आनंदीबाई जोशी: चुनौतियां और संघर्ष – संकलन : पूजा ठकर

आनंदीबाई जोशी
मार्च 1865 – फरवरी 1887

न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहां मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूं; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं। – पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा (women education in India)  के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों (missionary schools in India) में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी (English education for women)  पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूं कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला (Hindu women in 19th century) के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा (higher education for women in India)  प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर (female doctor in India) नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूंगी। यहां तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था “आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान”।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय (university in USA for Indian women) में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी’ (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहां नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूं। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया (Philadelphia for medical studies) के महिला कॉलेज में छोड़ कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूं। उन्होंने मुझे वहां तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढंकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊंगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआं भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआं बर्दाश्त करो या ठंड! वहां रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खांसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूं और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई (Anandi Gopal Joshi) के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लांघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियां श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य (women’s health)पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202003/anandi-gopal-joshis-153rd-birt.jpeg?size=690:388

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