बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं का प्रतिरोध कैसे करते हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चिकित्सा (medical science) में एंटीबायोटिक (antibiotic) दवाइयों के व्यापक एवं अत्यधिक उपयोग के परिणामस्वरूप ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया (bacteria) और अन्य सूक्ष्मजीवों में वृद्धि हुई है जो एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोधी (antibiotic resistance) हैं।
2021 में, विश्व में तकरीबन 12 लाख मौतें रोगाणुओं (pathogens) में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध (drug resistance) विकसित होने के कारण हुई थीं। भारतीय अस्पतालों (Indian hospitals) में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया (antibiotic-resistant bacteria) से हुए संक्रमण (infection) के कारण होने वाली मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। इसके चलते, चिकित्सा अनुसंधान (medical research) की एक बड़ी प्राथमिकता सतत नए एंटीबायोटिक्स (new antibiotics) की तलाश है।

एंटीबायोटिक (antibiotic) का शाब्दिक अर्थ है जीवन के खिलाफ। किंतु एंटीबायोटिक का उपयोग मानव कोशिकाओं (human cells) को हानि पहुंचाए बिना बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीवों का खात्मा करने या उनकी वृद्धि रोकने के लिए किया जाता है।

कोशिका भित्ति (Cell Wall)

बैक्टीरिया कोशिकाओं (bacterial cells) की एक खासियत है कोशिका भित्ति (cell wall) की उपस्थिति। कोशिका भित्ति कोशिका झिल्ली (cell membrane) के ऊपर एक आवरण बनाती है। हमारी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं होती है। बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति मुख्य रूप से पेप्टिडोग्लाइकेन (peptidoglycan) नामक एक अनोखे पदार्थ से बनी होती है। पेप्टिडोग्लाइकेन जाली जैसी संरचना होती है जो अमूमन दो घटकों से बनी होती है।

ग्लाइकेन्स (glycans) दो शर्करा अणुओं, NAG (N-acetylglucosamine) और NAM (N-acetylmuramic acid), से बनी लंबी शृंखलाएं होती हैं। लंबी शृंखलाओं में गुंथी NAM-NAG इकाई बैक्टीरिया के लिए अनोखी होती है। NAM-NAG इकाई का यह अनोखापन ही इसे एंटीबायोटिक विकास (antibiotic development) का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाता है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) भी हमलावर बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) का खात्मा करने के लिए इसी खास पहचान की तलाश करती है।

पेप्टिडोग्लाइकेन्स का दूसरा हिस्सा – ‘पेप्टिडो’ (peptido) – पेप्टाइड्स (peptides) से बना होता है। ये पास-पास की ग्लाइकेन शृंखलाओं की NAM शर्कराओं को आपस में जोड़ते हैं। इस तरह, क्रॉस लिंक्स (cross-links) बनती हैं और परस्पर गुंथी एक मजबूत जाली बन जाती है।

पहला खोजा गया एंटीबायोटिक, पेनिसिलिन (penicillin), इसी क्रॉस लिंकिंग चरण में बाधा पहुंचा कर अपने काम को अंजाम देता है। नतीजतन, बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति कमज़ोर पड़ जाती है जो कोशिका द्रव्य (cytoplasm) को सुरक्षित रूप से थाम नहीं पाती। अंतत: बैक्टीरिया कोशिका फट जाती है और मर जाती है।

प्रतिरोध का विकास (Development of Resistance)

बैक्टीरिया में पेनिसिलिन (penicillin) के प्रति प्रतिरोध (resistance) कैसे विकसित हुआ? बैक्टीरिया में ऐसे नए एंज़ाइम (enzymes) विकसित हुए जो पेनिसिलिनेज़ (penicillinase) नामक प्रोटीन का उत्पादन करते हैं, जिससे पेनिसिलिन अणु निष्क्रिय हो जाते हैं। या, बैक्टीरिया उन लक्ष्यों (targets) में बदलाव कर देते हैं जिन पर पेनिसिलीन असर करता है।

संक्रमण (infection) के दौरान बैक्टीरिया कोशिकाओं को तेज़ी से विभाजन (cell division) करके संख्या वृद्धि करना होता है, जिसके लिए कोशिका भित्ति का संश्लेषण (cell wall synthesis) ज़रूरी होता है। बैक्टीरिया कोशिका को वृद्धि और विभाजन करने के लिए मौजूदा भित्ति में कुछ चुनिंदा बंधन तोड़ने और बनाने पड़ते हैं।

नई कोशिका भित्ति जोड़ने से पहले, आणविक कैंचियां चलाई जाती हैं:

  • एंडोपेप्टिडेस (endopeptidases) नामक एंज़ाइम पेप्टाइड क्रॉसलिंक्स को तोड़ते हैं।
  • लायटिक ट्रांसग्लाइकोसिलेस (LTs – Lytic transglycosylases) नामक एंज़ाइम्स शर्करा शृंखला को काटते हैं।

इन दोनों कैंचियों को तालमेल बिठाकर काम करना होता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाली बैक्टीरिया की मशीनरी (bacterial machinery) बहुत जटिल होती है – जिसके नए घटकों की खोज (scientific research) जारी है।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (CCMB – Centre for Cellular and Molecular Biology) की डॉ. मंजुला रेड्डी (Dr. Manjula Reddy) का दल उन तंत्रों को समझने पर काम कर रहा है जो बैक्टीरिया के कोशिका विभाजन (bacterial cell division) को नियंत्रित करने में भूमिका निभाते हैं।

पिछले साल PLOS Genetics में प्रकाशित एक अध्ययन में उनके दल ने बताया था कि बैक्टीरिया बहुत चतुर होते हैं और शर्करा शृंखला को काटने वाली LT कैंची को अधिकता में बनाकर क्रॉसलिंक्स तोड़ने वाली कैंची के अभाव की भरपाई कर सकते हैं।

ये नवीन नतीजे इस बात को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं कि बैक्टीरिया सभी बाधाओं के बावजूद कैसे जीवित रहते हैं। इस बारे में समझ बैक्टीरिया संक्रमण (bacterial infection) से लड़ने के नए मार्ग (new treatment strategies) प्रशस्त कर सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज सुधारक विमला बहुगुणा का निधन – भारत डोगरा

बहुत ही कम उम्र में महात्मा गांधी का मार्ग अपनाकर जीवन जीने वाली विमला बहुगुणा ने 14 फरवरी को देहरादून (Dehradun) स्थित अपने घर पर अंतिम सांस ली। वे 92 वर्ष की थीं। अपने पीछे वे बेटी मधु पाठक और बेटे राजीव व प्रदीप को छोड़ गईं। उनके पति सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद (environmentalist) सुंदरलाल बहुगुणा का 2021 में 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।

अक्सर लोग विमला बहुगुणा को सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे स्वतंत्र रूप में एक महान समाज सुधारक (social reformer), न्याय की पैरोकार और पर्यावरण कार्यकर्ता (environment activist) थीं। उन्होंने स्वयं दूर-दराज़ के जंगलों में चिपको आंदोलन (Chipko Movement) (पेड़ों को बचाने के लिए उनका आलिंगन करना) के साथ-साथ शराब-विरोधी (anti-liquor movement) और अन्य समाज सुधार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

भूमिहीन लोगों के अधिकारों में दृढ़ विश्वास रखने वाली विमला बहुगुणा ने सरला बहन के मार्गदर्शन में ‘भूदान’ (Bhoodan Movement) कार्यकर्ता के रूप में अपना सामाजिक काम शुरू किया था। वे भूमिहीन लोगों को भूमि दिलाने के लिए दूर-दराज़ के गांवों में जाती थीं।

भूदान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विनोबा भावे (Vinoba Bhave) ने इन शुरुआती दिनों में विमला बहुगुणा के काम करने के तरीके और दूर-दराज़ के गांवों में उनके प्रभाव को करीब से देखा था: दूर-दराज़ के गावों में, और कई बार तो बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में, वे पहली बार भूदान का संकल्प दिलाने के लिए जाती थीं। विनोबा भावे के सचिव ने सरला बहन को (विनोबा भावे की भावनाएं व्यक्त करते हुए) लिखा था, “मैंने उसके जैसी लड़की कार्यकर्ता नहीं देखी। वह सिर्फ पहाड़ों की लड़की नहीं है, वह पहाड़ों की देवी है।”

सरला बहन ने इन गांवों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर बताया है कि एक नए क्षेत्र में काम करने के बावजूद, विमला को अक्सर अपने से अनुभवी स्थानीय पुरुष सदस्यों वाले समूह में नेतृत्व (leadership) की भूमिका मिलती थी।

विमला बहुगुणा का दृढ़ विचार था कि महिलाओं को समानता का अधिकार (women empowerment) मिले। उन्होंने सुंदरलाल बहुगुणा, जो उस समय प्रांतीय राजनीति (regional politics) के उभरते सितारे थे, के विवाह प्रस्ताव के समय यह शर्त रखी थी कि यदि सुंदरलाल राजनीतिक पार्टी (political party) की सदस्यता छोड़ने और महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के मार्ग पर चलकर स्वयं लोगों की सेवा करने का मार्ग अपनाने के लिए सहमत होते हैं तभी वे विवाह के लिए राज़ी होंगी।

उन्होंने अपनी राह चुन ली थी और उसी पर चलीं। सुंदरलाल बहुगुणा ने सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को त्याग दिया। शादी के तुरंत बाद युवा जोड़े ने टिहरी गढ़वाल (Tehri Garhwal) के एक सुदूर गांव सिलयारा में खुद के लिए एक बहुत ही साधारण-सा आश्रम (ashram) बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।

यहां वे सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists) के लिए एक सहारा और प्रेरणादायक शख्सियत बन गईं, जिन्होंने नदियों और जंगलों (rivers and forests) की रक्षा के लिए, दलितों के समान अधिकारों (Dalit rights) के लिए, शराब की बढ़ती समस्याओं के खिलाफ काम किया और कई रचनात्मक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया।

जब भूकंप (earthquake) ने सिलयारा आश्रम के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया था, तब विमला बहुगुणा ने आश्रम का पुनर्निर्माण कार्य आरंभ होने तक बड़ी हिम्मत से इस मुश्किल घड़ी का सामना किया।

उनका सबसे कठिन और लंबा संघर्ष टिहरी बांध परियोजना (Tehri Dam Project) के खिलाफ था। इस संघर्ष में सुंदरलाल ने बांध स्थल (dam site) के पास नदी के किनारे एक झोंपड़ी में रहने की प्रतिज्ञा ली थी। उनके इस संघर्ष में वे दूर कैसे रह सकती थीं, तो विमला जी भी वहीं उनके साथ रहीं।

मैं 1977 के आसपास विमला जी से पहली बार मिला था। तब मैं 22 वर्षीय पत्रकार (journalist) के रूप में चिपको आंदोलन (Chipko Andolan) और उससे जुड़े मुद्दों पर लिखने के लिए सिलयारा आश्रम गया था। बहुत जल्द ही वे हमारे परिवार के लिए एक प्रेरणास्रोत (inspiration) बन गईं। उनके अंतिम दिनों तक हम फोन पर बात करते रहे और जब मैं उन्हें अपनी नई किताब (book) भेंट करने गया तो वे बहुत खुश हुईं थीं।

मैं जब-जब उनके घर या आश्रम गया, तब-तब मैं न केवल राष्ट्रीय (national issues) बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों (international affairs) में उनकी गहरी रुचि से प्रभावित हुआ। वे हाल के घटनाक्रमों से अवगत होने के साथ-साथ इन मुद्दों पर मेरी राय जानने में बहुत रुचि रखती थीं, और बेशक इन पर वे अपनी टिप्पणियां और नज़रिया भी साझा करती थीं।

वे एक बेहतर दुनिया (better world) बनाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। चाहे कितनी भी बड़ी मुश्किलें आईं, वे कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं हुईं।

उनके काम को विस्तार से इन दो किताबों – प्लेनेट इन पेरिल (Planet in Peril) और विमला एंड सुंदरलाल – चिपको मूवमेंट एंड स्ट्रगल अगेंस्ट टिहरी डैम प्रोजेक्ट (Vimla and Sunderlal Bahuguna—Chipko Movement and Struggle against Tehri Dam Project in Garhwal Himalaya) – में पढ़ा जा सकता है। विमला जी सदैव एक प्रेरणा स्रोत रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान के हिसाब से, अंडा बढ़िया कैसे उबालें

एक बेहतरीन उबले अंडे की खूबी होती है कि उसकी ज़र्दी (egg yolk) एकदम मखमली-मुलायम पकी हो – ऐसी कि उसे ब्रेड (bread) पर मक्खन (butter) की तरह फैलाया जा सके – और उसकी सफेदी (egg white) नर्म-नर्म हो।

लेकिन इतना परफेक्ट अंडा (perfect egg) पकाना मुश्किल काम है। या तो ज़र्दी एकदम परफेक्ट मक्खन की तरह पकती है और सफेदी लिजलिजी जेली (jelly-like texture) जैसी हो जाती है। या सफेदी एकदम बढ़िया पकती है और ज़र्दी अजीब रंगत के साथ भुरभुरी (crumbly texture) सी हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सफेदी की तुलना में अंडे की ज़र्दी कम तापमान (low temperature cooking) पर पकती है; सफेदी को अच्छा पकाने के चक्कर में तेज़ आंच (high heat) पर उबालने से ज़र्दी भुरभुरा जाती है, जबकि धीमी आंच (low heat cooking) पर पकाने से सफेदी लिजलिजी हो जाती है।

पर अब, युनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स फेडरिको-2 (University of Naples Federico II) के वैज्ञानिकों (scientists), एमिला डी लॉरेन्ज़ो एवं अर्नेस्टो डी माइओ, ने एकदम परफेक्ट अंडा उबालने की विधि खोज ली है। इसे उन्होंने ‘पीरियोडिक कुकिंग’ (Periodic Cooking) नाम दिया है यानी थोड़े-थोड़े अंतराल पर पकाना। और इस तरीके से सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं, हम-आप भी अंडा उबाल सकते हैं।

उनकी खोजी विधि में ज़रूरत पड़ेगी दो बर्नर (two burners), दो पतीली (two pots) की और एक ऐसे जालीदार बर्तन (strainer or wire basket) की जो पतीली में रखा जा सके, और हां, अंडे (eggs) तो ज़रूरी हैं ही।

विधि यह है कि एक पतीली में पानी उबलता (boiling water) रहेगा और दूसरी पतीली का पानी गुनगुना (warm water at 30°C) रहेगा। अंडों को परफेक्ट उबालने (ideal egg boiling technique) के लिए उन्हें जालीदार बर्तन में रखकर हर दो मिनट के अंतराल पर उबलते पानी (hot water) से गुनगुने पानी वाले बर्तन में और गुनगुने पानी से उबलते पानी वाले बर्तन में डालना होगा। यह प्रक्रिया कुल 32 मिनट (32-minute cooking process) तक दोहरानी होगी। 32 मिनट तक अंडों को यहां से वहां और वहां से यहां करने के बाद इन्हें ठंडे पानी (cold water) में डालेंगे तो छिलका छीलने में आसानी होगी।

शोधकर्ता (researchers) इस विधि पर सैकड़ों अंडों को कई विधियों से उबालने के बाद पहुंचे हैं। और ये विधियां आज़माने से पहले उन्होंने यह समझा था कि उबालते समय अंडे में ऊष्मा (heat transfer in eggs) कैसे संचारित होती है, और अंडा तरल से ठोस (liquid to solid transformation) में कैसे बदलता है।

उन्होंने इस बात की पुष्टि भी की है कि यह विधि वाकई कारगर  है। ऐसा करने के लिए उन्होंने पीरियोडिक कुकिंग से उबले अंडों की रासायनिक संरचना (chemical composition) की तुलना पारंपरिक तरीके (traditional boiling method) से उबले अंडों की रासायनिक संरचना से की। साथ ही, दोनों तरीके से उबले अंडों को उन्होंने आठ फूड टेस्टर्स (food testers) को चखाया। दोनों तरीके से उबले अंडों में फर्क पाया गया।

कम्युनिकेशंस इंजीनियरिंग जर्नल (Communications Engineering Journal) में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि सफेदी और ज़र्दी इस विधि में परफेक्ट इसलिए पक पाते हैं क्योंकि अंडे की सफेदी अच्छी तरह सेट होने तक गर्म और ठंडी होती रहती है जबकि ज़र्दी को परफेक्ट पकने तक एक नियत तापमान (constant temperature) मिलता रहता है।

हालांकि यह बात तो है कि पारंपरिक विधि (traditional method) के मुकाबले इस विधि से अंडे उबालने में वक्त काफी लगेगा। पारंपरिक तरीके (traditional egg boiling) में अंडों को पानी से भरे बर्तन में उबलने के लिए रख दो और 10-15 मिनट (10-15 minutes boiling) बाद उतार लो, इस बीच आप कुछ और काम भी कर सकते हैं। लेकिन इस तरीके में पूरे 32 मिनट लगेंगे, वह भी पूरी मुस्तैदी के साथ सारा ध्यान अंडों पर लगाना होगा। लेकिन यदि आपके लिए स्वाद (perfect taste) अव्वल है तो अतिरिक्त समय और मेहनत फालतू नहीं जाएगी!

बहरहाल, यह अध्ययन भले ही बात तो अंडों को बेहतरीन स्वाद से पकाने की विधि की बात करता है, लेकिन यह पाक कला (culinary science) की उस महत्वपूर्ण प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाता है जिनके चलते आज हम व्यंजनों को स्वादिष्ट (tasty recipes) बनाने की विधियां जानते हैं। इन विधियों को भले ही ‘वैज्ञानिकों’ (food scientists) ने प्रयोगशाला (laboratory) में आज़मा-आज़माकर ‘परफेक्ट विधि’ (perfect cooking technique) होने की मुहर नहीं लगाई है, लेकिन जिन्होंने खाना पकाने की ज़िम्मेदारी निभाई उन्होंने नित नए प्रयोग (culinary innovations) से लज़ीज़ व्यंजन परोसे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या अमेरिका के बिना चल पाएगा विश्व स्वास्थ्य संगठन?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका (USA) के अलग होने के हालिया फैसले ने संगठन (global health organization) के भविष्य को लेकर चिंता बढ़ा दी है। अमेरिका केवल एक संस्थापक सदस्य (founding member) ही नहीं था, बल्कि उसने 2022-23 में WHO की कुल आय का लगभग छठा हिस्सा भी प्रदान किया था। अलबत्ता, WHO अधिकारियों का मानना है कि यदि अन्य देश अपनी ज़िम्मेदारी उठाएं और निभाएं, तो संगठन आगे भी सुचारु ढंग से चलता रह सकता है।

WHO जन स्वास्थ्य (public health) से जुड़े प्रयासों का समन्वय करने वाला एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। यह बीमारियों के प्रसार को रोकने (disease control), सस्ती दवाएं (affordable medicines) और टीके (vaccines) उपलब्ध कराने और विशेष रूप से गरीब देशों (low-income countries) में स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाता है। 1980 के दशक में चेचक उन्मूलन (smallpox eradication) से लेकर इबोला (Ebola outbreak) जैसी महामारियों से लड़ने और नए संक्रामक रोगों (infectious diseases) के लिए टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने तक WHO की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

WHO का एक मुख्य कार्य चिकित्सा मानक (medical standards) तय करना और वैज्ञानिक मार्गदर्शन (scientific guidance) प्रदान करना है। इसके वैज्ञानिक दल ने साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने (evidence-based decision making) की क्षमता को मज़बूत किया है। लेकिन, आम लोगों के बीच इसकी जटिल भूमिका की पर्याप्त समझ नहीं है।

अमेरिका ने 2022-23 में WHO को लगभग 1.3 अरब डॉलर का वित्तीय सहयोग (financial support) दिया था, जिससे अफ्रीका (Africa) में संक्रामक रोगों की रोकथाम (epidemic prevention) और प्रभावित क्षेत्रों में आपातकालीन चिकित्सा सहायता (emergency medical aid) जैसे महत्वपूर्ण प्रयास हो पाए थे। अमेरिका की फंडिंग बंद होने (funding cut) से WHO को वित्तीय संकट (financial crisis) का सामना करना पड़ रहा है।

बहरहाल, यह संकट WHO को पूरी तरह से कमज़ोर नहीं कर सकता। अन्य समृद्ध (high-income nations) और मध्यम-आय वाले देश (middle-income countries), तथा परोपकारी संस्थाएं (philanthropic organizations), इस कमी को पूरा करने में मदद कर सकते हैं। WHO ने अब तक दाताओं (donors) से काफी अतिरिक्त वित्तीय प्रतिबद्धता हासिल कर ली है, लेकिन सभी खर्चों को पूरा करने के लिए इसे अभी भी और वित्त की ज़रूरत (fundraising challenge) है जिसे हासिल करना एक बड़ी चुनौती है।

कुछ लोगों का मानना है कि WHO को इस संकट को सुधार (reform opportunity) के अवसर के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए विशेष रूप से संगठन के प्रशासनिक ढांचे (administrative structure) में बदलाव की ज़रूरत है।

1948 में WHO की स्थापना के बाद से दुनिया काफी बदल चुकी है। अब अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (Africa CDC) जैसी क्षेत्रीय संस्थाएं (regional health organizations) नीतियां बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। साथ ही, कई परोपकारी संगठन (philanthropic foundations) भी फंडिंग में सहयोग कर रहे हैं। यह बढ़ता हुआ वैश्विक सहयोग (global cooperation) मददगार होगा।

WHO की भूमिका महत्वपूर्ण (key role) है क्योंकि बीमारियां (diseases) राष्ट्रीय सीमाओं का पालन नहीं करतीं। WHO साझा ज़िम्मेदारी (shared responsibility) के सिद्धांत पर स्थापित किया गया था, और अब भविष्य इस बात पर निर्भर है कि अन्य देश वैश्विक स्वास्थ्य (global health investment) में निवेश करने को कितना तैयार हैं। शायद अमेरिका लौटे (US rejoin WHO), लेकिन तब तक बाकी देशों को इसके मिशन (“Health for All”) – सबके लिए स्वास्थ्य – को जारी रखने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: तबाही के साये में शोध कार्य

युद्ध (war), तबाही (destruction) और अनिश्चितता (uncertainty) के बावजूद, गाज़ा (Gaza) के वैज्ञानिक (scientists) अपने शोध (research) कार्य जारी रख रहे हैं। वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि शोध (scientific research) न केवल विनाश (documentation of destruction) के दस्तावेज़ीकरण और पुनर्निर्माण (reconstruction efforts) प्रयासों में मदद करता है, बल्कि मानवीय संकटों (humanitarian crisis) के समाधान के लिए भी आवश्यक है। 19 जनवरी को हमास (Hamas) और इस्राइल (Israel) के बीच अस्थायी संघर्ष विराम (ceasefire) से वैज्ञानिकों को स्थिति का आकलन करने का अवसर मिला है।

न्यूरोसाइंटिस्ट (neuroscientist) खमीस एलसी, जो वर्तमान में घायलों का इलाज कर रहे हैं, युद्ध के प्रभावों को दर्ज करने और प्रकाशित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इसी तरह, जलवाहित रोगों (waterborne diseases) के विशेषज्ञ सामर अबूज़र सुधार व पुनर्निर्माण में शोध (scientific studies) की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद, विज्ञान (science) और शिक्षा (education) के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के चलते वैज्ञानिकों (Gaza scientists) ने अपना काम जारी रखा है।

युद्ध (conflict) के कारण गाज़ा की 22 लाख आबादी में से 90 प्रतिशत बेघर (homeless) हो गई है। भोजन (food crisis), पानी (water shortage), स्वास्थ्य सेवाएं (healthcare services) और शिक्षा (education crisis) जैसी बुनियादी सुविधाएं या तो नष्ट हो गई हैं या अत्यधिक सीमित रह गई हैं। बमबारी (airstrikes) से तबाह इलाकों से मलबा हटाना एक बड़ी चुनौती है। गाज़ा (Palestine conflict) के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में करीब 100 किलोग्राम मलबा जमा है जिसमें खतरनाक पदार्थ (hazardous materials) भी मौजूद हैं।

गाज़ा में पानी (clean water crisis) की स्थिति भी गंभीर है। यहां 97 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों (groundwater contamination) से आता है, जो अत्यधिक असुरक्षित हैं और इनके दूषित होने का खतरा भी है। युद्ध (war damage) से पहले भी महज 10 प्रतिशत लोगों को साफ पानी (safe drinking water) मिलता था, लेकिन अब मात्र 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल रहा है। टूटी-फूटी सीवेज लाइन (damaged sewage system) के कारण गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है, जिससे डायरिया (diarrhea) और हेपेटाइटिस (hepatitis outbreak) जैसी जलवाहित बीमारियों (waterborne infections) का खतरा बढ़ गया है।

युद्ध (war crisis) के कारण गाज़ा (Gaza universities) के 21 उच्च शिक्षण संस्थानों में से 15 बुरी तरह क्षतिग्रस्त या नष्ट हो चुके हैं। अस्पतालों (hospitals in Gaza) की स्थिति भी गंभीर है – लगभग आधे पूरी तरह बंद हैं, जबकि बाकी सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहे हैं। कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियों (chronic diseases) से जूझ रहे 11,000 मरीज़ों को न तो इलाज मिल रहा है और न ही उनके पास विदेश में उपचार का कोई अवसर है।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि सबसे पहले आवास (housing rehabilitation), सीवेज मरम्मत (sewage repair) और स्वास्थ्य सेवाओं (health services restoration) को बहाल करना ज़रूरी है। ऑनलाइन-लर्निंग विशेषज्ञ (online education expert) आया अलमशहरावी अस्थायी शिविर (temporary shelters) और घरों के पुनर्निर्माण (home reconstruction) के लिए तुरंत कदम उठाने की अपील कर रही हैं। वे खुद एक बमबारी (bombing survivor) में बचीं, जिसमें उनके अपार्टमेंट में 30 लोगों की जान चली गई, और अब वे एक शरणार्थी शिविर (refugee camp) में रह रही हैं।

भारी विनाश (mass destruction) के बावजूद, गाज़ा (Gaza research community) के वैज्ञानिक समुदाय का संकल्प अटूट है। वे इस संकट (ongoing crisis) का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और भविष्य के पुनर्निर्माण (future rebuilding) में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह साबित करता है कि युद्ध (war-torn regions) के कठिन समय में भी ज्ञान (knowledge) और शोध (scientific progress) को आगे बढ़ते रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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एक नए विषय का निर्माण

जयश्री रामदास

मेरा जन्म 1954 में मुंबई (mumbai) में हुआ और सबसे पहले दिल्ली के सेंट थॉमस स्कूल(St. Thomas School) में पढ़ी। मेरी सबसे प्यारी याद वह है जब मॉन्टेसरी स्कूल (montessori school) में चमचमाते सुनहरे मोतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये मोती तार पर पिरोए गए थे जो दस-दस मोतियों की पंक्तियों, दस-दस की पंक्तियों से बने सौ के एक वर्ग, और हज़ार मोतियों के एक चमकते हुए घन के रूप में थे। यह मेरा सौभाग्य था क्योंकि भारतीय स्कूलों (Indian Schools) में हाथ से खोजबीन करने के अनुभव बहुत दुर्लभ होते हैं। हो सकता है नफासत से तैयार किए गए उपकरण काफी महंगे होते हैं  लेकिन स्थानीय स्तर पर सरल संसाधनों तक को छोड़कर रट्टा लगाने (rote learning) पर ज़ोर दिया जाता था।

मेरी दूसरी खुशनुमा याद अंग्रेज़ी (English) की हमारी अध्यापिका मिस विल्सन की है, जो हमें कविताएं (rhymes) और तुकबंदियां (limericks) लिखने को प्रेरित करती थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा में एक लिमरिक तैयार करना था, जो मुझे बहुत मज़ेदार लगा। घर पर हम मराठी बोलते थे, और मेरी मां ने मुझे बोलचाल की भाषा और मज़ेदार मुहावरों से प्रेम विरासत में दिया था। ये सारी बातें बाद में मुझे प्राथमिक विज्ञान शिक्षण (Primary science education) में बहुत काम आईं।

सातवीं कक्षा मैंने बगदाद(bagdad) के अमेरिकन स्कूल(American school) से की। मेरे पिता, जो एक दूरसंचार इंजीनियर (telecommunication engineer) थे, को यू.एन. के असाइनमेंट पर नियुक्त किया गया था। मेरे माता-पिता का मानना था कि इस स्कूल ने पढ़ाई में मेरी रुचि जगाई, लेकिन मुझे यह साल किशोरावस्था (Adolescence) के गहरे तनाव और चिंता से भरा लगा। वहां शारीरिक रूप से मज़बूत, यौन सचेत (sexually aware) और नस्लीय रूप से आत्मविश्वासी (racially confident) बच्चों के बीच, मुझे केवल साप्ताहिक मेंटल मैथ (mental maths) प्रतियोगिता के दौरान अच्छा महसूस होता था, जब सभी छात्र-छात्राएं मुझे अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। हमारे विज्ञान और गणित के शिक्षक, मिस्टर बर्न्ट, हमसे कई प्रोजेक्ट कार्य (project work) करवाते थे, जिनका मैंने खूब आनंद लिया।

छह-दिवसीय अरब-इस्राइल युद्ध (Six-day Arab Israel war) के बाद जब अमेरिकन स्कूल बंद हो गया, तब मेरी मां मुझे वापस लाईं और पुणे के सेंट हेलेना बोर्डिंग स्कूल (St. Helena boarding school) में दाखिला दिलाया। यहां मुझे विज्ञान और गणित के अच्छे शिक्षक के रूप में मिस जोसेफ और मिस्टर जोग मिले, और मिली ग्रेगरी, धोंड और इंगले द्वारा लिखित भौतिकी की एक दिलचस्प किताब। यहां सीखने का तरीका केवल एक पाठ्यपुस्तक पढ़ने पर आधारित था, कुछ दुर्लभ प्रदर्शनों (rare demonstrations) को छोड़कर। मुझे एक अद्भुत डेमो याद है, जिसमें थोड़े से पानी को दस-लीटर के एक खाली कैरोसीन कैन (kerosene) में उबालने के बाद, ढक्कन लगाकर ठंडा किया गया, और वह ज़ोरदार आवाज़ के साथ सिकुड़कर ढेर हो गया।

मुझे भौतिकी (Physics) बहुत पसंद था ही, साथ ही मनोविज्ञान ने भी मुझे काफी आकर्षित किया। इसका एक कारण मेरी बुआ थीं, जो सामाजिक कार्य (social work) में लगी थीं। स्कूल पूरा करने के बाद मैंने विज्ञान (science) और कला(arts) दोनों में से किसी एक को चुनने पर विचार किया और अंत में मैंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में विज्ञान को चुना। हालांकि जीव विज्ञान (biology) मेरे लिए त्रासदायक रहा, लेकिन मिस्टर इनामदार द्वारा पढ़ाई गई सॉलिड ज्यामिति (solid geometry) का मैंने खूब आनंद लिया। मिस्टर इनामदार काफी अस्त-व्यस्त थे लेकिन रैंगलर महाजनी द्वारा लिखित किताब से उनका पढ़ाना काफी मज़ेदार था। रसायनशास्त्र के शिक्षक मिस्टर पाठक ने एक बार यादगार होमवर्क दिया था, जिसमें कुछ लीनियर हाइड्रोकार्बन (linear hydrocarbons) की रचनाएं बनानी थीं, और उन्होंने उस सूची में C6H6 का सूत्र घुसा दिया था। मुझे एरोमेटिक यौगिकों के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन बेंज़ीन की संरचना (benzene structure) का अनुमान लगाने में जो खुशी मिली, वह वर्षों तक याद रही।

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) में प्रोफेसर ए. पी. शुक्ला, एच. एस. मणि और अन्य शिक्षकों ने हमें बेहतरीन ढंग से भौतिकी पढ़ाई, लेकिन उस दौरान मुझे लगा कि मैं अपनी क्षमता से भी अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रही हूं। एम.एससी. के बाद की गर्मियों में मैंने बर्कले सीरीज़ की पर्सेल लिखित ऑन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (Electricity and Magnetism) को आराम से पढ़कर इस कमी को पूरा किया। कॉलेज में मैं पाठ्यपुस्तकों को आलोचनात्मक दृष्टि (critical analysis) से देखती और अपने दोस्तों से कहती कि एक दिन मैं इससे बेहतर किताबें लिखूंगी। मेरी विज्ञान, मनोविज्ञान और शिक्षण पद्धति में रुचि तब पूरी तरह एक साथ जुड़ीं जब 1976 में मैंने होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, टी.आई.एफ.आर.(TIFR) जॉइन किया।

चूंकि मेरा शोध प्रबंध (थीसिस) संभवतः भारत में विज्ञान शिक्षा में सबसे पहला था, इसलिए मुझे इस क्षेत्र को परिभाषित करने की धीमी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। यह कार्य मुझे उपलब्ध मुद्रित सामग्री के आधार पर ही करना पड़ा। लेकिन मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में चल रहे अनुसंधानों से घिरे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (H.B.C.S.E.) में रही जहां ऐसे संसाधनों तक पहुंच मिली जो देश के अन्य स्थानों पर मिलना मुश्किल था। अंतर्राष्ट्रीय शोध प्रवृत्तियों से अलग रहने के कारण मैं अपनी स्वयं की रुचियों के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थी।

H.B.C.S.E. ने मुझे स्कूल विज्ञान (school science) को दो तरह से देखने का मौका दिया – एक ऊपर से राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण (state level survey) के माध्यम से स्कूलों और शिक्षकों का अध्ययन करके और दूसरा धरातल से महाराष्ट्र (maharashtra) के जलगांव ज़िले के ग्रामीण स्कूलों में सैकड़ों विज्ञान अध्यायों का विश्लेषण करके और सप्ताहांत में मुंबई की झुग्गियों में पढ़ाकर भी। आगे चलकर, पुणे के भारतीय शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Education) के औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रम में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अपने प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण बच्चों के अनुभव कितने समृद्ध थे, और किस तरह से वे अनुभव स्कूल और पाठ्यक्रम (curriculum) की औपचारिक संरचना के कारण बेकार जा रहे थे। H.B.C.S.E. के संस्थापक निदेशक प्रो. वी. जी. कुलकर्णी अक्सर विज्ञान शिक्षण में भाषा की भूमिका पर ज़ोर देते थे। बहुत बाद में मैंने उनकी इन बातों का महत्व समझा। विचार और भाषा एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, और हमारी स्कूल प्रणाली में रटंत पद्धति के कारण हम बुनियादी साक्षरता और गणना क्षमता विकसित करने में विफल हो रहे हैं।

एक संघर्षरत स्नातक छात्र के रूप में, जब मुझे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन में टीचर-एजूकेटर की भूमिका में रखा गया तो मैंने वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में विद्यार्थियों के विचारों में रुचि लेना शुरू किया। मुझे लगा कि मैं शिक्षकों को कुछ ऐसा सिखा सकती थी, जिसे वे सीधे अपनी कक्षा में लागू कर सकें। उसी समय, अन्य स्थानों पर भी ऐसे शोध हो रहे थे, जिनके परिणामों को ‘विद्यार्थियों की वैकल्पिक धारणाएं’ नाम दिया गया। इस क्षेत्र के बारे में मैने पोस्ट-डॉक्टरल काम के दौरान लीड्स की प्रोफेसर रोज़लिंड ड्राइवर और चेल्सी कॉलेज के प्रोफेसर पॉल ब्लैक से सीखा।

कुछ साल बाद, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के मीडिया लैब के प्रोफेसर सीमोर पेपर्ट द्वारा युवा इंजीनियरों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और डिज़ाइनरों के साथ जो बौद्धिक वातावरण बनाया गया था, उसने मुझे उत्साहित किया। ब्रिटेन और अमेरिका में, मैंने ग्रामीण और इनर-सिटी स्कूलों में काम किया, जिनमें से एक स्कूल के प्रवेश द्वार पर मेटल-डिटेक्टर लगा था। यह एक अनोखा अनुभव था। बच्चों की संकल्पनाओं और उनके द्वारा रेखाचित्रों को समझने के मामले में मेरी रुचि को इन अनुभवों से नया जीवन मिला।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समकक्ष समूह की कमी थी। यही मेरे लिए विज्ञान शिक्षा में शोध करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। एक न्यूनतम संख्या के अभाव के कारण, कई वर्षों तक H.B.C.S.E. में शोध कार्य प्राथमिकता में नहीं रहा। 1990 के दशक में, निदेशक प्रोफेसर अरविंद कुमार ने मुझे पाठ्यक्रम विकास का काम करने की सलाह दी, और इस निर्णय का मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। यह एक अनोखा अवसर था, जहां मैं शोध और फील्डवर्क पर आधारित एक पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम की सीमाओं से मुक्त, विकसित कर सकती थी। शिक्षकों और अभिभावकों से मिली गर्मजोश सराहना से इस प्रयास को काफी मज़बूती मिली।

इस दौरान, H.B.C.S.E. में एक सशक्त शोध समूह उभरा। मुझे विश्वास है कि शोध, पाठ्यक्रम और कामकाज के बीच स्वस्थ सम्बंध इस समूह को आगे बढ़ने में मदद करेगा। विद्यार्थियों के चित्रों और आरेखों से सम्बंधित मेरी शुरुआती रिसर्च, विज्ञान को समझने के दृश्य-स्थानिक मॉडल सम्बंधी वर्तमान शोध से जुड़ती है — चाहे वह विकासात्मक मनोविज्ञान हो, संज्ञानात्मक विज्ञान हो, या विज्ञान का इतिहास हो। मैं इस क्षेत्र में और अधिक शोध कार्य की उम्मीद करती हूं। H.B.C.S.E. द्वारा शुरू की गई epiSTEME कॉन्फ्रेंस शृंखला ने देश और विदेश में कड़ियां जोड़ने में मदद की है। H.B.C.S.E. का प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम भारत और विदेशों में जाना और उद्धरित किया जाता है। मेरी व्यक्तिगत जद्दोज़हद इस संस्थान के संघर्ष और एक नए शोध क्षेत्र के विकास के संघर्ष से गहराई से जुड़ी रही है।

मैं यह काम दो अन्य महिलाओं के योगदान के बिना नहीं कर पाती। पहली श्रीमती बापट हैं, जो स्वयं एक वैज्ञानिक की पत्नी थीं और स्नेहपूर्वक हमारे दो बच्चों की देखभाल करती थीं। और दूसरी हैं कला, जो एक अत्यंत सक्षम महिला थीं। उन्होंने अपनी बचपन की लालसाओं को त्यागकर T.I.F.R. कॉलोनी में घरेलू कामकाज किया। और हां, मेरे पति और बच्चों ने भी बेशक मेरे करियर में मेरा साथ दिया।

क्या अब मुझे लगता है कि काश मैंने कुछ अलग ढंग से किया होता? सबसे पहले, स्कूल और कॉलेज के छात्र के रूप में जो किताबें मुझे दी गई थीं उनकी बजाय मुझे अच्छी किताबों की तलाश खुद करना चाहिए थी। दूसरा, शुरुआत में मैं अपने विचारों को स्पष्ट रूप से कहना सीखने का प्रयास कर सकती थी – यह एक ऐसी चीज़ है जो विज्ञान के छात्रों को अक्सर नहीं सिखाई जाती। तीसरा, एक जूनियर शोधकर्ता के रूप में मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बंध बनाने का प्रयास कर सकती थी। हालांकि, मैं यह समझती हूं कि व्यक्तित्व के कुछ पहलूओं को बदलना मुश्किल होता है। चौथा, मुझे बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करना चाहिए था, जो एक निर्मम प्रथा है और आज भी हमारे अधिकांश बच्चों को उनकी संभावनाएं साकार करने से रोकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया को रोकेंगे मच्छर!

प्रदीप

मलेरिया (malaria) एक गंभीर और घातक बीमारी है, जिससे हर साल लाखों लोग प्रभावित होते हैं, विशेषकर उष्णकटिबंधीय (tropical) और उपोष्णकटिबंधीय (subtropical) क्षेत्रों में। यह प्लाज़्मोडियम (plasmodium parasite) नामक परजीवी के कारण होता है, जो संक्रमित मादा एनॉफिलीज़ मच्छर (female anopheles mosquito) के काटने से मानव रक्त में प्रवेश करता है। यह बीमारी गरीब और विकासशील देशों (developing nations) में सबसे अधिक होती है, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित होती हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मलेरिया की चुनौती से निपटने के लिए एक नई और क्रांतिकारी विधि विकसित की है। मच्छरों के दंश के माध्यम से मलेरिया का टीका (वैक्सीन) देने की तकनीक न केवल पारंपरिक टीकाकरण की अवधारणा को बदल सकती है, बल्कि मलेरिया उन्मूलन (malaria eradication) के प्रयासों में एक नया अध्याय जोड़ सकती है।

मलेरिया के खिलाफ इस नवाचार का श्रेय नेदरलैंड की रेडबाउट युनिवर्सिटी और लीडन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं को जाता है। उन्होंने एक ऐसा टीका विकसित किया है, जिसे मच्छरों के माध्यम (mosquito delivered vaccine) से दिया जा सकता है। यह टीका पारंपरिक टीकाकरण विधियों से बिल्कुल अलग है। इसमें मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सिपैरम (Plasmodium Falciparium) का जीन-संपादित संस्करण (Genetically modified version) शामिल है। यह संशोधित परजीवी मलेरिया का संक्रमण फैलाने में सक्षम नहीं है, लेकिन मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करने में मदद करता है। यह तरीका टीकाकरण की प्रक्रिया को आसान और प्रभावी बना सकता है। इस टीके को ‘जीए2 वर्ज़न पैरासाइट’ (GA2 version parasite) नाम दिया गया है।

इस तकनीक का संचालन जीन-संपादित मच्छरों (genetically engineered mosquitoes) के माध्यम से किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इन मच्छरों के अंदर कमजोर प्लाज़्मोडियम परजीवी (plasmodium parasite) डाला है। जब ये मच्छर किसी व्यक्ति को काटते हैं, तो यह परजीवी मानव शरीर में प्रवेश करता है। एक बार शरीर में पहुंचने के बाद, यह प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करता है। इस विधि को एक नई तरह की ‘वैक्सीन डिलीवरी प्रणाली’ के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें मच्छरों को एक ‘जीवित वैक्सीन वाहक’ (live vaccine carrier) के रूप में उपयोग किया जाता है।

हाल ही में इस टीके का परीक्षण 9 लोगों पर किया गया, जिसमें 8 लोग मलेरिया से मुक्त रहे। हालांकि, बड़े पैमाने पर परीक्षण (large scale trials) और अध्ययन अभी बाकी हैं, लेकिन इस शोध ने मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में एक नई आशा दी है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह विधि न केवल मलेरिया बल्कि अन्य मच्छर-जनित बीमारियों (जैसे डेंगू और ज़ीका) (mosquito borne diseases) के टीकों के विकास में भी मदद कर सकती है।

मलेरिया के खिलाफ इस तकनीक की संभावनाओं के साथ-साथ इसकी चुनौतियां भी हैं। जीन-संपादित मच्छरों का उपयोग करते समय पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय प्रभावों (ecological impact) का गहन अध्ययन करना आवश्यक है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि जीन-संपादित मच्छर किसी अन्य प्रकार के संक्रमण या पर्यावरणीय समस्या (environmental concerns) का कारण न बनें। ऐसे मच्छरों का बड़े पैमाने पर उत्पादन (mass production) और उनका सही प्रबंधन भी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, समाज में इस तकनीक को स्वीकार्य बनाना (public acceptance) और लोगों को इसके बारे में जागरूक करना भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

मलेरिया उन्मूलन के लिए इस तकनीक का उपयोग व्यापक और वैज्ञानिक अनुसंधान, सरकारी नीतियों और सामुदायिक भागीदारी के समन्वित प्रयासों की मांग करता है। सरकार को मलेरिया उन्मूलन के लिए पर्याप्त धनराशि का आवंटित (funding allocation) करना होगी और तकनीक के विकास को प्रोत्साहित करना होगा।

इसके साथ ही, मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करना और कीटनाशक युक्त मच्छरदानियों का उपयोग जैसे पारंपरिक उपाय भी मलेरिया नियंत्रण में सहायक हो सकते हैं।

जीन-संपादित मच्छरों का उपयोग करते समय पारिस्थितिकीय प्रभावों को ध्यान में रखना आवश्यक है। मच्छर पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, और उनकी किसी भी प्रजाति में बदलाव से खाद्य शृंखला (food chain) और पर्यावरणीय संतुलन (environmental balance) पर प्रभाव पड़ सकता है। छोटे पैमाने पर परीक्षण और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय मानकों (International Environmental Standards) का पालन इस दिशा में सहायक हो सकता है।

यदि इन सभी चुनौतियों का सफलतापूर्वक समाधान कर लिया जाए, तो मच्छरों के माध्यम से मलेरिया टीकाकरण (malaria vaccination via mosquitoes) की यह विधि स्वास्थ्य क्षेत्र में एक ऐतिहासिक उपलब्धि साबित हो सकती है। यह तकनीक मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी से लड़ने के लिए एक नई राह दिखाती है और भविष्य में अन्य स्वास्थ्य समस्याओं (health issues) के समाधान के लिए भी उपयोगी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खुजलाने से राहत क्यों मिलती है?

मच्छर के काटने (mosquito bite) या एलर्जी (allergy) से हुई खुजली (itching) को खुजलाने की इच्छा हम सभी को होती है, और यह बेहद संतोषजनक भी लगती है। लेकिन खुजली करने से इतनी राहत क्यों मिलती है? साइंस पत्रिका (science journal) में प्रकाशित चूहों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार, खुजली से सिर्फ आराम ही नहीं मिलता बल्कि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) को भी सक्रिय करती है, जो त्वचा को संक्रमण से बचाने में मदद करती है।

अब तक माना जाता था कि खुजली करने से त्वचा से कीटाणु(germs) या एलर्जीजनक(allergens) जैसे बाहरी तत्व हट जाते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों को संदेह था कि इसके पीछे कोई और कारण भी हो सकता है, क्योंकि कई बार खुजली तब भी बनी रहती है जब असली कारण दूर हो चुका होता है।

इसे परखने के लिए शोधकर्ता चूहों को एक सिंथेटिक एलर्जीकारक (synthetic allergens) के संपर्क में लाए, जिससे उनकी त्वचा पर एलर्जी प्रतिक्रिया (allergic reaction) हुई। जब चूहों ने खुजलाया, तो उनकी त्वचा में सूजन (inflammation) आ गई और वहां बड़ी संख्या में न्युट्रोफिल्स (एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिकाएं) जमा हो गईं। दिलचस्प बात यह थी कि जिन चूहों को खुजली (scratching) करने से रोका गया, उनमें सूजन और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी कम रही। यानी खुजलाना सिर्फ जलन मिटाने का तरीका नहीं है, बल्कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली का एक हिस्सा भी हो सकता है।

अध्ययन के दौरान जब चूहों ने खुजलाया, तो उनकी तंत्रिका कोशिकाओं (nerve cells) ने ‘पदार्थ पी’(Substance P) नामक रासायनिक संदेशवाहक जारी किया जो मास्ट कोशिकाओं (सफेद रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार) को सक्रिय करता है। ये मास्ट कोशिकाओं फिर न्युट्रोफिल्स को सक्रिय करती हैं, जिससे सूजन बढ़ जाती है और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) बढ़ जाती है।

हालांकि, अत्यधिक खुजलाने से सूजन और बढ़ सकती है, और यही कारण है कि एक्ज़िमा (Eczema) जैसी त्वचा की समस्याएं बार-बार खुजली करने से गंभीर होती जाती हैं। हालांकि, अध्ययन चूहों पर किया गया था, लेकिन इससे मनुष्यों के स्वास्थ्य (Human health) के बारे में नई जानकारी मिलती है। यदि हम समझें कि खुजली और प्रतिरक्षा तंत्र (immune mechanism) कैसे काम करते हैं, तो यह हमें लम्बे समय से चल रही खुजली (chronic itching) और त्वचा की समस्याओं (skin disorders) के बेहतर इलाज में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रजातियों की आनुवंशिक विविधता कम हो रही है

ब हम जैव विविधता (Biodiversity) के बारे में सोचते हैं, तो हमारे दिमाग में हरे-भरे जंगल, रंगीन मूंगा चट्टानें (Coral reefs) और विभिन्न प्रकार के पौधे व जीव आते हैं। वैज्ञानिक अब एक और छिपे हुए खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं  – प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता (Genetic diversity) में गिरावट। 

नेचर पत्रिका (nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जिस तरह विश्व में प्रजातियों की संख्या घट रही है, वैसे ही कई प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता भी कम हो रही है। इसका सीधा असर उनकी जलवायु परिवर्तन(Climate change) से निपटने, बीमारियों से लड़ने और पर्यावरणीय चुनौतियों (Environmental challenges) से बचने की क्षमता पर पड़ता है। यानी, जो प्रजातियां आज स्थिर दिख रही हैं, वे शायद हमारी सोच से कहीं अधिक खतरे में हो सकती हैं।

गौरतलब है कि जेनेटिक विविधता प्रकृति की सुरक्षा व्यवस्था की तरह काम करती है। यदि किसी प्रजाति में विविध जेनेटिक लक्षण (Genetic traits) होते हैं, तो प्रजाति के कुछ सदस्य नए खतरों – जैसे बढ़ते तापमान या नई बीमारियों से बचने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन शहरीकरण(Urbanisation), प्राकृतवासों का विनाश (habitat destruction) और जलवायु परिवर्तन (climate change) जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण जब जीवों की आबादी घटती है, तो उनके भीतर की जेनेटिक विविधता भी कम हो जाती है। इसे ‘मौन विलुप्ति’ (silent extinction) कहा जाता है। यानी एक धीमी और अदृश्य प्रक्रिया जो कई प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है। 

इस शोध में वैज्ञानिकों ने पक्षी(birds), स्तनधारियों(mammals), मछलियों(Fish) और पौधों सहित 628 प्रजातियों पर किए गए 882 अध्ययनों का विश्लेषण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे। 

दो-तिहाई प्रजातियों में आनुवंशिक विविधता घट रही है। इसमें पहले से ही संकटग्रस्त काकेपो (न्यूज़ीलैंड का दुर्लभ उड़ानहीन तोता)(kakaepo) जैसे जीव तो शामिल हैं ही, गौरैया(sparrow) और ब्लैक-टेल प्रेयरी डॉग जैसी आम प्रजातियां भी प्रभावित हो रही हैं।

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली (ecosystem restoration) या नाशी जीवों के नियंत्रण (pest control) जैसे कुछ संरक्षण प्रयासों का जेनेटिक विविधता के संरक्षण पर खास असर नहीं हुआ है।  दूसरी ओर, प्राकृतवासों का विस्तार(habitat expansion), अलग-थलग आबादियों को फिर से जोड़ना और छोटी होती आबादी में नए जीवों को शामिल करना जेनेटिक विविधता बनाए रखने में सहायक साबित हुए हैं।

अब तक संरक्षण (conservation) के प्रयास मुख्य रूप से प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन 2022 में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता संधि (UN Biodiversity treaty) ने जेनेटिक विविधता की रक्षा के महत्व को भी स्वीकार किया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम सुझाए हैं। जैसे प्राकृतवासों की सुरक्षा (Habitat Protection) और विस्तार जिसके अंतर्गत बड़े और आपस में जुड़े प्राकृतिक क्षेत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है, ताकि प्रजातियां स्वस्थ और जेनेटिक रूप से विविध बनी रहें।  इसी प्रकार से, संकटग्रस्त आबादियों में नए सदस्यों को शामिल करना जेनेटिक विविधता को बनाए रखने में मदद कर सकता है।

एक सुझाव यह भी है कि डीएनए विश्लेषण (DNA Analysis) और अन्य तकनीकों का उपयोग करके जेनेटिक विविधता पर नज़र रखी जानी चाहिए।

विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा संरक्षण प्रयास जेनेटिक क्षति (genetic loss) को पूरी तरह रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। डीएनए निगरानी (DNA Monitoring) जटिल और महंगी हो सकती है। लिहाज़ा इसके विकल्पों  पर काम हो रहा है, जैसे आबादी के फैलाव के आधार पर जेनेटिक विविधता का अनुमान लगाना। अध्ययनों में पाया गया है कि 58 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की आबादी इतनी सिमट चुकी है कि वे दीर्घकालिक जेनेटिक विविधता बनाए नहीं रख सकतीं। 

इस स्थिति को देखते हुए तत्काल कार्रवाई (immediate action) की आवश्यकता है। विशेषज्ञों के अनुसार केवल प्राकृतवासों की सुरक्षा पर्याप्त नहीं है बल्कि प्रजातियों के जेनेटिक भविष्य (genetic future) को भी सुरक्षित करना अनिवार्य है।

यदि संरक्षण प्रयासों में जेनेटिक विविधता को प्राथमिकता दी जाए, तो हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि प्रजातियां न केवल आज जीवित रहें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों (future generations) के लिए भी सशक्त और जीवनक्षम बनी रहें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म होते शहरों में चूहों की बढ़ती फौज

हरों में चूहों की बढ़ती आबादी (rat infestation) एक गंभीर समस्या बनती जा रही है, जिससे बीमारियों (diseases) और आर्थिक नुकसान (economic loss) का खतरा बढ़ रहा है।  अनुमान है कि अकेले अमेरिका में चूहों से जुड़ी समस्याओं के कारण हर साल करीब 3000 अरब रुपए का आर्थिक नुकसान होता है। लेकिन अलग-अलग शहरों में इनके प्रकोप की तुलना के लिए ठोस आंकड़ों की कमी है।

इस सम्बंध में युनिवर्सिटी ऑफ रिचमंड (university of richmond) के शहरी पारिस्थितिकीविद जोनाथन रिचर्डसन द्वारा साइंस एडवांसेज़(Science advances) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन(climate change), जनसंख्या वृद्धि (Population growth) और घटते हरित क्षेत्र (declining green spaces) चूहों की बढ़ती संख्या के मुख्य कारण हैं। तापमान बढ़ने और बगीचों व खुले इलाकों को रिहायशी और व्यावसायिक क्षेत्रों में बदलने से चूहों को अनुकूल परिस्थितियां (favourable conditions) मिल रही हैं।

चूहे बहुत चालाक और अनुकूलनशील जीव (adaptive creature) हैं, जो हज़ारों सालों से इंसानों के साथ रह रहे हैं। वे कचरे, सीवर और सड़क किनारे मिट्टी के छोटे-छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल बिल बनाने(nesting) और भोजन प्राप्त (food scavenging) करने के लिए बखूबी कर लेते हैं। 

रिचर्डसन के अध्ययन में पाया गया कि जिन शहरों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है और जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वहां चूहों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है। ठंड का मौसम (cold weather) आम तौर पर चूहों के प्रजनन (rat breeding) और भोजन खोजने की गतिविधियों को धीमा कर देता है। लेकिन गर्म जलवायु में वे तेज़ी से प्रजनन करते हैं और आसानी से भोजन जुटा लेते हैं। इसके अलावा शहरी इलाकों की अधिक जनसंख्या (high urban population) का मतलब है अधिक रेस्टोरेंट, कूड़ेदान और कचरा, जो चूहों के लिए पर्याप्त भोजन स्रोत उपलब्ध कराते हैं।

अध्ययन में शामिल 16 शहरों में से वॉशिंगटन डी.सी. (Washington D.C.) सबसे ज़्यादा प्रभावित पाया गया। पिछले 20 वर्षों में यहां चूहों की संख्या बोस्टन (boston) की तुलना में तीन गुना और न्यूयॉर्क सिटी (New York city) की तुलना में 1.5 गुना तेज़ी से बढ़ी है हालांकि अमेरिका का नगरीय प्रशासन हर साल चूहों पर नियंत्रण के लिए करीब 50 करोड़ डॉलर (4250 करोड़ रुपए) खर्च कर रहा है। 

कुछ शहरों ने ज़रूर चूहों की संख्या को सफलतापूर्वक कम भी किया है। इनमें टोक्यो(tokyo), लुइविले (केंटकी) (Louisville, Kentucky)  और न्यू ऑरलियन्स (New Orleans) शामिल हैं, जिससे यह पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों में चूहों की समस्या को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे: 

1. सख्त कचरा प्रबंधन (strict garbage management)– टोक्यो में कचरे के प्रभावी निपटान और कड़े नियमों के कारण चूहों को पनपने के लिए भोजन और आश्रय नहीं मिल पाता है। 

2. जागरूकता अभियान (awareness campaigns)– न्यू ऑरलियन्स में लोगों को सिखाया जाता है कि वे अपने घरों और कचरा क्षेत्रों को चूहों से मुक्त कैसे रखें और चूहे दिखने की सूचना जल्द से जल्द दें।

3. सामाजिक दबाव (social pressure)– टोक्यो में सोशल मीडिया (social media) पर चूहों की समस्या सामने आते ही होटलों और व्यवसायों द्वारा तुरंत कार्रवाई की जाती है।

4. दीर्घकालिक निगरानी (long term monitoring)– चूहों की संख्या पर सतत नज़र रखने से यह समझने में मदद मिलती है कि कौन से उपाय प्रभावी हैं और कहां सुधार की आवश्यकता है।

रिचर्डसन की टीम के मुताबिक चूहों की समस्या पर काबू पाने के लिए अधिक संसाधन लगाने और नियंत्रण टीमों का विस्तार करने की आवश्यकता है। नगरीय प्रशासन और नागरिक मिलकर कचरा प्रबंधन, जागरूकता और बेहतर शहरी योजनाओं (waste management, awareness and urban planning)को प्राथमिकता दें, तो समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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