अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की भूमिका

तनुज लूथरा

क्षिण-पश्चिमी दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में नाई की दुकान और किराने की दुकान के बीच स्थित डॉ. ‘आर’ के बहुत ही छोटे से दवाखाने (clinic)  में मैंने कुछ दिलचस्प देखा। मैंने देखा कि डॉ. ‘आर’ बड़ी कुशलता से एक अधेड़ व्यक्ति की सलाइन (IV drip) बदल रहे हैं। उस मरीज़ की पत्नी पास में बैठी थी और थकी-थकी सी लग रही थी। उसने कहा, “कल तो ठीक थे, आज अचानक बेहोश (unconscious) हो गए तो मैं इन्हें यहां ले आई।”

डॉ. ‘आर’ ने 12 साल पहले इस बस्ती में अपनी प्रैक्टिस (medical practice) शुरू की थी। इससे पहले वे सफदरजंग अस्पताल (Safdarjung Hospital) में डॉक्टर के सहायक के रूप में काम करते थे। उनके पास कोई औपचारिक चिकित्सकीय प्रशिक्षण (formal medical training) या डिग्री नहीं है लेकिन उनके मरीज़ों को इससे कोई आपत्ति नहीं है। डॉ. ‘आर’ कहते हैं, “दिल्ली में उनके जैसे लाखों डॉक्टर हैं और यदि ये सभी अपनी प्रैक्टिस बंद कर दें तो अस्पतालों में भीड़ लग जाए।”

डॉ. ‘आर’ जैसे अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं (IHPs) (informal healthcare providers) की संख्या दिल्ली के गरीब इलाकों में काफी अधिक है। ये आम तौर पर किसी प्रशिक्षित डॉक्टर के सहायक (medical assistant), फार्मासिस्ट (pharmacist)/कंपाउंडर (compounder) या स्वास्थ्य सुविधाओं में गैर-चिकित्सकीय कर्मचारी (non-medical staff)  के रूप में शुरुआत करते हैं, और कुछ वर्षों के अनुभव के बाद स्वतंत्र रूप से अपनी प्रैक्टिस शुरू कर देते हैं।

अक्सर एलोपैथी (allopathy) में काम करने वाले ये अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता (IHPs) किसी एक चिकित्सा पद्धति के प्रति वफादार नहीं होते। समुदाय में बसे ये IHP (प्राय: पुरुष) बीमार या घायल लोगों द्वारा इलाज की तलाश में पहला संपर्क बिंदु होते हैं। एक तरह से ये उनके ‘फैमिली डॉक्टर’ की तरह होते हैं।

ग्रामीण भारत (rural India) पर ध्यान दें तो, IHPs के पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ यह तर्क दिया जाता है कि वे स्वास्थ्य प्रणाली में “रिक्त स्थानों” को भरते हैं। हालांकि, औपचारिक स्वास्थ्य प्रणालियों तक गरीबों की पहुंच में रुकावट डालने वाले कारण, जैसे सरकारी अस्पतालों में भेदभावपूर्ण व्यवहार (discriminatory behavior) या औपचारिक सुविधाओं की कमी, महत्वपूर्ण हैं लेकिन यह जानना भी आवश्यक है कि किन अन्य कारणों से लोग IHPs की सेवाएं लेते हैं।

दिल्ली जैसे शहरों पर गौर करके यह समझने में मदद मिल सकती है, जहां कागज़ों पर ‘पर्याप्त’ सरकारी और निजी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। आखिर, IHPs वास्तव में क्या उपलब्ध कराते हैं? इस लेख में IHPs की भूमिका और भारत में ‘फैमिली डॉक्टर’ के महत्व का विश्लेषण किया गया है। साथ ही, दवाखानों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की जटिलताओं पर सवाल उठाए गए हैं, जो IHPs के संदर्भ से परे होते हुए भी प्रासंगिक हैं।

फैमिली डॉक्टर (जो अक्सर जनरल प्रैक्टिशनर के पर्याय होते हैं, लेकिन हमेशा नहीं) प्राथमिक स्वास्थ्य प्रदाता होते हैं जो परिवारों में विभिन्न उम्र के लोगों की विभिन्न बीमारियों का इलाज करते हैं। अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में, फैमिली डॉक्टर एक ‘दोहरी दृष्टि’ रखते हैं: एक ओर तो वे मरीज़ को एक शरीर या मन के रूप में देखते हैं जिसे चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता है और साथ ही उसे एक संपूर्ण इंसान के रूप में देखते हैं, जो अन्य लोगों के साथ जटिल सम्बंधों में उलझा है। दृष्टिकोण का यह दोहरापन और मरीज़ों तथा उनके परिवारों के साथ उनकी नज़दीकी, उन्हें ‘व्यक्तिगत स्वास्थ्य सेवा’ प्रदान करने के सक्षम बनाती है।

यह सरकारी और निजी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते व्यावसायीकरण के चलते डॉक्टरों से मिलने वाली नौकरशाही नुमा और बेरुखी से भरी सेवा के विपरीत है। फैमिली डॉक्टर लंबे समय तक मरीज़ों और उनके परिवारों को देखकर यह समझ सकते हैं कि अचानक होने वाली बीमारियां कैसे जीर्ण बीमारियां बन सकती हैं, और जीर्ण बीमारियों के कैसे अचानक गंभीर लक्षण उभर सकते हैं। वे मरीज़ों की विशेषताओं और व्यक्तिगत ज़रूरतों के अनुसार अपने निदान और उपचार में बदलाव करते हैं, जिसकी सफलता का स्तर अलग-अलग होता है।

समय के साथ, परिवार उनकी सलाह पर भरोसा करने लगते हैं और छोटी-बड़ी हर प्रकार की स्वास्थ्य चिंताओं पर उनकी राय लेते हैं। इस तरह, वे भरोसेमंद बन जाते हैं और मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक राहत का एहसास कराते हैं।

निश्चित रूप से, भारत के दवाखानों और अस्पतालों में, खासकर हाशिए पर रहने वाले समूहों को ऐसी स्वास्थ्य सेवा मिलना दुर्लभ है। लेकिन, मुझे लगता है, IHPs इन आदर्शों को कुछ हद तक साकार करते हैं। ऐसा अक्सर वे सोच-समझकर नहीं करते, बल्कि यह उनके काम के ढांचे और स्थितियों से स्वाभाविक रूप से उभरता है।

उदाहरण के लिए, उनके दवाखाने के भौतिक वातावरण पर गौर कीजिए। डॉ. ‘आर’ के दवाखाने की तरह, आम तौर पर ये दवाखाने घनी बस्तियों में आवासीय और व्यावसायिक क्षेत्रों के बीच एक छोटे कमरे में चलते हैं, जहां कोई बड़ा साइनबोर्ड भी नहीं होता। अंदर ज़रा-सी जगह में एक मेज़, कुछ कुर्सियां, दवाइयों से भरी अलमारी, एक बिस्तर, मरीज़ और डॉक्टर, ये सब जगह के लिए होड़ करते नज़र आते हैं। इन दवाखानों के खुलने पर मरीज़ बिना किसी अपॉइंटमेंट या बिना किसी नौकरशाही के हस्तक्षेप के आ-जा सकते हैं।

मोहल्ला क्लीनिक (जो आम तौर पर दोपहर 2 बजे तक बंद हो जाते हैं) और अन्य सरकारी डिस्पेंसरी की तुलना में ये देर तक खुले रहते हैं। इनके एकदम नज़दीक जगह पर होने और ओपन-डोर (खुला दरबार) नीति के कारण यहां पहुंचना आसान होता है, जो अस्पतालों और नर्सिंग होम में आम तौर पर देखने को नहीं मिलता। जैसा कि एक मरीज़ ने बताया, “रात को काम खत्म करके हम यहां दवाइयां लेने आ सकते हैं या किसी भी समय इनसे (IHPs) फोन पर पूछ सकते हैं।”

इसके विपरीत सरकारी ‘मुफ्त’ स्वास्थ्य सेवाओं में अपनी बारी का घंटों लंबा इंतज़ार, भारी रिश्वत, सुरक्षा कर्मियों का दुर्व्यवहार और एक दिन की मज़दूरी का नुकसान का मतलब सिर्फ उनकी अक्षमता या अयोग्यता नहीं है। मानव विज्ञानी डेविड ग्रेबर के शब्दों में ये नौकरशाही-संस्थागत अनुभव ‘ढांचागत हिंसा’ के रूप में दर्ज होते हैं। हालांकि, IHPs और सरकारी अस्पताल एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते लेकिन IHPs की आसान उपलब्धता, सुलभता और सम्मानपूर्ण संवाद उन्हें छोटी बीमारियों और ज़ख्मों के लिए अधिक पसंदीदा विकल्प बनाते हैं।

जिस समुदाय की वे सेवा करते हैं, उसका सदस्य होने के नाते, IHPs का मरीज़ों के जीवन में लंबे समय का निवेश होता है। पड़ोसियों की भलाई के प्रति भावनात्मक चिंता के अलावा, उन्हें यह भी देखना होता है कि मरीज़ हमेशा इलाज के लिए आते रहें। यह आर्थिक मजबूरी उन्हें गलत या हानिकारक इलाज करने से रोकती है। उन्हें इस बात की गहरी समझ होती है कि किसी भी गलती से समुदाय के लोगों के साथ समस्या में फंस सकते हैं, इसलिए वे ‘पेचीदा’ मरीज़ों को पहचानने के तरीके विकसित कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, वे शराब की लत के संकेतों की जांच करते हैं (जो लीवर क्षति का कारण हो सकता है) और ऐसे मरीज़ों को बड़े अस्पतालों में रेफर कर देते हैं।

डॉ. ‘टी’ (एक अन्य IHP) का कहना है कि मरीज़ों को समझने के लिए उनके आंतरिक जीवन को भी समझना होता है। उनकी परेशानी क्या है? क्या वे इसे सही ढंग से व्यक्त कर पा रहे हैं? डॉ. ‘टी’ का मानना है कि जब आप उनसे ढंग से बात करेंगे, तभी वे अपनी दिल की बात खुलकर कह पाएंगे। इस तरह से निदान केवल शरीर की जांच तक सीमित नहीं रहता बल्कि ऐसी परिस्थितियां बनाने की भी ज़रूरत होती है जहां मरीज़ अपनी बीमारी के अनुभव की बारीकियों को व्यक्त कर सकें।

IHPs और मरीज़ों के बीच का यह गहरा रिश्ता उनके संबोधन के तरीकों में भी झलकता है। लोग उन्हें ‘डाक्टर साब’, ‘अंकल’, ‘बेटा’, ‘भैया’ जैसे नामों से पुकारते हैं, जो ‘डॉक्टर – एक विशेषज्ञ’ और ‘मरीज़ – एक आम व्यक्ति’ के औपचारिक रिश्ते से परे परिचय और आत्मीयता को दर्शाता है। IHPs अपने क्लीनिकों में एक मिलनसार माहौल बनाए रखते हैं, जहां लोग सहजता से आते-जाते हैं, गपशप करते हैं या रोज़मर्रा के मामूली मुद्दों पर चर्चा करते हैं। इस तरह, सहज सम्बंध और मज़बूत होते हैं।

अक्सर बुज़ुर्ग IHPs नैतिक और सामाजिक सेवा के केंद्र बन जाते हैं। जैसे डॉ. ‘यू’ (एक अन्य IHP) का क्लीनिक छोटे बच्चों के लिए नर्सरी/ट्यूशन सेंटर के रूप में भी काम करता है। यहां वे नियमित रूप से धूम्रपान या नशीली दवाइयों के खतरों पर जागरूकता सत्र आयोजित करते हैं। देखभाल के ये नैतिक स्वरूप मरीज़ और प्रदाता के आपसी रिश्तों को भी समेट लेते हैं, जहां मरीज़ों को छूने को लेकर उन्हें कोई हिचक नहीं होती।

गंदे घावों की सफाई या खून साफ करने के बारे में बात करते हुए डॉ. ‘जी’ (एक अन्य IHP) बताते हैं “डॉक्टर को कभी घिन नहीं करना चाहिए।” बात भले ही मामूली लगे लेकिन भारत में शुद्धि-अशुद्धि से जुड़ी जाति आधारित मान्यताओं के मद्देनज़र ये छोटी-छोटी बातें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

अपने मरीज़ों जैसी सामाजिक और भौतिक परिस्थितियों में रहने वाले IHPs यह बखूबी समझते हैं कि कैसे परिस्थितियां लोगों को बीमार बनाती हैं और कैसे उन्हें उचित इलाज से वंचित रखती हैं। बीमारियों को व्यक्तिगत जीवनशैली की बजाय अशुद्ध पानी या भोजन की कमी जैसे संरचनात्मक जोखिमों से जोड़ते हुए वे शहरी भारत की प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के कुशल विश्लेषक के रूप में भी उभरते हैं।

मैंने देखा है कि मरीज़ की आर्थिक हालत को समझते हुए IHPs ने अक्सर मरीज़ों को यह छूट दी कि वे जब संभव हो फीस दे दें और लंबे समय तक उधारी में इलाज किया – जो औपचारिक चिकित्सा व्यवस्था में असंभव है। हकीकत में IHPs इस छवि से बहुत अलग होते हैं कि वे गरीबों का शोषण करने वाले ‘धोखेबाज’ होते हैं (हालांकि ऐसा करने वाले भी मौजूद हैं, जो औपचारिक क्षेत्र में भी उतने ही हैं)।

हालांकि, उनकी प्रैक्टिस कभी-कभी मरीज़ों के लिए खतरा पैदा कर सकती है लेकिन इन खतरों का इल्ज़ाम सिर्फ IHPs के सिर मढ़ना उचित नहीं होगा; बल्कि इन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की व्यापक समस्याओं के रूप में देखना होगा। फिर भी, इन मुद्दों को गंभीरता से लेना आवश्यक है। IHPs द्वारा बिना सही निदान किए अनुभव आधारित इलाज और लक्षणों के आधार पर उपचार वास्तविक छिपी समस्याओं की गलत पहचान कर सकता है, जिससे समय के साथ स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। उनके द्वारा दी जाने वाली एंटीबायोटिक्स, दर्द निवारक दवाओं और स्टेरॉयड के उपयोग से व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव और सामुदायिक स्तर पर एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

IHPs बताते हैं कि कभी-कभी वे दवा कंपनियों की मार्केटिंग चालों के शिकार हो जाते हैं। कंपनियों के एजेंट उन्हें संदिग्ध दवाओं को बढ़ावा देने के लिए राज़ी करते हैं और ये दवाएं फिर मरीज़ों तक पहुंचती हैं। हालांकि, ऐसे नुकसान को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन अपने समुदायों में IHPs की अपरिहार्य भूमिका के कारण इस पर सीधे निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। वे खुद को ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ और ‘उद्यमशील सेवा प्रदाता’ के बीच कहीं देखते हैं, और इस तरह उनकी भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

कोविड के बाद के समय में, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर बहस को अभूतपूर्व महत्व मिला है। भारत में विशेषज्ञ डॉक्टरों पर अत्यधिक निर्भरता के चलते, हाल ही में पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने डॉक्टरों के लिए छोटे डिप्लोमा कोर्स प्रस्तावित किए हैं, और आंध्र प्रदेश ने फैमिली डॉक्टर कार्यक्रम शुरू किया है। ऐसे में, भारत के स्वास्थ्य सेवा तंत्र में IHPs की भूमिका पर गंभीर चर्चा का यह सही समय है।

बहरहाल, इस लेख का उद्देश्य इन बहसों से परे IHPs के दवाखानों में मरीज़ और डॉक्टर के सम्बंधों पर ध्यान केंद्रित करना है। कई लोग कहते हैं कि डैटा-आधारित स्वास्थ्य तकनीकों पर बढ़ती निर्भरता के कारण चिकित्सकीय सम्बंध कमज़ोर हो रहे हैं। लेकिन IHPs के क्लीनिक में इलाज कराने वाले लाखों लोगों के लिए यह सच नहीं है।

इसलिए, यह समझने की ज़रूरत है कि दवाखानों के अंदर के रिश्ते – जो बाहर की सामाजिक परिस्थितियों से भी प्रभावित होते हैं – स्वास्थ्य सेवा की सफलता-असफलता पर कैसे प्रभाव डालते हैं। IHPs के कार्य को गंभीरता से लेना हमें व्यावहारिक, वैचारिक और नैतिक सवाल पूछने का मौका देता है। क्या IHPs को प्रशिक्षित करने या संस्थागत रूप से शामिल करने से स्वास्थ्य परिणाम बेहतर हो सकते हैं, या यह उन्हीं औपचारिक पदानुक्रम सम्बंधों को बढ़ावा देगा?

अवधारणा के स्तर पर, IHP पर विचार करने से हमें यह पूछने का मौका मिलता है कि ‘डॉक्टर’ क्या हैं या कौन हैं? स्वास्थ्य सेवा प्रावधान में उनकी भूमिका की सीमाएं क्या होनी चाहिए? क्या डॉक्टर होने के लिए डिग्री ज़रूरी है, या सामाजिक मान्यता अधिक महत्वपूर्ण है? या ये दोनों ही ज़रूरी हैं? यदि है तो वह क्या है जो ‘डॉक्टर’ को ‘स्वास्थ्यकर्मी’ से अलग बनाती है?

अंतत:, क्या ‘गुणवत्ता’ केवल तकनीकी दक्षता, क्षमता, प्रभावशीलता और तार्किकता तक सीमित होनी चाहिए? या स्वास्थ्य सेवा के सामाजिक-नैतिक पहलू, जिन्हें नापना मुश्किल है, जैसे सहानुभूति, गरिमापूर्ण संवाद और प्रफुल्लता भी गुणवत्ता का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए, न कि कोई अतिरिक्त वस्तु? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/informal-health-providers-can-their-role-in-the-society-be-ignored

जगमगाते कुकुरमुत्ते

आमोद कारखानिस

केरल वन एवं वन्यजीव विभाग तथा मशरूम्स ऑफ इंडिया समुदाय से जुड़े कुछ विशेषज्ञों ने केरल के रानीपुरम जंगलों में एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट से वनस्पति विज्ञान समुदाय बहुत उत्साहित है। इस क्षेत्र में मिलने वाले कुकुरमुत्तों (मशरूम) और कवकों की विभिन्न किस्मों का ब्यौरा देती इस रिपोर्ट में कुछ खास बात है जिसने वैज्ञानिक समुदाय को इतना उत्साहित कर दिया है।

हम सभी कुकुरमुत्ता (मशरूम) के बारे में जानते हैं। मानसून (monsoon season) में हमने कई बार सूख चुके पेड़ों के तनों पर सफेद छतरी जैसे मशरूम (wild mushrooms) उगते देखे हैं। ये अलग-अलग किस्मों, अलग-अलग रंगों के होते हैं। कुछ मशरूम खाने योग्य (edible mushrooms) भी होते हैं, और इन्हें खाने के लिए उगाया भी जाता है। अलबत्ता, कई मशरूम ज़हरीले (poisonous mushrooms) भी होते हैं। बताते हैं कि नारंगी रंग वाले मशरूम ज़हरीले होते हैं। प्राय: सफेद या काले रंग के मशरूम ही देखने को मिलते हैं।

रानीपुरम के इस जंगल (rainforest) में कई तरह के मशरूम हैं। तो क्या खास है यहां के मशरूम्स में?

ज़रा एक स्थिति की कल्पना कीजिए: घने बादलों से घिरी अंधेरी-काली रात है, बारिश अभी-अभी थमी है, और ऐसे में आप जंगल की किसी पगडंडी पर चले जा रहे हैं। यदि आप कोई शहरी व्यक्ति हैं जिसे शोर-शराबे की आदत है तो जंगल (dense forest) आपको बहुत निरव लगेगा, और जंगल का यह सन्नाटा भयावह। लेकिन जंगल में घुप सन्नाटा तो नहीं है; पत्तियों से पानी टपकने की टिप-टिप, सिकाडा (Cicada insect) का (कानफोड़ू) शोर, बीच-बीच में उल्लू की आवाज़। ये सब मिलकर एक अजीब सा माहौल बनाते हैं। और अचानक थोड़ी दूरी पर एक सफेद-सी आकृति दिखाई देती है। खैर, थोड़ा करीब जाकर देखेंगे तो वह आकृति कुल्लु (स्टर्कुलिया यूरेन्स) का पेड़ निकलती है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसे भूतिया पेड़ (Ghost tree) कहते हैं।

जंगल के और अंदर चलिए। घने बादलों के तले, छोटी-सी टॉर्च के अलावा कोई और रोशनी नहीं है, वह भी सिर्फ पैरों के आसपास ही रास्ता दिखा पा रही है। जंगल के घुप अंधेरे को महसूस करने के लिए आप अपनी टॉर्च भी बंद कर लेते हैं। जैसे ही आंखें अंधेरे की आदी होती हैं कि फिर कुछ दिखाई देता है – कुछ हल्की हरी-सी चमक। इस चमक की तरफ बढ़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जंगल के फर्श पर छोटी-छोटी टहनियां, पत्तों के डंठल, सबके सब चमकते हुए प्रतीत होते हैं। कहीं आप किसी आश्चर्यलोक में तो नहीं हैं? या किसी परी-लोक में? चारों ओर देखते हैं, तो पेड़ों की छाल की धारियां भी चमक रही हैं। मंत्रमुग्ध कर देने वाला नज़ारा है। एक चमकीला जंगल (glowing forest)!

यह कोई काल्पनिक नज़ारा या कहानी नहीं है, बल्कि यह वास्तविक अनुभव है। यदि कभी आप रात में जंगल में घूमे हों तो आपने भी शायद ऐसा अनुभव किया हो। मुझे यह अनुभव कई साल पहले महाराष्ट्र के भीमाशंकर के जंगलों में हुआ था। इस रोशनी को जैव-दीप्ति (बायोल्यूमिनेसेंस, Bioluminescence) कहा जाता है।

देखा जाए तो बायो-ल्यूमिनेसेंस (natural bioluminescence) हमारी जानी-पहचानी चीज़ है। हम सभी ने जुगनू (fireflies) देखे हैं। पश्चिमी घाट (Western Ghats) के आसपास रहने वालों के लिए यह एक सामान्य बात है। वैसे भी लगभग सभी जंगलों में जून के महीने में, मानसून की शुरुआत में सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में जुगनू दिखाई देते हैं: नर और मादा दोनों प्रकाश उत्सर्जित करते हैं और टिमटिमाते हैं, लेकिन उनकी टिमटिमाने की लय अलग-अलग होती है। लगता है कि इस तरह से वे एक-दूसरे को ढूंढते हैं, प्रजनन साथी तलाशते हैं।

यह कीटों में जैव-दीप्ति (bioluminescent insects) है। वैसे और भी जीवों में जैव-दीप्ति देखने को मिलती है। लेकिन वनस्पतियों में जैव-दीप्ति मिलना दुर्लभ (rare bioluminescent fungi) है। कुछ कवक (फफूंद) चमकती हैं। कवक (fungi) की लगभग 10,000 प्रजातियों में से केवल 60 के करीब प्रजातियों में ही जैव-दीप्ति होती है। और ऐसी अधिकांश प्रजातियां केवल समुद्र (marine bioluminescence) में पाई जाती हैं।

पश्चिमी घाट के पुराने (लगभग अनछुए) वर्षा वनों में कुछ जैव-दीप्त कवक (glowing mushrooms) पाए जाते हैं। ऊपर वर्णित भीमाशंकर के जंगल के नज़ारों में जो जैव दीप्ति देखी गई है वह आर्मिलेरिया मेलिया (Armillaria mellea) कवक थी। मशरूम दरअसल कवक ही होते हैं। भारत में मायसिन (Mycena) की कुछ ऐसी प्रजातियां पाई जाती हैं जो जैव-दीप्त होती हैं।

रानीपुरम वन सर्वेक्षण (Ranipuram forest survey) की रिपोर्ट में लगभग 50 से अधिक कवक प्रजातियों की सूची है; इनमें से दो भारत के लिए नई खोजी गई प्रजातियां हैं। लेकिन इनमें से सबसे दिलचस्प है फिलोबोलेटस मैनिपुलेरिस (Phylloboletus manipularis)। यह एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare glowing mushroom) है। यह कवक आम तौर पर ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और प्रशांत द्वीपों में पाई जाती है। तो फिर यह रानीपुरम तक कैसे पहुंची? सवाल दिलचस्प है और आगे अध्ययन की मांग करता है।

जैव-दीप्ति सजीवों में रासायनिक अभिक्रिया (chemical reaction in bioluminescence) के कारण होती है। यह काफी जटिल प्रक्रिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में लूसिफेरिन (Luciferin) नामक रसायन की भूमिका होती है। (वास्तव में लूसिफेरिन रसायनों के एक समूह का नाम है। जैव-दीप्ति दिखलाने वाली हर प्रजाति में यह रसायन थोड़े-बहुत फर्क के साथ हो सकता है, लेकिन उनकी सामान्य संरचना एक-सी होती है।) लूसिफरेज़ (Luciferase) नामक एक एंज़ाइम की उपस्थिति में यह रसायन ऑक्सीकृत हो जाता है और ऑक्सीकरण की इस प्रक्रिया में कुछ ऊर्जा हरे या नीले प्रकाश (green or blue light emission) के रूप में निकलती है। दिलचस्प बात है कि इस रासायनिक अभिक्रिया में कोई ऊष्मा उत्पन्न नहीं होती है और अभिक्रिया कोशिका के सामान्य तापमान पर संपन्न होती है, इसलिए इसे शीत दहन (cold combustion) भी कहा जाता है।

महाराष्ट्र में पाए जाने वाले जैव-दीप्त कवक की रिपोर्ट एक पुराने, अछूते और बहुत नम वर्षावन (tropical rainforest) की है। लगभग 25 साल पहले भीमाशंकर के जंगल में मैंने जो कवक देखी थी, वह शिव ज्योतिर्लिंग मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित घने जंगल में थी। लेकिन अब यह जंगल घना नहीं रहा। बढ़ते पर्यटन और भक्तों की बढ़ती संख्या ने वहां की जैव-विविधता को प्रभावित किया है। लेकिन लोनावला, मुलशी-ताम्हिनी जैसे पश्चिमी घाट के कई अंदरूनी इलाकों (करीब-करीब अछूते इलाकों) और गोवा के कुछ जंगलों में इस कवक की मौजूदगी की सूचना मिली है।

इसी संदर्भ में केरल में एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare Kerala glowing mushroom) का मिलना बहुत महत्वपूर्ण है। इस प्रजाति का मिलना इस बात की ओर भी इशारा करता है कि हम अभी भी पश्चिमी घाट के जंगल के बारे में सब कुछ नहीं जानते हैं। इन जंगलों में कई और नई प्रजातियां होंगी जिन्हें खोजा जाना बाकी है। हम काटे गए जंगलों की क्षतिपूर्ति के लिए वृक्षारोपण करके वृक्षाच्छादन तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन जंगलों ने हज़ारों वर्षों में जो जैव-विविधता विकसित की है, उसे वैसा का वैसा पनपाना मुश्किल है। इसलिए हमें इनके संरक्षण का हर संभव प्रयास करना चाहिए। विकास की आड़ में विनाश कर हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इस प्रक्रिया में हम क्या खोते जा रहे हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sanskritiias.com/uploaded_files/images//MANIPULRIS.jpg

सबके लिए स्वास्थ्य हासिल करने ‘मिशन पॉसिबल’

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चेन्नई स्थित नोशन प्रेस द्वारा प्रकाशित स्वामी सुब्रमण्यन और अपराजितन श्रीवत्सन अपनी किताब मिशन पॉसिबल में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage – UHC) सुगम करने के लिए राह बनाने के तरीके सुझाते हैं। यह किताब सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर है। किताब 143 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत (India Population) (जहां 38% बच्चे और 11% वरिष्ठ नागरिक हैं) को ध्यान में रखते हुए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज करने की बात कहती है। सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज कोई आसान काम नहीं है, और लेखक इसे हासिल करने के तरीके सुझाते हैं।

शुक्र है कि विश्लेषण के आधुनिक तरीकों में हुई प्रगति और सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology – IT) की मदद से यह हासिल करना अब संभव लगता है। यह कहना है दी लैंसेट में प्रकाशित लेख ‘रीइमेजिनिंग इंडिया’स हेल्थ सिस्टम (Reimagining India’s Health System)’ का। इस प्रयास का नेतृत्व अकादमिक लोगों, वैज्ञानिक समुदाय (Scientific Community), सिविल सोसायटी के संगठनों और निजी स्वास्थ्य सेवा (Private Healthcare Sector) के अग्रज़ों द्वारा किया जाना चाहिए। दी पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (Public Health Foundation of India – PHFI) ने भारत में एक एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली (Integrated Healthcare System) के निर्माण का सुझाव दिया था, जिसके अंतर्गत सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा (Universal Health Insurance) का प्रावधान, स्वास्थ्य सेवा में जवाबदेह व प्रमाण-आधारित अच्छी गुणवत्ता के तौर-तरीकों को बढ़ावा देने और प्रशिक्षित मानव संसाधन (Skilled Healthcare Workforce) के विकास के लिए स्वायत्त संस्थाओं की स्थापना, स्वास्थ्य प्रशासन का पुनर्गठन करके उसे अधिक समन्वित तथा विकेंद्रीकृत बनाना और कानून बनाकर समस्त भारतीयों को स्वास्थ्य का हक देना शामिल होगा।

गुणवत्ता में सुधार (Quality Improvement in Healthcare)

इसमें शामिल है भारत में प्रोत्साहक, निवारक और उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं (Preventive and Curative Healthcare Services) के प्राथमिक प्रदाता के रूप में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली (Public Healthcare System) को मज़बूत करना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली (National Healthcare System) के भीतर निजी क्षेत्र (Private Sector in Healthcare) का एकीकरण करके गुणवत्ता में सुधार और स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च को कम करना। वास्तव में 1946 में, जब आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संचार प्रणाली नहीं थी, तब भोर समिति (Bhore Committee Report 1946) की रिपोर्ट ने भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की नींव रखी थी। इसने एक त्रि-स्तरीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली (Three-Tier Healthcare System) स्थापित करने की सिफारिश की थी, जिसमें सुरक्षात्मक और निवारक सेवाओं को एकीकृत करने और उपचार की फीस भुगतान करने की क्षमता की परवाह किए बिना चिकित्सा सेवा तक सभी की पहुंच सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया था। समिति ने चिकित्सा शिक्षा प्रणाली (Medical Education System in India) में बड़े बदलाव भी सुझाए थे।

मिशन पॉसिबल बताती है कि जिस तरह आधार कार्ड (Aadhaar Card) का इस्तेमाल व्यक्तिगत पहचान और चुनाव में मतदाता पहचान के लिए किया जाता है, ठीक उसी तरह आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी (HealthTech – Healthcare Technology) का उपयोग करने वाले स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं (Community Health Workers – CHWs) की टीमों द्वारा सर्वोत्तम स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सकती है। इन टीमों में एक स्थानीय चिकित्सक (Primary Care Doctor) होगा, जिसकी मदद के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (CHWs) का एक समूह होगा। ये सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आपात स्थिति को छोड़कर) डॉक्टर के कामों का लगभग 75% काम कर सकते हैं, और मोबाइल फोन (Mobile Health – mHealth) और रोगियों के इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (Electronic Medical Records – EMR) जैसे साधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस टीम में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता से लेकर किसी एक अस्पताल में विशेषज्ञ तक शामिल हैं और जैसा कि लेखक कहते हैं, ‘प्रौद्योगिकी एक ऐसी गोंद है जो इस टीम को जोड़े रख सकती है’। प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगभग 40,000 की आबादी की सेवा करेगा, और तृतीयक देखभाल देने वाले 75 बिस्तरों वाले ज़िला अस्पताल (District Hospital) के साथ काम करेगा। प्रत्येक राज्य में एक विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधा (Top Medical Institute in India) होनी चाहिए (जैसे, दिल्ली का AIIMS (All India Institute of Medical Sciences – AIIMS), हैदराबाद का NIMS (Nizam’s Institute of Medical Sciences – NIMS))। सभी एमबीबीएस (MBBS) (और एमएससी बायोटेक (MSc Biotechnology)) के विद्यार्थियों को सामुदायिक चिकित्सा में तीन महीने का प्रशिक्षण लेना चाहिए।

आगे लेखक का सुझाव है कि जिस तरह ज़िला प्रशासन में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service – IAS) की भूमिका होती है, उसी तरह एक भारतीय चिकित्सा सेवा (Indian Medical Service – IMS) का गठन किया जाना चाहिए। विशेषज्ञ चिकित्सक (Specialist Doctors) राज्य स्तर पर मदद करें। इसके अलावा, सरकारी चिकित्सा तंत्र के साथ-साथ निजी चिकित्सा केंद्रों एवं संस्थाओं को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की अनुमति दी जानी चाहिए। दरअसल, दक्षिण भारत (South India Healthcare Model) में कई नेत्र विज्ञान संस्थान (Ophthalmology Institutes in India) ऐसा कर भी रहे हैं; पिरामिडनुमा चार-स्तरीय मॉडल (Four-Tier Healthcare Model) का उपयोग करते हुए, गांव और शहर के नेत्र देखभाल कर्मचारियों को अस्पतालों के ज़रिए विश्व स्तरीय नेत्र अनुसंधान केंद्रों (Eye Research Centers) से जोड़ा गया है। रोगियों को निदान के लिए नेत्र अस्पताल तक भी नहीं जाना पड़ता है, नेत्र चिकित्सक आधुनिक प्रौद्योगिकियों (Telemedicine in India) की मदद से घर पर ही रोगी की आंखों की जांच करते हैं। इस तरह, सबके लिए स्वास्थ्य (Healthcare for All) की राह बनाई जा सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन रोम के लोगों ने सीसा प्रदूषण झेला है

पैक्स रोमन काल (Pax Romana period) (27 ईसा पूर्व से 180 ईसवीं तक का समय) रोम के सुनहरे युग (Golden Age of Rome) के रूप में देखा जाता है। इस दौरान रोम में अपेक्षाकृत शांति और समृद्धि थी। इसी दौर में रोमन साम्राज्य (Roman Empire) की शुरुआत हुई, कोलोसियम (Colosseum) का निर्माण हुआ, और साम्राज्य पूरे भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) और अधिकांश ब्रिटिश द्वीपों (British Isles) तक फैला।

लेकिन प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस (Proceedings of the National Academy of Sciences – PNAS) में प्रकाशित शोध बताता है कि रोमवासियों ने इस समृद्धि की कीमत भी चुकाई है: चांदी खनन (silver mining) और गलाने (smelting) के काम के चलते उस दौरान रोमवासी सीसा प्रदूषण (lead pollution) का भी शिकार हुए थे। और इसके चलते उनके शारीरिक स्वास्थ्य (physical health) के साथ-साथ संज्ञान क्षमता (cognitive ability) में भी गिरावट आई होगी।

दरअसल, रोमन साम्राज्य में चांदी के सिक्के (silver coins) बनाने के लिए गैलेना (Galena) नामक सीसा-समृद्ध खनिज (lead-rich mineral) से चांदी का निष्कर्षण (silver extraction) किया जाता था। खनन (mining) व निष्कर्षण (extraction) के दौरान सीसा ज़हरीली वाष्प (toxic fumes) के रूप में निकलता है। एक ग्राम चांदी बनाने पर लगभग 10 किलोग्राम सीसा निकलता था।

अनुसंधानों की बदौलत आज हम यह जानते हैं कि सीसा (lead) से संदूषित चीज़ों (lead-contaminated materials), जैसे पाइप (pipes), पेंट (paint), खिलौने (toys) वगैरह के संपर्क में आने से हृदय (heart problems) और संज्ञान सम्बंधी समस्याएं (cognitive issues) हो सकती हैं और सीसे का संदूषण (lead contamination) शिशुओं और छोटे बच्चों (infants and young children) के लिए ज़्यादा जोखिमभरा है। फिर, यह भी देखा गया है कि प्राचीन रोम (Ancient Rome) में सीसे का खूब उपयोग होता था – चीनी मिट्टी के बर्तन (ceramic pottery), सौंदर्य प्रसाधन (cosmetics), चमकदार पेंट (glossy paint), पानी के पाइपों (water pipes) से लेकर वाइन के मिठासवर्धक (wine sweetener) के रूप में। हालिया अध्ययन का एक तर्क यह भी है कि इतने व्यापक इस्तेमाल के चलते सीसे की विषाक्तता (lead toxicity) ने रोमन साम्राज्य के पतन (fall of the Roman Empire) को गति दी होगी।

कुछ प्रमाण यह भी मिलते हैं कि रोमन लोग सीसा (lead poisoning) के खतरों को भांप चुके थे। प्लिनी दी एल्डर (Pliny the Elder) ने रोमन सौंदर्य प्रसाधनों (Roman cosmetics) में इस्तेमाल किए जाने वाले सफेद सीसा पाउडर (white lead powder) को ज़हर कहा था। और प्राचीन रोमन लोगों के दांतों के एनेमल (dental enamel) और कंकाल (skeletal remains) सीसा विषाक्तता का शिकार होने की गवाही तो देते ही हैं।

और, जिस तरह मिट्टी, चट्टानें अपनी परतों में अतीत की बातें छिपाए होती हैं, वैसे ही आर्कटिक (Arctic) में जमा बर्फ भी इतिहास की चुगली कर सकती है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में आर्कटिक कोर बर्फ (Arctic ice cores) में पैक्स रोमन काल में सीसा प्रदूषण (lead pollution during Pax Romana) और उसके स्वास्थ्य पर प्रभाव को बयां करते संकेत खोजे।

इसके लिए डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के शोधकर्ता जोसेफ मैककॉनेल (Joseph McConnell) ने भलीभांति अध्ययन किए जा चुके ऐसे तीन हिम कोर (ice core samples) का डैटा लिया जो रूस के निकटवर्ती आर्कटिक (Russian Arctic) और ग्रीनलैंड (Greenland) से निकाले गए थे। इसी के साथ उन्होंने मौसमी हवाओं (seasonal wind patterns) और नमी पैटर्न (moisture patterns) समेत कई जलवायु कारकों (climate factors) का ऐतिहासिक डैटा भी जुटाया। और इन सभी आंकड़ों को एक मॉडल (climate model) में डाला। मॉडल के अनुसार पैक्स रोमन काल में रोम ने अपने खनन कार्यों वगैरह के चलते हर साल 3 से 4 किलोटन सीसा वायुमंडलीय (atmospheric lead emissions) में छोड़ा और कुल मिलाकर रोम ने करीब 500 किलोटन से अधिक सीसा वायुमंडल (atmosphere) में छोड़ा।

फिर शोधकर्ताओं ने देखा कि इस स्तर के उत्सर्जन और संपर्क का मनुष्य पर किस तरह का संज्ञानात्मक प्रभाव (cognitive impact) पड़ सकता है। देखा गया कि वहां के रहवासियों के रक्त में सीसे का स्तर (blood lead levels) पैक्स रोमन काल में पहले या बाद की तुलना में बहुत अधिक था और संभवत: इस अतिरिक्त सीसा (lead exposure) के चलते पूरे साम्राज्य की संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive function) में औसतन 2.5 से 3 अंकों की कमी आई होगी। और इसका खामियाजा चांदी खदानों के आसपास के बाशिंदों (silver mining regions) को अधिक भुगतना पड़ा होगा, जैसे आधुनिक फ्रांस (France), स्पेन (Spain), यू.के. (United Kingdom – UK) और पूर्वी एड्रियाटिक (Eastern Adriatic).

कुछ संकेत इस बात के भी मिलते हैं जब 165 ईसवीं में एंटोनिन प्लेग (Antonine Plague) फैला और इसके चलते लगभग 10 प्रतिशत रोमन आबादी (Roman population) ने अपनी जान गंवाई तो चांदी खनन का काम (silver mining activities) करने वाले लोगों की संख्या में कमी आई, इसलिए रोमन सिक्कों में (Roman coinage) भी चांदी का उपयोग कम हुआ और नतीजतन खदानों से होने वाला सीसा प्रदूषण (lead pollution from mines) भी कम हुआ।

हालांकि इस पर थोड़े भिन्न मत भी हैं। अन्य वैज्ञानिकों (scientists) का कहना है कि संज्ञानात्मक क्षति (cognitive decline) के लिए पूरी तरह सीसे (lead) को ज़िम्मेदार ठहराने के पहले कई सामाजिक कारकों (social factors) जैसे युद्ध की परिस्थितियां (war conditions), भोजन की कमी (food shortages) का भी आकलन किया जाना चाहिए। बहरहाल, महामारी विज्ञानियों (epidemiologists) और इतिहासकारों (historians) के आगे के अध्ययन इस सम्बंध पर और अधिक प्रकाश डाल सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तंबाकू के विरुद्ध आवाज उठाने वाले वैज्ञानिकों पर संकट

वैसे तो हम सभी जानते हैं कि तंबाकू[tobacco], शराब [alcohol] और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों [ultra-processed foods]  का सेवन हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन इस जागरूकता को लाने में एक भूमिका वैज्ञानिकों [scientists] की भी है। क्योंकि यूं बेबुनियाद तो किसी चीज़ को नुकसानदेह या फायदेमंद नहीं कहा जा सकता। कोई चीज़ कितनी नुकसानदेह या कितनी फायदेमंद है, इस बात का निर्णय सतत शोधकार्यों [scientific research]  के ज़रिए बारीकी से पड़ताल करने के बाद होता है।

इस पड़ताल के दौरान वैज्ञानिकों को न सिर्फ अनुसंधान सम्बंधी चुनौतियों [research challenges] का सामना करना पड़ता है बल्कि उन्हें ऑनलाइन धमकियां [online threats], मुकदमे [lawsuits], सायबर हमले [cyber attacks], और यहां तक कि जान से मारने की धमकियां [death threats] तक झेलनी पड़ती हैं। इन वैज्ञानिकों को बदनाम करने और स्वास्थ्य से जुड़े अहम नियमों [public health policies] को टालने के लिए तंबाकू उद्योग [tobacco industry] ऐसी ही रणनीतियां अपनाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन [study] में इस समस्या पर प्रकाश डाला गया है।

हेल्थ प्रमोशन इंटरनेशनल [Health Promotion International] में प्रकाशित अध्ययन में वर्ष 2000 से 2022 के बीच 64 प्लेटफॉर्म पर दर्ज हुए उत्पीड़न [harassment] के मामलों की समीक्षा की गई: करीब आधे मामले वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं [public health activists] को अखबारों [news media], सोशल मीडिया [social media], विज्ञापनों [advertisements] और टीवी [TV] के ज़रिए बदनाम करने के संगठित प्रयास थे।

तंबाकू और अन्य उद्योग आम तौर पर शोधकर्ताओं को ‘चरमपंथी’ [extremist] या ‘पाबंदीपसंद’ [prohibitionist] साबित करने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, पोलैंड में एक तंबाकू कंपनी [tobacco company] ने इन वैज्ञानिकों को ‘लड़ाकू चरमपंथी’ कहा है। कड़े नियमों की मांग करने वाले शोधकर्ताओं को ‘निकोटीन नाज़ी’ [nicotine nazi], ‘स्वास्थ्य तानाशाह’ [health dictator] और ‘प्रतिबंधवादी’ [ban supporter] जैसे आपत्तिजनक नामों से पुकारा जाता है।

इन आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल एक बड़ी रणनीति [industry strategy] का हिस्सा है, जिसका मकसद जन स्वास्थ्य उपायों [public health measures] को बाधित करना और तंबाकू, मीठे पेय [sugary drinks] और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण वाले कानूनों [regulations] के क्रियांवयन को टालना या रोकना है।

कभी-कभी तो ये दहशतगर्दियां हिंसा [violence] तक पहुंच जाती हैं; ऐसा छ: मामलों में देखा गया है। नाइजीरिया में तंबाकू नियंत्रण [tobacco control] के पक्ष में बोलने वाले एक कार्यकर्ता और उनके बच्चों को बंदूक की नोक पर धमकाया गया। इस घटना में उनके साले और गार्ड की हत्या कर दी गई।

कोलंबिया में, डॉ. एस्पेरैंज़ा सेरॉन को मीठे पेय पर कर लगाने [sugar tax] के समर्थन में अभियान चलाने पर धमकियां मिलीं, डरावने फोन कॉल्स आए और मोटरसाइकिल सवार लोगों ने उनका पीछा किया; बाद में उन्हें जान से मारने की धमकी मिली।

इन दहशतों के बावजूद, अधिकतर शोधकर्ता [researchers] अपने काम पर डटे रहे। वैसे डराने-धमकाने के कारण बहुत थोड़े लोग पीछे भी हटे या हिचके।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ [University of Bath] में तंबाकू नियंत्रण पर शोध कर रही वैज्ञानिक डॉ. केरन इवांस-रीव्स ने बताया कि उन्हें सोशल मीडिया पर उपहास [online trolling] का सामना करना पड़ा, तंबाकू कंपनियों ने उनकी आलोचना की और उन पर कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दी। उन्होंने इस बात को साझा किया है कि उनके काम पर लगातार निगरानी रखने से उन्हें मानसिक रूप से कितना दबाव झेलना पड़ा। अलबत्ता, उन्होंने अपना शोध जारी रखा।

यह अध्ययन [research study] उन अदृश्य दिक्कतों को उजागर करता है, जिनका सामना जन स्वास्थ्य की रक्षा के लिए काम करने वाले शोधकर्ताओं को करना पड़ता है। अध्ययन इस बात पर भी ज़ोर देता है कि वैज्ञानिकों को वैश्विक समर्थन [global support] की ज़रूरत है ताकि वे डर और हिंसा के बिना अपना काम कर सकें।

इन शोधकर्ताओं की दृढ़ता यह दर्शाती है कि जोखिमों के बावजूद वे स्वस्थ समाज [healthy society] बनाने के अपने मिशन में अडिग हैं। यह शोध हमें याद दिलाता है कि शक्तिशाली उद्योगों [powerful industries] के खिलाफ यह संघर्ष [struggle] जारी है और उन लोगों की सुरक्षा बेहद ज़रूरी है जो समाज के हित में काम कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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