तोतों के आकर्षक रंगों का रहस्य

तोते अपने आकर्षक और सुंदर रंगों (bright parrot colors) के लिए मशहूर हैं, जिनमें चटकीले लाल (red), पीले (yellow), आकर्षक हरे (green), और नीले (blue) रंग भी शामिल हैं। वर्षों से, वैज्ञानिक (scientists) इस बात पर हैरान हैं कि ये पक्षी, कई अन्य जानवरों के विपरीत, ऐसे चटकीले रंग कैसे बनाते हैं। साइंस (Science) में प्रकाशित हालिया शोध (recent research) आखिरकार इन शानदार रंगों के पीछे अनोखे जैविक तंत्र (biological mechanism) पर प्रकाश डालता है। 

दरअसल, अधिकांश पक्षियों (birds) में रंग उनके अपने शरीर में नहीं बनते बल्कि उनके खानपान (diet) के साथ आते हैं। जैसे फ्लेमिंगो (flamingo) झींगा खाकर गुलाबी हो जाते हैं। लेकिन तोतों में मामला अलग है। वे अपने बढ़ते हुए पंखों में एक एंज़ाइम (enzyme) की मदद से सिटाकोफल्विन (psittacofulvins) समूह के रंजक (pigments) बनाने के लिए विकसित हुए हैं। इनमें छिटपुट परिवर्तनों (variations) के माध्यम से विभिन्न रंग (colors) पैदा होते हैं। वैसे कुछ रंग दो रंगों के मेल से भी पैदा होते हैं (जैसे हरा रंग नीले और पीले के मेल से)। इसके अलावा कई रंग पंखों की सूक्ष्म बनावट (feather texture) से भी नज़र आते हैं। जैसे नीला रंग (blue color) इस पंख की सतह पर मौजूद सूक्ष्म रचनाओं और प्रकाश (light) की अंतर्क्रिया से पैदा होता है। 

तोतों के विभिन्न रंगों (parrot colors) को समझने में असली सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों (scientists) ने रासायनिक स्तर पर सिटाकोफल्विन (psittacofulvin) का विश्लेषण (chemical analysis) किया। ये रंजक (pigments) कार्बन शृंखलाओं (carbon chains) से बने होते हैं। इन शृंखलाओं के अंतिम छोर पर एक हल्का-सा रासायनिक बदलाव (chemical change) रंग को बदल देता है। यदि अंतिम छोर पर एल्डिहाइड समूह (aldehyde group) है, तो पंख लाल (red) हो जाता है। यदि एल्डिहाइड की जगह कार्बोक्सिल समूह (carboxyl group) आ जाता है, तो पंख पीला (yellow) हो जाता है। 

इस खोज (discovery) से पता चलता है कि प्रकृति (nature) में अक्सर सरल अभिक्रियाओं (simple reactions) के नाटकीय परिणाम (dramatic results) होते हैं। इस शोध (study) ने तोते में रंगों के विकास (color evolution) को नियंत्रित करने के लिए ज़िम्मेदार जीन (gene) को भी उजागर किया है। यह जीन एक एंज़ाइम को कोड करता है जो एल्डिहाइड को कार्बोक्सिल समूह में परिवर्तित करके लाल रंजक (red pigment) को पीला (yellow) कर देता है। इस जीन द्वारा उत्पादित एंज़ाइम की मात्रा (enzyme quantity) निर्धारित करती है कि पंख कितना पीला (yellow) होगा। 

रंग उत्पत्ति की इस क्रियाविधि (color production mechanism) से पता चलता है कि क्यों कुछ तोतों की प्रजातियां (parrot species) विकास (evolution) के दौरान आसानी से लाल (red), पीले (yellow), और हरे (green) रंग में परिवर्तित हो जाती हैं। यह कई तरह के रंगों का उत्पादन (color production) करने का एक लचीला और कुशल तरीका (efficient method) है। पोर्टो विश्वविद्यालय (University of Porto) के जीवविज्ञानी (biologist) और अध्ययन के सह-लेखक रॉबर्टो आर्बोरे, इसे ‘वैकासिक नवाचार (evolutionary innovation) का एक अद्भुत मामला’ कहते हैं, जो तोतों को साथी को आकर्षित (mate attraction) करने और दूसरों के साथ संवाद (communication) करने के संकेतों पर नियंत्रण देता है।  लेकिन अभी भी कई रहस्य (mysteries) बने हुए हैं। वैज्ञानिक अभी भी रंग उत्पादन (color production) में शामिल कोशिकाओं (cells) को निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं और साथ ही यह भी पता लगाया जा रहा है कि ये विशेष रंग (specific colors) सबसे पहले क्यों विकसित हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लेशियरों के सिकुड़ने से हिम झीलें बढ़ती हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

ग्लेशियर (Glaciers), पहाड़ों पर सघन रूप से जमी बर्फ के विशाल और मोटे आवरण होते हैं। ग्लेशियर गुरुत्वाकर्षण (gravity) और अपने स्वयं के वज़न के कारण खिसकते/ढहते रहते हैं; इस प्रक्रिया में रगड़ (friction) के चलते चट्टान (rock) टूट-फूट जाती हैं और मोरैन (Moraine) नामक मिश्रण में बदल जाती है। मोरैन में कमरे के आकार के बड़े-गोल पत्थरों (stones) से लेकर पत्थरों का बेहद महीन चूरा (rock flour) तक शामिल होते हैं। मोरैन ग्लेशियर के किनारों (edges) और अंतिम छोर पर जमा होता जाता है। 

जब बर्फ (ice) पिघलने से ग्लेशियर सिकुड़कर पीछे हटते हैं तो वहां बना विशाल और गहरा गड्ढा (depression) पानी (water) से भर जाता है। ग्लेशियर के अंतिम छोर पर जमा मोरैन (moraine) अक्सर झील (lake) बनने के लिए एक प्राकृतिक बांध (natural dam) के रूप में काम करता है। इस तरह बनीं ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) रुकावट के रूप में काम करती हैं – वे पिघलती हुई बर्फ (meltwater) से आने वाले पानी के प्रवाह (water flow) को नियंत्रित करती हैं। ऐसा प्रवाह अनियंत्रित हो तो झीलों के नीचे की ओर रहने वाले समुदायों (communities) को मुश्किलें हो सकती हैं। 

आसमान से भी नीला 

ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) का नीला रंग (blue color) काफी हैरतअंगेज़ हो सकता है। इसकी थोड़ी तुलना ऐसे स्वीमिंग पूल (swimming pool) से की जा सकती है जिसका पेंदा नीला पेंट किया गया हो। यह प्रभाव झील के पानी (lake water) में निलंबित पत्थरों के चूरे (rock flour) के महीन कणों द्वारा प्रकाश (light) के प्रकीर्णन (scattering) के कारण होता है। हिमालय क्षेत्र (Himalayan region) में भी फिरोज़ी रंग की कुछ ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) देखने को मिलती हैं। 

शांत गुरुडोंगमार झील (Gurudongmar Lake) उत्तरी सिक्किम (North Sikkim) में समुद्र तल से 5430 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित है, और यह दुनिया की सबसे ऊंची झीलों (highest lakes) में से एक है। मोरैन-बांध (moraine dam)-वाली इस झील से निकली जल धाराएं (water streams) आगे जाकर तीस्ता नदी (Teesta River) बनाती है। पैंगोंग त्सो झीलों (Pangong Tso) की 134 किलोमीटर की शृंखला (lake chain) है जो लद्दाख (Ladakh) और चीन (China) के बीच विवादित बफर ज़ोन (buffer zone) का हिस्सा है। सिक्किम (Sikkim) में समुद्र तल से लगभग 4300 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित बहुचर्चित सामिति झील (Samiti Lake) कंचनजंगा (Kangchenjunga) के रास्ते में पड़ती है। 

बाढ़ का प्रकोप (Flooding) 

गर्माती दुनिया (Global Warming) का एक उल्लेखनीय परिणाम ग्लेशियरों का (pihalna) सिकुड़ना है, जो ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) में पानी (water) में काफी इज़ाफा करता है। इससे इन झीलों (lakes) के मोरैन बांधों (moraine dams) के टूटने (breakage) की संभावना बढ़ जाती है और इसके परिणाम भयावह (disastrous) हो सकते हैं। 

सिक्किम की कई मोरैन-बांधित ग्लेशियर झीलों (moraine-dammed glacial lakes) में से एक है दक्षिणी ल्होनक झील (Southern Lhonak Lake)। इसने दिखा दिया है कि बढ़ते तापमान (temperature rise) के क्या परिणाम हो सकते हैं। दक्षिणी ल्होनक झील में तीन ग्लेशियरों (glaciers) का पानी जमा होता है। ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के कारण इस झील का आयतन (volume) असामान्य रूप से तेज़ी से बढ़ा है। झील (lake) बहुत हाल ही में बनी है – 1962 में यह पहली बार उपग्रह चित्रों (satellite images) में दिखाई दी थी। 1977 में यह मात्र 17 हैक्टर में फैली थी और यह बढ़ती हुई झील तब से एक संभावित खतरे (threat) के रूप में देखी जा रही थी। 2017 तक, झील (lake) से लगातार पानी निकालने के लिए आठ इंच व्यास (diameter) वाले तीन पाइप (pipes) लगाए गए थे। लेकिन वे भी निहायत अपर्याप्त साबित हुए थे। 

2023 तक झील का क्षेत्रफल (area) 167 हैक्टर हो जाना था। पिछले साल हुई बारिश (rain) के कारण मोरैन बांध (moraine dam) टूट गया। परिणामस्वरूप झील (lake) के फटने से तीस्ता नदी (Teesta River) का जल स्तर (water level) छह मीटर बढ़ गया, और तीस्ता-III बांध (Teesta-III Dam) टूट गया और व्यापक पैमाने पर विनाश (devastation) हुआ। 

आईआईटी, रुड़की (IIT Roorkee) और अन्य वैज्ञानिकों (scientists) द्वारा इस झील से भविष्य में होने वाले विस्फोट (explosion) की मॉडलिंग (modeling) कर यह अनुमान लगाया गया है कि मोरैन में आई एक बड़ी दरार (crack) से इससे 12,000 घन मीटर प्रति सेकंड (cubic meters per second) से अधिक की गति से पानी (water) बह सकता है – इससे झील के नीचे की ओर बसी मानव बस्तियों (human settlements) के लिए स्थिति बहुत ही भयावह (severe) होने की संभावना है। इस पर सतत निगरानी (monitoring) आपदा न्यूनीकरण (disaster mitigation) में, और प्रकृति के इन रहस्यमय नीले चमत्कारों (mystical blue wonders) को समझने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपातकालीन गर्भनिरोधक की ‘ओव्हर दी काउंटर’ बिक्री पर रोक गलत – डॉ. राधिका शर्मा और डॉ. पार्थ शर्मा

कुछ दिनों पहले यह खबर आई थी कि केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली (emergency contraceptive pill) (यानी ‘अगली-सुबह-की-गोली’) की ओव्हर दी काउंटर (over the counter) उपलब्धता पर रोक लगाने पर विचार कर रहा है। ओव्हर दी काउंटर (OTC) का मतलब होता है कि वह औषधि डॉक्टरी पर्ची (prescription) के बगैर मिल जाती है। इस प्रतिबंध की सिफारिश संभवत: एक छ:-सदस्यीय विशेषज्ञ उप समिति द्वारा की जाएगी। इस समिति में लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के एक प्रसव व स्त्री रोग विशेषज्ञ (gynecologist) तथा भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research) और डीजीसीए के प्रतिनिधि होंगे।

ओव्हर दी काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध (ban on OTC sale) लगाने का कारण यह बताया जा रहा है कि इस अगली-सुबह-की-गोली (morning after pill) का बेतुका व अत्यधिक उपयोग हो रहा है, जिसकी वजह से महिलाओं को स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें हो सकती हैं। यह कहा जा रहा है कि इस गोली के लिए डॉक्टरी पर्ची (prescription) ज़रूरी बनाने से महिलाओं की सेहत की सुरक्षा होगी और आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) के अनावश्यक उपयोग से होने वाली परेशानियों से बचा जा सकेगा।

इस संदर्भ के मद्देनज़र इस बात पर चर्चा की ज़रूरत है कि भारत में आपातकालीन गोली (emergency pill) की ओव्हर दी काउंटर उपलब्धता (over the counter availability) की सुरक्षा को लेकर वैज्ञानिक प्रमाण (scientific evidence) क्या कहते हैं। क्या इस तरह के प्रतिबंध (restriction) के लिए कोई वैज्ञानिक औचित्य है? साथ ही, इस बात पर भी विचार करना होगा कि इस तरह बिक्री पर प्रतिबंध की वजह से किस तरह की समस्याएं पैदा होंगी।

आपातकालीन गोली सुरक्षित है (Emergency Contraceptive Pill is Safe) 

कई रासायनिक नुस्खों का उपयोग अगली-सुबह-की-गोली (morning after pill) के रूप में किया जा सकता है। जैसे मिफेप्रिस्टोन (Mifepristone), लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) और उलीप्रिस्टाल (Ulipristal)। लेकिन भारत में ओव्हर दी काउंटर बिक्री (OTC sale) के लिए इनमें से एक को ही मंज़ूरी मिली है – लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel)। यह मशहूर ब्रांड नामों आईपिल (I-Pill) या अनवांटेड 72 (Unwanted 72) के नाम से बिकती है। इस गोली में 1.5 मि.ग्रा. लेवोनॉरजेस्ट्रेल होता है और यदि इसे संभोग के 72 घंटे के अंदर ले लिया जाए तो यह 89 प्रतिशत गर्भावस्था से बचाव करती है।

लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) के साइड इफेक्ट्स में मितली (nausea), उल्टी (vomiting) के अलावा कुछ हल्का-सा खून आना हो सकता है। इस दवा का अर्ध-जीवन काल 20-60 घंटे है। इसका मतलब है कि इसे 5 दिन से 2 सप्ताह के बीच शरीर से पूरी तरह साफ कर दिया जाता है। फिलहाल इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि इस गोली का बार-बार सेवन करने से यह शरीर में जमा होती रहती है या इसके साइड इफेक्ट (side effects) बढ़ जाते हैं।

आपातकालीन गोली का सबसे बुरा ज्ञात असर एनाफायलेक्सिस (गंभीर एलर्जिक प्रतिक्रिया) है। यह तब होता है जब आपको किसी चीज़ से एलर्जी हो और आप उसका उपभोग कर लें। लेकिन यह सिर्फ उन लोगों के मामले में प्रासंगिक होगा जिन्हें आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraception) गोली से एलर्जी का इतिहास रहा है। देखा जाए तो यह खतरा तो दुनिया की लगभग किसी भी दवाई के साथ हो सकता है। 

आज तक मात्र एक रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति को आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली की वजह से आंख में खून का थक्का जम गया था, एक रिपोर्ट मस्तिष्क में खून के थक्के की है और एक रिपोर्ट ब्रेन स्ट्रोक की है। लेकिन मात्र प्रोजेस्टरॉन आधारित आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली और खून के थक्कों के बीच सम्बंध की बात को मात्र इन तीन प्रकरणों के दम पर स्थापित नहीं किया जा सकता। और तो और, इस बात के काफी प्रमाण हैं कि मात्र प्रोजेस्टरॉन वाली आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों से खून का थक्का नहीं बनता है। लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) दरअसल प्रोजेस्टरॉन का संश्लेषित रूप है। 

एक अन्य संभावित साइड इफेक्ट है माहवारी में अनियमितता, जो चिंता का सबब हो सकता है। हालांकि, यह साइड इफेक्ट काफी आम है (15 प्रतिशत) लेकिन यह अगले मासिक चक्र तक बगैर किसी उपचार के ठीक भी हो जाता है। 

लेवोनॉरजेस्ट्रेल (Levonorgestrel) के उपयोग का एकमात्र पक्का निषेध लक्षण है पक्की गर्भावस्था। लेकिन जिन महिलाओं ने यह गोली ली और बाद में पता चला कि वे पहले से गर्भवती थीं, उनके मामले में भी गोली ने न तो मां के लिए और न ही शिशु के लिए गर्भावस्था के दौरान कोई दिक्कत पैदा की। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने इसे सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधकों में शामिल किया है और स्तनपान कराती महिलाओं के लिए भी मंज़ूरी दी है। 

हालांकि इसे मात्र आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी दी गई है, लेकिन हो सकता है कि कुछ लोग अगली-सुबह-की-गोली (morning-after pill) का उपयोग नियमित गर्भनिरोधक के रूप में करते हों। तमिलनाडु सरकार द्वारा ड्रग कंसल्टेटिव कमिटी (Drug Consultative Committee) की सन 2023 की 62वीं बैठक में इसकी ओव्हर दी काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का जो सुझाव दिया गया था, उसके पीछे यही चिंता लगती है।

डीएमके के मीडिया शाखा के प्रांतीय उपसचिव डॉ. एस.ए.एस. हफीज़ुल्ला ने अपने ट्वीट में कहा था, “आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraception) गोली के गैर-तार्किक उपयोग से स्वास्थ्य सम्बंधी प्रतिकूल असर होते हैं और लगातार उपयोग की वजह से जानलेवा बीमारियों का जोखिम हो सकता है। ये गोलियां कुछ बीमारियों में पूर्णत: निषिद्ध हैं।” वैसे उनकी इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। 

गर्भनिरोध (contraception) की पात्रता के सम्बंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) की फैक्ट शीट और दिशानिर्देशों में बताया गया है कि कौन-सी महिलाएं किसी खास किस्म के गर्भनिरोध के उपयोग के कारण दुष्प्रभाव के जोखिम में हो सकती हैं। इनको देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि लेवोनॉरजेस्ट्रेल (levonorgestrel) का बारंबार उपयोग सभी महिलाओं के लिए सुरक्षित है, हालांकि आदर्श नहीं है। आदर्श स्थिति तो वह होगी जहां आपातकालीन गोली का उपयोग किसी नियमित अवरोधक विधि (कंडोम वगैरह), या नियमित गर्भनिरोधक गोली या आई.यू.डी. (IUD – intrauterine device) या नसबंदी के साथ-साथ किया जाए।

गलतफहमियां 

आपातकालीन गोली के सुरक्षित होने की बात करते हुए यह ध्यान देना ज़रूरी है कि कई अध्ययनों से पता चला है कि इसके बारे में गलत जानकारी खूब फैली है। यहां तक कि, डॉक्टरों की भी यही स्थिति है। 

उत्तर प्रदेश में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि 96 प्रतिशत डॉक्टरों को इस बारे में सही जानकारी नहीं थी कि आपातकालीन गोली काम कैसे करती है। पॉपुलेशन कौंसिल इंस्टीट्यूट (Population Council Institute) द्वारा स्त्री रोग विशेषज्ञों के एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष था कि 96 प्रतिशत विशेषज्ञों में भी इस गोली की क्रियाविधि की सही-सही जानकारी नहीं थी। इन विशेषज्ञों मानना था कि यह गोली भ्रूण को गर्भाशय में ठहरने से रोकती है जबकि इस बात के पर्याप्त वैश्विक प्रमाण हैं कि यह गोली अंडोत्सर्ग (ovulation) की क्रिया को ही रोक देती है।  

यह आम गलतफहमी है कि आपातकालीन गर्भनिरोधक (emergency contraceptive) गर्भाशय में भ्रूण के ठहरने को रोकती है और इस गलतफहमी की वजह से यह गलत धारणा बनी है कि यह गोली अस्थानिक (ectopic pregnancy) गर्भावस्था का कारण बन जाती है। कई डॉक्टर तो यह गलत जानकारी मीडिया प्लोटफॉर्म्स (media platforms) पर भी फैलाते रहते हैं। एक शोध पत्र में 136 अध्ययनों का विश्लेषण किया गया था और इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला था कि आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली अस्थानिक गर्भधारण का कारण बनती है। और तो और, यह कहने का कोई जीव वैज्ञानिक आधार भी नहीं है कि लेवोनॉरजेस्ट्रेल-आधारित गर्भनिरोधक अस्थानिक गर्भ का कारण बन सकता है। 

सही जानकारी तक पहुंच के अभाव के चलते कई डॉक्टरों की यह धारणा बन गई है कि अगली-सुबह-की-गोली (morning-after pill) जानलेवा खून के थक्के (blood clots) पैदा कर सकती है। अलबत्ता, मात्र वही गोलियां ऐसे खून के थक्के पैदा कर सकती हैं जिनमें एस्ट्रोजेन (estrogen) हॉर्मोन होता है। एस्ट्रोजेन कई सारी मिश्रित गर्भनिरोधक गोलियों में पाया जाता है जिनकी रोज़ाना सेवन की सलाह दी जाती है। लेवोनॉरजेस्ट्रेल, जो प्रोजेस्टरॉन नामक हॉर्मोन का संश्लेषित रूप है जिसमें खून के थक्के बनने की कोई संभावना नहीं है। 

उत्तर प्रदेश के अध्ययन में यह भी पता चला था कि लगभग 25 प्रतिशत डॉक्टरों में यह गलत धारणा व्याप्त है कि इस गोली के बारंबार उपयोग से स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम हो सकते हैं और बांझपन (infertility) तक पैदा हो सकता है। एक अन्य अध्ययन से पता चला था कि दो-तिहाई स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को लगता है कि स्तनपान (breastfeeding) के दौरान आपातकालीन गोलियों का सेवन असुरक्षित है। यह धारणा भी गलत है। 

स्वास्थ्य कर्मियों के बीच भी गलतफहमियों के इस अंबार के मद्देनज़र यदि इन गोलियों के लिए डॉक्टरी पर्ची अनिवार्य कर दी गई, तो उन लोगों के लिए भी गर्भनिरोधकों तक पहुंच असंभव हो जाएगी, जिन्हें सचमुच उनकी ज़रूरत है।

उपयोगकर्ताओं के प्रति पूर्वाग्रह 

जब डॉक्टरों के बीच यह धारणा व्याप्त है कि आपातकालीन गोली भ्रूण को ठहरने से रोकती है, तो उनमें इसके उपयोग के खिलाफ यह पूर्वाग्रह पैदा हो सकता है कि यह गोली शायद गर्भपात (abortion) भी करवा सकती है। तो कुछ प्रो-लाइफ डॉक्टर इसके विरुद्ध नैतिक मुद्दा भी उठा सकते हैं। उत्तर प्रदेश के अध्ययन में पता चला था कि कुछ डॉक्टर इस गोली को गर्भपात-कारी मानते हैं। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया था, इस गोली की क्रिया अंडोत्सर्ग को रोकने की है, अर्थात लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित गोली गर्भपात नहीं करवा सकती। 

उत्तर भारत में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि आधे से ज़्यादा डॉक्टर (53 प्रतिशत) यह भी मानते हैं कि आपातकालीन गोली चाहने वाले लोगों की विवाह-पूर्व यौन सम्बंधों (premarital sex) में लिप्त होने की ज़्यादा संभावना है और तीन-चौथाई का विश्वास था कि आपातकालीन गोली के उपयोग से यौन स्वच्छंदता (sexual freedom) को बढ़ावा मिलेगा। एक अन्य अध्ययन में पता चला था कि लगभग आधे डॉक्टर मानते हैं कि आपातकालीन गोली चाहने वाले लोग यौन सम्बंधों को लेकर स्वच्छंद होते हैं। 

दी न्यूज़ मिनट (The News Minute) में एक खोजी पत्रकारिता रिपोर्ट में बताया गया था कि दो गुप्त रिपोर्टर्स चेन्नै के एक सरकारी अस्पताल से आपातकालीन गर्भनिरोधक के लिए पर्ची हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी इस कोशिश में उन्हें अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ा और नर्सों व डॉक्टरों की नैतिक निगरानी से गुज़रना पड़ा, तब जाकर उन्हें गोली दी गई। यदि ओव्हर दी काउंटर (over the counter) उपलब्धता प्रतिबंधित हुई तो यह नज़ारा सामान्य होने में देर नहीं लगेगी। 

वैश्विक नज़रिया 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली की ओव्हर दी काउंटर उपलब्धता की ज़ोरदार सिफारिश करता है। इसके अलावा, 112 देश ओव्हर दी काउंटर बिक्री (OTC sale) की अनुमति देते हैं और अर्जेंटाइना व जापान भी 2023 में इन देशों में शामिल हो गए हैं। ज़ाहिर है, वैश्विक रुझान ओव्हर दी काउंटर बिक्री के पक्ष में है। 

लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित आपातकालीन गर्भनिरोधक यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (FDA) की उस कसौटी पर भी खरी उतरती है जिन्हें ओव्हर दी काउंटर बिक्री की अनुमति दी जा सकती है। प्रशासन ने इसे 2013 में ओव्हर दी काउंटर बिक्री की अनुमति दे दी थी। 

प्रतिबंध के नकारात्मक असर 

भारत में असुरक्षित गर्भपातों (unsafe abortions) की संख्या काफी अधिक है। 2019 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2007 से 2011 के दरम्यान भारत में कुल गर्भपातों में से दो-तिहाई खतरनाक हालात में हुए थे और इनकी वजह से देश में प्रतिदिन औसतन 8 मौतें हुई थीं। अध्ययन में यह भी बताया गया था कि हाशिए की महिलाएं (marginalized women) ज़्यादा प्रभावित होती हैं। दी लैंसेट ग्लोबल हेल्थ रिपोर्ट (The Lancet Global Health Report) के मुताबिक भारत में 2015 में 8 लाख असुरक्षित गर्भपात हुए थे। 

जो लोग गर्भपात सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करते हैं उन्हें कलंकित (stigma) होने और अपमान का सामना करना पड़ता है। ऐसे हालात में आपातकालीन गर्भनिरोधक तक पहुंच से अनचाहे गर्भ (unwanted pregnancies) से बचा जा सकेगा और ऐसे गर्भ की वजह से किए जाने वाले असुरक्षित गर्भपातों से बचा जा सकेगा, जो कई बार महिला के लिए जानलेवा साबित होते हैं। 

लिहाज़ा, ओव्हर दी काउंटर आपातकालीन गर्भनिरोधकों पर प्रतिबंध अनचाहे गर्भ और असुरक्षित गर्भपातों में वृद्धि करके भारत में मातृत्व मृत्यु (maternal mortality) की स्थिति को बदतर कर सकता है। प्रतिबंध लगने पर शायद आपातकालीन गर्भनिरोधकों का ब्लैक मार्केट (black market) पनपे। इसके चलते अमानक और नकली दवाइयों के बाज़ार को बढ़ावा मिलेगा। 

इसके अलावा, देहरादून में किए गए एक एथ्नोग्राफिक अध्ययन में उजागर हुआ था कि ओव्हर दी काउंटर पहुंच विभिन्न सामाजिक-आर्थिक तबकों की महिलाओं को अपनी स्वायत्तता और निजता (privacy and autonomy) को सुरक्षित रखते हुए गर्भनिरोध हासिल करने में मददगार होती है। खास तौर से भारत में, जहां कंडोम का उपयोग बहुत कम (मात्र 9.5 प्रतिशत) है, वहां कई महिलाओं (जिनमें विवाहित महिलाएं भी शामिल हैं) के लिए अपने साथी को कंडोम (condom) का उपयोग करने के लिए राज़ी करना मुश्किल होता है। ऐसे में आपातकालीन गोली उन्हें अपनी सुरक्षा का एक विकल्प उपलब्ध कराती हैं जिसमें शर्मिंदगी और अपमान न हो और असुरक्षित गर्भपात का खतरा न हो। 

ज़रा अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुर्का (Lipstick Under My Burkha) का वह दृश्य याद कीजिए जिसमें कोंकणा सेन शर्मा (Konkona Sen Sharma) द्वारा अभिनीत पात्र बार-बार एक स्थानीय स्वास्थ्य सेवा प्रदाता (healthcare provider) के पास गर्भपात (abortion) के लिए जाती है। कारण यह बताती है कि उसका पति कंडोम (condom) का उपयोग नहीं करता। दुनिया के सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधकों (contraceptives) में शुमार लेवोनॉरजेस्ट्रेल आधारित गोली (Levonorgestrel pill) यकीनन एक बेहतर विकल्प लगती है।   

अटकलों के आधार पर नीतियां न बनें 

भारत वह देश है जहां तंबाकू (tobacco), अल्कोहल (alcohol), और यहां तक कि कीटनाशक (pesticides) जैसे जानलेवा पदार्थ आसानी से मिल जाते हैं जो 66 देशों में प्रतिबंधित हैं। दूसरी ओर, एक ऐसी अत्यंत सुरक्षित दवा के दुरुपयोग (misuse of drugs) को लेकर अटकलें (speculations) लगाई जा रही हैं जो यौन व प्रजनन स्वास्थ्य (sexual and reproductive health) में उपयोगी है और ऐसी अटकलों के आधार पर इसकी ओव्हर दी काउंटर बिक्री (over-the-counter sale) पर रोक लगाने की योजना बनाई जा रही है। 

इतना तो स्पष्ट है कि प्रतिबंध (ban) की इस सिफारिश के समर्थन में कोई वैज्ञानिक प्रमाण (scientific evidence) नहीं है। इसके अलावा, जो चिकित्सक (doctors) इस दवा की पर्ची लिखने के लिए ज़िम्मेदार होंगे, उनके पास इन दवाइयों (medications) के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं हैं और उनकी धारणा है कि ये कई साइड इफेक्ट (side effects) उत्पन्न करती हैं। यह भी संभव है कि उन्हें समुचित जेंडर संवेदनशीलता प्रशिक्षण (gender sensitivity training) भी न मिला हो कि वे अपने पूर्वाग्रहों (bias) से ऊपर उठ सकें। 

अभी तो यही लगता है कि नीतिगत परिवर्तन (policy change) के बारे में वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर नहीं बल्कि अटकलों के आधार पर विचार किया जा रहा है। वैसे तो काफी प्रमाण (evidence) उपलब्ध हैं लेकिन यदि इनके बावजूद कुछ शंकाएं (doubts) हैं तो जनसंख्या आधारित अध्ययन (population-based studies) किए जाने चाहिए, ताकि यह पता चल सके कि क्या देश में आपातकालीन गोलियों (emergency contraceptive pills) का दुरुपयोग काफी अधिक हो रहा है, और साइड इफेक्ट (side effects) कितने आम हैं। 

दरअसल, उपलब्धता व पहुंच (availability and access) पर रोक लगाने की बजाय बेहतर यह होगा कि आम लोगों व स्वास्थ्य पेशेवरों (healthcare professionals) दोनों को आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) के सही व सुरक्षित उपयोग (safe use) के बारे में जागरूक किया जाए ताकि महिलाएं (women) अपने प्रजनन स्वास्थ्य (reproductive health) के बारे में निर्णय सोच-समझकर ले सकें। 

डॉ. एस.ए.एस. हफीज़ुल्ला ने एक ट्वीट (tweet) में स्वयं को महिलाओं के पक्षधर (women’s advocate) के रूप में पेश किया है। वे कहते हैं कि आपातकालीन गर्भनिरोधकों (emergency contraceptives) पर प्रतिबंध (ban) लगना चाहिए ‘क्योंकि गर्भनिरोध की ज़िम्मेदारी (responsibility of contraception) मात्र महिला पर क्यों रहे?’ लेकिन यदि देश के लगभग 90 पुरुष (men) आगे आकर सुरक्षित बैरीयर विधियों (barrier methods) (जैसे कंडोम (condoms)) का उपयोग करना या नसबंदी (sterilization) करवाना नहीं चाहते तो क्या यह महिलाओं के हक में होगा कि उन्हें अपनी सुरक्षा (safety) के विकल्पों (options) से वंचित किया जाए? (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रक्त समूहों की उत्पत्ति की गुत्थी

वैसे तो एक व्यक्ति का खून दूसरे को देना यानी रक्ताधान (Blood Transfusion) सत्रहवीं शताब्दी के शुरू में ही किया जाने लगा था लेकिन यह मरीज़ों की बदकिस्मती थी कि सुप्रसिद्ध ‘ए, बी, ओ’ रक्त समूहों (Blood Groups) की जानकारी हमें 1901 में ही मिली थी। इससे पहले रक्ताधान का सफल होना या न होना संयोग की बात होती थी। अलबत्ता, इसके बाद किए गए तमाम अनुसंधान के बावजूद आज भी वैज्ञानिक इस गुत्थी से जूझ रहे हैं कि ये रक्त समूह होते ही क्यों हैं।

यह तो पता है कि ए, बी और ओ रक्त समूह के जो जीनोटाइप (Genotype) पाए जाते हैं, उनका असर कई बीमारियों के परिणामों पर होता है। जैसे एडिनबरा विश्वविद्यालय के एलेक्स रोवे और उनके साथियों ने दर्शाया है कि ‘ओ’ रक्त समूह (O Blood Group) के लोगों में मलेरिया (Malaria) के गंभीर लक्षण प्रकट होने की संभावना कम होती है। इसका कारण यह बताते हैं कि ‘ओ’ किस्म की लाल रक्त कोशिकाओं में संक्रमण के बाद रोज़ेट (Rosette Formation) नामक झुंड बनाने की क्षमता कम होती है। रोज़ेट बनने पर पतली रक्त नलिकाओं में रुकावट पैदा होती है।

तो शायद ऐसा लगे कि मलेरिया के संक्रमण से निपटने के चक्कर में रक्त समूह बने होंगे। लेकिन कई वैज्ञानिक बताते हैं कि मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम (Plasmodium Falciparum) ने चिम्पैंज़ियों से मनुष्यों में छलांग करीब 10,000 वर्ष पहले लगाई थी जबकि रक्त समूह तो संभवत: 2 करोड़ साल पहले से अस्तित्व में हैं।

बहरहाल, रक्त समूह और बीमारियों के प्रति दुर्बलता का सम्बंध मलेरिया से काफी आगे तक है। और तो और ए, बी तथा ओ एंटीजेन (Antigens) सिर्फ लाल रक्त कोशिकाओं की सतह पर नहीं बल्कि सफेद रक्त कोशिकाओं पर भी पाए जाते हैं और कई अंगों की सतह पर एपीथीलियल कोशिकाओं (Epithelial Cells) पर भी पाए जाते हैं। और तो और, ये रक्त समूह कई ऐसी बीमारियों के परिणामों को भी प्रभावित करते हैं जिनका सम्बंध लाल रक्त कोशिकाओं से नहीं होता। जैसे, हैजा (Cholera), टीबी (Tuberculosis), हेपेटाइटिस (Hepatitis) तथा अल्सर पैदा करने वाले हेलिकोबैक्टर पायलोरी (Helicobacter Pylori) के मामले में।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि करोड़ों वर्ष पूर्व संक्रामक बीमारियों के दबाव में रक्त समूहों का विकास हुआ था लेकिन यह पता नहीं है कि वह कौन-सी बीमारी या बीमारियां थीं जिसने विकास को इस दिशा में मोड़ा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध

टार्डिग्रेड्स, जिन्हें अक्सर जलीय भालू (water bears) भी कहा जाता है, आठ पैरों वाले सूक्ष्म जीव (microscopic organisms) हैं जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों (extreme conditions) में भी जीवित रहने के लिए जाने जाते हैं। इसमें स्वयं को अत्यधिक विकिरण (radiation) से सुरक्षित रखना भी शामिल है, जिस पर इन दिनों वैज्ञानिक गहरी समझ विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब है कि टार्डिग्रेड्स विकिरण की इतनी खुराक सहन कर सकते हैं जो इंसानों के लिए जानलेवा मात्रा से 1000 गुना ज़्यादा है।

छह वर्ष पूर्व, शोधकर्ताओं ने चीन के हेनान के फुनिउ पर्वत से मॉस के नमूने एकत्र किए थे, जिसमें टार्डिग्रेड की एक नई प्रजाति हाइप्सिबियस हेनानेंसिस (Hypsibius henanensis) मिली थी। इसके जीनोम अनुक्रमण (genome sequencing) से पता चला कि इसमें 14,701 जीन हैं, जिनमें से लगभग 30 प्रतिशत जीन मात्र टार्डिग्रेड्स में ही पाए जाते हैं।

टार्डिग्रेड्स में विकिरण झेलने की क्षमता की क्रियाविधि का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने हाइप्सिबियस हेनानेंसिस को अत्यधिक विकिरण (radiation exposure) के संपर्क में रखा। इतना विकिरण मनुष्यों के लिए घातक होता। उन्होंने पाया कि ऐसा करने पर इनमें से 2801 जीन सक्रिय हो गए। ये जीन्स डीएनए की मरम्मत, कोशिका विभाजन और प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं से सम्बंधित थे। इनमें से एक जीन (TRID1) एक ऐसे प्रोटीन (protein) का निर्माण करवाता है जो क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत करता है। यह विकिरण से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है।

इसके अलावा, शोध से पता चला कि टार्डिग्रेड में 0.5-3.1 प्रतिशत जीन पार्श्व जीन हस्तांतरण (horizontal gene transfer) के ज़रिए आए हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीन का हस्तांतरण लैंगिक माध्यम से नहीं बल्कि एक से दूसरी प्रजाति को अन्य तरीकों से होता है। ऐसा ही एक जीन है DODA1, जो संभवत: बैक्टीरिया (bacteria) से टार्डिग्रेड में आया है। यह टार्डिग्रेड को बीटालेन (betalain) नामक रंजक का उत्पादन करने में सक्षम बनाता है जो ऑक्सीकरण-रोधी (antioxidants) के रूप में कार्य करते हैं और ऐसे हानिकारक रसायनों को हटाते हैं जो कोशिकाओं में विकिरण के प्रभाव से बनते हैं।

इस अध्ययन के निष्कर्षों का महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। जब शोधकर्ताओं ने मानव कोशिकाओं को टार्डिग्रेड के एक बीटालेन से उपचारित किया तो कोशिकाएं विकिरण के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी (radiation-resistant) हो गईं। यह खोज कैंसर उपचार (cancer treatment) में उपयोग की जाने वाली विकिरण थेरेपी (radiation therapy) में सुधार की उम्मीद जगाती है, जिससे मानव कोशिकाएं विकिरण जोखिम को बेहतर ढंग से झेलने में सक्षम हो सकती हैं।

दीर्घकालिक अंतरिक्ष मिशनों (long-term space missions) के दौरान विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए एक बड़ा जोखिम होता है। टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध की क्रियाविधि की समझ अंतरिक्ष यात्रियों (astronauts) को हानिकारक अंतरिक्ष विकिरण से बचाने में मदद कर सकती है।

टार्डिग्रेड्स न केवल विकिरण बल्कि निर्जलीकरण, ठंड और भुखमरी जैसी चरम स्थितियों में भी जीवित रहने के लिए प्रसिद्ध हैं। इन स्थितियों को वे कैसे सहन करते हैं, इसका अध्ययन करके शोधकर्ताओं को और अधिक रहस्यों को उजागर करने की उम्मीद है। मसलन, इन तंत्रों को समझने से टीकों (vaccines) जैसे नाज़ुक पदार्थों की शेल्फ लाइफ (shelf life) में सुधार हो सकता है।

संभव है कि टार्डिग्रेड्स की अन्य प्रजातियां इसी तरह के रहस्य उजागर करने का इंतज़ार कर रही हों। टार्डिग्रेड्स की विभिन्न प्रजातियों की तुलना करके वैज्ञानिकों का लक्ष्य जीवित रहने की उन असाधारण रणनीतियों को समझना है जो इन नन्हे जीवों को इतना आकर्षक और मूल्यवान बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीज बिखेरने वाले जंतु और पारिस्थितिकी की सेहत

1990 के दशक में जब शिकारियों ने पश्चिमी बोर्नियो के उष्णकटिबंधीय जंगलों से अधिकतर फलभक्षी पक्षियों (fruit-eating birds) का शिकार कर डाला तब वहां का आसमान तो सूना हो ही गया था, कुछ सालों के भीतर वहां का जंगल भी उजड़ गया था। बीज बिखेरने वाले पक्षियों (seed dispersing animals) के अभाव में फलदार पौधों (fruit-bearing plants) की विविधता में जो कमी आई उसने पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem health) की सेहत में बीज फैलाने वाले जीवों (seed dispersers) के महत्व को नुमाया किया था। लेकिन अब, समशीतोष्ण क्षेत्रों में भी पारिस्थितिकी तंत्र की सांसें उखड़ती नज़र आ रही हैं।

साइंस पत्रिका (Science journal) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कम से कम एक तिहाई युरोपीय पौधों (European plant species) की प्रजातियां शायद सिर्फ इसलिए जोखिमग्रस्त की श्रेणी में आ जाएं क्योंकि या तो उनके बीजों को फैलाने वाले ज़्यादातर जानवर (seed dispersing animals) खतरे में हैं या कम होते जा रहे हैं। बीज फैलाने वालों (seed dispersers), जिनमें पक्षियों के अलावा स्तनधारी (mammals), सरिसृप (reptiles) और चींटियां (ants) भी शामिल हैं, की संख्या में गिरावट पौधों की जलवायु परिवर्तन (climate change adaptation) से निपटने या जंगल की आग के बाद उबरने की क्षमता को खतरे में डाल सकती है, खासकर युरोप के अत्यधिक खंडित परिदृश्य में।

कोइम्ब्रा विश्वविद्यालय (Coimbra University) की सामुदायिक पारिस्थितिकी विज्ञानी सारा मेंडेस ने यह पता लगाने का बीड़ा उठाया कि कौन-से जानवर कौन-से पौधे के बीज फैलाते हैं। इसके लिए पहले तो उन्होंने 26 भाषाओं में उपलब्ध हज़ारों अध्ययनों को खंगाला और उनमें से ऐसे अध्ययनों को छांटा जिनमें बीज प्रकीर्णन (seed dispersal) जैसे शब्दों का उल्लेख था, या जो युरोप के (900 से अधिक में से किसी एक) बीजभक्षी जानवर पर केंद्रित थे।

मेंडेस को इस छंटनी में ऐसे 592 स्थानिक पौधों (endemic plants) की सूची मिली जिनके फल गूदेदार थे, या यूं कहें कि जिन पौधों में बीज फैलाने वाले जानवरों को उनके फल खाने के लिए लालच देने का अनुकूलन था। साथ ही, उन्हें इन फलों को खाने वाले 398 जानवरों (fruit-eating animals) की सूची भी मिली। इनमें से फलभक्षी जानवर (frugivorous animals) एक से अधिक प्रकार के पौधों के फल/बीज खाते हैं। तो इस तरह उनके द्वारा तैयार डैटा सेट (dataset) में हरेक पौधे और उसके बीजों को फैलाने जानवरों की 5000 से अधिक जोड़ियां बनीं।

फिर शोधकर्ताओं ने इन बीज फैलाने वालों की हालिया स्थिति का जायज़ा लिया। उन्होंने पाया कि युरोप के सभी प्रमुख जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में पाए जाने वाले एक तिहाई से अधिक ऐसे जंतु तो अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा जोखिमग्रस्त (endangered) घोषित हैं, या उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। उदाहरण के लिए, एक आम प्रवासी पक्षी गार्डन वार्बलर (garden warbler – Sylvia borin) लगभग 60 पौधों के बीजों को फैलाता है, और इसकी संख्या पूरे युरोप में घट रही है। यही हाल रेडविंग (redwing – Turdus iliacus) का भी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जोखिमग्रस्त जानवरों की संख्या को देखते हुए संकट शब्द का उपयोग अनुचित न होगा।

अध्ययन में 60 प्रतिशत से अधिक पौधों के पांच या उससे कम बीज बिखेरने वाले जानवर पाए गए हैं। अब यदि इनमें से कोई भी महत्वपूर्ण बीज वितरक (seed disperser) विलुप्त हो जाता है तो स्थिति पौधे के लिए अति-असुरक्षित (highly vulnerable) बन सकती है। इसके अलावा सूची में लगभग 80 ऐसी ‘अति चिंतनीय’ अंतःक्रियाएं (critical interactions) भी शामिल हैं जिनमें पौधे और जानवर दोनों ही खतरे में हैं या तेज़ी से घट रहे हैं। इस सूची में युरोपियन फैन पाम (European fan palm – Chamaerops humilis) शामिल है। यह पौधा 10 जंतु प्रजातियों की बीज वितरण सेवाओं (seed dispersal services) के भरोसे फलता-फूलता है। इसके बीज वितरकों में युरोपीय खरगोश (European rabbit – Oryctolagus cuniculus) शामिल है जो IUCN द्वारा स्पेन और पुर्तगाल में ‘लुप्तप्राय’ (endangered) सूची में शामिल है।

बहरहाल, अध्ययन उजागर करें, न करें लेकिन वैश्विक स्तर पर भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। और इतना तो ज़ाहिर है कि जीव-जंतुओं का बेहतर संरक्षण (wildlife conservation) पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem restoration) को सुदृढ़ और स्वस्थ रख सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मीठा खाने वाले चमगादड़ों को मधुमेह क्यों नहीं होती?

विपुल कीर्ति शर्मा

मिठाई कुछ लोगों की कमज़ोरी होती है। मिठाई देखते ही खुद को रोकना असंभव-सा हो जाता है। लगातार ज़्यादा चीनी वाला आहार मनुष्यों में कई समस्याओं को जन्म देता है जिनमें मोटापा (obesity) और मधुमेह (diabetes) प्रमुख हैं। अत: स्वस्थ रहने और अपनी कोशिकाओं को सीमित मात्रा में ईंधन देने के लिए शरीर में रक्त शर्करा सांद्रता (blood sugar levels) को नियंत्रित करना बहुत ज़रूरी है। रक्त में शर्करा की बहुत कम या बहुत अधिक मात्रा गंभीर स्वास्थ्य जटिलताओं का कारण बन सकती है। उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) मधुमेह की पक्की पहचान है।

ग्लूकोज़ कैसे मिलता है? 

ग्लूकोज़ मुख्य रूप से हमारे भोजन और पेय पदार्थों (शर्बत और फलों के रस) में मौजूद कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates) से प्राप्त होता है। ग्लूकोज़ ही हमारे शरीर की ऊर्जा (energy source) का मुख्य स्रोत है। जब आहारनाल में भोजन का पाचन होता है, तो भोजन में मौजूद कार्बोहाइड्रेट (shugars and starch) एक अन्य प्रकार की शर्करा में टूट जाता है, जिसे ग्लूकोज़ (glucose) कहते हैं। यह ग्लूकोज़ रक्त वाहिनियों में छोड़ दिया जाता है।

रक्त का एक कार्य शरीर की सभी कोशिकाओं तक ग्लूकोज़ पहुंचाना है ताकि कोशिका ऊर्जा प्राप्त कर सकें। सामान्य भोजन के बाद बढ़ी हुई ग्लूकोज़ की मात्रा, इंसुलिन नामक हॉर्मोन (insulin hormone) द्वारा यकृत में जमा कर दी जाती है। किंतु यदि ऐसा न हो पाए तो रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ जाता है जिसे हम डायबिटीज़ (diabetes) या मधुमेह कहते हैं। लगातार लंबे समय तक (महीनों या सालों तक) उच्च रक्त शर्करा स्तर के कारण शरीर के अंगों (जैसे नेत्र, तंत्रिकाएं, गुर्दे और रक्त वाहिकाओं) को स्थायी नुकसान हो सकता है।

यदि हमारा रक्त शर्करा स्तर सामान्य से नीचे चला जाता है तो शरीर में कंपकपी होती है और धड़कन तेज़ हो जाती है, और यदि शर्करा स्तर बहुत कम हो जाता है तो यह जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मस्तिष्क को ठीक से काम करने के लिए ग्लूकोज़ की निरंतर आपूर्ति (constant glucose supply) की आवश्यकता होती है।

हाल ही में, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा नेचर कम्यूनिकेशंस एंड इवॉल्यूशन (Nature Communications and Evolution) में प्रकाशित शोधपत्र में बताया गया है कि मीठे फल खाने वाले फलाहारी चमगादड़ों के रक्त में चीनी की सांद्रता (sugar concentration) अन्य स्तनधारी जंतुओं की तुलना में बहुत अधिक होती है। इतनी अधिक शर्करा से अन्य स्तनधारियों के मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचती है। वैज्ञानिक इस बात से हैरान थे कि उच्च रक्त शर्करा को संभालने के लिए फलाहारी चमगादड़ (fruit-eating bats) में कैसे ग्लूकोज़ सहनशीलता (glucose tolerance) विकसित हुई है। शोध के निष्कर्ष शरीर में उन अनुकूलनों की ओर इशारा करते हैं जो उनके चीनी युक्त आहार को हानिकारक बनने से रोकते हैं।

न्यू वर्ल्ड लीफ-नोज़्ड बैट 

न्यू वर्ल्ड लीफ-नोज़्ड बैट विशेष रूप से दक्षिण-पश्चिमी यूएस (Southwest US) से लेकर उत्तरी अर्जेंटीना तक पाए जाने वाले चमगादड़ हैं। तीन करोड़ साल पहले, नियोट्रॉपिकल लीफ-नोज़्ड बैट (Neotropical Leaf-Nosed Bat) के पूर्वज का आहार केवल कीट-पतंगे थे। तब से उद्विकास (evolution) के दौरान इन चमगादड़ों के आहार में बदलाव हुए और कई अलग-अलग प्रजातियां विकसित हुईं। उनमें से कुछ रक्ताहारी, मकरंदाहारी और फलाहारी जैसे विविध खाद्य स्रोतों पर जीवन यापन की विशेषज्ञता हासिल करने वाले हो गए हैं।

चमगादड़ों ने अपने आहार में विविधता कैसे अपनाई यह जानने के लिए टीम ने कई वर्षों तक मध्य अमेरिका (Central America), दक्षिण अमेरिका (South America) और कैरेबियन के जंगलों में फील्डवर्क किया। टीम ने 29 प्रजातियों के लगभग 200 जंगली चमगादड़ों को पकड़ा। टीम के सदस्य चमगादड़ों को पकड़ते और तीन प्रकार के आहार (कीट, मकरंद और फलाहार) में से कोई एक आहार चमगादड़ को एक बार देते थे, और उनके रक्त में ग्लूकोज़ के स्तर को नाप कर उन्हें छोड़ देते थे।

वैज्ञानिकों ने पाया कि चमगादड़ों के शरीर में चीनी को अंगीकार (absorb) करने के विभिन्न तरीके मौजूद होते हैं। अवशोषण, संग्रहण और उपयोग की प्रक्रिया विभिन्न आहारों के कारण विशिष्ट हो गई है।

ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस (glucose homeostasis) एक ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर की आंतरिक और बाहरी स्थितियों में परिवर्तन के बावजूद रक्त शर्करा के स्तर को स्थिर करती है। ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस का मुख्य कारण अग्न्याशय (पैंक्रियास) के आइलेट्स ऑफ लैंगरहैंस द्वारा इंसुलिन और ग्लूकागोन हार्मोन्स का स्राव है। मधुमेह में ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस गड़बड़ा जाता है।

लीफ-नोज़्ड बैट की विभिन्न प्रजातियां ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस के लिए अनुकूलन के विविध तरीके दर्शाती हैं। इनमें आंतों की संरचना में परिवर्तन से लेकर रक्त से कोशिकाओं तक शर्करा पहुंचाने वाले वाहक प्रोटीन में आनुवंशिक परिवर्तन भी शामिल हैं। फलाहारी चमगादड़ों में इंसुलिन सिग्नलिंग मार्ग (insulin signaling pathway) बेहतर हुआ है। दूसरी ओर मकरंदाहारी चमगादड़ों में उच्च रक्त शर्करा के स्तर को सहन कर सकने की काबिलियत विकसित हुई है। फलाहारी चमगादड़ों ने एक अलग तंत्र विकसित किया है जो इंसुलिन पर निर्भर नहीं लगता है। यद्यपि मकरंदाहारी चमगादड़ ग्लूकोज़ का प्रबंधन कैसे करते हैं, यह अभी भी जांच का विषय है फिर भी शोधकर्ताओं ने इस बाबत कई सुराग प्राप्त किए हैं जिनसे लगता है कि उनमें ग्लूकोज़ विनियमन के लिए वैकल्पिक चयापचय तरीका होता है।

भोजन से पोषक तत्वों के अवशोषण (nutrient absorption) के लिए मकरंदाहारी चमगादड़ों की आंतों में अधिक सतह वाली कोशिकाएं पाई गईं। इसके अलावा, इनमें ग्लूकोज़ परिवहन तंत्र (glucose transport mechanism) फलाहारी चमगादड़ों से भिन्न होता है, जिसके लिए ज़िम्मेदार जीन निरंतर अभिव्यक्त होते हैं। फलाहारी चमगादड़ों के अग्न्याशय और गुर्दे की संरचना (pancreatic and renal structure) भी परिवर्तित हुई है, जो उनके आहार को समायोजित करती है। अग्न्याशय में इंसुलिन का उत्पादन करने के लिए अधिक कोशिकाएं पाई गईं, जो शरीर में रक्त शर्करा को कम करने (lower blood sugar) में मददगार होती हैं। साथ ही ग्लुकागॉन हॉर्मोन (glucagon hormone) – जो रक्त में ग्लूकोज़ के स्तर को बढ़ाता है –  का उत्पादन करने के लिए भी कोशिकाएं अधिक थीं। मकरंद पीने वाले चमगादड़ों जैसी ही विशेषताएं हमिंगबर्ड (hummingbird) पक्षी में भी देखी गई हैं, जो फूलों का मकरंद पीते हैं।

यह शोध न केवल विभिन्न आहार वाली चमगादड़ प्रजातियों की चयापचय विशेषताओं (metabolic characteristics) के बारे में एक बेहतर समझ विकसित करने में सहायक है, बल्कि आहार में अनुकूलन के कारण आंतों में संरचनात्मक परिवर्तन (intestinal adaptations), जीनोम और प्रोटीन के संरचनात्मक अंतरों को भी उजागर करता है। इस शोध में संलग्न कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि चमगादड़ के रूप में उन्हें तो एक ‘हीरो’ (model organism) मिल गया है, जो भविष्य में मधुमेह का बेहतर इलाज खोजने में मददगार साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चाय का शौकीन भारत

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन (China) और दक्षिण-पूर्वी एशिया (Southeast Asia) से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश (British)। दरअसल भारत में चाय (Tea in India) उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम (Assam Tea) में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक (Karnataka), केरल (Kerala) और तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर (North East India) में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड (Uttarakhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (India’s tea consumption) है (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम)। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक (Tea Exporter) देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample Survey Organization) के अनुसार, भारत में कॉफी (Coffee) की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत (North India) में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (South India) में एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।

रासायनिक घटक

फूड केमिस्ट्री (Food Chemistry) और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस (Food Science and Human Wellness) नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं (Chemical compounds in tea) का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों (Volatile Compounds) के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ (Non-volatile substances) भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।

चाय की पत्तियां विटामिन (Vitamins in tea) और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत (Heart Health) को बेहतर बनाने, मधुमेह (Diabetes) के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन (Low caffeine in tea) कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।

2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन (Lycopene), ल्यूटिन (Lutein) और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (Carotenoids) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी (Sugar), नमक (Salt), आयरन (Iron) और कैल्शियम (Calcium) जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है।

घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (Mysore) (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन (Indian Food) में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants), पोलीफीनॉल (Polyphenols) और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)

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रोहिणी गोडबोले – लीलावती की एक बेटी

अरविन्द गुप्ता

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (Huzurpaga High School, Pune) (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर (Doctor) और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक (Scientist) बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति (State Talent Scholarship) के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी (Physics), जीव विज्ञान (Biology), और रसायन विज्ञान (Chemistry) का अध्ययन किया, और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं।

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएं (Science Magazines) पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप (National Science Talent Scholarship) का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान (Basic Science) का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियां (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) और आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं।

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र (Bank of Maharashtra) से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. (IT Industry) क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया जब वे आईआईटी मुंबई (IIT Bombay) से एमएससी कर रही थीं। वहां के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे एमएससी के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन (American University Women’s Association) ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय (American University) में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स (Particle Physics) में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय (Stony Brook University) में दाखिला लिया।

अपनी पीएचडी (PhD) पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालांकि उन्हें युरोप (Europe) में पोस्ट-डॉक्टरल शोध (Postdoctoral Research) के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती।

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएचडी के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute of Fundamental Research) में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय (University of Mumbai) में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों (Research Institutes) और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है।

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहां टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहां रहते हैं वगैरह, वगैरह।  

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (Indian Institute of Science), बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स (High Energy Physics) के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न (CERN, Geneva) के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider) में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव’ (Drees-Godbole Effect) नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान (Awards and Recognition) मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड (Distinguished Alumnus Award) था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (Padma Shri) से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती। 

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान (Women in Science) और अनुसंधान (Research) में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian Women Scientists) को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती’स डॉटर्स (Leelavati’s Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक (Unique Book) है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियां लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Indian Academy of Sciences), बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद (Translation) भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य (Eklavya) द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए। 

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती’स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन ने बनाया विश्व का सबसे शक्तिशाली चुंबक

चीन ने दुनिया का सबसे शक्तिशाली विद्युत चुंबक (Electromagnet) बनाकर वैज्ञानिक नवाचार में एक महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। यह पृथ्वी की तुलना में 8 लाख गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) उत्पन्न करने में सक्षम है। 22 सितंबर, 2024 को हेफेई में स्थिर उच्च चुंबकीय क्षेत्र केंद्र (SHMFF) में, चुंबक ने 42.02 टेस्ला का स्थिर क्षेत्र उत्पन्न किया। यह 2017 में यूएसए (USA) द्वारा स्थापित 41.4 टेस्ला के रिकॉर्ड से अधिक है।

गौरतलब है कि विद्युत चुंबक तारों की कुंडलियों में विद्युत प्रवाहित करके बनाए जाते हैं। चीन द्वारा विकसित यह शक्तिशाली चुंबक सुपरकंडक्टर (Superconductor) जैसी सामग्रियों के अध्ययन का महत्वपूर्ण उपकरण है।

शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Powerful Magnetic Field) वाले चुंबक वैज्ञानिकों को पदार्थों के अनजाने गुणों का पता लगाने में मदद करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Superconductors)। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में उनका अध्ययन करने से सफलता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, ये चुंबक ऐसे प्रयोगों की क्षमता बढ़ा सकते हैं जिनमें संवेदनशील मापों पर निर्भरता होती है। इससे वैज्ञानिकों को सूक्ष्म भौतिक परिवर्तनों का पता लगाने में मदद मिलती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक अतिरिक्त टेस्ला (Tesla Unit) अनुसंधान को अधिक सटीक बनाता है। इस लिहाज़ से यह 42-टेस्ला चुंबक महत्वपूर्ण है।

विद्युत चुंबक अत्यधिक विश्वसनीय और लंबे समय तक शक्तिशाली क्षेत्र बनाए रख सकते हैं, लेकिन ये उच्च ऊर्जा खपत (High Energy Consumption) भी करते हैं। SHMFF के चुंबक को अपने रिकॉर्ड-तोड़ प्रदर्शन के लिए 32.3 मेगावॉट बिजली लगती है। अत: ऐसे शक्तिशाली चुंबकों को चलाना काफी महंगा है, और इतनी ऊर्जा खपत को उचित ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तर्क की आवश्यकता होगी।

हालांकि बिजली की खपत को कम करने के लिए शोधकर्ता अपना ध्यान हाइब्रिड (Hybrid Magnets) और पूरी तरह से सुपरकंडक्टिंग चुंबकों (Superconducting Magnets) पर केंद्रित कर रहे हैं। ये नए डिज़ाइन विद्युत चुंबकों को सुपरकंडक्टिंग चुंबक के साथ जोड़ते हैं, जिन्हें शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए कम बिजली लगती है। 2022 में, SHMFF के हाइब्रिड चुंबक ने 45.22 टेस्ला का क्षेत्र प्राप्त किया था।

हाइब्रिड और सुपरकंडक्टिंग चुंबक की संभावनाएं तो बहुत हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। इन्हें बनाना काफी महंगा है और काम करने के लिए जटिल कूलिंग सिस्टम (Cooling Systems) की ज़रूरत होती है। बहरहाल, अधिक मज़बूत और कुशल चुंबक बनाने की होड़ जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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