प्रकृति में सोने के डले कैसे बनते हैं – माधव केलकर

सोना एक बहुमूल्य धातु है। दुनिया के सभी देश अपनी मुद्राओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निश्चित स्वर्ण भंडार बनाए रखते हैं। लेकिन धरती पर सोने की मौजूदगी बेहद कम है। दुनिया में सोने की खदानों पर एक नज़र डालेंगे तो चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, रूस जैसे देश सोने के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में सोने का उत्पादन कर्नाटक व आंध्रप्रदेश में मौजूद खदानों से होता है। कुछ प्रमुख तांबा खदानों में भी सोना मिलता है। वहीं झारखंड की स्वर्णरेखा नदी में बेहद कम मात्रा में रेत के साथ सोने के कण मिलते हैं इन्हें स्थानीय लोग रेत को धोकर-छानकर प्राप्त करते हैं। 

सोना उन धातुओं में शुमार है जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलता है। आम तौर पर तत्वों के अयस्क ऑक्साइड, कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड के रूप में मिलते हैं। जैसे हीमेटाइट, मैग्नेटाइट, सिडेराइट, पायराइट, चाल्कोपायराइट आदि। लेकिन सोना, चांदी शुद्ध (Pure Metal) रूप में भी मिलते हैं। साथ ही, अन्य अयस्कों के साथ भी मिल सकते हैं। जैसे सोना तांबे के अयस्क चाल्कोपायराइट के साथ भी मिलता है हालांकि चाल्कोपायराइट में सोने की मात्रा बेहद कम होती है। सोना जिस खनिज के साथ सबसे ज़्यादा मिलता है वह है क्वार्ट्ज़ (Quartz) यानी सिलिका का ऑक्साइड। क्वार्ट्ज़ धरती की सतह से कुछ किलोमीटर नीचे तक चट्टानों के रूप में पाया जाता है। क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के कण एकत्रित होते जाते हैं। इन दरारों तक कई खनिजों के तरल गरम मिश्रण, जिन्हें हाइड्रोथर्मल तरल (Hydrothermal Fluids) कहा जाता है, के साथ सोना इन क्वार्ट्ज़ दरारों तक आता है और इन दरारों में इकट्ठा होने लगता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सोने के बड़े-बड़े डिगले या डले बनते जाते हैं। 

क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के इस जमाव को लेकर काफी शोध एवं नए विचार सामने आए हैं। हाल में ही नेचर जियोसाइंस (Nature Geoscience) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धरती पर आने वाले भूकंप क्वार्ट्ज़ में आवेशों को उत्तेजित कर सकते हैं जिससे हाइड्रोथर्मल तरल में तैर रहे मुक्त सोने के कण क्वार्ट्ज़ पर एकत्रित होते जाते हैं। अभी तक इस परिकल्पना की जांच प्रयोगशाला स्तर पर करके देखी गई है। धरती के भूगर्भीय हालात में इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। 

सामान्य तौर पर सोने के बड़े डिगले या डले क्वार्ट्ज़ शिराओं या दरारों में पाए जाते हैं। भूवैज्ञानिक काफी पहले से यह जानते थे कि सोने से भरपूर हाइड्रोथर्मल तरल इन दरारों में जमा होते हैं। दरारों के बनने का सिलसिला धरती के भीतर उठने वाले भूकंप (Earthquakes) या विविध बलों की वजह से होता है। सोने के कण इस गरम तरल पदार्थ में घुले हुए नहीं होते बल्कि इसमें तैर रहे होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस गरम तरल में सोने की सांद्रता बहुत ज़्यादा होती हो। एक अनुमान है कि पांच स्वीमिंग पूल में मौजूद पानी के बराबर गरम तरल में एक किलो सोने की डली बनने लायक सोने के कण हो सकते हैं। 

सवाल यह है कि जब गरम तरल में सोने के कण इतने बिखरे-बिखरे हुए होते हैं तो ये चिपककर इतनी बड़ी डली कैसे बना लेते हैं। मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के भूविज्ञानी क्रिस्टोफर वोइसी और उनके सहकर्मियों को लगा कि इसका जवाब दाब-विद्युत यानी पीज़ोइलेक्ट्रिक (Piezoelectric Effect) प्रभाव में छुपा हो सकता है। 

क्वार्ट्ज़ एक पीज़ोइलेक्ट्रिक पदार्थ (Piezoelectric Material) है, यानी जब इस पर यांत्रिक तनाव (Mechanical Stress) आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्युत आवेश पैदा होता है। यह विद्युत तरल पदार्थ में मौजूद सोने के आयनों को ठोस सोना (Solid Gold) बनाने का कारण बन सकती है। ठोस सोना क्वार्ट्ज़ के विद्युत क्षेत्र में एक कंडक्टर के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे घोल में मौजूद अधिक सोने के आयन एक ही स्थान पर आकर्षित होते हैं और अंततः एक साथ चिपक जाते हैं। लेकिन क्या भूकंप क्वार्ट्ज़ में पर्याप्त पीज़ोइलेक्ट्रिक वोल्टेज स्थापित कर सकता है जिससे ऐसा सब घटित हो?  इसका परीक्षण करने के लिए, टीम ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को छोटे, स्वतंत्र रूप से तैरते सोने के कणों वाले घोल में डुबोया और भूकंपीय तरंगों की आवृत्ति जितनी सूक्ष्म तरंगों से क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल पर तनाव बनाया और हटाया। वोइसी और उनकी टीम ने पाया कि क्वार्ट्ज़ पर मामूली तनाव से भी क्रिस्टल की सतहों पर सोने के कण जमा हो जाते हैं। इस प्रयोग को कई बार दोहराने पर सोने के कणों का ढेर बड़ा होता जाता है। 

वोइसी कहते हैं कि यह भी संभव है कि पीज़ोइलेक्ट्रिक प्रभाव इन सोने की डलियों के बनने का केवल एक कारण हो, अन्य कारण खोजे जाने बाकी हैं। जब तक मनुष्य सोने को महत्व देते रहेंगे, तब तक सोने की डली बनने की खोज जारी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मशीन लर्निंग एवं कृत्रिम बुद्धि को नोबेल सम्मान

चक्रेश जैन

साल 2024 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों जॉन एच. हॉपफील्ड और जेफ्री ई. हिंटन को संयुक्त रूप से मिला है। यह पुरस्कार आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (Artificial Neural Network – ANN) के माध्यम से मशीन लर्निंग (Machine Learning) को सक्षम बनाने वाले बुनियादी सिद्धांत की नींव रखने के लिए दिया गया है। उन्होंने भौतिकी (Physics) के औज़ारों का उपयोग करके ऐसे तरीके विकसित किये हैं, जो मशीन लर्निंग की नींव साबित हुए हैं। आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क पर आधारित मशीन लर्निंग ने वर्तमान दौर में विज्ञान (Science), इंजीनियरिंग (Engineering) और रोज़मर्रा के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किया है। नोबेल सम्मान यह भी रेखांकित करता है कि हम विचारों के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहां आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क और मशीन लर्निंग समाज के लगभग हर क्षेत्र में हावी हो जाएंगे।

दोनों अध्ययनकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना बनाने वाले प्राकृतिक न्यूरल नेटवर्क अर्थात तंत्रिका कोशिकाओं को अत्यधिक गहराई और बारीकी से समझ कर कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क का सृजन किया है, जो स्मृतियों का संग्रह कर सकता है और वापिस पेश कर सकता है।

प्रोफेसर जॉन हॉपफील्ड ने एक ऐसी संरचना का सृजन किया है, जो जानकारियों का संग्रह और पुनर्प्राप्ति कर सकती है, जबकि जेफ्री हिंटन ने एक ऐसी विधि का आविष्कार किया है, जो स्वतंत्र रूप से डैटा में पैटर्न (Data Patterns) का पता लगा सकती है। यह अब लार्ज न्यूरल नेटवर्क के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहा है।

अधिकांश लोग जानते हैं कि कम्प्यूटर भाषाओं का अनुवाद, चित्रों की व्याख्या और तर्कपूर्ण संवाद कर सकता है। लेकिन कुछ ही लोगों को इस तरह की प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी है, जो लंबे समय से अनुसंधान कार्य के लिए अहम रही है।

विगत 15-20 वर्षों में मशीन लर्निंग का व्यापक पैमाने पर विकास हुआ है। इसमें आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क संरचना का उपयोग किया गया है। वर्तमान में जब हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial Intelligence – AI) यानी कृत्रिम बुद्धि की बात करते हैं, तो इसका अभिप्राय इसी प्रौद्योगिकी से है। हालांकि कंप्यूटर सोचने में सक्षम नहीं रहे हैं, लेकिन ये आधुनिक मशीनें अब स्मृति संजोने और सीखने जैसे कार्यों की नकल कर सकती हैं।

यहां एक बात पर गौर करने की ज़रूरत है। मशीन लर्निंग, पारम्परिक सॉफ्टवेयर से भिन्न है। 

आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क सम्पूर्ण नेटवर्क संरचना का उपयोग कर सूचनाएं प्रोसेस करता है। एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क में न्यूरॉन्स को अलग-अलग मान वाले बिंदुओं अथवा नोड्स के रूप में दिखाया जाता है। ये बिंदु कनेक्शन के ज़रिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। 

सन 1980 में हॉपफील्ड ने कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क विकसित किया और इसे ‘हॉपफील्ड नेटवर्क’ (Hopfield Network) नाम दिया गया। उन्हें इसकी प्रेरणा भौतिकी के एटामिक स्पिन (Atomic Spin) से मिली थी। यह तरीका मनुष्य के मस्तिष्क के पेटर्न की विशिष्टताओं जैसे सूचना संग्रह और पुनर्प्राप्ति की नकल करने में पूरी तरह सक्षम था। 

बाद में प्रोफेसर हिंटन ने प्रोफेसर हॉपफील्ड के अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए परिष्कृत कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क बनाया, जिसे बोल्ट्जमैन मशीन (Boltzmann Machine) कहा जाता है। इसमें कंप्यूटेशनल त्रुटियों को पकड़ने और उन्हें ठीक करने के लिए ‘हिडन लेयर्स’ (Hidden Layers) का उपयोग किया जाता है।

पुरस्कार की सूचना मिलने पर जेफ्री हिंटन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि एआई प्रौद्योगिकी (AI Technology) के वर्चस्व और विस्तार से मनुष्य के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी तुलना औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) से की जा सकती है। इससे रोज़गार (Jobs) के अवसरों पर विपरीत असर पड़ेगा। कुछ चीज़ें मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हो जायेंगी। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) के दुष्परिणामों पर चिंता जताते हुए बताया कि अंततः एआई मनुष्य को पीछे छोड़कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगी।

हिंटन ने एआई के कुछ अच्छे पहलुओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि कई मायनों में यह प्रौद्योगिकी अद्भुत है। इससे हेल्थकेयर (Healthcare) के क्षेत्र में उल्लेखनीय बदलाव आयेगा। बेहतर डिजिटल सहायकों (Digital Assistants) का सृजन किया जा सकेगा। उत्पादकता (Productivity) के क्षेत्र में अत्यधिक सुधार होगा। हिंटन ने यह भी कहा है कि उन्होंने गूगल की नौकरी से इस्तीफा इसीलिए दिया, ताकि वे एआई से जुड़े विवादित मुद्दों पर लोगों के साथ खुलकर चर्चा कर सकें। 

गुज़रे साल 2023 में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित लार्ज लैंग्वेज मॉडल (Artificial Intelligence based Large Language Model – LLM) चैटजीपीटी (ChatGPT) दुनिया भर में चर्चा के केन्द्र में रहा है। दरअसल, चैटजीपीटी मॉडल कृत्रिम बुद्धि (जनरेटिव एआई – Generative AI) की देन है। चैटजीपीटी के विकास में हिंटन की अहम भूमिका रही है। चैटजीपीटी का उपयोग शोध पत्र लेखन (Research Paper Writing) से लेकर मौसम की भविष्यवाणी (Weather Prediction) तक में हो रहा है। सच तो यह है कि इसके उपयोगों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के कंप्यूटर वैज्ञानिक प्रोफेसर मिशेल वुडरिज (Professor Michael Wooldridge) ने पुरस्कार को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि एआई से विज्ञान का रूपांतरण हो रहा है। न्यूरल नेटवर्क पर शोध में मिली सफलताओं ने सूचनाओं के विश्लेषण को बेहद आसान बना दिया है। विज्ञान जगत का कोई ऐसा कोना अथवा विषय नहीं रहा है, जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अछूता बचा हो।

भौतिकी नोबेल समिति (Physics Nobel Committee) के चेयरमैन एलन मूंस (Alan Moons) का कहना है कि कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क ‘एएनएन’ का उपयोग पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics), माद्द विज्ञान (Material Science) और खगोल भौतिकी (Astrophysics) में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। यह हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है, जिसके उदाहरण अनुवाद कार्य (Translation Work) और चेहरे की पहचान (Face Recognition) के रूप में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीन नियमन के एक नए रास्ते की खोज के लिए नोबेल

डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का चिकित्सा अथवा कार्यिकी क्षेत्र का नोबेल सम्मान दो वैज्ञानिकों – विक्टर एम्ब्रोस तथा गैरी रुवकुन – को संयुक्त रूप से कोशिका के कामकाज के नियमन सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान के लिए दिया गया है। 

यह तो आज जीव विज्ञान (biology research) में सर्वमान्य तथ्य है कि गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम्स (chromosomes) सजीवों की कोशिकाओं के लिए एक निर्देश पत्र के समान होते हैं। इन गुणसूत्रों में डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए) (DNA structure) के रूप में सारी सूचनाएं अंकित होती हैं। प्रत्येक सूचना खंड को जीन (genes) कहते हैं। यह भी ज़ाहिर है कि किसी भी सजीव की सारी कोशिकाओं में एक-से गुणसूत्र पाए जाते हैं। अर्थात हर कोशिका में संचालन के लिए निर्देश पत्र (जीन्स) एक ही होता है। फिर भी हर किस्म की कोशिकाएं अलग-अलग काम करती हैं। तो यह कैसे संभव होता है? इसका जवाब जीन नियमन (gene regulation) की प्रक्रिया में निहित है। इसी के परिणामस्वरूप हर किस्म की कोशिका में जीन्स का अलग-अलग समुच्चय सक्रिय होता है। 

एम्ब्रोस और रुवकुन ने जीन नियमन (gene expression) की इस प्रणाली का खुलासा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका यह अनुसंधान लगभग 30 वर्षों के अंतराल के बाद पुरस्कृत हुआ है। कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना डीएनए (DNA transcription) में संग्रहित होती है। इसे संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में नकल किया जाता है। इस प्रक्रिया को प्रतिलेखन (transcription process) कहते हैं। यह एमआरएनए कोशिका की अन्य मशीनरी की मदद से सम्बंधित प्रोटीन (protein synthesis) का निर्माण करवाता है। इस प्रक्रिया को अनुलेखन कहते हैं। यह अत्यंत सटीकता से की जाती है ताकि डीएनए के जीन में अंकित सूचना के आधार पर प्रोटीन बने। विभिन्न किस्म की कोशिकाओं में एक-सी आनुवंशिक सूचना (genetic code) होने के बावजूद वे एकदम अलग-अलग काम करती हैं, उनमें अलग-अलग प्रोटीन का निर्माण होता है। अर्थात उनमें अलग-अलग जीन्स अभिव्यक्त (gene expression regulation) होते हैं। तभी तो मांसपेशियों की कोशिकाएं, पैंक्रियास की कोशिकाएं, आंतों की कोशिकाएं सर्वथा भिन्न-भिन्न काम कर पाती हैं। इसके अलावा एक मसला यह भी है कि हरेक कोशिका को शरीर की स्थिति और पर्यावरण के हिसाब से अपने कामकाज का तालमेल बनाना पड़ता है। और यह सब होता है जीन नियमन के द्वारा। यदि जीन नियमन गड़बड़ हो जाए तो तमाम किस्म की दिक्कतें पैदा होने लगती हैं। जैसे कैंसर (cancer research), डायबिटीज़ (diabetes research) वगैरह। 

तो जीन नियमन (gene regulation research) को समझना जीव विज्ञान में एक महत्वपूर्ण अनुसंधान क्षेत्र रहा है। 1960 के दशक में यह दर्शाया गया था कि कुछ विशेष प्रोटीन्स (proteins) इस बात का नियमन करते हैं कि कौन-से एमआरएनए का निर्माण होगा। इन्हें प्रतिलेखन कारक (transcription factors) कहते हैं। इस समझ के बाद हज़ारों प्रतिलेखन कारक खोजे जा चुके हैं और यह लगभग मान लिया गया था कि जीन नियमन की गुत्थी को सुलझा लिया गया है। लेकिन… 

जी हां, लेकिन। 1993 में इस वर्ष के नोबेल विजेताओं ने ऐसी अनपेक्षित खोज (Nobel Prize discovery) का प्रकाशन किया जिसने जीन-नियमन के सर्वथा नए स्तर को उजागर किया। यह अनुसंधान एक नन्हे कृमि सीनोरेब्डाइटिस एलेगेंस (Caenorhabditis elegans) की मदद से हुआ था। 

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं।

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल (model organism) माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं। 

एम्ब्रोस और रुवकुन की रुचि विभिन्न जेनेटिक प्रोग्राम्स (genetic programs) के सक्रिय होने के समय को नियंत्रित करने वाले जीन्स में थी। इन्हीं के द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि विभिन्न किस्म की कोशिकाएं सही समय पर विकसित हों। इस काम के लिए उन्होंने सी. एलेगेंस के उत्परिवर्तित रूपों को चुना। इन्हें lin-4 और lin-14 कहते हैं। इन दोनों में विकास के दौरान जेनेटिक प्रोग्राम्स के क्रियाशील होने के समय में गड़बड़ी देखने को मिलती थी। हमारे इस वर्ष के नोबेल विजेता इनमें उपस्थित उत्परिवर्तित जीन्स की शिनाख्त करना चाहते थे और उनकी क्रियाविधि को समझना चाहते थे। 

एम्ब्रोस पहले ही यह दर्शा चुके थे कि lin-4 जीन lin-14 जीन की सक्रियता को बाधित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वह ऐसा कैसे करता है। एम्ब्रोस और रुवकुन इसी गुत्थी को सुलझाने में भिड़ गए। 

एम्ब्रोस ने lin-4 उत्परिवर्तित कृमि का अध्ययन किया। उन्होंने इस जीन का क्लोन बनाया तो विचित्र परिणाम प्राप्त हुए। lin-4 जीन ने एक ऐसे आरएनए (RNA regulation) का निर्माण किया जो असाधारण रूप से छोटा था और वह किसी प्रोटीन का कोड नहीं था। एक अनुमान था कि यही लघु आरएनए दूसरे जीन lin-14 को बाधित करने के लिए ज़िम्मेदार है। 

लगभग इसी समय रुवकुन ने lin-14 जीन के नियमन की खोजबीन शुरू की। उस समय जीन नियमन की जो प्रणाली ज्ञात थी उसमें यह होता था कि किसी जीन द्वारा निर्मित संदेशवाहक आरएनए (messenger RNA) किसी दूसरे जीन द्वारा एमआरएनए के निर्माण को बाधित करता है। लेकिन रुवकुन ने दर्शाया कि lin-4 जीन lin-14 जीन की क्रिया में बाधा एमआरएनए के निर्माण के दौरान नहीं पहुंचाता है बल्कि बाद के किसी चरण में पहुंचाता है। वह चरण होता है प्रोटीन के निर्माण का। शोध से यह भी पता चला कि lin-14 जीन का एक खंड lin-4 जीन की क्रिया को बाधित करने के लिए अनिवार्य होता है। 

जब एम्ब्रोस और रुवकुन ने अपने परिणामों को जोड़कर देखा तो एक ज़ोरदार खोज (breakthrough discovery) सामने आई। lin-4 का एक खंड हूबहू lin-14 के निर्णायक खंड से मेल खाता है। आगे किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि lin-4 द्वारा बनाया गया माइक्रो-आरएनए (micro-RNA) जाकर lin-14 द्वारा बनाए गए एमआरएनए के पूरक अनुक्रम से जुड़ जाता है और उसके द्वारा प्रोटीन निर्माण को रोक देता है। तो इस प्रकार जीन नियमन का एक नया सिद्धांत उभरा – जिसे माइक्रो-आरएनए (microRNA regulation) के माध्यम से क्रियांवित किया जाता है। 

1993 में सेल पत्रिका में प्रकाशित इन निष्कर्षों पर वैज्ञानिकों ने यह कहकर ध्यान नहीं दिया कि ये शायद महज़ सी. एलेगेंस कृमि के संदर्भ में हैं। लेकिन वर्ष 2000 में यह मत बदलने लगा जब रुवकुन के समूह ने एक और माइक्रो-आरएनए की खोज (microRNA discovery) का प्रकाशन किया। यह माइक्रो-आरएनए एक अन्य जीन let-7 द्वारा बनाया जाता है। ध्यान खींचने वाली बात यह थी कि let-7 जीन समूचे जंतु जगत में पाया जाता है। इस खोज के प्रकाशन के बाद तो सैकड़ों माइक्रो-आरएनए पहचाने गए और आज हम मनुष्य में माइक्रो-आरएनए (human microRNA genes) बनाने वाले एक हज़ार से ज़्यादा जीन्स जानते हैं। और यह भी ज्ञात हो चुका है कि माइक्रो-आरएनए द्वारा जीन्स का नियमन बहु-कोशिकीय जीवों में सर्वत्र पाया जाता है। 

1993 में हुई इस महत्वपूर्ण खोज (important discovery) के लिए नोबेल पुरस्कार 30 से अधिक वर्षों बाद दिया गया है। इस बीच कई सारे समूहों ने यह पता लगा लिया है कि माइक्रो-आरएनए का निर्माण कैसे होता है और उन्हें उनकी पूरक शृंखला तक कैसे पहुंचाया जाता है। जब माइक्रो-आरएनए जाकर एमआरएनए के पूरक खंड से जुड़ जाता है तो या तो वह एमआरएनए प्रोटीन का संश्लेषण नहीं करवा पाता है या उसका विघटन हो जाता है। यह भी पता चल चुका है कि एक अकेला माइक्रो-आरएनए कई सारे अलग-अलग जीन्स की अभिव्यक्ति (gene expression) का नियमन कर सकता है और कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति का नियमन एक से अधिक माइक्रो-आरएनए कर सकते हैं। 

माइक्रो-आरएनए निर्माण की क्रियाविधि का इस्तेमाल कई अन्य लघु आरएनए के निर्माण में भी किया जाता है जो प्रोटीन का संश्लेषण करवा सकते हैं। जैसे ये लघु आरएनए पौधों को वायरस संक्रमण से बचाते हैं। इसी संदर्भ में आरएनए इंटरफेरेंस (RNA interference) की प्रक्रिया की खोज के लिए 2006 में नोबेल सम्मान मिल चुका है। 

माइक्रो-आरएनए के शरीर क्रियात्मक असर काफी व्यापक हैं। ज़ाहिर है, जटिलतम होते गए सजीवों का विकास इन्हीं के दम पर हुआ है। काफी शोध की बदौलत हम जानते हैं कि माइक्रो-आरएनए की अनुपस्थिति में कोशिकाएं और ऊतक सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाते। यदि माइक्रो-आरएनए नियमन गड़बड़ा जाए तो कैंसर जैसी समस्याएं (cancer-related issues) पैदा हो सकती हैं। मनुष्यों में माइक्रो-आरएनए के उत्परिवर्तित जीन्स पाए गए हैं जो कई दिक्कतों को जन्म देते हैं। 

कुल मिलाकर कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना के नियमन (genetic information regulation) को लेकर एक बुनियादी जिज्ञासा से प्रेरित एम्ब्रोस और रुवकुन ने एक कृमि पर शोध की मदद से ऐसी असाधारण खोज (extraordinary discovery) की जिसने जीन नियमन का एक नया आयाम उजागर किया जो बहु-कोशिकीय जीवों के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना के लिए नोबेल

चक्रेश जैन

साल 2024 का रसायन नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से दिया गया है। तीनों वैज्ञानिकों ने प्रोटीन की संरचना (Protein Structure) अथवा बनावट समझने और पूर्वानुमान के लिए कंप्यूटर टूल्स (Computer Tools) और कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence – AI) तकनीकों का उपयोग किया है। 

गूगल डीप माइंड (Google DeepMind) के डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने एआई मॉडल अल्फाफोल्ड (AlphaFold AI Model) के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है, जिसकी सहायता से प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी की जा सकती है। पुरस्कार की आधी राशि इन दोनों वैज्ञानिक को दी जाएगी। पुरस्कार की शेष आधी राशि डेविड बेकर को मिलेगी। बेकर ने कंप्यूटेशनल रिसर्च (Computational Research) के ज़रिए बिलकुल नए प्रकार के प्रोटीन डिज़ाइन किए हैं। इनका उपयोग टीकों (Vaccines), नैनो पदार्थ (Nanomaterials), सूक्ष्म संवेदकों और औषधियों (Drugs) में संभव है। 

1976 में जन्मे हस्साबिस ने युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें अल्फाफोल्ड मॉडल पर शोध के लिए ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कार (Breakthrough Prize) सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। 

1985 में जन्मे जॉन जम्पर ने 2017 में शिकागो युनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका *नेचर* ने साल 2021 में टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया था। 

डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर दोनों ही लंदन स्थित एक ही कंपनी गूगल डीप माइंड से जुड़े हुए हैं। 

डेविड बेकर को पुरस्कार नए प्रोटीन (New Protein Design) के निर्माण की असंभव लगने वाली उपलब्धि के लिए दिया गया है। डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को अल्फाफोल्ड नाम के एआई मॉडल (AI Model for Protein Structure) का विकास और उसका उपयोग करके प्रोटीन की जटिल संरचनाओं की भविष्यवाणी करने की आधी सदी पुरानी समस्या के समाधान के लिए दिया गया है। 

किसी प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना को निर्धारित करने के जटिल व लंबी अवधि तक चलने वाले प्रयोगों की आवश्यकता होती थी। प्रोटीन का कार्य उसकी त्रि-आयामी रचना से ही निर्धारित होता है। 

प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्लों (Amino Acids) की एक लंबी शृंखला से बने होते हैं। पहला काम होता है किसी प्रोटीन में इन अमीनो अम्लों का अनुक्रम (Amino Acid Sequence) पता करना। किसी प्रोटीन में अमीनो अम्ल के अनुक्रम के बारे में जान जाने के बाद भी वह शृंखला विभिन्न ढंग से तह होकर कई आकृतियां ग्रहण कर सकती है। प्रोटीन की इस तह की हुई त्रि-आयामी संरचना का निर्धारण अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होता है।

मिसाल के तौर पर अगर किसी प्रोटीन में केवल 100 अमीनो अम्ल हों, तो वह कम-से-कम 1047 विभिन्न त्रि-आयामी संरचनाएं ग्रहण कर सकता है। कुछ वर्षों पहले तक मनुष्यों में पाए जाने वाले करीब 20,000 प्रोटीनों में से केवल एक-तिहाई की संरचना ही प्रयोगशाला के स्तर पर आंशिक रूप से निर्धारित की गई थी।

अल्फाफोल्ड (AlphaFold) ने अब तक लगभग दस लाख प्रजातियों में लगभग 20 करोड़ प्रोटीन (Proteins) की त्रि-आयामी संरचनाओं की भविष्यवाणी की है। 

2018 में हस्साबिस और जम्पर ने प्रोटीन संरचना के पूर्वानुमान में 60 प्रतिशत की सटीकता प्राप्त कर ली थी। सन 2020 में एआई मॉडल के प्रदर्शन की तुलना एक्स-रे क्रिस्टेलोग्रॉफी (X-Ray Crystallography) से की गई थी। एक्स-रे क्रिस्टेलोग्राफी प्रोटीन संरचना पता करने की एक और विधि है। हालांकि यह एआई मॉडल अभी भी पूरी तरह मुकम्मल नहीं है, परन्तु यह इस बात का अनुमान लगाता है कि जो संरचना प्रस्तावित की गई है, वह कितनी सही है। 

वर्ष 2021 से अल्फाफोल्ड मॉडल का कोड (AlphaFold Code) सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। इस एआई उपकरण का उपयोग 190 देशों के बीस लाख से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। 

बेकर ने अमीनो अम्ल के अनुक्रमों के आधार पर प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी करने की बजाय नई प्रोटीन संरचनाओं (New Protein Structures) का सृजन किया। उन्होंने अपने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर रोसेटा (Rosetta Software) का उपयोग ऐसे नए प्रोटीनों का निर्माण करने के लिए किया, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। बेकर ने ज्ञात प्रोटीन संरचनाओं के डैटाबेस की खोज और समानता वाले प्रोटीनों के छोटे टुकड़ों की तलाश करके अमीनो अम्ल का अनुक्रम निर्धारित करने में रोसेटा का उपयोग किया है। 

प्रोटीन सजीवों में होने वाली सभी प्रकार की रासायनिक अभिक्रियाओं को नियंत्रित और संचालित करते हैं। प्रोटीन अणु, हारमोन्स (Hormones), एंटीबॉडीज़ (Antibodies) और विभिन्न ऊतकों में बिल्डिंग ब्लॉक (Building Blocks) की भूमिका भी निभाते हैं। प्रोटीन आकृति में फीते की तरह होते हैं और अमीनो अम्लों की लंबी शृंखला से बने होते हैं। सामान्य तौर पर प्रोटीन 20 अलग-अलग प्रकार के अमीनो अम्लों से बनते हैं। प्रोटीन की लंबी शृंखला को तह करके त्रि-आयामी संरचना बनाई जा सकती है।   

सन् 1970 से वैज्ञानिक प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी पर अनुसंधान कर रहे हैं। इस विषय पर शोधकार्य की रफ्तार बेहद धीमी रही है। लेकिन साल 2020 में अनुसंधानकर्ताओं को बड़ी सफलता मिली जब प्रोफेसर हस्साबिस और जॉन जम्पर ने कृत्रिम बुद्धि (AI) की सहायता से अल्फाफोल्ड-2 (AlphaFold-2) के विकास की घोषणा की थी। प्रोफेसर जॉन जम्पर ने संवाददाताओं के सवालों का उत्तर देते हुए बताया कि डीप लर्निंग मॉडल (Deep Learning Model) ने जीव विज्ञान की जटिलताओं के समाधान में सही डैटा (Data) उपलब्ध कराया है। उन्होंने बताया कि अल्फाफोल्ड-2 का विभिन्न तरह से उपयोग किया गया है। इनमें बीमारियों के हमले से मुकाबला करने की क्षमता और प्लास्टिक के विघटन में भूमिका निभाने वाले एंजाइम (Enzymes) शामिल हैं। 

हस्साबिस का कहना है कि अल्फाफोल्ड मॉडल की खोज को एआई की विपुल संभावनाओं (AI Potential) के प्रमाण के तौर पर देखना चाहिए। इससे न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान की रफ्तार तेज़ होगी, बल्कि समाज को भी लाभ मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपका टूथब्रश सैकड़ों वायरसों का अड्डा है

क्या आप जानते हैं कि आपके टूथब्रश (Toothbrush) और शॉवरहेड (Showerhead) में सैकड़ों वायरस (Viruses) हो सकते हैं? लेकिन घबराने की कोई ज़रूरत नहीं! बैक्टीरियोफेज (Bacteriophages) नामक ये वायरस सिर्फ बैक्टीरिया (Bacteria) को संक्रमित करते हैं, इंसानों को इससे कोई खतरा नहीं हैं। उल्टा ये वायरस हमें खतरनाक, दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Drug-Resistant Bacteria) से लड़ने के नए तरीके खोजने में मदद कर सकते हैं। 

नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की एरिका हार्टमैन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने आम घरेलू सतहों पर वायरस की अदृश्य दुनिया की अधिक जानकारी के लिए अमेरिकी घरों से 92 शॉवरहेड और 36 टूथब्रश का अध्ययन किया। उन्नत डीएनए अनुक्रमण तकनीकों (DNA Sequencing) का उपयोग करके, इन नमूनों में उन्होंने 600 से अधिक विभिन्न प्रकार के बैक्टीरियोफेज (Phages) पाए। इनमें से ज़्यादातर वायरस टूथब्रश में पाए गए और वहां मिले कई वायरस तो विज्ञान के लिए सर्वथा नए थे। 

बैक्टीरियोफेज आम तौर पर दो में से किसी एक तरीके से कार्य करते हैं: वे या तो बैक्टीरिया की मशीनरी को हाईजैक (Hijack Bacterial Machinery) कर लेते हैं और अपनी प्रतियां बनाकर अंतत: मेज़बान बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं, या वे बैक्टीरिया के जीनोम (Bacterial Genome) में एकीकृत हो जाते हैं और बैक्टीरिया के व्यवहार को बदल देते हैं। ये वायरस संभवत: हमारे घरों में रसोई के सिंक (Kitchen Sink) या रेफ्रिजरेटर जैसी अन्य नम सतहों पर भी मौजूद होते हैं। 

यह अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि बैक्टीरियोफेज रोज़मर्रा के वातावरण (Everyday Environment) में कैसे काम करते हैं, जिससे शोधकर्ताओं को आसपास छिपी हुई सूक्ष्मजीवी दुनिया (Microbial World) को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैक गिल्बर्ट इसे एक ‘आकर्षक संसाधन’ के रूप में देखते हैं जो हमारे घरों के अंदर फेज गतिविधि (Phage Activity) के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करता है। 

इस शोध की एक दिलचस्प संभावना यह भी है कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Antibiotic-Resistant Bacteria) से निपटने के लिए नए खोजे गए बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया जा सकता है। जब एंटीबायोटिक्स विफल हो जाते हैं, तो इंजीनियर्ड बैक्टीरियोफेज (Engineered Phages) का उपयोग कभी-कभी इन सुपरबग्स (Superbugs) को मारने के लिए किया जा सकता है। यह उपचार के लिए एक आशाजनक विकल्प प्रदान करता है। 

सारत: साधारण-सा दिखने वाला टूथब्रश अदृश्य वायरसों (Invisible Viruses) से भरा और चिकित्सा में उपयोगी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन: कार्बन हटाने की बजाय उत्सर्जन घटाएं

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विरुद्ध वैश्विक जंग में, वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 Removal) को हटाने की तकनीकों पर ध्यान बढ़ रहा है। लेकिन उभरते शोध से पता चलता है कि इन तकनीकों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे ग्रह (Planetary Health) को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। 

वर्ष 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) में वैश्विक तापमान वृद्धि (Global Warming) को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और यथासंभव 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया था। अधिकांश जलवायु मॉडल (Climate Models) का अनुमान है कि कार्बन हटाने की विभिन्न तकनीकों से तापमान कम तो होगा लेकिन पूर्व निर्धारित सीमा को पार कर जाएगा। 

अब बड़ा सवाल यह है कि इस सीमापार (1.5 डिग्री से अधिक) अवधि के दौरान क्या हो सकता है? नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित कार्ल-फ्रेडरिक श्लूसनर के नेतृत्व में किया गया एक नया अध्ययन संभावित परिणामों पर प्रकाश डालता है। यदि हम तापमान (Global Temperature) को वापस नीचे लाने में सफल हो भी जाएं, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के प्रभाव गंभीर और दीर्घकालिक होंगे, जिससे आने वाले दशकों तक लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystems) दोनों पर असर पड़ेगा। 

तापमान में वृद्धि का खतरा (Temperature Rise Risks) 

तापमान में वृद्धि का मतलब है कि अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा (Temperature Threshold) को पार करना और फिर बाद में वैश्विक तापमान को कम करना। श्लूसनर के शोध में चेतावनी दी गई है कि इस तरह की वृद्धि से भीषण तूफान (Extreme Weather Events) और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं हो सकती हैं तथा जंगल और कोरल रीफ (Coral Reefs) जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो सकता है। 

इसके अलावा, तापमान वृद्धि से पृथ्वी के जलवायु तंत्र (Climate Systems) का नाकाबिले-पलट बिंदु तक पहुंचने का जोखिम बढ़ सकता है। मसलन, उच्च तापमान ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर (Greenland Ice Sheet) का ढहना या अमेज़ॉन वर्षावन (Amazon Rainforest) के अपरिवर्तनीय पतन शुरू कर सकता है। भले ही हम बाद में वैश्विक तापमान कम करने में कामयाब हो जाएं लेकिन उससे पहले ही काफी स्थायी नुकसान हो चुका होगा। 

कार्बन हटाना: आसान काम नहीं (Carbon Removal Challenges) 

हालांकि, पेड़ लगाना या कार्बन कैप्चर (Carbon Capture) जैसे तरीके समाधान का हिस्सा हैं, लेकिन ये अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। श्लूसनर की टीम के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें वर्ष 2100 तक वायुमंडल से 400 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड (Gigaton CO2) हटाना होगा जो कि एक कठिन चुनौती होगी। 

यदि बड़े पैमाने पर कार्बन हटाना (Carbon Sequestration) संभव हो जाए, तो भी तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण होने वाले कुछ बदलाव स्थायी हो सकते हैं। बढ़ता समुद्र स्तर (Sea Level Rise), जलवायु क्षेत्रों में बदलाव और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जारी रह सकते हैं, जिससे कृषि जैसे कारोबरों के लिए अनुकूलन करना कठिन हो जाएगा। 

नैतिक चिंताएं (Ethical Concerns) 

अध्ययन में उठाया गया एक और मुद्दा नैतिकता का है। एक बड़ा सवाल यह है कि तापमान में वृद्धि (Temperature Increase) के दौरान और उसके बाद जलवायु प्रभावों का खामियाजा कौन भुगतेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार कम आय वाले देश (Low-Income Nations) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र पहले से ही इंतहाई मौसम और पर्यावरणीय क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, और तापमान में वृद्धि से उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी। 

उत्सर्जन रोकना आवश्यक है (Emission Reduction Necessary) 

लक्ष्य से अधिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि उत्सर्जन करने के बाद कार्बन डाईऑक्साइड हटाने पर। विशेषज्ञ सरकारों (Government Policies) और उद्योगों द्वारा उत्सर्जन में भारी कटौती करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। 

यू.के. ने हाल ही में अपने अंतिम कोयला-चालित बिजली संयंत्र (Coal Plants) को बंद किया है और अगले 25 वर्षों में कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियों (Carbon Capture and Storage) में 22 अरब पाउंड (करीब 230 अरब रुपए) का निवेश करने की घोषणा की है। आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे इन प्रयासों का उद्देश्य जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाना है। 

अलबत्ता, ये केवल शुरुआती प्रयास हैं। वैश्विक नेताओं को, विशेष रूप से आगामी कोप 29 (COP29) शिखर सम्मेलन में, 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए उत्सर्जन में कटौती (Emission Reduction Targets) को प्राथमिकता देनी चाहिए। कार्रवाई में देरी करना और भविष्य में कार्बन हटाने पर निर्भर रहना एक जोखिम भरी रणनीति है जो लोगों और ग्रह दोनों के लिए विनाशकारी हो सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानवीकृत चूहे महामारी से बचाएंगे

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क्या कोविड-19 जैसी महामारी फिर से आ सकती है? इस बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि महामारी का उभरना संयोगवश होने वाली एक घटना है, और यह कहीं भी और कभी भी घट सकती है। महामारी की संभावनाएं विशेषकर वहां ज्यादा होती है जहां लोग पालतू या जंगली जानवरों के निकट संपर्क में रहते हैं। लिहाज़ा, आगामी महामारी से बचाव के लिए ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी (La Jolla Institute for Immunology) के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) से सबक सीखकर एक नया औज़ार विकसित किया है। उन्होंने मानवीकृत (humanized) चूहों की छह प्रजातियां विकसित की हैं, जो कोविड-19 के मामलों के अध्ययन (COVID-19 research) के लिए मूल्यवान मॉडल के रूप में काम कर सकती हैं।

क्या हैं मानवकृत चूहे?

मानवीकृत चूहा (humanized mouse) एक ऐसा चूहा है जिसमें किसी मनुष्य का डीएनए, कोई ऊतक, ट्यूमर, या माइक्रोबायोम (microbiome) प्रत्यारोपित किया गया हो। ऐसे मानवकृत चूहों में पूर्ण विकसित कार्यकारी मानव प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) विकसित हो जाती है। इनमें लसिका ग्रंथियां, थायमस और मानव ‘टी’ और ‘बी’ प्रतिरक्षी कोशिकाएं सम्मिलित हैं। मानवीकृत चूहों का उपयोग मनुष्यों को होने वाले रोगों जैसे कैंसर (cancer), संक्रामक रोगों (infectious diseases) और एलर्जी (allergies) आदि का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। मानवीकृत चूहे मानव शरीर के अधिक उपयुक्त अनुसंधान मॉडल हो सकते हैं। वे शोधकर्ताओं को मानव विकास और बीमारी को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं, और अंतत: हम सामान्य चिकित्सा के बजाय पिन-पॉइंटेड व्यक्तिगत चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं। 

उदाहरण के लिए एक प्रचलित मानवीकृत चूहा है PDX (Patient Derived Xenograft)। यह ऐसा चूहा है जिसमें मानव ट्यूमर (human tumor) प्रत्यारोपित किया जाता है। इस प्रकार के चूहे कैंसर के फैलाव (cancer spread) और नई कैंसर दवाओं के प्रारंभिक परीक्षण (cancer drug trials) करने के लिए प्रयुक्त होते हैं।

इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक किसी मरीज़ से ट्यूमर निकाल कर उसे टुकड़ों में काट सकते हैं और प्रत्येक टुकड़े को कई भिन्न-भिन्न चूहों में डाल सकते हैं। प्रत्येक टुकड़ा एक-एक नया ट्यूमर बनता है और फिर उसे विभाजित करके अनेक चूहों में डाला जा सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा, दर्जनों मानवीकृत (humanized) चूहे बनाए जाते हैं, जिनका ट्यूमर (tumor) मूल मानव रोगी के ट्यूमर के लगभग समान होता है। वैज्ञानिक ऐसे PDX चूहों (PDX mice) के विभिन्न समूहों का वैकल्पिक दवाओं, दवा के विभिन्न संयोजनों और अनुक्रमों के साथ इलाज कर सकते हैं। इससे उन्हें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि किसी विशेष ट्यूमर को खत्म करने के लिए कौन सी दवा (drug) या उसका संयोजन सबसे अच्छा काम करता है।

महामारी अनुसंधान में महत्ता 

मानवीकृत चूहों के नए मॉडल इस बात पर प्रकाश डालने में मदद कर सकते हैं कि SARS-CoV-2 शरीर में कैसे फैलता है और अलग-अलग लोगों को कोविड-19 (COVID-19) के भिन्न-भिन्न लक्षण क्यों होते हैं। 

ईबायोमेडिसिन पत्रिका (eBioMedicine journal) में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये चूहा मॉडल कोविड-19 अनुसंधान (COVID-19 research) में इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी कोशिकाओं को इस तरह इंजीनियर किया गया था कि उनमें ऐसे दो महत्वपूर्ण अणु (molecules) बनते थे जो मानव कोशिकाओं में SARS-CoV-2 संक्रमण (SARS-CoV-2 infection) में भूमिका निभाते हैं। इन मानवीकृत चूहों को प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) की दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के तहत तैयार किया गया था। 

इन चूहा मॉडल्स की मदद से हम महामारी की दृष्टि से प्रासंगिक SARS-CoV-2 संक्रमण और टीकाकरण (vaccination) के परिदृश्य को मॉडल कर सकते हैं, और हम संक्रमण और टीकाकरण के बाद विभिन्न समयों पर मात्र रक्त नहीं बल्कि विभिन्न प्रासंगिक ऊतकों का अध्ययन कर सकते हैं। 

इन मॉडल्स की मदद से वैज्ञानिक यह जांच पहले ही कर चुके हैं कि SARS-CoV-2 का संक्रमण मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। आगे वैज्ञानिक यह जांच कर सकते हैं कि उपरोक्त में से प्रत्येक अणु किस तरह से अलग-अलग SARS-CoV-2 संस्करणों (SARS-CoV-2 variants) को संक्रमण में मदद करता है। वे यह अध्ययन भी कर सकते हैं कि मेज़बान की आनुवंशिक पृष्ठभूमि (genetic background) किस तरह से विभिन्न संस्करणों के संक्रमण के बाद रोग की प्रगति और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित कर सकती है। 

शोधकर्ताओं ने बारीकी से इस बात का अवलोकन किया है कि ये जंतु-मॉडल वास्तविक SARS-CoV-2 संक्रमण पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वैज्ञानिकों ने SARS-CoV-2 के संपर्क में आए विभिन्न चूहा स्ट्रेन (mouse strains) से ऊतक के नमूने लिए। फिर उन्होंने ऊतक के नमूनों की जांच की और उनकी तुलना कोविड-19 से पीड़ित मनुष्यों के पैथोलॉजिकल निष्कर्षों से की। वैज्ञानिको के विश्लेषण से फेफड़ों (lungs) में SARS-CoV-2 संक्रमण के लक्षण दिखाई दिए, जो मनुष्यों में SARS-CoV-2 संक्रमण के लिए सबसे कमज़ोर ऊतक भी है। अनुसंधान समूह ने माउस की प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को संक्रमण के प्रति लगभग उसी तरह से प्रतिक्रिया करते हुए भी देखा जो मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी दर्शाती थी। 

नए चूहा मॉडल में इन प्रतिक्रियाओं को पहचानकर, शोधकर्ताओं ने SARS-CoV-2-प्रेरित रोग की प्रतिरक्षा विविधता (immune diversity) या प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं की विस्तृत शृंखला को समझने के लिए एक आधार स्थापित किया है। नए चूहा मॉडल्स उभरते SARS-CoV-2 संस्करण (emerging SARS-CoV-2 variants) और महामारी पैदा करने की क्षमता वाले भावी कोरोनावायरस (coronavirus) की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए मूल्यवान साबित हो सकते हैं। 

इन नए चूहा मॉडल्स ने वैज्ञानिकों को यह स्पष्ट तस्वीर खींचने में मदद की है कि SARS-CoV-2 मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। ये माउस मॉडल कोविड-19 अनुसंधान समुदाय (COVID-19 research community) के सभी शोधकर्ताओं के लिए भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सा अनुसंधान के लिए लास्कर पुरस्कार

डॉ. सुशील जोशी

2024 का लास्कर-डीबेकी पुरस्कार (Lasker-DeBakey Award 2024) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के जील हेबनर (Joel Habener), रॉकफेलर विश्वविद्यालय की स्वेतलाना मोजसोव (Svetlana Mojsov) और नोवो लॉरडिस्क की लोटे ब्येरो नडसन (Lotte Bjerre Knudsen)। इन्होंने जीएलपी-1 (GLP-1 hormone) नामक हॉर्मोन के सक्रिय रूप को पहचाना और उसे वज़न घटाने की औषधि (weight loss medication) के रूप में विकसित किया।

दुनिया भर में अनुमानित 90 करोड़ वयस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। मोटापा कई घातक रोगों का कारण बनता है। पूर्व में मोटापे से निपटने के लिए कारगर औषधियों के विकास को ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। उक्त तीन वैज्ञानिकों ने जीएलपी-1 आधारित औषधियों का मार्ग प्रशस्त किया जो काफी उम्मीदें जगाता है।

एक नया हॉर्मोन

1970 के दशक में मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में कार्यरत एंडोक्रायनोलॉजिस्ट हेबनर का ध्यान डायबिटीज़ ने आकर्षिक किया था। आम तौर पर ग्लूकोज़ की उपस्थिति अग्न्याशय (pancreas) को इंसुलिन स्रावित करने के लिए प्रेरित करती है। यह इंसुलिन शर्करा को रक्त प्रवाह में से हटाकर कोशिकाओं में पहुंचाता है।

डायबिटीज़(diabetes) में होता यह है कि इंसुलिन की कमी के चलते रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ की मात्रा अधिक बनी रहती है जबकि कोशिकाएं भूखी मरती हैं। इंसुलिन की आपूर्ति करना डायबिटीज़ के एक उपचार के रूप में उभरा था लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा की तलाश जारी रही। पैंक्रियास द्वारा स्रावित एक अन्य हॉर्मोन – ग्लूकागोन – रक्त में शर्करा की मात्रा को बढ़ाता है। तो एक विचार यह आया कि यदि ग्लूकागोन को बाधित कर दिया जाए तो डायबिटीज़ रोगियों को मदद मिलेगी।

हेबनर ने सोचा कि वे ग्लूकागोन का जीन पृथक करेंगे। लेकिन उस समय नियमों के तहत यूएस में स्तनधारी जीन्स के साथ छेड़छाड़ की अनुमति नहीं थी। तो हेबन ने एंगलरफिश का सहारा लिया। एंगलरफिश के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी था कि इसमें एक विशिष्ट अंग होता है जो भरपूर मात्रा में ग्लूकागोन बनाता है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि पेप्टाइड हॉर्मोन बड़े प्रोटीन अणुओं में से बनते हैं, जब एंज़ाइम उन्हें विशिष्ट स्थानों पर काट देते हैं। 1982 में हेबनर ने रिपोर्ट किया कि एंगलरफिश का ग्लूकागोन जीन एक ऐसे पूर्ववर्ती प्रोटीन का निर्माण करवाता है जिसमें ग्लूकागोन के अलावा एक और पेप्टाइड होता है जो ग्लूकागोन जैसा ही है। इस प्रोटीन में दो अमीनो अम्ल – लायसीन-आर्जिनीन – जोड़ियां कई स्थानों पर पाई जाती हैं। यह वही जोड़ी है जो कई हॉर्मोन के पूर्ववर्ती प्रोटीन्स में कटान स्थल दर्शाती हैं। विचार यह बना कि इन स्थलों पर काटने से ग्लूकागोन भी मुक्त होगा और वह दूसरा पेप्टाइड भी।

इसके अगले वर्ष चिरॉन कॉर्पोरेशन (Chiron Corporation) के ग्रेम बेल ने पाया कि हैमस्टर का ग्लूकागोन जीन भी फिश पेप्टाइड के एक अन्य संस्करण को कोड करता है – इसे उन्होंने नाम दिया ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1)। आगे चलकर मनुष्यों तथा अन्य स्तनधारियों में भी ऐसे ही परिणाम मिले।

एक उपेक्षित चरण

स्वेतलाना मोजसोव ने ग्लूकागोन की क्रियाविधि का अध्ययन करने के लिए बड़ी मात्रा में इसके निर्माण के प्रयास में इस हॉर्मोन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने प्रोटीन संश्लेषण की एक नई विधि का उपयोग किया जो शुद्ध पदार्थ की पर्याप्त मात्रा बनाने के लिए पसंदीदा विधि बन चुकी थी।

1983 के आसपास मोजसोव ने मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में जीएलपी-1 के काम को आगे बढ़ाया। 1990 के दशक की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि आंतों में उपस्थित कतिपय पदार्थ पैंक्रियास को यह हॉर्मोन बनाने को उकसाते हैं। 1964 में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया था कि यदि ग्लूकोज़ को मुंह से लिया जाए तो वह ज़्यादा इंसुलिन उत्पादन को प्रेरित करता है बनिस्बत उसे इंजेक्शन के माध्यम से लेने पर। निष्कर्ष यह था कि आंतों में उपस्थित कोई चीज़ इंसुलिन स्राव को प्रेरित करती है। इन पदार्थों को इंक्रेटिन कहते हैं। उस समय तक ऐसे इंक्रेटिन्स की पहचान नहीं हो पाई थी। अब जीएलपी-1 एक उम्मीदवार के रूप में उभरा क्योंकि यह एक ऐसे हॉर्मोन (glucagon) से मेल खाता है जो रक्त-शर्करा के स्तर को प्रभावित करता है।

जीएलपी-1 के लिए 37 अमीनो अम्लों (amino acids) की शृंखला सुझाई गई थी और उन अमीनो अम्लों के अनुक्रम की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। यदि अलग-अलग प्रोटीन्स में एक से अमीनो अम्ल एक-से स्थानों पर पाए जाएं, तो माना जाता है कि वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। लेकिन जीएलपी-1 की शृंखला की शुरुआत में ऐसे अमीनो अम्ल पाए गए थे जो ग्लूकागोन में नहीं पाए जाते। जीएलपी-1 में पोज़ीशन 6 पर आर्जिनीन था। आर्जिनीन को जाने-माने मानव एंज़ाइमों द्वारा काटा जाता है। यदि इन प्रथम 6 अमीनो अम्लों को काटकर अलग कर दिया जाए तो शेष पेप्टाइड 37 नहीं बल्कि 31 अमीनो अम्ल लंबा होगा और यह ग्लूकागोन कुल के सदस्यों से पूरी तरह मेल खाएगा। मोजसोव ने यह पता करने के प्रयास शुरू कर दिए कि क्या जीएलपी-1 का लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] जीएलपी-1 के लंबे संस्करण [GLP-1 (1-37)] से मुक्त होकर उस अज्ञात इंक्रेटिन की भूमिका निभा सकेगा। इसके लिए उन्होंने दोनों शुद्ध पेप्टाइड का बड़ी मात्रा में संश्लेषण एक ही मिश्रण में किया। उन्होंने ऐसी एंटीबॉडीज़ भी बनाईं जो एक साझा स्थान पर इन दोनों पेप्टाइड्स से जुड़ें – अर्थात वे दोनों संस्करणों को पहचानने में मददगार थीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने मिश्रण में से GLP-1 (1-37) और GLP-1 (7-37) को अलग-अलग करने का तरीका भी खोज निकाला। अंतत: वे सक्रिय पेप्टाइड को पहचान पाईं।

इसके बाद मोजसोव ने पेप्टाइड्स(peptides) को रेडियोधर्मी (radioactive) परमाणुओं से चिंहित किया और फिर जीएलपी-1 एंटीबॉडीज़ की मदद से यह पता किया कि क्या जीएलपी-1 जंतुओं में दिखाई देता है। इसके बाद उन्होंने पेप्टाइड्स को अलग-अलग करके यह स्थापित किया कि लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] ही प्रमुख अंश है। यही आंतों में पाया जाता है।

मोजसोव और हेबनर द्वारा चूहों पर किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि लघु संस्करण GLP-1 (7-37) ही कार्यिकीय रूप से प्रासंगिक पेप्टाइड है।

तब हेबनर और मोजसोव ने मनुष्यों पर अध्ययन शुरू किए। पाया गया कि GLP-1 (7-37) इंसुलिन स्राव को उकसाता है और रक्त शर्करा का स्तर कम करता है। इसके डायबिटीज़ में उपयोग का रास्ता खुल गया।

वसा अम्ल (fatty acid), मोटापे में संभावनाएं

डायबिटीज़ के अलावा मोटापे से निपटने में जीएलपी-1 की भूमिका को लेकर नडसन पहले से सोच रहे थे। 1996 में एक शोध पत्र में बताया गया था कि चूहों के मस्तिष्क में जीएलपी-1 का इंजेक्शन लगाने पर उनका भोजन लेना एकदम से कम हो गया। शोध पत्र का निष्कर्ष था कि यह पेप्टाइड तृप्ति का संदेश देता है।

दिक्कत यह थी कि इंसानों में रक्त संचार में प्रवेश करने के मिनटों के अंदर जीएलपी-1 गायब हो जाता है। एक एंज़ाइम डीपीपी-4 इसे नष्ट कर देता है। बाकी बचे जीएलपी-1 को गुर्दे बाहर निकाल देते हैं। एक औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इसे इन प्रक्रियाओं से बचाना होगा। 

अंतत: रणनीति यह बनी कि जीएलपी-1 के साथ वसा अम्ल जोड़ दिए जाएं। ये वसा अम्ल रक्त संचार में काफी मात्रा में उपस्थित एलब्यूमिन नामक प्रोटीन से कुदरती रूप से जुड़ जाते हैं। एलब्यूमिन पदार्थों को पूरे शरीर में पहुंचाता है। नडसन का विचार था कि एलब्यूमिन जीएलपी-1 को रक्त संचार में ढोएगा और उसे डीपीपी-4 द्वारा विनाश से तथा गुर्दों द्वारा निष्कासन से भी बचाकर रखेगा।

नडसन की टीम ने कई सारे अलग-अलग जीएलपी-1 समरूप बनाए। अंतत: वे लिराग्लुटाइड नामक एक पदार्थ तक पहुंचे। इसका अर्ध जीवन काल 1.2 घंटे से बढ़ाकर 13 घंटे किया जा सका और 2010 में 1300 डायबिटीज़ टाइप-2 मरीज़ों के एक क्लीनिकल परीक्षण में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा और साइड प्रभाव न्यूनतम रहे। 2009 में युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और 2010 में यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने लिराग्लूटाइड को अनुमति दे दी।

इसी दौरान इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे थे कि जीएलपी-1 भूख कम करता है और वज़न घटाता है। एक महत्वपूर्ण अध्ययन में देखा गया कि डायबिटीज़-मुक्त लेकिन मोटे व अधिक वज़न वाले लोगों में लिराग्लूटाइड देने पर एक वर्ष में साढ़े पांच किलोग्राम तक वज़न कम हुआ। अंतत: इसे भी मंज़ूरी मिल गई। कोशिश यह चल रही थी कि दवा शरीर में ज़्यादा देर तक बनी रहे ताकि प्रतिदिन एक गोली की बजाय कम बार लेनी पड़े।

काफी मशक्कत के बाद एक ऐसा अणु मिल गया जो शरीर में पूरे 165 घंटे तक बना रहता था। इसे नाम मिला सेमाग्लूटाइड। इसे 2017 में डायबिटीज़ के उपचार के लिए तथा 2021 में मोटापे के इलाज के लिए अनुमति मिली। लिराग्लूटाइड के मुकाबले सेमाग्लूटाइड का असर लगभग दुगना होता है। परीक्षण के दौरान 16 महीने में प्रतिभागियों के वज़न में 12 किलोग्राम की कमी देखी गई और साइड प्रभाव न के बराबर देखे गए। लिराग्लूटाइड और सेमाग्लूटाइड ने नई दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया है।

मज़ेदार बात यह है कि जीएलपी-1 का डायबिटीज़ सम्बंधी असर तो पैंक्रियास पर होता है लेकिन भूख कम करने के असर को मस्तिष्क में देखा जा सकता है। इस असर की क्रियाविधि को समझने के प्रयास जारी हैं। यह भी बताया जा रहा है कि शायद यह औषधि कई अन्य बीमारियों में भी कारगर हो सकती है। जैसे जीर्ण गुर्दा रोग, फैटी लीवर रोग, अल्ज़ाइमर व पार्किंसन रोग तथा व्यसन सम्बंधी दिक्कतें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हड्डियों के विश्लेषण से धूम्रपान आदतों की खोज

हालिया अध्ययन में सदियों पुरानी हड्डियों (bones) का सूक्ष्म विश्लेषण कर धूम्रपान (smoking) करने वालों की पहचान की गई है। ये नतीजे इंग्लैंड (England) में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान तम्बाकू सेवन की आश्चर्यजनक जानकारी देते हैं कि न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएं और समाज के सभी वर्गों के लोग तम्बाकू (tobacco) सेवन किया करते थे। 

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह उल्लेख तो मिलता था कि 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड में धूम्रपान एक आम आदत थी – हर वर्ग के पुरुष तम्बाकूपान (tobacco consumption) करते थे। यहां तक कि मांग को पूरा करने के लिए अमेरिका (America) से भारी मात्रा में तम्बाकू आयात होती थी। लेकिन धूम्रपान के पुरातात्विक साक्ष्य दुर्लभ हैं। क्योंकि पहचान के पारंपरिक तरीके दांतों के घिसाव (teeth wear) और मिट्टी के पाइप जैसे सुरागों पर निर्भर थे, लेकिन खुदाई में सलामत बत्तीसी वाले कंकाल और पाइप बहुत ही कम मिले हैं। और कंकाल से फेफड़ों की क्षति का भी पता नहीं चलता। फिर, यह भी ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति धूम्रपान करके ही तम्बाकू सेवन करता हो, नसवार या खैनी भी तम्बाकू सेवन का माध्यम हो सकते हैं।  

इसलिए साइंस एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित इस अध्ययन में मानव हड्डियों में तम्बाकू के रासायनिक हस्ताक्षर (chemical signatures) पता लगाने के लिए मेटाबोलोमिक्स (metabolomics) का उपयोग किया गया। मेटाबोलोमिक्स का मतलब होता है कि शरीर में भोजन, दवाइयों व अन्य पदार्थों के पाचन से उत्पन्न पदार्थों का विश्लेषण। शोधकर्ताओं ने तरल क्रोमेटोग्राफी (liquid chromatography) की मदद से हड्डियों से चयापचय पदार्थ अलग किए। ये रासायनिक उप-उत्पाद (chemical byproducts) हैं और तम्बाकू जैसे पदार्थों को पचाने के बाद शरीर में बने रहते हैं। फिर उन्होंने इंग्लैंड में तम्बाकू के आने से पहले की हड्डियों और बाद की हड्डियों की तुलना करके रासायनिक अंतरों से उन लोगों की पहचान की जिन्होंने तम्बाकू सेवन किया था। विश्लेषण किए गए 323 से अधिक कंकालों में से आधे से अधिक नमूनों में लंबे समय तक तम्बाकू सेवन के प्रमाण मिले हैं। ये आंकड़े वर्तमान ब्रिटेन (Britain)  में धूम्रपान दर से चार गुना अधिक हैं।

हालांकि ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि विक्टोरिया युग (1830 से 1900) में धूम्रपान मुख्यत: पुरुष करते थे, इसमें बहुत कम महिलाओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह अध्ययन स्पष्ट करता है कि विक्टोरियन महिलाएं (Victorian women), यहां तक कि अमीर घरानों की महिलाएं, भी अक्सर धूम्रपान करती थीं। गरीब महिलाएं धूम्रपान के लिए सस्ते मिट्टी के पाइप का इस्तेमाल करती थीं जिससे उनके दांतों में गड्ढे बन जाते थे, वहीं अमीर महिलाएं एम्बर, लकड़ी या हड्डी से बने पाइप का इस्तेमाल करती थीं। ऐसे पाइप दांतों पर कोई स्पष्ट निशान नहीं छोड़ते। इससे यह समझा जा सकता है कि पिछले अध्ययनों में महिलाओं की धूम्रपान आदतें क्यों अनदेखी रहीं। शोध से स्पष्ट है कि तम्बाकू सेवन सभी सामाजिक वर्गों में आम था।

चूंकि ये चयापचय जनित पदार्थ लाखों वर्षों तक हड्डियों में बने रह सकते हैं, यह तकनीक प्राचीन मनुष्यों के व्यवहार (behavior) जैसे उनके आहार, मादक सेवन या तपेदिक जैसी बीमारियों को उजागर करने में मदद कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फोर्टिफाइड चावल से चेतावनी हटाने के निर्णय को चुनौती

पिछले कुछ वर्षों से देश की राशन दुकानों (ration shops) पर और आंगनवाड़ियों (Anganwadis) में जो चावल मिलता है उसमें कई पोषक तत्व मिलाए जाते हैं। इसे फोर्टिफाइड चावल (fortified rice) कहते हैं। इनमें एक पोषक तत्व लौह (iron) भी होता है। वर्ष 2022 में शुरू की गई इस योजना के संदर्भ में 2023 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में चिंता व्यक्त की गई थी कि थैलेसीमिया (thalassemia) और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) जैसे हीमोग्लोबीन सम्बंधी कुछ रोगों के रोगियों के लिए लौह का अतिरिक्त सेवन नुकसानदायक हो सकता है। तब फैसला यह हुआ था कि भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India, FSSAI) ऐसे फोर्टिफाइड चावल के पैकेट्स पर यह चेतावनी चस्पा करेगा कि थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित लोग इस चावल का सेवन न करें। दरअसल, खाद्य सुरक्षा व मानक (खाद्य पदार्थों का समृद्धिकरण) नियमन 2018 के मुताबिक ऐसे लोगों के लिए लौह का सेवन प्रतिबंधित है। विश्व भर से प्राप्त प्रमाण भी इस प्रतिबंध का समर्थन करते हैं। 

थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) से पीड़ित लोगों को अतिरिक्त लौह के सेवन से लिवर सिरोसिस (liver cirrhosis), कार्डियोमायोपैथी (cardiomyopathy), हृदय की नाकामी (heart failure), हायपोगोनेडिज़्म (hypogonadism), डायबिटीज़ (diabetes) और विलंबित यौवनारंभ जैसी दिक्कतों का जोखिम होता है। ऑनलाइन याचिका में लौह के अतिरेक से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (health risks) को लेकर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों का ज़िक्र भी किया गया है। 

फिलहाल लौह-फोर्टिफाइड चावल पर यह चेतावनी होती है कि ‘लौह-फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थ का सेवन थैलेसीमिया पीड़ित (thalassemia patients) व्यक्तियों को चिकित्सकीय देखरेख के तहत और सिकल सेल एनीमिया पीड़ितों को नहीं करना चाहिए।’ अब प्रस्ताव यह आया है कि यह चेतावनी हटा दी जाए। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research, ICMR) की एक समिति ने इसकी सिफारिश की है और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने खाद्य सुरक्षा एवं मानक (खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन) नियमन में संशोधन हेतु 18 सितंबर को एक मसौदा भी जारी किया है। 

इस प्रस्ताव ने व्यापक स्तर पर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं (health concerns) को जन्म दिया है। इस प्रस्ताव के विरुद्ध एक ऑनलाइन अभियान (online campaign) शुरू किया गया है। ऑनलाइन याचिका के मुताबिक यह चेतावनी व्यापक वैज्ञानिक विचार-विमर्श के उपरांत शामिल की गई थी। याचिका कहती है कि यह वैधानिक परामर्श सर्वप्रथम 2018 में काफी वैज्ञानिक विचार-विमर्श के बाद जोड़ा गया था। 

याचिका में स्पष्ट कहा गया है कि सामान्य परिस्थिति में भी कुपोषण (malnutrition) की समस्या के इलाज के रूप में फोर्टिफिकेशन (fortification) को बढ़ावा देना प्रमाण सम्मत नहीं है। एनीमिया (anemia) के प्रबंधन में लौह-फोर्टिफिकेशन अनावश्यक है और असरहीन है। कारण यह है कि एनीमिया सिर्फ लौह तत्व की कमी (iron deficiency) से नहीं होता, इसके कई अन्य कारण भी हैं। जैसे, फोलेट, विटामिन बी-12 (vitamin B12) की कमी, संक्रमण (infections) वगैरह। 

कोक्रेन अध्ययन (Cochrane studies) जैसे विश्वसनीय अध्ययनों का भी निष्कर्ष है कि सामान्य फोर्टिफिकेशन के लाभ अनिश्चित व अस्पष्ट हैं। स्वयं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि ‘एनीमिया में सुधार की दृष्टि से लौह-फोर्टिफाइड चावल और मध्यान्ह भोजन बराबर प्रभावी थे।’ 

इन निष्कर्षों के प्रकाश में उन लोगों को लौह फोर्टिफाइड चावल देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, जिनमें इसकी वजह से दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। जैसे सिकल सेल एनीमिया या थैलेसीमिया पीड़ित लोगों में अतिरिक्त लौह तत्व का सेवन न सिर्फ डायबिटीज़ का ज़ोखिम बढ़ा सकता है बल्कि अन-अवशोषित लौह की वजह से आंतों में सूक्ष्मजीवी असंतुलन (gut microbiota imbalance) को भी जन्म दे सकता है। 

भारत सरकार के खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग (Department of Food and Public Distribution) का एक अध्ययन भी बताता है कि कभी-कभी खाद्य पदार्थों में लौह का फोर्टिफिकेशन हीमोक्रोमेटोसिस (hemochromatosis) पीड़ित व्यक्तियों में लौह-अतिरेक पैदा कर सकता है। इसलिए लौह के अतिरिक्त सेवन की निगरानी किसी भी फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए। विभिन्न देशों में किए गए अध्ययन भी ऐसे ही परिणाम दर्शाते हैं। 

वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की जिस समिति को स्वास्थ्य चेतावनी पर सलाह देने के लिए गठित किया गया था, उसका कहना है कि अन्य देशों में भी ऐसी चेतावनी नहीं होती और विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization, WHO) भी ऐसी किसी चेतावनी का समर्थन नहीं करता। लेकिन याचिका में स्पष्ट किया गया है कि अन्य देशों में भी उपयुक्त लेबल (labeling) लगाए जाते हैं ताकि मरीज़ सोच-समझकर निर्णय कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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