सायबर अपराधों पर राष्ट्र संघ की संधि

हाल ही में राष्ट्र संघ ने पहली अंतर्राष्ट्रीय सायबर अपराध (cyber crime) संधि को मंज़ूरी दे दी है। जैसा कि सर्वविदित है, आजकल काफी सारा कामकाज इंटरनेट (internet) के माध्यम से होता है और इसका दुरुपयोग करके कई अवैध कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। जहां एक ओर, इंटरनेट ने आर्थिक लेन-देन को सुगम बनाया है, वहीं इसने ऐसी गुंजाइश पैदा की है कि कुछ लोग अपने गलत इरादों को कार्यरूप दे सकें। इसी के चलते सायबर अपराधों की रोकथाम एक प्रमुख सरोकार के रूप में उभरा है और राष्ट्र संघ संधि इसी को संबोधित करने का एक साधन है।

राष्ट्र संघ ने 2017 में इस संधि को अंतिम रूप देने के लिए एक समिति का गठन किया था। तीन साल के विचार-विमर्श और न्यूयॉर्क में दो सप्ताह लंबे सत्र के बाद अंतत: सदस्यों ने सर्व सम्मति से राष्ट्र संघ सायबर अपराध निरोधक संधि को मंज़ूरी दे दी। अब इसे अनुमोदन के लिए आम सभा के समक्ष पेश किया जाएगा। ऐसा माना जा रहा है कि अनुमोदन के बाद यह संधि सायबर अपराधों से ज़्यादा कारगर ढंग से निपटने में मदद करेगी, खास तौर से मनी लॉन्ड्रिंग (money laundering) और बच्चों के विरूद्ध यौन अपराध (child exploitation) जैसे मामलों में।

आम तौर पर देशों ने इस संधि का स्वागत किया है। खास तौर से उन देशों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिनके पास अपना सायबर इंफ्रास्ट्रक्चर (cyber infrastructure) बहुत विकसित नहीं है क्योंकि संधि में ऐसे देशों के लिए तकनीकी मदद का प्रावधान है। लेकिन कई संगठन संधि के आलोचक भी हैं। इनमें मानव अधिकार संगठन और बड़ी टेक कंपनियां (tech companies) प्रमुख हैं।

विरोधियों का मत है कि इस संधि का दायरा बहुत व्यापक है और यह सरकारों को निगरानी (surveillance) को सख्त करने की छूट देने जैसा है। जैसे, संधि में यह व्यवस्था है कि यदि कोई अपराध होता है, जिसके लिए किसी देश के कानून में चार साल से अधिक कारावास का प्रावधान है, तो वह देश किसी अन्य देश के अधिकारियों से मांग कर सकता है कि वे उस अपराध से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (electronic evidence) उपलब्ध कराएं। वह इंटरनेट सर्विस प्रदाताओं (internet service providers) से भी डेटा की मांग कर सकता है।

मानव अधिकार संगठन ह्यूमैन राइट्स वॉच ने कहा है कि यह निगरानी का एक बहुपक्षीय औज़ार है और एक मायने में दमन का कानूनी साधन है। इसका उपयोग पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, एलजीबीटी (LGBT) लोगों, स्वतंत्र चिंतकों वगैरह के खिलाफ राष्ट्रीय सरहदों के आर-पार हो सकता है। टेक कंपनियों के प्रतिनिधियों का कहना है कि यह संधि डिजिटल कामकाज (digital operations) और मानव अधिकारों के लिहाज़ से हानिकारक होगी।

दूसरी ओर, कई देशों का मत है कि इस संधि में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए ज़रूरत से ज़्यादा प्रावधान जोड़े गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस जो ऐतिहासिक रूप से इस मसौदे के लेखन का हिमायती रहा है, उसने कुछ दिन पहले यह शिकायत की है कि मसौदा मानव अधिकार सुरक्षा के प्रावधानों से लबरेज़ है। इसी तरह, अंतिम दौर में इरान ने कुछ ऐसी धाराओं को हटवाने का प्रयास किया जो ‘निहित रूप से गलत’ हैं। ऐसा एक पैरा था जिसमें यह कहा गया था कि “इस संधि की किसी भी बात की व्याख्या इस रूप में नहीं की जाएगी जिससे मानव अधिकारों तथा बुनियादी स्वतंत्रता के दमन” का आशय प्रकट हो। जैसे “अभिव्यक्ति, अंतरात्मा, मत, धर्म या आस्थाओं की आज़ादी”। विलोपन के इस प्रस्ताव के पक्ष में रूस, भारत, सूडान, वेनेज़ुएला, सीरिया, उत्तर कोरिया, लीबिया सहित 32 वोट पड़े जबकि विरोध में 102 वोट पड़े। 26 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया था। बहरहाल इस संधि को सर्व-सम्मति से पारित कर दिया गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.eff.org/files/issues/un-cybercrime-1b.jpg

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