चांद पर समय का मापन

डॉ. सुशील जोशी

आगामी दशक में चंद्र अभियानों (Lunar Missions) में ज़बर्दस्त उछाल की संभावना जताई जा रही है। एक विचार यह है कि कुछ अभियान चांद पर स्थायी ठिकाना बनाने (Permanent Settlement on Moon) का प्रयास करेंगे। इन प्रयासों के सामने तमाम चुनौतियां हैं। इनमें से एक प्रमुख चुनौती यह है कि चांद पर समय का हिसाब कैसे रखें (Time Measurement on the Moon)। और दुनिया भर के मापन वैज्ञानिक (Measurement Scientists) इससे जूझ रहे हैं। 

फिलहाल चांद का कोई अपना स्वतंत्र समय नहीं है (Independent Time on the Moon)। हर चंद्र अभियान (Lunar Mission) समय का अपना-अपना पैमाना इस्तेमाल करता है और इसे पृथ्वी पर बैठे परिचालक समन्वित सार्वभौमिक समय (coordinated universal time, UTC) से लिंक करके रखते हैं। UTC ही वह पैमाना है जिसके सापेक्ष पृथ्वी की सारी घड़ियों का तालमेल बनाकर रखा जाता है। 

अलबत्ता, यह तरीका थोड़ा कम सटीक है (Less Accurate) और चांद का अन्वेषण करते विभिन्न यान (Lunar Probes) एक-दूसरे के साथ समय को सिंक्रोनाइज़ नहीं करते हैं। दो-चार यान होने तक तो यह तरीका चल जाता है लेकिन दर्जनों यान मिलकर काम करेंगे तो परेशानी शुरू हो जाएगी। इसके अलावा, अंतरिक्ष एजेंसियां (Space Agencies) इन यानों पर अपने उपग्रहों के ज़रिए नज़र रखना चाहेंगी। अब यदि सब अपना-अपना समय रखेंगे तो तालमेल मुश्किल होगा। 

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चांद के लिए UTC का समकक्ष (universal lunar time) क्या हो। और इसका तालमेल पृथ्वी के समय से कैसे बनाया जाए (Synchronization with Earth Time)। चांद और पृथ्वी पर गुरुत्व बल (Gravitational Force) अलग-अलग होता है। इसलिए दोनों की घड़ियां अलग-अलग गति से चलती है। इस प्रभाव के कारण चांद पर रखी घड़ी पृथ्वी की घड़ियों की तुलना में रोज़ाना 58.7 माइक्रोसेकंड आगे हो जाएगी (Microsecond Time Difference)। अब जब सारा कामकाज अधिक सटीकता से होगा तो इतना अंतर भी अहम साबित होगा। 

पहला सवाल तो यह आएगा कि क्या अधिकारिक चंद्र-समय (Official Lunar Time) ऐसी घड़ियों पर आधारित हो जिन्हें UTC के साथ लयबद्ध कर दिया गया हो या वहां के लिए स्वतंत्र समय का निर्धारण किया जाए। और खगोलविदों (Astronomers) का मानना है कि निर्णय जल्दी करना होगा क्योंकि ऐसा न हुआ तो विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां अपना-अपना समाधान लागू करने लगेंगी। 

धरती के चक्कर काट रहे उपग्रहों के लिए एक ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (GPS) स्थापित की गई है। यह सिस्टम उपग्रहों (Satellites) की मदद से पृथ्वी पर किसी बिंदु की स्थिति का सटीक निर्धारण करने में मददगार होती है। इसी प्रकार का एक सिस्टम – ग्लोबल सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम (Global Satellite Navigation System) – ज़रूरी होगा जो चांद व अन्यत्र भी स्थितियों के निर्धारण में कारगर हो क्योंकि समय के साथ बात सिर्फ चंद्रमा तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि मंगल वगैरह भी शामिल हो जाएंगे (Mars and Other Planets)। अंतरिक्ष एजेंसियां चाहती हैं कि ऐसी कोई व्यवस्था 2030 तक स्थापित हो जाए (Space Agencies Aim for 2030)। 

अब तक चंद्र अभियान (Lunar Missions) अपनी स्थिति को पक्का करने के लिए पृथ्वी से निर्धारित समयों पर भेजे गए रेडियो संकेतों (Radio Signals) के भरोसे रहते हैं। लेकिन दर्जनों अभियान होंगे तो ऐसे संकेत भेजने के लिए संसाधनों की कमी पड़ जाएगी। 

इस वर्ष युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) और नासा (NASA) चंद्रमा पर स्थिति के निर्धारण के लिए पृथ्वी-स्थित दूरबीनों से उपग्रह के क्षीण संकेत भेजने का परीक्षण करेंगे। इसके बाद योजना है कि कुछ ऐसे उपग्रह (Satellites) चंद्रमा के आसपास स्थापित किए जाएंगे जो इसी काम के लिए समर्पित होंगे। इनमें से हरेक पर अपनी-अपनी परमाणु घड़ियां (Atomic Clocks) लगी होंगी। तब चंद्रमा पर रखा कोई रिसीवर इन सबसे प्राप्त संकेतों की मदद से (त्रिकोणमिति की मदद से) अपनी स्थिति पता कर लेगा (Triangulation for Positioning)। इसके लिए इस बात का फायदा उठाया जाएगा कि अलग-अलग उपग्रह से रिसीवर तक संकेत पहुंचने में कितना समय लगता है। युरोपियन स्पेस एजेंसी शुरू में चार अंतरिक्ष यान (Spacecraft) स्थापित करने की योजना बना रही है जो चांद के दक्षिण ध्रुव (South Pole of the Moon) के आसपास स्थिति निर्धारण में मदद करेंगे। दक्षिण ध्रुव को इसलिए चुना गया है क्योंकि वहीं सबसे ज़्यादा पानी है (Water on Moon’s South Pole) और इस वजह से सबसे ज़्यादा अभियान वहीं होने की उम्मीद है। 

युरोपियन स्पेस एजेंसी के यॉर्ग हान का कहना है कि विभिन्न अभियानों के परस्पर संवाद और सहयोग (Communication and Collaboration) करने के लिए एक अधिकारिक चंद्र समय (Official Lunar Time) की ज़रूरत होगी। इसके साथ ही दूसरा सवाल यह है कि क्या अंतरिक्ष यात्री (Astronauts) पूरे चंद्रमा पर युनिवर्सल ल्यूनर टाइम (ULT) का उपयोग करेंगे। हो सकता है कि ULT ही अधिकारिक टाइम रहे लेकिन उसका उपयोग करने वाले चाहें कि वे अलग-अलग टाइम ज़ोन (Time Zones) निर्धारित कर पाएं, जैसा पृथ्वी पर किया गया है। इसका फायदा यह होगा कि वे आकाश में सूरज की स्थिति से जुड़े रह पाएंगे (Sun’s Position). 

कुल मिलाकर चंद्र समय (Lunar Time) को परिभाषित करना आसान नहीं होगा। मसलन, एक सेकंड की परिभाषा तो सब जगह एक ही है लेकिन सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) बताता है कि ज़्यादा शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण में घड़ियां धीमी चलती हैं। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की अपेक्षा कमज़ोर है (Weaker Gravitational Force on the Moon)। इसका मतलब होगा कि पृथ्वी के किसी प्रेक्षक को चंद्र-घड़ी तेज़ चलती नज़र आएगी (Faster Lunar Clocks for Earth Observer)। और तो और, चंद्रमा की सतह पर अलग-अलग जगहों के लिए यह अंतर भी अलग-अलग होगा (Varied Time Differences on the Moon’s Surface)। ऐसा लगता है कि एक चंद्र-मानक (Lunar Standard Time) परिभाषित करने के लिए कम से कम तीन मास्टर घड़ियां स्थापित करनी होंगी जो चांद की स्वाभाविक रफ्तार से चलेंगी। फिर इनके समयों पर कोई एल्गोरिद्म लागू करके एक वर्चुअल घड़ी बनेगी और वही मानक होगी। 

वैसे, एक मानक चंद्र समय (Standard Lunar Time) परिभाषित करने की दिशा में काम शुरू भी हो चुका है। अगस्त में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (International Astronomical Union) ने सभी अंतरिक्ष एजेंसियों से औपचारिक रूप से आव्हान किया है कि वे चंद्रमा के लिए एक समय मापन मानक (Time Measurement Standard) स्थापित करें। नासा को कहा गया है कि वह 2026 तक चंद्र समय के मानकीकरण (Lunar Time Standardization) के लिए कोई रणनीति विकसित कर ले। इस नए मानक के लिए चार शर्तें रखी गई हैं: इसका तालमेल यूटीसी से हो सके (Synchronization with UTC), अंतरिक्ष में यातायात की दृष्टि से पर्याप्त सटीकता हो, पृथ्वी से संपर्क टूट जाने की स्थिति में भी यह काम कर सके (Works in Communication Blackouts) और यह मात्र पृथ्वी-चंद्रमा से आगे भी लागू किया जा सके (Applies Beyond Earth-Moon). (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु बदलाव के समाधानों को अधिक व्यापक बनाएं

भारत डोगरा

अज़रबैजान के बाकू नगर में नवंबर 11 से 22 तक जलवायु परिवर्तन का 29वां महासम्मेलन (Climate Change Conference) (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ फ्रेमवर्क कंवेंशन का सम्मेलन) आयोजित हो रहा है। इस महासम्मेलन से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (UN Environment Program) (यूनेप) ने अपनी वार्षिक उत्सर्जन रिपोर्ट (Emissions Report) जारी की है। इसके अनुसार विश्व स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों (Greenhouse Gases) के उत्सर्जन में जो कमी लानी है, उसकी रफ्तार को पहले से कहीं अधिक बढ़ाना होगा। 

संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने बताया कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लक्ष्य (Global Warming Limit) को प्राप्त करना है तो ग्रीनहाऊस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व कुछ फ्लोरिनेटिड गैसों) को कहीं अधिक तेज़ी से कम करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इस शताब्दी में तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित न रहकर 2.6 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक होगी। सवाल यह है कि महासम्मेलन में इस उद्देश्य के अनुरूप एजेंडा (Climate Action Agenda) कहां तक तैयार हो सकेगा। 

जलवायु बदलाव के सम्मेलनों (Climate Change Summits) का नियमित समय पर होते रहना तो खैर अपनी जगह पर उचित है, पर साथ में इस सच्चाई का सामना भी करना पड़ेगा कि ऐसे 28 महासम्मेलनों के बावजूद हम जलवायु बदलाव के नियंत्रण के लक्ष्य से पिछड़ते जा रहे हैं। ग्रीनहाऊस गैसों पर समय रहते समुचित नियंत्रण (Emission Control) नहीं हो पा रहा है। दूसरी ओर, जलवायु बदलाव का बेहतर सामना कर पाने के लिए ज़रूरी अनुकूलन उपायों (Adaptation Measures) में भी समुचित सफलता नहीं मिल पा रही है बल्कि कुछ बदलाव तो ऐसे आ रहे हैं जिनसे अनुकूलन की स्थिति और विकट हो जाएगी। उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में व्यावसायिक हितों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण (Corporate Control in Agriculture) विश्व के एक बड़े भाग में बढ़ता जा रहा है, व छोटे साधारण किसानों व किसान परिवारों की स्थिति कमज़ोर होती जा रही है, जो अनुकूलन की दृष्टि से चिंता का विषय है क्योंकि यदि छोटे किसान वैसे ही आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर होंगे तो प्रतिकूल मौसम (Extreme Weather Conditions) की परिस्थितियों का सामना उनके लिए और कठिन हो जाएगा। 

यदि अभी तक की विफलताओं का संतुलित आकलन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि बड़ी कठिनाई दो अवरोधों (Major Barriers) के कारण आ रही है। ये दोनों समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं। पहली समस्या यह है कि विश्व के सबसे धनी देशों में स्थित कुछ बहुत शक्तिशाली व साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां (Multinational Corporations) अपने संकीर्ण स्वार्थ साधने के लिए जलवायु एजेंडा में गड़बड़ कर रही हैं। सबसे बड़ी ज़रूरत यह रही है कि जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) को तेज़ी से कम किया जाए व इसके स्थान पर शाश्वत ऊर्जा स्रोतों (Renewable Energy Sources) को विकसित किया जाए। किंतु जीवाश्म ईंधन की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तरह-तरह की तिकड़में कर रही हैं ताकि उन्हें अपना व्यवसाय कम न करना पड़े (अपितु वे इसे और बढ़ा सकें); इसका प्रतिकूल असर जलवायु बदलाव नियंत्रण के प्रयासों (Climate Mitigation Efforts) पर पड़ रहा है। उसी तरह का व्यवहार कुछ अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कर रही हैं। 

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि धनी देशों में अभी यह सोच सही ढंग से नहीं आ पाई है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए विलासिता भरी जीवन-शैली (Luxury Lifestyle) को कम करना भी ज़रूरी है। शराब, तंबाकू, हथियार, ज़हरीले रसायन से संबंधित कई उद्योग वैसे भी बहुत हानिकारक हैं व साथ में पर्यावरण की बहुत क्षति भी करते हैं, ग्रीनहाऊस उत्सर्जन भी बहुत करते हैं, पर इन हानिकारक उत्पादों (Harmful Products) को बहुत कम करने को पर्यावरण रक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं बनाया गया है। इस तथ्य को अधिक धनी देशों में या तो ठीक से समझा नहीं जा रहा है या इसकी अनदेखी की जा रही है कि यदि विलासिता के उत्पाद तेज़ी से बढ़ते रहे व अनेक हानिकारक उत्पाद भी बढ़ते रहे तो पर्यावरण की रक्षा कठिन है व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करना कठिन होगा। इतना ही नहीं, अन्य देशों के अभिजात्य वर्ग में भी प्राय: यही प्रवृत्ति देखी गई है। 

चूंकि आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग की बुनियादी ज़रूरतों (Basic Needs) को तो बेहतर ढंग से पूरा करना ही चाहिए, अत: कटौती तो विलासिता के उत्पादों व हानिकारक उत्पादों की ही करनी होगी। पर शक्तिशाली तत्व इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते पर्यावरण रक्षा व जलवायु बदलाव नियंत्रित करने में बाधाएं आ रही हैं। 

अत: यह ज़रूरी है कि जलवायु बदलाव के संसाधनों (Climate Change Resources) को अधिक व्यापक बनाया जाए व विकास की ऐसी राह तलाशने का प्रयास किया जाए जो बुनियादी तौर पर पर्यावरण रक्षा के अनुकूल हो। 

अभी स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है। इसका मुख्य कारण यह है कि बुनियादी तौर पर जीवन शैली बदलने (Lifestyle Changes), औद्योगीकरण आधारित विकास का मॉडल बदलने (Industrialization Model Change), उत्पादन व उपभोग में बड़े बदलाव लाने व समता तथा सादगी का आदर्श अपनाने की दृष्टि से जो मूल सुधार चाहिए, उस दिशा में दुनिया नहीं बढ़ रही है। जलवायु बदलाव के इस दौर में भी उपभोगवाद (Consumerism) छाया हुआ है। ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन अधिक करने वाले उद्योगों के लिए किसानों की उपजाऊ भूमि को उजाड़ा जा रहा है, वनों और चारागाहों का विनाश किया जा रहा है। अब समय आ गया है कि जलवायु बदलाव का संकट कम करने की दृष्टि से पूरे विकास के मॉडल को बदलने पर गंभीरता से विश्व स्तर पर विचार किया जाए। अब यह पहले से और भी ज़रूरी है कि समता और सादगी (Equality and Simplicity) को विकास का मूल आधार बनाया जाए। यह भी पहले से और ज़रूरी हो गया है कि बड़े उद्योग और शहर आधारित अर्थव्यवस्था की अपेक्षा खेती-किसानी व गांव आधारित अर्थव्यवस्था (Rural Economy) को कहीं अधिक महत्व दिया जाए। हथियारों के उत्पादन व युद्ध की संभावना को न्यूनतम करना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। विश्व स्तर पर ऐसी योजना बनाना ज़रूरी है जो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कमी और सभी लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लक्ष्यों को जोड़ सके। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नेत्रदान और कॉर्निया प्रत्यारोपण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, तेजा बालनत्रपु

अंधत्व रोकथाम के लिए कार्यरत इंटरनेशनल एजेंसी फॉर दी प्रीवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस (International Agency for the Prevention of Blindness – IAPB) प्रति वर्ष अक्टूबर के दूसरे गुरुवार को विश्व दृष्टि दिवस (World Sight Day) के रूप में मनाती है। इस वर्ष यह दिन 10 अक्टूबर को था। इसका उद्देश्य जागरूकता बढ़ाना और दुनिया भर में हर किसी को दृष्टि का लाभ पहुंचाने के प्रयासों का समर्थन करना है। इन प्रयासों में शामिल हैं ज़रूरतमंदों को चश्मा वितरण (Eyeglasses Distribution) और आंख के क्षतिग्रस्त हिस्सों का इलाज करना, जैसे मोतियाबिंद के उपचार (Cataract Surgery) के लिए आंख के अपारदर्शी लेंस को बदलना, या अंधेपन के इलाज के लिए कॉर्निया का प्रत्यारोपण (Corneal Transplant). 

कॉर्नियल क्षति (Corneal Damage) के कारण हुआ अंधापन भारत में अंधेपन की समस्या का एक प्रमुख कारण है। कॉर्निया के प्रत्यारोपण में दानदाता (Donor) के स्वस्थ ऊतक लेकर क्षतिग्रस्त कॉर्निया वाले व्यक्ति में प्रत्यारोपित कर उसकी दृष्टि को बहाल किया जाता है। अलबत्ता, प्रत्यारोपण की दीर्घकालिक सफलता (Long-term Success) कई कारकों से प्रभावित होती है: दाता के ऊतकों की गुणवत्ता (Tissue Quality), कॉर्निया की हालत, और सबसे महत्वपूर्ण लंबे समय तक नियमित जांच और देखभाल (Regular Check-ups and Care)। 

कॉर्निया (Cornea), आंख की पुतली और तारे को ढंकने वाली एक पतली, पारदर्शी और गुंबदनुमा परत होती है। कॉर्निया के ऊतकों का विशिष्ट गुण होता है पारदर्शी बने रहना ताकि वह आने वाले प्रकाश (Incoming Light) को रेटिना तक पहुंचने दे सके। रेटिना (Retina) पर प्रकाश-ग्राही कोशिकाएं होती हैं जो हमें देखने में मदद करती हैं। यदि किसी कारण से कॉर्निया क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो यह प्रकाश को रेटिना की ओर अंदर आने देने की अपनी क्षमता खो देता है और व्यक्ति की दृष्टि चली जाती है। ऐसे में, दृष्टि बहाल करने का एकमात्र तरीका होता है कॉर्निया का प्रत्यारोपण। 

सन 1905 में ऑस्ट्रियाई नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. ई. के. ज़िम (Dr. Eduard Zirm) ने पहला मानव कॉर्नियल प्रत्यारोपण (First Corneal Transplant) किया था। भारत में पहला प्रत्यारोपण सन 1948 में डॉ. मुथैया (Dr. Muthayya) ने चेन्नई के अपने नेत्र बैंक (Eye Bank) में किया था, और इंदौर के डॉ. आर. पी. धोंडा ने 1960 में पहला सफल कॉर्निया प्रत्यारोपण किया था। तब से, कॉर्निया प्रत्यारोपण और भी परिष्कृत (Refined) हुए हैं और प्रत्यारोपण की सफलता दर (Success Rate) भी काफी बढ़ गई है। कॉर्निया के पारदर्शी ऊतक को छह परतों में बांटा जा सकता है और अब सर्जन पूरे कॉर्निया की बजाय कॉर्निया की केवल एक विशिष्ट उप-परत (Specific Sub-layer) का प्रत्यारोपण कर सकते हैं। इस सर्जरी में रिकवरी तेज़ (Faster Recovery) होती है और प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा अस्वीकृति (Immune Rejection) की संभावना कम होती है। 

ये सभी विशेषताएं कॉर्निया के प्रत्यारोपण को एक आसान विकल्प बनाती हैं। इसके बावजूद, भारत में तकरीबन दस लाख से अधिक लोग कॉर्नियल क्षति (Corneal Damage) के कारण अंधेपन का शिकार हैं। राष्ट्रीय दृष्टिहीनता और दृश्य हानि नियंत्रण कार्यक्रम (National Programme for Control of Blindness – NPCBVI) के अनुसार, 50 वर्ष से कम आयु के लोगों में अंधेपन का मुख्य कारण यही है। पिछले कई वर्षों से, भारत ने प्रति वर्ष एक लाख कॉर्निया प्रत्यारोपण (100,000 Corneal Transplants) करने का अनौपचारिक लक्ष्य रखा है। लेकिन हम इस लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। कॉर्निया के ऊतक केवल व्यक्ति की मृत्यु के बाद (Post-mortem Donation) ही दान किए जा सकते हैं। भारत में दर्ज लाखों मौतों में से कुछ ही कॉर्नियल दान (Corneal Donations) के योग्य होते हैं। हालांकि, वर्तमान में हम सभी योग्य दाताओं से कॉर्निया हासिल नहीं कर पाते हैं, खासकर प्रक्रियागत देरी (Procedural Delays) और सहमति कानूनों (Consent Laws) के कारण। 

इस कमी को दूर करने के लिए सरकार मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 (Transplantation of Human Organs Act – THOA) में संशोधन पर विचार कर रही है, जो ‘मान ली गई या मानित सहमति’ (Presumed Consent) का रास्ता खोलता है। ‘मानित सहमति’ से आशय है ऐसा मान कर चलना कि सभी योग्य दाताओं की अंगदान के लिए सहमति है। हालांकि, मानित सहमति पर सख्ती या दबाव नहीं होना चाहिए, इसमें सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance) सुनिश्चित करने के लिए परिवार की औपचारिक अनुमति (Family Approval) भी शामिल होनी चाहिए – एक ‘स्वीकार्य’ विकल्प।  वक्त की मांग है उदार नेत्रदान (Generous Eye Donations), समर्पित प्राप्तकर्ता (Committed Recipients) की जो नियमित चेक-अप या देखभाल के लिए आता रहे, और एक ऐसी प्रणाली (Systematic Framework) की जो इन दोनों को सक्षम बनाए। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सरकार के नारे ‘नेत्र दान’ और नेत्ररोग विशेषज्ञों के बोध वाक्य ‘पश्यन्तु सर्वे जन: (सभी के पास दृष्टि हो)’ के बीच तालमेल हो, जिसे परिवार की सहमति (Family Consent) से समर्थन मिले: ‘सम्मति परिवारस्य।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विकास के लिए ज़रूरी है समावेशी संस्थाएं

अरविंद सरदाना

डैरन ऐसीमोगुलू (Daron Acemoglu), जेम्स रॉबिन्सन (James Robinson) एवं साइमन जॉनसन (Simon Johnson) को इस वर्ष के अर्थशास्त्र नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Economics) से नवाज़ा गया है। यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। उनका अध्ययन किसी भी देश में विकास (Economic Growth) के न होने पर केंद्रित है। 

डैरन ऐसीमोगुलू और जेम्स रॉबिन्सन अपनी चर्चित किताब व्हाय नेशन्स फेल: दी ओरिजिन ऑफ पॉवर, प्रॉस्पेरिटी एंड पॉवर्टी (Why Nations Fail: The Origins of Power, Prosperity, and Poverty) में पूछते हैं कि विभिन्न देशों में किस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक संस्थाएं बनीं और उनमें क्या अंतर रहा, जिसने विकास की राह को प्रभावित किया? 

यह राजनीतिक अर्थशास्त्र (Political Economy) का पुराना सवाल है। जैसे लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व एडम स्मिथ (Adam Smith) की मशहूर किताब दी वेल्थ ऑफ नेशन्स (The Wealth of Nations) थी। इस वर्ष का पुरस्कार इस बात की स्वीकार्यता का द्योतक है कि अर्थशास्त्रीय अध्ययन (Economic Analysis) में विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया जाता है। 

“विभाजन के लगभग आधी सदी बाद, 1990 के दशक के आखिर में, दक्षिण कोरिया (South Korea) का विकास और उत्तर कोरिया (North Korea) के ठहराव ने इस एक देश के दो हिस्सों के बीच दस गुना का अंतर पैदा कर दिया है। उत्तर कोरिया की आर्थिक आपदा (Economic Crisis), जिसके कारण लाखों लोग भुखमरी का शिकार हुए, की तुलना जब दक्षिण कोरिया की आर्थिक सफलता (Economic Success) के साथ की जाती है, तो यह चौंकाने वाली बात है: उत्तर और दक्षिण कोरिया के अलग-अलग विकास मार्ग की व्याख्या न तो संस्कृति (Culture), न भूगोल (Geography) और न ही अज्ञानता (Ignorance) कर सकती है। हमें जवाब के लिए संस्थाओं (Institutions) को देखना होगा (व्हाय नेशन्स फेल)।” 

उनका मुख्य फोकस इस बात पर है कि किसी देश में सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं का स्वररूप समावेशी यानी इंक्लूसिव (Inclusive Institutions) रहा है या फिर शोषणकारी। उनका विश्लेषण बताता है कि समावेशी संस्थाएं आम लोगों को मौके देती हैं, बाज़ार व्यवस्था (Market Economy) को बढ़ने का अवसर प्रधान करती हैं और नई टेक्नोलॉजी (New Technology) को अपनाने का वातावरण बनाए रखती हैं। किसी भी व्यवस्था में जब विकास का लाभ अधिक लोगों में बंटता है और उसकी नींव संस्थानों में है, तो यह समावेशी स्वरूप लेता है। इसके विपरीत जब विकास एक सीमित वर्ग की ओर केन्द्रित होता है तो वहां शोषणकारी संस्थाएं बनती हैं और उन्हें पोषित करती रहती हैं। इस प्रकार एक अभिजात्य वर्ग का मज़बूत वर्चस्व लगातार बना रहता है। 

यह बात इतनी नई नहीं है, परंतु उनका शोध अलग-अलग देशों का तुलनात्मक विश्लेषण (Comparative Analysis) इस दृष्टिकोण को आंकड़ों के साथ अनूठे रूप से प्रस्तुत करता है।   इसे एक उदाहरण से समझते हैं। स्वतंत्रता के समय 1966 में बोत्सवाना (Botswana), दुनिया के सबसे गरीब देशों (Poorest Countries) में से एक था। यहां “कुल बारह किलोमीटर पक्की सड़कें थीं, बाईस व्यक्ति विश्वविद्यालय से स्नातक थे, और सौ माध्यमिक विद्यालय थे। यह दक्षिण अफ्रीका (South Africa), नामीबिया (Namibia) और रोडेशिया (Rhodesia) के श्वेत शासनों से घिरा हुआ था, जो सभी अश्वेतों द्वारा संचालित स्वतंत्र अफ्रीकी देशों (Independent African Nations) के प्रति नफरत पालते थे। फिर भी अगले चालीस वर्षों में, बोत्सवाना दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते देशों (Fastest Growing Economies) में शुमार हो गया। आज सब-सहारा अफ्रीका (Sub-Saharan Africa) में बोत्सवाना की प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) सबसे अधिक है, और यह एस्टोनिया (Estonia) और हंगरी (Hungary) जैसे सफल पूर्वी युरोपीय देशों के बराबर के स्तर पर है। 

बोत्सवाना ने तेज़ी से समावेशी आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं (Inclusive Economic and Political Institutions) का विकास किया। वह लोकतांत्रिक (Democratic Governance) बना रहा है और वहां नियमित रूप से चुनाव होते रहे हैं। उसने कभी भी गृह युद्ध (Civil War) या सैन्य हस्तक्षेप (Military Intervention) का सामना नहीं किया है। सरकार ने संपत्ति के अधिकार (Property Rights) को लागू करने, व्यापक आर्थिक स्थिरता (Economic Stability) सुनिश्चित करने और समावेशी बाज़ार अर्थव्यवस्था (Inclusive Market Economy) के विकास को प्रोत्साहित किया। सब-सहारा अफ्रीका के अधिकांश देशों, जैसे सिएरा लियोन और जिम्बाब्वे, में स्वतंत्रता के बाद बदलाव का जो अवसर मिला था, उसे उन्होंने खो दिया। आज़ादी के बाद, औपनिवेशिक काल के दौरान मौजूद शोषणकारी संस्थाओं का फिर से निर्माण हुआ। इनकी तुलना में स्वतंत्रता के शुरुआती चरण में बोत्सवाना अलग था और कबीला मुखियाओं का लोगों के प्रति कुछ हद तक जवाबदेही वाली संस्थाओं का इतिहास बना रहा। “इस तरह की संस्थाओं के लिए बोत्सवाना निश्चित रूप से अफ्रीका में अद्वितीय नहीं था लेकिन इस हद तक तो अद्वितीय था कि ये संस्थाएं औपनिवेशिक काल में बिना ज़्यादा नुकसान के बची रहीं।”

उदाहरण के लिए, आज़ादी के बाद बोत्सवाना में बने मांस आयोग ने पशु अर्थव्यवस्था को विकसित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई, फुट एण्ड माउथ रोग को नियंत्रित करने के लिए काम किया और निर्यात को बढ़ावा दिया। इससे आर्थिक विकास में योगदान मिला और समावेशी आर्थिक संस्थाओं के लिए समर्थन बढ़ा। बोत्सवाना में शुरुआती विकास मांस निर्यात पर निर्भर था, लेकिन हीरे की खोज के बाद चीज़ें नाटकीय रूप से बदल गईं। बोत्सवाना में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन भी अन्य अफ्रीकी देशों से काफी अलग था। औपनिवेशिक काल के दौरान, बोत्सवाना प्रमुखों ने खनिजों की खोज को रोकने का प्रयास किया था क्योंकि वे जानते थे कि अगर युरोपीय लोगों ने कीमती धातुओं या पत्थरों की खोज की, तो उनकी स्वायत्तता खत्म हो जाएगी। आज़ादी के बाद सबसे बड़ी हीरे की खोज नग्वाटो भूमि के नीचे हुई थी, जो एक कबीले की पारंपरिक मातृभूमि थी। देश के नेताओं ने खोज की घोषणा से पहले, कानून में बदलाव किया ताकि खनिज सम्पदा का अधिकार राष्ट्र में निहित हो, न कि जनजाति में। इसने राज्य में केंद्रीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। हीरे के राजस्व का इस्तेमाल अब नौकरशाही, बुनियादी ढांचे के निर्माण और शिक्षा में निवेश के लिए किया गया। यह अन्य अफ्रीकी देशों से अलग है।

इस प्रकार कई तुलनात्मक अध्ययनों (Comparative Studies) से यह स्पष्ट होता है कि विकास के लिए समावेशी संस्थाओं का बनना ज़रूरी है। इनके बनने के पीछे राजनीतिक समीकरण (Political Equations) और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Context) का विश्लेषण करना होगा। बदलाव के खास मौके कुछ देशों में कैसे बने? इस अध्ययन से कुछ सीख ली जा सकती है पर इतिहास भविष्य के लिए कोई नुस्खे नहीं प्रदान करता। पुस्तक में बताया गया है कि आजकल एक्सपर्ट यह भ्रम पालते हैं कि विकास को ढांचाबद्ध किया जा सकता है, बस जानकारी की कमी है। पर वास्तव में वे संस्थाओं की जटिलता को नज़रअंदाज कर रहे होते हैं जो उनकी योजनाओं को विफल कर देती हैं। उसी प्रकार, यह भी बताया गया है कि विदेशी मदद की भूमिका नहीं है। इसी प्रकार से, आजकल कई मुल्कों में तानाशाही व्यवस्था विकास के लिए लुभावनी दिखती है और कुछ समय के लिए इसका असर होता भी है, परन्तु यह एक समय बाद बिखरने लगता है क्योंकि केंद्रीकृत सत्ता समय के साथ आने वाले आवश्यक बदलाव नहीं होने देती।

बहरहाल, चाहे हम सहमत हों या नहीं, इनकी पुस्तक पढ़ने योग्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज़्यादा खाने से मधुमेह कैसे होता है?

मोटापा (obesity) मधुमेह (diabetes) के जोखिम को काफी बढ़ा देता है, लेकिन इसका सटीक कारण अभी तक स्पष्ट नहीं है। लेकिन नए शोध (new research) से पता चलता है कि अत्यधिक उच्च वसायुक्त भोजन (high-fat diet) के सेवन से लीवर (liver) सहित पूरे शरीर में तंत्रिका-संप्रेषकों (न्यूरोट्रांसमीटर – neurotransmitters) में उछाल आता है। इनके प्रभाव से लीवर में वसीय ऊतक विघटित (fatty tissue breakdown) होने लगते हैं। यह खोज लंबे समय से चली आ रही धारणाओं को चुनौती देती है कि ज़्यादा खाने से मधुमेह होता है। यह अध्ययन नई उपचार रणनीतियों (treatment strategies) का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 

आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि मधुमेह तब होता है जब शरीर इंसुलिन (insulin) के प्रति प्रतिक्रिया करना बंद कर देता है, जिससे रक्तप्रवाह (bloodstream) में हानिकारक फैटी एसिड (fatty acids) बढ़ जाते हैं। हालांकि, सेल मेटाबॉलिज़्म (Cell Metabolism) में प्रकाशित हालिया निष्कर्षों (findings) में इसके पीछे शरीर के रासायनिक संदेशवाहक यानी न्यूरोट्रांसमीटर की भूमिका को उजागर किया गया है। मोटे (obese) लोगों में ये न्यूरोट्रांसमीटर, विशेष रूप से नॉरएपिनेफ्रिन (norepinephrine), इंसुलिन की उपस्थिति में भी शरीर में वसीय अम्लों का अत्यधिक विघटन जारी रखते हैं। वसीय अम्लों में यह वृद्धि मधुमेह, फैटी लीवर (fatty liver) और ऊतकों में सूजन (inflammation) जैसी स्थितियों को जन्म देती है। 

रटगर्स यूनिवर्सिटी (Rutgers University) के क्रिस्टोफ ब्यूटनर और केनिची सकामोटो के शोध दल ने इस बात का पता लगाने के लिए एक चूहा मॉडल (mouse model) का इस्तेमाल किया, जिनके मस्तिष्क (brain) को छोड़कर अन्य अंगों से न्यूरोट्रांसमीटर बनाने के लिए ज़िम्मेदार जीन को हटा दिया गया था। इसके बाद दोनों तरह के चूहों को उच्च वसा वाला आहार (high-fat diet) दिया गया। 

नतीजे काफी चौंकाने वाले थे। हालांकि चूहों के दोनों समूहों ने समान वज़न (weight gain) हासिल किया और दोनों में ही समान इंसुलिन गतिविधि देखी गई, लेकिन संशोधित चूहों में इंसुलिन प्रतिरोध (insulin resistance), फैटी लीवर या सूजन विकसित नहीं हुई। वहीं, असंशोधित चूहों में गंभीर इंसुलिन प्रतिरोध व लीवर क्षति (liver damage) देखी गई। 

जैव-रसायनज्ञ मार्टिना श्वेइगर (Martina Schweiger) के अनुसार, यह शोध एक नई दिशा का संकेत देता है। इंसुलिन की विफलता मधुमेह का एकमात्र कारण होने की बजाय, न्यूरोट्रांसमीटर भी शरीर को हानिकारक स्थिति में धकेलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अध्ययन कहता है कि मोटापे से ग्रस्त लोगों में केवल इंसुलिन पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय न्यूरोट्रांसमीटर्स पर ध्यान देने से मधुमेह के इलाज (diabetes treatment) या रोकथाम (prevention) के नए तरीके मिल सकते हैं। 

हालांकि यह खोज एक बड़ी सफलता (major breakthrough) है, लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब दिए जाने बाकी हैं। उच्च वसा वाले आहार से न्यूरोट्रांसमीटर उछाल (neurotransmitter spike) कैसे शुरू होता है? क्या मस्तिष्क को प्रभावित किए बिना, विशिष्ट ऊतकों (specific tissues) में न्यूरोट्रांसमीटर को लक्षित करने के लिए दवाएं बनाई जा सकती हैं? क्या ऐसा करने से मोटापे से संबंधित इंसुलिन प्रतिरोध (obesity-related insulin resistance) का प्रभावी ढंग से मुकाबला किया जा सकता है? 

बहरहाल, यह अध्ययन मधुमेह एवं मोटापे से जुड़े अन्य चयापचय विकारों (metabolic disorders) के बेहतर उपचार की उम्मीद जगाता है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पंखे कितने तापमान तक फायदेमंद होते हैं?

गर्मियों में लोग राहत के लिए पंखे (fans) चलाते हैं। इस मामले में यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (CDC – Center for Disease Control) ने 32.2 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान (temperature) पर ही पंखे चलाने की सलाह दी है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO – World Health Organization) की सलाह है कि 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर पंखा चला सकते हैं। सवाल उठता है कि पंखे का उपयोग कब सुरक्षित (safe usage) है और कब तकलीफदायक? 

इसके समाधान के लिए दो अध्ययनों (studies) ने तापमान और नमी (humidity) दोनों को ध्यान में रखते हुए यह निर्धारित करने का प्रयास किया है कि पंखे का उपयोग कब फायदेमंद (beneficial) है और कब नुकसानदेह। 

दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन (The New England Journal of Medicine) में प्रकाशित एक अध्ययन (study) में, शोधकर्ताओं (researchers) ने 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों पर दो परिस्थितियों में पंखे के असर का परीक्षण किया – एक गर्म और नम (38 डिग्री सेल्सियस और 60 प्रतिशत आर्द्रता) तथा दूसरी गर्म और शुष्क (45 डिग्री सेल्सियस और 15 प्रतिशत आर्द्रता)। परिणामों से पता चला कि नम परिस्थिति में, पंखे 38 डिग्री सेल्सियस तक भी फायदेमंद (effective cooling) थे। पंखे ने पसीने को अधिक प्रभावी ढंग से वाष्पित करने में मदद की, जिससे हृदय सम्बंधी तनाव (cardiovascular stress) 31 प्रतिशत तक कम हुआ। इस स्थिति में जब प्रतिभागियों पर पानी (water spray) छिड़का गया तो उनके हृदय सम्बंधी तनाव में 55 प्रतिशत तक की कम आई। दूसरी ओर शुष्क गर्मी में परिणाम बिलकुल अलग थे। कम नमी में 45 डिग्री सेल्सियस पर पंखा हानिकारक (harmful effects) साबित हुआ। नमी की कमी के कारण पसीना बहुत जल्दी वाष्पित हो गया, जिससे बहुत कम ठंडक मिली। नतीजा, प्रतिभागियों को गंभीर हृदय तनाव हुआ और प्रयोग जल्दी रोकना पड़ा। इससे पता चलता है कि नमी की उपस्थिति में पंखे सुरक्षित (safe fans) हैं और CDC द्वारा सुझाए गए तापमान से अधिक तापमान पर भी फायदेमंद हैं। लेकिन शुष्क गर्मी में पंखे गर्म हवा को फैलाकर गर्मी बढ़ा सकते हैं। 

जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of American Medical Association) में प्रकाशित दूसरे अध्ययन में ओटावा विश्वविद्यालय (University of Ottawa) की प्रयोगशाला में इसी तरह के परीक्षण किए गए। वहां कमरे में नमी 45 प्रतिशत और तापमान 36 डिग्री सेल्सियस रखा गया। पंखा चलाने पर शरीर का कोर तापमान (core body temperature) 0.1 डिग्री सेल्सियस तक कम हुआ और हृदय गति (heart rate) थोड़ी कम हुई लेकिन इसके लाभ पहले अध्ययन की तरह नहीं थे। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि पंखे कुछ हद तक राहत (relief) दे सकते हैं, लेकिन 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर वृद्धों को ठंडक देने में प्रभावी नहीं होते। 

तो क्या करें? WHO ने पंखे के इस्तेमाल की सीमा 40 डिग्री सेल्सियस तक रखी है, CDC 32.2 डिग्री सेल्सियस की सीमा पर कायम है। लेकिन दोनों संगठन इस बात पर सहमत हैं कि पंखे के इस्तेमाल की सुरक्षित स्थिति (safe conditions) निर्धारित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। तो, सटीक सलाह आने तक आप अपनी सहूलियत (comfort) के हिसाब से पंखा चलाएं और जिस तापमान पर आपको पंखे से परेशानी होने लगे, पंखा बंद करने से न झिझकें। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे छोटे तारे कितने छोटे हो सकते हैं

खगोलशास्त्री लंबे समय से एक सवाल का जवाब खोजने का प्रयास कर रहे हैं: कोई तारा (Star) कितना छोटा हो सकता है? नासा के जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST) द्वारा एक ब्राउन ड्वार्फ (Brown Dwarf) का हालिया अवलोकन संभवतः इस जवाब के करीब ले जाता है। JWST की पैनी व अवरक्त निगाह ने अब तक देखे गए सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ में से कुछ की पहचान की है। इनका द्रव्यमान (Mass) बृहस्पति (Jupiter) ग्रह के द्रव्यमान से तीन से आठ गुना के बीच है। 

ब्राउन ड्वार्फ ऐसे खगोलीय पिंड (Astronomical Objects) होते हैं जिनका निर्माण तो तारों की तरह ही होता है, लेकिन इनका द्रव्यमान इतना कम होता है कि इनके केंद्र में नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) बहुत कम हो पाता है – इतना कम कि वह इन्हें तारों समान चमकीला बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होता। इसी कारण से ब्राउन ड्वार्फ को कभी-कभी ‘नाकाम तारे’ (Failed Stars) भी कहा जाता है। गौरतलब है कि संलयन से चमक पैदा करने के लिए सितारों को बृहस्पति ग्रह से लगभग 70 गुना अधिक द्रव्यमान का होना आवश्यक होता है। फिर भी, बृहस्पति के द्रव्यमान से 13 गुना अधिक द्रव्यमान के ब्राउन ड्वार्फ थोड़े समय के लिए ड्यूटेरियम (Deuterium) नामक हाइड्रोजन समस्थानिक परमाणुओं का संलयन करके धीमे-धीमे जल सकते हैं। उससे कम पर वे बिल्कुल भी नहीं जलते हैं। अलबत्ता, सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ और ग्रहों (Planets) के बीच अंतर करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि हो सकता है कि वे एक जैसे दिखाई दें। 

2021 में JWST लॉन्च होने से पहले, खगोलविद बृहस्पति के पांच गुना साइज़ के ब्राउन ड्वार्फ का पता लगा सकते थे। लेकिन अब, JWST के उन्नत अवरक्त सेंसर (Infrared Sensors) के माध्यम से वस्तुओं की अत्यंत मंद रोशनी को देखने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को बृहस्पति से तीन गुना द्रव्यमान के हल्के ब्राउन ड्वार्फ को खोजने में सक्षम बनाया है। 

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency) के मार्क मैककॉग्रेन और सैमुअल पीयर्सन के दल ने ओरायन नेबुला (Orion Nebula) में चतुर्भुजी झुंड (Quadrupole Cluster) के निरीक्षण के दौरान जोड़ियों में परिक्रमा करते हुए 42 ब्राउन ड्वार्फ की खोज की है। इनमें से कुछ जोड़ियां, जिन्हें जुपिटर-मास बायनरी ऑब्जेक्ट्स (JuMBOs) कहा जाता है, लगभग बृहस्पति जितने छोटे हैं। यह खोज वर्तमान तारा निर्माण मॉडल (Star Formation Model) को चुनौती देती है, जो भविष्यवाणी करते हैं कि द्रव्यमान में कमी के साथ-साथ युग्मित तारे दुर्लभ होते जाने चाहिए। यदि ये JuMBOs वास्तव में उतने ही हल्के हैं जितने वे दिखाई देते हैं, तो वे तारों के निर्माण के बारे में हमारी सोच को बदल सकते हैं।  

हालांकि, हर कोई इस व्याख्या से सहमत नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ये वस्तुएं ब्राउन ड्वार्फ हो ही नहीं हो सकती हैं। उनके मुताबिक, वे दूर के तारे (Distant Stars) या आकाशगंगाएं (Galaxies) हो सकती हैं जिनका प्रकाश ओरायन नेबुला में धूल (Dust) के कारण धुंधला पड़ जाता है, जिसकी वजह वे अपने वास्तविक आकार से छोटे दिखाई देते हैं। हालांकि, मैककॉग्रीन का कहना है कि सांख्यिकीय रूप से इन वस्तुओं का दूर की पृष्ठभूमि की वस्तुएं होना असंभव है, क्योंकि इतने सारे पिंडों का इस तरह पंक्तिबद्ध दिखाई देना संभव नहीं लगता। इन तारों की इस जमावट को वे ‘जंबो एली’ कहते हैं।

बहरहाल, इस मुद्दे पर बहस जारी है। मैककॉग्रीन और पीयर्सन आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने पहले ही चतुर्भुजी झुंड की अधिक विस्तृत तस्वीरें ले ली हैं और जल्द ही नए निष्कर्ष प्रकाशित करेंगे। ये अवलोकन JuMBO के अस्तित्व की पुष्टि कर सकते हैं और खगोलविदों को अपनी पूर्व मान्यताओं पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर सकते हैं। मैककॉग्रीन JWST की सीमाओं को बढ़ाने की योजना बना रहे हैं ताकि उन छोटे ब्राउन ड्वार्फ की खोज की जा सके जो शनि (Saturn) जितने हल्के हैं। (स्रोत फीचर्स)

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हाथी की सूंड कुछ खास है

अर्पिता व्यास

हाथी की सूंड महज नाक से बढ़कर बहुत कुछ है। हाथी सूंड से न केवल खाना उठाते हैं बल्कि पानी और रेत को अपनी पीठ पर छिड़कते हैं ताकि गर्मी से राहत मिले। वे सूंड से गर्जन करते हुए दूसरे हाथियों को संदेश भी भेजते हैं। नन्हें हाथी सूंड से ही दूध चूसकर मुंह में डालते हैं। इस हरफनमौला प्रकृति को देखते हुए बर्लिन विश्वविद्यालय (Berlin University) के तंत्रिका वैज्ञानिक माइकल ब्रेख्त (Michael Brecht) इसे जंतु-जगत का सबसे अद्भुत पकड़ने वाला अंग कहते हैं।

लेकिन सूंड में हड्डियां तो होती नहीं, फिर मात्र मांसपेशियों से बनी यह रचना कैसे इतने सारे अलग-अलग काम कर पाती है?

शायद सूंड पर पाई जाने वाली झुर्रियां इसका एक कारण हो सकती हैं। सूंड हाथी के शरीर में मुंह से जुड़ी संरचना है। इस पर बनी झुर्रियां अलग-अलग कामों को करने में मदद करती हैं। देखा जाए तो एक-एक झुर्री (सिलवट) एक-एक कोहनी की तरह काम करती है, और सूंड हर सिलवट पर मुड़ सकती है।

जब मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट (Max Planck Institute) के एंड्रू शूल्ज़ (Andrew Schulz) ने सूंड की झुर्रियों पर विचार करना शुरू किया तो वे मानकर चले थे कि ये झुर्रियां तब विकसित होती हैं जब सूंड का उपयोग ज़्यादा होता है, जैसे हमारे चेहरे पर मुस्कान की धारियां बन जाती हैं। लेकिन उन्होंने देखा कि सूंड की झुर्रियां तो जन्म से ही होती हैं और इन्हें नवजात हाथियों की सूंड पर भी देखा जा सकता है।

मनुष्य सहित कई जीवों में बच्चों को जन्म से ही झुर्रियां होती हैं क्योंकि उनके शरीर पर त्वचा शरीर के आकार के हिसाब से ज़्यादा होती है। लेकिन वे झुर्रियां बेतरतीबी से फैली होती हैं। इसके विपरीत, हाथी की झुर्रियां एक जैसी बनी रहती हैं – आकार में भी और स्थान में भी। और ये जन्म से पहले बन जाती हैं। इससे लगता है कि ये किसी उद्देश्य से बनी हैं।

इसे और अधिक समझने के लिए शूल्ज़ और उनके साथियों ने एशियाई हाथी (Asian Elephant) और अफ्रीकी हाथी (African Elephant) की सूंड की तुलना की, जो सूंड का उपयोग अलग–अलग ढंग से करते हैं। अफ्रीकी हाथी की सूंड के सिरे पर कठोर उपास्थि से बनी दो उंगलीनुमा संरचनाएं होती हैं जिनसे वे छोटी चीज़ों को भी पकड़ सकते हैं। इसके विपरीत, एशियाई हाथी की सूंड के अंत में एक ही उंगलीनुमा संरचना होती है और साथ में एक फूली हुई रचना होती है, जिससे वे तरबूज़ जैसी बड़ी चीजों को उठाकर अपने मुंह में रख पाते हैं।

शोधकर्ताओं ने संग्रहालयों में रखे नमूनों और चिड़ियाघरों में जाकर और हाथियों के बहुत सारे फोटो देखकर पता लगाया कि एशियाई हाथी की सूंड पर औसतन 126 झुर्रियां होती हैं जबकि अफ्रीकी हाथी में 83। शूल्ज़ का कहना है कि अतिरिक्त झुर्रियों से एशियाई हाथी को ज़्यादा मज़बूत पकड़ मिलती है जिससे एक उंगलीनुमा संरचना न होने की क्षतिपूर्ति हो जाती होगी। अतिरिक्त झुर्रियां एशियाई हाथी की सूंड को ज़्यादा लचीला बनाती हैं। दोनों ही प्रजातियों में झुर्रियों के जोड़ मांसपेशीय कोहनी की तरह काम करते हैं, जिससे चीज़ों को सूंड में लपेटकर उठाया जा सकता है।

ये झुर्रियां कैसे बनती हैं? यह जानने के लिए टीम ने तीन अफ्रीकी और दो एशियाई हाथियों के संग्रहालय में रखे भ्रूणों का अध्ययन किया। भ्रूण के दर्जनों चित्रों का अलग–अलग चरणों में अध्ययन किया गया। फिर इन चित्रों को विकास के समय के अनुसार क्रम में जमाया गया जिससे उन्हें यह पता चला कि झुर्रियां सूंड के साथ–साथ ही विकसित होती हैं। ये हाथी की 22 महीने की गर्भावस्था में 20वें दिन दिखाई देने लगती हैं। और अगले 150 दिन तक ये झुर्रियां दोनों प्रजातियों में बढ़ती हैं। इनकी संख्या हर तीन हफ्ते में दुगनी हो जाती है। एशियाई हाथियों में इसके बाद और भी ज़्यादा झुर्रियां बनती रहती हैं। ज़्यादा झुर्रियां उन स्थानों पर बनती हैं जहां से सूंड को मोड़ा जाएगा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने सूंड के बारे में और अध्ययन कर पता लगाया कि सूंड या तो बाईं ओर मुड़ने में दक्ष होती है या दाईं ओर। यानी कि हाथी अपनी सूंड को मुंह के एक तरफ ही घुमाकर उपयोग में लाते हैं, जैसे मनुष्यों में कुछ लोग खब्बू होते हैं। इससे सूंड में एक तरफ की अपेक्षा दूसरी तरफ ज़्यादा झुर्रियां हो जाती हैं।

बहरहाल, हाथी एक आदर्श उदाहरण है जिसमें नरम अस्थिरहित जोड़ों का अध्ययन किया जा सकता है। वैसे प्राइमेटस (Primates) और एलिफैंट सील (Elephant Seal) में ऐसे नरम अंग होते हैं जिनमें खून प्रवाहित करके उन्हें कड़ा किया जा सकता है लेकिन उनमें हाथी की सूंड की तरह घुमाव और चीज़ों को पकड़ने की क्षमता नहीं पाई जाती। (स्रोत फीचर्स)

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एक नर पेड़ के लिए वधू की तलाश

डॉ. ओ. पी. जोशी

सायकस पेड़ों की एक दुर्लभ प्रजाति है एनसेफोलार्टोस वुडी (Encepholartos Woodii)। सायकस के पेड़ खजूर के समान, धीमी गति से वृद्धि वाले, दीर्घजीवी तथा एकलिंगी होते हैं यानी नर और मादा पेड़ अलग-अलग होते हैं। नर पेड़ पर नर जननांग एक सघन शंकुरूपी रचना में जमे रहते हैं, जिसे कोन या स्ट्रॉबिलस (Strobilus) कहा जाता है। मादा पौधे में स्त्री जननांग शंकु समान रचना नहीं बनाते हैं। सायकस के पेड़ डायनासौर युग से पहले पृथ्वी पर काफी संख्या में फैले हुए थे। वनस्पति वैज्ञानिकों ने इन्हें वनस्पतियों के अनावृतबीजी (Gymnosperm) समूह में रखा है।

ई. वुडी (E. Woodii) के एकमात्र ज्ञात जंगली नर पेड़ की खोज डरबन वानस्पतिक उद्यान के क्युरेटर जॉन मेडले वुड (John Medley Wood) द्वारा दक्षिण अफ्रीका के क्वानज़ुलु नताल के ओंगोये जंगल में 1895 में की गई थी। उस समय पेड़ की ऊंचाई 5 मीटर थी। तना मज़बूत काष्ठीय प्रकृति का था, जिसका आधार पर व्यास 90 से.मी. आंका गया था। तने के ऊपरी सिरे पर 100 से ज़्यादा पत्तियों का एक मुकुट या छत्रक था। पत्तियां गहरे हरे रंग की चमकदार तथा 150 से 160 से.मी. लंबी थीं। पत्तियों के इस मुकुट के बीच 60 से.मी. का नर शंकु (Male Cone) लगा था। तने के आधार पर पुश्ता (बट्रेस) जड़ें चारों ओर फैली थीं जो भारी तने को सहारा प्रदान करती थीं।

वर्तमान में ई. वुडी के जो भी पेड़ विश्व के अलग-अलग भागों में लगे हैं, वे सभी ई. वुडी के मूल जंगली पेड़ के ही क्लोन (Clone) हैं, जो क्लोनिंग से तैयार किए गए हैं। इस विधि से किसी जीव की आनुवंशिकी रूप से हूबहू समान प्रतिलिपि बनाई जाती है। तो ई. वुडी का केवल नर पेड़ उपलब्ध होने के कारण लैंगिक प्रजनन (Sexual Reproduction) नहीं हो सकता, जिससे बीज बनें एवं नए पौधे जन्म लें।

इस अकेले नर पेड़ की वेदना को साउथेम्पटन विश्वविद्यालय (Southampton University) की शोधार्थी लॉरा सिंटी (Laura Sinti) ने समझा। लॉरा ने एक समूह बनाकर इसके मादा पेड़ को खोजने का कार्य वर्ष 2022 में शुरू किया था। इस कार्य में ड्रोन (Drone) और कृत्रिम बुद्धि (AI) तकनीक का सहारा लिया गया है। समूह को विश्वास है कि कहीं तो इस अकेले नर पेड़ की वधू (Female Tree) होगी एवं मिलेगी। इसके बाद नर एवं मादा पौधे की जोड़ी से बीज तैयार करने के प्रयास किए जाएंगे।

वनस्पति जगत में यह एक अद्भुत पहल है। (स्रोत फीचर्स)

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सौभाग्यशाली थी, तो यह मकाम पाया: राजेश्वरी चटर्जी

संकलन: के. शशिकला

महिला वैज्ञानिकों की बात करें तो इक्कादुक्का नाम ही सामने आते हैं। एक कारण है कि सामाजिक असमानताओं और रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते बहुत कम महिलाएं उच्च शिक्षा हासिल कर पाती हैं, वह भी अक्सर तमाम संघर्षों से गुज़रते हुए।

दूसरा कारण यह है कि जो महिलाएं विज्ञान में शोधरत हैं, उनके बारे में लोगों को बहुत ही कम पढ़ने को मिलता है। इस कमी को पाटने का एक प्रयास किया था रोहिणी गोडबोले और राम रामस्वामी ने लीलावतीज़ डॉटर्स नामक पुस्तक में। इसमें भारत की सौ महिला वैज्ञानिकों के काम, विचार संघर्षों की गाथा है।

अगले कुछ अंकों में हम इस पुस्तक की कुछ जीवनियां आप तक पहुंचाएंगे।

मेरा जन्म जनवरी 1922 में एक प्रगतिशील और खुले विचारों वाले परिवार में हुआ था। मैं भले ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा न हुई हो, लेकिन हाथों में किताबें लेकर ज़रूर पैदा हुई थी! मेरा परिवार काफी बड़ा (संयुक्त) परिवार था, जो उन दिनों काफी आम बात थी। परिवार के सभी लोग काफी पढ़े-लिखे थे। यहां तक कि लड़कियां भी, और हमें हर उस गतिविधि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था जो हमें पसंद थी या जिसमें हम भाग लेना चाहते थे। मेरी दादी, कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य की सर्वप्रथम महिला स्नातकों में से एक थीं। वे महिलाओं की शिक्षा (women’s education), खासकर विधवा और परित्यक्त महिलाओं की शिक्षा, के लिए बहुत सक्रिय थीं। लड़कियों की शिक्षा (girls’ education) में मदद करने के लिए उन्होंने एक त्वरित स्कूल पाठ्यक्रम स्थापित करने की पहल की थी, जिसके तहत छात्राओं को 14 वर्ष की आयु तक अपना मैट्रिकुलेशन पूरी करने की इजाज़त थी। यह पाठ्यक्रम ‘महिला सेवा समाज’ द्वारा संचालित ‘विशेष अंग्रेज़ी स्कूल (Special English School)’ में चलाया गया था।

इस कोर्स के तहत मैंने और मेरे कुछ चचेरी-ममेरी बहनों ने पढ़ाई की। चूंकि मुझे अतीत की घटनाओं के बारे में पढ़ना और सीखना अच्छा लगता था, जो कि आज भी है, इसलिए स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैंने इतिहास (history) विषय करीब-करीब चुन ही लिया था। लेकिन चूंकि मुझे विज्ञान (science) और गणित (mathematics) भी अच्छा लगता था, इसलिए आखिरकार मैंने भौतिकी (physics) और गणित को आगे पढ़ाई के लिए चुना। हमारे घर में, कॉलेज और युनिवर्सिटी (university) जाना स्वाभाविक बात थी। मैं अपनी बीएससी (BSc) (ऑनर्स) और मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई के लिए मैसूर विश्वविद्यालय के बैंगलौर के सेंट्रल कॉलेज गई। इस पूरी पढ़ाई में मैंने हमेशा प्रथम श्रेणी हासिल की। और एमएससी के बाद भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science – IISc), बैंगलौर के तत्कालीन विद्युत प्रौद्योगिकी विभाग में नौकरी ले ली। मैंने विद्युत संचार (communication engineering) के क्षेत्र में एक शोध सहायक के रूप में काम किया।

द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के बाद भारत में अंग्रेज़ों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए एक अंतरिम सरकार की स्थापना की गई थी। इस सरकार ने प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों (young scientists) को विदेश में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की थी। मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स (electronics) और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में ऐसी ही एक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया था। 1946 में इस छात्रवृत्ति के लिए चयनित होने के बाद, मैं शीघ्र ही आगे की पढ़ाई के लिए एन आर्बर स्थित मिशिगन विश्वविद्यालय (University of Michigan) चली गई। तब मेरी उम्र 24-25 के आसपास ही थी। और तो और, मैं तब अविवाहित थी, लेकिन तब भी मेरे परिवार ने मेरे विदेश जाने पर कोई आपत्ति नहीं जताई! ध्यान रहे, यह आज से करीब 80 साल पहले की बात है! आज की कई युवा लड़कियां (young women), जो अपनी पसंद के कोर्स/विषय (courses/subjects) और करियर चुन सकती हैं, उन्हें शायद इस बात का अंदाज़ा न होगा कि उस समय महिलाओं को किस तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था, यहां तक कि विदेशों में भी। 1920 या 30 के दशक तक पश्चिमी देशों के कई विश्वविद्यालय महिलाओं को प्रवेश नहीं देते थे। मैं वास्तव में बहुत भाग्यशाली थी कि मुझे इस तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।

अमेरिका (United States) में इंजीनियरिंग (engineering) में मास्टर्स करना और बाद में पीएचडी (PhD) के लिए काम करना बहुत ही खुशगवार रहा, और उस दौरान मैंने कई चीज़ें सीखीं। मैंने और भी ज़्यादा खुली सोच रखना और नए विचारों के प्रति ग्रहणशील होना सीखा। मैंने सीखा कि अगर हम मन में ठान लें तो कुछ भी हासिल करना असंभव नहीं है। मैंने कई नए दोस्त बनाए और उनमें से कुछ के साथ कई सालों तक संपर्क बनाए रखा है। 1949 में अपनी मास्टर्स डिग्री हासिल करने के बाद मैं वॉशिंगटन डीसी में नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैंडर्ड्स में आठ महीने के रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए गई। सितंबर 1949 में, मैं बारबॉर छात्रवृत्ति (Barbour Scholarship) पर अपनी पीएचडी की पढ़ाई जारी रखने के लिए एन आर्बर वापस आ गई। वहां मेरे सलाहकार प्रोफेसर विलियम जी. डॉव थे, जिनका 1999 में 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

1953 में मैं भारत लौटी। यहां आकर मैं भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में शामिल हो गई, और एक सक्रिय शोध करियर शुरू किया। अपने परिवार के पूर्ण समर्थन के साथ, मैंने अपने एक सहकर्मी शिशिर कुमार चटर्जी से विवाह किया, और कई प्रोजेक्ट पर उनके साथ मिलकर काम भी किया। हमने अपना अधिकांश समय IISc के खूबसूरत माहौल में बिताया – या तो विभाग में या लायब्रेरी में। हमारी बेटी, जो अब अमेरिका में प्रोफेसर (professor in the US) है, ने अपना पूरा बचपन यहीं बिताया।

मेरे पति और मैं, हम दोनों कई प्रोजेक्ट लेते थे और हमने संयुक्त रूप से कई शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। हमने कई कोर्सेस, ज़्यादातर विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट(electron tube circuits),  माइक्रोवेव तकनीक(microwave technology) और रेडियो इंजीनियरिंग (radio engineering)  के पढ़ाए और इन पर कई किताबें भी लिखीं। मेरा मुख्य योगदान मुख्यत: विमान और अंतरिक्ष यान(aircraft and spacecraft), में उपयोग किए जाने वाले एंटीना(antennas)  \ के क्षेत्र में रहा है। 1994 में शिशिर के निधन के बाद भी मैंने इन विषयों पर किताबें लिखना जारी रखा, और विज्ञान तथा विशेष रूप से इंजीनियरिंग में अपनी रुचि बनाए रखी। मैंने 20 पीएचडी छात्र और छात्राओं को उनके काम में मार्गदर्शन दिया। मेरे कई छात्र-छात्राएं अपने-अपने क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए हैं, और भारत और विदेशों में डायरेक्टर और प्रोफेसर बने।

कई पुरस्कार और सम्मान मुझे मिले हैं। इनमें बीएससी (ऑनर्स) में प्रथम रैंक के लिए मुम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार, एमएससी में प्रथम रैंक के लिए एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार एवं वॉटर्स मेमोरियल पुरस्कार, इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ पेपर के लिए लॉर्ड माउंटबेटन पुरस्कार(Lord Mountbatten Award), इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए जे. सी. बोस मेमोरियल पुरस्कार और इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन इंजीनियर्स के सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं। इन सबसे बढ़कर, मैंने अपने कुछ छात्र-छात्राओं और कई युवाओं का साथ और स्नेह कमाया है। मैंने इन सभी से बहुत कुछ सीखा है, मेरे कई विचारों में बड़े-बड़े बदलाव आए हैं!

IISc से रिटायरमेंट के बाद, मैंने सामाजिक कार्यक्रमों पर काम करना शुरू किया, मुख्यत: इंडियन एसोसिएशन फॉर वीमन्स स्टडीज़ (Indian Association for Women’s Studies) के साथ। तब मैंने जाना कि कितनी महिलाओं ने जीवन में आगे बढ़ने के लिए तमाम बाधाओं के बावजूद कितना संघर्ष किया है, जिनका सामना हम जैसे कुलीन वर्ग के लोगों को शायद ही कभी करना पड़ा हो। मेरा मानना है कि हम सौभाग्यशाली थे तो वैज्ञानिक और इंजीनियर का यह मकाम हमने हासिल किया। और ऐसे  वैज्ञानिक और इंजीनियर होने के नाते हमें अपने से कम सुविधा प्राप्त लोगों की, खासकर महिलाओं की, अपने पसंदीदा विषय में अध्ययन करने, काम करने और आगे बढ़ने में हर संभव मदद करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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