एक नए विषय का निर्माण

जयश्री रामदास

मेरा जन्म 1954 में मुंबई (mumbai) में हुआ और सबसे पहले दिल्ली के सेंट थॉमस स्कूल(St. Thomas School) में पढ़ी। मेरी सबसे प्यारी याद वह है जब मॉन्टेसरी स्कूल (montessori school) में चमचमाते सुनहरे मोतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये मोती तार पर पिरोए गए थे जो दस-दस मोतियों की पंक्तियों, दस-दस की पंक्तियों से बने सौ के एक वर्ग, और हज़ार मोतियों के एक चमकते हुए घन के रूप में थे। यह मेरा सौभाग्य था क्योंकि भारतीय स्कूलों (Indian Schools) में हाथ से खोजबीन करने के अनुभव बहुत दुर्लभ होते हैं। हो सकता है नफासत से तैयार किए गए उपकरण काफी महंगे होते हैं  लेकिन स्थानीय स्तर पर सरल संसाधनों तक को छोड़कर रट्टा लगाने (rote learning) पर ज़ोर दिया जाता था।

मेरी दूसरी खुशनुमा याद अंग्रेज़ी (English) की हमारी अध्यापिका मिस विल्सन की है, जो हमें कविताएं (rhymes) और तुकबंदियां (limericks) लिखने को प्रेरित करती थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा में एक लिमरिक तैयार करना था, जो मुझे बहुत मज़ेदार लगा। घर पर हम मराठी बोलते थे, और मेरी मां ने मुझे बोलचाल की भाषा और मज़ेदार मुहावरों से प्रेम विरासत में दिया था। ये सारी बातें बाद में मुझे प्राथमिक विज्ञान शिक्षण (Primary science education) में बहुत काम आईं।

सातवीं कक्षा मैंने बगदाद(bagdad) के अमेरिकन स्कूल(American school) से की। मेरे पिता, जो एक दूरसंचार इंजीनियर (telecommunication engineer) थे, को यू.एन. के असाइनमेंट पर नियुक्त किया गया था। मेरे माता-पिता का मानना था कि इस स्कूल ने पढ़ाई में मेरी रुचि जगाई, लेकिन मुझे यह साल किशोरावस्था (Adolescence) के गहरे तनाव और चिंता से भरा लगा। वहां शारीरिक रूप से मज़बूत, यौन सचेत (sexually aware) और नस्लीय रूप से आत्मविश्वासी (racially confident) बच्चों के बीच, मुझे केवल साप्ताहिक मेंटल मैथ (mental maths) प्रतियोगिता के दौरान अच्छा महसूस होता था, जब सभी छात्र-छात्राएं मुझे अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। हमारे विज्ञान और गणित के शिक्षक, मिस्टर बर्न्ट, हमसे कई प्रोजेक्ट कार्य (project work) करवाते थे, जिनका मैंने खूब आनंद लिया।

छह-दिवसीय अरब-इस्राइल युद्ध (Six-day Arab Israel war) के बाद जब अमेरिकन स्कूल बंद हो गया, तब मेरी मां मुझे वापस लाईं और पुणे के सेंट हेलेना बोर्डिंग स्कूल (St. Helena boarding school) में दाखिला दिलाया। यहां मुझे विज्ञान और गणित के अच्छे शिक्षक के रूप में मिस जोसेफ और मिस्टर जोग मिले, और मिली ग्रेगरी, धोंड और इंगले द्वारा लिखित भौतिकी की एक दिलचस्प किताब। यहां सीखने का तरीका केवल एक पाठ्यपुस्तक पढ़ने पर आधारित था, कुछ दुर्लभ प्रदर्शनों (rare demonstrations) को छोड़कर। मुझे एक अद्भुत डेमो याद है, जिसमें थोड़े से पानी को दस-लीटर के एक खाली कैरोसीन कैन (kerosene) में उबालने के बाद, ढक्कन लगाकर ठंडा किया गया, और वह ज़ोरदार आवाज़ के साथ सिकुड़कर ढेर हो गया।

मुझे भौतिकी (Physics) बहुत पसंद था ही, साथ ही मनोविज्ञान ने भी मुझे काफी आकर्षित किया। इसका एक कारण मेरी बुआ थीं, जो सामाजिक कार्य (social work) में लगी थीं। स्कूल पूरा करने के बाद मैंने विज्ञान (science) और कला(arts) दोनों में से किसी एक को चुनने पर विचार किया और अंत में मैंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में विज्ञान को चुना। हालांकि जीव विज्ञान (biology) मेरे लिए त्रासदायक रहा, लेकिन मिस्टर इनामदार द्वारा पढ़ाई गई सॉलिड ज्यामिति (solid geometry) का मैंने खूब आनंद लिया। मिस्टर इनामदार काफी अस्त-व्यस्त थे लेकिन रैंगलर महाजनी द्वारा लिखित किताब से उनका पढ़ाना काफी मज़ेदार था। रसायनशास्त्र के शिक्षक मिस्टर पाठक ने एक बार यादगार होमवर्क दिया था, जिसमें कुछ लीनियर हाइड्रोकार्बन (linear hydrocarbons) की रचनाएं बनानी थीं, और उन्होंने उस सूची में C6H6 का सूत्र घुसा दिया था। मुझे एरोमेटिक यौगिकों के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन बेंज़ीन की संरचना (benzene structure) का अनुमान लगाने में जो खुशी मिली, वह वर्षों तक याद रही।

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) में प्रोफेसर ए. पी. शुक्ला, एच. एस. मणि और अन्य शिक्षकों ने हमें बेहतरीन ढंग से भौतिकी पढ़ाई, लेकिन उस दौरान मुझे लगा कि मैं अपनी क्षमता से भी अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रही हूं। एम.एससी. के बाद की गर्मियों में मैंने बर्कले सीरीज़ की पर्सेल लिखित ऑन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (Electricity and Magnetism) को आराम से पढ़कर इस कमी को पूरा किया। कॉलेज में मैं पाठ्यपुस्तकों को आलोचनात्मक दृष्टि (critical analysis) से देखती और अपने दोस्तों से कहती कि एक दिन मैं इससे बेहतर किताबें लिखूंगी। मेरी विज्ञान, मनोविज्ञान और शिक्षण पद्धति में रुचि तब पूरी तरह एक साथ जुड़ीं जब 1976 में मैंने होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, टी.आई.एफ.आर.(TIFR) जॉइन किया।

चूंकि मेरा शोध प्रबंध (थीसिस) संभवतः भारत में विज्ञान शिक्षा में सबसे पहला था, इसलिए मुझे इस क्षेत्र को परिभाषित करने की धीमी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। यह कार्य मुझे उपलब्ध मुद्रित सामग्री के आधार पर ही करना पड़ा। लेकिन मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में चल रहे अनुसंधानों से घिरे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (H.B.C.S.E.) में रही जहां ऐसे संसाधनों तक पहुंच मिली जो देश के अन्य स्थानों पर मिलना मुश्किल था। अंतर्राष्ट्रीय शोध प्रवृत्तियों से अलग रहने के कारण मैं अपनी स्वयं की रुचियों के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थी।

H.B.C.S.E. ने मुझे स्कूल विज्ञान (school science) को दो तरह से देखने का मौका दिया – एक ऊपर से राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण (state level survey) के माध्यम से स्कूलों और शिक्षकों का अध्ययन करके और दूसरा धरातल से महाराष्ट्र (maharashtra) के जलगांव ज़िले के ग्रामीण स्कूलों में सैकड़ों विज्ञान अध्यायों का विश्लेषण करके और सप्ताहांत में मुंबई की झुग्गियों में पढ़ाकर भी। आगे चलकर, पुणे के भारतीय शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Education) के औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रम में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अपने प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण बच्चों के अनुभव कितने समृद्ध थे, और किस तरह से वे अनुभव स्कूल और पाठ्यक्रम (curriculum) की औपचारिक संरचना के कारण बेकार जा रहे थे। H.B.C.S.E. के संस्थापक निदेशक प्रो. वी. जी. कुलकर्णी अक्सर विज्ञान शिक्षण में भाषा की भूमिका पर ज़ोर देते थे। बहुत बाद में मैंने उनकी इन बातों का महत्व समझा। विचार और भाषा एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, और हमारी स्कूल प्रणाली में रटंत पद्धति के कारण हम बुनियादी साक्षरता और गणना क्षमता विकसित करने में विफल हो रहे हैं।

एक संघर्षरत स्नातक छात्र के रूप में, जब मुझे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन में टीचर-एजूकेटर की भूमिका में रखा गया तो मैंने वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में विद्यार्थियों के विचारों में रुचि लेना शुरू किया। मुझे लगा कि मैं शिक्षकों को कुछ ऐसा सिखा सकती थी, जिसे वे सीधे अपनी कक्षा में लागू कर सकें। उसी समय, अन्य स्थानों पर भी ऐसे शोध हो रहे थे, जिनके परिणामों को ‘विद्यार्थियों की वैकल्पिक धारणाएं’ नाम दिया गया। इस क्षेत्र के बारे में मैने पोस्ट-डॉक्टरल काम के दौरान लीड्स की प्रोफेसर रोज़लिंड ड्राइवर और चेल्सी कॉलेज के प्रोफेसर पॉल ब्लैक से सीखा।

कुछ साल बाद, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के मीडिया लैब के प्रोफेसर सीमोर पेपर्ट द्वारा युवा इंजीनियरों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और डिज़ाइनरों के साथ जो बौद्धिक वातावरण बनाया गया था, उसने मुझे उत्साहित किया। ब्रिटेन और अमेरिका में, मैंने ग्रामीण और इनर-सिटी स्कूलों में काम किया, जिनमें से एक स्कूल के प्रवेश द्वार पर मेटल-डिटेक्टर लगा था। यह एक अनोखा अनुभव था। बच्चों की संकल्पनाओं और उनके द्वारा रेखाचित्रों को समझने के मामले में मेरी रुचि को इन अनुभवों से नया जीवन मिला।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समकक्ष समूह की कमी थी। यही मेरे लिए विज्ञान शिक्षा में शोध करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। एक न्यूनतम संख्या के अभाव के कारण, कई वर्षों तक H.B.C.S.E. में शोध कार्य प्राथमिकता में नहीं रहा। 1990 के दशक में, निदेशक प्रोफेसर अरविंद कुमार ने मुझे पाठ्यक्रम विकास का काम करने की सलाह दी, और इस निर्णय का मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। यह एक अनोखा अवसर था, जहां मैं शोध और फील्डवर्क पर आधारित एक पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम की सीमाओं से मुक्त, विकसित कर सकती थी। शिक्षकों और अभिभावकों से मिली गर्मजोश सराहना से इस प्रयास को काफी मज़बूती मिली।

इस दौरान, H.B.C.S.E. में एक सशक्त शोध समूह उभरा। मुझे विश्वास है कि शोध, पाठ्यक्रम और कामकाज के बीच स्वस्थ सम्बंध इस समूह को आगे बढ़ने में मदद करेगा। विद्यार्थियों के चित्रों और आरेखों से सम्बंधित मेरी शुरुआती रिसर्च, विज्ञान को समझने के दृश्य-स्थानिक मॉडल सम्बंधी वर्तमान शोध से जुड़ती है — चाहे वह विकासात्मक मनोविज्ञान हो, संज्ञानात्मक विज्ञान हो, या विज्ञान का इतिहास हो। मैं इस क्षेत्र में और अधिक शोध कार्य की उम्मीद करती हूं। H.B.C.S.E. द्वारा शुरू की गई epiSTEME कॉन्फ्रेंस शृंखला ने देश और विदेश में कड़ियां जोड़ने में मदद की है। H.B.C.S.E. का प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम भारत और विदेशों में जाना और उद्धरित किया जाता है। मेरी व्यक्तिगत जद्दोज़हद इस संस्थान के संघर्ष और एक नए शोध क्षेत्र के विकास के संघर्ष से गहराई से जुड़ी रही है।

मैं यह काम दो अन्य महिलाओं के योगदान के बिना नहीं कर पाती। पहली श्रीमती बापट हैं, जो स्वयं एक वैज्ञानिक की पत्नी थीं और स्नेहपूर्वक हमारे दो बच्चों की देखभाल करती थीं। और दूसरी हैं कला, जो एक अत्यंत सक्षम महिला थीं। उन्होंने अपनी बचपन की लालसाओं को त्यागकर T.I.F.R. कॉलोनी में घरेलू कामकाज किया। और हां, मेरे पति और बच्चों ने भी बेशक मेरे करियर में मेरा साथ दिया।

क्या अब मुझे लगता है कि काश मैंने कुछ अलग ढंग से किया होता? सबसे पहले, स्कूल और कॉलेज के छात्र के रूप में जो किताबें मुझे दी गई थीं उनकी बजाय मुझे अच्छी किताबों की तलाश खुद करना चाहिए थी। दूसरा, शुरुआत में मैं अपने विचारों को स्पष्ट रूप से कहना सीखने का प्रयास कर सकती थी – यह एक ऐसी चीज़ है जो विज्ञान के छात्रों को अक्सर नहीं सिखाई जाती। तीसरा, एक जूनियर शोधकर्ता के रूप में मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बंध बनाने का प्रयास कर सकती थी। हालांकि, मैं यह समझती हूं कि व्यक्तित्व के कुछ पहलूओं को बदलना मुश्किल होता है। चौथा, मुझे बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करना चाहिए था, जो एक निर्मम प्रथा है और आज भी हमारे अधिकांश बच्चों को उनकी संभावनाएं साकार करने से रोकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://im.rediff.com/getahead/2011/mar/28slide1.jpg

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