अनचाहे मेहमान: बाहरी प्रजातियां जब आक्रामक हो जाएं

सीमा मुंडोली

क्या आप ऐसे बिनबुलाए-अनचाहे मेहमानों को जानते हैं जो आपके घर आते हैं, आपके घर को बिलकुल अपना ही घर समझते हैं, आराम से रहते (या पसर जाते) हैं, और जाने का नाम ही नहीं लेते, आप चाहे जो कर लें? खैर, प्रकृति में भी ऐसे ‘मेहमान’ होते हैं जिनमें पौधों (plants), पक्षियों (birds), जंतुओं (animals), कीटों (insects) और यहां तक कि सूक्ष्मजीवों (microorganisms) की कई प्रजातियां शामिल हैं।
हम अक्सर ‘देशज’ (native species) और ‘गैर-देशज’ (non-native species) शब्द सुनते रहते हैं। ‘देशज’ प्रजातियां वे हैं जो किसी क्षेत्र में नैसर्गिक रूप से पाई जाती हैं, और वहां की परिस्थितियों के अनुसार विकसित और अनुकूलित होती हैं। ‘गैर-देशज’ प्रजातियां – जिन्हें बाहर से प्रविष्ट (introduced species), विदेशी (exotic species) या बाहरी प्रजातियां भी कहा जाता है – या तो इरादतन किसी ऐसे क्षेत्र में लाई जाती हैं जहां वे नैसर्गिक रूप से नहीं पाई जाती हैं या संयोगवश वहां पहुंच जाती हैं। उदाहरण के लिए, आज हमारे खान-पान का हिस्सा बन चुके कई फल (fruits) और सब्ज़ियां (vegetables) पारंपरिक रूप से भारत में नहीं पाई जाती थीं। आलू (potato) को ही लें – यह दक्षिण अमेरिका (South America) के एंडीज़ क्षेत्र (Andes region) का मूल निवासी है और आज भारत सहित पूरी दुनिया के व्यंजनों में इसका खूब उपयोग होता है। या इमली (tamarind) को ही लें, जो मध्य अफ्रीका (Central Africa) की देशज है, इसे हज़ारों साल पहले भारत लाया गया था और आज यह हमारे शोरबों और चटनियों (soups and chutneys) का अभिन्न हिस्सा है।
लेकिन ऐसी अन्य प्रजातियां भी हैं जिनका जाने-अनजाने, किसी भी तरह से, आना हमेशा उपयोगी नहीं होता। इन्हें विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) कहा जाता है। वे किसी स्थान पर आती हैं, वहां बस जाती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात – अनुकूल पारिस्थितिक परिस्थितियों (favorable ecological conditions) और अपने शिकारियों (predators) की अनुपस्थिति में – स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) और लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए फैलती रहती हैं।

आम तौर पर यह बताना मुश्किल होता है कि इनमें से कई आक्रामक प्रजातियां ठीक किस समय आई थीं, या क्यों/कैसे लाई गई थीं। लेकिन युरोपीय औपनिवेशिक उद्यम (European colonial enterprise) के लिए विभिन्न महाद्वीपों (continents) पर जहाज़ों (ships) द्वारा किए गए आवागमन ने आक्रामक प्रजातियों के फैलने में अहम भूमिका निभाई है। हो सकता है कि या तो बाहरी आक्रामक प्रजातियों को सजावटी पौधों (ornamental plants) या पालतू जानवरों (pets) के रूप में इरादतन लाया गया हो, और उन्हें या तो परिवेश में जानबूझकर छोड़ दिया गया हो या वे निकल भागी हों। या यह भी हो सकता है कि वे आवागमन के वाहनों (transportation vehicles) में या तो गलती से सवार होकर आ गई हों, या बीजों/अनाजों (seeds/grains) जैसे अन्य उत्पादों में गिरकर/मिलावट के रूप में आ गई हों। पौधे, सूक्ष्मजीव (microbes), मछलियां (fish), क्रस्टेशियन्स (crustaceans), पक्षी, सरीसृप (reptiles) – सभी अपने मूल क्षेत्रों (native regions) से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हम मनुष्यों के साथ यात्रा कर चुके हैं (पेत्र पाइसेक एवं साथी, 2020; जूली लॉकवुड, 2023)।

यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आज दुनिया भर में कितनी प्रजातियों को आक्रामक (invasive species) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। आक्रामक प्रजातियों और उनके जैविक प्रभावों (biological impacts) की सूची तैयार करने का एक प्रयास है ग्लोबल रजिस्टर ऑफ इन्ट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़ (Global Register of Introduced and Invasive Species)। यह काम प्रगति पर है, और अब तक इस रजिस्टर में 20 देशों की 11,000 प्रजातियां दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें थलीय (terrestrial) और समुद्री (marine) दोनों किस्म की प्रजातियां शामिल हैं। यह आंकड़ा जैविक घुसपैठ के परिमाण का एक अंदाज़ा देता है (श्यामा पगड़ एवं साथी, 2018)।

लेकिन आक्रामक प्रजातियों (invasive species) को लेकर इतना शोर क्यों? चिंता इसलिए है क्योंकि आलू (potato) और इमली (tamarind), जिनके बिना हम आज अपने व्यंजनों (cuisines) की कल्पना भी नहीं कर सकते, के विपरीत विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) प्रतिकूल पर्यावरणीय (environmental), सामाजिक (social) और आर्थिक (economic) कीमत के साथ आती हैं – और ये सभी समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं।

भारत में, सबसे आम आक्रामक पौधों (invasive plants) में से एक लैंटाना (lantana) है। ऐसा माना जाता है कि लैंटाना को 1807 में बागड़ बांधने वाले सजावटी पौधे (ornamental plants) के रूप में भारत में लाया गया था (जी.सी.एस. नेगी एवं साथी, 2019)। इसके छोटे बहुरंगी फूलों (multicolored flowers) के कारण यह वास्तव में बहुत सुंदर दिखता है। लेकिन इसकी सुंदरता से इतर, लैंटाना पूरे देश में तेज़ी से फैल गया है और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) के लिए इसके विनाशकारी परिणाम (devastating consequences) सामने आए हैं। बिलिगिरी रंगास्वामी वन्यजीव अभयारण्य (Biligiri Rangaswamy Wildlife Sanctuary) और टाइगर रिज़र्व (Tiger Reserve) में लैंटाना इतने बड़े पैमाने पर फैल गया है कि देशज पादप प्रजातियां (native plant species), जिन पर जंगली जानवर (wild animals) भोजन के लिए निर्भर हैं, कम हो गईं हैं। नतीजतन जंगली जानवर सोलिगा आदिवासियों (Soliga tribals) की फसलों (crops) पर धावा बोलने लगे हैं। सोलिगा लोगों ने यह भी कहा कि लैंटाना के फैलने की वजह से जंगल के खाद्य पदार्थों (forest foods) की वृद्धि कम हो गई है, जिन पर सोलिगा समुदाय (Soliga community) कभी निर्भर थे (सीमा मुंडोली एवं साथी, 2016)।

जलकुंभी (water hyacinth) एक अन्य आक्रामक प्रजाति (invasive species) है, जो बहुतायत में दिखती है। इसने आर्द्रभूमि (wetlands) और जल राशियों (water bodies) पर कब्ज़ा जमा लिया है और उनका दम घोंट दिया है – इसके नाज़ुक बैंगनी फूलों (delicate purple flowers) के (सुंदर) चंगुल में न फंसना! दक्षिण अमेरिका (South America) का मूल निवासी यह पौधा न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में सबसे आक्रामक पौधों (aggressive plants) में से एक माना जाता है। जलकुंभी पानी की सतह (water surface) को हरे रंग की चादर (green sheet) से पूरी तरह ढंक देती है जो प्रकाश (light) को पानी में प्रवेश नहीं करने देती है, जिससे पानी में ऑक्सीजन (oxygen) की कमी हो जाती है और यह स्थिति मछलियों (fish) की मौत (death) का कारण बनती है। जलकुंभी किसान (farmers) और मछुआरों (fishermen) की भी दोस्त नहीं है और इससे छुटकारा पाने के लिए काफी अधिक समय (time), श्रम (labour) और धन (money) लगाना पड़ता है।

पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) और आजीविका (livelihood) को प्रभावित करने के अलावा आक्रामक विदेशी प्रजातियां (invasive alien species) स्वास्थ्य (health) के लिए भी जोखिम (risk) पैदा करती हैं। पीत ज्वर फैलाने वाले येलो फीवर मच्छर (Aedes aegypti) संभवत: 500 साल पहले अफ्रीका (Africa) से बाहर निकले और हाल के दशकों में दुनिया भर में तेज़ी से फैल रहे हैं (जोशुआ सोकोल, 2023)। यह प्रजाति डेंगू (dengue) और चिकनगुनिया (chikungunya) वायरस (viruses) की वाहक (vectors) है। हाल ही में भारत (India) के विभिन्न क्षेत्रों में इन बीमारियों (diseases) का प्रकोप (outbreak) चिंता का विषय रहा है (रेड्डी एवं साथी, 2023)। इसी तरह, विशाल अफ्रीकी घोंघा (Giant African Snail), जिसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों (invasive species) में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है, न केवल फसलों (crops) को नष्ट (destroy) करता है बल्कि मेनिन्जाइटिस (meningitis) का कारण (cause) बनता है, जो जानलेवा (deadly) हो सकता है।

वास्तव में हम यह पूरी तरह नहीं जानते कि वर्तमान में भारत (India) में ऐसी कितनी बाह्य आक्रामक प्रजातियां (foreign invasive species) मौजूद हैं, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem), आजीविका (livelihood) और मानव स्वास्थ्य (human health) पर उनके प्रभावों (impacts) का दस्तावेज़ीकरण (documentation) किया जा चुका है। आर्थिक दृष्टि से (economic perspective), यह अनुमान लगाया गया है कि 1960 से 2020 के बीच आक्रामक प्रजातियों (invasive species) ने भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian economy) को 8.3 से 11.9 लाख करोड़ रुपए (8.3 to 11.9 trillion rupees) के बीच नुकसान (loss) पहुंचाया है – और हो सकता है कि वास्तविक नुकसान (real loss) कहीं अधिक हो। (अलोक बंग एवं साथी, 2022)।

लेकिन क्या आक्रामक प्रजातियों (invasive species) का कोई उपयोग (use) भी है? यह बात प्रजाति-प्रजाति (species-wise) पर निर्भर (depends) करती है। ऐसे उदाहरण (examples) भी हैं जहां कोई आक्रामक प्रजाति (invasive species) स्थानीय आबादी (local population) के लिए फायदेमंद (beneficial) साबित हुई है, भले ही वह उस क्षेत्र (region) की पारिस्थितिकी (ecology) के लिए फायदेमंद न रही हो। दक्षिण अमेरिका (South America) की मेसक्वाइट (mesquite) को 1817 में चारे (fodder) और ईंधन (fuel) के स्रोत (sources) के रूप में भारत (India) लाया गया था। कच्छ, गुजरात (Kutch, Gujarat) के बन्नी घास के मैदान (grasslands) के स्थानीय समुदाय (local communities) घास की कई प्रजातियों (grasses) के बीज (seeds) खाते थे। लेकिन मेसक्वाइट, जिसे स्थानीय रूप से गांडा (pugal) बबूल (Acacia) नाम से जाना जाता है, के आने और फैलने (spread) से घास के मैदानों (grasslands) का ह्रास (degradation) हुआ और खाने योग्य घास की प्रजातियां (edible grass species) खत्म (extinct) हो गई हैं। लेकिन, स्थानीय लोग गांडा बबूल की लकड़ी (wood) जलाकर कोयला (coal) बनाते हैं और अतिरिक्त आय (additional income) कमाते हैं। पेड़ से निकलने वाला रस (sap) कैंडी (candy) की तरह चूसा जाता है (ए.पी.रहमान, 2024).

एक और आक्रामक प्रजाति (invasive species), एलेगेटर वीड (alligator weed), पशुओं (livestock) के लिए बेहतरीन चारा (fodder) माना जाता है। बेंगलुरु (Bengaluru) के इर्द-गिर्द की झीलों (lakes) की सतह (surface) पर तैरती एलेगेटर वीड (Alligator weed) को पशुपालक (herders) पैदल या नाव (boat) से घूमकर इकट्ठा (collect) करते हैं।

लेकिन इस बात से इन्कार (deny) नहीं किया जा सकता कि आक्रामक प्रजातियां (invasive species) मुख्य रूप से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) पर, लोगों के स्वास्थ्य (human health) पर और देश (country) की अर्थव्यवस्था (economy) पर प्रतिकूल (adverse) प्रभाव डालती हैं। माना जाता है कि उन्होंने 16 प्रतिशत प्रजातियों (species) की विलुप्ति (extinction) में योगदान (contribution) दिया है, और अब भी पूरे विश्व (worldwide) की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक बड़ा खतरा (major threat) बनी हुई हैं (के. स्मिथ, 2020)। और, जैव विविधता (biodiversity) पर ही तो हमारा अस्तित्व (existence) टिका है।

आज, हम आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के फैलाव (spread), प्रभावों (impacts) और कीमतों/नुकसान (costs/damages) को समझने की जटिल चुनौतियों (challenges) से जूझ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) का दौर इन चुनौतियों (challenges) को और भी बढ़ा देगा। प्रजातियां (species) बदलती जलवायु परिस्थितियों (climate conditions) से बचने के लिए स्वाभाविक रूप से अपने इलाकों (habitats) को बदलेंगी। हम यह नहीं जानते (don’t know) कि इनमें से कितनी प्रजातियां (species) नई जगहों (new places) पर जाकर आक्रामक (become invasive) हो जाएंगी। इस बीच हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि प्रजातियों (species) को गैर-देशज (non-native) आवासों (habitats) में लाने से सम्बंधित कायदे-कानून (laws) कायम रखें और जितना संभव हो. आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के प्रसार (spread) को नियंत्रित (control) करें, और मेहमानों (guests) के रूप में छिपे इन नुकसानदेहों (harmful ones) पर कड़ी निगाह रखें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2020/08/19114347/7785700628_60f7b7bdfc_b.jpg

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