रोहिणी गोडबोले – लीलावती की एक बेटी

अरविन्द गुप्ता

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (Huzurpaga High School, Pune) (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर (Doctor) और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक (Scientist) बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति (State Talent Scholarship) के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी (Physics), जीव विज्ञान (Biology), और रसायन विज्ञान (Chemistry) का अध्ययन किया, और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं।

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएं (Science Magazines) पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप (National Science Talent Scholarship) का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान (Basic Science) का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियां (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) और आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं।

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र (Bank of Maharashtra) से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. (IT Industry) क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया जब वे आईआईटी मुंबई (IIT Bombay) से एमएससी कर रही थीं। वहां के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे एमएससी के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन (American University Women’s Association) ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय (American University) में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स (Particle Physics) में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय (Stony Brook University) में दाखिला लिया।

अपनी पीएचडी (PhD) पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालांकि उन्हें युरोप (Europe) में पोस्ट-डॉक्टरल शोध (Postdoctoral Research) के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती।

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएचडी के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute of Fundamental Research) में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय (University of Mumbai) में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों (Research Institutes) और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है।

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहां टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहां रहते हैं वगैरह, वगैरह।  

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (Indian Institute of Science), बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स (High Energy Physics) के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न (CERN, Geneva) के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider) में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव’ (Drees-Godbole Effect) नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान (Awards and Recognition) मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड (Distinguished Alumnus Award) था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (Padma Shri) से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती। 

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान (Women in Science) और अनुसंधान (Research) में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian Women Scientists) को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती’स डॉटर्स (Leelavati’s Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक (Unique Book) है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियां लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Indian Academy of Sciences), बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद (Translation) भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य (Eklavya) द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए। 

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती’स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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