डेढ़ सौ से ज़्यादा औषधि मिश्रणों पर प्रतिबंध

डॉ. सुशील जोशी

पिछले सप्ताह भारत सरकार ने 156 औषधि के नियत खुराक संयोजनों यानी फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन्स (Fixed Dose Combinations – FDCs) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया। इनमें आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले एंटीबायोटिक्स (Antibiotics), दर्द-निवारक (Painkillers), एलर्जी-रोधी दवाइयां तथा मल्टीविटामिन्स (Multivitamins) शामिल हैं। 

यह निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति तथा औषधि तकनीकी सलाहकार बोर्ड (Drug Technical Advisory Board – DTAB) की अनुशंसा के आधार पर लिया गया है। प्रतिबंध की अधिसूचना (21 अगस्त 2024) में इन FDC पर प्रतिबंध के मूलत: दो कारण दिए गए हैं: 

1. सम्बंधित FDC में मिलाए गए अवयवों का मिश्रण तर्कहीन है। इन अवयवों का कोई चिकित्सकीय औचित्य नहीं है। 

2. सम्बंधित FDC के उपयोग से मनुष्यों को जोखिम होने की संभावना है जबकि उक्त औषधियों के सुरक्षित विकल्प (Safer Alternatives) उपलब्ध हैं।

वैसे तो FDC के मामले में देश के चिकित्सा संगठन कई वर्षों से चिंता व्यक्त करते आए हैं। इस विषय पर विचार के लिए केंद्र सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2013 में सी. के. कोकाटे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने FDC के मुद्दे पर विस्तृत विचार-विमर्श के बाद कई FDC को बेतुका घोषित किया था। 

उस दौरान चले विचार-विमर्श का सार कई वर्षों पूर्व लोकॉस्ट नामक संस्था द्वारा प्रकाशित पुस्तक आम लोगों के लिए दवाइयों की किताब में प्रस्तुत हुआ था। आगे की चर्चा उसी पुस्तक के अंशों पर आधारित है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) की विशेषज्ञ समिति के अनुसार सामान्यतः मिश्रित दवाइयों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इनका उपयोग तभी किया जाना चाहिए जब वैकल्पिक इकहरी दवाइयां (Single Drug Alternatives) किफायती न हों। FDC से “साइड प्रभावों का खतरा बढ़ता है और अनावश्यक रूप से लागत भी बढ़ती है तथा तुक्केबाज़ीनुमा बेतुकी चिकित्सा को बढ़ावा मिलता है।” जब FDC का उपयोग किया जाता है, तब प्रतिकूल प्रतिक्रिया का खतरा अधिक होता है और यह पता करना मुश्किल होता है कि प्रतिक्रिया किस अवयव की वजह से हुई है। FDC इसलिए भी बेतुकी हैं कि उनकी स्थिरता (Stability) संदिग्ध है। लिहाज़ा कई मामलों में समय के साथ इनका प्रभाव कम हो जाता है।

जैसे, स्ट्रेप्टोमायसिन (टी.बी. की दवाई) और पेनिसिलीन के मिश्रित इंजेक्शन (अब प्रतिबंधित) का उपयोग बुखार, संक्रमणों और छोटी-मोटी बीमारियों के लिए बहुतायत से किया गया है। यह गलत है क्योंकि इसकी वजह से टी.बी. छिपी रह जाती है। इसके अलावा, हर छोटी-मोटी बीमारी में स्ट्रेप्टोमायसिन के उपयोग का एक परिणाम यह होता है कि टी.बी. का बैक्टीरिया (Mycobacterium Tuberculosis) इस दवाई का प्रतिरोधी हो जाता है। इसी प्रकार से स्ट्रेप्टोमायसिन और क्लोरेम्फिनेकॉल के मिश्रण का उपयोग (दुरुपयोग) दस्त के लिए काफी किया जाता था। इस पर रोक लगाने के प्रयासों का दवा कंपनियों ने काफी विरोध किया था मगर 1988 में अंततः इस पर रोक लग गई थी। दरअसल यह मिश्रण निरी बरबादी था क्योंकि दस्त के 60 प्रतिशत मामले तो वायरस की वजह से होते हैं और मात्र जीवन रक्षक घोल (Oral Rehydration Solution – ORS) से इन पर काबू पाया जा सकता है, बैक्टीरिया-रोधी दवाइयों की कोई ज़रूरत नहीं होती। क्लोरेम्फिनेकॉल का अंधाधुंध उपयोग भी खतरनाक है क्योंकि इससे एग्रेनुलोसायटोसिस जैसे जानलेवा रक्त दोष पैदा हो सकते हैं। जब इसका उपयोग मिश्रण के रूप में किया जाता है, तो टायफॉइड बैक्टीरिया इसका प्रतिरोधी होने लगता है। 

कई अन्य FDC को चिकित्सकीय दृष्टि से बेतुका पाया गया है। जैसे, विभिन्न एंटीबायोटिक्स के मिश्रण या उनके साथ कार्टिकोस्टीरॉइड्स या विटामिन जैसे पदार्थों के मिश्रण; बुखार और दर्दनिवारकों के मिश्रण जैसे इबुप्रोफेन+पेरासिटेमॉल (Ibuprofen+Paracetamol), एस्पिरिन+पेरासिटेमॉल (Aspirin+Paracetamol), डिक्लोफेनेक+पेरासिटेमॉल (Diclofenac+Paracetamol); दर्द निवारकों के साथ लौह, विटामिन्स या अल्कोहल के मिश्रण; कोडीन (Codeine) (जिसकी लत लगती है) के अन्य दवाइयों के साथ मिश्रण।

FDC के उपयोग के खिलाफ कुछ तर्क और भी हैं। एक है कि कई बार ऐसे मिश्रणों में दो एक-सी दवाइयों को मिलाकर बेचा जाता है जिसका कोई औचित्य नहीं है। इसके विपरीत कुछ FDC में दो विपरीत असर वाली औषधियों को मिला दिया जाता है। 

FDC अलग-अलग औषधियों की मात्रा के स्वतंत्र निर्धारण की गुंजाइश नहीं देती। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि FDC में मिलाई गई दवाइयों के सेवन का क्रम भिन्न-भिन्न होता है (जैसे एक दवाई दिन में दो बार लेनी है, तो दूसरी दवाई दिन में तीन बार)। ऐसे में मरीज़ को अनावश्यक रूप से दोनों दवाइयां एक साथ एक ही क्रम में लेना होती है। 

WHO के अनुसार FDC को निम्नलिखित स्थितियों में ही स्वीकार किया जा सकता है: 

1. जब चिकित्सा साहित्य में एक साथ एक से अधिक दवाइयों के उपयोग को उचित बताया गया हो। 

2. जब मिश्रण के रूप में उन दवाइयों का सम्मिलित असर अलग-अलग दवाइयों से अधिक देखा गया हो। 

3. जब मिश्रण की कीमत अलग-अलग दवाइयों की कीमतों के योग से कम हो। 

4. जब मिश्रण के उपयोग से मरीज़ द्वारा अनुपालन में सुधार हो (जैसे टी.बी. मरीज़ को एक से अधिक दवाइयां लेनी पड़ती हैं, और वे एकाध दवाई लेना भूल जाते हैं)। 

भारत में वर्तमान में जो FDC बेचे जाते हैं उनमें से ज़्यादातर तर्कसंगत नहीं हैं क्योंकि उनके चिकित्सकीय फायदे संदिग्ध हैं। उदाहरण से तौर पर निमेसुलाइड के नुस्खों की भरमार का प्रकरण देखा जा सकता है। सन 2003 में फार्माबिज़ (Pharmabiz) के संपादकीय में पी.ए. फ्रांसिस ने लिखा था: 

“…देश में निमेसुलाइड के 200 नुस्खे भारतीय औषधि महानियंत्रक (Drug Controller General of India – DCGI) की अनुमति के बगैर बेचे जा रहे हैं। इन 200 नुस्खों में से 70 तो निमेसुलाइड के सस्पेंशन हैं जबकि शेष 130 विभिन्न अन्य दवाइयों के साथ निमेसुलाइड के मिश्रण हैं। इस समूह में सबसे ज़्यादा तो निमेसुलाइड और पेरासिटेमॉल के मिश्रण हैं जिनकी संख्या 50 है। निमेसुलाइड और मांसपेशियों को शिथिल करने वाली दो दवाइयों (टिज़ेनिडीन और सेराशियोपेप्टिडेज़) के मिश्रण भी काफी प्रचलित हैं, इनके 52 ब्रांड्स उपलब्ध हैं। हैरत की बात यह है कि निमेसुलाइड के इतने सारे बेतुके मिश्रण देश में बेचे जा रहे हैं जबकि स्वयं निमेसुलाइड की सुरक्षा सवालों के घेरे में है…” 

कुल मिलाकर, FDC पर रोक का निर्णय स्वास्थ्य के क्षेत्र में सही दिशा में एक कदम है हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र के कई कार्यकर्ता और जानकारी मिलने तक कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। वर्तमान निर्णय के साथ एक दिक्कत यह है कि प्रत्येक FDC को लेकर विशिष्ट रूप से कोई विवरण नहीं दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/sci-tech/health/rjwmde/article67194496.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/NKV-GenericDrugs.jpg

क्या कॉफी वज़न कम करने में मददगार है?

कॉफी कई लोगों को सुबह की नींद से जगाने का एक लोकप्रिय पेय (morning beverage) है। लेकिन कई लोग मानते हैं कि जगाने के साथ-साथ यह भूख को भी शांत कर देती है (appetite control)। हाल ही में, सोशल मीडिया चलन (social media trend) के कारण वज़न घटाने में कॉफी का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। इस चलन को ‘कॉफी लूपहोल’ (coffee loophole) का नाम दिया गया है जिसमें कॉफी में मसाले या पूरक मिलाने या फिर भूख लगने पर इसे तुरंत पीने से वज़न घटाने में मदद मिल सकती है। लेकिन यह कितना सच है?

फिलहाल इस विषय पर कोई सीधे हां या ना में उत्तर मौजूद नहीं है, और शोधकर्ता अभी भी यह पता लगा ही रहे हैं कि कॉफी, विशेष रूप से इसमें मौजूद कैफीन (caffeine effects), वज़न को कैसे प्रभावित करता है। कुछ लोगों का मानना है कि कॉफी पाचन (digestion) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कैफीन बड़ी आंत की मांसपेशियों के संकुचन को तेज़ कर सकता है, जिससे मल त्याग आसानी से हो जाता है। इसके अलावा यह मूत्रवर्धक के रूप में भी काम करता है, जिससे मूत्र उत्पादन बढ़ता है, और शरीर के पानी का वज़न अस्थायी तौर पर कम हो सकता है (water weight)। लेकिन ये प्रभाव अल्पकालिक होते हैं और स्थायी वज़न घटाने (permanent weight loss) की ओर नहीं ले जाते हैं।

बहरहाल, वज़न घटाने में कॉफी के स्थायी प्रभाव का अभी भी अध्ययन किया जा रहा है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि किसी भी संभावित लाभ के लिए सिर्फ एक कप कॉफी से काम नहीं चलेगा (weight loss benefits)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/609cb41e59a10a9a/original/Two_hands_holding_coffee_drinks.jpg?crop=16%3A9%2Csmart&w=1920

एड्स से लड़ाई में एक और मील का पत्थर

जर्मनी में एक 60 वर्षीय व्यक्ति (HIV treatment) वायरस से मुक्त घोषित कर दिया गया है। वह दुनिया का ऐसा सातवां व्यक्ति है। लेकिन इस व्यक्ति के संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि वह ऐसा दूसरा व्यक्ति है जिसे ऐसी स्टेम कोशिकाएं (stem cell transplant) प्रत्यारोपित की गई थीं जो वायरस की प्रतिरोधी नहीं हैं। दरअसल इस उपचार के संयोजक कैंब्रिज विश्वविद्यालय के रविंद्र गुप्ता स्वयं अचंभित हैं कि इसने काम कर दिखाया। 

ऐसा पहला व्यक्ति टिमोथी रे ब्राउन था जिसे रक्त कैंसर (blood cancer) के उपचार के लिए अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण (bone marrow transplant) दिया गया था। इस प्रत्यारोपण के बाद वह एच.आई.वी. मुक्त हो गया। प्रसंगवश उसे अब बर्निल मरीज़ के नाम से जाना जाता है। ब्राउन व चंद अन्य मरीज़ों को जो स्टेम कोशिकाएं दी गई थीं उनमें एक जीन में उत्परिवर्तन था। यह जीन सामान्यत: CCR5 नामक ग्राही का निर्माण करवाता है। CCR5 वह ग्राही है जिसकी मदद से एड्स वायरस प्रतिरक्षा कोशिकाओं में प्रवेश करते हैं। इस प्रयोग के निष्कर्ष से कई शोधकर्ताओं को लगा कि शायद CCR5 ही एच.आई.वी. उपचार (HIV cure) के लिए सही लक्ष्य है।

और अब यह नया मामला म्यूनिख में पच्चीसवें अंतर्राष्ट्रीय एड्स सम्मेलन (International AIDS Conference) में रिपोर्ट हुआ है। इसमें शामिल मरीज़ को नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ कहा जा रहा है। नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ को एक ऐसे व्यक्ति की स्टेम कोशिकाएं दी गई थीं जिसकी कोशिकाओं में गैर-उत्परिवर्तित जीन की एक ही प्रतिलिपि थी – यानी ये कोशिकाएं CCR5 बनाती तो हैं लेकिन सामान्य से कम मात्रा में। इसका मतलब है आपको ऐसा दानदाता ढूंढना ज़रूरी नहीं है जिसमें जीन पूरी तरह काम न करता हो। अर्थात दानदाता ढूंढना कहीं ज़्यादा आसान हो जाएगा। कहते हैं कि युरोपीय मूल के लोगों में मात्र एक प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनके CCR5 जीन की दोनों प्रतिलिपियां उत्परिवर्तित होती हैं जबकि एक उत्परिवर्तित जीन वाले लोग आबादी में 10 प्रतिशत हैं।

किस्सा यह है कि नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ में एच.आई.वी. का निदान 2009 में हुआ था। वर्ष 2015 में उसमें रक्त व अस्थि मज्जा के कैंसर (acute myeloid leukemia) का पता चला। उसके डॉक्टरों को ऐसा मैचिंग दानदाता मिला ही नहीं जिसकी कोशिकाओं में CCR5 जीन की दोनों प्रतिलिपियां उत्परिवर्तित हों। अलबत्ता, उन्हें एक ऐसी महिला दानदाता मिल गई जिसकी एक CCR5 प्रतिलिपि में उत्परिवर्तन था। तो हमारे नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ को 2015 में प्रत्यारोपण मिला।

जहां तक कैंसर का सवाल था तो उसका उपचार ठीक-ठाक हो गया। एक माह के अंदर मरीज़ की अस्थि मज्जा की स्टेम कोशिकाओं का स्थान दानदाता की कोशिकाएं ले चुकी थीं। फिर 2018 में मरीज़ ने एच.आई.वी. का दमन करने वाली एंटी-रिट्रोवायरल औषधियां लेना बंद कर दिया। और आज लगभग 6 साल बाद उसके शरीर में एच.आई.वी. का कोई प्रमाण नहीं है।

अतीत में भी प्रत्यारोपण के प्रयास किए गए हैं लेकिन उनमें नियमित CCR5 जीन वाले दानदाताओं की स्टेम कोशिकाएं दी जाती थीं। इनमें जैसे ही मरीज़ एंटी-रिट्रोवायरल दवा लेना बंद करते, चंद सप्ताह या महीनों के बाद एच.आई.वी. पुन: सिर उठा लेता था। मात्र एक मामले में व्यक्ति 32 महीने बाद तक वायरस-मुक्त रहा था। यह मामला पेरिस के पाश्चर इंस्टीट्यूट के एसियर सेज़-सिरिऑन ने प्रस्तुत किया था – उसे जेनेवा मरीज़ कहा गया था।

अब शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि क्यों यही दो प्रत्यारोपण सफल रहे। इसके लिए कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। (HIV research)  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/styles/medium_crop_simple/public/2024-07/csm_hiv_phil-id18143_niaid_1046088585.png?VersionId=vbIWz18JSgq6uvzja8PNEPUILoRg0FUg

एड्स की रोकथाम में एक लंबी छलांग

हाल ही में एड्स 2024 सम्मेलन (AIDS 2024 Conference) में दक्षिण अफ्रीका की शोधकर्ता लिंडा-गेल बेकर ने एक परीक्षण का विवरण प्रस्तुत किया जिसमें सहभागियों को 100 प्रतिशत सुरक्षा मिली है। इस परीक्षण के दौरान 2000 से ज़्यादा अफ्रीकी महिलाओं को एक एंटीवायरस औषधि (Antiviral Drug) लेनाकापेविर साल में दो बार दी गई थी। यह औषधि दरअसल संपर्क-पूर्व रोकथाम (Pre-exposure Prophylaxis) के तौर पर दी गई थी। इनमें से एक भी महिला एड्स वायरस (HIV Virus) से संक्रमित नहीं हुई। यह परीक्षण सिस-जेंडर महिलाओं पर किया गया था। सिस-जेंडर मतलब वे महिलाएं जो पुरुषों के साथ यौन सम्बंध बनाती हैं।

फिलहाल इस क्षेत्र के अन्य शोधकर्ता अगले परीक्षण के नतीजों की प्रतिक्षा करना चाहते हैं जो यूएस व अन्य 6 देशों में ऐसे पुरुषों पर किए जाएंगे जो अन्य पुरुषों से यौन सम्बंध रखते हैं। इस परीक्षण के परिणाम 2025 में मिलने की उम्मीद है। 

वैसे तो दुनिया भर में नए एच.आई.वी. संक्रमणों (New HIV Infections) की संख्या में गिरावट आई है लेकिन राष्ट्र संघ का कहना है कि यह प्रगति धीमी पड़ गई है। उस लिहाज़ से नई औषधि महत्वपूर्ण है। हालांकि संपर्क-पूर्व रोकथाम औषधियां आज भी मौजूद हैं लेकिन उनका असर सीमित ही रहा है। कुछ औषधियां ऐसी हैं जिनकी एक गोली रोज़ाना लेनी होती है। ऐसा करना सामाजिक लांछन (Social Stigma) और प्रायवेसी के अभाव में संभव नहीं हो पाता।

एक इंजेक्शन कैबोटाग्रेविर (Cabotegravir Injection) भी उपलब्ध है जो दो महीने में एक बार दिया जाता है। इसे 2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने जोखिमग्रस्त समूहों के लिए अनुशंसित किया था। सिस-जेंडर महिलाओं में इसने गोली की तुलना में संक्रमण की रोकथाम 88 प्रतिशत दर्शाई थी।

पर्पज़-1 परीक्षण (Purpose-1 Trial) में दक्षिण अफ्रीका और यूगांडा की 2134 किशोरियों व युवा महिलाओं को हर 6 माह में लेनाकापेविर का इंजेक्शन दिया गया था। यह परीक्षण तब समाप्त कर दिया गया जब आधे सहभागियों को शामिल किए 1 वर्ष पूरा हो गया और 100 प्रतिशत सुरक्षा देखने को मिली। इसी परीक्षण के दो अन्य समूहों के 3000 सहभागियों को या तो प्रतिदिन एमट्रिसिटाबिन/टेनोफोविर (Emtricitabine/Tenofovir) की एक-एक गोली प्रतिदिन दी गई थी या इसी दवा का एक कम साइड इफेक्ट वाला संस्करण दिया गया था। इन समूहों में 50 नए एच.आई.वी. संक्रमण सामने आए जो सामान्य से बहुत कम नहीं था। ऐसे 10 प्रतिशत सहभागियों के खून की जांच से पता चला कि इन्होंने रोज़ाना एक गोली की बजाय शायद प्रति सप्ताह तीन या उससे भी कम गोलियां खाई थीं जो शायद संक्रमण का मुख्य कारण रहा।

लेनाकापेविर इंजेक्शन के माध्यम से दी जाती है और यह सवाल खड़ा है कि क्या लंबे समय तक नियमित रूप से इंजेक्शन लेते रहना आसान होगा। लेनाकापेविर इंजेक्शन त्वचा के नीचे के ऊतक में दिया जाता है। यदि सावधानीपूर्वक न दिया जाए तो यह काफी दर्दनाक हो सकता है। परीक्षण के दौरान ही (जहां बहुत सावधानी बरती जाती है) कुछ सहभागियों को इस तरह की तकलीफ हुई थी। बड़े पैमाने पर यह एक बड़ी समस्या हो सकती है। दूसरी समस्या है कि लेनाकापेविर महंगी (Expensive Drug) है, हालांकि इसके समाधान के प्रयास चल रहे हैं। 

लेनाकापेविर एक नए किस्म की औषधि है। यह वायरस की जेनेटिक सामग्री के आसपास बने आवरण (कैप्सिड) से जुड़ जाती है और वायरस के जीवन चक्र को छिन्न-भिन्न कर देती है। वैसे अभी तक वायरस में इसके खिलाफ प्रतिरोध (Resistance) विकसित करने का कोई मामला सामने नहीं आया है लेकिन लंबे समय तक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से बात अलग हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.medicusmundi.ch/de/assets/image-cache/uploads/images/news/2024/52547771970_cf8b6b9d92_c.7c2ad885.jpg

भस्म हो रहे उपग्रह प्रदूषण पैदा कर रहे हैं

हाल ही में स्पेसएक्स कंपनी (SpaceX Company) का फाल्कन रॉकेट (Falcon Rocket) अंतरिक्ष में पर्याप्त ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका था। तब 11 जुलाई के दिन इसके द्वारा छोड़े गए 20 स्टारलिंक उपग्रह (Starlink Satellites) यहां-वहां बिखर गए और दो दिन बाद ही वे पृथ्वी के वायुमंडल (Earth’s Atmosphere) में गिरकर भस्म हो गए।

यह तो चलो, दुर्घटना का मामला हो गया लेकिन इस तरह से उपग्रहों को उनकी कक्षा से बाहर करना उनसे निजात पाने का एक नियमित तरीका है ताकि वे अंतरिक्ष में भटकते हुए वहां मलबे (Space Debris) में इज़ाफा न करें। अब आज की स्थिति पर नज़र डालते हैं – कई अंतरिक्ष कंपनियां (Space Companies) हज़ारों उपग्रह कक्षा में स्थापित करने की योजना बना रही हैं। चिंता का विषय यह है कि जब ये उपग्रह बड़ी संख्या में अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे तो क्या होगा।

हाल के अनुसंधान से पता चला है कि ऐसे उपग्रहों से निकले धात्विक कण और गैसें हमारे वायुमंडल के समताप मंडल (Stratosphere) में वर्षों तक बने रह सकते हैं और शायद ओज़ोन (Ozone) के क्षय का कारण बन सकते हैं।

अभी तक उपग्रहों को ठिकाने लगाना कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसे उपग्रहों की तादाद बहुत कम थी। प्रति वर्ष करीबन सौ उपग्रहों को उनकी कक्षा से बेदखल किया जाता था। समतापमंडल (Stratosphere) काफी विशाल है – यह धरती से 10 किलोमीटर से लेकर 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैला है। लेकिन जब स्पेसएक्स कंपनी ने स्टारलिंक उपग्रहों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करके उन्हें अंतरिक्ष में भेजना शुरू किया, तो चिंता की स्थिति बनी। आज 6 हज़ार से भी ज़्यादा स्टारलिंक उपग्रह कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। कुल कामकाजी उपग्रहों (Operational Satellites) की संख्या तो लगभग 10,000 है। और तो और, स्पेसएक्स ने 30,000 और उपग्रह प्रक्षेपण (Satellite Launch) की अनुमति मांगी है। अन्य भी कहां पीछे रहने वाले हैं। अमेज़ॉन (Amazon) 3200 उपग्रहों के पुंज पर काम कर रहा है जबकि चीन इस अगस्त में 12,000 उपग्रह प्रक्षेपित करेगा। एक अनुमान के मुताबिक जल्दी ही उपग्रह-संचालकों (Satellite Operators) को प्रति वर्ष 10,000 उपग्रहों को ठिकाने लगाना होगा।

एक तुलनात्मक अध्ययन में लिओनार्ड शूल्ज़ और उनके साथियों ने बताया है कि फिलहाल ऐसे उपग्रहों को नष्ट करने पर जो पदार्थ पैदा होता है वह पृथ्वी पर होने वाली कुदरती उल्कापात (Meteor Showers) का मात्र 3 प्रतिशत होता है। लेकिन भविष्य में जब 75,000 उपग्रह कक्षाओं में होंगे तो यह पदार्थ उल्कापात की तुलना में 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। एक तथ्य यह भी है कि उल्काओं की अपेक्षा उपग्रह बड़े होते हैं और धीमी गति से जलते हैं। तो उनके द्वारा जनित कणीय पदार्थ कहीं ज़्यादा होगा।

उपग्रह जब वायुमंडल में वापसी करते हैं, तो जो असर समताप मंडल पर होता है, उसकी एक झलक यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) की रसायन प्रयोगशाला के डैनियल मर्फी तथा उनके साथियों ने पेश की है। नासा (NASA) के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया है कि समताप मंडल में गंधकाअम्ल (Sulfuric Acid) की महीन बूंदें तैर रही हैं जिनमें 20 अलग-अलग तत्व मौजूद हैं जो शायद उपग्रहों और रॉकेटों से आए हैं।

चिंता का मसला एल्यूमिनियम (Aluminum) है जो उपग्रहों में प्रयुक्त सबसे आम धातु होती है। यदि यह एल्यूमिनियम ऑक्साइड (Aluminum Oxide) या हायड्रॉक्साइड के रूप में तबदील हो जाए, तो यह हाइड्रोजन क्लोराइड (Hydrogen Chloride) से क्रिया करके एल्यूमिनियम क्लोराइड (Aluminum Chloride) बनाएगा। सूर्य के प्रकाश (Sunlight) के कारण एल्यूमिनियम क्लोराइड आसानी से टूटकर क्लोरीन (Chlorine) उत्पन्न कर सकता है जो ओज़ोन के लिए घातक होगी। इसके अलावा, धात्विक एयरोसॉल (Metallic Aerosols) समतापमंडल के बादलों पर आवेश पैदा कर सकते हैं जो क्लोरीन को मुक्त करके ओज़ोन को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

फिलहाल कई अन्य अनजाने असर भी सामने आ रहे हैं। जैसे उपग्रह के पुन:प्रवेश (Re-entry) पर एल्यूमिनियम के जलने की अनुकृति प्रयोगों का निष्कर्ष है कि 250 ग्राम के किसी उपग्रह के चलने पर 30 किलोग्राम एल्यूमिनियम ऑक्साइड नैनो कण (Nano Particles) पैदा होंगे। वर्ष 2022 में 2000 उपग्रहों को कक्षा से अलग किया गया था जिनमें एल्यूमिनियम ऑक्साइड का वज़न 17 टन था। इसी आधार पर देखें तो जब अंतरिक्ष में उपग्रहों के महा-नक्षत्र होंगे तो इसकी मात्रा प्रति वर्ष 360 टन आंकी जा सकती है।

उपग्रहों की बढ़ती संख्या की वजह से कई पर्यावरणीय असर (Environmental Impact) हो सकते हैं। इसके मद्देनज़र विचार करने की ज़रूरत है। जैसे इस बात पर विचार हो सकता है कि उपग्रह किन पदार्थों से बनाए जाएं या यह भी सोचा जा सकता है कि क्या कक्षा में सर्विसिंग (Satellite Servicing) या मरम्मत करके या ईंधन की व्यवस्था करके उपग्रहों का जीवनकाल बढ़ाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.theconversation.com/files/601683/original/file-20240619-19-3eb1g0.jpg?ixlib=rb-4.1.0&rect=82%2C14%2C2313%2C1332&q=20&auto=format&w=320&fit=clip&dpr=2&usm=12&cs=strip

नासा उवाच – मंगल पर जीवन के चिंह मिले हैं

नासा (NASA) ने घोषणा की है कि उसके परसेवरेंस रोवर (Perseverance Rover) द्वारा मंगल ग्रह (Mars) पर खोजी गई एक चट्टान पर ऐसे चिंह मिले हैं जो इस बात के प्रमाण हो सकते हैं कि मंगल पर अतीत में कभी सूक्ष्मजीवी जीवन (Microbial Life) रहा होगा। नासा के मुताबिक यह चट्टान इस बात का स्पष्ट प्रमाण देती है कि कभी यहां पानी (Water), कार्बनिक पदार्थ (Organic Matter) थे और ऐसी अभिक्रियाएं हुई थीं जो ऊर्जा का स्रोत हो सकती हैं।

लेकिन…जी हां लेकिन। इस निष्कर्ष को लेकर कई अगर-मगर हैं और सभी वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं। कइयों का तो कहना है कि मंगल की खोजबीन (Mars Exploration) के इतिहास में ऐसे कई ‘रोमांचक’ क्षण आए और गए हैं। ऐसी सबसे मशहूर चट्टान एलन हिल्स 84001 (Allan Hills 84001) रही है। यह दरअसल अंटार्कटिका में खोजी गई एक उल्का (Meteorite) थी। 1996 में साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि इसमें बैक्टीरिया के नैनो-जीवाश्म (Nano-Fossils) मौजूद थे। अलबत्ता, आज अधिकांश शोधकर्ता मानते हैं कि इस पर मिली ‘जीवाश्मनुमा’ रचनाएं जीवन के बगैर भी बन सकती हैं। इसी प्रकार का शोरगुल तब भी मचा था जब मार्स रोवर (Mars Rover) ने गेल क्रेटर (Gale Crater) में तमाम किस्म के कार्बनिक अणु (Organic Molecules) खोज निकाले थे। मार्स रोवर पर एक रासायनिक प्रयोगशाला भी थी।

लेकिन परसेवरेंस पर ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं है। वह जो भी चट्टानी नमूने (Rock Samples) खोदता है उन्हें एक कैप्सूल में भरकर जमा करता रहता है, जिन्हें बाद में मार्स सैम्पल रिटर्न मिशन (Mars Sample Return Mission) द्वारा पृथ्वी पर भेजा जाएगा। फिलहाल वह मिशन टल गया है। तो बगैर प्रयोगशाला के, महज़ चेयावा फॉल्स (Jezero Crater) से खोदी गई चट्टान के अवलोकनों के आधार पर सारा हो-हल्ला है। माना जा रहा है कि इस स्थान पर कभी कोई नदी (River) बहती थी। उसके साथ आई गाद ही अश्मीभूत हो गई है। इस चट्टान में कैल्शियम सल्फेट (Calcium Sulfate) से बनी शिराओं के बीच-बीच में चकत्ते हैं जैसे तेंदुओं की खाल पर होते हैं। नासा से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि ये चकत्ते ऐसी रासायानिक अभिक्रियाओं के संकेत हैं जो धरती पर सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा मुहैया कराती हैं।

रोवर पर लगे स्कैनर से चट्टान में कार्बनिक यौगिकों (Organic Compounds) की उपस्थिति का भी पता चला है। यह तो सही है कि ऐसे कार्बन यौगिक (Carbon Compounds) जीवन की अनिवार्य निर्माण इकाइयां होते हैं लेकिन ये गैर-जैविक प्रक्रियाओं से भी बन सकते हैं। सबसे रहस्यमयी तो तेंदुआ चकत्ते हैं – इन मिलीमीटर साइज़ के चकत्तों में फॉस्फोरस (Phosphorus) व लौह (Iron) पाए गए हैं। पृथ्वी पर ऐसे चकत्ते तब बनते हैं जब कार्बनिक पदार्थ जंग लगे लोहे से क्रिया करते हैं। यह क्रिया सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा प्रदान कर सकती है। लेकिन इस तथ्य की अन्य व्याख्याएं भी हैं। जैसे चट्टान में पाए गए खनिज यह भी दर्शाते हैं कि यह ज्वालामुखी के लावा (Volcanic Lava) से बनी हैं और लावा का उच्च तापमान किसी जीवन को पनपने नहीं देगा।

बहरहाल, परसेवरेंस अब तक 22 चट्टानें इकट्ठी कर चुका है। इनमें से कई में ऐसे पदार्थ मिले हैं जो पृथ्वी पर सूक्ष्मजीवों को सहारा दे सकते हैं। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ये नमूने पृथ्वी पर पहुंच पाएंगे क्योंकि यह काम बहुत महंगा (Expensive) है। कुछ लोगों का तो कहना है कि यह सारा हो-हल्ला फंडिंग (Funding) जारी रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.nasa.gov/wp-content/uploads/2024/07/1-pia26368-perseverance-finds-a-rock-with-16×9-1.jpg?resize=1024,576