भारत डोगरा
यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अब तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है। लाखों वर्षों तक धरती पर बहुत विविधतापूर्ण जीवन पनपने का आधार ही गंभीर संकट में है। धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने के अनेक कारण हैं – जलवायु बदलाव (climate change) व अनेक अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं (environmental issues), परमाणु हथियार (nuclear weapons) व अन्य महाविनाशक हथियार आदि।
वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों ने (जिनमें उस समय जीवित नोबल पुरस्कार (Nobel Prize) सम्मानित वैज्ञानिकों में से लगभग आधे शामिल थे) एक बयान जारी किया था। इसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर यह पृथ्वी इस कदर तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।”
आगे इन वैज्ञानिकों ने कहा था कि वायुमंडल (atmosphere), समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों पर तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों (life forms) में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही दूभर हो जाए। प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने ज़ोर देकर कहा था कि प्रकृति की इस तबाही को रोकने के लिए बुनियादी बदलाव ज़रूरी है।
वर्ष 1992 की चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर एक बार फिर विश्व के कई जाने-माने वैज्ञानिकों ने 2017 में एक नई अपील जारी की थी। इस पर 180 देशों के 13,524 वैज्ञानिकों व अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किए थे। इस अपील में कहा गया था कि जिन गंभीर समस्याओं की ओर वर्ष 1992 में ध्यान दिलाया गया था उनमें से अधिकांश समस्याएं पहले से अधिक विकट हुई हैं या उनको सुलझाने के प्रयास में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। केवल ओज़ोन परत (ozone layer) सम्बंधी समस्या में कुछ उल्लेखनीय सफलता मिली है। अस्तित्व को संकट में डालने वाली अन्य समस्याएं पहले की तरह गंभीर स्थिति में मौजूद हैं या फिर उनकी स्थिति और विकट हुई है।
स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर (Stockholm Resilience Center) के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। इस बहुचर्चित अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका उल्लंघन मनुष्य की क्रियाओं को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का उल्लंघन आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं हैं – जलवायु बदलाव (climate change), जैव-विविधता का ह्रास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव।
इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाओं के उल्लंघन की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र (phosphorus cycle), भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व वैश्विक स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।
ये विभिन्न संकट परस्पर सम्बंधित हैं व एक सीमा पार करने (जिसे टिपिंग पॉइंट (tipping point) कहा जाता है) पर धरती की जीवनदायिनी क्षमता की इतनी क्षति हो सकती है कि बहाली कठिन होगी।
इक्कीसवीं शताब्दी में पहले से कहीं गंभीर चुनौतियां मानवता के सामने हैं। एक वाक्य में कहें, तो यह धरती पर जीवन के अस्तित्व (existence of life) मात्र के लिए संकट उत्पन्न होने की शताब्दी है। धरती पर कई छोटे-मोटे बदलाव तो होते ही रहे हैं, पर धरती पर मानव के पदार्पण के बाद ऐसे हालात पहली बार इक्कीसवीं शताब्दी में ही निर्मित हुए हैं; मानव निर्मित कारणों से हर तरह के जीवन को संकट में डालने वाली स्थिति उत्पन्न हुई है।
इस संकट के तीन पक्ष हैं। पहला है पर्यावरणीय संकट। पर्यावरणीय संकट के भी अनेक पहलू हैं जैसे, जलवायु परिवर्तन (climate change), जल संकट, वायु प्रदूषण, समुद्र प्रदूषण, जैव विविधता का तेज़ ह्रास, फॉस्फोरस व नाइट्रोजन चक्र (phosphorus and nitrogen cycle) में बदलाव, अनेक खतरनाक नए रसायनों व उत्पादों का बिना पर्याप्त जानकारी के प्रसार, ओज़ोन परत में बदलाव (ozone depletion) आदि।
दूसरा पक्ष है, महाविनाशक हथियार (weapons of mass destruction), विशेषकर परमाणु, रासायनिक व जैविक तथा रोबोट हथियार। इनमें रासायनिक व जैविक हथियार प्रतिबंधित हैं तथा रोबोट हथियार अभी विकास की आरंभिक स्थिति में है। इसके बावजूद परमाणु हथियारों के साथ ये अन्य हथियार भी जीवन को संकट में डाल सकते हैं।
तीसरा पक्ष है, कुछ तकनीकों का एक सीमा से आगे विकास। जैसे जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) व रोबोटिक्स। अस्तित्व का संकट उत्पन्न करने वाले खतरों को तीन या अधिक श्रेणियों में विभाजित करने से उनकी समझ बेहतर बन सकती है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि ये संकट हमें अलग-अलग प्रभावित करेंगे। इनमें से कई संकट साथ-साथ बढ़ रहे हैं व हमें इनके मिले-जुले असर को ही सहना होगा। जलवायु बदलाव का असर जल-संकट, समुद्रों में आ रहे बदलावों, जैव विविधता के ह्रास आदि से नज़दीकी तौर पर जुड़ा हुआ है। दूसरी ओर, यदि परमाणु हथियारों का उपयोग वास्तव में होता है तो उसके बाद एक बड़े क्षेत्र में जो बदलाव आएंगे वे विभिन्न अन्य पर्यावरणीय संकटों के साथ मिलकर धरती की जीवनदायिनी क्षमता को प्रभावित करेंगे।
इसी तरह रोबोट तकनीक के नागरिक उपयोग से उसके सैन्य उपयोग की संभावनाएं बढ़ेंगी। कृषि व स्वास्थ्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के उपयोग से नए जैविक हथियारों की संभावनाएं खुलने लगती हैं। अर्थात ये विभिन्न खतरे एक-दूसरे से विभिन्न स्तरों पर जुड़े हुए हैं।
यह जानकारी कई दशकों से उपलब्ध है कि धरती पर ऐसे मानव-निर्मित खतरे उत्पन्न हो चुके हैं जो जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं। पर अफसोस कि ऐसे संकटों की गंभीर व प्रमाणिक चेतावनियां मिलने के बावजूद, विश्व नेतृत्व की इन खतरों को कम करने की कोई असरदार व टिकाऊ सफलता सामने नहीं आई है। ओज़ोन परत पर मॉन्ट्रियल समझौता (Montreal Protocol) को इस दिशा में सबसे उल्लेखनीय सफलता बताया जाता है, पर ऐसे कुछ छिट-पुट प्रयासों से समग्र स्थिति नहीं बदलने वाली है। ज़ाहिर है, विफलताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है, और सफलताओं की सूची बहुत छोटी है।
अतः स्पष्ट है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को खतरे में डालने वाली समस्याएं एक ऐसे अति संवेदनशील दौर में पहुंच रही हैं कि आगामी दशक बहुत निर्णायक सिद्ध होगा, संभवतः मानव इतिहास का सबसे निर्णायक दशक। अतः 2025-2035 के दशक को विश्व स्तर पर धरती की रक्षा के दशक के रूप में घोषित करना चाहिए। इस दशक में एक अभियान की ज़रूरत है ताकि धरती पर जीवन की रक्षा के प्रयासों को बल मिले। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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