottlenose dolphin) के संवेदना बोध में शामिल मस्तिष्क क्षेत्रों की तुलना करने पर पता चला कि नदी डॉल्फिन का दृष्टि बोध सम्बंधी क्षेत्र असामान्य रूप से छोटा है जबकि उनका श्रवण बोध सम्बंधी क्षेत्र बहुत बड़ा है। यह ध्वनि पर उनकी निर्भरता को दर्शाता है। प्रयोगों में पाया गया है कि सिंधु नदी की डॉल्फिन नायलॉन धागे से लटके 4 मिलीमीटर छोटे बॉल बेयरिंग (ball bearing – छर्रों) की उपस्थिति भी भांप लेती हैं, और उसकी उपस्थिति भांपकर उसकी ओर बढ़ सकती हैं।
गठिया से लेकर मांसपेशीय ऐंठन के उपचार में इस्तेमाल होने वाले तेल का दोहन नदी डॉल्फिन से ही किया जाता है, और उनके इसी उपयोग के चलते उन पर खतरा मंडरा रहा है। अत्यधिक मत्स्याखेट (over fishing) से उनकी भोजन आपूर्ति कम होती है, और अन्य मछलियां के लिए फेंके गए जाल में भी वे फंस जाती हैं। फिर, रासायनिक प्रदूषक (chemical pollution) एक और खतरा पैदा करते हैं।
तेज़ी से परिष्कृत और उन्नत होती जा रही गणना विधियों के बावजूद, नदी डॉल्फिन की आबादी अस्पष्ट बनी हुई है – उनकी संख्या अधिक भी हो सकती है और कम भी। दोनों स्थितियों में से चाहे जो हो लेकिन फिर भी उनकी संख्या बहुत ही कम है। हमें इन अनूठे जीवों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता (public awareness) बढ़ाना होगा। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/f/f3/Ganges-river-dolphins.jpg
कमला सोहोनी (Kamala Sohonie) एक शांत, सहज और मितभाषी महिला थीं। उन्हें देखकर लगता था कि उनका जीवन भी शांत और सरल रहा होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। एक महिला (woman scientist) के रूप में विज्ञान (science) में अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें कई अड़चनों का सामना करना पड़ा था, कई भंवर पार करने पड़े थे। वह भी तब जब उनके परिवार का पूरा समर्थन उनके साथ था।
नन्हीं कमला (भागवत) बहुत मोटी थीं। उनके एक चाचा प्रतिष्ठित रसायनशास्त्री (chemist) थे और वे भी मोटे थे। तो नन्हीं, मोटी लड़की ने सोच लिया कि उसकी नियति भी एक प्रसिद्ध रसायनशास्त्री (biochemist) बनना है। उनके पिता नारायणराव भागवत और चाचा माधवराव भी जाने-माने रसायनशास्त्री थे और टाटा विज्ञान संस्थान (Tata Institute of Science) (अब भारतीय विज्ञान संस्थान) (Indian Institute of Science, IISc), बैंगलोर के पहले-पहले स्नातकों में से थे। लिहाज़ा, बंबई विश्वविद्यालय (University of Bombay) से भौतिकी (physics) और रसायन विज्ञान (chemistry) में बी.एससी. (B.Sc.) प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद कमला ने सोचा कि उसी संस्थान में शोध करना लाज़मी है। लेकिन जब उन्होंने वहां प्रवेश के लिए आवेदन किया, तो इन्कार मिलने में देर नहीं लगी। कारण यह बताया गया था कि वे महिला हैं। संस्थान के निदेशक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमन (C.V. Raman, Nobel Laureate) का मत था कि महिलाएं वैज्ञानिक शोध (scientific research) के लिए नहीं बनी होतीं।
कमला ने इस लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) आधारित अस्वीकृति को मानने से इन्कार कर दिया। महात्मा गांधी पर दृढ़ विश्वास के चलते, उन्होंने प्रवेश मिलने तक सर सी.वी. रमन के कार्यालय में सत्याग्रह (protest) करने का फैसला किया। प्रोफेसर रमन ने अंततः उन्हें एक शर्त पर प्रवेश दिया कि वे एक साल तक परिवीक्षा (probation) पर रहेंगी। इसका मतलब यह था कि वे काम तो कर सकती थीं, लेकिन उनका काम तभी मान्य होगा जब निदेशक काम की गुणवत्ता से संतुष्ट होंगे। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी (कमला की) उपस्थिति पुरुष शोधकर्ताओं (male researchers) का ध्यान न भटकाए। कमला ने इन शर्तों को स्वीकार कर लिया लेकिन ऐसा करते हुए उनके आक्रोश को शायद ही कोई महसूस कर सकता है। इस तरह, 1933 में विज्ञान में उनके सफर की पहली बाधा पार हुई।
भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में कमला ने अपने शिक्षक श्री श्रीनिवासय्या के मार्गदर्शन में कड़ी मेहनत की। वे बहुत सख्त और बहुत अधिक अपेक्षा करने वाले थे, लेकिन योग्य छात्रों को ज्ञान देने में उतने ही उत्सुक रहते थे। एक साल तक कमला की लगन और अनुशासन को देखकर रमन संतुष्ट हो गए। उन्हें जैव-रसायन (biochemistry) में नियमित शोध करने की अनुमति दी गई। रमन उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसके बाद महिला छात्रों (women in science) को भी संस्थान में प्रवेश देना शुरू कर दिया। यह कमला की एक और जीत थी, जिसने उनके माध्यम से अन्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian women scientists) का मार्ग भी सुगम किया।
इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलोर में कमला ने दूध (milk), दालों (pulses) और फलियों (legumes) में प्रोटीन (protein) पर काम किया, जिसका भारत में पोषण सम्बंधी (nutrition research) प्रथाओं से महत्वपूर्ण सम्बंध था। 1936 में, वे दालों के प्रोटीन पर शोध (protein research in pulses) करने वाली पहली व्यक्ति थीं, जबकि उस समय कमला सिर्फ एक स्नातक छात्र थीं। उन्होंने अपना शोध बॉम्बे युनिवर्सिटी (University of Bombay) को प्रस्तुत किया और एम.एससी. (M.Sc.) की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद, वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (University of Cambridge) गईं और सबसे पहले डॉ. डेरेक रिक्टर (Dr. Derek Richter) की प्रयोगशाला में काम किया। डॉ. रिक्टर ने उन्हें दिन में काम करने के लिए एक टेबल दी, जिसका उपयोग वे रात में कमला के जाने के बाद खुद किया करते थे।
जब डॉ. रिक्टर काम करने के लिए कहीं और चले गए, तब कमला ने अपना काम डॉ. रॉबिन हिल (Dr. Robin Hill) के मार्गदर्शन में जारी रखा, जो पौधों के ऊतकों (plant tissue research) पर उसी तरह का काम कर रहे थे। यहां आलू (potato) पर काम करते हुए कमला ने पाया कि पौधों की हर कोशिका में ‘साइटोक्रोम सी’ (Cytochrome C) नामक एंज़ाइम (enzyme) होता है, जो सभी पौधों की कोशिकाओं में ऑक्सीकरण (oxidation process) की प्रक्रिया में शामिल होता है। यह एक मौलिक खोज (fundamental discovery) थी, जिसका सम्बंध पूरे वनस्पति जगत (botanical research) से था।
कमला ने पादप ऊतकों के श्वसन (plant respiration) में साइटोक्रोम सी की भूमिका पर आधारित एक लघु शोध प्रबंध (thesis) पीएच.डी. (Ph.D.) डिग्री के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय को भेजा। उनकी पीएच.डी. डिग्री कई मायनों में उल्लेखनीय थी। कैम्ब्रिज पहुंचने के बाद सिर्फ 14 महीनों में उन्होंने अपना शोध और थीसिस लेखन कार्य पूरा किया। यह थीसिस टाइप किए गए केवल 40 पन्नों की थी, जबकि कई अन्य की लोगों थीसिस हज़ारों पन्नों की होती थीं। कमला पहली भारतीय महिला (first Indian woman scientist) थीं, जिन्हें पीएच.डी. उपाधि (Ph.D. degree) से नवाज़ा गया था।
कमला भारत लौटने के लिए उत्सुक थीं और 1939 में नई दिल्ली के लेडी हार्डिन्ग कॉलेज (Lady Hardinge College, Delhi) में प्रोफेसर और नवगठित बायो-केमिस्ट्री विभाग के प्रमुख के रूप में काम शुरू किया। इसके बाद वे कुन्नूर की न्यूट्रिशन रिसर्च लैब (Nutrition Research Lab, Coonoor) की असिस्टेंट डायरेक्टर बनीं, जहां उन्होंने विटामिन (vitamin research) के प्रभाव पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया। लेकिन करियर में प्रगति के स्पष्ट अवसरों की कमी (जिसका दोष लिंग भेदभाव को नहीं दिया जा सकता, हालांकि एक संभावना वह भी है) के कारण, उन्होंने इस्तीफा देने का विचार किया। इसी समय उन्हें श्री एम.वी. सोहोनी से विवाह का प्रस्ताव मिला, जो पेशे से एक एक्चुअरी (बीमा सांख्यिकीविद) थे। उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और 1947 में मुंबई आ गईं।
महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे के (रॉयल) इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (Royal Institute of Science, Mumbai) में नए बायो-केमिस्ट्री विभाग के प्रोफेसर पद के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे। कमला ने आवेदन किया और चुनी गईं। अपनी सेवा के दौरान, उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ नीरा (Neera drink- ताड़ वृक्षों से प्राप्त रस), दालों (pulses) और फलियों के प्रोटीन और धान के आटे (rice flour) के पोषण सम्बंधी पहलुओं पर काम किया। उनके शोध के सभी विषय भारतीय समाज की ज़रूरतों से सीधे तौर पर जुड़े हुए थे। दरअसल, नीरा पर उनका काम तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सुझाव पर शुरू हुआ था।
इसके अलावा, कमला सोहोनी ने आरे मिल्क प्रोजेक्ट (Aarey Milk Project) के प्रशासन को गुणवत्ता सुधारने के लिए सलाह दी। उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थियों में कई प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हुए। उनके मार्गदर्शन में विद्यार्थियों द्वारा किए गए शोध कार्य से यह साबित हुआ कि नीरा को कुपोषित आदिवासी किशोर बच्चों और गर्भवती महिलाओं के आहार में शामिल करने से उनके स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण सुधार होता है। उन्होंने अपने छात्रों से यह काम देश भर से लिए गए नीरा के नमूनों पर करवाया। यह काम 10-12 वर्षों तक चला और हर बार नतीजे समान रहे। इस अद्वितीय काम के लिए कमला सोहोनी को राष्ट्रपति पुरस्कार (President’s Award) से सम्मानित किया गया।
अलबत्ता, इन्तहा यह थी कि बंबई के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में भी, चार साल तक उन्हें संस्थान के निदेशक पद, जिसकी वे हकदार थीं, से दूर रखा गया (शायद आंतरिक राजनीति के कारण)। अंततः जब उन्हें यह पद दिया गया, तो कैम्ब्रिज के उनके प्रथम मार्गदर्शक डॉ. रिक्टर ने कहा था, “उन्होंने इतने बड़े विज्ञान संस्थान की पहली महिला निदेशक बनकर इतिहास रच दिया है।”
संक्षेप में, कमला सोहोनी ने एक समृद्ध और सफल जीवन (successful scientist) जीया। वे अपने चुने हुए क्षेत्र में बहुत सफल रहीं – एक शोध वैज्ञानिक (research scientist) के रूप में भी और एक शिक्षक (teacher) के रूप में भी।
उस समय भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की अध्यक्ष (और पहली महिला महानिदेशक) डॉ. सत्यवती को जब कमला सोहोनी के काम के बारे में पता चला तो उन्होंने कमला को सम्मानित करने का फैसला किया। उन्होंने 87 वर्षीय कमला को नई दिल्ली में एक भव्य समारोह में आमंत्रित किया और उनका सम्मान किया। विडंबना यह है कि इसी समारोह के दौरान कमला सोहोनी का निधन हो गया। वे स्वयं भी शायद इससे बेहतर अंत की कामना न करतीं। (स्रोत फीचर्स)
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कई लोगों को मकड़ियों (spiders) से नफरत होती है और कई लोगों को उनसे डर भी लगता है – इसी भावना को व्यक्त करने के लिए बना है शब्द एरेक्नेफोबिया (arachnophobia)। लेकिन वैज्ञानिकों (scientists) को मकड़ियों की एक बात आकर्षित करती है – उनकी पतली कमर। कहते तो यहां तक हैं कि जिस रेत-घड़ीनुमा फिगर (hourglass figure) की कामना कई तारिकाएं (celebrities) करती हैं, वह मकड़ियों को तो सहज ही मिल गया है। और अब प्लॉस बायोलॉजी (PLOS Biology) में प्रकाशित एक शोध पत्र बताता है कि इसके लिए मकड़ियों को डाएटिंग (dieting) वगैरह नहीं करना पड़ता, बल्कि यह एक प्राचीन जीन (ancient gene) का कमाल है।
इस शोध पत्र के लेखकों – विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय (University of Wisconsin) की एमिली सेटन और उनके साथियों – ने दक्षिण-पूर्वी कोलोरैडो (Colorado) के घास के मैदानों में तफरीह करते हुए टेक्सास ब्राउन टेरेंटुला (Texas brown tarantula) (Aphonopelma hentzi) नामक मकड़ी के भ्रूण (embryos) इकट्ठे किए। इन भ्रूणों के जीनोम (genome sequencing) के अनुक्रमण से उन्हें 12 ऐसे जीन्स (genes) मिले जो कमर के दोनों ओर की कोशिकाओं में विकास के दौरान अभिव्यक्त होते हैं। आम घरेलू मकड़ी (common house spider) (Parasteatoda tepidariorum) के भ्रूणों में इन 12 जीन्स को एक-एक करके निष्क्रिय करने पर पता चला कि इनमें से एक (जिसे नाम दिया गया है waist-less) कमर के उस विशिष्ट पिचके हुए हिस्से के लिए ज़िम्मेदार होता है जो मकड़ी के शरीर (body structure) को दो भागों में बांटता है। जिन भ्रूणों में यह जीन नहीं होता वे एकदम गोल-मटोल आठ टांग वाली मकड़ी में विकसित हो जाते हैं।
शोधकर्ताओं (researchers) का मत है कि waist-less जीन लाखों साल पहले अस्तित्व में आया था और कई प्रजातियों के भ्रूणीय विकास (embryonic development) में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन कीटों (insects) व केंकड़ानुमा जंतुओं (crustaceans) ने इसे गंवा दिया। मकड़ियों में यह बना रहा और उन्हें उनकी पतली कमर देता रहा। (स्रोत फीचर्स)
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प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) की अथाह गहराइयों में एक रहस्यमयी दुनिया छिपी हुई है। मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench) पृथ्वी के महासागरों की सबसे गहरी जगह है। यहां गहराई लगभग 11,000 मीटर तक है। इतनी गहराई पर दाब (pressure) बहुत अधिक, ठंड (temperature) अकल्पनीय और अंधकार (darkness) भी घटाटोप होता है। ये परिस्थितियां इस जगह को पृथ्वी की सबसे प्रतिकूल और दूभर परिस्थितियों में शुमार करती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इन परिस्थितियों में भी जीवन (deep-sea life) की हैरतअंगेज़ विविधता मौजूद है। यह विविधता गहरे समुद्र की पारिस्थितिकी (deep ocean ecosystem) के बारे में हमारी वर्तमान समझ को ललकारती है।
हाल ही में, चीन के वैज्ञानिकों ने फेंडोज़े पनडुब्बी (Fendouzhe Submarine) के ज़रिए मैरियाना ट्रेंच की गहराइयों में गोता लगाया है। जैसे-जैसे वे नीचे उतरे, उन्होंने अंधकार में दीप्ति बिखेरने वाले जीव (bioluminescent organisms) देखे; जो हरी, पीली और नारंगी चमक बिखेर रहे थे। समुद्र के पेंदे (ocean floor) पर पहुंचने पर टीम ने जब रोशनी चालू की, तो उन्हें एक विस्मयकारी नीली दुनिया दिखाई दी, जहां प्लवकों (plankton) की भरमार थी।
यह खोज मैरियाना ट्रेंच पर्यावरण और पारिस्थितिकी अनुसंधान (MEER – Mariana Trench Ecology and Environment Research) परियोजना का हिस्सा है, जिसके तहत किए गए अध्ययन सेल पत्रिका (cell journal) में प्रकाशित हुए हैं। इस शोध की सबसे चौंकाने वाली खोज 7000 से अधिक नए सूक्ष्मजीवों (new microbes, deep-sea bacteria) की पहचान है, जिनमें से 89 प्रतिशत विज्ञान के लिए पूरी तरह नए हैं। ये सूक्ष्मजीव हैडल ज़ोन (hadal zone – 6000 से 11,000 मीटर की गहराई) की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए विकसित हैं।
गौरतलब है कि कुछ सूक्ष्मजीवों (microorganisms) के जीनोम (genome sequencing)बहुत कुशल होते हैं, जो सीमित कार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। जबकि कुछ अन्य के जीन (genes) अधिक जटिल होते हैं, जिससे वे बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल सकते हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव कार्बन मोनोऑक्साइड (carbon monoxide metabolism) जैसी गैसों को अपना भोजन बनाते हैं। यह क्षमता उन्हें पोषक तत्वों की कमी (nutrient-poor environment) वाले समुद्री वातावरण में जीवित रहने में मदद करती है।
आगे के इस अध्ययन में एम्फिपॉड्स (amphipods – छोटे झींगे जैसे जीव) पर ध्यान दिया गया, जो समुद्री खाइयों (deep-sea trench) में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया कि ये जीव गहरे समुद्र में रहने वाले बैक्टीरिया (deep sea symbiotic bacteria) के साथ सहजीवी सम्बंध रखते हैं। उनकी आंतों में सायक्रोमोनास (Psychromonas bacteria) नामक बैक्टीरिया काफी संख्या में मिले, जो ट्राइमेथिइलएमाइन एन-ऑक्साइड (TMAO – Trimethylamine N-oxide) नामक एक यौगिक का निर्माण करने में मदद करते हैं। TMAO गहरे समुद्र के अत्यधिक दाब (extreme pressure adaptation)से जीवों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाता है।
शोध के तीसरे चरण में यह समझने की कोशिश की गई कि गहरे समुद्र की मछलियां (deep-sea fish) अत्यधिक दाब और ठंडे तापमान में कैसे जीवित रहती हैं। जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से पता चला कि 3000 मीटर से अधिक गहराई में रहने वाली मछलियों में एक विशेष जेनेटिक परिवर्तन (genetic mutation) होता है, जो उनकी कोशिकाओं को अधिक कुशलता से प्रोटीन बनाने (protein synthesis) में मदद करता है। यह अनुकूलन उन्हें समुद्री दाब से बचने में सहायता करता है।
शोध से यह भी पता चला कि विभिन्न जीवों ने गहरे समुद्र में कब शरण (deep-sea migration) ली होगी। मसलन, ईल मछलियां (eel fish) शायद लगभग 10 करोड़ साल (100 million years ago) पहले गहरे समुद्र में चली गई होंगी जिसकी वजह से वे डायनासौर विलुप्ति (dinosaur extinction) वाली घटना से बच गई होंगी। इसी तरह स्नेलफिश (Snailfish) लगभग 2 करोड़ साल पहले (20 million years ago) समुद्र की गहरी खाइयों में पहुंच गई होगीं। यह वह समय था जब पृथ्वी पर टेक्टोनिक हलचल (tectonic activity) सबसे अधिक थी यानी धरती के भूखंड तेज़ी से इधर-उधर भटक रहे थे।
ये निष्कर्ष इस बात को नुमाया करते हैं कि गहरा समुद्र (deep sea) लंबे समय से जलवायु परिवर्तन और ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव के दौरान कई जीवों को पनाह देता रहा है।
इन रोमांचक खोजों के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने गहरे समुद्र में कुछ चिंताजनक चीज़ें (deep-sea pollution) भी देखीं; उन्हें मैरियाना ट्रेंच (Mariana Trench)और याप ट्रेंच (Yap Trench) में प्लास्टिक बैग(plastic pollution), बीयर की बोतलें (beer bottles), सोडा कैन (soda can) और एक टोकरी (basket) भी मिली है। यह दर्शाता है कि मानव गतिविधियों का असर (human activities impact) दूरस्थ और दुगर्म क्षेत्रों तक पहुंच चुका है।
हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि कुछ बैक्टीरिया (bacteria) इन प्रदूषकों (pollutants) का इस्तेमाल ऊर्जा स्रोत (energy source) के रूप में करने में सक्षम हैं। इससे लगता है कि भविष्य में समुद्री बैक्टीरिया (marine bacteria) पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं।
बहरहाल, समुद्र की अधिकांश गहराइयां अब भी अनदेखी हैं। संभव है कि वहां भी असंख्य अनजाने जीव (undiscovered species) हैं। MEER की योजना आगे भी ऐसे अध्ययन जारी रखने की है। (स्रोतफीचर्स)
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a: हाथी की हड्डी से बने औज़ार, b: दरियाई घोड़े की हड्डी से बने औज़ार
मानव विकास (human evolution) के इतिहास में पाषाण काल (stone age) एक विशेष महत्व रखता है। एक मायने में इसे पहली औद्योगिक क्रांति (first industrial revolution) कहा जा सकता है – लगभग तीस लाख साल पहले का एक ऐसा दौर जब मनुष्यों ने पत्थरों से औज़ार (stone tools) बनाना और उनका इस्तेमाल करना शुरू किया था। पाषाण काल में पत्थरों के औज़ार के साथ-साथ इन्हीं मनुष्यों द्वारा जब-तब हड्डी के औज़ार (bone tools) इस्तेमाल किए जाने के भी प्रमाण मिलते हैं। लेकिन ये प्रमाण बहुत छिट-पुट रूप में मिलते हैं। जैसे शोधकर्ताओं को करीब 14 लाख साल पुरानी हड्डी से बनी कुल्हाड़ी मिली थी, फिर 5 लाख साल पुराने कुछ और औज़ार मिले थे। लेकिन बहुत कम प्रमाणों के चलते सटीक रूप से यह निर्धारित नहीं किया जा सका है कि मनुष्यों ने हड्डी के औज़ार बनाना कब शुरू किया।
इतने कम प्रमाण का एक कारण है कि पत्थरों के माफिक हड्डियां सालों-साल सुरक्षित नहीं रहतीं। हड्डियां समय के साथ सड़-गल जाती हैं, और जैसी-तैसी हालत में जो हड्डियां मिलती भी हैं उनमें यह अंतर कर पाना एक बड़ी चुनौती होती है कि वे किसी जीव की हड्डियां मात्र हैं या मनुष्यों ने उन्हें तराश कर औज़ार का रूप दिया था।
बावजूद इसके, किसी बात को पुख्ता तौर पर कहने के लिए वैज्ञानिकों (scientists) की पैनी नज़रें सदैव ही अधिकाधिक प्रमाणों की तलाश में रहती हैं। इसी उद्देश्य से 2015 में, पुरातत्वविदों (archaeologists) के एक दल ने तंज़ानिया के ओल्डुवाई गॉर्ज (Olduvai Gorge) पुरातात्विक स्थल (archaeological site) पर खुदाई कार्य शुरू किया था। दरअसल इस स्थल पर पूर्व में भली-भांति संरक्षित जीवाश्म (fossils) और पत्थर के औज़ार मिले थे, जो 20 लाख साल की लंबी अवधि के मानव विकास के इतिहास को बयां कर रहे थे। इस स्थल की 8 मीटर गहरी खुदाई करीब 8 साल में पूरी हुई थी।
पहले तो शोधकर्ताओं ने इन परतों का काल-निर्धारण किया; ये परतें करीब 15 लाख साल पुरानी थीं। फिर खुदाई में मिली हाथी के पांव की एक हड्डी और बाकी हड्डियों (से बने औज़ारों) का बारीकी से अवलोकन किया। कुल मिलाकर इस खुदाई स्थल से उन्हें हड्डियों के 27 औज़ार मिले। अवलोकन में दिखा कि इन हड्डियों पर तराशने के निशान हैं; आकार देने के लिए उनसे छीलकर हटाई गई छिल्पियों के निशान साफ गवाही दे रहे थे कि ये महज़ हड्डियां नहीं बल्कि औज़ार हैं। पाया गया कि अधिकतर औज़ार हाथी (elephant) और दरियाई घोड़े (hippopotamus) जैसे विशालकाय जानवरों की हड्डियों से बनाए गए थे।
इन औज़ारों की बनावट वगैरह देखकर लगता है कि इनका इस्तेमाल मांस काटने (butchering) और हड्डियों के अंदर से मज्जा निकालने के लिए हड्डियों को तोड़ने में किया जाता होगा। इस आधार पर शोधकर्ताओं को लगता है कि उस समय के मनुष्य जानवरों को केवल भोजन के स्रोत (food source) के रूप में ही नहीं बल्कि अन्य संसाधन (resources) के तौर पर भी देखते थे।
बहरहाल, नेचर (Nature) में प्रकाशित ये नतीजे बताते हैं कि हमारे एक पूर्वज, होमोइरेक्टस (Homo erectus), करीब 15 लाख साल पहले पत्थर के औज़ार (stone tools) बनाने के साथ-साथ हड्डियों के औज़ारों का भी इस्तेमाल करते थे। हालांकि इस खुदाई स्थल से मानव शरीर के कोई अवशेष (human remains) नहीं मिले हैं। फिर भी ये नतीजे मनुष्यों के प्रारंभिक विकास (early human evolution) को समझने में महत्वपूर्ण हैं। इससे पता चलता है कि उनमें चीज़ों के गुणों के मुताबिक उनका इस्तेमाल करने को लेकर समझ थी। पत्थरों और हड्डियों की विशेषता अलग-अलग हैं, उनकी विशेषता के मुताबिक औज़ार बनाना और इस्तेमाल करना इसी कौशल को दर्शाता है। पत्थरों के मुकाबले उसी साइज़ की हड्डी वज़न में हल्की होती हैं। यानी हड्डियों से कहीं अधिक बड़े और हल्के औज़ार बन सकते हैं, जो भाले (spears) वगैरह के लिए बेहतर विकल्प हो सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
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हूण लोग लुटेरे योद्धाओं (hun warriors) के रूप में विख्यात हैं। ये लोग लगभग 370 ईसा पूर्व में रोमन साम्राज्य (roman empire) की सीमाओं पर पहुंचे, जब यह साम्राज्य लड़खड़ा ही रहा था। फिर कुछ दशकों बाद फौजी नायक अत्तिला (Attila the hun) के नेतृत्व में हूणों ने इसे पूरी तरह से पतन की ओर धकेल दिया। इतने कम समय में भी अत्तिला ने साम्राज्य को बहुत प्रभावित किया था। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि हूण जहां भी गए, अपनी छाप छोड़ी।
लेकिन इतिहासकारों के बीच हमेशा से ही यह बहस का विषय रहा है कि हूण मूलत: कहां से आए थे। एक अनुमान था कि ‘हूण’ शब्द ‘श्योन्ग्नू’(Xiongnu tribe) शब्द से आया है, जो घास के मैदानों के घुमंतुओं के एक समूह को दर्शाता है। 200 ईसा पूर्व के आसपास चीन(Ancient China) की उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं पर श्योन्ग्नू लोगों की दहशत थी, और 100 ईसवीं के आसपास उनका पतन हो गया। एक मत था कि हूण संभवत: यही श्योन्ग्नू लोग थे जो मध्य एशिया (central asia) के अल्ताई पहाड़ों से निकलकर 5000 किलोमीटर दूर रोम (rome) की सीमाओं तक पहुंचे और रोमन साम्राज्य के पतन का एक कारण बने। लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य इसे पूरी तरह साबित नहीं कर पा रहे थे: श्योन्ग्नू लोगों की कब्रें 300 साल बाद के हूणों की कब्रों जैसी नहीं थीं, और यह अंतर दोनों के एक होने के विचार को खारिज करता था।
अब, नेशनलएकेडमीऑफसाइंसेज़ (national academy of sciences) में प्रकाशित ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय के आनुवंशिकीविद गाइडो नेची रुस्कोन और ओटवोस लॉरैंड विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद सोफिया राज़ के शोधदल द्वारा किया गया डीएनए आधारित अध्ययन (DNA Analysis of huns) बताता है कि कुछ हूण श्योन्ग्नू अभिजात वर्ग के दूर के वंशज थे, लेकिन वे रोम के आसपास रहने वाली जनजातियों के समूह का हिस्सा बन गए थे।
दरअसल, वर्तमान हंगरी (hungary) में दफन करीब 400 से 500 ईसवीं के समय की हूणों की सैकड़ों कब्रों की जांच करते समय शोधकर्ताओं को ऐसी कब्रें और कंकाल मिले जो बाकियों से अलग थे; इन कब्रों में दफन सामान भी बाकी कब्रों के सामान से अलग था और कंकालों की कद-काठी भी बाकी कब्रों में दफन कंकालों से अलग थीं। कुछ कंकालों से लगता था कि खोपड़ी को लंबी बनाने के लिए बचपन में बांधा गया था (Artificial cranial deformation), और कुछ कब्रों में शव के साथ घोड़ों के सिर और खाल रखे गए थे। इससे लगता था कि ये कंकाल मध्य यूरेशियाई घास के मैदानों (Eurasian nomads) में रहने वाले घुड़सवारों के सम्बंधियों के होंगे।
इन कंकालों की जेनेटिक बनावट की जांच में पाया गया कि कब्र में दफन कुछ लोगों के और श्योन्ग्नू के कुलीन वर्गों (Xiongnu elite) के पूर्वज साझा थे। और कुछ कंकाल ऐसे थे जो सीधे तौर पर कुलीन श्योन्ग्नू योद्धाओं से सम्बंधित थे; या तो वे कुलीन वर्गों के वंशज थे, या उनके करीबी सम्बंधियों के वंशज थे। यह संभव है कि ये योद्धाओं के एक समूह का ऐसा हिस्सा थे जिन्होंने अपनी घास के मैदान की संस्कृति (Nomadic culture) को बरकरार रखा था।
लेकिन हंगरी की कब्रों में दफन ‘हूण’ में श्योन्ग्नू वंशज बहुत थोड़ी संख्या में थे। इसे देखकर लगता है कि पूर्व की ओर से लोगों का प्रवास (Migration patterns) हुआ तो था लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि संभवत: 1900 साल पहले श्योन्ग्नू साम्राज्य (Xiongnu Empire) के कुलीन लोग साम्राज्य के पतन के बाद बिखर गए होंगे; बिखराव के बाद कुछ लोग वहीं रुके रहे होंगे, कुछ को बाहर निकाल दिया गया होगा, कुछ लोगों को नए काम/अवसर मिल गए होंगे, और कुछ लोग पश्चिम की ओर पलायन कर गए होंगे। हालांकि अपनी जगह से कहीं और जाना जोखिमपूर्ण था, क्योंकि किसी और के इलाकों से गुज़रने का एक मतलब होता है कि रास्ते में वहां के लोगों से टकराव में आप अपने साथी, पशुधन या माल-असबाब खो दें। इस जोखिम को श्योन्ग्नू लोगों ने सोच-समझकर चुना हालांकि कुछ ही लोग इसे पार कर पाए। और जो लोग पार कर गए उन्होंने स्थानीय संस्कृतियों के साथ खुद को ढाल लिया और वहां की स्थानीय जनजातियों से विवाह सम्बंध बनाए। वे अपनी आनुवंशिक विरासत (Genetic heritage) तो साथ लेकर गए, लेकिन अपनी संस्कृति स्थानीय लोगों के साथ ढाल ली। यह अनुमान शोधकर्ताओं ने उनकी कब्रों और पूर्व में दफन उनके पूर्वजों की कब्रों अंतर के आधार पर दिया है – उनकी कब्रों में विशिष्ट बड़े आकार के सोने की परत वाले कांस्य बेल्ट बकल और अन्य आभूषणों का अभाव था जो उनके पूर्वजों की कब्रों में पाए जाते हैं।
बहरहाल, यहां एक बात ध्यान में रखने की है कि सिर्फ आनुवंशिक जानकारी के आधार पर उन्हें श्योन्ग्नू के वंशज कहा जा रहा है। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वे खुद को श्योन्ग्नू से सम्बंधित मानते थे, या एक सर्वथा अलग ही समूह मानते थे। (स्रोतफीचर्स)
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अक्सर भारत में दवाइयों (medicine prices in India) की ऊंची कीमतों को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं। लेकिन देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम है, इसके बावजूद मरीज़ों को दवाइयां महंगे दामों पर क्यों मिलती हैं?
पहले भाग में, हमने इसके एक प्रमुख कारण – भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन (drug price regulation in India) की लगभग अनुपस्थिति – पर बात की थी। इस भाग में, हम भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों (एफडीसी) (Fixed-Dose Combinations – FDC), ‘मी टू’ औषधियों (Me-Too Drugs) को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।
भाग 2: ब्रांडेडदवाइयां, बेतुकेनियतखुराकमिश्रण, ‘मी–टूदवाइयां’, औरपेटेंटकासदाबहारीकरण
दोषपूर्ण औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश-2023 (Drug Price Control Order – DPCO 2023) से इतर भी कई कारण हैं कि क्यों भारत में दवाइयों की कीमतें अनावश्यक रूप से ऊंची हैं। आगे इन्हीं कारणों की चर्चा है।
ब्रांड, ब्रांडेडजेनेरिकऔरउनकीगुणवत्ता
जब किसी नई औषधि का आविष्कार होता है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से सम्बद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय समिति उसे एक ‘जेनेरिक नाम’ (Generic Name) देती है (जेनेरिक नाम मतलब इंटरनेशनल नॉन-प्रोपायटरी नाम आईएनएन या अंतर्राष्ट्रीय गैर-मालिकाना नाम)। जेनेरिक नाम (Generic Drug Name) का उपयोग सारे वैज्ञानिक जर्नल्स, किताबों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में किया जाता है। अलबत्ता, जो कंपनी उस औषधि का आविष्कार करती है उसे अधिकार होता है कि वह उसे एक मालिकाना नाम दे दे। आम तौर पर यह विपणन के मकसद से होता है। इस मालिकाना ब्रांड नाम को प्रासंगिक राष्ट्रीय व वैश्विक कानूनों के तहत पंजीकृत किया जाता है, हालांकि पंजीकरण ऐच्छिक है। कंपनी को उस ब्रांड नाम पर 20 सालों तक एकधिकार प्राप्त होता है, जो आविष्कारक को मिले पेटेंट की वैधता की अवधि है।
उदाहरण के लिए, बुखार, सिरदर्द और बदन दर्द (fever, headache, body pain) से तात्कालिक अस्थायी राहत के लिए एक औषधि है एन-एसिटाइल-पैरा-अमीनोफिनॉल (एपीएपी) (N-Acetyl-Para-Aminophenol), जिसे जेनेरिक नाम (आईएनएन-INN) पैरासिटामॉल दिया गया है। यूएस की दवा कंपनी मैकनाइल ने इसे 1955 में टायलेनॉल (Tylenol) के ब्रांड नाम से पेटेंट किया था। अमेरिकी कानून के अनुसार, इस पेटेंट अवधि में कोई अन्य कंपनी पैरासिटामॉल का उत्पादन मूल निर्माता की अनुमति और रॉयल्टी भुगतान के बगैर नहीं कर सकती। 20 साल की अवधि के बाद कोई भी निर्माता अपने देश के सम्बंधित अधिकारी से उत्पादन का लायसेंस प्राप्त करके उस दवा को जेनेरिक नाम पैरासिटामॉल या अपनी पसंद के किसी ब्रांड नाम से बेच सकता है।
जिस औषधि की पेटेंट अवधि (Patent Expiry) पूरी हो चुकी है और उसे ‘जेनेरिक’ (Generic Drug) के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया है, उसे बदकिस्मती से, जेनेरिक नाम से नहीं बल्कि अलग-अलग कंपनियों द्वारा अलग-अलग ब्रांड नामों से बेचा जाता है। इसका परिणाम विभिन्न ‘ब्रांडेड जेनेरिक्स’ के रूप में सामने आता है। उदाहरण के लिए, भारत में पैरासिटामॉल, जो कई वर्षों से पेटेंट-मुक्त (Off-Patent Drugs) है, को क्रोसिन (Crocin), कैल्पॉल (Calpol), मेटासिन (Metacin), डोलो (Dolo) तथा कई अन्य ‘ब्रांडेड जेनेरिक’ (Branded Generic Drugs) नामों से बेचा जाता है। इस तरह के ब्रांडिंग से जेनेरिक नाम पीछे रह जाता है और सामने आते हैं एक ही जेनेरिक औषधि के दर्जनों ब्रांड्स। इन ब्रांड्स की कीमत जेनेरिक औषधि से काफी अधिक रखी जाती है क्योंकि उपभोक्ता औषधि के मूल, जेनेरिक नाम से अनभिज्ञ रहते हैं क्योंकि ब्रांडेड पैकेज पर जेनेरिक नाम छोटे अक्षरों में छापा जाता है। उपभोक्ता तो अति-विज्ञापित ब्रांडेड उत्पाद के लिए अतिरिक्त कीमत चुकाते रहते हैं। इस तरह की ब्रांडिंग डॉक्टरों के लिए भी बोझ बन जाती है क्योंकि उन्हें विभिन्न जेनेरिक औषधियों के ब्रांड नाम याद रखने होते हैं जबकि उनका पूरा प्रशिक्षण जेनेरिक नामों के आधार पर होता है और चिकित्सा साहित्य में जेनेरिक नामों का ही इस्तेमाल होता है।
भारत में दवा कंपनियां 60 जेनेरिक औषधि वर्गों के 60,000 से ज़्यादा (ब्रांडेड) जेनेरिक्स (Branded Generics in India) का विपणन करती हैं। हालांकि कुछ जेनेरिक निर्माता अपनी दवाइयों का थोक बाज़ार में विपणन जेनेरिक नामों से करते हैं और इन्हें कुछ अस्पतालों तथा सरकारी संस्थाओं को बेचते हैं, लेकिन ‘जेनेरिक्स व्यापार’(generic trade) में लगी अधिकांश कंपनियां जेनेरिक्स के लिए अपने-अपने ब्रांड नामों का उपयोग करती है। ये विविध ब्रांड नाम व्यापारिक प्रतिस्पर्धा (market competetion) के चलते उभरते हैं; हर कंपनी डॉक्टरों को पटाना चाहती है – गलत-सही तरीकों से – कि वे उसका ब्रांड लिखें। इस तरह के क्रियाकलाप पर काफी खर्च होता है और बड़ी कंपनियां अधिक संसाधनों के दम पर अधिक खर्च कर सकती है। परिणास्वरूप, चंद बड़ी-बड़ी कंपनियां, विज्ञापनों के ज़रिए बाज़ार पर हावी रहती हैं और अंतत: इसकी कीमत उपभोक्ता चुकाते हैं। एक बारगी डॉक्टर को किसी ब्रांडेड जेनेरिक की बेहतर गुणवत्ता की घुटी पिला दी गई तो दवा कंपनी उसकी कीमत बढ़ा देती है। कई डॉक्टर प्राय: इस मूल्य वृद्धि से अनभिज्ञ रहते हैं या उसकी अनदेखी कर देते हैं। नतीजतन, ऐसे किसी ब्रांड की कीमत उत्पादन-लागत से 10-20 गुना अधिक हो जाती है।
इस समस्या का आसान समाधान यह है कि सरकार उन सभी औषधियों के ब्रांड नामों की निंदाई कर दे जिनकी पेटेंट अवधि समाप्त हो चुकी है। यह सुझाव 1975 में ही औषधि एवं दवा उद्योग समिति (हाथी समिति रिपोर्ट-hathi committee report) मे दे दिया गया था। रिपोर्ट में “चरणबद्ध तरीके से ब्रांड नाम समाप्त करने” का सुझाव दिया गया था, सिवाय उनके जो फिलहाल पेटेंट एकाधिकार (patent monopoly) के तहत हैं। हालांकि तत्कालीन सरकार शुरू-शुरू में इसके प्रति सकारात्मक थी लेकिन थोड़े-बहुत क्रियान्वयन के बाद ही दवा कंपनियों द्वारा कानूनी कार्रवाई ने इसे रोक दिया।
ब्रांड नामों के उन्मूलन का बड़ी दवा कंपनियां और उनके समर्थक विरोध करते हैं। वे तर्क देते हैं कि उनके ब्रांड की गुणवत्ता सुनिश्चित है और उनकी कीमतें अधिक इसलिए हैं क्योंकि उच्च मानकों को बनाए रखने की लागत अधिक होती है। वे यह भी दावा करती हैं कि ‘जेनेरिक्स’ या छोटी कंपनियों के ब्रांडेड जेनेरिक्स अमानक होते हैं। अधिकांश डॉक्टर्स बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों के इस प्रपोगैंडा की चपेट में आ जाते हैं। लेकिन, जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया था, भारत के बाज़ार में 90 प्रतिशत दवाइयां जेनेरिक हैं यानी पेटेंट से बाहर हैं।
ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिसने यह बताया हो कि नवाचारी के ब्रांड या अन्य अग्रणी बड़ी कंपनियों के ब्रांड की गुणवत्ता ठीक है जबकि ब्रांडेड जेनेरिक्स की गुणवत्ता कम है। लिहाज़ा, अग्रणी ब्रांड्स की ऊंची कीमतों को यह कहकर सही नहीं ठहराया जा सकता कि उनकी गुणवत्ता ऊंचे दर्जे की है और उच्च गुणवत्ता बनाए रखने की लागत अधिक होती है।
लोकॉस्ट स्टैण्डर्ड थेराप्यूटिक्स (लोकॉस्ट-LOCOST) नामक एक चैरिटेबल ट्रस्ट 30 से अधिक वर्षों से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (primary healthcare) के लिए अच्छी गुणवता की ज़रूरी दवाइयों का उत्पादन करता आया है और उन्हें जेनेरिक नामों से गैर-मुनाफा गैर सरकारी चेरिटेबल स्वास्थ्य संस्थाओं को काफी कम कीमत पर बेचता आया है। लोकॉस्ट अपने लिए बहुत कम मार्जिन (less margin) रखता है, सिर्फ अपने उत्पादन संयंत्र के संचालन व उन्नयन के लिए पर्याप्त। यानी सिर्फ हाथी समिति द्वारा 1975 में सारे ब्रांड नाम समाप्त करने के सुझाव पर अमल करके दवाइयों की कीमतें एक-तिहाई से लेकर 10 गुना तक कम की जा सकती हैं। इसलिए दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से बेची जानी चाहिए। जब उपभोक्ता को पता होगा कि एक ही दवा विभिन्न कंपनियों द्वारा बेची जा रही है, तो वे सस्ती दवा को चुनेंगे, तो कीमतें कम हो जाएगी।
ब्रांड नाम अनावश्यक भ्रम भी पैदा करते हैं क्योंकि फैंसी ब्रांड नाम और उसके अंदर मौजूद औषधि के बीच कोई सम्बंध नहीं होता। ब्रांड नाम के साथ एक और दिक्कत यह है कि यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि मरीज़ को गलत दवा मिल जाएगी क्योंकि कई ब्रांड नाम एक जैसे दिखते हैं लेकिन उनमें औषधि अलग-अलग होती है। जैसे ‘A to Z’, ‘AZ-A’, और ‘AZ’ क्रमश: एक विटामिन, एक एंटीबायोटिक और एक कृमिनाशी दवा के ब्रांड नाम हैं। और यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि डॉक्टरों द्वारा हाथ से लिखी गई पर्चियों की अपठनीयता मशहूर है। ऐसे में मेडिकल स्टोर वाले इन्हें गलत पढ़ सकते हैं और यह मरीज़ के लिए घातक हो सकता है।
बेतुकेनियतखुराकऔषधिमिश्रण (FDC)
चिकित्सा पाठ्य पुस्तकें व अन्य विद्वान कुछ दवाइयों को मिलाकर इकलौती गोली या तरल के रूप में देने की सलाह देते हैं, तब जब ऐसा करना उन्हीं दवाइयों को अलग-अलग देने से अधिक लाभदायक हो। इन्हें नियत खुराक मिश्रण या एफडीसी (Fixed-Dose Combination – FDC) कहते हैं। उदाहरण के लिए, पाठ्य पुस्तकें सिफारिश करती हैं कि लौह (iron) की कमी से होने वाले एनीमिया का उपचार लौह व फॉलिक एसिड (folic acid) दोनों के मिश्रण से किया जाना चाहिए क्योंकि अमूमन लौह की कमी के साथ फॉलिक एसिड की कमी भी देखी जाती है। इसी प्रकार से, कैल्शियम (calcium) की गोली में विटामिन डी (vitamin D) मिलाना ज़्यादा कारगर होता है क्योंकि विटामिन डी आंतों में कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है। एफडीसी इकलौते घटक वाली दवा से महंगे हो सकते हैं लेकिन यह अतिरिक्त कीमत इनकी अधिक उत्पादन लागत और अधिक असर के आधार पर उचित ठहराई जा सकती है।
जब दो या अधिक औषधियों को मिलाने का कोई वैज्ञानिक तर्क न हो तो ऐसे मिश्रणों को बेतुके एफडीसी (irrational FCD) कहा जाता है। ऐसे बेतुके एफडीसी ज़्यादा महंगे इसलिए होते हैं कि इनमें अनावश्यक अतिरिक्त घटक मिलाए जाते हैं जबकि इससे कोई अतिरिक्त फायदा नहीं मिलता। दूसरी बात, दवा कंपनियां इनकी अतिरिक्त प्रभाविता के भ्रामक दावे बढ़ा-चढ़ाकर करती हैं (जबकि वाकई ऐसी कोई अतिरिक्त प्रभाविता होती नहीं है)। और यह कहकर उनकी कीमतें बढ़ा देती हैं कि कंपनी यह अधिक असरदार नुस्खा बेच रही है। इन बेतुके एफडीसी के साइड प्रभाव (side-effects of irrational FCDs) भी इकलौते घटक वाली दवा से ज़्यादा होते हैं। एक से अधिक अवयव के चलते इनकी गुणवत्ता की जांच भी ज़्यादा मुश्किल होती है। राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची-2011 में शामिल 348 दवाइयों में से मात्र 16 (5 प्रतिशत) ही एफडीसी थीं क्योंकि सिर्फ यही वैज्ञानिक रूप से उचित हैं। अलबत्ता, भारत के दवा बाज़ार में 40 प्रतिशत दवा-नुस्खे एफडीसी हैं। महंगे होने के अलावा अनावश्यक अवयवों के चलते इनके साइड प्रभाव भी अधिक हैं। ऐसे बेतुके एफडीसी भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से महंगी होने का एक प्रमुख कारण है। अत: सिर्फ उन्हीं एफडीसी को अनुमति दी जानी चाहिए जिनकी सिफारिश प्रामाणिक चिकित्सा पाठ्य पुस्तकों या अन्य चिकित्सा विद्वानों द्वारा की गई है। बाज़ार में आज बिक रहे सैकड़ों अन्य एफडीसी पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। इससे दवाइयों पर होने वाला अनावश्यक खर्च बचेगा और इनमें मिलाए गए अनुपयुक्त अवयवों से होने वाले साइड प्रभावों से भी सुरक्षा मिलेगी।
‘मी–टूदवाइयां‘ (Me-too Drugs)
दवा कंपनियों के लिए यह आसान और ज़्यादा मुनाफादायक होता है कि वे किसी ‘नई दवा’ का विकास किसी पहले से चली आ रही दवा (Existing Drug Molecule) में थोड़े बहुत परिवर्तन के ज़रिए करें। मौजूदा दवाइयों के ये रासायनिक सहोदर मूल दवा की तुलना में कोई खास चिकित्सकीय लाभ (therapeutic benefits) नहीं देते। ऐसी ‘नई दवाइयों’ को ‘मी-टू दवाइयां’ कहा जाता है। दवा कंपनियां किसी भिन्न रासायनिक वर्ग की दवाइयां विकसित करने की बजाय ऐसी ‘मी-टू दवाइयों’ (Me-Too Drugs in India) पर खूब ध्यान देती हैं जबकि नए रासायनिक वर्ग की दवाइयां मौजूदा दवा की अपेक्षा कई लाभ प्रदान करती हैं।
‘मी-टू दवाइयां’ अमूमन तब बाज़ार में उतारी जाती हैं जब मूल अणु की पेटेंट अवधि समाप्ति के करीब होती है। ये तथाकथित नई दवाइयां (Newly Launched Me-Too Drugs) कहीं अधिक बढ़े हुए दाम पर बेची जाती हैं, और दावा किया जाता है कि ये बेहतर विकल्प हैं। कभी-कभी ये दावे कुछ हद तक सही होते हैं लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि चतुर, आक्रामक विपणन रणनीतियों के दम पर ये ‘नई’ दवाइयां डॉक्टरों के बीच लोकप्रिय हो जाती हैं, चाहे उनमें कोई खास बात न हो। अधिकांश मामलों में कीमतें इतनी ज़्यादा होती हैं कि उन्हें अतिरिक्त लाभ (यदि कोई हो) के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। कारण यह है कि इन दवाइयों को नई दवा कहा जाता है जिस पर पेटेंट एकाधिकार होता है।
मसलन, एंजियोटेन्सिव रिसेप्टर ब्लॉकर (ARBs) दवाइयों का एक समूह है जिनका उपयोग उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु किया जाता है। अलबत्ता, दवा कंपनियों द्वारा इसी समूह की पांच अन्य औषधियों का विकास कर लिया गया है। इसी तरह, भारत के दवा बाज़ार में सात किस्म के स्टेटिन्स, आठ किस्म के एसीई अवरोधक और नौ किस्म के क्विनोलोन्स हैं। क्या इतनी सारी महंगी ‘मी-टू’ दवाइयां सचमुच आवश्यक हैं? और उपभोक्ता क्यों थोड़े से या शून्य अतिरिक्त लाभ के लिए ज़्यादा भुगतान करें?
‘मी-टू दवाइयों’ पर प्रतिबंध तो नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे मूल दवाइयों के समान सुरक्षित व प्रभावी दर्शाई गई हैं। लेकिन बेहतर प्रभाविता और सुरक्षा के उनके दावों की गहन जांच स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। और दवा कंपनियों द्वारा ‘मी-टू दवाइयों’ की प्रचार-प्रसार सामग्री की भी जांच होनी चाहिए।
दवाइयोंपरउत्पादपेटेंट
भारतीय पेटेंट कानून, 1970 ने ब्रिटिश राज के उत्पाद-पेंटेट कानून की जगह प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था लागू की थी। इसके कारण भारत में जेनेरिक दवाइयों के उत्पादन में उछाल आया था और दवाइयों की कीमतों में भी काफी कमी आई थी क्योंकि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार टूटा था और उत्पादन लागत भी कम हुई थी। क्वालिटी जेनेरिक्स का निर्यात विकसित देशों तक को किया गया था, और आज भारत में निर्मित लगभग आधी दवाइयां विकसित देशों को निर्यात की जाती हैं। लिहाज़ा भारत ‘विकासशील देशों की औषधि शाला’ के रूप में उभरा।
अलबत्ता, जब भारत विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बना, तब से बातें बदलने लगीं। बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार सम्बंधी पहलुओं पर समझौता यानी एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (TRIPS) के अंतर्गत कई मामले आते हैं। इनमें उत्पाद पेटेंट भी शामिल है। ट्रिप्स समझौते की शर्त है कि सारे सदस्य देश उत्पादों और प्रक्रियाओं, जो कतिपय मापदंडों को पूरा करते हों, के लिए पेटेंट सुरक्षा प्रदान करेंगे। इसमें कुछ अपवादों की गुंजाइश रखी गई है। कम विकसित होने के आधार पर भारत उत्पाद पेटेंट सुरक्षा को लागू करने में विलंब कर सकता था। लेकिन अंतत: दवा कंपनियों के दबाव में भारत सरकार ने 2005 में दवाइयों के मामले में उत्पाद पेटेंट को पुन: लागू कर दिया। इसका मतलब हुआ कि 1970 के पहले के दिनों की तरह, भारत में नई पेटेंटशुदा दवाइयों का उत्पादन आविष्कार के 20 साल बाद ही किया जा सकता है। हां, नवाचारकर्ता अनुमति दे दे तो बात अलग है। यानी इन नई दवाइयों, जो आधुनिक विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के फल हैं, पर उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के तहत नवाचारी कंपनी का एकाधिकार हो जाता है और उन्हें निहायत ऊंचे दामों पर बेचा जाता है। इनकी कीमतें मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से भी बाहर होती हैं।
फिलहाल ये नई दवाइयां कुल बाज़ार का बहुत छोटा हिस्सा हैं। लेकिन ये बहु-औषधि-प्रतिरोधी टीबी, कतिपय अल्सर, और हिपेटाइटिस-सी के मरीज़ों के लिए जीवन-मृत्यु का मामला होती हैं क्योंकि इनकी कीमतें अत्यंत अधिक होती हैं। आने वाले दो-तीन दशकों में मौजूदा तथा नई स्वास्थ्य समस्याओं के लिए कहीं अधिक असरदार तथा सुरक्षित दवाइयां खोजी जाने की संभावना है। ये समस्याएं आबादी के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं। इसलिए, यह मौका है कि उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक दबाव बनाने में भारत सरकार अन्य सहमना शक्तियों के साथ मिलकर सक्रिय भूमिका निभाए। लक्ष्य यह होना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में बदलाव हों, तथा प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था पर लौटा जाए।
शुक्र है कि ‘दोहा घोषणा पत्र’ की बदौलत, भारत अपने संशोधित भारतीय पेटेंट कानून 2005 में ‘अनिवार्य लायसेंस’ के प्रावधान को बरकरार रख पाया – यह एक ऐसा प्रावधान है जिसके ज़रिए जनहित में ज़रूरी होने पर वह किसी नवाचारी कंपनी को आदेश दे सकता है कि वह किसी दवा, जिसके लिए उसके पास उत्पाद पेटेंट है, के उत्पादन की अनुमति अन्य कंपनियों को दे। बदकिस्मती से, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पश्चिमी सरकारों के दबाव के चलते, भारत सरकार ‘अनिवार्य लायसेंस’ प्रावधान का इस्तेमाल करने को लेकर अनिच्छुक रही है। भारत सरकार को ‘अनिवार्य लायसेंस’ तथा अन्य गुंजाइशों का इस्तेमाल करना चाहिए। (स्रोतफीचर्स)
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अक्सर भारत में दवाइयों(medicines) की ऊंची कीमतों(high prices) को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं; जिन्हें अधिकांश लोग वहन नहीं कर सकते। देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम होने के बावजूद मरीज़ों को ये दवाइयां महंगे दामों (expensive drugs) पर क्यों मिलती हैं? भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के कुछ प्रमुख कारण हैं। दो भागों में प्रस्तुत इस लेख के पहले भाग में हम भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति पर बात करेंगे। और दूसरे भाग में भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों (branded medicines), बेतुके नियत खुराक मिश्रणों (fixed-dose combinations (FDCs)), ‘मी टू’ औषधियों (me-too drugs) को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।
भाग 1: देशमेंदवाकीमतोंकानाममात्रकानियमन
आदर्श दृष्टि से तो दवाइयां देखभाल के स्थान पर मुफ्त मिलनी चाहिए। भारत में सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों (public healthcare system) पर यही स्थिति होनी चाहिए। लेकिन मात्र करीब 20 प्रतिशत बाह्य रोगी देखभाल तथा 44 प्रतिशत भर्ती रोगी देखभाल ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा द्वारा दी जाती है। दूसरी बात यह है कि पिछले तीन दशकों में सरकार की निजीकरण नीतियों (privatization policies) के चलते सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की अनदेखी हुई है, और उनके पास फंड की कमी है। लिहाज़ा, इन केंद्रों पर दवाइयों की उपलब्धता (drug availability) की कमी है। परिणामस्वरूप, कई मर्तबा रोगियों को इन केंद्रों से स्वास्थ्य सेवा लेते समय भी दवाइयों पर खुद की जेब से खर्च (out-of-pocket expenditure) करना पड़ता है। मात्र तीन राज्य – तमिलनाडु, केरल और राजस्थान – इसके अपवाद हैं, जहां सरकारी केंद्रों के लिए दवा खरीद व आपूर्ति का सराहनीय मॉडल अपनाया गया है।
कुल मिलाकर देखें, तो भर्ती मरीज़ों के मामले में 29.1 प्रतिशत तथा बाह्य रोगियों के मामले में 60.3 प्रतिशत खर्च जेब से (आउट ऑफ पॉकेट) किया जाता है। इसके अलावा दवाइयों पर किया गया खर्च हर साल 3 प्रतिशत भारतीयों को गरीबी में धकेल देता है। इसके विपरीत, विकसित देशों (developed countries) में जेब से खर्च कम है क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा बीमा (health insurance) समेत सार्वजनिक वित्तपोषण (public funding) द्वारा वहन किया जाता है।
भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के दो कारण हैं। पहला, भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति। दूसरा, भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों, ‘मी टू’ औषधियों को दी जाने वाली अनुमति। इस लेख के पहले हिस्से में पहले कारण – यानी भारत में दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति – की चर्चा की गई है।
नियमनक्योंज़रूरीहै
दवाइयां एक मायने में अनोखी वस्तु हैं। इनके सेवन का निर्देश देने वाला – डॉक्टर (doctor)– उनका भुगतान नहीं करता और इन्हें खरीदने वाला – मरीज़ (patient) – दवाइयों के चयन सम्बंधी निर्णय नहीं करता। मरीज़ लिखी गई हर दवा को किसी भी कीमत पर खरीदता है। इस मामले में देरी करने या बातचीत करने का विकल्प नहीं होता क्योंकि मरीज़ दर्द या तकलीफ में होता है। देरी करना या बातचीत में समय गंवाना जानलेवा भी हो सकता है। दवा खरीदार के रूप में विकल्प चुनने की आज़ादी या तो होती ही नहीं, या बहुत सीमित होती है। इसके अलावा, लिखी गई दवा के बारे में, उसका अन्य विकल्प चुनने के बारे में जानकारी का एक असंतुलन (information asymmetry) होता है, इसके साथ-साथ दवाइयों की तकनीकी पेचीदगियों (technical complexities) को लेकर और दवाइयों के साइड प्रभावों (side effects) या प्रतिकूल प्रभावों (adverse effects) को लेकर डर होता है। नतीजतन, किसी भी अन्य सेक्टर की अपेक्षा स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता इस डर में रहते हैं कि कोई गड़बड़ न हो जाए। मरीज़ों की यह अनोखी दुर्बलता, और साथ में व्यापक गरीबी मिलकर दवा जैसी अनिवार्य वस्तु की कीमतों पर नियंत्रण की ज़रूरत को उजागर करती हैं।
अलबत्ता, भारत में असरहीन नियमन के चलते, भारतीय दवा उद्योग बेरोकटोक मुनाफाखोरी में लिप्त है। दवा कंपनियां या तो मोनोपॉली या ओलिगोपॉली (पूर्ण एकाधिकार या कुछ कंपनियों का मिलकर एकाधिकार) के रूप में बनी हैं। इसके चलते उन्हें मूल्य-निर्धारण पर अधिकार मिल जाता है। यानी मरीज़ की कमज़ोर स्थिति के अलावा उन्हें बाज़ार में कमज़ोर प्रतिस्पर्धा होने का भी फायदा मिलता है। कई मामलों में तो सर्वोच्च 3-4 ब्रांड मिलकर बाज़ार के बड़े हिस्से पर काबिज़ होते हैं। फिर, बड़ी दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को ऊंचे दाम वाले ब्रांड्स लिखने को राज़ी कर लिया जाता है। इन सबका परिणाम भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से ऊंचे दामों के रूप में सामने आता है। आइए, देखते हैं कि कैसे।
कीमतोंकानाममात्रकानियमन
जो लागत-प्लस (cost-plus formula) सूत्र ज़रूरी सेवाओं (टेलीफोन/सेलफोन की कॉल दरें, बिजली, टैक्सी) की दरें तय करने में काम आता है उसी का इस्तेमाल दवाइयों की कीमतें तय करने में भी होना चाहिए। दरअसल, 1979 से यही तरीका था जब दवाइयों की बड़ी संख्या के मूल्यों का नियमन करने के लिए लागत-प्लस विधि का उपयोग किया गया था। निर्माता की उत्पादन-लागत के आधार पर एक उच्चतम कीमत निर्धारित कर दी जाती थी, और उसके ऊपर 100 प्रतिशत का मार्जिन रखा जाता था। अलबत्ता, दवा कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाया जिसके चलते मूल्य-नियंत्रण (cost-control) के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 में मात्र 74 रह गई जबकि 1979 में इनकी संख्या 347 थी। एक जनहित याचिका के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत की वजह से सरकार को समस्त अनिवार्य दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधीन लाने पर विवश होना पड़ा था (विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) के मुताबिक ‘अनिवार्य दवाइयां वे हैं जो किसी आबादी की प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की पूर्ति करती हैं।’) 2013 में, राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 की सारी 348 दवाइयों को ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013’ के ज़रिए मूल्य नियंत्रण के अधीन लाया गया था। इस आदेश की वजह से औषधि मूल्य नियंत्रण के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 की तुलना में कहीं ज़्यादा हो गई। लेकिन ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013’ के मुताबिक राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 में शामिल समस्त दवाइयों की कीमत किसी दवा के उन समस्त ब्रांड की कीमतों का औसत होगी जिनका बाज़ार में हिस्सा 1 प्रतिशत से अधिक है। बाज़ार में हिस्से की गणना उनकी वार्षिक बिक्री के आधार पर की जाएगी।
बाज़ार-आधारित मूल्य (MBP) निर्धारण ने प्रभावी तौर पर अनिवार्य दवाइयों की उस समय प्रचलित निहायत ऊंची कीमतों को वैधता दे दी। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 1995 की लागत-आधारित दवा कीमतों को इन अनिवार्य दवाइयों के लिए जारी रखा जाता तो दवाइयों के मूल्य ठीक-ठाक स्तर पर बने रहते। लेकिन जब से नई बाज़ार-आधारित मूल्य-निर्धारण पद्धति को अपनाया गया, तब से मूल्य-नियंत्रण के अधीन आने वाली इन दवाइयों की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, डिक्लोफेनेक 50 मि.ग्रा. (diclofenac 50mg) की गोली, जिसका उपयोग शोथ व दर्द कम करने के लिए किया जाता है, की कीमत (यदि लागत-आधारित मूल्य निर्धारण लागू किया जाता) डीपीसीओ के तहत 2.81 रुपए प्रति 10 गोली होती (देखें तालिका 1)। लेकिन मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 के तहत 10 गोलियों की फुटकर कीमत (retail price) 19.51 रुपए निकली क्योंकि यह इस गोली के 1 प्रतिशत से ज़्यादा बाज़ार-हिस्से वाले ब्रांड्स की औसत कीमत और उसमें फुटकर विक्रेता का 16 प्रतिशत मार्जिन जोड़कर निकाली गई है। दरअसल, डीपीसीओ-2013 में बाज़ार-आधारित पद्धति से निकाली गई कीमत उस दवा के उत्पादन की वास्तविक लागत की बजाय ब्रांड मूल्य को प्रतिबंबित करती है। मतलब यह हुआ कि आम तौर पर इस्तेमाल की जानी दवाइयों के मामले में उपभोक्ता पर 290 से लेकर 1729 प्रतिशत का अनावश्यक बोझ पड़ा।
डीपीसीओ-2013 इस तरह से बना था कि यह उच्चतम कीमतों को तो कम करता था लेकिन इसने उन अधिकांश ब्रांड्स की कीमतों को कदापि प्रभावित नहीं किया जो पहले से ही उच्चतम मूल्य से कम पर बिकते थे। आम लोगों के लिहाज़ से तो मूल्य नियंत्रण सिर्फ अधिकतम कीमत पर लागू नहीं होना चाहिए बल्कि सारी अनावश्यक रूप से महंगी दवाइयों पर लागू होना चाहिए। उपलब्ध आंकड़ों से पता चला है कि डीपीसीओ-2013 (DPCO-2013) में सम्मिलित 370 दवाइयों की बिक्री 11,233 करोड़ रुपए थी। डीपीसीओ-2013 के लागू होने से इन दवाइयों की बिक्री से आमदनी 1280 करोड़ रुपए (लगभग 11 प्रतिशत) कम हो गई। यह कमी इन दवाइयों की कीमत में नाममात्र की कमी ही थी। इतनी कमी की भरपाई तो साल-दर-साल बिक्री में होने वाली वृद्धि से हो जाएगी।
डीपीसीओ-2013 दवा कंपनियों को भारी-भरकम मुनाफे की गुंजाइश देता है, यह इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि डीपीसीओ-2013 द्वारा निर्धारित कीमतें जन-औषधि स्टोर्स पर उन्हीं दवाइयों की कीमतों से कहीं ज़्यादा है। जन-औषधि योजना मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 2008 में शुरू की गई थी। इसके अंतर्गत सरकार फुटकर औषधि विक्रेताओं को फर्नीचर व अन्य प्रारंभिक स्थापना के लिए 2 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि देती है। इसके अलावा, जन-औषधि केंद्र चलाने के लिए मासिक बिक्री पर 15 प्रतिशत (अधिकतम 15,000 रुपए) का प्रोत्साहन है, बशर्ते कि वे दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर बेचें। गुणवत्ता के आश्वासन के साथ जेनेरिक नामों वाली दवाइयां इन जन-औषधि केंद्रों को सरकार द्वारा नियंत्रित व अत्यंत कम दामों पर उपलब्ध कराई जाती हैं, और विक्रेता को 20 प्रतिशत का मार्जिन मिलता है। (भारत में आम तौर पर दवा कंपनियां फुटकर विक्रेताओं के लिए 16 प्रतिशत तक का मार्जिन छोड़ती हैं।) हालांकि इस योजना के लिए बजट अत्यंत सीमित था और यह एक सांकेतिक योजना ही बनी रही, लेकिन यह दर्शाती है कि फुटकर दुकानों पर दवाइयां आजकल के मुकाबले कहीं कम दामों पर बेची जा सकती हैं। यह तालिका 2 में देखा जा सकता है।
निष्कर्ष के तौर पर, कहा जा सकता है कि दवाइयों की उत्पादन लागत की तुलना में उनकी कीमतें बहुत अधिक (overpriced medicines) हैं क्योंकि डीपीसीओ-2013 ने मूल्य-नियंत्रण को नाममात्र का बना दिया है, और दवा कंपनियों को भारी मुनाफाखोरी की छूट दे दी है। तब क्या आश्चर्य कि भारत में उत्पादन लागत के मुकाबले दवाइयों की कीमत बहुत ज़्यादा हैं। (स्रोतफीचर्स)
तालिका 1 व तालिका 2 अगले पृष्ठों पर देखें।
तालिका -1: दवाइयों की कीमतें (2013) डीपीसीओ-2013 की बाज़ार-आधारित पद्धति और यदि डीपीसीओ-1995 जारी रहता तो उत्पादन लागत पद्धति की तुलना (10 गोली की एक पट्टी की कीमत रुपए में)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/width-420,height-315,imgsize-131232,resizemode-75,msid-93934416/industry/healthcare/biotech/pharmaceuticals/life-saviors-force-feed-pills-bitter-on-pocket-in-exchange-for-exotic-vacations-chic-cars/costly-medicines-istock-806901640.jpg
विज्ञान को आम तौर पर तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित सत्य की खोज माना जाता है। लेकिन क्या हो अगर आंकड़े एक ही हों लेकिन अलग-अलग वैज्ञानिक भिन्न नतीजों तक पहुंचें? बीएमसीबायोलॉजी (BMC Biology journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से ऐसी ही चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई है – एक ही डैटा सेट (data set) का विश्लेषण करते हुए भी वैज्ञानिक अलग-अलग परिणाम पा सकते हैं। यह अंतर इस बात पर निर्भर करता है कि वे विश्लेषण के दौरान पद्धति (methodology) को लेकर क्या निर्णय लेते हैं और किन आंकड़ों को नज़रअंदाज़ करते हैं।
यह अध्ययन पारिस्थितिकी (ecology research) के क्षेत्र में अपनी तरह का पहला अध्ययन है। इससे स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) में लिए गए कुछ व्यक्तिगत निर्णय नतीजों में अंतर पैदा कर सकते हैं।
मेलबर्न विश्वविद्यालय के पीएचडी छात्र एलियट गोल्ड के नेतृत्व में किए गए इस अध्ययन में 246 पारिस्थितिकीविदों की 174 टीमों को दो समान डैटा सेट्स (datasets) देकर विश्लेषण करने को कहा गया था। इसका उद्देश्य यह देखना था कि वैज्ञानिकों द्वारा लिए गए व्यक्तिगत निर्णयों का अंतिम निष्कर्षों (findings) पर कितना प्रभाव पड़ता है।
प्रकरण 1: पहलासवालयहथाकिक्याघोंसलेमेंचूज़ोंकेबीचप्रतिस्पर्धा(competition among chicks)काउनकेविकासपरअसरपड़ताहै।सवालब्लू–टिटपक्षी(blue tit bird)केचूज़ोंकेसंदर्भमेंथा। इस सवाल के विश्लेषण के लिए सभी समूहों को 452 पक्षी घोंसलों से सम्बंधित एक ही डैटा दिया गया था। लेकिन समूहों के परिणाम काफी अलग-अलग रहे:
5 टीमों ने सहोदरों की संख्या का विकास से कोई सम्बंध नहीं पाया।
5 टीमों के निष्कर्ष मिश्रित थे।
64 टीमों ने पाया कि अधिक सहोदरों की उपस्थिति से चूज़े धीमे बढ़ते हैं, लेकिन प्रभाव की निश्चितता और परिमाण को लेकर सहमति नहीं थी।
प्रकरण 2: दूसरासवालयहथाकिक्याआसपासकमयाअधिकघास(grass cover)होनेसेयूकेलिप्टसकेपौधों(eucalyptus)केबचने–बढ़नेकीसंभावनाप्रभावितहोतीहै। इसके विश्लेषण के लिए डैटा ऑस्ट्रेलिया के उन 18 स्थानों से लिया गया था, जो यूकेलिप्टस के पुनर्स्थापन (eucalyptus restoration) के काम में भाग ले रहे थे। यहां भी परिणाम विरोधाभासी थे:
18 टीमों ने पाया कि ज़्यादा घास हो तो पौधों के जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है।
6 टीमों ने पाया कि ज़्यादा घास होने से पौधों को फायदा होता है।
31 टीमों ने निष्कर्ष दिया कि घास की मात्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
तो सवाल है कि वैज्ञानिकों के निष्कर्ष (scientific conclusions) इतने अलग-अलग क्यों थे? इसका कारण एक ही डैटा सेट का विश्लेषण करते समय वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग निर्णय लेना है। इसमें यह समझना महत्वपूर्ण है कि वैज्ञानिक:
कौन-सी सांख्यिकीय विधि (statistical method) अपना रहे हैं?
किन कारकों को नियंत्रित कर रहे हैं?
अनुपलब्ध डैटा (missing data) से कैसे निपट रहे हैं?
निर्णय लेने में शामिल विधियों में थोड़ा भी फर्क अंतिम निष्कर्ष में बड़ा अंतर ला सकता है। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विज्ञान पूरी तरह वस्तुनिष्ठ (objective science) नहीं होता, बल्कि विश्लेषण के तरीकों पर निर्भर करता है।
गौरतलब है कि यह समस्या केवल पारिस्थितिकी (ecology) तक सीमित नहीं है। मनोविज्ञान (psychology), तंत्रिका विज्ञान (neuroscience), समाजशास्त्र (sociology) और अर्थशास्त्र (economics) में भी ऐसे अलग-अलग निष्कर्ष निकल सकते हैं।
कुछ विशेषज्ञ इसे वैज्ञानिक विश्वसनीयता (scientific credibility) के लिए गंभीर समस्या मानते हैं। अगर परिणाम इस पर निर्भर करते हैं कि डैटा का विश्लेषण (data analysis) कौन कर रहा है, तो क्या निष्कर्षों पर भरोसा किया जा सकता है?
वहीं, कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि इन अध्ययनों में वैज्ञानिकों से ऐसे डैटा का विश्लेषण करवाया गया, जो उनके विशेषज्ञता क्षेत्र से बाहर थे। उदाहरण के लिए, ब्लू टिट पक्षियों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक सामान्य पारिस्थितिकी वैज्ञानिकों की तुलना में बेहतर सांख्यिकीय विधियां चुन सकते हैं।
सौभाग्य से, यह स्थिति सुधारी जा सकती है। वैज्ञानिक निम्नलिखित तरीकों से निष्कर्षों की विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं:
अधिक स्पष्ट प्रश्न (research question) पूछकर
विश्लेषण के तरीके मानकीकृत (standardized methodology) करके
डैटा विश्लेषण (data analysis training) का बेहतर प्रशिक्षण देकर
इस अध्ययन का यह मतलब नहीं कि विज्ञान विफल हो रहा है। बल्कि, यह दर्शाता है कि डैटा विश्लेषण (data interpretation) उतना सीधा-सरल नहीं होता, जितना हम सोचते हैं। इस समस्या को स्वीकार करना वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) को अधिक पारदर्शी (transparent), विश्वसनीय (reliable) और भरोसेमंद (trustworthy) बना सकता है।
तो, अगली बार जब आप किसी अध्ययन का बड़ा दावा देखें, तो याद रखें कि इन फैसलों को देने वाला आखिर इंसान ही है, और हर इंसान थोड़ी अलग सोच और समझ रख सकता है। नतीजतन, इसके अलग परिणाम भी हो सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zoajpuc/full/_20250226_on_many_analysts-1741202622150.jpg
भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन (climate change in Himalayas) का प्रभाव महज भविष्य की चिंता नहीं रह गया है, बल्कि यह वर्तमान की एक गंभीर चुनौती बन गया है। हिमालय क्षेत्र न केवल भारत की जलवायु (Indian climate) और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देश के लाखों लोगों की आजीविका और जल स्रोतों (water resources) का आधार भी है।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बैंगलुरु के जलवायु प्रकोष्ठ द्वारा प्रकाशित एक रपट जलवायु परिवर्तन के मुख्य प्रभावों, उनके सामाजिक-आर्थिक परिणामों(socio-economic impact), और अनुकूलन रणनीतियों पर गहन दृष्टि प्रदान करती है। रपट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ज़िलों में तापमान, वर्षा (rainfall pattern) और प्राकृतिक आपदाओं (natural disasters) के स्वरूप में बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन न केवल पर्यावरण को बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और परिवारों के दैनिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता है। भारत में मानसून का बदलता स्वरूप (monsoon pattern) और तीव्र बारिश की घटनाएं कृषि, जल संसाधनों (water resources) और मानव जीवन (human life) पर गंभीर असर डाल रही हैं। रपट इस बात को रेखांकित करती है कि हमारे देश में जो सबसे वंचित और कमज़ोर वर्ग हैं, वे ही इस संकट का सबसे अधिक खामियाजा भुगत रहे हैं।
इस रपट में दिए गए आंकड़े ऐसे जलवायु मॉडलों पर आधारित हैं जो बहुत सटीक जानकारी देते हैं। ये मॉडल भारतीय हिमालय क्षेत्र के लिए 25×25 किलोमीटर के क्षेत्रों के लिए जलवायु अनुमान पेश करते हैं। इन मॉडलों में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा तैयार किए गए साझा सामाजिक-आर्थिक मार्गों (SSPs) का उपयोग किया गया है, जो भविष्य की जलवायु परिस्थितियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।
रपट के अनुसार, वर्ष 2021-2040 के बीच हिमालय क्षेत्र में औसत तापमान (average temperature) में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में यह वृद्धि 1.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकती है। तापमान वृद्धि से गर्मियों में ग्रीष्म लहरों (heat waves) की अवधि लंबी होने और उनकी आवृत्ति अधिक होने की संभावना है। यह न केवल पर्यावरण पर, बल्कि कृषि, जल स्रोतों और मानव स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा।
हिमालयी सर्दियों में अब लंबे शुष्क काल (dry period) देखे जा रहे हैं। सर्दियों के न्यूनतम तापमान में 2.1 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है, जिससे बर्फ की परत (ice sheet) पतली हो सकती है। इसका प्रभाव जलाशयों और कृषि पर पड़ रहा है। जल की कमी के कारण रबी फसलों (rabi crops) और पनबिजली उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बर्फ पिघलने पर घराट (पनचक्की) जैसे पारंपरिक साधन अब अनिश्चित हो गए हैं।
ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने (melting glaciers) के कारण जलाशयों के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है और हिमनद झील (glacial lake) विस्फोट बाढ़ की घटनाएं बढ़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2023 में सिक्किम की दक्षिण ल्होनक झील में ऐसा ही एक उदाहरण देखने में आया। हिमाचल प्रदेश के बागवान शिकायत करते हैं कि कम पड़ी सर्दियों के कारण सेबों का रंग और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
जलवायु परिवर्तन हिमालय क्षेत्र की कृषि (himalayan farming area) और आजीविका (livelihood) पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। तापमान और वर्षा के असामान्य पैटर्न के कारण पारंपरिक फसल चक्र प्रभावित हो रहा है। उदाहरण के लिए, लद्दाख में खुबानी (apricot production) उत्पादन तेज़ी से प्रभावित हो रहा है, और कुछ क्षेत्रों में नई फसलों की खेती को बढ़ावा मिला है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में गेहूं (wheat) और मक्के (maize) की पैदावार में कमी दर्ज की जा सकती है, जबकि उच्च तापमान के कारण सेब उत्पादन (apple production) के लिए उपयुक्त क्षेत्र अधिक ऊंचाई की ओर स्थानांतरित हो रहे हैं।
मौसम की अनियमितता (vagaries of weather) हिमालय क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान 10-20 फीसदी अधिक वर्षा होगी, जबकि पूर्वी ज़िलों में कमी देखी जा सकती है। भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ (flash floods) और भूस्खलन (landslides) जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ ने हज़ारों लोगों की जान ली थी और बुनियादी ढांचे को भारी क्षति पहुंचाई थी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सबसे अधिक समाज के कमज़ोर वर्गों (vulnerable group) पर पड़ रहे हैं। गुज्जर जैसे समुदाय, जो अपने मवेशियों के लिए चारागाहों पर निर्भर हैं, अब अधिक दूरी तय करने के लिए मजबूर हैं। जम्मू-कश्मीर के गुज्जर समुदाय (gujjar community) की शाहनाज़ अख्तर कहती हैं, “हमारे पारंपरिक प्रवास मार्ग अब बदल गए हैं। अनियमित बारिश (irregular rainfalls) और सूखा (draught) हमारे लिए बड़ी चुनौती बन गई है, जिससे हमें जल स्रोतों के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है।” मेघालय की रसिन मोहसिना शाह कहती हैं, “गर्मियों में बढ़ती आर्द्रता और बदलते मौसम ने यहां के जलवायु संतुलन को बदल दिया है। अब वह ठंडक महसूस नहीं होती जो पहले होती थी।”
हिमालयी नदियां, जैसे ब्रह्मपुत्र(brahmaputra), गंगा(ganga) और यमुना(yamuna), इस क्षेत्र की जीवनरेखा हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण इन नदियों के प्रवाह में अस्थिरता देखी जा रही है। जल संसाधन प्रबंधन के लिए स्थानीय जल स्रोतों का संरक्षण और पुनरुद्धार आवश्यक है। बावड़ी और तालाब जैसे पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार (revive) किया जाना चाहिए। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मानसूनी जल को संग्रहित कर सूखे के दौरान उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, नदियों के प्रवाह (river flow) को नियंत्रित करने और उनके किनारों पर पारिस्थितिकी को संरक्षित रखने के लिए प्रभावी नीतियां बनाई जानी चाहिए।
जलवायु परिवर्तन के कारण आपदाओं (disasters) की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता को देखते हुए प्रभावी आपदा प्रबंधन नीतियां आवश्यक हैं। भूस्खलन, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए सटीक और समय पर चेतावनी प्रणाली विकसित करना एक प्रमुख कदम है। संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों (basic infrastructure) का निर्माण आपदा-रोधी मानकों के अनुसार किया जाना चाहिए। आपदा प्रबंधन (disaster management) में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए, जिससे वे आपदाओं से निपटने के लिए सशक्त बन सकें। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://publications.azimpremjiuniversity.edu.in/5859/1/web-version-IHR-20112024.pdf