अरविंद सरदाना
भारत में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) पर हाल ही की चर्चित रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले और चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। ‘राईज़ ऑफ दी बिलियोनेयर राज’ (Rise of the Billionaire Raj) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में सन 1922 से 2023 तक भारत में आय और दौलत की विषमता के बारे यह बताया गया है कि “वर्तमान भारत में विषमता (inequality) अंग्रेज़ों और राजा-महाराजाओं के ज़माने से भी अधिक है।” यह रिपोर्ट नितिन कुमार भारती (Nitin Kumar Bharti) एवं सहयोगियों द्वारा तैयार की गई है और विस्तृत आंकड़ों के आधार पर भारत में पिछले 100 वर्षों में लोगों की आर्थिक दशा उजागर करती है।
विषमता के क्या मायने हैं?
रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि हमारी विकास की योजनाएं (development plans) 10 प्रतिशत अमीरों (rich) को और अमीर कर रही हैं, जबकि बीच के लोगों को विकास का लाभ (benefits of development) नहीं मिल रहा है। बाकी 50 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाने (free food) का सहारा देना उनकी बेबसी की हालत दर्शाता है। विकास का यह दौर जिसमें बेरोज़गारी (unemployment), गरीबी (poverty) और बेबसी (helplessness) का मिश्रण बनता है, समाज में विकराल स्थिति (critical situation) पैदा करता है। यह स्थिति समाज में क्लेश (discord) और घृणा (hatred) को बढ़ा रही है और उम्मीद एवं भाईचारे (hope and brotherhood) को नष्ट कर रही है।
भारत में विषमता इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स (corporate tax) में बहुत छूट दी गई है। ऐसा करने के पीछे यह सोच रही है कि कंपनियां (companies) अपने बढ़े हुए मुनाफे (increased profits) से और अधिक निवेश करेंगी। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। फायदा सिर्फ कंपनियों के शेयर धारकों (shareholders) को हुआ। इससे अमीर और अमीर हो गए। इस संदर्भ में उस दौरान कई अर्थशास्त्रियों (economists) ने कहा था कि मूल समस्या बाज़ार में मांग की कमी (market demand) है। यदि मांग कमज़ोर है और कंपनियां ज़्यादा निवेश (more investment) कर भी देती हैं तो वे अपना उत्पादन (production) खपाएंगी कहां? यानी स्पष्ट है कि मांग बढ़ाने पर ही आर्थिक गतिविधियां (economic activities) पटरी पर आ सकती हैं। नोटबंदी (demonetization) और जीएसटी (GST) को बेतुके ढंग से लागू करने और उसके पश्चात कोरोना (coronavirus) के कारण हमारी अर्थव्यवस्था (economy) बहुत कमज़ोर हो गई थी।
हाल ही में ब्रिटेन की लेबर पार्टी (UK Labour Party) ने एक बहुत चर्चित वीडियो जारी करके समझाया है कि सरकार के लिए अरबपतियों (billionaires) को फायदा देने से बेहतर है आम जनता के लिए खर्च करना। इस धन को जनता आगे खर्च करती है और बाज़ारों में मांग (demand in markets) बढ़ती है। (इस वीडियो को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं – [https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/](https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/))
हमारी सरकार का आर्थिक नज़रिया (economic perspective) अधूरा भी है। जीडीपी (GDP) बढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन यदि इसकी व्याख्या ठीक से न की जाए, तो यह अधूरा लक्ष्य (incomplete goal) ही है। कई मुल्कों के इतिहास (history of countries) को खंगालने से यह पता चलता है कि जीडीपी बढ़ने से सरकार के खजाने में इज़ाफा (increase in government revenue) होता है। इन पैसों को यदि लोगों की शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health), एवं रोज़गार (employment) के लिए खर्च किया जाए तो कुछ वर्षों बाद लोगों की क्षमताएं (capabilities) बढ़ती हैं, और रोज़गार से आय (income) भी बढ़ती है। जब व्यापक स्तर पर ऐसा होने लगता है तो समाज में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) घटने लगती है। केवल जीडीपी बढ़ाना और लोगों के लिए खर्च करने के तर्क (arguments) को भूल जाना, विषमता को और बढ़ाता है। भारत में ऐसा ही हुआ है और इसी कारण आज विषमता अंग्रेज़ों के राज (British Raj) से भी अधिक है।
अधिक विषमता (inequality) समाज के ताने-बाने को नष्ट करती है। जिन के पास दौलत (wealth) है यह उनके लिए भी घातक सिद्ध होती है तथा इससे विश्वास (trust) टूटता है। इसके कुछ संकेत हम भारत में देख रहे हैं – 40 प्रतिशत संपत्ति (property) के मालिक 1 प्रतिशत लोग अपनी दौलत का कुछ हिस्सा विदेशों में निवेश (foreign investments) कर रहे हैं।
इसी संदर्भ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो शोधकर्ताओं (researchers) ने विकसित देशों के अनुभवों (experiences of developed countries) के प्रमाण के साथ एक पुस्तक प्रकाशित की है – **दी स्पिरिट लेवल: व्हाय मोर इक्वल सोसायटीज़ आलमोस्ट आल्वेज़ डू बेटर** (The Spirit Level: Why More Equal Societies Almost Always Do Better) (लेखक रिचर्ड विलकिन्सन और केट पिकेट) (authors Richard Wilkinson and Kate Pickett)। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह भ्रम बना हुआ है कि विषमता को दूर करना यानी एक से ले कर दूसरे को देना। विषमता को एक सीमा में रखना सब के लिए अच्छा सिद्ध होता है, जिन के पास है उनके लिए भी!
हमारे लिए ज़रूरी कदम
नितिन भारती और उनके सहयोगियों ने अपनी रपट में कुछ सुझाव (suggestions) भी रखे हैं। उनका कहना है कि अरबपति (billionaires) और बहुत अमीर करोड़पति (wealthy millionaires) पर विशेष टैक्स (special tax) लगना चाहिए। भारत में संपत्ति कर (property tax) एक समय था, पर उसे हटा दिया गया है। उसे नए स्वरुप (new form) में लागू करना चाहिए। इन कदमों से सरकार को जो आय प्राप्त हो उसे शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) पर खर्च करना चाहिए। इन मुद्दों पर बहस हो सकती है पर मुख्य बात है कि हमें अपनी विकास योजनाओं (development plans) की पूर्ण समीक्षा (thorough review) करनी होगी। खासकर रोज़गार (employment) के क्षेत्र में यह समझना होगा कि लघु उद्योग (small industries) और छोटे कारोबार (small businesses) में अधिक लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना (employment opportunities) बनती है और इसे विशेष प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। यह असंगठित क्षेत्र (informal sector) का हिस्सा है। संगठित क्षेत्र (formal sector) वह है जो भारी मशीन (heavy machinery), उच्च तकनीकी कौशल (technical skills) और पूंजी (capital) पर आधारित होता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया (production process) को तो मज़बूत करता है पर बहुत लोगों को रोज़गार (employment) नहीं देता। यहां यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health) एवं भोजन (food) की बुनियादी ज़रूरतों और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के ढांचों (infrastructure) को मज़बूत किए बिना हम रोजगार (employment) के नए मौके एवं कौशल-संपन्न लोग (skilled individuals) नहीं बना पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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