सुबोध जोशी
अंतरिक्ष का यात्रा का अवसर मिलना एक दुर्लभ घटना है। दुनिया के अरबों लोगों में से अब तक सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही अंतरिक्ष यात्रा (space travel) का मौका मिला है। इसकी शुरुआत 12 अप्रैल 1961 को रूस के यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा के साथ हुई थी। पिछले 63 सालों से कुछ ज़्यादा की अवधि में मोटे तौर पर दुनिया भर के सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही यह मौका मिला है। ये 600 व्यक्ति भी गिने-चुने देशों के रहे हैं। अब तक दुनिया के सिर्फ तीन देश रूस, अमेरिका और चीन ही मानव सहित अंतरिक्ष यान (manned spacecraft) भेज सके हैं।
अंतरिक्ष यात्रा एक दुर्लभ क्षेत्र है और अंतरिक्ष यात्री (astronaut) के रूप में उन्हीं का चयन होता आया है जो अन्य योग्यताएं पूर्ण करने के साथ-साथ शारीरिक रूप से फिट हों। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरिक्ष में स्वास्थ्य सम्बंधी अनेक खतरों की संभावना रहती है। वहां सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण और भारहीनता (microgravity, weightlessness) की स्थितियों में रहना पड़ता है जिनके कारण शरीर में बदलाव आ जाते हैं। इनके प्रभाव पृथ्वी पर लौट आने के बाद भी काफी समय तक बने रहते हैं। कमज़ोर शरीर या स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए अंतरिक्ष यात्रा के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे घातक हो सकते हैं। अच्छी शारीरिक स्थिति और अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुने जाने के बाद गहन परीक्षणों और अनुकूलन प्रशिक्षण (adaptation training) से गुज़रना होता है।
इन सब कारणों से अब तक किसी विकलांग व्यक्ति को अंतरिक्ष यात्रा पर भेजने पर विचार तक नहीं किया गया था।
अब युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) ने एक अनोखी पहल करते हुए एक ब्रिटिश डॉक्टर और पैरालिंपियन जॉन मैकफॉल का चयन दुनिया के पहले पैरा-एस्ट्रोनॉट (parastronaut) के रूप में किया है। अंतरिक्ष यात्रा के लिए वे दुनिया के पहले विकलांग उम्मीदवार (disabled astronaut) हैं।
सेना में करियर बनाने के इच्छुक जॉन मैकफॉल 19 साल की उम्र में थाईलैंड यात्रा के दौरान एक मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गए थे जिसके कारण उनका दायां पैर घुटने के ऊपर से काटना पड़ा। उन्हें कृत्रिम पैर (prosthetic leg) लगाया गया था।
रोहेम्पटन हॉस्पिटल की विकलांग पुनर्वास विंग में ‘अवसर’ शीर्षक से उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका समापन उन्होंने इन पंक्तियों के साथ किया था:
“जो आंसू इस पन्ने को भिगो रहे हैं,
वे मायूसी के नहीं हैं
और न ही हताशा या अपराधबोध के हैं,
अपितु इस बात को नज़रअंदाज़ करने का पागलपन है
कि मेरा दिल अब भी धड़क रहा है
और मैं जिस दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा रहा हूं
उसके पीछे एक अवसर (opportunity) खुलने को है।”
जॉन मैकफॉल अपनी कविता में आपदा में अवसर की बात कर रहे थे। लेकिन सामान्य तौर पर भी विकलांग व्यक्तियों के जीवन में यह शब्द ‘अवसर’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। विकसित पश्चिमी देशों और पिछड़े एवं विकासशील देशों के विकलांग व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता के बीच सारा अंतर सामाजिक दृष्टि से ‘अवसर’ के अंतर के कारण है। विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में स्वीकार्यता और सकारात्मक रवैया हो और साथ ही समाज में उन्हें गैर-विकलांग व्यक्तियों के समान अवसर (equal opportunity) मिलें और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो तो वे न सिर्फ अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए समाज के उपयोगी सदस्य बन सकते हैं बल्कि ऐसे कार्य भी कर सकते हैं जिनसे सारे समाज को लाभ मिले। समाज में समानता और समावेशन (inclusion) उनका अधिकार है।
जॉन मैकफॉल ने अपने बुरे दौर में खेलों में भाग लेना शुरू किया था। पैर खोने के आठ साल बाद उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में भाग लिया और 100 मीटर रेस में कांस्य पदक (bronze medal) जीता। इसके बाद अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन (Cardiff University, School of Medicine) से एमबीबीएस (MBBS) की डिग्री हासिल की और ऑर्थोपेडिक सर्जन (orthopedic surgeon) बने। आगे उन्होंने विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान (medical science), खेल आदि कई विषयों में और पढ़ाई की। बीजिंग ओलंपिक के अलावा भी उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पदक जीते। दौड़ के अलावा कई साहसिक खेलों (adventure sports) में भी वे भाग लेते रहे। विज्ञान में शिक्षा और खेलों से मिली फिटनेस (fitness) ने उन्हें पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में चयन का पात्र बनाया।
बीजिंग ओलंपिक के बाद क्रिसमस पर उनके पिता ने उन्हें एक एटलस भेंट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था: “बेटा, हमेशा अतिरिक्त प्रयास करो। जीवन तुम्हें पुरस्कृत करेगा।” यह जॉन मैकफॉल का ‘अचेतन मंत्र’ बन गया।
“पैरा-एस्ट्रोनॉट फिज़िबिलिटी प्रोग्राम” (Parastronaut Feasibility Program) में जॉन मैकफॉल को कक्षा में आपातकालीन प्रक्रियाएं पूरी करने की क्षमता और सूक्ष्म-गुरुत्व (microgravity) में अपने आप को स्थिर रखने की क्षमता के बारे में कई महीनों का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। यदि उन्हें अंतरिक्ष यात्रा (space mission) पर भेजा जाता है तो वे चालक दल (crew) के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। साथ ही अंतरिक्ष यात्रा का उनकी विकलांगता और उनके कृत्रिम अंग (prosthetic limb) पर पड़ने वाले प्रभावों का भी परीक्षण किया जाएगा। चूंकि वे चालक दल के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, इसीलिए वे स्वयं को “पैरा-एस्ट्रोनॉट” की बजाय “एस्ट्रोनॉट” (astronaut) संबोधित किए जाने की वकालत करते हैं। उनका तर्क है कि वे एक “पैरा-सर्जन” और “पैरा-डैड” नहीं बल्कि एक सामान्य चिकित्सक (सर्जन) और सामान्य पिता हैं।
युरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) ने पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में जॉन मैकफॉल का चयन गहन वैज्ञानिक परीक्षण (scientific evaluation) के उद्देश्य से किया है। साथ ही ऐसा करके युरोपियन स्पेस एजेंसी ने सामाजिक दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में जहां विकलांग व्यक्ति समाज में स्वीकार्यता, समानता (equality), अवसर, भागीदारी और समावेश के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, विकसित यूरोपीय देश, अमेरिका और जापान समावेशी समाज निर्मित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं। युरोपियन स्पेस एजेंसी में 22 सदस्य देश (member countries) हैं। एजेंसी द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए विकलांग व्यक्ति का चयन करने का अर्थ है ये 22 देश विकलांग व्यक्तियों के प्रति शेष दुनिया से ज़्यादा संवेदनशील, सकारात्मक रवैये वाले और समावेशी समाज (inclusive society) निर्मित करने के प्रति ईमानदार हैं। ये देश न सिर्फ धरती पर बल्कि अंतरिक्ष में भी समावेशन की दिशा में कदम उठा रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति (scientific progress) के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ इस सामाजिक आयाम का समावेशन इस पहल को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। शेष दुनिया को इससे प्रेरणा लेते हुए कम से कम अपनी धरती पर समावेशी समाज निर्मित करने के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए।
जॉन मैकफॉल की अंतरिक्ष की उड़ान सचमुच हौसलों की उड़ान (flight of courage) होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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